Saturday 30 December 2017

अनुष्का से पहले भी कई हीरोइनें पिच पर बोल्ड हुई!

  - एकता शर्मा

  फिल्म और क्रिकेट भारतीयों के रक्त में बसा है। फ़िल्मी कलाकारों और क्रिकेट खिलाडियों के प्रति दीवानगी छुपी नहीं रही। दोनों को ही भगवान की तरह पूजा जाता है! ये भी सच है कि क्रिकेट और अभिनय दोनों ऐसी विधाएं हैं, जिनकी राह आपस में कहीं नहीं मिलती! पर, दोनों में गहरा रिश्ता है! क्रिकेट खिलाडियों और फ़िल्मी एक्ट्रेसेस के बीच प्रेम प्रसंग, शादी और तलाक हमेशा ही चर्चित रहे हैं! फ़िल्मी हीरोइन अनुष्का शर्मा और भारतीय क्रिकेट के धमाकेदार बल्लेबाज विराट कोहली की शादी इन दिनों सुर्खियों में हैं! ये प्रेम प्रसंग लम्बे समय से क्रिकेट मैचों और हाईप्रोफाइल पार्टियों में सुर्खियाँ बटोर रहा था। अब दोनों ने अपने इस रिश्ते पर मुहर लगाई है। 
   करीब डेढ़ साल पहले हरभजन सिंह की ऑफ स्पिन पर एक्ट्रेस गीता बसरा भी बोल्ड हो चुकी हैं। हरभजन सिंह और गीता के बीच लम्बे समय तक प्यार चला! तेज गेंदबाज जहीर खान और एक्ट्रेस ईशा के रोमांस को भी हवा मिली थी! दोनों आठ साल तक रिलेशनशिप में रहे, पर दोनों ने ही इस रिलेशन को खत्म कर लिया! बाद में इसी साल जहीर खान ने एक्ट्रेस सागरिका घाटगे से शादी कर ली। धाकड़ बल्लेबाज युवराज सिंह और हेजल कीच ने भी लम्बे रोमांस के बाद शादी की रस्म निभा ली। वैसे फिल्मीं दुनिया में संभवतः ऐसा पहला रिश्ता शर्मिला टेगोर और मंसूर अली खान पटौदी में हुआ था! नवाब खानदान से जुड़े मशहूर बल्लेबाज मंसूर अली खान पटौदी से मोहब्बत के बाद दिसंबर 1969 को दोनों ने शादी की थी! भारत के मशहूर क्रिकेटर सलीम दुर्रानी का नाम भी एक्ट्रेस परवीन बॉबी के साथ लम्बे समय तक जुड़ता रहा। उन्होंने तो परवीन बॉबी के साथ हिंदी फिल्म 'चरित्रहीन' में बतौर नायक काम भी किया था। पर, ये संबंध कभी रिश्ता नहीं बन सके। क्रिकेट टीम के कप्तान रहे मोहम्मद अजहरउद्दीन और संगीता बिजलानी का रिश्ता भी काफी चर्चा में रहा! अजहर शादीशुदा थे, लेकिन संगीता के लिए उन्होंने अपनी पत्नी नौरीन को तलाक दे दिया और 1996 में दोनों ने शादी कर ली! अभी ये रिश्ता किस मोड़ पर है, इसे लेकर भी कई तरह की चर्चाएं हैं! 


  एक्ट्रेसेस का दिल सिर्फ भारतीय क्रिकेटरों पर ही निसार नहीं हुआ! वेस्टइंडीज, ऑस्ट्रेलिया और पाकिस्तान तक के क्रिकेटरों पर बॉलीवुड की हीरोइनों का दिल आया है! वेस्टइंडीस के बल्लेबाज विवियन रिचर्ड्स और एक्ट्रेस नीना गुप्ता बीच मोहब्बत के किस्से तब ख़बरों में आए जब नीना ने बगैर शादी के ही बेटी मसाबा को जन्म दिया! दोनों ने शादी नहीं की, पर ये रिश्ता आज भी कायम है! लेकिन, पाकिस्तानी बल्लेबाज मोहसीन खान और खूबसूरत हीरोइन रीना रॉय के बीच ये रिश्ता लम्बा नहीं चला! दोनों ने अप्रैल 1983 में शादी की थी। दोनों कराची रहने भी चले गए! क्रिकेट से संन्यास के बाद मोहसीन ने मुंबई में फिल्मों में भी किस्मत आजमाई, पर बात नहीं बनी! बाद में इस दोनों के बीच इतना तनाव उभरा कि इन्होने तलाक ले लिया। आईपीएल-2010 में ऑस्ट्रेलियाई तेज गेंदबाज शान टैट की मुलाकात मॉडल माशूम सिंघा से हुई! इसके बाद दोनों ने शादी कर ली! पहली बार दोनों आईपीएल की एक पार्टी में मिले थे! जून 2014 में मुंबई में शादी के बाद ये एडिलेड में बस गए हैं। शान क्रिकेट से जुड़े हैं और माशूम एक इवेंट मैनेजमेंट कम्पनी चला रही हैं।
  ये तो हुए वो किस्से जिनके प्यार को मंजिल मिली! ऐसे किस्सों की भी कमी नहीं है, जो अधूरे ही रहे! रवि शास्त्री जब भारतीय टीम के कप्तान थे, तब अमृता सिंह उन पर लट्टू हो गई थी। लेकिन, कुछ मतभेदों के कारण ये दोस्ती रिश्ते में नहीं बदल सकी! एक और क्रिकेट कप्तान सौरव गांगुली और नगमा को लेकर भी ख़बरें उडी! दोनों को कई बार आंध्रप्रदेश के शिव मंदिर में देखा गया! इस मुद्दे की वजह से सौरव और उनकी पत्नी डोना के बीच भी काफी विवाद होने की भी बातें सामने आई! बाद में नगमा ने इस संबंध को स्वीकार भी किया! पाकिस्तान के पूर्व खिलाडी वसीम अकरम और सुष्मिता सेन भी जब एक टीवी रिएलिटी शो में जज बनकर आए तो एक-दूसरे को दिल दे बैठे! लेकिन, इनकी बात भी आगे नहीं बढ़ी! ये किस्से अभी खत्म नहीं हुए! आगे भी क्रिकेट और बॉलीवुड हीरोइनों के बीच प्रेम प्रसंग के किस्से चर्चाओं में आते रहेंगे। 
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हिट को गिनों उँगलियों पर, फ्लॉप का बड़ा ढेर!

बीता बरस : बॉलीवुड

- एकता शर्मा 
बीते साल में कई फ़िल्में बनी, कई अटकी तो कई रिलीज भी हुई। पर, दर्शकों की पसंद वाली फिल्मों की संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है। 2017 में हिट हुई ज्यादातर फ़िल्में सीक्वल रही। बाहुबली-2, गोलमाल-अगेन, फुकरे : रिटर्न, जॉली एलएलबी-2, कहानी-2, जुड़वां-2 और 'टाइगर जिंदा हैँ' उन फिल्मों में है जो सीक्वल के रूप में बनी और दर्शकों को पसंद आई! इस साल कई ऐसी फिल्मों को भी दर्शकों ने पसंद किया जो लीक से हटकर थी और उनकी कहानियों में नयापन था। ये थीं हिंदी मीडियम, शुभमंगल सावधान, फिल्लौरी, इंदु सरकार, बादशाहो, मॉम, तुम्हारी सुलु और 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' जैसी नए सोच की फ़िल्में! इनमें से कुछ को पसंद किया गया, कुछ को नहीं पर फिल्मों का कथानक नया था। इनमें 'न्यूटन' को तो भारत से विदेशी भाषा श्रेणी में ऑस्कर में भेजा गया। साल के अंत में परदे पर आई सलमान खान की सीक्वल फिल्म 'टाइगर जिंदा है' की शुरूआती रिपोर्ट भी अच्छी है।        
 2016 की 'बाहुबली' के बाद दर्शकों को इस सीरीज की दूसरी फिल्म 'बाहुबली : द कन्क्लूजन' का बेसब्री से इंतजार था। सभी को ये जानना था कि 'कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा?' रिलीज के सिर्फ 21 दिन में ही 'बाहुबली : द कन्क्लूजन' ने दुनियाभर में 1500 करोड़ रुपए की कमाई की। साल की एक और कामयाब फिल्म रही रोहित शेट्टी की 'गोलमाल अगेन' जिसने बॉक्स ऑफिस पर 300 करोड़ रुपए का आंकड़ा पार किया। ये फिल्म पहले दिन से ही कमाई के कई रिकॉर्ड बनाने में कामयाब रही। 'गोलमाल अगेन' भारत की अब तक 10 सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्मों में भी शामिल हो गई है! 
  शाहरुख खान की 'रईस' ने 139 करोड़ रुपए की कमाई की। इस फिल्म में शाहरुख के अलावा पाकिस्तान की एक्ट्रेस माहिरा खान मुख्य भूमिका में थी। 'रईस' से पहले रिलीज हुई रितिक रोशन की 'काबिल' ने भी 126.85 करोड़ रुपए की कमाई की। फिल्म 'जॉली एलएलबी' का सीक्वल 'जॉली एलएलबी-2' को भी बॉक्स ऑफिस पर खासी कामयाबी मिली। इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर करीब 117 करोड़ रुपए की कमाई की है। अक्षय कुमार ने इस फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई! वरुण धवन और आलिया भट्ट की फिल्म 'बद्रीनाथ की दुल्हनिया' भी 100 करोड़ क्लब में पहुंचने में कामयाब रही! 
  वरुण धवन की फिल्म 'जुड़वाँ-2' को भी दर्शको ने काफी पसंद किया है। इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 138 करोड़ की कमाई की। अक्षय कुमार और भूमि पेडनेकर की फिल्म 'टॉयलेट : एक प्रेम कथा' को भी दर्शको ने काफी पसंद किया। अक्षय ने अपनी इस फिल्म से हमारे देश में शौचालय की समस्या से परेशान औरतों के लिए आवाज़ उठाई है। इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 134.22 करोड़ की कमाई की।    
  अब यदि 2017 की फ्लॉप फिल्मों का जिक्र किया जाए तो सलमान खान की 'ट्यूबलाइट' ऐसी फिल्म थी, जो साल की सुपर फ्लॉप फिल्म साबित हुई। 145 करोड़ में बनी यह फिल्म केवल 119.26 करोड़ का ही कारोबार कर पाई। फिल्म के फ्लॉप होने के कारण सलमान को डिस्ट्रीब्यूटर्स के नुकसान की भरपाई भी करना पड़ी थी। 'रंगून' 80 करोड़ के बजट में बनी थी, पर इस फिल्म को दर्शकों ने पहले दिन से ही नकार दिया। 'रंगून' बॉक्स ऑफिस पर केवल 20.68 करोड़ का कारोबार कर पाई। अनुराग बासु की फिल्म 'जग्गा जासूस' से दर्शकों को इससे काफी उम्मीदें थीं, लेकिन फिल्म को दर्शको ने इसे सिरे से खारिज कर दिया। 'बर्फी' का रणबीर कपूर का जादू इसमें बिल्कुल नहीं चला। 
  गोविंदा की कमबैक फिल्म 'आ गया हीरो' बॉक्स ऑफिस पर साल की बड़ी फ्लॉप साबित हुई। बॉलीवुड के सफलतम निर्देशकों में से एक अब्बास-मस्तान अपने बेटे को पहली फिल्म 'मशीन' को हिट का फार्मूला देने में नाकामयाब बने। सोनाक्षी सिन्हा की फिल्म 'नूर' ने बॉक्स ऑफिस पर मात्र 7 करोड़ का बिजनेस किया। यशराज बैनर की फिल्म 'बैंक चोर' से खास उम्मीद तो नहीं थी, पर ये इतनी बड़ी फ्लॉप होगी ये भी शायद किसी ने नहीं सोचा था। इस फिल्म का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन मात्र 8 करोड़ का रहा।
  120 करोड़ के बजट में बनी ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर केवल 54.16 करोड़ का कारोबार कर पाई। शाहरुख खान की 'जब हैरी मेट सेजल' से भी दर्शक आस लगाए बैठे थे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। लगभग 90 करोड़ में बनकर तैयार हुई 'जब हैरी मेट सेजल' जब सिनेमाघरों में आयी तो इसने केवल 64.33 करोड़ का कारोबार किया। 60 करोड़ के बजट में बनी 'राब्ता' भी मात्र 25.67 करोड़ का कारोबार करके सिनेमाघरों से उतर गई।
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Friday 15 December 2017

'बिग बॉस' के घर में सामने आई असली हिना!


- एकता शर्मा 

  फिल्म और टीवी के कलाकारों की 'रील लाइफ' और 'रियल लाइफ' में जो फर्क होता है, वही उनके परदे के चरित्र और मूल चरित्र में भी होता है। सामान्यतः दर्शकों को इन कलाकारों का रील लाइफ वाला चरित्र ही नजर आता है, उनका वास्तविक चेहरा छुपा ही रहता है। ये कलाकार भी इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनके चाहने वालों और दर्शकों के दिल, दिमाग में उनकी वही छवि बनी रहे, जो चरित्र वे परदे पर निभाते हैं। लेकिन, टेलीविजन के एक रियलिटी शो 'बिग बॉस' ने कई चेहरों को बेनकाब करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस शो ने दिखाया कि कलाकारों का मूल चरित्र उनके परदे वाले चरित्र जैसा बिल्कुल नहीं होता। ऐसे कई कलाकार हैं, जो परदे पर निगेटिव भूमिका निभाते हैं, पर वास्तविक जीवन में बेहद भले हैं। जबकि, कई चरित्र इसके ठीक उलट हैं।
  इस बार के 'बिग बॉस-11' में हिना खान भी एक ऐसी ही सेलिब्रिटी कंटेस्टेंट है, जिसका वास्तविक चरित्र देखने वालों के सामने आया। हिना ने 8 साल तक टीवी सीरियल 'ये रिश्ता क्या कहलाता है' में अक्षरा का किरदार निभाया। ये एक आदर्श बहू का किरदार था, जिसमें उन्हें जबरदस्त कामयाबी मिली। ये सीरियल देखने वालों की नजर में हिना खान उर्फ़ अक्षरा की छवि वास्तव में आदर्श बहू की बन गई थी। लेकिन, 'बिग बॉस' में हिना जैसी नजर आई, उसने उनकी सारी 'रील लाइफ' इमेज को धोकर रख दिया! क्योंकि, निजी जीवन में हिना बेहद निगेटिव नजर आ रही है। साथी कंटेस्टेंट से झगड़ा, गुटबाजी, झूठ बोलने की आदत, नकली आँसू बहाना और खुद को बड़ी एक्ट्रेस बताने के उनके ईगो ने उनकी 8 साल की उस मेहनत पर पानी फेर दिया।
   'बिग बॉस' में आने से पहले हिना रियलिटी शो 'खतरों के खिलाड़ी' के आठवें सीजन का भी हिस्सा बनी थी। हिना कई अन्य टीवी शो में भी दिखीं जिसमें 'सपना बाबुल का ... विदाई', 'नच बलिए : सीज़न 6', 'भाग बकुल भाग' जैसे शो हैं। 'बिग बॉस' के शो में जो भी नई कंट्रोवर्सी हो रही हैं, उन सभी में कहीं न कहीं हिना जरूर है। हिना 'बिग बॉस' के घर में जो भी करती हैं, उसमें उनका घमंड साफ़ नजर आता है। इसके अलावा उनकी सारी एक्टिविटी कैमरे के सामने की होती हैं।       
  'बिग बोस' के घर में हिना खान को ड्रामा क्वीन कहा जाने लगा है, जिनके रोने की आवाज तो आती है पर आँखों में आँसू नहीं निकलते। हाल ही में 'बिग बॉस' के घर में कंटेस्टेंट को अपने परिवार वालों से मिलवाने का एक टास्क हुआ था। इसमें हिना का बॉयफ्रेंड रॉकी जैसे ही आया हिना बेकाबू हो गईं! पूरे समय वे एक्टिंग करती रही! जब रॉकी जाने लगा तो हिना खान के अंदर की ड्रामा क्वीन जाग गई। उन्होंने जमकर ड्रामा किया। वे फूट-फूटकर रोईं, लेकिन उनका एक आँसू भी नहीं निकला! घरवालों ने उनका खूब मजाक बनाया। ख़ास बात ये कि रॉकी ने हिना से ये नहीं कहा कि वे देखने वालों को बहुत निगेटिव नजर आ रही हैं। यह भी नहीं बताया कि बाहर हिना की आलोचना हो रही है और सेलिब्रिटी से लगाकर आम दर्शक तक उनके एटीट्यूड को पसंद नहीं कर रहे! रॉकी उन्हें गलत बात बताकर गए कि वे बहुत अच्छा खेल रही है।
   'बिग बॉस' के घर में अपने बर्ताव के कारण हिना खान को बाहरी दुनिया में बहुत कुछ सुनाया जा रहा है। हिना का शिल्पा शिंदे और अर्शी खान पर लगातार अटैक करना फैंस को पसंद नहीं आ रहा! दर्शक तो सोशल मीडिया पर भी हिना को आड़े हाथों ले ही रहे हैं। टीवी कलाकार करण पटेल ने भी हिना को घर में आकर खरी खोटी सुनाई थी। करण ने तो ट्वीट किया 'वो जो मोहतरमा हैं बिग बॉस-11 के घर में जो बात-बात में थैंक्यू गॉड का राग अलापती हैं। कोई उनसे प्लीज पूछ कर बताए कि ये घटियापन क्या कहलाता है? कितना गंदा खेलोगी मैडम, भोली सूरत गंदी नीयत।
  'बिग बॉस' के घर के अंदर जो कुछ चल रहा है, बाहर उसका क्या असर हो रहा है, हिना उस असलियत से अंजान है। उसे नहीं पता कि इस सबसे उसकी इमेज कितनी ख़राब हो रही है। जिस अक्षरा के किरदार में हिना खान ने अपनी आदर्श बहू की छवि बनाई थी, उसे 'बिग बॉस' की असली हिना ने मटियामेट कर दिया। जब हिना 'बिग बॉस' के घर से बाहर निकलेगी, उनकी पहचान वैम्प के रूप में बन चुकी होगी। शो के एक कंटेस्टेंट विकास गुप्ता ने तो कह भी दिया कि हिना तुम वैम्प हो! घर में आग लगाने और झगडे करवाने के अलावा तुम्हारे पास कोई काम नहीं है!         
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उम्र के शतक से 5 साल दूर है 'ट्रेजडी किंग'

जन्मदिन : दिलीप कुमार


- एकता शर्मा 
   हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अभिनय के सरताज कहे जाने वाले दिलीप कुमार उर्फ़ युसूफ खान आज 95 साल के हो गए। अब वे उम्र का शतक लगाने से महज 5 साल दूर हैं। लेकिन, अभिनय का ये बादशाह इन दिनों निमोनिया से पीड़ित है और इस स्थिति में नहीं है कि अपना जन्मदिन मना सकें! डॉक्टर्स ने उन्हें इंफेक्शन से बचने की सलाह दी है। उनकी पत्नी सायरा बानो ने उनके जन्मदिन के बारे में जानकारी जरूर दी है कि दिलीप साहब के बर्थडे पर उनके परिवारवाले, रिश्तेदार, दोस्त सब मिलते हैं। दिलीप साहब को बहुत से चाहने वाले अपनी दुआएं भेज रहे हैं! मैं उनकी शुक्रगुजार हूं, धन्यवाद। सायरा ने चाहने वालों को बताया कि मुझसे लगातार पूछा जा रहा है कि इस बार उनका जन्मदिन कैसे मनाया जाएगा? इस पर सायरा ने कहा कि जिन्हें नहीं  पता, मैं उन्हें बता दूं कि हर साल उनके जन्मदिन पर घर फूलों से सजता है। हमारे घर के दरवाजे सभी रिश्तेदारों और दोस्तों के लिए खुले रहते हैं, ताकि वो आए और दिलीप साहब के साथ समय बिताएं! लेकिन, इस बार ऐसा नहीं होगा! क्योंकि, डॉक्टर्स ने उन्हें इंफेक्शन से बचने की सलाह दी है। 
   दिलीप कुमार को उनके दौर के बेहतरीन अभिनेताओं में गिना जाता है। त्रासद भूमिकाओं के लिए मशहूर होने के कारण उन्हें 'ट्रेजिडी किंग' की उपाधि भी मिली। 1995 में उन्हें दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1998 में उन्हे पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान-ए-इम्तियाज़ भी प्रदान किया गया। हिन्दी फ़िल्मों के एक प्रसिद्ध और लोकप्रिय अभिनेता है जो भारतीय संसद के उच्च सदन राज्यसभा के सदस्य रह चुके है। उनका जन्म 11 दिसंबर 1922 को पेशावर में हुआ। उनका जन्म नाम मुहम्मद युसुफ़ खान है। उनके पिता मुंबई आ बसे थे, जहाँ उन्होने हिन्दी फ़िल्मों में काम करना शुरू किया। उन्होंने फिल्मों में आने के बाद अपना नाम बदलकर दिलीप कुमार रख दिया, ताकि उन्हे हिन्दी फ़िल्मो में ज्यादा पहचान और सफलता मिले।
  उन्होंने उस दौर की लोकप्रिय अभिनेत्री सायरा बानो से 1966 में विवाह किया। विवाह के समय दिलीप कुमार 44 वर्ष और सायरा बानो की 22 वर्ष की थीं। 1980 में कुछ समय के लिए आसमां से दूसरी शादी भी की थी। 1980 में उन्हें सम्मानित करने के लिए मुंबई का 'शेरिफ' घोषित किया गया। उनकी पहली फ़िल्म 'ज्वार भाटा'(1944) थी। 1949 में आई फ़िल्म 'अंदाज़' की सफलता ने उन्हे प्रसिद्धी दिलाई। इसमें उन्होने राज कपूर के साथ काम किया। दीदार (1951) और देवदास (1955) जैसी फ़िल्मो में त्रासद भूमिकाओं के मशहूर होने के कारण उन्हे 'ट्रेजिडी किंग' कहा गया। मुगले एआज़म (1960) में उन्होने मुग़ल राजकुमार जहांगीर की भूमिका निभाई। यह फ़िल्म पहले ब्लैक एंड व्हाइट थी और 2004 में रंगीन बनाई गई। उन्होने 1961 में गंगा-जमुना फ़िल्म का निर्माण भी किया, जिसमे उनके साथ उनके छोटे भाई नासीर खान ने काम किया था।
  1980 के बाद उन्होंने चुनिंदा फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया। इस समय की उनकी प्रमुख फ़िल्मे थी: विधाता (1982), दुनिया (1984), कर्मा (1986), इज्जतदार (1990) और सौदागर (1991)। 1998 में बनी 'किला' उनकी आखरी फ़िल्म है। उन्होने रमेश सिप्पी की फ़िल्म शक्ति में अमिताभ बच्चन के साथ काम किया। इस फ़िल्म के लिए उन्हे फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी मिला। आज वे 95 साल के पूरे हो गए, शुभकामना है कि वे उम्र का शतक मारें।  
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Tuesday 5 December 2017

स्क्रीन पर रोमांस का आइकॉन नहीं रहा

स्मृति शेष : शशि कपूर

- एकता शर्मा
 'शशि' का मतलब होता है चाँद! जब चाँद दिखाई नहीं देता तो रात अँधियारी हो जाती है। कुछ ऐसा ही अहसास शशि कपूर के न रहने से हो रहा है। सत्तर और अस्सी के दशक में उन्हें बड़े पर्दे पर रोमांस के आयकन के तौर पर देखा जाता था। पृथ्वीराज कपूर के तीसरे बेटे बलबीर राजकपूर यानि शशि कपूर का निधन हो गया! वे 79 साल के थे। शशि कपूर की स्कूली पढाई मुम्बई के 'डॉन बास्को स्कूल में हुई। स्कूल में भी वे नाटकों में काम करना चाहते थे, लेकिन कभी रोल पाने में कामयाब नहीं हुए! उनकी यह तमन्ना पूरी हुई, अपने पिता के पृथ्वी थिएटर में! उन्होंने 1940 के दशक में ही फिल्मो में काम करना शूरू कर दिया था। शशि कपूर ने बचपन में कई धार्मिक फिल्मों में बाल कलाकार के भूमिकाएं निभाई! पिता पृथ्वीराज उन्हें स्कूल की छुट्टियों के दौरान स्टेज पर अभिनय करने के लिए प्रोत्साहित करते थे। इसके बाद बड़े भाई राज कपूर ने उन्हें 'आग' (1948) और 'आवारा' (1951) में रोल दिए। 'आवारा' में उन्होंने राजकपूर के बचपन का रोल किया था। 1958 में शशि कपूर ने जेनिफर केंडल से शादी की। उनकी तीन संताने हुई पुत्र कुणाल कपूर और करन कपूर तथा पुत्री संजना कपूर। 
  शशि कपूर ने बतौर हीरो सिने करियर की शुरुआत 1961 में यश चोपड़ा की फिल्म 'धर्मपुत्र' से की थी। उन्हें विमल राय की फिल्म 'प्रेम पत्र' में भी काम करने का मौका मिला। लेकिन, ये दोनों ही फ़िल्में चली नहीं! उन्होंने 'मेहंदी लगी मेरे हाथ' और 'हॉलिडे इन बॉम्बे' में काम किया, लेकिन ये भी बॉक्स ऑफिस पर नकार दी गई। 1965 का साल उनके लिए कामयाबी लाया औरउनकी फिल्म 'जब जब फूल खिले' प्रदर्शित हुई। बेहतरीन गीत, संगीत और अभिनय से सजी इस फिल्म की जबरदस्त कामयाबी ने शशि कपूर को हीरो के रूप में स्थापित कर दिया। 1965 में शशि कपूर की फिल्म 'वक्त' रिलीज़ हुई, जो अच्छी चली। इनकी सफलता से उनकी छवि रोमांटिक हीरो की बन गई। 1965 से 1976 के बीच कामयाबी के सुनहरे दौर में उन्होंने जिन फिल्मों में काम किया, उनमें अधिकांश हिट हुई। लेकिन, अमिताभ बच्चन के आने के बाद पर्दे पर रोमांस का जादू चलाने वाले इस अभिनेता का जादू खत्म होने लगा था। लेकिन, उनकी सबसे ज्यादा सफल जोड़ी भी अमिताभ के साथ ही बनी। दीवार, त्रिशूल, सुहाग, कभी-कभी, दो और दो पाँच, काला पत्थर, सिलसिला, शान, ईमान, रोटी कपडा और मकान, अजूबा जैसी फ़िल्में उन्होंने अमिताभ के साथ ही की!       
 अपने पूरे करियर में शशि कपूर ने 116 फिल्मों में अलग-अलग किरदार निभाए। सात फिल्मों में वे मेहमान कलाकार के तौर पर भी दिखाई दिए। शशि कपूर ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी कदम रखा और प्रयोगधर्मी फ़िल्में बनाई! जूनून, कलयुग, 36 चौरंगी लेन, विजेता और 'उत्सव' जैसी फ़िल्में बनाकर उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई। हालांकि, ये फिल्मे ज्यादा सफल नहीं हुई, लेकिन इन्हें समीक्षकों ने पसंद किया। 1991 में उन्होंने अमिताभ बच्चन को लेकर अपनी 'अजूबा' बनाई और निर्देशन किया। लेकिन, कमजोर पटकथा की वजह से फिल्म सफल नहीं हुई। 
  शशि कपूर को फिल्मफेर लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। उन्हें 1965 में आई फिल्म 'जब जब फूल खिले' के लिए श्रेष्ठ अभिनेता का बॉम्बे जर्नलिस्ट एसोसिएशन अवार्ड, 1984 में आई 'न्यू दिल्ली टाइम्स' के लिए राष्ट्रीय पुरुस्कार और 1993 में प्रदर्शित फिल्म 'मुहाफिज' के लिए स्पेशल जूरी का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। सन 2011 में उन्हें पद्मभूषण तथा 2015 में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 
  पृथ्वी थिएटर में काम करने के दौरान वे भारत यात्रा पर आए गोडफ्रे कैंडल के थिएटर ग्रुप 'शेक्सपियेराना' में शामिल हो गए। थियेटर ग्रुप के साथ काम करते हुए उन्होंने दुनियाभर की यात्राएं कीं और गोडफ्रे की बेटी जेनिफर के साथ कई नाटकों में काम किया। इसी बीच उनका और जेनिफर का प्यार परवान चढ़ा और 20 साल की उम्र में ही उन्होंने खुद से तीन साल बड़ी जेनिफर से शादी कर ली। कपूर खानदान में इस तरह की यह पहली शादी      थी। बॉलीवुड से वे लगभग संन्यास ले चुके थे। 1998 में आई फिल्म 'जिन्ना' उनके करियर की आखिरी फिल्म थी। 
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Friday 1 December 2017

सिर्फ कानून बनाने से अपराध कैसे रुकेंगे?

- एकता शर्मा 

    मध्य प्रदेश में 12 साल से कम उम्र की बच्चियों बच्ची के साथ दुष्कर्म या गैंगरेप करने वालों को कैबिनेट ने मृत्यु दंड की सजा देने के विधेयक को मंजूरी दे दी। विधानसभा के शीतकालीन सत्र में इस विधेयक को मंजूरी मिलने के बाद इसे मंजूरी के लिए राज्यपाल व राष्ट्रपति के पास भेजा जाएगा। देश में ये पहला मौका है जब इस तरह का कानून बनने जा रहा हैं, जिसे सबसे पहले मध्यप्रदेश सरकार लागू करेगी। लेकिन, सवाल उठता है कि क्या सिर्फ कानून बना देने से छोटी बच्चियों के साथ दुष्कर्म की घटनाएं बंद हो जाएँगी? क्या वास्तव में समाज में कानून का इतना डर है कि इस तरह की घटनाओं में शामिल लोग नए कानून से भयभीत होंगे? दरअसल, इसके लिए सबसे ज्यादा जरुरी है कानून का पालन करवाने का सख्त नजरिया!     
    यदि नया विधेयक कानून की शक्ल लेता है, तो ऐसी घटनाएं रुक जाएंगी, ऐसा मान लेना फिलहाल जल्दबाजी होगी। क्योंकि, इस तरह की घटनाएं कानून की धाराओं को याद करके कभी नहीं की जाती! हर व्यक्ति जानता है कि हत्या की सजा मृत्यु दंड भी हो सकती है, फिर भी हत्याएं कभी रुकी नहीं! यदि ये विधेयक कानून बनकर लागू हो गया तो सबसे ज्यादा जरुरत पुलिस की भूमिका में सुधार की होगी। क्योंकि, किसी आरोपी को सजा दिलाने में एफआईआर ही महत्वपूर्ण होती है और पुलिस वहीं से इसमें गड़बड़ी करती है और आरोपी को बचने का मौका मिलता है। दुष्कर्म के मामलों में आज तक जितने भी आरोपियों को सजा हुई है, उसका सबसे बड़ा कारण पुलिस की शुरूआती सशक्त भूमिका ही रहा है। बेहतर हो कि सरकार ऐसे मामलों के लिए के लिए पुलिस उप-अधीक्षक स्तर के अधिकारी को ही विवेचना का दायित्व सौंपे और इसके लिए फास्ट-ट्रेक कोर्ट बनाए, तभी इस तरह के किसी कानून की सार्थकता साबित होगी!       
  दुष्कर्म के मामलों में फलहाल कानून में धारा 376 लगाईं जाती हैं। लेकिन, नया विधेयक यदि कानून बना तो गृह विभाग इसमें दो नए प्रावधान 376 ए-ए तथा 376 बी-ए जोड़ेगा! ऐसी स्थिति में इस धारा के तहत 12 साल से कम उम्र की बालिकाओं के साथ दुष्कर्म के आरोपी को मृत्यु दंड तक की सजा सुनाई जा सकेगी। आरोपी को एक लाख रुपए का जुर्माना भी भरना होगा। नए प्रावधान के मुताबिक इस मामले में लोक अभियोजक को सुनवाई का अवसर दिए बिना आरोपी को जमानत भी नहीं मिलेगी। सरकार ने महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध जैसे शादी के बाद दुष्कर्म, छेड़छाड़, पीछा करना आदि के लिए कठोर कानून बनाने और संशोधन करने का प्रस्ताव भी विधेयक में किया है।
 इस विधेयक पर पहले भी विचार किया गया था। यह प्रस्ताव गृह विभाग में कैबिनेट की पिछली बैठक में रखा गया था। लेकिन, उस दौरान कुछ मंत्रियों ने इस पर आपत्ति जताई थी। उनका कहना था कि इसमें सुधार की जरुरत है। क्योंकि, अपराध करने के बाद कानून के डर से वो पीड़िता की हत्या भी कर सकते हैं! काफी हद तक ये बात सही भी है। ऐसे में सरकार ने भरोसा भी दिलाया कि मामले की पूरी छानबीन होने के बाद ही सजा सुनाई जाएगी ऐसे में इसका दुरूपयोग नहीं हो पाएगा। लेकिन, सजा से बचने के लिए आरोपी और उन्हें बचाने वाले हरसंभव कोशिश करते हैं और यदि ये कानून बन गया तो इसमें भी यही होगा! इसलिए सबसे ज्यादा जरुरी ही कि पुलिस विवेचना इतनी पुख्ता हो कि दुष्कर्म का कोई भी आरोपी कानून के हाथ से बचकर न निकल सके! 
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Saturday 25 November 2017

ये है नए मिजाज का हिंदी सिनेमा

- एकता शर्मा 

 सिनेमा का मिजाज बदल रहा है। इस बदलते हिंदी सिनेमा ने कई परंपरागत रूढ़ियों को तोड़ा दिया। इसने समय की नब्ज को पहचाना और नया दर्शक वर्ग तैयार किया। विषय, भाषा, पात्र, प्रस्तुति सभी स्तरों पर नए मिजाज के सिनेमा ने अपने आपको बदला है। दर्शकों ने भी सिनेमा के इस बदले और अपेक्षाकृत समृद्ध रूप को स्वीकार किया है। इधर कुछ ऐसी फिल्में भी बन रही हैं, जिन्होंने सिनेमा और समाज के बने-बनाए ढांचों को बदला है। क्वीन, बरेली की बरफी, शुभमंगल सावधान, लिपस्टिक अंडर माय बुर्का, तनु वेड्स मनु, तुम्हारी सुलू और सीक्रेट सुपरस्टार जैसी फिल्मों ने सिनेमा की बरसों पुरानी विचारधारा को नए ढंग से सोचने पर मजबूर कर दिया।    
   कंगना रनौत की फिल्म ‘क्वीन’ स्त्री स्वातंत्र्य और स्त्री अस्मिता से जुड़े पहलुओं को आधारभूत और जरूरी स्तर पर समझने की कोशिश करती है। ये एक आम लड़की के कमजोर होने, बिखरने और फिर संभलने की कहानी है। रानी नामक पात्र के माध्यम से फिल्मकार ने स्त्री की जिजीविषा और संघर्ष का बेहतरीन चित्रण किया है। 'बरेली की बरफी' और 'शुभमंगल सावधान' विशुद्ध मनोरंजन, सामाजिक और परिस्थिजन्य स्थितियों से उपजे हास्य की फिल्म है। ख़ास बात ये कि नए दौर की इन फिल्मों में स्त्री पात्रों को बहुत अहमियत दी गई है। 'तुम्हारी सुलू' का विषय भी बिल्कुल नया है और 'सीक्रेट सुपरस्टार' ने तो स्त्री पात्र को सम्पूर्णता दे दी! 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' तो इन सबसे चार कदम आगे है। फिल्म में नायक के रूप में प्रस्तुत इन फिल्मों की स्त्रियां अपने शर्म और संकोच की कैद से निकलने लगी हैं। ये कथित सभ्रांत समाज से बेपरवाह होकर ठहाके लगाती हैं, चीखती हैं, जोर-जोर से गाती और नाचती हैं! जब तक कि उनका मन नहीं भर जाता।
  इसी साल आई एक और बड़ी महिला प्रधान फ़िल्म आई 'मॉम।' जिसमें मुख्य भूमिका निभाई है अपने ज़माने की मशहूर अभिनेत्री श्रीदेवी ने। पिछले साल भी कई महिला प्रधान फ़िल्में बनी और बॉक्स ऑफिस पर काफी अच्छा बिजनेस भी किया। पीकू, पिंक, नीरजा, नील बटे सन्नाटा, डियर ज़िंदगी जैसी फ़िल्में पूरी तरह अभिनेत्रियों के कंधे पर टिकी थी। आमिर ख़ान के अभिनय से सजी फ़िल्म 'दंगल' भी एक तरह से महिला प्रधान फ़िल्म थी। 
  इस नए हिंदी सिनेमा में औरत की शख्सियत की वापसी होती दिखाई देती है। उनकी इस वापसी और जुझारूपन को दर्शकों ने भी हाथों हाथ लिया है। क्योंकि, दर्शक अब नायिका को शिफॉन साड़ियों की फंतासी से बाहर यथार्थ की खरोंचों के बीच महसूस करना चाहता है। वह आईने में अपने को देखना और खुद को जानना चाहता है। इन फिल्मों ने लैंगिक बहसों को भी नया मोड़ दिया है। यहां पुरुष स्त्री का शत्रु या उसका प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि उसका साथी है। वह अपने पुरुष अहंकार और वर्चस्ववाद से मुक्त होकर, स्त्री के मर्म और उसके अधिकारों को समझते हुए नए तरीके से अपना विकास कर रहा है। फिल्मों के इन स्त्री पात्रों के साथ-साथ पुरुषों की सामंती छवियां भी खंडित हुई हैं और अब ये पूरी तरह स्वीकार्य भी हैं।
  अब हिंदी सिनेमा ने दर्शकों की बेचैनी को समझा है, उसे आवाज दी है। अनुराग कश्यप, दिवाकर बनर्जी, इम्तियाज अली जैसे युवा निर्देशकों और जोया अख्तर, रीमा कागती, किरण राव जैसी सशक्त महिला फिल्मकारों ने हिंदी सिनेमा को तीखे तेवर दिए हैं। उसके रंग-ढंग बदले हैं। इनकी स्त्रियां जीने के नए रास्ते और उड़ने को नया आसमान ढूंढ़ रही हैं। दर्शक भी रोते-बिसूरते, हर वक्त अपने दुखड़े सुनाते चरित्रों पर कुछ खास मुग्ध नहीं हो रहा। उसे भी पात्रों के सशक्त व्यक्तित्व की खोज थी, जो अब पूरी हुई लगती है।
  आज सिनेमा ने मनोरंजन के अर्थ और पैमाने बदले हैं। सिनेमा ने समझ लिया है कि बदला हुआ यह नया दर्शक केवल लटकों-झटकों से संतुष्ट नहीं होने वाला, उसे कुछ नया और ठोस देना होगा। यही कुछ वजह है कि आमिर खान जैसे एक्टर और सिनेमा के असली व्यवसायी फिल्मकार को भी अपने किले से बाहर निकलना पड़ा और 'दंगल'  के बाद 'सीक्रेट सुपरस्टार' जैसी स्तरीय फिल्में बनाने को मजबूर होना पड़ा। अब मारधाड़, गुंडागर्दी, साजिशों और उलझी हुई कहानियों के दिन लद गए! आज के दर्शकों को चाहिए शुद्ध मनोरंजन जो उन्हें तीन घंटे तक सारे तनाव से मुक्त रखे और फिल्म की कहानी उसे अपनी या अपने आसपास की लगे!   
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Sunday 19 November 2017

कब तक नकली इतिहास परोसेंगे सीरियल?

- एकता शर्मा 

  टीवी सीरियलों को लेकर अकसर सवाल किए जाते हैं कि ये हमारी संस्कृति और परिवारों की पहचान के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं! लेकिन, आजकल भारतीय इतिहास के साथ मनोरंजन के नाम पर ख़ासा मजाक किया जा रहा है! कई चैनल्स पर इतिहास से जुड़े सीरियल चल रहे हैं! महाराणा प्रताप, सम्राट अशोक, जोधा-अकबर और मीरा बाई जैसे कई सीरियल दर्शक देख चुके हैं। अब 'पोरस' जैसे कुछ सीरियल शुरू होने वाले हैं। सिकंदर और पोरस के जन्म का दिन एक ही बताया जा रहा है, जबकि इतिहास में ऐसा कुछ नहीं है। इस तरह के सीरियलों के कथानक की सत्यता की कोई प्रामाणिकता नहीं है! इतिहास को तोड़ मरोड़कर उसे मनोरंजन बनाकर परदे पर दिखा देने से दर्शकों पर अलग ही प्रभाव पड़ रहा है!
  सीरियल के निर्माता और चैनल किसी विवाद और कानूनी उलझन से बचने के लिए इसके कथानक को इतिहास से अलग महज मनोरंजन होने की सफाई देकर 'डिस्क्लेमर' लगाकर खुद तो बरी हो जाता है, पर दर्शकों में एक बड़ा वर्ग है जो एक नए इतिहास से परिचित होने से नहीं बचता! ऐसे में जब कोई प्रामाणिक इतिहास का जिक्र करता है तो वह उस पर भरोसा नहीं करता! जिस तरह चंदबरदाई के चारणी साहित्य 'पृथ्वीराज रासो' में संयोगिता नाम का चरित्र गढ़कर जयचंद को गद्दारी का पर्यायवाची शब्द बना दिया! उसी प्रकार मुगले आजम, अनारकली, जोधा अकबर आदि फिल्मों ने एक मनगढ़ंत जोधा बाई नाम रच दिया, जो जनमानस के दिलो दिमाग से कभी निकल नहीं पाएगा!
  सीरियल के लेखकों ने इतिहास को नए सिरे से लिखकर उसे दूषित और विकृत कर दिया जाता है। कथानक में मनगढ़ंत किस्से और प्रसंग जोड़कर उसे मनोरंजक तो बना दिया जाता है, पर इसका सत्यता से कोई वास्ता नहीं होता! इतिहास को तोड़-मरोड़कर ऐतिहासिक पात्रों पर फ़िल्में बनने के बाद अब जिस तरह सीरियल बनाए जा रहे हैं, वो देश की संस्कृति के साथ मजाक ही है, इसका दुखद पहलु ये है कि इसकी तरफ सरकार का कोई ध्यान नहीं! देखा जाए तो इतिहास को प्रदूषित और विकृत करने में इन टीवी चैनल्स का सबसे बड़ा हाथ है। मनोरंजन के नाम पर दशकों पहले बनी फिल्म 'मुगले आजम' कोई भी यह मानने को तैयार नहीं था कि अकबर की किसी पत्नी का नाम जोधा बाई था! अकबर नामा, जहाँगीर नामा और अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुल फजल ने भी कहीं अकबर की किसी पत्नी का नाम जोधा नहीं लिखा था! लेकिन, 'मुगले आजम' बनने के बाद इसी विषय पर बनी फिल्म और सीरियल (जोधा अकबर) में इसी का जिक्र हुआ!
  'महाराणा प्रताप' सीरियल में भी असली कथानक से भटककर अनर्गल बातें दिखाई गई! मेवाड़ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ छेड़छाड़ करने के आरोप भी लगे! राजस्थान के एक राजपूत संगठन ने तो इसे लेकर अपना विरोध भी दर्ज कराया था। 'मीरा बाई' पर बने सीरियल में अनर्गल प्रसंग जोड़े जाने के आरोप लगे थे! वृंदावन यात्रा पर जा रही मीरा बाई के साथ मेड़ता के शासक वीरमदेव को जोधपुर के शासक मालदेव के भय से छुपते हुए दिखाया गया था! राजा मालदेव और वीरमदेव के बीच जंग दिखाई गई! घायल वीरमदेव द्वारा अपनी मृत्यु से पहले मालदेव को मारना भी दिखाया गया! जबकि, तथ्यात्मक इतिहास बताता है कि मालदेव का निधन वीरमदेव की मृत्यु के कई साल बाद हुआ था! यदि मालदेव और वीरमदेव आपसी झगडे में मारे गए होते तो फिर मालदेव की जयमल के साथ युद्ध कैसे होते? लेकिन, इतिहास की आड़ में सीरियल बनाने वालों को ऐतिहासिक तथ्यों से कोई सरोकार नहीं होता! उनकी नजर तो इतिहास की आड़ में साजिश और संघर्ष दिखाकर टीआरपी कमाने की होती है! इतिहास में ये मिलावट तब तक होती रहेगी, जब तक इसे रोकने कोशिश नहीं होती! 
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Saturday 11 November 2017

रोहित शेट्टी की फिल्म है तो बिंदास चलेगी!

- एकता शर्मा

  दिवाली पर रिलीज हुई फिल्म 'गोलमाल अगेन' को साल की सुपर हिट फिल्मों में गिना जा रहा है। इस फिल्म ने कमाई में आमिर खान के प्रोडक्शन में बनी फिल्म 'सीक्रेट सुपरस्टार' को पीछे छोड़ दिया। इस बात से इंकार नहीं कि 'गोलमाल अगेन' कॉमेडी मामले में पैसा वसूल फिल्म है। अजय देवगन से लगाकर सभी कलाकारों ने फिल्म में अपना शत-प्रतिशत दिया है। लेकिन, फिर भी फिल्म की सफलता का एक बड़ा कारण रोहित शेट्टी खुद हैं। आज उन्हें फिल्म की सफलता का ब्रांड मान लिया गया है। वे जितनी अच्छी कॉमेडी फ़िल्में बनाते हैं, उतनी ही महारथ उन्हें एक्शन फिल्मों में भी है। आज स्थिति ये है कि छोटे प्रोड्यूसर तो उनकी फिल्मों के आसपास अपनी फिल्म रिलीज करने से भी डरते हैं। इस बार आमिर खान को भी सबक मिल गया। क्योंकि, 'सीक्रेट सुपरस्टार' अच्छी फिल्म होते हुए, 'गोलमाल अगेन' के सामने फीकी पड़ गई!   
   रोहित शेट्टी फिल्माए जाने वाले एक्शन सीन्स की वजह से भी जाने जाते हैं। उनकी फिल्मों के एक्शन सीन में कारों को उछालने वाले दृश्य आमतौर पर फिल्माए जाते हैं। कई अन्य निर्देशक भी कारों वाले एक्शन सीन में रोहित शेट्टी मदद लेते हैं। वे सिर्फ एक्शन सीन फिल्माने वाले निर्देशक ही नहीं, सिनेमैटोग्राफर भी हैं। फिल्ममेकर के रूप में उन्होंने गोलमाल सीरीज, सिंघम सीरीज की दो फिल्मों के अलावा बोल बच्चन और 'चेन्नई एक्सप्रेस' भी बनाई जिसमें शाहरुख़ खान जैसे रोमांटिक कलाकार से भी एक्शन करवा ली। उनकी प्रतिभा ही है सभी फिल्मों ने बाॅक्स आॅफिस पर जमकर कमाई की है। 
  एक्शन और एक्टिंग तो रोहित शेट्टी के खून में है। उनकी माँ रत्ना शेट्टी फिल्मों में जूनियर आर्टिस्ट रही हैं। जबकि, पिता एमबी शेट्टी ने लम्बे समय तक फिल्मों में खूंखार गुंडे का रोल किया है, जो बोलते कम पर हाथ ज्यादा चलते थे। उन्हें फाइटर शेट्टी के नाम से भी जाना जाता था। बतौर निर्देशक रोहित शेट्टी ने 2003 में 'जमीन' से अपना कैरियर शुरू किया था। इसमें अजय देवगन, अभिषेक बच्चन, बिपाशा बसु थे, लेकिन यह फिल्म चली नहीं! उनका सिक्का चला 2006 में आई 'गोलमालः फन अनलिमिटेड' से जिसमें अजय देवगन, अरशद वारसी, तुषार कपूर, शरमन जोशी जैसे कलाकार थे। इसके बाद तो रोहित को फिल्मों की सफलता की कुंजी मान लिया गया। 2011 में आई 'सिंघम' और उसके बाद आई 'सिंघम रिटर्न' ने अजय देवगन को एक्शन के मामले में नया रूप दिया। इस फिल्म में अजय देवगन ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले पुलिस इंस्पेक्टर बाजीराव सिंहम का दमदार किरदार निभाया! फिल्म के एक्शन सीन और निर्देशन की काफी तारीफ हुई और अजय देवगन के काम को भी वाहवाही मिली। 
  उसके बाद आई 'चेन्नई एक्सप्रेस' में शाहरूख खान और दीपिका पादुकोण थे। ये घरेलू मार्केट में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली बाॅलीवुड की फिल्म बनी और ओवरसीज मार्केट में तीसरी सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्म। फिल्म ने बाॅक्स आॅफिस पर कई रिकाॅर्ड बनाए। इतनी व्यस्तता के बावजूद रोहित शेट्टी ने 2014 में टेलीविजन के स्टंट गेम शो 'फियर फैक्टरः खतरों के खिलाड़ी' का भी हिस्सा बने। वे टेलीविजन शो काॅमेडी सर्कस के जज भी रहे हैं। कहा जा सकता है कि रोहित शेट्टी मल्टी टेलेंटेड और बॉलीवुड में वन मेन शो हैं। 
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अभी उसे कई बार झेलना है उस पीड़ा को!

- एकता शर्मा 

 जब किसी लड़की के साथ दुराचार होता है, उसके बाद वो जिस पीड़ा से गुजरती है, उसे उससे बेहतर कोई नहीं जान सकता। लेकिन, इसके बाद कानून, पूछताछ और कार्रवाई का जो खेल शुरू होता है, वो उस दुराचार से भी ज्यादा तकलीफदेह और घिनौना होता है, जो उसने भोगा है। पहले दर्दनाक क़ानूनी कार्रवाई, फिर डॉक्टरी जांच, मेडिकल टीम के सवाल और पुलिस की पूछताछ के बाद अदालत में बेवजह के सवालों की झड़ी! ये सब उस लड़की को अंदर से तोड़कर रख देते हैं। दुराचार के बाद एक लड़की जीवनभर जिस अंतहीन पीड़ा से गुजरती है, ये कोई और जान भी नहीं सकता! फिलहाल इस दर्दनाक पीड़ा भोपाल की वो अनाम लड़की गुजर रही है, जिसके सपनों को दरिंदों तार-तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी! 
 अब उसने जिस दर्द को झेला है उसे कानूनी कार्रवाई के लिए बयां करना है, ताकि उसके जिस्म को नोचने वाले सजा पा सकें! जबकि, सच्चाई ये है कि ये सब भोगने वाली लड़की जिसे भूलाना चाहती है, उसे कानून, व्यवस्था और समाज भूलने नहीं देता। क्योंकि, दुराचार के बाद लड़की किस तरह चूर-चूर होती है, इस बात का अंदाजा कोई नहीं लगा सकता। जिस बदतर जिंदगी से लड़की को गुजरना होता है, उसका अंदाजा सिर्फ वो लड़की ही जानती है, जिसने उसे भोगा है। 
  जिस्म के भूखे भेड़ियों ने उसे किस तरह दबोचा था, इसका अंदाजा भी लगाना मुश्किल है! उन दरिंदों ने तो उसकी जिंदगी को तबाह ही कर दिया। वो चिल्लाती रही, रहम की भीख मांगती रही। उन्हें उसे सज़ा का डर दिखाती रही, लेकिन हवस के भेड़ियों को कुछ भी सुनाई नहीं दिया! उन पर तो जिस्मानी सुख का भूत सवार था। अपनी भूख मिटाकर वे भेडिये उसे वहीं छोड़कर भाग गए। फिर उसने अपने आपको समेटा और कानून के सामने पहुंची। पर उसे यहाँ भी इंसाफ नहीं मिला! शायद उसे अब कभी इंसाफ मिलेगा भी नहीं! क्योंकि, उसने खोया है उसकी पूर्ति न तो कानून कर सकता है न समाज और न परिवार! इसलिए कि ये ऐसा दुःख है जिसका अनुभव उसे हर सांस के साथ होगा।  
  अब जो होगा वो भी किसी जबरदस्ती से काम नहीं होगा! उससे पूछे जाने वाले सवाल भी किसी दूसरे दुराचार से कम नहीं होंगे। ऐसी घटनाओं के बाद पीड़िता का एसटीआई, एचआईवी और प्रेग्नेंसी टेस्ट किया जाता है। अभी तो मामला अदालत नहीं पहुँचा है, फिर वहाँ होता है तीसरा दुराचार! पुलिस और अदालती सवाल किसी भी पीड़िता को चिड़चिड़ा बनाने के लिए काफी होते हैं। क्योंकि, डॉक्टरों को उसे हर बार अपने साथ हुई ज्यादती की कहानी विस्तार से सुनाना पड़ती है। बेतुके सवाल किये जाते हैं, जिनका जवाब उसे मजबूर होकर देना ही पड़ता है। क्योंकि, यदि उन भेड़ियों को अपने गुनाह की सजा दिलाना है तो ये करना ही होगा। न चाहते हुए भी उसे यह सब तो करना ही होगा! यानी उसके साथ जो घटा, वो उसे चाहकर भी भुला नहीं सकेगी! क्योंकि, कार्रवाई, पूछताछ और फिर अँधा कानून तो आँख खोलकर उस दर्द को महसूस करने से तो रहा!  
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Sunday 5 November 2017

परदे का नया विवाद है भंसाली की 'पद्मावती'

- एकता शर्मा

 सिनेमा और विवादों का चोली-दामन का साथ है। ऐसे कई उदाहरण है जब फिल्मों को लेकर विवाद पनपे! अब एक नया विवाद सामने आया है संजय लीला भंसाली की फिल्म 'पद्मावती' को लेकर! इसकी कथित कहानी लेकर राजस्थान की राजपूत करणी सेना ने आपत्ति उठाई है! उन्हें लगता है कि फिल्म की कहानी ज्ञात इतिहास से अलग लिखी गई! जबकि, भंसाली ने इससे इंकार किया है। लेकिन, फिल्म की संभावित सफलता ने 'पद्मावती' के आसपास रिलीज होने वाली 8 फिल्मों को प्रभावित जरूर कर दिया। इस फिल्म के ट्रेलर ने ही 24 घंटे में डेढ़ लाख व्यूज के साथ रिकॉर्ड बना लिया। इसमें दीपिका पादुकोण और शाहिद कपूर मुख्य भूमिका में हैं और रणवीर सिंह ने सुलतान अलाउद्दीन खिलजी की भूमिका निभाई है। इस किरदार की एक झलक ने ही रणवीर सिंह ने फैन्‍स का दिल जीत लिया। हिंदी फिल्मकारों ने अभी तक मुग़लकाल से जुडी कहानियों पर ही ज्यादा फ़िल्में बनाई गई है। जोधा, अकबर, जहांगीर, शाहजहाँ, पसंदीदा करैक्टर साबित हुए।

  जयपुर में इसी साल जनवरी में जब 'पद्मावती' की शूटिंग शुरू हुई, तब राजपूत करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने संजय लीला भंसाली के साथ मारपीट की थी। इन लोगों ने फिल्म के सेट पर पहुंचकर काफी तोड़फोड़ भी की थी। इन्हें फिल्म की कहानी से जुड़े एक तथ्य पर आपत्ति जताते हुए ये कदम उठाने का दावा किया है। आरोप लगाया गया था कि ये फिल्म गलत तथ्यों पर बनाई जा रही है, यही कारण है कि हम इसका विरोध कर रहे हैं। करणी सेना का कहना है कि रानी पद्मावती के साथ अलाउद्दीन खिलजी का रोमांस दिखाने की कोशिश कथित तौर पर फिल्म में की जा रही है, जो गलत है। उन्होंने कहा कि पद्मावती वो महिला थीं, जिसने अपनी आन-बान-शान के लिए जौहर किया था! लेकिन, अभी तक फिल्म की कहानी सामने नहीं आई, इसलिए दावा नहीं किया जा सकता कि ये आरोप कितने सही हैं! हाल ही में गुजरात के एक शहर में 'पद्मावती' की सात घंटों में बनी भव्य रंगोली को भी करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने बिगाड़ दिया था। इसे लेकर काफी विवाद हुआ तब कहीं जाकर रंगोली बिगाड़ने वाले 5 लोगों को पकड़ा गया। 
 इतिहास पन्नों को पलटा जाए तो संजय लीला भंसाली से पहले साइलेंट फिल्मों के दौर में 1924 में बाबूराव पेंटर ने 'सति पद्मिनी' नाम से इसी कहानी पर फिल्म बनाई थी। चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी की एक झलक दिल्ली का नवाब अलाउद्दीन ख़िलजी देख लेता है। पद्मिनी को पाने के लिए वो चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण कर देता है। अलाउद्दीन ख़िलजी चित्तौड़ के राजपूतों को हरा तो देता है, पर पद्मिनी उसे नहीं मिलती! वो अलाउद्दीन के हाथ आने से पहले ही जौहर कर लेती है। कहा जाता है कि इतिहास में भी यही है। लेकिन, संजय लीला भंसाली की 'पद्मावती' की फिल्म के कथानक को लेकर अभी सिर्फ कयास ही लगाए जा सकते हैं।
 अपना इतिहास देखना सबको अच्छा लगता है। लेकिन, इतिहास को किताब में पढ़ने और परदे पर देखने में फर्क है। जब फिल्मकार इतिहास को फंतासी अंदाज परदे पर उतारता है, तो दर्शकों का रोमांचित होना स्वाभाविक होता है। लेकिन, इस बात की कोई गारंटी नहीं होती कि ये ऐतिहासिक फ़िल्में सफल हो ही जाएंगी! इन ऐतिहासिक फिल्मों का इतिहास बताता है कि ये फार्मूला ही हमेशा चला!
जब फिल्मों को आवाज मिली तो पहली बोलती फिल्म ही 'आलमआरा' कॉस्ट्यूम ड्रामा ही थी! निर्देशक सोहराब मोदी की यह हिंदी फिल्मों के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई। बाद में सोहराब मोदी ने पुकार, सिकंदर, पृथ्वी वल्लभ और झाँसी की रानी जैसी ऐतिहासिक फ़िल्में बनाई! 'झांसी की रानी' पहली टेक्नीकलर फिल्म थी।
  देखा गया है कि इतिहास से जुडी फिल्मों में भी महिला कैरेक्टरों को ही ज्यादा पसंद किया गया है। 'पद्मावती' भी इसी श्रृंखला की अगली कड़ी है। संजय लीला भंसाली ने इतिहास की रोचक कहानियों को खोजकर जिस तरह बड़े कैनवास पर फ़िल्में बनाने की शुरुआत की है तय है कि 'पद्मावती' के बाद वे और भी कोई कहानी नई कहानी खोज लाएंगे। जहाँ तक विवाद की बात है तो ये भी सच है कि ऐसे विवाद ही कई बार फिल्मों की सफलता का कारण बनते हैं। 
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इन फिल्मों को हीरोइन के लिए याद किया जाएगा!

- एकता शर्मा 

  बॉलीवुड का नजरिया हमेशा पुरुष प्रधान रहा है। अकसर ऐसे आरोप भी लगते रहे हैं। क्योंकि, फिल्मों के हीरो कभी ही मैन, कभी एंग्री यंग मैन और कभी प्रेम के बादशाह बन जाते हैं। लेकिन, हीरोइनों को कभी इस नजरिए से नहीं देखा जाता। उन्हें कभी ऐसे सम्मानजनक टाइटल  मिले। याद किया जाए तो ऐसी चंद फ़िल्में हैं जिसमें महिला किरदार ही प्रमुख थीं और फिल्म के चलने का श्रेय भी उन्हें ही मिला। 'मदर इंडिया' से 'लिपस्टिक : अंडर माय बुर्का' तक का समय काफी लम्बा रहा, पर ऐसी सभी फ़िल्में मील का पत्थर बन गईं।   
  सिनेमा में महिला किरदारों को 'वस्तु' की तरह इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे माहौल में कोई नारीवादी फ़िल्म आ जाए तो उसकी बात ही और होती है। ऐसी ही एक फिल्म 'लिपस्टिक : अंडर माय बुर्का' से बोल्ड, सुंदर और दमदार फ़िल्म कोई दूसरी नहीं है। ये विदेशों में भी प्रशंसा पा चुकी है और कई कारणों से इसे बोल्ड फिल्म कहा जा सकता है। ‘नारीवादी’ होने के कारण देश में इसे सेंसर बोर्ड ने प्रतिबंधित कर दिया था। पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं की सामाजिक अवधारणा को चुनौती देने वाली और महिलाओं की दैहिक इच्छाएं व्यक्त करने वाली इस फ़िल्म को हमारी संस्कृति के लिए हानिकारक माना गया। लेकिन, जब ये फिल्म रिलीज हुई तो दर्शकों ने इसे हाथों हाथ लिया।  
  महिला प्रधान फिल्मों की गिनती की जाए तो ऐसी ही एक फिल्‍म थी सत्तर के दशक की 'मदर इंडिया' जिसमें नरगिस दत्‍त की अदाकारी ने महिला किरदारों के लिए नया रास्‍ता खोला था। कुछ फिल्‍में हैं जिनमें नायिकाओं को केंद्र में लेकर फिल्‍में बनी और चली भी! विद्या बालन की अदाकारी के सभी कायल हैं। उनकी फिल्‍म 'कहानी' और बाद में इसके सीक्वेल में उनकी एक्टिंग देखकर दर्शक हैरान थे। ये वो हीरोइन है जो अपने दम पर फिल्‍म चलाने का माद्दा रखती है। फिल्म चलाना और उसे कामयाब बनाना विद्या की आदत है। 'डर्टी पिक्‍चर' भी विद्या की एक परफार्मेंस वाली फिल्‍म है, जिसमें वो बोल्‍ड और बिंदास दिखीं। प्रियंका चोपड़ा की 'सात खून माफ' और 'फैशन' भी ऐसी ही फिल्म है जो लीक से हटकर होने के साथ नायिका के किरदार में चार चाँद लगाती है। नायिका प्रधान फिल्मों में सीमा बिस्वास की 'बैंडिट क्‍वीन' को भी गिना जा सकता है। सीमा बिस्वास को लीड रोल बहुत नहीं मिले, लेकिन 'बेंडिट क्वीन' जैसी फिल्म ने उन्‍हें एक झटके में स्‍थापित कर दिया। 
  ऐसी चंद फिल्मों की फेहरिस्त में 'लज्‍जा' को भी गिना जा सकता है। जिसमे रेखा, मनीषा कोईराला, माधुरी दीक्षित और महिमा चौधरी जैसी अभिनेत्रियों के सामने अनिल कपूर और जैकी श्रॉफ जैसे बड़े नायक भी फीके पड़ गए थे। मुंबई की बार बालाओं के अंधेरे पहलुओं को जिस बारीकी से तब्बू ने 'चांदनी बार' में दर्शाया वो काम और कोई नहीं कर सका। अपने वक़्त की एक्ट्रेस मीनाक्षी शेषाद्री ने कई हिट फिल्‍में दीं। लेकिन, उन्हें आज भी 'दामिनी' में अपनी अदाकारी के लिए ही याद किया जाता है। रेखा की अभिनय क्षमता किसी की मोहताज नहीं है। लेकिन, 'खून भरी मांग' में उनका अवतार पहली बार दिखा और आज भी वे दर्शकों की आँखों में बसा है। इस फेहरिस्त में कंगना रनौत की 'क्‍वीन' का जिक्र होना जरुरी है। 
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Saturday 28 October 2017

इंतजार कीजिए भंसाली के भव्य कास्ट्यूम ड्रामे का!

- एकता शर्मा

  बड़े परदे पर एक और भव्य कॉस्ट्यूम ड्रामा रिलीज होने की तैयारी में है। ये है संजय लीला भंसाली की भारी बजट वाली फिल्म 'पद्मावती' जिसके रिलीज होने की तारीख ने करीब 8 फिल्मों की रिलीज को प्रभावित किया। 'पद्मावती' के ट्रेलर ने ही सिर्फ 24 घंटे में 1.50 लाख व्‍यूज मिले! ट्रेलर के सामने आने के बाद से ही फैन्‍स ही नहीं, बॉलीवुड की कई बड़ी हस्तियां भी भंसाली की इस आने वाली फिल्‍म की तारीफ कर चुकी हैं। 'पद्मावती' के ट्रेलर ने रिलीज होते ही एक रिकॉर्ड बना दिया। रणवीर सिंह, दीपिका पादुकोण और शाहिद कपूर की इस फिल्‍म की शूटिंग के दौरान निर्देशक भंसाली को कई परेशानियां झेलनी पड़ी है। 
  ट्रेलर के सामने के बाद से ही दीपिका पादुकोण और शाहिद कपूर के लुक के साथ ही रणवीर सिंह के नेगेटिव शेड वाले लुक की भी तारीफ हो रही है। 'पद्मावती' में रणवीर सिंह ने सुलतान अलाउद्दीन खिलजी की भूमिका निभाई है। इस किरदार की एक झलक ने ही रणवीर सिंह ने फैन्‍स का दिल जीत लिया। ये फिल्म पहली दिसम्बर को रिलीज होगी। हिंदी फिल्मकारों ने अभी तक मुग़लकाल से जुडी कहानियों पर ही ज्यादा फ़िल्में बनाई गई है। जोधा, अकबर, जहांगीर, शाहजहाँ, पसंदीदा करैक्टर साबित हुए।
  इस साल जनवरी में जब जयपुर में 'पद्मावती' की शूटिंग शुरू हुई थी, तब राजपूत करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने संजय लीला भंसाली के साथ मारपीट की थी। इसके अलावा करणी सेना के लोगों ने फिल्म के सेट पर पहुंचकर भी काफी तोड़फोड़ की थी। इस दल के लोगों ने फिल्म की कहानी से जुड़े एक तथ्य पर आपत्ति जताते हुए ये कदम उठाने का दावा किया है। आरोप लगाया गया था कि ये फिल्म गलत तथ्यों पर बनाई जा रही है, यही कारण है कि हम इसका विरोध कर रहे हैं। करणी सेना का कहना है कि रानी पद्मावती के साथ अलाउद्दीन खिलजी का जो रोमांस दिखाने की कोशिश कथित तौर पर  फिल्म में की जा रही है, जो गलत है। उन्होंने कहा कि पद्मावती वो महिला थीं जिन्होंने अपनी आन-बान-शान के लिए जौहर किया था! लेकिन, अभी तक फिल्म की कहानी सामने नहीं आई, इसलिए दावा नहीं किया जा सकता कि ये आरोप कितने सही हैं! हाल ही में गुजरात के एक शहर में 'पद्मावती' की सात घंटों में बनी भव्य रंगोली को भी करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने बिगाड़ दिया था।    
  संजय लीला भंसाली से पहले फिल्मों के साइलेंट दौर में 1924 में बाबूराव पेंटर ने 'सति पद्मिनी' नाम से इसी कहानी पर फिल्म बनाई थी। चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी की एक झलक दिल्ली का नवाब अलाउद्दीन ख़िलजी देख लेता है। पद्मिनी को पाने के लिए वो चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण कर देता है। अलाउद्दीन ख़िलजी चित्तौड़ के राजपूतों को हरा तो देता है, पर पद्मिनी उसे नहीं मिलती! वो अलाउद्दीन के हाथ आने से पहले ही जौहर कर लेती है। कहा जाता है कि इतिहास में भी यही है। लेकिन, संजय लीला भंसाली की 'पद्मावती' की फिल्म के कथानक को लेकर अभी सिर्फ कयास ही लगाए जा सकते हैं। 
 अपना इतिहास देखना सबको अच्छा लगता है। लेकिन, इतिहास को किताब में पढ़ने और परदे पर देखने में फर्क है। जब फिल्मकार इतिहास को फंतासी अंदाज परदे पर उतारता है, तो दर्शकों का रोमांचित होना स्वाभाविक होता है। लेकिन, इस बात की कोई गारंटी नहीं होती कि ये ऐतिहासिक फ़िल्में सफल हो ही जाएंगी! इन ऐतिहासिक फिल्मों का इतिहास बताता है कि ये फार्मूला ही हमेशा चला! 
जब फिल्मों को आवाज मिली तो पहली बोलती फिल्म ही 'आलमआरा' कॉस्ट्यूम ड्रामा ही थी! निर्देशक सोहराब मोदी की यह हिंदी फिल्मों के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई। बाद में सोहराब मोदी ने पुकार, सिकंदर, पृथ्वी वल्लभ और झाँसी की रानी जैसी ऐतिहासिक फ़िल्में बनाई! 'झांसी की रानी' पहली टेक्नीकलर फिल्म थी। देखा गया है कि इतिहास से जुडी फिल्मों में भी महिला कैरेक्टरों को ही ज्यादा पसंद किया गया है। देखना है कि 'पद्मावती' क्या कमाल करती है! वैसे फिल्म के ट्रेलर ने उस धमाके का अंदाजा तो करवा ही दिया, जो एक दिसंबर को होने वाला है। 
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Sunday 22 October 2017

धीरे-धीरे सीढ़ियां चढ़ेगी 'सीक्रेट सुपर स्टार'

- एकता शर्मा 

  किसी भी फिल्म की सफलता का दावा न तो कोई फिल्म पंडित कर सकता है न जानकार! लेकिन, नए विषय वाली कुछ ऐसी होती हैं जो खुद अपनी सफलता का संकेत देती हैं। ऐसी ही एक फिल्म है आमिर खान की 'सीक्रेट सुपर स्टार' जो दिवाली पर रिलीज हुई। फिल्म को दर्शकों ने उम्मीद के मुताबिक पसंद किया। दर्शक से लेकर समीक्षक तक फिल्म की तारीफ कर रहे हैं। फिल्म का पहले दिन का कलेक्शन ही फिल्म के लम्बे चलने का संकेत दे रहा है। 
  फिल्म पंडितों का कहना है कि फिल्म को माउथ पब्लिसिटी का फायदा मिलेगा। लेकिन, फिल्म की सही कमाई दर्शकों पर से 'गोलमाल अगेन' की खुमारी उतरने के बाद ही मिलेगा। ये दोनों फ़िल्में साथ में रिलीज हुई हैं। 'सीक्रेट सुपर स्टार' ने करीब 7 करोड़ की ओपनिंग दी है। छोटे बजट की फिल्म के लिए यह धमाकेदार है। फिल्म का बजट 30 से 35 करोड़ के आसपास है। आमिर खान की वजह से यह फिल्म 100 करोड़ के आंकडे करीब पहुँच सकती है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि आमिर खान बच्चों के साथ अच्छी केमिस्ट्री शेयर करते हैं। इसका उदाहरण 'तारें जमीं पर' और 'सीक्रेट सुपर स्टार' है।
  एक लम्बे समय बाद दिवाली पर आमिर खान की कोई फिल्म रिलीज हुई है। जिसका दर्शकों को बेसब्री से इंतजार था। इसमें आमिर बिलकुल अलग अंदाज में नजर आए हैं। फिल्म को डायरेक्ट किया है अद्वैत चंदन ने। ये उनके डायरेक्शन में बनने वाली पहली फिल्म है। फिल्म की कहानी बड़ोदरा की लड़की इंसिया (जायरा वसीम) की है। वह सिंगर बनना चाहती है, पर उसके सपने की अड़चन उसके पिता हैं। पिता के डर से वो कभी अपने सपने के बारे में बात नहीं करती। लेकिन, इंसिया की माँ नजमा बेटी के सपने को पूरा करने में मदद करती है। लेकिन, वो भी पति से डरती है। 
  फारुख की कोशिश है कि उसका परिवार सऊदी अरब चला जाए। जबकि, इंसिया अपने सपने को पूरा करने के लिए मुंबई जाना चाहती है। इसी बीच उसकी मुलाकात म्यूजिक डायरेक्टर शक्ति कुमार (आमिर खान) से होती है। इसके बाद कहानी में बहुत से मोड़ आते हैं! आमिर की हर फिल्म में कोई संदेश छुपा होता है। वैसे ही इस फिल्म में घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न की समस्या को दिखाया गया। कहानी बेहद सामान्य है, लेकिन आमिर के कारण सबकुछ खास अंदाज में फिल्माया गया। 
  अभिनय की अगर बात की जाए तो आमिर ख़ान अपने अलग ही अंदाज से दर्शकों को हंसाते और लुभाते हैं। इंसिया के किरदार में ज़ायरा वसीम फिल्म पर छा जाती हैं। निर्देशक अद्वैत चंदन ने वाकई शानदार सिनेमा गढ़ा है। मां-बेटी के भावनात्मक संबंधों के लिए, सपने देखने वाले हर उस दिल के लिए जो किसी बंधन में नहीं बांधता! आमिर ने तो टीजर रिलीज के दौरान ही फिल्म को सुपरहिट करार दिया था। नितेश तिवारी के निर्देशन में बनी दंगल में जहां दोनों पिता और बेटी के रोल में थे। वहीं 'सीक्रेट सुपर स्टार' में उनका किरदार गुरु और शिष्य का है। 
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Monday 16 October 2017

दिवाली पर किस फिल्म का जादू चलेगा?

- एकता शर्मा 

  समझा जाता है कि भारतीय दर्शक त्यौहारों पर अपनी ख़ुशी फिल्म देखकर ही व्यक्त करता है। शायद इसीलिए दिवाली, ईद, क्रिसमय और यहाँ तक कि गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर भी फ़िल्में रिलीज़ का ट्रैंड शुरू हो गया! क्योंकि, इन दिनों में अमूमन लोगों को फुरसत होती है और उन्हें सिनेमाघर तक खींचकर लाना आसान होता है। लेकिन, शुरूआती सफलता के बाद अब ये फार्मूला फेल होता नजर आ रहा है। क्योंकि, पिछले साल दिवाली पर रिलीज़ हुई दोनों फिल्में 'शिवाय' और 'ए दिल है मुश्किल' दर्शकों के दिल पर नहीं चढ़ी! यहाँ तक कि ईद पर रिलीज हुई सलमान खान की 'ट्यूबलाइट' ने भी पानी नहीं माँगा। देखना है कि इस साल सीक्रेट सुपर स्टार, गोलमाल अगेन और 2.0 क्या कमाल करती है! 

  फिल्मों की रिलीज और त्यौहारों का खास रिश्ता है। पिछले कुछ सालों से फिल्मकारों के बीच त्यौहारों पर फिल्म रिलीज करने को लेकर स्लॉट बुक करने की होड़ बनी रहती है। हर बड़ा एक्टर चाहता है कि उसकी फ़िल्में ईद, दिवाली और क्रिसमस के समय ही परदे पर उतरे! क्योंकि, इन त्यौहारों के छुटि्टयां ज्यादा होती है और फुर्सत में लोग सिनेमाघरों की तरफ रुख करते हैं। प्रोड्यूसर्स त्यौहारों के दौरान अन्य फिल्मों से टकराव नहीं चाहते! इसलिए अधिकांश निर्माता इन्हीं दिनों में अपनी फ़िल्में रिलीज करना चाहते हैं। लेकिन, जब ऐसा नहीं होता है, तो जंग शुरू हो जाती है। इसलिए कि लम्बे वीकेंड का फायदा हर कोई लेना चाहता है। बात ये भी है कि इन दिनों फिल्म निर्माता करोड़ों रूपया लगाता हैं। इसलिए वे जल्दी से जल्दी अपना पैसा निकालना चाहते हैं। यही कारण है कि वे लांग वीकेंड में फिल्में रिलीज करने की कोशिश में रहते हैं। 
   अब फिल्म इंडस्ट्री में त्यौहारों पर फिल्म रिलीज करना एक मुद्दा बन गया है। निर्माता फिल्म की कास्ट तय करने से पहले रिलीज की तारीख तय करने लगे हैं। दरअसल, ये हॉलीवुड का ही ट्रेंड है। वहाँ भी क्रिसमस पर कई बड़ी फ़िल्में परदे पर उतारी जाती है। क्योंकि, उस दिन फिल्म रिलीज करने के कारण सिनेमाघरों की संख्या और कलेक्शन बंट जाता है। फिल्म बनाने वाले जानते हैं कि रिलीज डेट बहुत मायने रखती है। जब फिल्म रिलीज करने की तारीख तय हो जाती है, तब हम हमारी प्रमोशन और दूसरी औपचारिकताएं पूरी की जाती है। 
 पिछले साल 'शिवाय' और 'ए दिल है मुश्किल' का हश्र देखकर फिल्मकार सीखेंगे कि फिल्म अच्छी पटकथा से चलती है, कोई और फार्मूला उसे सफल नहीं बना सकता! इस साल सारा दारोमदार सीक्रेट सुपर स्टार, गोलमाल अगेन और 2.0 पर है। यदि ये फ़िल्में पिछले साल की तरह धराशाही हो जाती है तो फिल्म निर्माताओं को सोचना पड़ेगा कि दिवाली पर फ़िल्में रिलीज करने की रिस्क लें या नहीं? 
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असुरक्षित स्कूल, संकट में बचपन

- यूनिसेफ की रिपोर्ट : 65 फीसदी स्कूली बच्चे कभी न कभी स्कूलों में यौन शोषण के शिकार। 

- राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग : स्कूलों में बच्चों के साथ होने वाले शोषण में तीन गुना बढ़ोतरी। 

- महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की रिपोर्ट : देश में हर चौथा स्कूली बच्चा यौन शोषण का शिकार। 

  हमारे शिक्षा मंदिर आज बुरी तरह दूषित और संवेदनहीन होते जा रहे हैं। उसी का नतीजा है कि हमारे सामने स्कूल परिसर में यौन दुर्व्यवहार जैसी शर्मसार करने वाली घटनाएं सामने आने लगीं। ऐसी अधिकांश घटनाओं में वही लोग ज्यादा शामिल हैं, जिनपर बच्चों की सुरक्षा का दारोमदार होता है। वे या तो सुरक्षा से जुड़े कर्मचारी होते हैं या शिक्षक। त्रासदी ये है कि आज न तो स्कूलों को मंदिर की तरह पवित्र माना जा सकता है और न शिक्षकों का आचरण अपनाने लायक रह गया। 
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- एकता शर्मा 
  शिक्षक और शिक्षक संस्थान दोनों ही सामाजिक संस्कारों की वर्जनाएं तोड़कर प्रतिमान खंडित कर रहे हैं। गुरु और शिष्य के रिश्तों की परंपरा और ये संवेदनशील आज कलंकित होने लगा। स्थिति इतनी बदतर हो गई कि शिक्षा के मंदिर व्यभिचार के अड्डे दिखाई देने लगे। जहां चरित्र गढ़े जाते हैं वहां का ही चरित्र गहरे संकट है। जहाँ ज्ञान की गंगा प्रवाहित होनी चाहिए वहाँ शोषण की चीख सुनाई दे रही है। हालात के बदतर होने का अंदाजा इसी लगाया जा सकता है कि महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की रिपोर्ट में कहा गया कि देश में हर चौथा स्कूली बच्चा यौन शोषण का शिकार हो रहा है। हर ढाई घंटे में एक स्कूली बच्ची को हवस का शिकार बनाया जा रहा है।
  दिल्ली सिर्फ देश की राजधानी ही नहीं है। जघन्य अपराधों के मामले में भी दिल्ली देश में सबसे अव्वल है। निर्भया कांड के बाद भी दिल्ली में कई ऐसे अपराध हुए हैं, जो निर्दयता का चरम कहे जा सकते हैं। हाल ही में राजधानी क्षेत्र के दो नामचीन स्कूलों में फिर दो ऐसी ही वारदात हुईं! पहले गुरुग्राम (गुड़गांव) के इंटरनेशनल स्कूल के टॉयलेट में सात साल के बच्चे की हत्या हुई। दूसरी घटना दिल्ली के गांधी नगर इलाके के टैगोर पब्लिक स्कूल में हुई। यहाँ पांच साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म की घटी। गुरुग्राम मामले में आरोप है कि स्कूल की बस के कंडक्टर ने बच्चे के साथ यौन-दुर्व्यवहार की कोशिश की। नाकाम रहने पर उसने हत्या कर दी। जबकि, टैगोर स्कूल मामले में आरोपी स्कूल का चपरासी है। गौर करने वाली बात है कि दोनों ही घटनाओं में आरोपी वही हैं, जिनपर बच्चों की सुरक्षा का जिम्मा था। दोनों ही घटनाओं में आरोपियों का मकसद यौन शोषण रहा। लेकिन, रेयान स्कूल में बच्चे को जिस निर्दयी ढंग से मारा गया वो आरोपी की मनःस्थिति बताता है। 
  दिल्ली के रेयान इंटरनेशल स्कूल में तो डेढ़ साल पहले एक छात्र देवांश की सेप्टिक टैंक में गिरने की वजह से मौत हो गई थी। लेकिन, बाद में पता चला कि मौत का कारण कोई दुर्घटना नहीं, बल्कि अमानवीय कृत्य था। नि:संदेह यह घटना भी देश और समाज को शर्मसार करने वाली थी। लेकिन, स्कूल प्रशासन ने देवांश की मौत को लेकर भी एक के बाद एक नई कहानियां गढ़ी थी। ये तथ्य दुष्कर्म की सारी आशंकाओं सही साबित करता है कि उस बालक के शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं था। अभिभावकों की मानें तो देवांश के साथ पहले दुष्कर्म हुआ, फिर उसकी हत्या कर सेप्टिक टैंक में फेंक दिया गया। 
  रांची के सफायर इंटरनेशनल स्कूल के हॉस्टल में 12 वर्षीय छात्र विनय की मौत भी अखबारों छाई थी। इस मौत को भी यौन शोषण से जोड़कर देखा गया था। इस मामले में स्कूल के तीन शिक्षकों को गिरफ्तार भी किया गया था। लेकिन, इसके बाद क्या हुआ, कुछ पता नहीं चला। लेकिन, इस घटना के बाद ज्यादातर परिजनों ने अपने बच्चों को स्कूल के छात्रावास निकाल लिया था। ऐसी घटनाओं से ये समझना कठिन हो गया है कि जब स्कूलों में ही बच्चे सुरक्षित नहीं रहेंगे। तो फिर अन्य स्थानों पर उनकी सुरक्षा को लेकर निश्चिंत कैसे हुआ जा सकता है। 
  स्कूलों में बच्चों के साथ यौन शोषण की ऐसी दिल दहलाने वाली घटनाएं अब आम हो चली हैं। तीन साल पहले देश के आईटी हब कहे जाने वाले बंगलुरु में दसवीं की एक छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार का मामला सामने आया था। लखनऊ, मध्यप्रदेश के दमोह और बवाना में भी स्कूली बच्चों के साथ यौन शोषण का मामले उजागर हुए। दो साल पहले मथुरा में एक टीचर ने भी अपनी  छात्रा को डरा धमकाकर उसके साथ कई दिनों तक दुष्कर्म किया था। भुवनेश्वर में दस साल की एक बच्ची के साथ ज्यादती के आरोप में एक शिक्षक को पकड़ा गया था। 
 यूनिसेफ की रिपोर्ट में भी स्पष्ट हो चुका है कि 65 फीसदी स्कूली बच्चे कभी न कभी स्कूलों में यौन शोषण के शिकार होते हैं। इनमें 12 वर्ष से कम उम्र के लगभग 41-17 फीसदी, 13 से 14 साल के 25.73 फीसदी और 15 से 18 साल के 33.10 फीसदी बच्चे शामिल हैं। उसकी रिपोर्ट के मुताबिक देश की राजधानी दिल्ली में ही 68.88 फीसदी मामले छात्र-छात्राओं के शोषण से जुड़े पाए गए। ये वो सच है जो हमारी शिक्षा व्यवस्था की नींव को हिला देने वाला है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के मुताबिक बीते तीन-चार सालों में स्कूलों के भीतर बच्चों के साथ होने वाले शारीरिक प्रताड़ना, यौन शोषण, दुर्व्यवहार और हत्या जैसे मामलों में तीन गुना बढ़ोतरी हुई है। शिक्षकों और स्कूल कर्मचारियों द्वारा बच्चों के यौन-उत्पीड़न की घटनाएं पिछले कुछ सालों में काफी बढ़ी हैं। स्कूलों में बढ़ता यौन शोषण एक दिन समाज को खंडित कर दे तो कोई आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। 
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(लेखिका पेशे से वकील और बाल एवं महिला अधिकारों के क्षेत्र में कार्यरत है)
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परदे पर बरसों से मन रहा है 'करवा चौथ'

- एकता शर्मा 

  बॉलीवुड उत्सव प्रिय है। यहाँ दिवाली, होली और रक्षा बंधन ही जोर-शोर से नहीं मनाया जाता, करवा चौथ जैसे त्यौहार का भी अपना अलग ही महत्व है।  जहाँ तक याद आता है, सबसे पहले ब्लैक एंड व्हाइट 'बहू बेटी' में करवा चौथ के व्रत को दिखाया गया। इसका गाना ‘करवा चौथ का व्रत ऐसा’ पहला गाना है, जो इस इस त्यौहार पर फिल्माया गया था। माला सिन्हा और मुमताज ने परदे पर ये गाना गाया था। इस गाने महिलाएं पति की लंबी उम्र की दुआ मांगती नजर आती हैं।
  अस्सी के दशक में फिल्मों में फिल्मों में करवा चौथ नए अंदाज में देखने को मिला। तब दो पत्नियाँ एक पति के लिए व्रत रखती थीं। लेकिन, ये चलन ज्यादा दिन नहीं चला। फिल्मों की कहानियाँ बदली गई। लेकिन, करवा चौथ फिर भी बना रहा। ऐसी कई फिल्में आई हैं, जिनमें करवा चौथ के त्याग वाले व्रत की तरह जगह दी गई। ऐसी कई फ़िल्में बीते सालों में दिखाई दीं, जिनमें करवा चौथ को भव्य अंदाज में दर्शाया गया। कई फ़िल्में तो ऐसी हैं, जब करवा चौथ की बात होती है तो इन फिल्मों का उल्लेख किया जाता है।
 फिल्मों ने करवा चौथ को वैलेंटाइन-डे से जोड़कर एक अनोखा और संगीतमय रूप दिया। उपवास की भावुकता वाली चाशनी घोलकर यह संदेश दिया है कि इस दिन पति पत्नी खुलकर अपने प्यार का इजहार कर सकते हैं। हिन्दी फिल्मों में कुछ समय से करवा चौथ सेलिब्रेशन से जुड़े दृश्यों को बड़े भव्य तरीके से प्रस्तुंत करने का ट्रैंड चलने लगा है। इस मौके पर हीरो हीरोइन का इमोशनल कनेक्ट खासे खूबसूरत और रोमांटिक तरीके से दिखाया जाता है।
 'कभी खुशी कभी गम' में करवा चौथ को बेहद भव्यता से फिल्माया गया था। सीन में तीन जोड़ियाँ एक साथ व्रत करती हैं। अमिताभ-जया, शाहरुख-काजोल और रितिक-करीना पर ये दृश्य शूट किया था। आमिर खान और करिश्‍मा कपूर की फिल्‍म 'राजा हिंदुस्‍तानी' में करवा चौथ को इंटेंसिटी के साथ फिल्माया गया था। 'बागबान' में यह दृश्य अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी पर फिल्माया गया है। दोनों अपने-अपने घर बच्चों के साथ अलग रहते हैं। फिल्म में हेमा मालिनी अपने पति अमिताभ के लिए करवा चौथ का व्रत रखतीं है। लेकिन, दूर होने की वजह से अमिताभ से फोन पर ही बात करते हुए अपना करवा चौथ पूरा करती हैं।
 आज की फिल्मों के संदर्भ में देखा जाए तो फिल्मों में करवा चौथ को ज्यादा लोकप्रिय शाहरुख खान और काजोल ने 'दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे' ने बनाया है। ‘घर आजा परदेसी’ इस दिन जरूर सुनाई देता है। काजोल इस व्रत रखने से बेहोश होने का नाटक करती है और इस बहाने शाहरूख के हाथ से पानी पीती है। 'हम आपके हैं कौन' में सलमान और माधुरी दीक्षित के करवा चौथ का सीन भी कोई भूला नहीं होगा। इसे बॉलीवुड का भव्य करवा चौथ कहा जा सकता है। 'हम दिल दे चुके सनम' की बात करें तो इस फिल्म में संजय लीला भंसाली ने करवा चौथ के गाने को ऐसा फिल्माया है कि दर्शक आज भी भूले नहीं हैं। इस गाने में सलमान ऐश्वर्या को छेड़कर चांद से जल्दी नहीं निकलने का बोलते हैं।
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Sunday 15 October 2017

हमारी व्यवस्था में 'केशलेस इकोनॉमी' अभी दूर की कोड़ी!

- एकता शर्मा 

   नोटबंदी के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कैशलेस इकोनॉमी को आगे बढ़ाने का झंडा बुलंद करने की कोशिश की थी। कैशलेस से उनका आशय था कि लोग अपने बटुवे में कम पैसे रखें और सारा लेन-देन इलेक्ट्रॉनिक माध्यम या अपने डेबिट कार्ड करें। सपना अच्छा है और सपने देखने में कोई बुराई भी नहीं है! लेकिन, क्या भारतीय परिवेश में कैशलेस इकोनॉमी इतनी जल्दी संभव है? इससे भी बड़ा सवाल ये है कि क्या सरकार के सारे घटक और व्यवस्थाएं इसके लिए तैयार हैं? इन दोनों सवालों का एक ही जवाब सामने आता है 'नहीं!' जिस देश में खेलों के टिकट कैश में बेचने की मुनादी पिटती हो! पेट्रोल पम्पों पर डेबिट कार्ड से पेमेंट करने वालों को इंकार कर दिया जाता हो! अधिकांश दुकानों पर कार्ड स्वेपिंग मशीनें नहीं हों, वहाँ कैशलेस ट्रान्जेशन कैसे संभव है? 

  इसी से जुड़ा मुद्दा ये भी है कि जब बैंकों ने एटीएम से ट्रांजेशन की लिमिट तय कर दी हो, तो लोग क्या करेंगे? उनके पास यही रास्ता है कि जहाँ तक संभव हो, केश निकालकर जेब में भर लिया जाए और सारा काम उसी से चलाया जाए! अभी भारतीय अर्थव्यवस्था में मात्र 2 फीसदी डिजिटल भुगतान होता है, जिसे आगे बढ़ाने में काफी समय लग जाएगा। देश में इंटरनेट के संजाल को और व्यापक स्तर पर फैलाने की जरूरत है। दूर-दराज के क्षेत्र अभी भी इंटरनेट की अद्भुत बाजीगरी से वाकिफ नहीं है। 4जी के ज़माने में भी अन्य देशों की तुलना में इंटरनेट की गति बहुत धीमी है। आज भी दस लाख की आबादी पर 850 कार्ड स्वेपिंग मशीनें ही हों, तो ऐसे सपने देखे ही क्यों जाएँ? 
  केशलेस इकोनॉमी में पड़ा पेंच है कि आम जनता इसकी प्रक्रिया को समझे और सरकार इस व्यवस्था के लिए वो सारे उपाय करे जो जरुरी हों! उसके बाद जनता को जागृत किया जाए कि वो अपने बटुवे का वजन हल्का करे। क्योंकि, जो देश सदियों से सारा कामकाज कैश से चलाता रहा हो, वहाँ रातों-रात व्यवस्था और लोगों का मानस बदल देना आसान नहीं है। रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के एक रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ 55 फीसदी लोगों के पास ही डेबिट कार्ड है। ऐसे में सारे लोग केशलेस ट्रान्जेशन कैसे कर पाएंगे? जिन लोगों के पास डेबिट कार्ड हैं, उनमें से सिर्फ 7-8 फीसदी लोग है जो नेट-बैंकिंग का इस्तेमाल करते हैं। बाकी लोग तो अपने डेबिट कार्ड का उपयोग सिर्फ एटीएम से पैसे निकालने के लिए करते है। सरकार ने गरीबी रेखा से नीचे (यानी 500 रुपए प्रति महीने आय वाले) गुजर-बसर करने वालों के बैंक खाते तो खुलवा दिए, पर बैंकों ने उन्हें डेबिट कार्ड नहीं दिए! क्योंकि, वे न्यूनतम बैलेंस की शर्त पूरी नहीं करते!  
  देश के कुछ ग्रामीण इलाके तो ऐसे हैं, जहाँ दूर दूर तक बैंको का ही पता नहीं! इनके लिए सरकार पास क्या इंतजाम हैं? जब तक देश की सौ फीसदी आबादी के बैंक खाते नहीं हो जाते और वे नेट-बैंकिंग नहीं सीख जाते, इस तरह के सपने देखना भी अपने आपको धोखे में रखने जैसा है! साथ ही ग्रामीण इलाके के लोगों को कैशलेस व्यवस्था के लिए मानसिक रूप से शिक्षित भी करना होगा। ऐसा नहीं किया गया तो हमारे यहाँ ऐसे 'साइबर-लुटेरों' की कमी नहीं है, जो लोगों की नासमझी और अज्ञानता का फ़ायदा उठाकर उनकी सारी जमापूंजी उड़ा सकते हैं। आज जब हमारे यहाँ टेलीफोन पर लोगों को भरमाकर उनके बैंक अकाउंट नम्बर पूछकर सरेआम धोखाधड़ी होने लगी है तो एटीएम का पासवर्ड पता करके तो कुछ भी हो सकता है।    
  भारत में 2014 में कैश और जीडीपी का अनुपात 12.42% था, जबकि चीन में ये 9.47% और ब्राजील में 4% था। हमारे देश में नकदी का बहुत ज्यादा महत्व है और अभी भी हमारे देश में अधिकांश लेन-देन नकदी में ही होता है। भारत जैसे देश को कैशलेश इकोनॉमी में तब्दील करने में अभी ढेरों बाधाएं हैं, जैसे इंटरनेट का ख़राब नेटवर्क, वित्तीय तथा डिजिटल साक्षरता की कमी और साईबर सुरक्षा की अपर्याप्त सुविधा। यहाँ छोटे-छोटे विक्रेता हैं, जिनके पास इलेक्ट्रानिक पेमेंट लेने की व्यवस्था करने के लिए पर्याप्त धन नहीं होता! अधिकांश ग्राहकों के पास स्मार्टफोन न होने के कारण वो इंटरनेट बैंकिंग, मोबाईल बैंकिंग और डिजिटल वैलेट्स का उपयोग करने में सक्षम नहीं होते। अधिकतर लोग अभी कैशलेस लेन-देन को भी ठीक से नहीं समझते! 
 अधिकांश आनलाईन ग्राहकों को ये पता ही नहीं होता है कि यदि उनके साथ कुछ धोखाधड़ी हो जाए तो वो कहाँ शिकायत करें! सरकार को पहले इन समस्याओं का समाधान खोजना चाहिए। डिजिटल व्यापार करने वाली कंपनियों के लिए स्पष्ट नियम-कानून, ग्राहकों के धन की सुरक्षा के पर्याप्त उपाय और तीव्र शिकायत निवारण प्रणाली के बिना डिजिटल इंडिया का सपना पूरा नहीं हो सकता है। इसके अतिरिक्त डेबिट/क्रेडिट कार्ड से पेमेंट करने पर ट्रांजैक्शन चार्ज न लगाना और कैशलेस ट्रांजैक्शन पर कर में छूट देने जैसे उपायों द्वारा डिजिटल पेमेंट को लोकप्रिय बनाया जा सकता है। 
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सिनेमा के परदे पर कहाँ है गाँधी?

 - एकता शर्मा 

  हिंदी फिल्मों में राजनीति और नेताओं का जब भी जिक्र होता है, नकारात्मक ही होता है। क्योंकि, फिल्मों में ये किरदार सामान्यतः भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा होते हैं। लेकिन, देश के सच्‍चे नेता के रूप में हमेशा गाँधीजी को ही हमारी फिल्‍मों में दिखाया गया। अभी तक महात्मा गाँधी से जुड़कर जो भी फ़िल्में बनी, उसमे गाँधी को कई प्रतिबिम्बों में प्रदर्शित किया गया। वैसे तो महात्मा गाँधी पर अब तक अंगुलियों पर गिनी जा सकने वाली ही फ़िल्में बनी हैं। लेकिन, जितनी सफलता रिचर्ड एटनबरो की फिल्म 'गांधी' को मिली, उतनी शायद किसी दूसरी फिल्म को नहीं। इसमें बेन किंग्सले ने गाँधीजी का किरदार   निभाया था। इस फिल्म ने 8 ऑस्कर और सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म के लिए 'गोल्डन ग्लोब' अवॉर्ड   भी जीता था। 
  अपने जीवनकाल में महात्मा गांधी ने सिर्फ दो फिल्में देखीं थी। पहली फिल्म उन्होंने 1943 में 'मिशन टू मॉस्को' देखी थी। इसके बाद भारत में बनी फिल्म 'रामराज्य' देखी थी। इसके बाद उन्होंने कोई फिल्म नहीं देखी। महात्मा गाँधी का फिल्मों से नाता कम ही था। लेकिन, हमारे फिल्मकारों ने भी गाँधी विचारधारा को प्रचारित करने में बहुत कंजूसी की। गाँधीजी को जनमानस का नेता माना जाता था। ये भी कहा जाता है उनसे अच्छा 'मास कम्युनिकेटर' यानी जनता को उनकी भाषा में अपनी बात समझाने वाला आजतक कोई नहीं हुआ! लेकिन, फिर भी फिल्मकारों ने गाँधीजी के साथ न्याय नहीं किया। उनपर बानी सबसे सफल फिल्म भी विदेशी निर्माता ने बनाई और गांधीजी का किरदार भी विदेशी एक्टर ने निभाया। 
  गाँधीजी के प्रति फिल्मकारों की उदासीनता से दुखी होकर एक बार निर्देशक महेश भट्ट ने कहा था कि 'बहुत कम लोग हैं, जो गांधीजी को एक अहसास की तरह महसूस करते हैं। क्या कारण था कि विदेशी निर्देशक ने विदेशी कलाकार को मुख्य किरदार में लेकर 'गाँधी' जैसी शानदार फिल्म बना दी, और गांधी के देश के लोग उस टक्कर की फिल्म आजतक नहीं बना पाए? सिनेमा की दुनिया में जब भी महात्मा गाँधी का जिक्र आया है तो बेन किंग्सले और रिचर्ड एटनबरो की 'गाँधी' से बात शुरू होकर 'लगे रहो मुन्ना भाई' पर ख़तम हो जाती है। राजकुमार हीरानी की संजय दत्त और अरशद वारसी अभिनीत इस फिल्म ने गांधीवाद को नया नजरिया जरूर दिया है। 
  फिल्मों के अलावा गाँधीजी पर कई डॉक्युमेंट्री भी बनी। 1963 में गाँधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की मानसिकता पर जेएस कश्यप ने 'नाइन आवर्स टू रामा' बनाई थी। 1968 में 'महात्मा: लाइफ आफ गाँधी' बनी और फिर आई 'महात्मा गाँधी : ट्वेंटिएथ सेंचुरी प्रोफेट।' 1982 में बनी 'गाँधी' में बेन किंगस्‍ले ने उन्‍हें जीवंत कर दिया था। 'गांधी, माय फादर' 2007 में आई इस फिल्म को अनिल कपूर ने बनाया था।  यह फिल्‍म गाँधीजी और उनके बेटे हरिलाल गाँधी के परेशानी वाले रिश्तों पर आधारित थी। 2000 में आई फिल्म 'हे राम' देश के विभाजन और नाथुराम गोडसे द्वारा गांधी की हत्‍या पर आधारित है। 'लगे रहो मुन्‍ना भाई' राजकुमार हिरानी और विधु विनोद चोपड़ा की फिल्‍म थी, जिसने गांधीगिरी का नया टर्म जरूर इजाद किया। 'मैंने गाँधी को नहीं मारा' में अनुपम खेर ने एक रिटायर्ड हिंदी प्रोफेसर उत्‍तम चौधरी का किरदार निभाया। फिल्म में प्रोफ़ेसर को अजीब सा पागलपन छा जाता है। वो ये मानने लगता है कि गाँधीजी का हत्यारा वही है। देखा जाए तो अभी भी सिनेमा के परदे पर गाँधी को जीवंत किया जा सकता है। पर, कोई फिल्मकार हिम्मत तो करे! क्योंकि, गाँधी एक व्यक्ति नहीं, एक विचारधारा है और विचार कभी नहीं मरते। कोई नाथूराम गोडसे भी विचारों की हत्या नहीं कर सकता। 
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Saturday 30 September 2017

खामोश हो गया हिंदी सिनेमा का ये विदेशी कलाकार

श्रद्धांजलि : टॉम ऑल्टर

- एकता शर्मा 

  हिंदी फिल्मों के जाने-माने विदेशी एक्टर टॉम ऑल्टर का निधन हो गया। वे स्क्वॉमस सेल कार्सिनोमा (स्किन कैंसर) से पीड़ित थे और कैंसर की चौथी स्टेज में थे। टॉम ने टीवी और फिल्मों के अलावा थियेटर में भी लंबे समय तक काम किया। फिल्मों में आने से पहले वे स्पोर्ट्स जर्नलिस्ट भी रहे। वे पहले ऐसे पत्रकार थे जिन्होंने सचिन तेंदुलकर का इंटरव्यू लिया था। अच्छे एक्टर के अलावा ऑल्टर लेखकर भी रहे। उन्होंने एक नॉन फिक्‍शन और दो फिक्‍शन किताबें लिखीं।

   300 से ज्यादा फिल्मों में काम कर चुके टॉम ने 1990 में टीवी शो 'जुनून' में केशव कालसी का किरदार निभाया था। ये शो पांच साल तक चला था। उन्होंने धर्मेंद्र की फिल्म 'चरस' से 1976 में फिल्मों में काम की शुरुआत की थी। फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया पुणे से उन्होंने 1974 में डिप्लोमा करने के दौरान उन्हें गोल्ड मैडल मिला था। टॉम ने कई फिल्मों में विदेशी विलेन  किरदार किये। कला और फिल्म जगत में उनके योगदान के लिए 2008 में उन्हें भारत सरकार की ओर से पद्मश्री पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है। टॉम उर्दू साहित्य में भी रुचि रखते थे। उन्होंने मिर्जा गालिब का किरदार भी किया था।
  1977 में ऑल्टर ने नसीरुद्दीन शाह के साथ मिलकर 'मोल्टे प्रोडक्शन' के नाम से एक थियेटर ग्रुप बनाया था। वे थियेटर में लगातार सक्रिय रहे। उनकी खास फिल्मों की बात करें, तो परिंदा, शतरंज के खिलाड़ी और क्रांति जैसी फिल्में शामिल हैं। वे आखिरी बार 'सरगोशियां' में नजर आए थे। 
  टॉम आल्टर ने एक बार एक पुस्तक के विमोचन दौरान कहा था कि मेरी पहली मुहब्बत ने मुझे हिंदी सिखा दी। वह इतनी खूबसूरत थी, जिसे देख-देखकर मै हिंदी सीख गया। उन्होंने बेबाकी से अपनी पहली मुहब्बत का बखान किया था। उन्होंने कहा था कि उनकी पहली मुहब्बत हिंदी टीचर थी, जिसे देख और सुनकर उन्होंने हिंदी सीख लिया। तब मैं कक्षा चौथी में पढ़ता था। उन्हीं की बदौलत आज फिल्म इंडस्ट्री में हूं। टॉम आल्टर ने कहा था कि कोई उनकी उम्र के बारे में सवाल न करें। मै आज भी जवान हूं। उन्होंने सही कहा था, ये उम्र उनके जाने की भी नहीं थी, पर चले गए।
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Monday 25 September 2017

स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा की जिम्मेदारी हम भी निभाएं

- एकता शर्मा 

 बच्चों की सबसे बड़ी कमजोरी उनका भोलापन है। उनका यही भोलापन उन्हें बच्चा बनाए रखता है। लेकिन, उनका यही भोलापन ही डर, अवसाद और अकेलेपन को खुलकर कह नहीं पाता। दूसरी तरफ हम बच्चों की बातों को खास अहमियत नहीं देते। बच्चों के भोलेपन के शिकारी ऐसी ही स्थिति का फायदा उठाकर अपनी कुंठाओं की पूर्ति करते हैं। अकसर देखा गया है कि बच्चों के उत्पीड़न में वहीं लोग शामिल होते हैं, जिन पर उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी होती है। लेकिन, यहाँ परिजनों की भी जिम्मेदारी है कि वे स्कूल में अपने बच्चों की सुरक्षा के इंतजामों पर खुद नजर रखें। सिर्फ पेरेंट्स मीटिंग में जाकर अपनी औपचारिक पूरी न करें। 
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     केन्द्रीय महिला व बाल विकास मंत्रालय द्वारा बच्चों की सुरक्षा की स्थिति को लेकर देशभर में किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक हर दो बच्चों में से एक को स्कूल में यौन शोषण का शिकार बनाया जा रहा है। पिछले सालों में राष्ट्रीय बाल अधिकार पैनल को स्कूलों में बच्चों के साथ यौन शोषण और उत्पीड़न की सैकड़ों शिकायतें मिली है।    यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक 65 फीसदी बच्चे स्कूलों में यौन शोषण के शिकार होते हैं। इनमें 12 वर्ष से कम उम्र के लगभग 41 से 17 फीसदी, 13 से 14 साल के 25.73 फीसदी और 15 से 18 साल के 33.10 फीसदी बच्चे शामिल हैं। यह सच्चाई हमारी शिक्षा व्यवस्था की बुनियाद को हिला देने वाली है।
  इस बात से इंकार नहीं कि पिछले कुछ सालों से स्कूलों में बच्चों के शोषण और उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ी हैं। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के मुताबिक स्कूलों में बच्चों के साथ होने वाली शारीरिक प्रताड़ना, यौन शोषण, दुर्व्यवहार, हत्या जैसे मामलों में तीन गुना बढ़ोतरी हुई। आज बच्चों के लिए हिंसामुक्त और भयमुक्त माहौल में शिक्षा देने का सवाल बहुत बड़ा सवाल बन गया हैं। देखा गया है कि स्कूलों में बाल उत्पीड़न के दर्ज हुए मामलों में अधिकांश मामले हिंदी भाषी राज्यों के हैं। 
  सामान्य तौर से हमारे आसपास बच्चों के साथ होने वाले दुराचारों को गंभीरता से नहीं लिए जाने की मानसिकता है। इस तरह हम बच्चों पर होने वाले अत्याचारों पर चुप रहकर उसे जाने-अनजाने में प्रोत्साहित कर रहे हैं। जबकि, बच्चों को दिए जाने वाली तमाम शारारिक और मानसिक प्रताड़नाओं को तो उनके मूलभूत अधिकारों के हनन के रुप में देख जाने की जरूरत है, जिन्हें कायदे से किन्हीं भी परिस्थितियों में बर्दाश्त नहीं किए जाने चाहिए। लेकिन, सरकार ने स्कूलों में सुरक्षित बचपन से जुड़े कई तरह के सवालों के साथ उनसे जुड़ी मार्गदर्शिका तैयार किए जाने की मांग को लगातार अनदेखा किया है। स्कूलों में उत्पीड़न के मामले में पीड़ित बच्चों को किसी उम्र विशेष में नहीं आंका जा सकता! लेकिन, अधिकांश मामलों में यौन उत्पीड़न से पीड़ित बच्चों में 8 से 12 साल तक आयु-समूह के बच्चों की संख्या सर्वाधिक रही है। 
 बच्चों के सुरक्षित बचपन के लिए सरकार ने जहाँ बजट में मामूली बढ़ोत्तरी की है, वहीं इसके लिए देश में पर्याप्त कानून, नीतियां और योजनाएं हैं। इनके बावजूद महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा किए गए सर्वेक्षण में 65 प्रतिशत बच्चे महज शारारिक प्रताड़नाएं भुगत रहे हैं। जाहिर है कि समस्या का निपटारा केवल बजट में बढ़ोतरी या सख्ती और सहूलियतों के प्रावधानों से मुमकिन नहीं हैं। बल्कि, इसके लिए मौजूदा शिक्षण पद्धतियों को नैतिकता और सामाजिकता के अनुकूल बनाने की भी जरूरत है। इसी के साथ बच्चों के सीखने की प्रवृतियों में सुरक्षा के प्रति सचेत रहने की प्रवृति को भी शामिल किया जाना भी जरुरी है। 
  विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक शारारिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक, दुर्व्यवहार, लैंगिक असामानता इत्यादि बाल उत्पीड़न के अंतर्गत आते हैं। फिर भी बच्चों के उत्पीड़न के कई प्रकार अस्पष्ट हैं और उन्हें परिभाषित करने की संभावनाएं अभी बनी हुई हैं। दूसरी तरफ राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो बच्चों के उत्पीड़न से जुड़े केवल वहीं मामले देखता है, जो पुलिस-स्टेशनों तक पहुंचते हैं। जबकि, प्रकाश में आए मामलों के मुकाबले अंधेरों में रहने वाले मामलों की संख्या हमेशा से ही कई गुना तक अधिक होती है। 
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(लेखिका पेशे से वकील और बाल और महिला संरक्षण अभियानों से सम्बद्ध हैं)
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लम्बे ब्रेक के बाद संजय दत्त फिर परदे पर!

- एकता शर्मा 

  संजय दत्त ने 5 साल बाद फिल्‍मों में वापसी की हैं। उनकी फिल्म 'भूमि' रिलीज हो गई, जो बाप-बेटी के रिश्ते पर बनी है। इस फिल्म में अदिती राव हैदरी ने संजय की ऑन स्क्रीन बेटी का किरदार निभाया है। फिल्म में बाप बने संजय दत्त अपनी बेटी को लेकर काफी पजेसिव रहते हैं। वो चाहते हैं कि उनकी बेटी जल्दी से एक अच्छे से लड़के के साथ शादी करके अपना घर बसा लें। लेकिन, उसकी जिंदगी में एक ऐसा तूफान आता है जिस कारण उसके सारे सपने टूट जाते हैं। आखिरी में संजय खुद अपनी बेटी को एक चरित्रहीन लड़की बताते हैं। इसके अलावा जब आस-पड़ोस के लोग कहते हैं कि एक लड़की की वजह से पूरा मोहल्ला बदनाम हो रहा है, तो वे कहते हैं 'न मोहल्ला रहेगा और न बदनामी।' ये फिल्म एक पिता के बदले की कहानी है। 
  संजय दत्त के पास फिल्मों की लम्बी लाइन है। एक फिल्म 'दत्त' तो उनके जीवन पर ही बन रही है जिसमें संजय दत्त का किरदार रणवीर कपूर ने निभाया है। अपनी वापसी के साथ संजय बड़े पर्दे पर एक फिल्म में खलनायक भी बनेंगे। अजय देवगन के प्रोडक्शन बैनर में बनने वाली इस फिल्म में संजय दत्त एक डॉन के रोल में नजर आ सकते हैं। यह फिल्म साल 2014 में आई तमिल कॉमेडी एक्शन ड्रामा फिल्म 'जिगरथांडा' का रीमेक है। 
  वास्तव में ये संजय की दूसरी नहीं, बल्कि तीसरी पारी है। 'रॉकी' से अपनी अभिनय यात्रा शुरू करने वाले संजय के कैरियर को पहला ब्रेक तब लगा था, जब उनका नाम मुंबई बम कांड से जुड़ा था और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। तब जेल काटने के बाद वे परदे पर लौटे थे। अब फिर वे सजा काटने के बाद दर्शकों के सामने आए हैं। करीब दर्जनभर फिल्मों में 'भाई' भूमिका निभाने वाला ये कलाकार अब एक बेटी के मजबूर पिता में दर्शकों के सामने है।     
  जेल की सलाखों में कैद रहे अभिनेता संजय दत्त की जिंदगी खुद किसी फिल्म से कम नहीं है। 2 मार्च 1993 के मंबई बम धमाकों में जब उनका नाम सामने आया था तो दुनिया सन्न रह गई थी। संजय दत्त आरोपों के घेरे में थे, लेकिन वो दोषी ठहराए गए। अवैध हथियार रखने के मामले में। मार्च 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने संजय दत्त को पांच साल की सजा सुनाई गई और उन्होंने सजा भी काट ली। आर्म्स एक्ट के मामले में दोषी फिल्म स्टार संजय दत्त ने पुणे की यरवदा जेल में एक आम कैदियों जैसी जिंदगी ही गुजारी। सुप्रीम कोर्ट ने संजय दत्त को पांच साल की सजा सुनाई थी। लेकिन, अच्छे चाल-चलन की वजह से जेल प्रशासन की अनुशंसा से संजय दत्त को एक सौ पांच दिन पहले ही रिहाई मिल गई। 
  अपने जमाने के मशहूर अभिनेता सुनील दत्त और नरगिस दत्त के बेटे संजय दत्त नाजों से पले थे। संजय दत्त अपनी पहली फिल्म 'रॉकी' से ही लोगों के दिलों पर राज करने लगे थे। 90 के दशक में जब संजय दत्त का सितारा बुलंद था, तभी एक के बाद एक तेरह धमाकों से मुंबई दहल गई! फिर सामने आई धमाकों के साजिश की वो कहानी जिसने फिल्मों के इस हीरो को जिंदगी का विलेन बना दिया था। 
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