Saturday 18 February 2017

हिट की दुनिया में आंकड़ों की बाजीगरी

- एकता शर्मा 

  आमिर खान की 'दंगल' ने करीब 400 करोड़ की कमाई की! सलमान खान की 'सुल्तान' का आंकड़ा भी 300 तक पहुंचा! ऐसे में शाहरुख़ खान कहाँ पीछे रहने वाले थे, उनकी नई फिल्म 'रईस' ने भी रिकॉर्ड तोड़ कमाई की और अभी भी फिल्म की कमाई जारी है। ये तो हुई, आज की फिल्मों की बात। आज फिल्म की सफलता को उसके सौ, दो सौ करोड़ या उससे ज्यादा की कमाई से आकलित किया जाता है। एक वक़्त था जब किसी फिल्म के सिल्वर, गोल्डन और प्लेटिनम जुबली मनाने को ही फिल्म का हिट होना समझा जाता था! तब फिल्म ने कमाई से दर्शकों को कोई सरोकार नहीं था। असल में फिल्म का हिट होना तभी था, जब दर्शकों में 'फर्स्ट डे-फर्स्ट शो' देखने की होड़ लगा करती थी! दर्शक टिकट खिड़की पर टूट पड़ते थे।
  यदि फिल्म की लागत और कमाई के अनुपात से फिल्म की सफलता को तौला जाए तो आँखे फटी रह जायेगी! फ़िल्मी दुनिया की सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्म 1975 में आई 'जय संतोषी मां' मानी जाएगी! इस धार्मिक फिल्म ने संभवतः आजतक प्रदर्शित करोडों की लागत वाली सभी फिल्मों को पीछे छोड रखा है। इस फिल्म की सफलता का आश्चर्यजनक आकलन इसलिए किया गया कि 'जय संतोषी माँ' के निर्माण में 4 से 5 लाख रूपए लगे थे। जबकि, इसके वितरकों की कमाई का आंकड़ा 5 करोड रूपए तक पहुंचा था। लागत और कमाई की तुलना में ये 100 गुना ज्यादा था! इस नजरिए से आज 50-60 करोड में बनने वाली फिल्म को यदि 'जय संतोषी  माँ' का रिकॉर्ड तोडना है तो उसे 5 से 6 हज़ार करोड़ की कमाई करना पड़ेगी, जो संभव नहीं है।
 इस अनुपात से दूसरी सुपरहिट फिल्म है, 1989 में प्रदर्शित 'मैने प्यार किया।' जिसने अपनी लागत से लगभग 15 गुना कमाई का रिकॉर्ड बनाया था। इसके बाद भी यह फिल्म 'जय संतोषी माँ' से पीछे है। फिल्मकार मेगा ब्लाक-बस्टर उन फिल्मों मानते हैं, जिन्हें दर्शकों ने ऑल टाइम पसंद किया! जिन्हें देखने के लिए दर्शकों ने सिनेमाघरों के चक्कर लगाए। इस लिहाज से 'जय संतोषी मां' की तुलना में 'मैने प्यार किया' ऑल टाइम ब्लाक-बस्टर कहलाएगी। क्योंकि, इस फिल्म को दर्शकों ने बार-बार देखा! 
 बॉलीवुड के इतिहास में 'मैंने प्यार किया' के अलावा सात और ऐसी फिल्में हैं, जिन्हें ऑल टाइम ब्लाक-बस्टर माना जाता है। इन फिल्मों ने सारे रिकार्ड तोड़कर ऐसे रिकार्ड बनाए हैं, जिन्हें छूना आज की फिल्मो के लिए मुश्किल है। 1975 में बनी शोले को हिन्दी फिल्म इतिहास की यह एक ऐसी फिल्म है जिसे रिलीज के एक सप्ताह बाद माउथ पब्लिसिटी मिली। 1960 की फिल्म 'मुगल-ए-आजम' जब पहली बार जब सिनेमाघरों में लगी, तो इसने सारे रिकार्ड तोड़ दिए थे। राजश्री प्रोडक्शन की 'हम आपके हैं कौन' (1994) ने तो फिल्म इंडस्ट्री की परिभाषा ही बदल दी! 2001 में आई 'गदर-एक प्रेम कथा' आज के दौर की सबसे ज्यादा देखी जाने वाली फिल्म बन गई! 'मदर इंडिया' (1957) ने भी 'मुगल-ए-आजम' के बराबर बिजनेस किया था। 
  1995 में आई 'दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे' भी 'हम आपके हैं कौन' के बाद मुंबई के एक सिनेमाघर में लगातार 15 साल तक चली थी, जो एक रिकॉर्ड है। मल्टीप्लैक्स के जमाने में 2009 में आई 'थ्री इडियटस' पहली सच्ची मेगा ब्लाक-बस्टर है। इस फिल्म को ऑल टाइम हिट कहा जाना गलत नहीं होगा। यशराज प्रोडक्शन की 2012 में आई 'एक था टाइगर' की सफलता का सबसे बड़ा कारण सलमान खान को माना जा सकता है। प्रेम और एक्शन भरी इस जासूसी फिल्म में सलमान का जादू भरा है। 2015 की 'बजरंगी भाईजान' भी इस फेहरिस्त की अगली फिल्मों में शुमार की जा सकती है! 
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Wednesday 15 February 2017

एक प्यार ऐसा भी ...

- एकता शर्मा 

  शक्तिचंद 'बिमल' यही नाम बताया था उन्होंने मुझे पहली मुलाकात में! नाम अटपटा सा लगा, पर मैंने ध्यान नहीं दिया! करीब 4 साल पहले उनकी कंपनी के लीगल केस के सिलसिले में वो मुझसे मिलने आए। उसके बाद मैं उनकी वकील बन गई! कंपनी से जुड़े कई लीगल मामलों में उनसे सलाह-मशविरा होता रहा। करीब 60-62 साल के साधारण पर्सनालिटी वाले, इस खुशमिजाज व्यक्ति से उसके बाद कई बार मुलाकात हुई! 4 साल से वे लगातार कोर्ट में केस की हर तारीख पर आते रहे। लगातार मिलते रहने से अनौपचारिक बातचीत भी हुई! इस दौरान मैं और मेरे ऑफिस का स्टॉफ उन्हें 'बिमल साहब' के नाम से ही पहचानते हैं। यहाँ तक कि कंपनी के मालिकों से भी जब मेरी बात हुई, उन्होंने उनके बारे में 'बिमलजी' कहकर ही संबोधित किया। आशय यह कि वे सभी के लिए सिर्फ 'बिमलजी' ही हैं शक्तिचंद नहीं। 

  एक केस के सिलसिले में उनका एक शपथ पत्र लगना था। जानकारी देने के हिसाब से उनके पिता का नाम पूछा तो मैं सुनकर अचंभित रह गई! पिता के नाम के साथ उन्होंने अपना सरनेम 'राजपूत' बताया। मैंने चकित होकर पूछा कि आपका सरनेम 'बिमल' है और आपके पिता 'राजपूत' ये कैसे? मेरे सवाल पर वो थोड़ा झिझके! लेकिन, इस अटपटे सरनेम को लेकर उन्होंने जो कहानी बताई उसने मुझे अंदर तक हिला दिया! कोई सोच नहीं सकता कि उनके नाम के साथ जुड़ा 'बिमल' सरनेम उनकी पारिवारिक पहचान नहीं, एक निष्णात प्रेम की कहानी होगी! एक ऐसा प्रेम जो उनके नाम के साथ हमेशा के लिए चस्पा हो गया है! आज के इस दौर में जहाँ प्रेम सुबह से शाम तक भी नहीं टिक पाता, वहाँ ऐसा प्रेम सचमुच दुर्लभ है। जो कहानी शक्तिचंद ने बताई, वो सुनकर मुझसे रहा नहीं गया। मेरी कलम उठ गई, सबको वो प्रेम कहानी सुनाने के लिए जिसकी परिणति सुखांत तो नहीं हुई, पर ये प्रेम का एक ऐसा स्वरुप है, जो किसी की भी आँखे गीली कर देता है।   
... तो सुनिए शक्तिचंद 'राजपूत' के 'बिमल' बनने की सच्ची प्रेम कथा :
   शक्तिचंद उर्फ़ 'बिमल साहब' यानी हमारी इस कहानी के नायक हिमाचल प्रदेश के एक छोटे से गाँव के रहने वाले हैं। प्रकृति की गोद में सुदूर हरियाली और पहाड़ियों के प्रेम भरे वातावरण में ही उनका बचपन बीता। जब थोड़ी समझने की उम्र हुई तो उनके दिल को गाँव की ही एक लड़की अच्छी लगने लगी। लड़की उन्हीं के स्कूल में थी, इसलिए नजरें दो से चार होने वक़्त नहीं लगा! इस लड़की का नाम था 'बिमला!' उस लड़की को शक्तिचंद से लगाव था या नहीं, ये तो नहीं पता! जो भी था एकतरफा ही था! लेकिन, शक्तिचंद ने उस लड़की को साथ जोड़कर अपने जीवन के सपनों का महल खड़ा कर लिया था। इस पर भी वे कभी बिमला के सामने प्यार का इजहार नहीं कर सके! गाँव का माहौल, लड़कपन, समाज और परिवार के डर के कारण उनकी हिम्मत भी नहीं हुई!     
   कहते हैं कि इश्क़ और मुश्क छुपाए नहीं जाते, वही शक्ति के साथ भी हुआ! दोस्तों के मजाक ने स्कूल में उनके बिमला से प्रेम को उजागर कर दिया। लेकिन, ये उम्र प्रेम करने और उसे निभाने की थी भी नहीं तो इसे मजाक की तरह लिया गया। दोस्तों ने भी इसे हंसी-ठिठोली में लिया और परिवार ने भी! भाई-बहनों ने भी शक्ति से उसके एकतरफा प्रेम की बातें मजाक में करना शुरू कर दी! यहाँ तक कि पिता ने भी समझाया कि ये उम्र नहीं है कि तुम प्रेम प्रपंच पड़ो! लेकिन, शक्ति का दिल तो कुछ और ही ठान चुका था। उन्हें अपने निस्वार्थ प्रेम को मजाक बनते देख दुःख हुआ! उधर, स्कूल में बिमला तक बात पहुँची तो उसने भी इसे गंभीरता से लिया! एक दिन शक्ति ने बिमला को स्कूल के कॉरिडोर में रोककर अपने मन की बात कहना चाही! लेकिन, शक्ति कुछ कह पाते, उसके पहले उसने आँख तरेरकर कहा 'तुम्हारे नाम के साथ मेरा नाम नहीं जुड़ना चाहिए!' ये कहकर वो रास्ता बदलकर चली गई! उसकी आँखों में भी तिरस्कार के भाव थे! लेकिन, शक्ति (बिमल साहब) को अपने प्यार का ये तिरस्कार और मजाक सहन नहीं हुआ! बिमला ने अपने नाम के साथ शक्ति का नाम जुड़ने को लेकर जो कहा, वो शक्ति के लिए असहनीय पल था। उन्होंने मन ही मन ठान लिया कि अब इस नाम से तो उनका जन्म जन्मांतर का रिश्ता बंधेगा! वे अपने प्यार को साबित करेंगे। उस एकतरफा प्यार को जिसे सिर्फ दिल्लगी और मजाक समझ लिया गया था।   
 इस सबके बीच स्कूल में परीक्षाओं का समय शुरू हो गया। परीक्षा के फॉर्म भरे जाने लगे! अपना परीक्षा फॉर्म भरते वक़्त शक्ति को अपने प्यार का सच साबित करने की सूझी! उन्होंने फॉर्म में अपना नाम शक्तिचंद और सरनेम की जगह 'बिमला' लिख दिया। ये सोचकर कि इस बहाने मैं अपने प्यार को हमेशा अपने साथ रखूँगा। प्यार की दीवानगी इस हद तक थी कि वो अपने नाम के साथ हमेशा के लिए 'बिमला' का नाम जोड़ना चाहते थे। उनकी ये दीवानगी काम कर गई। जब परीक्षा की अंक सूची आई तो सरनेम की जगह 'बिमल' (बिमला की जगह) लिखा हुआ था। घर में हंगामा हो गया। बात गाँव में भी फ़ैल गई कि राजपूत साहब के बेटे ने अपने नाम के आगे से सरनेम हटाकर 'बिमला' का नाम जोड़ लिया! पिता भी बहुत नाराज हुए और अंक सूची में इस नाम में संशोधन करना चाहा! लेकिन, शक्ति की जिद के आगे वो भी हार गए। लेकिन, शक्ति ने इस बहाने 'बिमला' को ये प्रेम संदेश जरूर दे दिया कि उनका प्रेम महज आकर्षण न होकर सच्चा है। 
  लेकिन, जीवन की कड़वी सच्चाई प्रेम को कब मानने लगी। गाँव का माहौल, समाज और जाति का डर, आज से चार दशक पहले की गाँव की मानसिकता ने शक्ति के प्रेम के अंकुर को पनपकर पौधा बनने से पहले ही मसल डाला! प्रेम विरोधी शक्तियों के सामने शक्तिचंद की ताकत जवाब दे गई। लेकिन, फिर भी उनकी बिमला 'बिमल' के रूप में उनके नाम के साथ जुड़ी थी! 
  इसी बीच बिमला की कहीं और शादी हो गई। वो गाँव से चली गई। वक्त के साथ शक्तिचंद को भी परिवार के दबाव में घर बसाना पड़ा। अपना घर, गाँव, परिवार सबकुछ छोड़कर बड़े शहर में बसना पड़ा। लेकिन, उन्होंने अपने नाम के साथ बिमला का नाम जुड़ा रहने दिया। 'शक्ति' के साथ 'बिमल' का नाम कोई भी अलग नहीं कर सका। ये बात उनकी पत्नी को भी पता है, पत्नी ने भी इस नाम से समझौता कर लिया। शक्तिचंद नाम से पुकारा जाना भी अच्छा नहीं लगता, वे चाहते हैं कि उन्हें 'बिमल साहब' कहकर ही पुकारा जाए। वे आज भी 'बिमला' के नाम को उसी शिद्दत और प्यार से निभा रहे हैं। जबकि, उस बिमला को देखे और मिले उन्हें 45 साल से ज्यादा हो गए। अब तो उन्हें बिमला के बारे में कोई जानकारी तक नहीं है! वो कहाँ है, कैसी है, कभी शक्तिचंद को उसने याद भी किया है या नहीं ये तक पता नहीं! इसके बावजूद वे अपने उस एकतरफा प्यार को अपने नाम के साथ चस्पा किए हुए हैं! शक्ति कहते हैं कि प्रेम में जरुरी नहीं कि दोनों तरफ से हो, मेरे दिल में उसके लिए भावना थी, वो उसके दिल में हो न हो! मेरा अमर प्रेम यही है कि जब तक जियूँगा 'बिमल' के नाम के साथ ही पुकारा जाऊंगा और मेरे बाद भी कोई 'बिमला' को मुझसे अलग नहीं कर पाएगा। मैं 'बिमला' के साथ नहीं हूँ तो क्या हुआ, वो तो मेरे साथ।  मेरे दिल में, मेरे नाम में भी!
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दर्शकों का गम भुलाने वाली फ़िल्में

- एकता शर्मा 

  कॉमेडी फ़िल्में ऐसी हैं, जिनका दौर कभी ख़त्म नहीं होता! बीच-बीच में जब भी कोई फिल्म हिट होती है, तो नई फिल्म का इंतजार शुरू हो जाता है। फिल्मों का इतिहास देखा जाए तो हर काल में कॉमेडी फ़िल्में ही सबसे ज्यादा पसंद की गई हैं। आज भी दर्शकों को ऐसी  फिल्मों का इंतजार होता है, जो उनके गम भुलाकर उन्हें तीन घंटे का स्वस्थ्य मनोरंजन दे सकें! कॉमेडी कभी भी फिल्मों का मूल विषय नहीं रहा! ब्लैक एंड व्हाइट ज़माने से फिल्मों में कॉमेडियन एक ऐसा पात्र होता था, जो कहानी में सीन बदलनेभर लिए होता था। ये कभी फिल्म कि मूल कहानी से जुड़ा होता था, कभी अलग होता था! 
  गोप, आगा और टुनटुन ऐसे ही कॉमेडियन थे! फिर आए, बदरुद्दीन उर्फ़ जॉनी वॉकर जिन्होंने अपनी कौम को नई पहचान दी और फिल्म में कॉमेडियन को अहम भूमिका में खड़ा कर दिया! लम्बे समय तक जॉनी वॉकर सिक्का चला! इसी दौर में किशोर कुमार ने भी 'चलती का नाम गाड़ी' और 'हाफ टिकट' जैसी फिल्मों से अपने जलवे दिखाए! लेकिन, फिर भी अच्छी कॉमेडी फ़िल्में आज भी उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं। कुछ फिल्मकारों ने जरूर अच्छी कॉमेडी फ़िल्में दी, जिन्हें आज भी दर्शक देखना पसंद करते हैं। सवाल उठता है कि अच्छी कॉमेडी फ़िल्म किसे कहा जाए? इसका एक ही जवाब है कि जिस फिल्म को हम अपनी ज़िन्दगी और उसकी उलझनों के जितना करीब पाते हैं, वही अच्छी कॉमेडी फिल्म होती है! 1968 में आई 'पड़ोसन' को! ये ऐसी फिल्म थी, जिसे जितनी बार देखा जाए मन नहीं भरता! रोमांटिक कॉमेडी वाली ये फिल्म गंवार सुनील दत्त और मार्डन सायरा बानो के आसपास कॉमेडी के रंग बिखेरती है। 
  1972 में अमिताभ बच्चन की शुरूआती फिल्म 'बाम्बे टू गोआ' को भी फिल्में देखने वाले भूल नहीं पाते, जिसमें बस सफर में हास्य खोजा गया था! 1975 में बनी 'चुपके चुपके' भी ऐसी फिल्म थी, जिसमें अमिताभ बच्चन और धर्मेन्द्र ने कॉमेडी रिकॉर्ड बनाया था। इस फिल्म में नकली और बेढंगे हास्य के बजाए परिस्थितिजन्य से उपजा शिष्ट हास्य था। इस परम्परा को इसी साल आई 'छोटी सी बात' ने आगे बढ़ाया। दर्शकों को इस फिल्म में शिष्ट कॉमेडी नजर आई, जिसमें फूहड़ता और द्विअर्थी संवादों लिए कोई जगह नहीं थी! इसी तरह का शिष्ट हास्य 1979 में आई फिल्म 'गोलमाल' में भी नजर आया! इसी को आधार बनाकर रोहित शेट्टी ने 'बोल बच्चन' बनाई, जिसने भी सराहा गया। कॉमेडी को नया रूप देने वाली 1981 में आई सईं परांजपे की फिल्म 'चश्मे बद्दूर' को भी भुलाया नहीं जा सकता। 2013 में इसी स्टोरी को नए कलाकारों के साथ डेविड धवन ने बनाया था। सई परांजपे की ही फिल्म 'कथा' ने अपने तरीके से खरगोश और कछुवे पुरानी कहानी को जिंदा किया था। 
   1983 में कुन्दन शाह ने 'जाने भी दो यारो' बनाई और दर्शकों को बांधे रखा! इसके एक सीन महाभारत का मंचन और क्लाइमेक्स में लाश की गड़बड़ को दर्शक आज भी नहीं भूले हैं। प्रकाश मेहरा ने 1986 में अनिल कपूर, अमृता सिंह को लेकर 'चमेली की शादी' में कॉमेडी का तालमेल बनाया था। अब ये जरुरी नहीं कि कॉमेडियन ही फिल्मों में  किरदार निभाएं! गोविंदा, संजय दत्त, आमिर खान, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र और सलमान जैसे बड़े कलाकारों ने भी कॉमेडी रोल करने मौका नहीं छोड़ा! कुली नंबर-1, मुन्नाभाई, अंदाज अपना अपना, हेराफेरी, गोलमाल और वेलकम सीरीज की फ़िल्में इसी का उदहारण है।  
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