- एकता शर्मा
एक वकील के रूप में काम करते हुए मुझे रोज ही ऐसे लोगों से मिलना होता है, जो किसी न किसी परेशानी से ही घिरे होते हैं। ऐसी ही एक कहानी जसोदा बाई की भी है। एक दिन अचानक मेरे पास दो महिलाएं आई और कहने लगी 'मैडम क्या आप हमारी मदद करेंगी?' ऑफिस में काम करते हुए मैंने गर्दन उठाकर देखा तो एक अधेड़ उम्र की महिला के साथ एक 25-26 साल की महिला खड़ी थी। अधेड़ महिला ने मुझे साथ आई महिला को बेटी के रूप में मिलाते हुए कहा 'मैडम ये मेरी बेटी जसोदा है। बहुत परेशान है, आपकी मदद चाहिए।' मैली कुचैली साड़ी में सिर पर पल्ला लिए ग्रामीण परिवेश की उस महिला नाक नख़्स तीखे थे। रंग गोरा और आँखे भूरी थी। जशोदा सुंदर दिखी, पर चेहरे पर अजीब सा सूनापन था।उसने अपनी जो परेशानी बताई वो कुछ यूँ थी। जशोदा पास के ही गाँव की रहने वाली थी। उसकी शादी 5 साल पहले हुई थी। किसान पति, जमीन और मकान सब कुछ था घर में। उसके दो बेटे भी थे। दोनों बेटों की उम्र लगभग 4 और 2 साल थी। जशोदा का जीवन आराम से कट रहा था। एक सुखी किसान परिवार में रहते हुए वो समझ रही थी, कि शायद वो दुनिया की उन खुशकिस्मत औरतों में से थी, जिन्हें अच्छा पति और घर मिलता है। लेकिन, वक़्त की मार ने जशोदा के खुशहाल जीवन को संघर्ष में बदल दिया! जिसकी शुरुआत उसके पति की मौत से हुई! पति की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई! इसके बाद तो जशोदा की सारी खुशियां ख़त्म हो गई और यहीं से शुरू हुआ संघर्ष का सफर। दो छोटे बच्चों के साथ वो अकेली रह गई। अब कैसे खेती होगी, कैसे घर चलेगा? ऐसे कई सवाल उसके सामने खड़े हो गए! पति की मौत के सदमे से जशोदा अभी उबर भी नहीं पाई थी, कि ससुराल वालों के भी तेवर बदल गए! देवर और उसकी पत्नी ने उसे घर से जाने का दबाव बनाना शुरू कर दिया! परिवार के बाकी लोगों ने भी उसे डायन करार दिया। पति की मौत को एक महीना भी नहीं हुआ था कि उसे ससुराल वालों ने ताने दे देकर घर से निकाल दिया।
माँ-बाप की लाडली और पति प्यारी जशोदा अभी तक ससुराल में रानी बनकर रह रही थी, सड़क पर आ गई! जिसने दुनियादारी की कोई समस्या नहीं देखी थी, उसके सामने पहाड़ सी जिंदगी और दो बच्चों को पालने की चुनौती भी! लेकिन, उसने अपने आपको सम्हालकर जीना शुरू किया। समस्या शुरू तो हुई, पर उसे इसके ख़त्म होने का कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। जशोदा अपने जीवन-यापन के लिए खुद ही खेती करने को तैयार हुई, तो पता चला कि देवर ने खेत पर कब्ज़ा कर लिया है। पति के जीते जी बंटवारा नहीं हुआ था। जमीन सास के नाम पर जमीन थी! उससे भी बड़ी समस्या तब सामने आई, जब पता चला कि देवर ने जमीन की रजिस्ट्री अपनी पत्नी के नाम करवा ली।
क़ानूनी रूप से रजिस्ट्री की हुई ज़मीन को विक्रय ही माना जाता है। इसलिए क़ानूनी लड़ाई में जशोदा को राहत मिलने की उम्मीद कम ही थी। उसके अलावा अदालती लड़ाई में लगने वाला खर्च, वकीलों की फीस और रोज-रोज के कोर्ट के चक्कर! कोई भी घरेलू महिला ये सोचकर ही हार मान लेती है। लेकिन, जशोदा ने हिम्मत नहीं हारी। जब मैंने उसे बताया की केस लड़ने में खर्च लगेगा, समय भी लगेगा! सब बात सुनकर भी उसने बड़ी हिम्मत के साथ हामी भरी। उसकी हिम्मत देखकर मैंने उसकी मदद करने के उद्देश्य से बिना फीस के उसका केस लड़ने का फैसला किया! इसी के साथ शुरू हुई जशोदा की लड़ाई। बच्चों की परवरिश के लिए उसने गाँव में ही मजदूरी शुरू कर दी!
हालांकि, जशोदा के मामले में जीत के आसार बहुत कम ही थे। फिर भी उसने लड़ाई की शुरुआत की! तारीख पर तारीख चलना शुरू हुई। लेकिन, जशोदा की हिम्मत समय के बढ़ती चली गई। कभी वो अपने दोनों छोटे बच्चों को साथ लाती, कभी किसी के सहारे छोड़कर आती! मगर, कभी भी केस की तारीख नहीं चूकती! गर्मियों की तपती दोपहर में वो सुबह गाँव से निकलती, करीब 2 किलोमीटर पैदल रास्ता तय करके सड़क तक आती, वहाँ से बस में बैठकर कोर्ट आती! सरे रास्ते और बस की भीड़ में एक कम उम्र की सुंदर महिला होना भी उसकी परेशानी थी! लोगों से तो वो बच जाती! लेकिन, गन्दी नजरों से बचना उसके लिए आसान नहीं था। ये सब कुछ सहते हुए भी वो आती रही।
देवर के वकील ने भी अपनी तरफ से केस में रोडे अटकाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस सबमें करीब एक साल बीत गया। इस बीच क़ानूनी पैचीदगी के चलते जशोदा की तरफ से 4 केस खड़े हो गए। हर केस की तारीख पर हाजिर होना, खर्चीला तो होता ही! लेकिन, उस दिन उसकी मजदूरी का भी नुकसान होता। इस तरह उसे दोहरी मार झेलनी पड़ती। लेकिन, उसकी हिम्मत देखते हुए मैंने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी। कानून के नजरिए से जशोदा का मामला कमजोर था। लेकिन, उसकी हिम्मत ने मुझे भी हिम्मत दिलाई और हम लड़ते गए। आखिर सालभर बाद जब उसकी जमीन पर फसल पकी, तब एक रास्ता निकाला। उसे हिम्मत दिलाई और और एक रास्ता भी! जशोदा क़ानूनी लड़ाई के साथ खेत में खुद लाठी लेकर खड़ी हो गई! जब वो खेत में लाठी लेकर खड़ी हुई, तब उसके सामने वो ही उसके अपने लोग सामने थे, जिनका पति के रहते वो सम्मान करके घूंघट निकाला करती थी। जिनके सामने जशोदा एक बहू बनकर खड़ी होती थी, अब वो उन्हीं के सामने दुर्गा का रूप लेकर खड़ी थी। उसके उस रूप को देखकर उसके ससुराल वाले भी डर गए! पहली जीत जशोदा उसकी जमीन की फसल के रूप में मिली।
इस घटना के बाद जशोदा की हिम्मत दोगुनी हो गई! वो अब और ज्यादा हिम्मत से कोर्ट आती। बयान के वक़्त भी उसे अपनों के सामने ही जवाब देना थे। तब भी जशोदा ने उसी हिम्मत से उनका सामना किया। उसकी इतनी हिम्मत देखकर देवर कहीं न कहीं अंदर से डरने भी लगा था। उसने मुझसे संपर्क किया। मैंने समझौते की कार्यवाही पर जोर दिया! क्योंकि, वकील होने के नाते मुझे शुरू से ही अंदेशा था कि हमारे जीतने के आसार कम हैं। जशोदा की दिन पर दिन बढ़ती हिम्मत देखकर उसके देवर के हौंसले पस्त होने लगे थे। धीरे-धीरे गाँव के लोगों ने भी जशोदा का साथ देना शुरू कर दिया। इस सबके चलते देवर पर दबाव बढ़ने लगा। उसने खुद मुझसे संपर्क करके राजीनामे की बात की! मैंने उसे समझाया की जशोदा की जमीन उसके नाम कर दो, तभी राजीनामा संभव है। कई बार की बातचीत का नतीजा यह हुआ कि देवर ने जशोदा के हिस्से की जमीन की रजिस्ट्री उसके और उसके बच्चों के नाम करवा दी। रजिस्ट्री होने के बाद अपने वादे के अनुसार राजीनामा कर लिया गया। अब जसोदा खुद अपने खेत पर खेती कर रही है और बच्चों का पालन पोषण कर रही है। इस तरह अपनी हिम्मत से क़ानूनी रूप से कमजोर होते हुए भी जशोदा ने लगभग हारी हुई बाजी जीत ली! उसकी इस लड़ाई में एक खासियत यह भी रही कि उसका साथ देने वाली भी दो महिलाएं ही थी! एक उसकी माँ और दूसरी उसकी वकील यानी मैं! कहा जा सकता है कि तीन महिलाओं ने मिलकर एक लगभग हारी हुई बाजी जीतकर बाजीगर बन गई।
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