Wednesday 8 March 2017

हारी बाजी जीतकर 'बाजीगर' बनी जशोदा!

- एकता शर्मा 

     एक वकील के रूप में काम करते हुए मुझे रोज ही ऐसे लोगों से मिलना होता है, जो किसी न किसी परेशानी से ही घिरे होते हैं। ऐसी ही एक कहानी जसोदा बाई की भी है। एक दिन अचानक मेरे पास दो महिलाएं आई और कहने लगी 'मैडम क्या आप हमारी मदद करेंगी?' ऑफिस में काम करते हुए मैंने गर्दन उठाकर देखा तो एक अधेड़ उम्र की महिला के साथ एक 25-26 साल की महिला खड़ी थी। अधेड़ महिला ने मुझे साथ आई महिला को बेटी के रूप में मिलाते हुए कहा 'मैडम ये मेरी बेटी जसोदा है। बहुत परेशान है, आपकी मदद चाहिए।' मैली कुचैली साड़ी में सिर पर पल्ला लिए ग्रामीण परिवेश की उस महिला नाक नख़्स तीखे थे। रंग गोरा और आँखे भूरी थी। जशोदा सुंदर दिखी, पर चेहरे पर अजीब सा सूनापन था।
    उसने अपनी जो परेशानी बताई वो कुछ यूँ थी। जशोदा पास के ही गाँव की रहने वाली थी। उसकी शादी 5 साल पहले हुई थी। किसान पति, जमीन और मकान सब कुछ था घर में। उसके दो बेटे भी थे। दोनों बेटों की उम्र लगभग 4 और 2 साल थी। जशोदा का जीवन आराम से कट रहा था। एक सुखी किसान परिवार में रहते हुए वो समझ रही थी, कि शायद वो दुनिया की उन खुशकिस्मत औरतों में से थी, जिन्हें अच्छा पति और घर मिलता है। लेकिन, वक़्त की मार ने जशोदा के खुशहाल जीवन को संघर्ष में बदल दिया! जिसकी शुरुआत उसके पति की मौत से हुई! पति की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई! इसके बाद तो जशोदा की सारी खुशियां ख़त्म हो गई और यहीं से शुरू हुआ संघर्ष का सफर। दो छोटे बच्चों के साथ वो अकेली रह गई। अब कैसे खेती होगी, कैसे घर चलेगा? ऐसे कई सवाल उसके सामने खड़े हो गए! पति की मौत के सदमे से जशोदा अभी उबर भी नहीं पाई थी, कि ससुराल वालों के भी तेवर बदल गए! देवर और उसकी पत्नी ने उसे घर से जाने का दबाव बनाना शुरू कर दिया! परिवार के बाकी लोगों ने भी उसे डायन करार दिया। पति की मौत को एक महीना भी नहीं हुआ था कि उसे ससुराल वालों ने ताने दे देकर घर से निकाल दिया।
   माँ-बाप की लाडली और पति प्यारी जशोदा अभी तक ससुराल में रानी बनकर रह रही थी, सड़क पर आ गई! जिसने दुनियादारी की कोई समस्या नहीं देखी थी, उसके सामने पहाड़ सी जिंदगी और दो बच्चों को पालने की चुनौती भी! लेकिन, उसने अपने आपको सम्हालकर जीना शुरू किया। समस्या शुरू तो हुई, पर उसे इसके ख़त्म होने का कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। जशोदा अपने जीवन-यापन के लिए खुद ही खेती करने को तैयार हुई, तो पता चला कि देवर ने खेत पर कब्ज़ा कर लिया है। पति के जीते जी बंटवारा नहीं हुआ था। जमीन सास के नाम पर जमीन थी! उससे भी बड़ी समस्या तब सामने आई, जब पता चला कि देवर ने जमीन की रजिस्ट्री अपनी पत्नी के नाम करवा ली।
  क़ानूनी रूप से रजिस्ट्री की हुई ज़मीन को विक्रय ही माना जाता है। इसलिए क़ानूनी लड़ाई में जशोदा को राहत मिलने की उम्मीद कम ही थी। उसके अलावा अदालती लड़ाई में लगने वाला खर्च, वकीलों की फीस और रोज-रोज के कोर्ट के चक्कर! कोई भी घरेलू महिला ये सोचकर ही हार मान लेती है। लेकिन, जशोदा ने हिम्मत नहीं हारी। जब मैंने उसे बताया की केस लड़ने में खर्च लगेगा, समय भी लगेगा! सब बात सुनकर भी उसने बड़ी हिम्मत के साथ हामी भरी। उसकी हिम्मत देखकर मैंने उसकी मदद करने के उद्देश्य से बिना फीस के उसका केस लड़ने का फैसला किया! इसी के साथ शुरू हुई जशोदा की लड़ाई। बच्चों की परवरिश के लिए उसने गाँव में ही मजदूरी शुरू कर दी!
   हालांकि, जशोदा के मामले में जीत के आसार बहुत कम ही थे। फिर भी उसने लड़ाई की शुरुआत की! तारीख पर तारीख चलना शुरू हुई। लेकिन, जशोदा की हिम्मत समय के बढ़ती चली गई। कभी वो अपने दोनों छोटे बच्चों को साथ लाती, कभी किसी के सहारे छोड़कर आती! मगर, कभी भी केस की तारीख नहीं चूकती! गर्मियों की तपती दोपहर में वो सुबह गाँव से निकलती, करीब 2 किलोमीटर पैदल रास्ता तय करके सड़क तक आती, वहाँ से बस में बैठकर कोर्ट आती! सरे रास्ते और बस की भीड़ में एक कम उम्र की सुंदर महिला होना भी उसकी परेशानी थी! लोगों से तो वो बच जाती! लेकिन, गन्दी नजरों से बचना उसके लिए आसान नहीं था। ये सब कुछ सहते हुए भी वो आती रही।
    देवर के वकील ने भी अपनी तरफ से केस में रोडे अटकाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस सबमें करीब एक साल बीत गया। इस बीच क़ानूनी पैचीदगी के चलते जशोदा की तरफ से 4 केस खड़े हो गए। हर केस की तारीख पर हाजिर होना, खर्चीला तो होता ही! लेकिन, उस दिन उसकी मजदूरी का भी नुकसान होता। इस तरह उसे दोहरी मार झेलनी पड़ती। लेकिन, उसकी हिम्मत देखते हुए मैंने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी। कानून के नजरिए से जशोदा का मामला कमजोर था। लेकिन, उसकी हिम्मत ने मुझे भी हिम्मत दिलाई और हम लड़ते गए। आखिर सालभर बाद जब उसकी जमीन पर फसल पकी, तब एक रास्ता निकाला। उसे हिम्मत दिलाई और और एक रास्ता भी! जशोदा क़ानूनी लड़ाई के साथ खेत में खुद लाठी लेकर खड़ी हो गई! जब वो खेत में लाठी लेकर खड़ी हुई, तब उसके सामने वो ही उसके अपने लोग सामने थे, जिनका पति के रहते वो सम्मान करके घूंघट निकाला करती थी। जिनके सामने जशोदा एक बहू बनकर खड़ी होती थी, अब वो उन्हीं के सामने दुर्गा का रूप लेकर खड़ी थी। उसके उस रूप को देखकर उसके ससुराल वाले भी डर गए! पहली जीत जशोदा उसकी जमीन की फसल के रूप में मिली।
   इस घटना के बाद जशोदा की हिम्मत दोगुनी हो गई! वो अब और ज्यादा हिम्मत से कोर्ट आती। बयान के वक़्त भी उसे अपनों के सामने ही जवाब देना थे। तब भी जशोदा ने उसी हिम्मत से उनका सामना किया। उसकी इतनी हिम्मत देखकर देवर कहीं न कहीं अंदर से डरने भी लगा था। उसने मुझसे संपर्क किया। मैंने समझौते की कार्यवाही पर जोर दिया! क्योंकि, वकील होने के नाते मुझे शुरू से ही अंदेशा था कि हमारे जीतने के आसार कम हैं। जशोदा की दिन पर दिन बढ़ती हिम्मत देखकर उसके देवर के हौंसले पस्त होने लगे थे। धीरे-धीरे गाँव के लोगों ने भी जशोदा का साथ देना शुरू कर दिया। इस सबके चलते देवर पर दबाव बढ़ने लगा। उसने खुद मुझसे संपर्क करके राजीनामे की बात की! मैंने उसे समझाया की जशोदा की जमीन उसके नाम कर दो, तभी राजीनामा संभव है। कई बार की बातचीत का नतीजा यह हुआ कि देवर ने जशोदा के हिस्से की जमीन की रजिस्ट्री उसके और उसके बच्चों के नाम करवा दी। रजिस्ट्री होने के बाद अपने वादे के अनुसार राजीनामा कर लिया गया। अब जसोदा खुद अपने खेत पर खेती कर रही है और बच्चों का पालन पोषण कर रही है। इस तरह अपनी हिम्मत से क़ानूनी रूप से कमजोर होते हुए भी जशोदा ने लगभग हारी हुई बाजी जीत ली! उसकी इस लड़ाई में एक खासियत यह भी रही कि उसका साथ देने वाली भी दो महिलाएं ही थी! एक उसकी माँ और दूसरी उसकी वकील यानी मैं! कहा जा सकता है कि तीन महिलाओं ने मिलकर एक लगभग हारी हुई बाजी जीतकर बाजीगर बन गई।
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हर दौर में बदलता रहा स्टारडम

- एकता शर्मा 

  राजकपूर को फ़िल्मी दुनिया का शो-मेन कहा जाता है। जो राजकपूर ने बॉलीवुड को दिया वो शायद कोई कभी सोच भी नहीं सकता। जीना यहां मरना यहां से उन्होंने शायद हर किसी को वो खोई हुई उम्मीदें जगा दी। साधारण सी कद काठी और चार्ली चैपलीन सा अंदाज। कभी मेरा जूता है जापानी तो जिस देस में गंगा बहती है। राजकपूर ने दर्शकों की नब्ज पकड़ी और बॉलीवुड एक जरिया बन गया लोगों को जोड़ने का। एक से एक बेहतरीन फिल्में, कुछ हिट और कुछ फ्लॉप! लेकिन, राजकपूर बन गए, बॉलीवुड के पहले सुपरस्टार। 
  फिर आया एक नया दौर, जिसमें एक लड़का लोगों पर राज करने लगा। नाम था दिलीप कुमार। वे अपने अलग-अलग तरह के किरदारों के लिए जाने जाते रहे। मुगलेआजम, देवदास, राम और श्याम, बंदिनी, मधुमति, कोहिनूर, यहूदी फिल्मों ने दर्शकों को दीवाना बना दिया था। आज भी उनको यादगार फिल्मों के लिए जाना जाता है। उन्हें भारतीय फिल्मों के सर्वोच्च सम्मान 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। इसके बाद आया एक और नया चेहरा! इठलाता, झूमता और मस्ती में रहने वाला देव आनंद। सामान्य सी कद काठी पर अंदाज बिल्कुल जुदा। पेइंग गेस्ट, बाजी, ज्वैल थीफ, सीआईडी, जॉनी मेरा नाम, अमीर गरीब, वारंट, हरे राम हरे कृष्ण और देस परदेस जैसी कई हिट फिल्में दी।
  राजेश खन्ना सही मायनों में स्टारडम को एक अलग ही स्तर पर ले गए थे। फिल्म इंडस्ट्री में राजेश को प्यार से 'काका' कहा जाता था। एक कहावत बड़ी मशहूर थी 'ऊपर आका और नीचे काका।' राजेश खन्ना ने अपनी विरासत सौंप दी बाबू मोशाय यानी अमिताभ बच्चन को। किसी को पता भी नहीं चला कि कब बॉलीवुड को उसका शहंशाह मिल गया। अमिताभ बच्चन की स्टारडम को आंकना बहुत ही मुश्किल है। उनके जैसी शख्सियत शायद कई सदियों में एक ही होती है। इसके बाद बॉलीवुड को मिला इसका पहला चॉकलेटी बॉय। उम्र ज्यादा नहीं थी इसलिए उसका सारी हरकतें माफ थीं। बात हो रही है ऋषि कपूर की। उनके स्टारडम का आलम ये था कि हिट हो या फ्लॉप वो धड़ाधड़ फिल्में करते जाते थे। ऋषि कपूर ने अपने करियर में 1973-2000 तक 92 फिल्मों में रोमांटिक हीरो का किरदार निभाया है। 
  चाकलेटी अभिनय के लिए जाने वाले अनिल कपूर ने 'वो सात दिन' में अपने सादगी के अभिनय के बाद  'तेजाब' मे जिस तरह की अदाकारी की उसके बाद तो 'राम लखन' सहित दर्जनों फिल्मों से लोगों दीवाना बना दिया। माधुरी के साथ तो उनकी जोडी भी खासी लोकप्रिय हुई। चाकलेटी हीरो में एक नाम सैफ को भी आता है। उनकी बेवाक अदाकारी ने भी कही लोगों को दीवाना तो बना ही दिया है। फिर खत्म हुआ स्टारडम का अंत जब तीन खान ने एक साथ बॉलीवुड में दस्तक दी। 25 साल हो गए अभी तक हमें कोई अगला सुपरस्टार नहीं मिला। आलम ये है कि शाहरूख, सलमान और आमिर को साथ में लाने के लिए पूरी इंडस्ट्री सपने देखती है। शाहरूख, सलमान, आमिर तीनों बॉलीवुड में करीब 25 साल से राज कर रहे हैं और वाकई अगर किसी स्टार को आना होता तो अब तक दस्तक दे चुका होता। 
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डायलॉग बोलने का अंदाज ही जिनकी पहचान बना

 - एकता शर्मा 

  फिल्मों में संवाद अदायगी का अपना अलग ही अंदाज होता है। कई एक्टर तो सिर्फ इसलिए पसंद किए गए कि उनके संवाद बोलने का अंदाज  पहचान बना! फ़िल्मी दुनिया के हर दौर के सितारों के हिस्से में ऐसे संवाद आते रहे, जिन्होंने दर्शकों में उनकी लोकप्रियता बढ़ाई। उन सितारों के साथ ज्यादा ऐसा ज्यादा हुआ जिनडायलॉग बोलने का अंदाज नाटकीय रहा। राजकुमार के हर डायलॉग से पहले 'जॉनी' बोलना उनका ट्रेड मार्क बन गया था। ‘पाकीजा’ में उनका बोला एक संवाद 'आपके पैर देखे, बहुत हसीन हैं। इन्हें जमीन पर मत उतारिए मैले हो जाएंगे’ बहुत चला। राजेश खन्ना ने कई फिल्मों में काम किया। लेकिन, ‘आनंद’ के कई दिल को छू लेने वाले संवादों ने फिल्म  डाल दी थी। फिर ‘अमर प्रेम’ का उनका संवाद ‘पुष्पा, आई हेट टियर्स’ ने तो मानो सनसनी मचा दी! लेकिन, बेहतरीन आवाज होने के बावजूद अमिताभ बच्चन को सुनील दत्त ने ‘रेशमा और शेरा’ में गूंगे का किरदार दिया था। 
  अपने करियर में दमदार आवाज के दम पर अमिताभ ने कई संवादों को यादगार बना दिया। ‘मर्द’ का ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ हो या ‘कालिया’ का ‘हम जहां खड़े हो जाते हैं लाइन वहीं से शुरू हो जाती है’, ‘शराबी’ का ‘मूंछे हों तो नत्थूलाल जैसी’ या ‘शाहंशाह’ का ‘रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप लगते हैं नाम है बादशाह।’ 1978 में बनी ‘डॉन’ का एक संवाद ‘डॉन का इंतजार तो ग्यारह मुल्कों की पुलिस कर रही है लेकिन सोनिया, डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमिक है’ सब पर भारी रहा। शत्रुघ्न सिन्हा का ‘विश्वनाथ’ का संवाद ‘जली को आग कहते हैं बुझी को राख कहते हैं, जिस राख से बारूद बने उसे विश्वनाथ कहते हैं’ बेहद हिट हुआ। 
  इन दिनों फिल्मों में फूहड़ संवादों का चलन भी बढ़ा है। सलमान खान ने अपनी पहली फिल्म ‘मैंने प्यार किया’ में एक संवाद बोला था ‘दोस्ती का एक उसूल है मैडम, नो सॉरी नो थैंक यू।’ लेकिन, ‘दबंग’ का उनका संवाद था ‘इतने छेद कर देंगे कि कनफ्यूज हो जाओगे!’ ‘वांटेड’ में उनका डायलॉग था ‘एक बार जो मैंने कमिटमेंट कर दी तो मैं अपने आप की भी नहीं सुनता।’ यह ठीक ठीक रहा और लोकप्रिय भी हुआ। लेकिन, उनकी ज्यादातर फिल्मों में सड़क छाप संवादों का ही जोर रहा। ‘इश्क’ में आमिर खान का डायलॉग था ‘दुनिया में तीन चीजों के पीछे कभी नहीं भागना चाहिए बस, ट्रेन और छोकरी। एक जाती है दूसरी आ जाती है।’
  विलेन के बोले संवाद को लोगों तक पहुंचाने का जो काम ‘शोले’ ने किया, वह कोई और फिल्म तो नहीं दिखा पाई! लेकिन, ‘कालीचरण’ में अजित का बोला संवाद ‘सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है’ और ‘मिस्टर इंडिया’ में अमरीश पुरी का संवाद ‘मोगैंबो खुश हुआ’ काफी लोकप्रिय रहा। अभिनेत्रियों के हिस्से में लोकप्रिय संवाद कम ही आए हैं। ‘दबंग’ में सोनाक्षी सिन्हा का संवाद 'थप्पड़ से डर नहीं लगता साहब प्यार से लगता है’ और ‘द डर्टी पिक्चर्स’ में विद्या बालन का संवाद ‘फिल्म तीन वजह से चलती है एंटरटेनमैंट, एंटरटेनमैंट और एंटरटेनमैंट और मैं एंटरटेनमैंट हूं’ लोकप्रिय हुआ। अब तो संवादों में अशिष्ट शब्द और कहीं कहीं तो गाली गलौच इस्तेमाल करने का चलन शुरू हो गया! नो वन किल्ड जेसिका, मर्दानी, गुलाब गैंग, डेढ़ इश्किया, गैंग्स आफ वासेपुर की गालियां को सवादों की तरह पेश किया गया! यह प्रवृत्ति रुकने वाली नहीं है। हो सकता है, कुछ दिनों बाद फिल्मों में डायलॉग की जगह खुलेआम गालियां सुनने को मिले!
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