Tuesday 29 August 2017

परदे पर भी उठता रहा है 'तीन तलाक़' का मसला

- एकता शर्मा 

  सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में संसद के नए कानून बनाने तक तीन तलाक पर रोक लगा दी है। जबकि, फिल्मों में 'तीन तलाक़' एक फ़िल्मी कथानक की तरह बरसों से छाया रहा। ये सामाजिक मसला था इसलिए निर्देशकों ने इसपर फ़िल्में बनाने में ज्यादा रियायत भी नहीं ली! लेकिन, निकाह जैसी फिल्म ने इस मुद्दे को सही तरीके से दर्शकों के सामने रखा था। फिल्म का एक संवाद      बहुत लोकप्रिय हुआ था 'जब औरत की मर्जी के बगैर निकाह नहीं हो सकता तो तलाक कैसे       हो सकता है?' 
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    बॉलीवुड में शायद ही ऐसा कोई मुद्दा बचा होगा जिस पर फिल्में न बनी हों! तीन तलाक़ भी ऐसा मुद्दा है, जिस पर कई फ़िल्में बन चुकी है। हालांकि, वक़्त के साथ फिल्मों की कहानियों में भी बदलाव आया है। फिल्मों के ट्रेंड भी बदले हैं, लेकिन सामाजिक समस्याओं पर कहानियां गढ़ने का काम बंद नहीं हुआ! मुस्लिम प्रथा 'तीन तलाक' पर कई फिल्म बन चुकी है और अब भी बन रही है। लेकिन, सबसे सफल फिल्म थी बीआर चोपड़ा की 'निकाह।' फिल्म की कहानी अचला नागर की थी, जो इसलिए मुद्दे पर लिखने के लिए मजबूर हुई थी कि 'जब औरत की मर्जी के बगैर निकाह नहीं हो सकता तो तलाक कैसे हो सकता है?' करीब 35 साल पहले बनी इस फिल्म को लेकर तब भी उतने ही विवाद उठे थे, जितने आज इस मुद्दे को लेकर उठ रहे हैं।
   इसी फिल्म से पाकिस्तान की एक्ट्रेस सलमा आगा ने बॉलीवुड में अपने करियर की शुरुआत की थी। राज बब्बर और दीपक पाराशर फिल्म के दो एक्टर थे। फिल्म का कथानक तीन तलाक से एक औरत की जिंदगी में आए तूफान को लेकर था। पहले इसका नाम ‘तलाक तलाक तलाक’ रखा गया था। लेकिन, सेंसर बोर्ड से आपत्ति और विचार-विमर्श के बाद फिल्म का नाम ‘निकाह’ रखा गया। नाम इसीलिए बदला गया था कि सामान्य जीवन में इसे बोलने से किसी मुस्लिम मर्द का अपनी पत्नी से तलाक न हो जाए! क्योंकि, इस्लाम की मान्यता के मुताबिक मुस्लिम महिला के कान में अगर उसके पति द्वारा उच्चरित तीन बार ‘तलाक...तलाक...तलाक’ सुनाई दे दे, तो फिर वह तलाक माना जाता है।
  पहले सन् 1938 में एक फिल्म बनी थीं जिसका नाम ही था ‘तलाक।’ इस फिल्म का निर्देशन सोहराब मोदी ने किया था। इसमें तलाक को एक सामाजिक बुराई के तौर पर दिखाया गया था। सायरा बानो की मां नसीम बानो ने इस फिल्म में मुख्य किरदार निभाया था।   1958 में आई फिल्म 'तलाक़' में राजेंद्र कुमार ने अपने शानदार अभिनय से लोगों का दिल जीत जीत लिया था. इस फिल्म के लिए निर्देशक महेश कौल को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के लिए फिल्मफेयर अवॉर्ड के लिए नामांकित भी किया गया था। इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म के फिल्मफेयर अवॉर्ड के लिए भी नामित किया गया था। इसमें राजेंद्र कुमार और कामिनी कदम ने अभिनय किया था। फिल्म की कहानी हिन्दू पति-पत्नी के दांपत्य जीवन पर आधारित थी, न कि मुस्लिम पति-पत्नी पर। 1960 में आई गुरु दत्त, जॉनी वाकर और वहीदा रहमान की फिल्म 'चौदहवीं का चांद' भी तलाक जैसे मुद्दों पर बनी थी। इस फिल्म को भी लोगों द्वारा काफी सराही गई थी।
  तीन तलाक़ जैसी प्रथा के खिलाफ समाज में जागरूकता जगाने की कोशिश निर्देशक विपुल झा ने भी की थी। उन्होंने एक शॉर्ट फिल्म 'ट्रिपल तलाक़' बनाई थी। यह फिल्म सच्ची घटना पर आधारित थी, जिसमें तलाक से जुड़े कई जरूरी मुद्दों को फिल्म के माध्यम से दर्शाया गया था। तलाक मुद्दे पर ही 'हलाल' भी बनी थी, जिसे निर्देशक शिवाजी लोटन पटेल ने बनाया था। लेखराज टंडन की फिल्म ‘फिर उसी मोड़ पर’ की कहानी भी 'तीन तलाक' से पीड़ित एक मुस्लिम महिला की थी, जो तलाक के बाद संघर्ष के दौर से गुजरती है। हालात ऐसे बनते हैं कि अपने और अपनी बहू के लिए वह भारतीय संविधान के तहत इंसाफ मांगती है।
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Tuesday 22 August 2017

अदालत ने मुस्लिम महिलाओं के लिए रास्ता खोला

मुद्दा : तीन तलाक़ 

- एकता शर्मा 

सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने तीन तलाक़ पर फैसला सुना दिया। पांच में से जजों ने तीन तलाक़ को असंवैधानिक माना और इस पर छह महीने के लिए रोक लगा दी। कोर्ट ने सरकार को इस पर कानून बनाने के लिए कहा है। मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की वकील चंद्रा राजन के मुताबिक कोर्ट ने सरकार से कानून बनाने के लिए कहा है। तीन तलाक़ मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का हनन है या नहीं, इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने इस साल मई में सुनवाई के बाद ही फैसला सुरक्षित कर लिया था। इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय बेंच में सभी धर्मों के जजों को शामिल किया गया था। चीफ जस्टिस जेएस खेहर, जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस यूयू ललित, जस्टिस अब्दुल नज़ीर और जस्टिस रोहिंग्टन एफ नरीमन थे। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में 11 से 18 मई के बीच लगातार सुनवाई की थी। सुनवाई के दौरान ही कोर्ट ने कहा था कि कुछ सामाजिक संगठन तीन तलाक़ को वैध मानते हैं। लेकिन, शादी तोड़ने के लिए यह प्रक्रिया सही नहीं है।
   इस फैसले का आधार बनी 8 दिसम्बर, 2016 की इलाहाबाद हाईकोर्ट की एक अहम टिप्पणी। हाईकोर्ट ने तीन तलाक या मुस्लिम पुरुषों द्वारा सिर्फ तीन बार 'तलाक' कहकर पत्नी को छोड़ने की प्रक्रिया को असंवैधानिक बताया और कहा था कि ये महिला अधिकारों का हनन है। हाईकोर्ट ने यह भी कहा था कि कोई भी पर्सनल लॉ बोर्ड देश के संविधान से ऊपर नहीं हो सकता! कोर्ट का कहना था कि किसी भी समुदाय के पर्सनल लॉ उन अधिकारों से ऊपर नहीं हो सकते, जो प्रत्येक नागरिक को भारत के संविधान ने प्रदान किए हैं। तीन तलाक को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाली याचिकाओं में महिलाओं का आरोप था कि उन्हें फेसबुक, स्काइप और व्हॉट्सऐप के ज़रिए भी तलाक दिया जा रहा है।
  भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यक श्रेणी में हैं। लेकिन, उनकी संख्या सभी अल्पसंख्यक समुदायों में सबसे ज़्यादा है। संविधान में मुस्लिमों को उनकी शादियां, तलाक तथा विरासत के मुद्दों को अपने सिविल कोड के ज़रिए तय करने का अधिकार मिला है। सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने इसी साल केंद्र सरकार से यह जांचने के लिए कहा था कि क्या इस कानून में दखल देने से इस समुदाय के मौलिक अधिकारों का हनन होता है?
  महिला अधिकारों के लिए संघर्षरत कार्यकर्ता लंबे समय से मुस्लिम पर्सनल लॉ में बदलाव की मांग करते आ रहे हैं। उनके अनुसार मुस्लिम पर्सनल लॉ महिलाओं के प्रति भेदभाव करता है और समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है। महिला कार्यकर्ताओं की मांग है कि एक ऐसा स्पष्ट कानून हो, जो बहुविवाह, एकतरफा तलाक और बालविवाह को अपराध घोषित करे! ये महिला कार्यकर्ता 'हलाला' की प्रथा को भी खत्म करवाना चाहते हैं, जिसके तहत किसी महिला को तलाक के बाद अपने पूर्व पति से दोबारा शादी करने के लिए किसी अन्य पुरुष से विवाह करना और तलाक लेना अनिवार्य है।
   सुप्रीम कोर्ट ने जिन याचिकाओं पर सुनवाई की है, उनमें जयपुर की 25-वर्षीय आफरीन रहमान की अर्ज़ी भी शामिल है, जिसके पति ने उसे स्पीड पोस्ट के ज़रिए तलाक दे दिया था।
तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट ने ये कहा : 
- सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक प्रथा को खत्म नहीं किया है।
- इस प्रथा पर सुप्रीम कोर्ट ने 6 महीने के लिए रोक लगाई।
- केंद्र सरकार को कहा है कि इस पर कानून बनाया जाए।
- सुप्रीम कोर्ट ने एक बार में तीन तलाक प्रथा को 3-2 के बहुमत से खारिज किया।
- 3 जजों की बेंच ने तीन तलाक को 'असंवैधानिक' कहा।
- चीफ जस्टिस खेहर : दलों को राजनीति को अलग रखकर फैसला कर चाहिए। तलाक-ए-बिद्दत आर्टिकल 14, 15, 21 और 25 का उल्लंघन नहीं करता।
18 मई को ही फैसला सुरक्षित रखा 
   सुप्रीम कोर्ट ने चीफ जस्टिस जेएस खेहर की अध्यक्षता वाली पांच जजों की बैंच ने गर्मियों की छुट्टियों के दौरान छह दिन सुनवाई के बाद 18 मई को अपना फैसला सुरक्षित कर लिया था। सुनवाई के दौरान, शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया था कि वह संभवत: बहुविवाह के मुद्दे पर विचार नहीं करेगी। केवल इस विषय पर गौर करेगी कि तीन तलाक मुस्लिमों द्वारा लागू किए जाने लायक धर्म के मौलिक अधिकार का हिस्सा है या नहीं!
क्यों होते हैं तीन तलाक़  
   मुस्लिम समाज में हुए एक सर्वेक्षण में ये  बात सामने आई थी कि किन वजहों के कारण मुस्लिम पुरुष तीन तलाक़ देते हैं। ये सर्वेक्षण इसी साल मार्च से मई के बीच एक समाजसेवी संगठन ने किया था। इसमें 20,671 लोगों ने भाग लिया, जिनमें 16,860 पुरुष और 3,811 महिलाएं शामिल थीं।
सर्वेक्षण के अनुसार माता-पिता और परिवार मुसलमानों के बीच तलाक होने का एक सबसे बड़ा कारण है। इसके अलावा सर्वेक्षण में इन वजहों से तीन तलाक़ होते हैं :
- 7.96% पति के अन्य महिलाओं से संबंधों के चलते।
- 8.41% दहेज की मांग पूरी न करने पर।
- 13.27% परिजनों और रिश्तेदारों के कारण।
- 7.08% संतान न होने और दूसरी शादी के कारण के कारण।
- 6.19% पत्नी अच्छी घरेलू महिला साबित न होने पर।
- 4.87% पति के बेरोजगार होने और चिड़चिड़ाहट की वजह से।
- 4.42% पति की इच्छा मुताबिक सेक्सुअल डिमांड पूरी न होने से।
- 3.54% पसंद की पत्नी न होने पर।
- 2.65% बार-बार लड़की पैदा होने पर।
- 2.65% पत्नी की बीमारी की वजह से।
- 0.44% समाज के अन्य लोगों के उकसावे में आने पर।
- 0.88% शराब या किसी अन्य नशे में।
- 37.61% ऐसी वजहें जो लोग सर्वेक्षण में लोग स्पष्ट बता नहीं सके।
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Sunday 20 August 2017

'टॉयलेट' ही नहीं हर समस्या पर हाजिर रही फ़िल्में

- एकता शर्मा 

   'टॉयलेट : एक प्रेम कथा' ने बॉक्स ऑफिस पर उम्मीद से ज्यादा सफलता पाई है। अक्षय कुमार की ये लगातार पांचवीं फिल्म भी 100 करोड़ क्लब में शामिल हो गई! जबकि, फिल्म का बजट 22 करोड़ रु. के आसपास ही है। इस लिहाज से फिल्म अपनी लागत तो निकाल ही चुकी है। फिल्म में खुले में शौच की समस्या को उठाया गया है। इस तरह ये फिल्म भी उन फिल्मों की फेहरिस्त में शामिल हो गई जो किसी समस्या को आधार बनाकर बनाई गई हैं। देखा गया है कि, अकसर फिल्मकारों को कटघरे में खड़ा करने कोशिश होती है कि उन्होंने समाज के लिए क्या किया? लेकिन, ये भुला दिया जाता है कि आजादी के पहले से आज तक फ़िल्मकार हमेशा अपने दायित्व को लेकर सजग हैं! आजादी से पहले जब लोगों में जागरूकता फैलाने जैसा काम जुर्म था, तब भी उन्होंने धार्मिक, पौराणिक और सामाजिक कहानियों के जरिए अपना कर्तव्य निभाया! 

  आजादी से पहले मूक सिनेमा वाले दौर में भी सामाजिक समस्याओं पर कई फिल्में बनाई गईं! छुआछूत की समस्या, विधवा विवाह, बेमेल विवाह, बाल विवाह, वेश्यावृत्ति जैसे जीवंत मुद्दों पर फिल्में बनी थीं। गाँव, किसान, मजदूर और बेरोजगारों के जीवन की समस्याओं को भी फिल्मों का विषय बनाया गया। इन सभी फिल्मों के कथानकों में एक संदेश भी था! कई ऐसे फिल्मकार भी सामने आए जिन्होंने सामाजिक समस्याओं पर फिल्म बनाना ही अपना लक्ष्य बनाया। आजादी के समय भी जो फिल्मकार सक्रिय थे, उन्होंने अपने तरीके से उस समय सच्चाई और समस्या को अपनी फिल्मों का विषय बनाया! फिल्मकारों को देश के निर्माताओं ने कोई क्रांतिकारी एजेंडा नहीं सौंपा था! लेकिन, फिल्मकारों को महसूस हो रहा था कि समतावादी भारत के बनने में भी कई मुश्किलें हैं जिनको दूर करना जरूरी है। औरतों की आजादी, सामाजिक समानता, गरीबी, दलित उत्पीडऩ जैसे समस्याओं के अलावा जमाखोरी, मुनाफाखोरी और लालच के लिए लिप्त रहने वालों से भी समाज को सचेत किया जा सकता है। धार्मिक और सांप्रदायिक वैमनस्य भी इसी तरह की समस्याएं थी, जिनपर फिल्मों का निर्माण हुआ! 
 एचआईवी-एड्स पर अभी तक केवल दो ही ऐसी फिल्में बनी हैं ओनीर की ;माई ब्रदर निखिल' और रेवथी की 'फ़िर मिलेंगे।' इन फिल्मों के ज़िक्र से इस विषय से सम्बंधित तमाम सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलू आँखों के तैर जाते हैं। हमारी फिल्मों में रोग का अक्सर फिल्म की पृष्ठभूमि में प्रयोग किया जाता है। 'आनंद' से लेकर 'कल हो न हो' तक कैंसर के रोगियों के पात्रों वाली कई फिल्में बनी हैं। इसी तरह 'आह' से ले कर 'आलाप' तक क्षय रोग पर फिल्में बनी हैं। इन सभी में रोग पात्रों की व्यथा और कहानी में ट्रेजेडी डालने के लिए प्रयोग किया गया है। रोग के विषय, उसके सामाजिक प्रभाव या लोगों को उसके बारे में जागरुक करने के इरादे से कम ही फिल्में बनी हैं। अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी अभिनीत फिल्म 'मिली' में जया को क्या बीमारी थी, इसका तो जिक्र भी नहीं किया गया। आशय यह कि मसला चाहे शौच का हो या रोग का या फिर कोई सामाजिक! फिल्मकारों ने हमेशा नए विषय खोजे हैं और उनसे मनोरंजन करने की कोशिश की! लेकिन, घरों में शौचालय बनाने के लिए जागरूकता लाना भी कोई फ़िल्मी विषय हो सकता है, ये सचमुच आश्चर्य है। पर, इस कमाल का पूरा श्रेय अक्षय कुमार की अदाकारी को ही दिया जाएगा।  
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Saturday 12 August 2017

हिन्दी फिल्मों में भी 'गुरू' की महिमा अपरम्पार

- एकता शर्मा 

     जीवन के हर क्षेत्र में गुरू का अपना महत्व होता है। बॉलीवुड भी इसका अपवाद नहीं है। यहां गुरू नाम से कलाकार भी हुए हैं और 'गुरू' नाम से फिल्में भी बनी हैं। कुछ महान गुरूओं के कुछ महान शिष्य भी हुए हैं। हिंदी फिल्मों में 'गुरु' नाम वाले केवल एक अभिनेता हुए गुरु दत्त। जहां तक 'गुरू' शीर्षक से बनने वाली फिल्मों का सवाल है तो यह सिलसिला 1959 में बनी फिल्म 'गुरू घंटाल' से शुरू हुआ था। एसएम युसूफ निर्देशित इस काॅमेडी फिल्म में मीना कुमारी, मोतीलाल के साथ उषा किरण और अजीत ने काम किया था। काॅमेडियन के नाम पर इसमे आगा, सुंदर और मिर्जा मुशर्रफ थे। 1979 में 'गुरू हो जा शुरू' शीर्षक से एक एक्शन फिल्म भी बनी थी। बाद में इसी नाम से एक बार फिर फिल्म बनी। इसमें गुमनाम सितारों की भरमार थी। ये फिल्म कब आई और चली गई, कोई नहीं जानता। 
    1989 में 'गुरू दक्षिणा' और 'गुरू' नाम से दो फिल्में आई। पहली फिल्म ने कोई पहचान नहीं बनाई! इसी साल श्रीदेवी की उमेश महरा निर्देशित फिल्म 'गुरु' रिलीज हुई थी। इस फिल्म में उनके जोड़ीदार मिथुन चक्रवर्ती थे। फिल्म को  बॉक्स ऑफिस पर अच्छी सफलता भी मिली थी। यही वो फिल्म थी, जिसके निर्माण दौरान मिथुन चक्रवर्ती और श्रीदेवी की शादी की अफवाह उड़ी थी, फिल्म पत्रिकाओं में फोटो तक छप गए थे। 1993 में विनोद मेहरा ने श्रीदेवी, अनिल कपूर और ऋषि कपूर को लेकर 'गुरूदेव' बनी, लेकिन इसकी रिलीज से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई। 
  'गुरू' शीर्षक से बनी सबसे उल्लेखनीय फिल्म है 2007 में रिलीज मणिरत्नम की फिल्म थी 'गुरु।' इस फिल्म ने  अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या रॉय की 'ढाई अक्षर प्रेम के' और 'उमराव जान' जैसी फ्लॉप फिल्मों की जोड़ी को हिट बना दिया! कहते हैं कि ये फिल्म धीरू भाई अम्बानी के जीवन पर आधारित एक सफल फिल्म थी, जिसने अभिषेक के डूबते कैरियर को कुछ समय के लिए संभाल लिया था। फराह खान ने भी शाहरुख़ खान को लेकर 'मैं हूँ ना' बनाई थी। संजय लीला भंसाली ने सलमान खान और ऐश्वर्या रॉय को लेकर 'हम दिल दे चुके सनम' बनाई थी, जिसमें सलमान संगीत सीखने गुरु के यहाँ जाता है और उनकी बेटी को दिल दे बैठता है। आमिर खान ने 'तारे जमीं पर' बनाकर तो मानों इतिहास बना दिया! जबकि, यशराज की फिल्म 'मोहब्बतें' में अमिताभ बच्चन ने कठोर शिक्षक का उल्लेखनीय किरदार निभाया था। 'स्टेनली का डिब्बा' भी गुरु की भूमिका वाली एक बेहतरीन फिल्म मानी जाती है।     
  बॉलीवुड में गुरू-शिष्य परम्परा का भी अपना अलग इतिहास है। इस क्रम में राजकपूर के गुरू केदार शर्मा का उल्लेख जरूरी है, जिन्होंने राजकपूर को कभी पृथ्वीराज कपूर का बेटा नहीं माना! एक बार तो गलती होने पर उन्होंने राजकपूर को तमाचा रसीद कर दिया था। राजकपूर खुद भी राहुल रवैल और जेपी दत्ता के गुरू थे। गुरूदत्त ने राज खोसला और आत्माराम जैसे सफल निर्देशकों का बॉलीवुड से परिचय कराया था। टीनू आनंद ने सत्यजीत रे से निर्देशन के गुर सीखे तो बासु भट्टाचार्य प्रसिद्ध निर्देशक बिमलराय के शिष्य थे। जिन्होंने बाद में उनकी बेटी रिंकी से शादी कर गुरू शिष्य परम्परा को विवादित बना दिया था।
  अभिनेताओं में दिलीप कुमार तो मनोज कुमार से लेकर शाहरूख खान तक कई सितारों के अघोषित गुरू साबित हुए हैं। अनिल कपूर ने राज कपूर की परम्परा को आगे बढाया तो राजेश खन्ना और जैकी श्राफ ने देवानंद के लटके झटकों की नकल करके उनके शिष्य बनने का प्रयास किया। भगवान दादा को बॉलीवुड का डांस गुरु कहा जा सकता है। अमिताभ बच्चन को लम्बी टांगों के कारण डांस करने में परेशानी होती थी। इसलिए उन्होंने भगवान दादा वाला अंदाज अपनाया। अमिताभ भगवान दादा को अपना डांसिंग गुरु कहते थे। गायन में मोहम्मद रफी को तो महेन्द्र कपूर से लेकर सोनू निगम अपना गुरू मानते रहे। किशोर कुमार की नकल करके कुमार शानू और बाबुल सुप्रियो ने अपनी पहचान बनाई। हिन्दी फिल्म इंड्रस्ट्री की अधिकांश गायिकाएं लता मंगेशकर को ही अपना गुरू मानती हैं।  
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पहलाज की फिल्म को लगा सरकारी कट

- एकता शर्मा 

   फिल्मकारों के लिए ये सप्ताहांत बेहद खुशनुमा रहा। सिर्फ इसलिए नहीं कि उनकी कोई फिल्म हिट हुई है या कोई फिल्म 100 करोड़ क्लब में शामिल हो गई! पहलाज निहलानी को फिल्म सेंट्रल बोर्ड के चेयरमैन पद से बर्खास्त किए जाने से बड़ी ख़ुशी उनके लिए कोई नहीं हो सकती! निहलानी को हटाने की प्रक्रिया भी अपमानजनक ही कही जाएगी। उन्हें पद से बर्खास्त किया गया। उनकी जगह नए चेयरमैन गीतकार प्रसून जोशी की नियुक्ति भी तत्काल कर दी गई। जब से निहलानी को सेंसर बोर्ड की जिम्मेदारी सौंपी गई, वे लगातार विवादों में बने रहे। अपने ढाई साल के कार्यकाल में उन्होंने फिल्मों में क़तर ब्योंत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी! इस वजह से निहलानी अपने पूरे कार्यकाल में फिल्मकारों के निशाने पर बने रहे।  
  निहलानी ने अपने कार्यकाल में वो सब किया जो वे कर सकते थे। हाल ही रिलीज हुई फिल्म 'जब हैरी मीट सैजल' में भी उन्हें 'इंटरकोर्स' शब्द के उपयोग से आपत्ति थी। जब निर्देशक इम्तियाज अली ने सवाल जवाब किए तो उनके सामने कोई अटपटी सी शर्त रख दी गई। मजबूर होकर इम्तियाज अली ने इस शब्द बदलना ही ठीक समझा! निहलानी का सबसे ज्यादा विरोध 'लिपस्टिक अंडर माई बुर्का' को लेकर हुआ। क्योंकि, सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म को पास इसलिए नहीं किया, क्योंकि उन्हें फिल्म भारतीय परिवेश में असंस्कारी लगी। ये तक कहा गया कि फिल्म में महिलाओं को गलत ढंग से दिखाने की कोशिश की गई है। बाद में बड़ी मुश्किल से इस फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट दिया गया।  
    निहलानी ने अपने पद का सबसे ज्यादा दुरूपयोग 'उड़ता पंजाब' की रिलीज को लेकर किया। युवाओं में ड्रग्स की लत पर पर बनी इस फिल्म में दिखाया गया था कि पंजाब में ड्रग्स के इस कारोबार ने युवाओं की ज़िंदगी कितनी बर्बाद कर दी। लेकिन, निहलानी का सेंसर बोर्ड चाहता था कि फिल्म में ड्रग्स के कारोबार का जिक्र न हो, कुछ और बताया जाए। इस फिल्म में 80 कट की सिफारिश की गई थी। बाद में निर्माता-निर्देशक इस मामले को अदालत तक ले गए, तब फिल्म रिलीज हो सकी थी।  
   भूत की कहानी पर बनी 'फिल्लौरी' के एक सीन को लेकर भी सेंसर के कैंची चलाई थी। फिल्म का हीरो अनुष्का शर्मा का भूत देखकर इतना डर जाता हैं कि बाथटब में हनुमान चालीसा पढ़ने लगता हैं। जबकि, सेंसर बोर्ड को आपत्ति थी कि बाथरूम में हनुमान चालीसा पढ़ते नहीं दिखाया जा सकता। इसलिए इस सीन को काटने को कहा गया था। 'रमन राघव 2.0' फिल्म में भी सेंसर ने 6 कट मारे थे। कहा गया था कि इसमें ज्यादा हिंसा है। 
  अक्षय कुमार की चर्चित फिल्म 'जॉली एलएलबी-2' में लखनऊ के ज़िक्र से भी सेंसर को नाराजी थी। जबकि, फिल्म की कहानी ही लखनऊ की थी। गाने से लखनऊ शब्द हटाने को कहा गया था। हाल ही में नवाजुद्दीन सिद्दीक़ी की फिल्म 'बाबूमोशाय बंदूकबाज' में भी ढेरो कट के आदेश दिए गए थे। यदि पहलाज निहलानी को हटाया नहीं जाता तो फिल्मकारों की ये पीड़ा बढ़ती ही जाती। 
  बोर्ड के अध्यक्ष बनने के बाद निहलानी ने फिल्मों में 32 शब्दों के उपयोग पर ही आपत्ति उठाई थी। भारी विरोध के बाद इसमें से 16 शब्द हटाए गए। आज जबकि इंटरनेट की असीमित पहुँच के कारण सूचनाओं, विचारों, दृश्यों के साथ-साथ हर तरह की कला का निर्बाध संचार हो रहा है, सेंसर बोर्ड की उपयोगिता का कोई महत्व नहीं रह जाता। किसी फिल्मकार के रचे दृश्यों, संवादों और गीतों में काट-छांट करना उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने जैसा था। लेकिन, अब इस सबसे फिल्म बनाने वाले मुक्त हो गए। यही कारण है कि उनके लिए ये वीकेंड जश्न मनाने जैसा है। 
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Saturday 5 August 2017

फिल्मों में सबसे हिट रहा दोस्ती का फार्मूला

- एकता शर्मा 

   फिल्मों की अपनी अलग ही दुनिया है। यहाँ सबकुछ मसालेदार फार्मूलों पर चलता है। जिस डायरेक्टर का फार्मूला चल जाता है, उसकी फिल्म सफलता के झंडे गाड़ देती है। लेकिन, बाद में यही दूसरी फिल्मों के लिए एक रास्ता बन जाता है। बदले और रोमांस वाली कहानियों के अलावा फिल्मों में जो फार्मूला सबसे ज्यादा चला है, वो है दोस्ती वाला। दो दोस्तों की दोस्ती को लेकर सैकड़ों कहानियां गढ़ी गई! जब इनसे दर्शक बोर हो गए तो उनके बीच प्रेम का तड़का लगा दिया गया। फिल्मों में दोस्ती को याद करने का कारण ये कि आज 'फ्रेंडशिप-डे' है। दोस्‍ती के नाम के इस दिन की अहमियत को बॉलीवुड ने बरसों पहले भी माना था और आज भी ये बरक़रार है।
   यादों के कुछ पन्ने पलटे जाएं तो राजश्री प्रोडक्शन द्वारा 1964 में बनाई फिल्म 'दोस्ती' को इस तरह की कहानियों पर बनी पहली सफल माना जाता है। ये फ़िल्म दो ऐसे दोस्तों की कहानी है, जिसमें एक अपाहिज है और दूसरा अंधा। इस फ़िल्म को छः फ़िल्म फ़ेयर अवॉर्ड्स से नवाज़ा गया था। उस साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म भी यही थी। आज भी इस फिल्म गाने दोस्ती रिश्ते लेकर याद किए जाते हैं। 
   इंडस्ट्री में दोस्ती के साथ प्रेम त्रिकोण को जोड़कर फिल्मी बनाने की कोशिश सबसे ज्यादा की गई। दोस्तों के बीच एक प्रेम का एंगल डालकर दोनों में ग़लतफ़हमी करवाई गई। फिर दोस्तों के बीच दुश्मनी हुई और क्लाइमेक्स तक गलतफहमी दूर हो जाती है और दुश्मनी भी। फिर एक दोस्त का दूसरे के लिए प्रेम का त्याग कर देता है। इस तरह की कुछ फिल्मों का अंत सुखद नहीं होता है। कुछ फिल्मों में दोस्त फिर एक भी हुए हैं। दिलीप कुमार, नर्गिस, राज कपूर की 'अंदाज' और फिर राजकपूर, नर्गिस, राजेंद्र कुमार की फिल्म 'संगम' बहुत लोकप्रिय हुई। इसके बाद में आरजू, दोस्ताना, नसीब, हेराफेरी में भी इसी कथानक को सफलता के साथ आजमाया गया।
  अब याद किया जाए दोस्ती पर बनी चुनिंदा फिल्मों को, जो मील का पत्थर हैं। अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना की जोड़ी वाली फिल्म 'आनंद' की कहानी ऐसे मरीज पर केंद्रित थी, जो जिंदगी के आखरी दिन गिन रहा है। लेकिन, बहुत जिंदादिली से। वो आने वाली मौत को भी एंजॉय करता है। दूसरा एक डॉक्टर है जो उसे बचाना चाहता है। मरीज की भूमिका निभाई थी राजेश खन्‍ना ने और डॉक्‍टर बने थे अमिताभ बच्‍चन। 'शोले' में जय और वीरू की दोस्‍ती भी ऐसी फिल्मों में मिसाल है। इस फ‍िल्‍म की सफलता में अमिताभ बच्‍चन और धर्मेंद्र के रूप में इनकी जय और वीरू की जोड़ी का हाथ माना जाता है। फिल्म का गाना 'ये दोस्‍ती हम नहीं छोड़ेंगे' अभी भी दोस्ती लिए गुनगुनाया जाता है। 
   'रंग दे बसंती' भी ऐसी ही फिल्म है जिसमें कॉलेज के दोस्त आमिर खान, आर माधवन, शरमन जोशी, सिद्धार्थ और सोहा अली खान अपने एक दोस्त की मौत का बदला लेने की ठानते हैं। इस बहाने वे करप्शन के खिलाफ आवाज बुलंद करते हैं। 'दिल चाहता है' में सैफअली खान, आमिर खान और अक्षय खन्ना में दोस्‍ती है। दोस्‍ती को लेकर फिल्म का संदेश है कि दोस्‍तों में कितने भी मतभेद हों, पर जब उनका दोस्त मुसीबत में हो तो दोस्‍त ही उसके काम आते हैं। सफलतम फिल्मों में से फिल्म है 'थ्री इडियट्स' जिसमें आमिर खान, आर माधवन और शर्मन जोशी ने दोस्तों के किरदार निभाए हैं। फिल्म में कॉलेज लाइफ के किस्सों की भी भरमार थी। 
    'जिंदगी न मिलेगी दोबारा' वास्तव में जीना सिखाने वाली फिल्म है। जिंदगी में दोस्‍तों की अहमियत क्या होती है, यही फिल्म का संदेश है। रितिक रोशन, फरहान अख्तर और अभय देओल ने इसमें दोस्तों का किरदार निभाया है। 'रॉक ऑन' भी इसी दर्जे की फिल्म है जिसमें फरहान अख्तर, पूरब कोहली, अर्जुन रामपाल और ल्युक केन्नी ने भूमिका निभाई है। ये फिल्म बताती है कि दोस्त कभी बिछुड़ते नहीं हैं। जब भी कोई तकलीफ में होता है, सच्‍चे दोस्‍त ही हाथ थामकर साथ खड़े होते हैं। ऐसी ही कुछ और फ़िल्में हैं जाने तू या जाने ना, काई पो चे, कोई मिल गया, कुछ-कुछ होता है, ये जवानी है दिवानी, इक़बाल और दिल तो पागल है। अभी ये लिस्ट पूरी नहीं हुई है, और न हो सकेगी। क्योंकि, हर हिट फार्मूला फिल्मकारों की पहली पसंद रहा है।   
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Thursday 3 August 2017

'जिंदगी का सफर है ये कैसा सफर'

- एकता शर्मा 

  पार्श्वगायक किशोर कुमार कुदरत की ऐसी धरोहर थे, जिसे बनाने में सदियां खर्च हुई होंगी। वे नैसर्गिक गायक थे। आज वे नहीं हैं, पर उनकी विरासत अमर है। उनकी गायकी का माधुर्य बरसों तक लोगों के सिर चढ़कर बोला और आगे भी बोलता रहेगा। आज भी लोग जब उनकी आवाज सुनते हैं तो कान ठिठक जाते हैं। किशोर कुमार को लोग उनके मसखरेपन वाले अंदाज से ज्यादा जानते हैं। लेकिन, उनके इस मस्तीभरे अंदाज के पीछे दर्द का गहरा साया छुपा था। उन्होंने हमेशा अपने दर्द को दबाकर रखा! उस दर्द को कभी सामने नहीं आने दिया। क्योंकि, उनका मानना था कि ये दर्द मेरा निजी है, इसे किसी और  दिखाया जाए।      

   उनकी आवाज सुनकर संगीतकार सलिल चौधरी ने उन्हें पहला मौका दिया था। इसके बाद किशोर कुमार की आवाज घर-घर पहुँची और पसंद की गई। इसके बाद किशोर कुमार की आवाज संगीतकार सचिन देव बर्मन के कानों में पहुँची। सचिन देव ने किशोर की प्रतिभा को पहचाना। बाद में इस जोड़ी ने कई कालजई गीतों को जन्म दिया। इसके बाद तो किशोर कुमार के गानों का जादू ऐसा चला था कि मशहूर गायक मोहम्मद रफी भी उनके फैन हो गए। रफी ने किशोर को अपनी आवाज 'रागिनी' में उधार दी। 'शरारत' में भी किशोर के लिए रफी ने गाया था। गाने को लेकर किशोर की अपनी शर्त हुआ करती थी। जब तक पूरे पैसे नहीं आ जाते, वी गाना रिकॉर्ड नहीं कराते! ये उनकी बचपन की आदत थी। घर आने वाले मेहमानों को वे एक्टिंग के साथ गाने सुनाया करते थे और बदले में मुँह से ईनाम मांग लेते थे।
  किशोर ने चार शादियां की। ख़ास बात ये कि जिनसे शादी की उनमें तीन हीरोइनें अपने दौर की खूबसूरत हीरोइनें रहीं। पहली शादी रुमा देवी से हुई, लेकिन जल्द ही तलाक हो गया। फिर उन्होंने सर्वकालीन सुंदर अभिनेत्री मधुबाला से शादी की। इस शादी के लिए उन्होंने इस्लाम अपनाया और अपना नाम ‘करीम अब्दुल’ रख लिया था। कहा जाता है कि मधुबाला को कैंसर होने की जानकारी के बावजूद किशोर कुमार ने उनसे शादी की थी। मधुबाला की बीमारी को लेकर किशोर कई सालों तक बहुत परेशान भी रहे। 9 साल के साथ बाद मधुबाला ने दुनिया और किशोर कुमार दोनों से विदाई ले ली। इसके बाद उन्होंने योगिता बाली से शादी की, जो ज्यादा दिन नहीं चली। फिर उनकी जिंदगी में लीना चंदावरकर जो अंतिम समय तक उनके साथ रही।   
   किशोर कुमार ने खंडवा के बाद आगे की पढाई इंदौर के क्रिश्चियन कॉलेज से की। बताते हैं कि वे रेल से शनिवार शाम खंडवा जाते और सोमवार को लौटते थे। रास्ते में वे हर स्टेशन पर डिब्बा बदल लेते और यात्रियों को गाने सुना-सुनाकर मनोरंजन करते। उनकी एक आदत कॉलेज की कैंटीन से उधार लेकर खाने और खिलाने की भी रही। जब कैंटीन वाले ने एक दिन उधारी के पांच रुपया बारह आना मांगे, तो किशोर ने पैसे देने के बजाए टेबल पर गिलास और चम्मच बजा बजाकर पाँच रुपया बारह आना गाकर कई धुन निकाल दी। बाद में उन्होंने 'पांच रुपया बारह आना' गीत को एक फिल्म में इस्तेमाल किया। 
  किशोर कुमार की प्रतिभा अद्भुत थी। उन्होंने हिन्दी के साथ ही तमिल, मराठी, असमी, गुजराती, कन्नड़, भोजपुरी, मलयालम और उड़िया फिल्मों के लिए भी गाया। इसके अलावा 81 फ़िल्मों में अभिनय किया और 18 फिल्मों का निर्देशन किया। उनके अभिनय में कॉमेडी का पुट रहता था। वास्तव में ये उनका नैसर्गिक मसखरापन था, जो अभिनय के रूप में सामने आया। उन्होंने सिर्फ परदे पर ही अभिनय नहीं, निजी जिंदगी में भी उनका मसखरापन झलकता था। अटपटी बातों को अपने चटपटे अंदाज में कहना किशोर कुमार का आदत थी। गानों की पंक्तियों को उलट-पलटकर गाने में उन्होंने इसमें महारत हांसिल कर ली थी। नाम पूछने पर वे कहते थे 'रशोकि रमाकु।' 
  किशोर कुमार जब भी किसी समारोह में मंच पर खड़े होते तो शान से खंडवा का नाम लेते। उन्होंने फैसला किया था कि वे फिल्मों से संन्यास लेकर खंडवा में बसेंगे। वे कहा करते थे ‘दूध जलेबी खाएंगे खंडवा में बस जाएंगे।’ लेकिन, ऐसा नहीं हो सका! 13 अक्टूबर, 1987 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। इच्छा मुताबिक उनका अंतिम संस्कार खंडवा में ही किया गया। जहां उनका दिल बसता था, वहीं वो आज भी बसे हैं। 

किशोर कुमार के 10 बेहतरीन गीत 
 
1 / 'जिंदगी कैसी है पहेली हाय' - आनंद  
2 / 'जिंदगी का सफर है ये कैसा सफर' - अंदाज  
3 /  'तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा तो नहीं' - आंधी
4 / 'देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए' - सिलसिला
5  / 'एक लड़की भीगी भागी सी' - चलती का नाम गाड़ी 
6 / 'गाता रहे मेरा दिल, तू ही मेरी मंजिल' - गाइड
7 / 'तुम आ गए हो नूर आ गया है' - आंधी 
8 / 'चिंगारी कोई भड़के' - अमर प्रेम
9 / 'ये शाम मस्तानी मदहोश' - कटी पतंग  
10/ 'ये दिल ना होता बेचारा, कदम ना होते आवारा' - 'ज्वैल थीफ'  
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Tuesday 1 August 2017

चाँद तन्हा है, आसमां तन्हा

यादें :  : मीना कुमारी 

 -  एकता शर्मा 
   हिंदी सिनेमा की यादगार हीरोइनों का जब भी जिक्र होता है, मीना कुमारी के बिना बात पूरी नहीं होती। उन्हें आज भी सिनेमा की 'ट्रैजेडी क्वीन' कहा जाता है। यानी फिल्मों की ऐसी नायिका जिसके अभिनय में त्रासदी झलकती थी। ये उनका अभिनय ही नहीं था, जीवन की वो सच्चाई भी थी जो मीना कुमारी के अभिनय में झलकती थी। उनका तन्हापन और जीवन की उदासी का दर्द ही उनके अभिनय का सच बना रहा। दर्शक जिसे अभिनय समझते थे, वो मीना कुमारी की पीड़ा थी, जो अभिनय जरिए बाहर आती थी।
  ये भी सच है कि मीना कुमारी यदि फिल्मों में अभिनय नहीं करती तो शायरा होती। गुलजार से एक बार मीना कुमारी ने कहा भी था कि मैं जो एक्टिग करती हूं उसमें एक कमी है। जो कला मेरे अभिनय में नजर आती है, वो मेरी नहीं है। ये मुझसे नहीं जन्मा है। मेरा किरदार कहीं और जन्मा, उसे जीवंत किसी और ने किया है। जो मेरे अंदर जन्मा है वो मेरी शायरी है। मीना कुमारी ने अपनी वसीयत में भी अपनी कविताएं छपवाने का जिम्मा गुलजार को दिया था। जिसे गुलजार ने 'नाज' उपनाम से छपवाया था।
  जहाँ तक ट्रैजेडी की बात है तो मीना कुमारी पूरा जीवन अभिनेत्री के रूप में, पत्नी के रूप में, प्रेमिका के रूप में और धोखा खाती स्त्री के रूप में भटकती रही। अली बक्श की तीसरी बेटी महजबीं ही परदे पर मीना कुमारी के रूप में पहचानी गई। परिवार इतनी आर्थिक तंगी में था कि महजबीं ठीक से पढ़ भी नहीं पाई और चार साल की उम्र में उसे विजय भट्ट के सामने फिल्म 'लेदरलेस' में काम करने के लिए खड़ा कर दिया गया। करीब बीस फिल्मों में महजबीं ने बाल कलाकार के रूप में काम किया। इस कारण महज़बीं को अपने पिता और यहाँ तक कि हर पुरुष से नफरत सी हो गई थी। पिता के रूप में पुरुषों का जो चेहरा उसके जेहन में दर्ज हो गया था, वो बाद में भी मीना कुमारी की जिंदगी का हिस्सा बना रहा! मीना कुमारी की अधिकांश शुरूआती फिल्में ज्यादातर पौराणिक कथाओं वाली थी। पर, उन्हें पहचान नहीं मिली। अपनी इसी पहचान को मीना कुमारी ने लम्बे अरसे तक तलाशा!
  1952 में मीना कुमारी को विजय भट्ट की फिल्म ‘बैजू बावरा’ में मौका मिला। इसकी सफलता के बाद उन्हें अभिनेत्री के रूप में पहचाना गया। इसके बाद 'परिणीता' से मीना कुमारी का युग शुरु हुआ। इस फिल्म में उनकी भूमिका ने महिलाओं को खासा प्रभावित किया था। लेकिन, यही वो फिल्म थी जिसकी वजह से मीना कुमारी की पहचान ट्रैजेडी वाली भूमिकाएँ करने वाली अभिनेत्री की होकर रह गई। फिर भी उनके अभिनय की खास शैली, आँखों और आवाज से झलकता दर्द दर्शकों पर जादू करता रहा। गुरूदत्त की फिल्म 'साहिब बीबी और गुलाम' ने भी मीना को पहचान दिलाई। इस फिल्म के जरिए उन्होंने बहुत खूबसूरती से अपनी जिंदगी को परदे पर जीवंत किया था।
   कमाल अमरोही की ‘पाकीजा’ लगभग चौदह साल में बनी। क्योंकि, मीना और कमाल अलग-अलग थे। फिर भी उन्होंने फिल्म की शूटिंग जारी रखी। क्योंकि, ‘पाकीजा’ जैसी फ़िल्में बार-बार नहीं बनती। 1972 में जब ‘पाकीजा’ परदे पर उतरी तो दर्शक मीना कुमारी का अभिनय को देखकर मंत्रमुग्ध हो गए। इस फिल्म को आज भी मीना कुमारी के अभिनय के लिए याद किया जाता है।
  मीना कुमारी की त्रासदी का एक पक्ष उनकी निजी जिंदगी भी रहा। उनका पहला प्यार धर्मेंद्र को माना जाता है। लेकिन, धर्मेंद्र ने कभी उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। 1952 में मीना कुमारी ने फिल्म निर्देशक कमाल अमरोही के साथ शादी कर ली। लेकिन, 1964 में उन वैवाहिक जीवन में दरार आ गई। मीना अपने कामकाज में कमाल की बेवजह दखल बर्दाश्त नहीं कर सकीं। इसके बाद से दोनों ने अपने अलग रास्ते चुन लिए। इसी दर्द ने मीना को शराब से दोस्ती करवा दी। इसी शराब ने उन्हें हमसे छीन लिया था।

मीना कुमारी की तन्हाइयों का दर्द उनकी एक नज्म से भी झलकता है ...

चाँद तन्हा है आसमां तन्हा,
दिल मिला है कहां कहां तन्हा!

बुझ गई आस छुप गया तारा,
थरथराता रहा धुआँ तन्हा!

ज़िन्दगी क्या इसी को कहते हैं,
जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा!

हमसफ़र कोई गर मिले भी कहीं,
दोनो चलते रहे तन्हा तन्हा!  
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