Saturday 28 October 2017

इंतजार कीजिए भंसाली के भव्य कास्ट्यूम ड्रामे का!

- एकता शर्मा

  बड़े परदे पर एक और भव्य कॉस्ट्यूम ड्रामा रिलीज होने की तैयारी में है। ये है संजय लीला भंसाली की भारी बजट वाली फिल्म 'पद्मावती' जिसके रिलीज होने की तारीख ने करीब 8 फिल्मों की रिलीज को प्रभावित किया। 'पद्मावती' के ट्रेलर ने ही सिर्फ 24 घंटे में 1.50 लाख व्‍यूज मिले! ट्रेलर के सामने आने के बाद से ही फैन्‍स ही नहीं, बॉलीवुड की कई बड़ी हस्तियां भी भंसाली की इस आने वाली फिल्‍म की तारीफ कर चुकी हैं। 'पद्मावती' के ट्रेलर ने रिलीज होते ही एक रिकॉर्ड बना दिया। रणवीर सिंह, दीपिका पादुकोण और शाहिद कपूर की इस फिल्‍म की शूटिंग के दौरान निर्देशक भंसाली को कई परेशानियां झेलनी पड़ी है। 
  ट्रेलर के सामने के बाद से ही दीपिका पादुकोण और शाहिद कपूर के लुक के साथ ही रणवीर सिंह के नेगेटिव शेड वाले लुक की भी तारीफ हो रही है। 'पद्मावती' में रणवीर सिंह ने सुलतान अलाउद्दीन खिलजी की भूमिका निभाई है। इस किरदार की एक झलक ने ही रणवीर सिंह ने फैन्‍स का दिल जीत लिया। ये फिल्म पहली दिसम्बर को रिलीज होगी। हिंदी फिल्मकारों ने अभी तक मुग़लकाल से जुडी कहानियों पर ही ज्यादा फ़िल्में बनाई गई है। जोधा, अकबर, जहांगीर, शाहजहाँ, पसंदीदा करैक्टर साबित हुए।
  इस साल जनवरी में जब जयपुर में 'पद्मावती' की शूटिंग शुरू हुई थी, तब राजपूत करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने संजय लीला भंसाली के साथ मारपीट की थी। इसके अलावा करणी सेना के लोगों ने फिल्म के सेट पर पहुंचकर भी काफी तोड़फोड़ की थी। इस दल के लोगों ने फिल्म की कहानी से जुड़े एक तथ्य पर आपत्ति जताते हुए ये कदम उठाने का दावा किया है। आरोप लगाया गया था कि ये फिल्म गलत तथ्यों पर बनाई जा रही है, यही कारण है कि हम इसका विरोध कर रहे हैं। करणी सेना का कहना है कि रानी पद्मावती के साथ अलाउद्दीन खिलजी का जो रोमांस दिखाने की कोशिश कथित तौर पर  फिल्म में की जा रही है, जो गलत है। उन्होंने कहा कि पद्मावती वो महिला थीं जिन्होंने अपनी आन-बान-शान के लिए जौहर किया था! लेकिन, अभी तक फिल्म की कहानी सामने नहीं आई, इसलिए दावा नहीं किया जा सकता कि ये आरोप कितने सही हैं! हाल ही में गुजरात के एक शहर में 'पद्मावती' की सात घंटों में बनी भव्य रंगोली को भी करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने बिगाड़ दिया था।    
  संजय लीला भंसाली से पहले फिल्मों के साइलेंट दौर में 1924 में बाबूराव पेंटर ने 'सति पद्मिनी' नाम से इसी कहानी पर फिल्म बनाई थी। चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी की एक झलक दिल्ली का नवाब अलाउद्दीन ख़िलजी देख लेता है। पद्मिनी को पाने के लिए वो चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण कर देता है। अलाउद्दीन ख़िलजी चित्तौड़ के राजपूतों को हरा तो देता है, पर पद्मिनी उसे नहीं मिलती! वो अलाउद्दीन के हाथ आने से पहले ही जौहर कर लेती है। कहा जाता है कि इतिहास में भी यही है। लेकिन, संजय लीला भंसाली की 'पद्मावती' की फिल्म के कथानक को लेकर अभी सिर्फ कयास ही लगाए जा सकते हैं। 
 अपना इतिहास देखना सबको अच्छा लगता है। लेकिन, इतिहास को किताब में पढ़ने और परदे पर देखने में फर्क है। जब फिल्मकार इतिहास को फंतासी अंदाज परदे पर उतारता है, तो दर्शकों का रोमांचित होना स्वाभाविक होता है। लेकिन, इस बात की कोई गारंटी नहीं होती कि ये ऐतिहासिक फ़िल्में सफल हो ही जाएंगी! इन ऐतिहासिक फिल्मों का इतिहास बताता है कि ये फार्मूला ही हमेशा चला! 
जब फिल्मों को आवाज मिली तो पहली बोलती फिल्म ही 'आलमआरा' कॉस्ट्यूम ड्रामा ही थी! निर्देशक सोहराब मोदी की यह हिंदी फिल्मों के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई। बाद में सोहराब मोदी ने पुकार, सिकंदर, पृथ्वी वल्लभ और झाँसी की रानी जैसी ऐतिहासिक फ़िल्में बनाई! 'झांसी की रानी' पहली टेक्नीकलर फिल्म थी। देखा गया है कि इतिहास से जुडी फिल्मों में भी महिला कैरेक्टरों को ही ज्यादा पसंद किया गया है। देखना है कि 'पद्मावती' क्या कमाल करती है! वैसे फिल्म के ट्रेलर ने उस धमाके का अंदाजा तो करवा ही दिया, जो एक दिसंबर को होने वाला है। 
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Sunday 22 October 2017

धीरे-धीरे सीढ़ियां चढ़ेगी 'सीक्रेट सुपर स्टार'

- एकता शर्मा 

  किसी भी फिल्म की सफलता का दावा न तो कोई फिल्म पंडित कर सकता है न जानकार! लेकिन, नए विषय वाली कुछ ऐसी होती हैं जो खुद अपनी सफलता का संकेत देती हैं। ऐसी ही एक फिल्म है आमिर खान की 'सीक्रेट सुपर स्टार' जो दिवाली पर रिलीज हुई। फिल्म को दर्शकों ने उम्मीद के मुताबिक पसंद किया। दर्शक से लेकर समीक्षक तक फिल्म की तारीफ कर रहे हैं। फिल्म का पहले दिन का कलेक्शन ही फिल्म के लम्बे चलने का संकेत दे रहा है। 
  फिल्म पंडितों का कहना है कि फिल्म को माउथ पब्लिसिटी का फायदा मिलेगा। लेकिन, फिल्म की सही कमाई दर्शकों पर से 'गोलमाल अगेन' की खुमारी उतरने के बाद ही मिलेगा। ये दोनों फ़िल्में साथ में रिलीज हुई हैं। 'सीक्रेट सुपर स्टार' ने करीब 7 करोड़ की ओपनिंग दी है। छोटे बजट की फिल्म के लिए यह धमाकेदार है। फिल्म का बजट 30 से 35 करोड़ के आसपास है। आमिर खान की वजह से यह फिल्म 100 करोड़ के आंकडे करीब पहुँच सकती है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि आमिर खान बच्चों के साथ अच्छी केमिस्ट्री शेयर करते हैं। इसका उदाहरण 'तारें जमीं पर' और 'सीक्रेट सुपर स्टार' है।
  एक लम्बे समय बाद दिवाली पर आमिर खान की कोई फिल्म रिलीज हुई है। जिसका दर्शकों को बेसब्री से इंतजार था। इसमें आमिर बिलकुल अलग अंदाज में नजर आए हैं। फिल्म को डायरेक्ट किया है अद्वैत चंदन ने। ये उनके डायरेक्शन में बनने वाली पहली फिल्म है। फिल्म की कहानी बड़ोदरा की लड़की इंसिया (जायरा वसीम) की है। वह सिंगर बनना चाहती है, पर उसके सपने की अड़चन उसके पिता हैं। पिता के डर से वो कभी अपने सपने के बारे में बात नहीं करती। लेकिन, इंसिया की माँ नजमा बेटी के सपने को पूरा करने में मदद करती है। लेकिन, वो भी पति से डरती है। 
  फारुख की कोशिश है कि उसका परिवार सऊदी अरब चला जाए। जबकि, इंसिया अपने सपने को पूरा करने के लिए मुंबई जाना चाहती है। इसी बीच उसकी मुलाकात म्यूजिक डायरेक्टर शक्ति कुमार (आमिर खान) से होती है। इसके बाद कहानी में बहुत से मोड़ आते हैं! आमिर की हर फिल्म में कोई संदेश छुपा होता है। वैसे ही इस फिल्म में घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न की समस्या को दिखाया गया। कहानी बेहद सामान्य है, लेकिन आमिर के कारण सबकुछ खास अंदाज में फिल्माया गया। 
  अभिनय की अगर बात की जाए तो आमिर ख़ान अपने अलग ही अंदाज से दर्शकों को हंसाते और लुभाते हैं। इंसिया के किरदार में ज़ायरा वसीम फिल्म पर छा जाती हैं। निर्देशक अद्वैत चंदन ने वाकई शानदार सिनेमा गढ़ा है। मां-बेटी के भावनात्मक संबंधों के लिए, सपने देखने वाले हर उस दिल के लिए जो किसी बंधन में नहीं बांधता! आमिर ने तो टीजर रिलीज के दौरान ही फिल्म को सुपरहिट करार दिया था। नितेश तिवारी के निर्देशन में बनी दंगल में जहां दोनों पिता और बेटी के रोल में थे। वहीं 'सीक्रेट सुपर स्टार' में उनका किरदार गुरु और शिष्य का है। 
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Monday 16 October 2017

दिवाली पर किस फिल्म का जादू चलेगा?

- एकता शर्मा 

  समझा जाता है कि भारतीय दर्शक त्यौहारों पर अपनी ख़ुशी फिल्म देखकर ही व्यक्त करता है। शायद इसीलिए दिवाली, ईद, क्रिसमय और यहाँ तक कि गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर भी फ़िल्में रिलीज़ का ट्रैंड शुरू हो गया! क्योंकि, इन दिनों में अमूमन लोगों को फुरसत होती है और उन्हें सिनेमाघर तक खींचकर लाना आसान होता है। लेकिन, शुरूआती सफलता के बाद अब ये फार्मूला फेल होता नजर आ रहा है। क्योंकि, पिछले साल दिवाली पर रिलीज़ हुई दोनों फिल्में 'शिवाय' और 'ए दिल है मुश्किल' दर्शकों के दिल पर नहीं चढ़ी! यहाँ तक कि ईद पर रिलीज हुई सलमान खान की 'ट्यूबलाइट' ने भी पानी नहीं माँगा। देखना है कि इस साल सीक्रेट सुपर स्टार, गोलमाल अगेन और 2.0 क्या कमाल करती है! 

  फिल्मों की रिलीज और त्यौहारों का खास रिश्ता है। पिछले कुछ सालों से फिल्मकारों के बीच त्यौहारों पर फिल्म रिलीज करने को लेकर स्लॉट बुक करने की होड़ बनी रहती है। हर बड़ा एक्टर चाहता है कि उसकी फ़िल्में ईद, दिवाली और क्रिसमस के समय ही परदे पर उतरे! क्योंकि, इन त्यौहारों के छुटि्टयां ज्यादा होती है और फुर्सत में लोग सिनेमाघरों की तरफ रुख करते हैं। प्रोड्यूसर्स त्यौहारों के दौरान अन्य फिल्मों से टकराव नहीं चाहते! इसलिए अधिकांश निर्माता इन्हीं दिनों में अपनी फ़िल्में रिलीज करना चाहते हैं। लेकिन, जब ऐसा नहीं होता है, तो जंग शुरू हो जाती है। इसलिए कि लम्बे वीकेंड का फायदा हर कोई लेना चाहता है। बात ये भी है कि इन दिनों फिल्म निर्माता करोड़ों रूपया लगाता हैं। इसलिए वे जल्दी से जल्दी अपना पैसा निकालना चाहते हैं। यही कारण है कि वे लांग वीकेंड में फिल्में रिलीज करने की कोशिश में रहते हैं। 
   अब फिल्म इंडस्ट्री में त्यौहारों पर फिल्म रिलीज करना एक मुद्दा बन गया है। निर्माता फिल्म की कास्ट तय करने से पहले रिलीज की तारीख तय करने लगे हैं। दरअसल, ये हॉलीवुड का ही ट्रेंड है। वहाँ भी क्रिसमस पर कई बड़ी फ़िल्में परदे पर उतारी जाती है। क्योंकि, उस दिन फिल्म रिलीज करने के कारण सिनेमाघरों की संख्या और कलेक्शन बंट जाता है। फिल्म बनाने वाले जानते हैं कि रिलीज डेट बहुत मायने रखती है। जब फिल्म रिलीज करने की तारीख तय हो जाती है, तब हम हमारी प्रमोशन और दूसरी औपचारिकताएं पूरी की जाती है। 
 पिछले साल 'शिवाय' और 'ए दिल है मुश्किल' का हश्र देखकर फिल्मकार सीखेंगे कि फिल्म अच्छी पटकथा से चलती है, कोई और फार्मूला उसे सफल नहीं बना सकता! इस साल सारा दारोमदार सीक्रेट सुपर स्टार, गोलमाल अगेन और 2.0 पर है। यदि ये फ़िल्में पिछले साल की तरह धराशाही हो जाती है तो फिल्म निर्माताओं को सोचना पड़ेगा कि दिवाली पर फ़िल्में रिलीज करने की रिस्क लें या नहीं? 
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असुरक्षित स्कूल, संकट में बचपन

- यूनिसेफ की रिपोर्ट : 65 फीसदी स्कूली बच्चे कभी न कभी स्कूलों में यौन शोषण के शिकार। 

- राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग : स्कूलों में बच्चों के साथ होने वाले शोषण में तीन गुना बढ़ोतरी। 

- महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की रिपोर्ट : देश में हर चौथा स्कूली बच्चा यौन शोषण का शिकार। 

  हमारे शिक्षा मंदिर आज बुरी तरह दूषित और संवेदनहीन होते जा रहे हैं। उसी का नतीजा है कि हमारे सामने स्कूल परिसर में यौन दुर्व्यवहार जैसी शर्मसार करने वाली घटनाएं सामने आने लगीं। ऐसी अधिकांश घटनाओं में वही लोग ज्यादा शामिल हैं, जिनपर बच्चों की सुरक्षा का दारोमदार होता है। वे या तो सुरक्षा से जुड़े कर्मचारी होते हैं या शिक्षक। त्रासदी ये है कि आज न तो स्कूलों को मंदिर की तरह पवित्र माना जा सकता है और न शिक्षकों का आचरण अपनाने लायक रह गया। 
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- एकता शर्मा 
  शिक्षक और शिक्षक संस्थान दोनों ही सामाजिक संस्कारों की वर्जनाएं तोड़कर प्रतिमान खंडित कर रहे हैं। गुरु और शिष्य के रिश्तों की परंपरा और ये संवेदनशील आज कलंकित होने लगा। स्थिति इतनी बदतर हो गई कि शिक्षा के मंदिर व्यभिचार के अड्डे दिखाई देने लगे। जहां चरित्र गढ़े जाते हैं वहां का ही चरित्र गहरे संकट है। जहाँ ज्ञान की गंगा प्रवाहित होनी चाहिए वहाँ शोषण की चीख सुनाई दे रही है। हालात के बदतर होने का अंदाजा इसी लगाया जा सकता है कि महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की रिपोर्ट में कहा गया कि देश में हर चौथा स्कूली बच्चा यौन शोषण का शिकार हो रहा है। हर ढाई घंटे में एक स्कूली बच्ची को हवस का शिकार बनाया जा रहा है।
  दिल्ली सिर्फ देश की राजधानी ही नहीं है। जघन्य अपराधों के मामले में भी दिल्ली देश में सबसे अव्वल है। निर्भया कांड के बाद भी दिल्ली में कई ऐसे अपराध हुए हैं, जो निर्दयता का चरम कहे जा सकते हैं। हाल ही में राजधानी क्षेत्र के दो नामचीन स्कूलों में फिर दो ऐसी ही वारदात हुईं! पहले गुरुग्राम (गुड़गांव) के इंटरनेशनल स्कूल के टॉयलेट में सात साल के बच्चे की हत्या हुई। दूसरी घटना दिल्ली के गांधी नगर इलाके के टैगोर पब्लिक स्कूल में हुई। यहाँ पांच साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म की घटी। गुरुग्राम मामले में आरोप है कि स्कूल की बस के कंडक्टर ने बच्चे के साथ यौन-दुर्व्यवहार की कोशिश की। नाकाम रहने पर उसने हत्या कर दी। जबकि, टैगोर स्कूल मामले में आरोपी स्कूल का चपरासी है। गौर करने वाली बात है कि दोनों ही घटनाओं में आरोपी वही हैं, जिनपर बच्चों की सुरक्षा का जिम्मा था। दोनों ही घटनाओं में आरोपियों का मकसद यौन शोषण रहा। लेकिन, रेयान स्कूल में बच्चे को जिस निर्दयी ढंग से मारा गया वो आरोपी की मनःस्थिति बताता है। 
  दिल्ली के रेयान इंटरनेशल स्कूल में तो डेढ़ साल पहले एक छात्र देवांश की सेप्टिक टैंक में गिरने की वजह से मौत हो गई थी। लेकिन, बाद में पता चला कि मौत का कारण कोई दुर्घटना नहीं, बल्कि अमानवीय कृत्य था। नि:संदेह यह घटना भी देश और समाज को शर्मसार करने वाली थी। लेकिन, स्कूल प्रशासन ने देवांश की मौत को लेकर भी एक के बाद एक नई कहानियां गढ़ी थी। ये तथ्य दुष्कर्म की सारी आशंकाओं सही साबित करता है कि उस बालक के शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं था। अभिभावकों की मानें तो देवांश के साथ पहले दुष्कर्म हुआ, फिर उसकी हत्या कर सेप्टिक टैंक में फेंक दिया गया। 
  रांची के सफायर इंटरनेशनल स्कूल के हॉस्टल में 12 वर्षीय छात्र विनय की मौत भी अखबारों छाई थी। इस मौत को भी यौन शोषण से जोड़कर देखा गया था। इस मामले में स्कूल के तीन शिक्षकों को गिरफ्तार भी किया गया था। लेकिन, इसके बाद क्या हुआ, कुछ पता नहीं चला। लेकिन, इस घटना के बाद ज्यादातर परिजनों ने अपने बच्चों को स्कूल के छात्रावास निकाल लिया था। ऐसी घटनाओं से ये समझना कठिन हो गया है कि जब स्कूलों में ही बच्चे सुरक्षित नहीं रहेंगे। तो फिर अन्य स्थानों पर उनकी सुरक्षा को लेकर निश्चिंत कैसे हुआ जा सकता है। 
  स्कूलों में बच्चों के साथ यौन शोषण की ऐसी दिल दहलाने वाली घटनाएं अब आम हो चली हैं। तीन साल पहले देश के आईटी हब कहे जाने वाले बंगलुरु में दसवीं की एक छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार का मामला सामने आया था। लखनऊ, मध्यप्रदेश के दमोह और बवाना में भी स्कूली बच्चों के साथ यौन शोषण का मामले उजागर हुए। दो साल पहले मथुरा में एक टीचर ने भी अपनी  छात्रा को डरा धमकाकर उसके साथ कई दिनों तक दुष्कर्म किया था। भुवनेश्वर में दस साल की एक बच्ची के साथ ज्यादती के आरोप में एक शिक्षक को पकड़ा गया था। 
 यूनिसेफ की रिपोर्ट में भी स्पष्ट हो चुका है कि 65 फीसदी स्कूली बच्चे कभी न कभी स्कूलों में यौन शोषण के शिकार होते हैं। इनमें 12 वर्ष से कम उम्र के लगभग 41-17 फीसदी, 13 से 14 साल के 25.73 फीसदी और 15 से 18 साल के 33.10 फीसदी बच्चे शामिल हैं। उसकी रिपोर्ट के मुताबिक देश की राजधानी दिल्ली में ही 68.88 फीसदी मामले छात्र-छात्राओं के शोषण से जुड़े पाए गए। ये वो सच है जो हमारी शिक्षा व्यवस्था की नींव को हिला देने वाला है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के मुताबिक बीते तीन-चार सालों में स्कूलों के भीतर बच्चों के साथ होने वाले शारीरिक प्रताड़ना, यौन शोषण, दुर्व्यवहार और हत्या जैसे मामलों में तीन गुना बढ़ोतरी हुई है। शिक्षकों और स्कूल कर्मचारियों द्वारा बच्चों के यौन-उत्पीड़न की घटनाएं पिछले कुछ सालों में काफी बढ़ी हैं। स्कूलों में बढ़ता यौन शोषण एक दिन समाज को खंडित कर दे तो कोई आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। 
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(लेखिका पेशे से वकील और बाल एवं महिला अधिकारों के क्षेत्र में कार्यरत है)
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परदे पर बरसों से मन रहा है 'करवा चौथ'

- एकता शर्मा 

  बॉलीवुड उत्सव प्रिय है। यहाँ दिवाली, होली और रक्षा बंधन ही जोर-शोर से नहीं मनाया जाता, करवा चौथ जैसे त्यौहार का भी अपना अलग ही महत्व है।  जहाँ तक याद आता है, सबसे पहले ब्लैक एंड व्हाइट 'बहू बेटी' में करवा चौथ के व्रत को दिखाया गया। इसका गाना ‘करवा चौथ का व्रत ऐसा’ पहला गाना है, जो इस इस त्यौहार पर फिल्माया गया था। माला सिन्हा और मुमताज ने परदे पर ये गाना गाया था। इस गाने महिलाएं पति की लंबी उम्र की दुआ मांगती नजर आती हैं।
  अस्सी के दशक में फिल्मों में फिल्मों में करवा चौथ नए अंदाज में देखने को मिला। तब दो पत्नियाँ एक पति के लिए व्रत रखती थीं। लेकिन, ये चलन ज्यादा दिन नहीं चला। फिल्मों की कहानियाँ बदली गई। लेकिन, करवा चौथ फिर भी बना रहा। ऐसी कई फिल्में आई हैं, जिनमें करवा चौथ के त्याग वाले व्रत की तरह जगह दी गई। ऐसी कई फ़िल्में बीते सालों में दिखाई दीं, जिनमें करवा चौथ को भव्य अंदाज में दर्शाया गया। कई फ़िल्में तो ऐसी हैं, जब करवा चौथ की बात होती है तो इन फिल्मों का उल्लेख किया जाता है।
 फिल्मों ने करवा चौथ को वैलेंटाइन-डे से जोड़कर एक अनोखा और संगीतमय रूप दिया। उपवास की भावुकता वाली चाशनी घोलकर यह संदेश दिया है कि इस दिन पति पत्नी खुलकर अपने प्यार का इजहार कर सकते हैं। हिन्दी फिल्मों में कुछ समय से करवा चौथ सेलिब्रेशन से जुड़े दृश्यों को बड़े भव्य तरीके से प्रस्तुंत करने का ट्रैंड चलने लगा है। इस मौके पर हीरो हीरोइन का इमोशनल कनेक्ट खासे खूबसूरत और रोमांटिक तरीके से दिखाया जाता है।
 'कभी खुशी कभी गम' में करवा चौथ को बेहद भव्यता से फिल्माया गया था। सीन में तीन जोड़ियाँ एक साथ व्रत करती हैं। अमिताभ-जया, शाहरुख-काजोल और रितिक-करीना पर ये दृश्य शूट किया था। आमिर खान और करिश्‍मा कपूर की फिल्‍म 'राजा हिंदुस्‍तानी' में करवा चौथ को इंटेंसिटी के साथ फिल्माया गया था। 'बागबान' में यह दृश्य अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी पर फिल्माया गया है। दोनों अपने-अपने घर बच्चों के साथ अलग रहते हैं। फिल्म में हेमा मालिनी अपने पति अमिताभ के लिए करवा चौथ का व्रत रखतीं है। लेकिन, दूर होने की वजह से अमिताभ से फोन पर ही बात करते हुए अपना करवा चौथ पूरा करती हैं।
 आज की फिल्मों के संदर्भ में देखा जाए तो फिल्मों में करवा चौथ को ज्यादा लोकप्रिय शाहरुख खान और काजोल ने 'दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे' ने बनाया है। ‘घर आजा परदेसी’ इस दिन जरूर सुनाई देता है। काजोल इस व्रत रखने से बेहोश होने का नाटक करती है और इस बहाने शाहरूख के हाथ से पानी पीती है। 'हम आपके हैं कौन' में सलमान और माधुरी दीक्षित के करवा चौथ का सीन भी कोई भूला नहीं होगा। इसे बॉलीवुड का भव्य करवा चौथ कहा जा सकता है। 'हम दिल दे चुके सनम' की बात करें तो इस फिल्म में संजय लीला भंसाली ने करवा चौथ के गाने को ऐसा फिल्माया है कि दर्शक आज भी भूले नहीं हैं। इस गाने में सलमान ऐश्वर्या को छेड़कर चांद से जल्दी नहीं निकलने का बोलते हैं।
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Sunday 15 October 2017

हमारी व्यवस्था में 'केशलेस इकोनॉमी' अभी दूर की कोड़ी!

- एकता शर्मा 

   नोटबंदी के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कैशलेस इकोनॉमी को आगे बढ़ाने का झंडा बुलंद करने की कोशिश की थी। कैशलेस से उनका आशय था कि लोग अपने बटुवे में कम पैसे रखें और सारा लेन-देन इलेक्ट्रॉनिक माध्यम या अपने डेबिट कार्ड करें। सपना अच्छा है और सपने देखने में कोई बुराई भी नहीं है! लेकिन, क्या भारतीय परिवेश में कैशलेस इकोनॉमी इतनी जल्दी संभव है? इससे भी बड़ा सवाल ये है कि क्या सरकार के सारे घटक और व्यवस्थाएं इसके लिए तैयार हैं? इन दोनों सवालों का एक ही जवाब सामने आता है 'नहीं!' जिस देश में खेलों के टिकट कैश में बेचने की मुनादी पिटती हो! पेट्रोल पम्पों पर डेबिट कार्ड से पेमेंट करने वालों को इंकार कर दिया जाता हो! अधिकांश दुकानों पर कार्ड स्वेपिंग मशीनें नहीं हों, वहाँ कैशलेस ट्रान्जेशन कैसे संभव है? 

  इसी से जुड़ा मुद्दा ये भी है कि जब बैंकों ने एटीएम से ट्रांजेशन की लिमिट तय कर दी हो, तो लोग क्या करेंगे? उनके पास यही रास्ता है कि जहाँ तक संभव हो, केश निकालकर जेब में भर लिया जाए और सारा काम उसी से चलाया जाए! अभी भारतीय अर्थव्यवस्था में मात्र 2 फीसदी डिजिटल भुगतान होता है, जिसे आगे बढ़ाने में काफी समय लग जाएगा। देश में इंटरनेट के संजाल को और व्यापक स्तर पर फैलाने की जरूरत है। दूर-दराज के क्षेत्र अभी भी इंटरनेट की अद्भुत बाजीगरी से वाकिफ नहीं है। 4जी के ज़माने में भी अन्य देशों की तुलना में इंटरनेट की गति बहुत धीमी है। आज भी दस लाख की आबादी पर 850 कार्ड स्वेपिंग मशीनें ही हों, तो ऐसे सपने देखे ही क्यों जाएँ? 
  केशलेस इकोनॉमी में पड़ा पेंच है कि आम जनता इसकी प्रक्रिया को समझे और सरकार इस व्यवस्था के लिए वो सारे उपाय करे जो जरुरी हों! उसके बाद जनता को जागृत किया जाए कि वो अपने बटुवे का वजन हल्का करे। क्योंकि, जो देश सदियों से सारा कामकाज कैश से चलाता रहा हो, वहाँ रातों-रात व्यवस्था और लोगों का मानस बदल देना आसान नहीं है। रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के एक रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ 55 फीसदी लोगों के पास ही डेबिट कार्ड है। ऐसे में सारे लोग केशलेस ट्रान्जेशन कैसे कर पाएंगे? जिन लोगों के पास डेबिट कार्ड हैं, उनमें से सिर्फ 7-8 फीसदी लोग है जो नेट-बैंकिंग का इस्तेमाल करते हैं। बाकी लोग तो अपने डेबिट कार्ड का उपयोग सिर्फ एटीएम से पैसे निकालने के लिए करते है। सरकार ने गरीबी रेखा से नीचे (यानी 500 रुपए प्रति महीने आय वाले) गुजर-बसर करने वालों के बैंक खाते तो खुलवा दिए, पर बैंकों ने उन्हें डेबिट कार्ड नहीं दिए! क्योंकि, वे न्यूनतम बैलेंस की शर्त पूरी नहीं करते!  
  देश के कुछ ग्रामीण इलाके तो ऐसे हैं, जहाँ दूर दूर तक बैंको का ही पता नहीं! इनके लिए सरकार पास क्या इंतजाम हैं? जब तक देश की सौ फीसदी आबादी के बैंक खाते नहीं हो जाते और वे नेट-बैंकिंग नहीं सीख जाते, इस तरह के सपने देखना भी अपने आपको धोखे में रखने जैसा है! साथ ही ग्रामीण इलाके के लोगों को कैशलेस व्यवस्था के लिए मानसिक रूप से शिक्षित भी करना होगा। ऐसा नहीं किया गया तो हमारे यहाँ ऐसे 'साइबर-लुटेरों' की कमी नहीं है, जो लोगों की नासमझी और अज्ञानता का फ़ायदा उठाकर उनकी सारी जमापूंजी उड़ा सकते हैं। आज जब हमारे यहाँ टेलीफोन पर लोगों को भरमाकर उनके बैंक अकाउंट नम्बर पूछकर सरेआम धोखाधड़ी होने लगी है तो एटीएम का पासवर्ड पता करके तो कुछ भी हो सकता है।    
  भारत में 2014 में कैश और जीडीपी का अनुपात 12.42% था, जबकि चीन में ये 9.47% और ब्राजील में 4% था। हमारे देश में नकदी का बहुत ज्यादा महत्व है और अभी भी हमारे देश में अधिकांश लेन-देन नकदी में ही होता है। भारत जैसे देश को कैशलेश इकोनॉमी में तब्दील करने में अभी ढेरों बाधाएं हैं, जैसे इंटरनेट का ख़राब नेटवर्क, वित्तीय तथा डिजिटल साक्षरता की कमी और साईबर सुरक्षा की अपर्याप्त सुविधा। यहाँ छोटे-छोटे विक्रेता हैं, जिनके पास इलेक्ट्रानिक पेमेंट लेने की व्यवस्था करने के लिए पर्याप्त धन नहीं होता! अधिकांश ग्राहकों के पास स्मार्टफोन न होने के कारण वो इंटरनेट बैंकिंग, मोबाईल बैंकिंग और डिजिटल वैलेट्स का उपयोग करने में सक्षम नहीं होते। अधिकतर लोग अभी कैशलेस लेन-देन को भी ठीक से नहीं समझते! 
 अधिकांश आनलाईन ग्राहकों को ये पता ही नहीं होता है कि यदि उनके साथ कुछ धोखाधड़ी हो जाए तो वो कहाँ शिकायत करें! सरकार को पहले इन समस्याओं का समाधान खोजना चाहिए। डिजिटल व्यापार करने वाली कंपनियों के लिए स्पष्ट नियम-कानून, ग्राहकों के धन की सुरक्षा के पर्याप्त उपाय और तीव्र शिकायत निवारण प्रणाली के बिना डिजिटल इंडिया का सपना पूरा नहीं हो सकता है। इसके अतिरिक्त डेबिट/क्रेडिट कार्ड से पेमेंट करने पर ट्रांजैक्शन चार्ज न लगाना और कैशलेस ट्रांजैक्शन पर कर में छूट देने जैसे उपायों द्वारा डिजिटल पेमेंट को लोकप्रिय बनाया जा सकता है। 
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सिनेमा के परदे पर कहाँ है गाँधी?

 - एकता शर्मा 

  हिंदी फिल्मों में राजनीति और नेताओं का जब भी जिक्र होता है, नकारात्मक ही होता है। क्योंकि, फिल्मों में ये किरदार सामान्यतः भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा होते हैं। लेकिन, देश के सच्‍चे नेता के रूप में हमेशा गाँधीजी को ही हमारी फिल्‍मों में दिखाया गया। अभी तक महात्मा गाँधी से जुड़कर जो भी फ़िल्में बनी, उसमे गाँधी को कई प्रतिबिम्बों में प्रदर्शित किया गया। वैसे तो महात्मा गाँधी पर अब तक अंगुलियों पर गिनी जा सकने वाली ही फ़िल्में बनी हैं। लेकिन, जितनी सफलता रिचर्ड एटनबरो की फिल्म 'गांधी' को मिली, उतनी शायद किसी दूसरी फिल्म को नहीं। इसमें बेन किंग्सले ने गाँधीजी का किरदार   निभाया था। इस फिल्म ने 8 ऑस्कर और सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म के लिए 'गोल्डन ग्लोब' अवॉर्ड   भी जीता था। 
  अपने जीवनकाल में महात्मा गांधी ने सिर्फ दो फिल्में देखीं थी। पहली फिल्म उन्होंने 1943 में 'मिशन टू मॉस्को' देखी थी। इसके बाद भारत में बनी फिल्म 'रामराज्य' देखी थी। इसके बाद उन्होंने कोई फिल्म नहीं देखी। महात्मा गाँधी का फिल्मों से नाता कम ही था। लेकिन, हमारे फिल्मकारों ने भी गाँधी विचारधारा को प्रचारित करने में बहुत कंजूसी की। गाँधीजी को जनमानस का नेता माना जाता था। ये भी कहा जाता है उनसे अच्छा 'मास कम्युनिकेटर' यानी जनता को उनकी भाषा में अपनी बात समझाने वाला आजतक कोई नहीं हुआ! लेकिन, फिर भी फिल्मकारों ने गाँधीजी के साथ न्याय नहीं किया। उनपर बानी सबसे सफल फिल्म भी विदेशी निर्माता ने बनाई और गांधीजी का किरदार भी विदेशी एक्टर ने निभाया। 
  गाँधीजी के प्रति फिल्मकारों की उदासीनता से दुखी होकर एक बार निर्देशक महेश भट्ट ने कहा था कि 'बहुत कम लोग हैं, जो गांधीजी को एक अहसास की तरह महसूस करते हैं। क्या कारण था कि विदेशी निर्देशक ने विदेशी कलाकार को मुख्य किरदार में लेकर 'गाँधी' जैसी शानदार फिल्म बना दी, और गांधी के देश के लोग उस टक्कर की फिल्म आजतक नहीं बना पाए? सिनेमा की दुनिया में जब भी महात्मा गाँधी का जिक्र आया है तो बेन किंग्सले और रिचर्ड एटनबरो की 'गाँधी' से बात शुरू होकर 'लगे रहो मुन्ना भाई' पर ख़तम हो जाती है। राजकुमार हीरानी की संजय दत्त और अरशद वारसी अभिनीत इस फिल्म ने गांधीवाद को नया नजरिया जरूर दिया है। 
  फिल्मों के अलावा गाँधीजी पर कई डॉक्युमेंट्री भी बनी। 1963 में गाँधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की मानसिकता पर जेएस कश्यप ने 'नाइन आवर्स टू रामा' बनाई थी। 1968 में 'महात्मा: लाइफ आफ गाँधी' बनी और फिर आई 'महात्मा गाँधी : ट्वेंटिएथ सेंचुरी प्रोफेट।' 1982 में बनी 'गाँधी' में बेन किंगस्‍ले ने उन्‍हें जीवंत कर दिया था। 'गांधी, माय फादर' 2007 में आई इस फिल्म को अनिल कपूर ने बनाया था।  यह फिल्‍म गाँधीजी और उनके बेटे हरिलाल गाँधी के परेशानी वाले रिश्तों पर आधारित थी। 2000 में आई फिल्म 'हे राम' देश के विभाजन और नाथुराम गोडसे द्वारा गांधी की हत्‍या पर आधारित है। 'लगे रहो मुन्‍ना भाई' राजकुमार हिरानी और विधु विनोद चोपड़ा की फिल्‍म थी, जिसने गांधीगिरी का नया टर्म जरूर इजाद किया। 'मैंने गाँधी को नहीं मारा' में अनुपम खेर ने एक रिटायर्ड हिंदी प्रोफेसर उत्‍तम चौधरी का किरदार निभाया। फिल्म में प्रोफ़ेसर को अजीब सा पागलपन छा जाता है। वो ये मानने लगता है कि गाँधीजी का हत्यारा वही है। देखा जाए तो अभी भी सिनेमा के परदे पर गाँधी को जीवंत किया जा सकता है। पर, कोई फिल्मकार हिम्मत तो करे! क्योंकि, गाँधी एक व्यक्ति नहीं, एक विचारधारा है और विचार कभी नहीं मरते। कोई नाथूराम गोडसे भी विचारों की हत्या नहीं कर सकता। 
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