Saturday 25 November 2017

ये है नए मिजाज का हिंदी सिनेमा

- एकता शर्मा 

 सिनेमा का मिजाज बदल रहा है। इस बदलते हिंदी सिनेमा ने कई परंपरागत रूढ़ियों को तोड़ा दिया। इसने समय की नब्ज को पहचाना और नया दर्शक वर्ग तैयार किया। विषय, भाषा, पात्र, प्रस्तुति सभी स्तरों पर नए मिजाज के सिनेमा ने अपने आपको बदला है। दर्शकों ने भी सिनेमा के इस बदले और अपेक्षाकृत समृद्ध रूप को स्वीकार किया है। इधर कुछ ऐसी फिल्में भी बन रही हैं, जिन्होंने सिनेमा और समाज के बने-बनाए ढांचों को बदला है। क्वीन, बरेली की बरफी, शुभमंगल सावधान, लिपस्टिक अंडर माय बुर्का, तनु वेड्स मनु, तुम्हारी सुलू और सीक्रेट सुपरस्टार जैसी फिल्मों ने सिनेमा की बरसों पुरानी विचारधारा को नए ढंग से सोचने पर मजबूर कर दिया।    
   कंगना रनौत की फिल्म ‘क्वीन’ स्त्री स्वातंत्र्य और स्त्री अस्मिता से जुड़े पहलुओं को आधारभूत और जरूरी स्तर पर समझने की कोशिश करती है। ये एक आम लड़की के कमजोर होने, बिखरने और फिर संभलने की कहानी है। रानी नामक पात्र के माध्यम से फिल्मकार ने स्त्री की जिजीविषा और संघर्ष का बेहतरीन चित्रण किया है। 'बरेली की बरफी' और 'शुभमंगल सावधान' विशुद्ध मनोरंजन, सामाजिक और परिस्थिजन्य स्थितियों से उपजे हास्य की फिल्म है। ख़ास बात ये कि नए दौर की इन फिल्मों में स्त्री पात्रों को बहुत अहमियत दी गई है। 'तुम्हारी सुलू' का विषय भी बिल्कुल नया है और 'सीक्रेट सुपरस्टार' ने तो स्त्री पात्र को सम्पूर्णता दे दी! 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' तो इन सबसे चार कदम आगे है। फिल्म में नायक के रूप में प्रस्तुत इन फिल्मों की स्त्रियां अपने शर्म और संकोच की कैद से निकलने लगी हैं। ये कथित सभ्रांत समाज से बेपरवाह होकर ठहाके लगाती हैं, चीखती हैं, जोर-जोर से गाती और नाचती हैं! जब तक कि उनका मन नहीं भर जाता।
  इसी साल आई एक और बड़ी महिला प्रधान फ़िल्म आई 'मॉम।' जिसमें मुख्य भूमिका निभाई है अपने ज़माने की मशहूर अभिनेत्री श्रीदेवी ने। पिछले साल भी कई महिला प्रधान फ़िल्में बनी और बॉक्स ऑफिस पर काफी अच्छा बिजनेस भी किया। पीकू, पिंक, नीरजा, नील बटे सन्नाटा, डियर ज़िंदगी जैसी फ़िल्में पूरी तरह अभिनेत्रियों के कंधे पर टिकी थी। आमिर ख़ान के अभिनय से सजी फ़िल्म 'दंगल' भी एक तरह से महिला प्रधान फ़िल्म थी। 
  इस नए हिंदी सिनेमा में औरत की शख्सियत की वापसी होती दिखाई देती है। उनकी इस वापसी और जुझारूपन को दर्शकों ने भी हाथों हाथ लिया है। क्योंकि, दर्शक अब नायिका को शिफॉन साड़ियों की फंतासी से बाहर यथार्थ की खरोंचों के बीच महसूस करना चाहता है। वह आईने में अपने को देखना और खुद को जानना चाहता है। इन फिल्मों ने लैंगिक बहसों को भी नया मोड़ दिया है। यहां पुरुष स्त्री का शत्रु या उसका प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि उसका साथी है। वह अपने पुरुष अहंकार और वर्चस्ववाद से मुक्त होकर, स्त्री के मर्म और उसके अधिकारों को समझते हुए नए तरीके से अपना विकास कर रहा है। फिल्मों के इन स्त्री पात्रों के साथ-साथ पुरुषों की सामंती छवियां भी खंडित हुई हैं और अब ये पूरी तरह स्वीकार्य भी हैं।
  अब हिंदी सिनेमा ने दर्शकों की बेचैनी को समझा है, उसे आवाज दी है। अनुराग कश्यप, दिवाकर बनर्जी, इम्तियाज अली जैसे युवा निर्देशकों और जोया अख्तर, रीमा कागती, किरण राव जैसी सशक्त महिला फिल्मकारों ने हिंदी सिनेमा को तीखे तेवर दिए हैं। उसके रंग-ढंग बदले हैं। इनकी स्त्रियां जीने के नए रास्ते और उड़ने को नया आसमान ढूंढ़ रही हैं। दर्शक भी रोते-बिसूरते, हर वक्त अपने दुखड़े सुनाते चरित्रों पर कुछ खास मुग्ध नहीं हो रहा। उसे भी पात्रों के सशक्त व्यक्तित्व की खोज थी, जो अब पूरी हुई लगती है।
  आज सिनेमा ने मनोरंजन के अर्थ और पैमाने बदले हैं। सिनेमा ने समझ लिया है कि बदला हुआ यह नया दर्शक केवल लटकों-झटकों से संतुष्ट नहीं होने वाला, उसे कुछ नया और ठोस देना होगा। यही कुछ वजह है कि आमिर खान जैसे एक्टर और सिनेमा के असली व्यवसायी फिल्मकार को भी अपने किले से बाहर निकलना पड़ा और 'दंगल'  के बाद 'सीक्रेट सुपरस्टार' जैसी स्तरीय फिल्में बनाने को मजबूर होना पड़ा। अब मारधाड़, गुंडागर्दी, साजिशों और उलझी हुई कहानियों के दिन लद गए! आज के दर्शकों को चाहिए शुद्ध मनोरंजन जो उन्हें तीन घंटे तक सारे तनाव से मुक्त रखे और फिल्म की कहानी उसे अपनी या अपने आसपास की लगे!   
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Sunday 19 November 2017

कब तक नकली इतिहास परोसेंगे सीरियल?

- एकता शर्मा 

  टीवी सीरियलों को लेकर अकसर सवाल किए जाते हैं कि ये हमारी संस्कृति और परिवारों की पहचान के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं! लेकिन, आजकल भारतीय इतिहास के साथ मनोरंजन के नाम पर ख़ासा मजाक किया जा रहा है! कई चैनल्स पर इतिहास से जुड़े सीरियल चल रहे हैं! महाराणा प्रताप, सम्राट अशोक, जोधा-अकबर और मीरा बाई जैसे कई सीरियल दर्शक देख चुके हैं। अब 'पोरस' जैसे कुछ सीरियल शुरू होने वाले हैं। सिकंदर और पोरस के जन्म का दिन एक ही बताया जा रहा है, जबकि इतिहास में ऐसा कुछ नहीं है। इस तरह के सीरियलों के कथानक की सत्यता की कोई प्रामाणिकता नहीं है! इतिहास को तोड़ मरोड़कर उसे मनोरंजन बनाकर परदे पर दिखा देने से दर्शकों पर अलग ही प्रभाव पड़ रहा है!
  सीरियल के निर्माता और चैनल किसी विवाद और कानूनी उलझन से बचने के लिए इसके कथानक को इतिहास से अलग महज मनोरंजन होने की सफाई देकर 'डिस्क्लेमर' लगाकर खुद तो बरी हो जाता है, पर दर्शकों में एक बड़ा वर्ग है जो एक नए इतिहास से परिचित होने से नहीं बचता! ऐसे में जब कोई प्रामाणिक इतिहास का जिक्र करता है तो वह उस पर भरोसा नहीं करता! जिस तरह चंदबरदाई के चारणी साहित्य 'पृथ्वीराज रासो' में संयोगिता नाम का चरित्र गढ़कर जयचंद को गद्दारी का पर्यायवाची शब्द बना दिया! उसी प्रकार मुगले आजम, अनारकली, जोधा अकबर आदि फिल्मों ने एक मनगढ़ंत जोधा बाई नाम रच दिया, जो जनमानस के दिलो दिमाग से कभी निकल नहीं पाएगा!
  सीरियल के लेखकों ने इतिहास को नए सिरे से लिखकर उसे दूषित और विकृत कर दिया जाता है। कथानक में मनगढ़ंत किस्से और प्रसंग जोड़कर उसे मनोरंजक तो बना दिया जाता है, पर इसका सत्यता से कोई वास्ता नहीं होता! इतिहास को तोड़-मरोड़कर ऐतिहासिक पात्रों पर फ़िल्में बनने के बाद अब जिस तरह सीरियल बनाए जा रहे हैं, वो देश की संस्कृति के साथ मजाक ही है, इसका दुखद पहलु ये है कि इसकी तरफ सरकार का कोई ध्यान नहीं! देखा जाए तो इतिहास को प्रदूषित और विकृत करने में इन टीवी चैनल्स का सबसे बड़ा हाथ है। मनोरंजन के नाम पर दशकों पहले बनी फिल्म 'मुगले आजम' कोई भी यह मानने को तैयार नहीं था कि अकबर की किसी पत्नी का नाम जोधा बाई था! अकबर नामा, जहाँगीर नामा और अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुल फजल ने भी कहीं अकबर की किसी पत्नी का नाम जोधा नहीं लिखा था! लेकिन, 'मुगले आजम' बनने के बाद इसी विषय पर बनी फिल्म और सीरियल (जोधा अकबर) में इसी का जिक्र हुआ!
  'महाराणा प्रताप' सीरियल में भी असली कथानक से भटककर अनर्गल बातें दिखाई गई! मेवाड़ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ छेड़छाड़ करने के आरोप भी लगे! राजस्थान के एक राजपूत संगठन ने तो इसे लेकर अपना विरोध भी दर्ज कराया था। 'मीरा बाई' पर बने सीरियल में अनर्गल प्रसंग जोड़े जाने के आरोप लगे थे! वृंदावन यात्रा पर जा रही मीरा बाई के साथ मेड़ता के शासक वीरमदेव को जोधपुर के शासक मालदेव के भय से छुपते हुए दिखाया गया था! राजा मालदेव और वीरमदेव के बीच जंग दिखाई गई! घायल वीरमदेव द्वारा अपनी मृत्यु से पहले मालदेव को मारना भी दिखाया गया! जबकि, तथ्यात्मक इतिहास बताता है कि मालदेव का निधन वीरमदेव की मृत्यु के कई साल बाद हुआ था! यदि मालदेव और वीरमदेव आपसी झगडे में मारे गए होते तो फिर मालदेव की जयमल के साथ युद्ध कैसे होते? लेकिन, इतिहास की आड़ में सीरियल बनाने वालों को ऐतिहासिक तथ्यों से कोई सरोकार नहीं होता! उनकी नजर तो इतिहास की आड़ में साजिश और संघर्ष दिखाकर टीआरपी कमाने की होती है! इतिहास में ये मिलावट तब तक होती रहेगी, जब तक इसे रोकने कोशिश नहीं होती! 
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Saturday 11 November 2017

रोहित शेट्टी की फिल्म है तो बिंदास चलेगी!

- एकता शर्मा

  दिवाली पर रिलीज हुई फिल्म 'गोलमाल अगेन' को साल की सुपर हिट फिल्मों में गिना जा रहा है। इस फिल्म ने कमाई में आमिर खान के प्रोडक्शन में बनी फिल्म 'सीक्रेट सुपरस्टार' को पीछे छोड़ दिया। इस बात से इंकार नहीं कि 'गोलमाल अगेन' कॉमेडी मामले में पैसा वसूल फिल्म है। अजय देवगन से लगाकर सभी कलाकारों ने फिल्म में अपना शत-प्रतिशत दिया है। लेकिन, फिर भी फिल्म की सफलता का एक बड़ा कारण रोहित शेट्टी खुद हैं। आज उन्हें फिल्म की सफलता का ब्रांड मान लिया गया है। वे जितनी अच्छी कॉमेडी फ़िल्में बनाते हैं, उतनी ही महारथ उन्हें एक्शन फिल्मों में भी है। आज स्थिति ये है कि छोटे प्रोड्यूसर तो उनकी फिल्मों के आसपास अपनी फिल्म रिलीज करने से भी डरते हैं। इस बार आमिर खान को भी सबक मिल गया। क्योंकि, 'सीक्रेट सुपरस्टार' अच्छी फिल्म होते हुए, 'गोलमाल अगेन' के सामने फीकी पड़ गई!   
   रोहित शेट्टी फिल्माए जाने वाले एक्शन सीन्स की वजह से भी जाने जाते हैं। उनकी फिल्मों के एक्शन सीन में कारों को उछालने वाले दृश्य आमतौर पर फिल्माए जाते हैं। कई अन्य निर्देशक भी कारों वाले एक्शन सीन में रोहित शेट्टी मदद लेते हैं। वे सिर्फ एक्शन सीन फिल्माने वाले निर्देशक ही नहीं, सिनेमैटोग्राफर भी हैं। फिल्ममेकर के रूप में उन्होंने गोलमाल सीरीज, सिंघम सीरीज की दो फिल्मों के अलावा बोल बच्चन और 'चेन्नई एक्सप्रेस' भी बनाई जिसमें शाहरुख़ खान जैसे रोमांटिक कलाकार से भी एक्शन करवा ली। उनकी प्रतिभा ही है सभी फिल्मों ने बाॅक्स आॅफिस पर जमकर कमाई की है। 
  एक्शन और एक्टिंग तो रोहित शेट्टी के खून में है। उनकी माँ रत्ना शेट्टी फिल्मों में जूनियर आर्टिस्ट रही हैं। जबकि, पिता एमबी शेट्टी ने लम्बे समय तक फिल्मों में खूंखार गुंडे का रोल किया है, जो बोलते कम पर हाथ ज्यादा चलते थे। उन्हें फाइटर शेट्टी के नाम से भी जाना जाता था। बतौर निर्देशक रोहित शेट्टी ने 2003 में 'जमीन' से अपना कैरियर शुरू किया था। इसमें अजय देवगन, अभिषेक बच्चन, बिपाशा बसु थे, लेकिन यह फिल्म चली नहीं! उनका सिक्का चला 2006 में आई 'गोलमालः फन अनलिमिटेड' से जिसमें अजय देवगन, अरशद वारसी, तुषार कपूर, शरमन जोशी जैसे कलाकार थे। इसके बाद तो रोहित को फिल्मों की सफलता की कुंजी मान लिया गया। 2011 में आई 'सिंघम' और उसके बाद आई 'सिंघम रिटर्न' ने अजय देवगन को एक्शन के मामले में नया रूप दिया। इस फिल्म में अजय देवगन ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले पुलिस इंस्पेक्टर बाजीराव सिंहम का दमदार किरदार निभाया! फिल्म के एक्शन सीन और निर्देशन की काफी तारीफ हुई और अजय देवगन के काम को भी वाहवाही मिली। 
  उसके बाद आई 'चेन्नई एक्सप्रेस' में शाहरूख खान और दीपिका पादुकोण थे। ये घरेलू मार्केट में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली बाॅलीवुड की फिल्म बनी और ओवरसीज मार्केट में तीसरी सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्म। फिल्म ने बाॅक्स आॅफिस पर कई रिकाॅर्ड बनाए। इतनी व्यस्तता के बावजूद रोहित शेट्टी ने 2014 में टेलीविजन के स्टंट गेम शो 'फियर फैक्टरः खतरों के खिलाड़ी' का भी हिस्सा बने। वे टेलीविजन शो काॅमेडी सर्कस के जज भी रहे हैं। कहा जा सकता है कि रोहित शेट्टी मल्टी टेलेंटेड और बॉलीवुड में वन मेन शो हैं। 
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अभी उसे कई बार झेलना है उस पीड़ा को!

- एकता शर्मा 

 जब किसी लड़की के साथ दुराचार होता है, उसके बाद वो जिस पीड़ा से गुजरती है, उसे उससे बेहतर कोई नहीं जान सकता। लेकिन, इसके बाद कानून, पूछताछ और कार्रवाई का जो खेल शुरू होता है, वो उस दुराचार से भी ज्यादा तकलीफदेह और घिनौना होता है, जो उसने भोगा है। पहले दर्दनाक क़ानूनी कार्रवाई, फिर डॉक्टरी जांच, मेडिकल टीम के सवाल और पुलिस की पूछताछ के बाद अदालत में बेवजह के सवालों की झड़ी! ये सब उस लड़की को अंदर से तोड़कर रख देते हैं। दुराचार के बाद एक लड़की जीवनभर जिस अंतहीन पीड़ा से गुजरती है, ये कोई और जान भी नहीं सकता! फिलहाल इस दर्दनाक पीड़ा भोपाल की वो अनाम लड़की गुजर रही है, जिसके सपनों को दरिंदों तार-तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी! 
 अब उसने जिस दर्द को झेला है उसे कानूनी कार्रवाई के लिए बयां करना है, ताकि उसके जिस्म को नोचने वाले सजा पा सकें! जबकि, सच्चाई ये है कि ये सब भोगने वाली लड़की जिसे भूलाना चाहती है, उसे कानून, व्यवस्था और समाज भूलने नहीं देता। क्योंकि, दुराचार के बाद लड़की किस तरह चूर-चूर होती है, इस बात का अंदाजा कोई नहीं लगा सकता। जिस बदतर जिंदगी से लड़की को गुजरना होता है, उसका अंदाजा सिर्फ वो लड़की ही जानती है, जिसने उसे भोगा है। 
  जिस्म के भूखे भेड़ियों ने उसे किस तरह दबोचा था, इसका अंदाजा भी लगाना मुश्किल है! उन दरिंदों ने तो उसकी जिंदगी को तबाह ही कर दिया। वो चिल्लाती रही, रहम की भीख मांगती रही। उन्हें उसे सज़ा का डर दिखाती रही, लेकिन हवस के भेड़ियों को कुछ भी सुनाई नहीं दिया! उन पर तो जिस्मानी सुख का भूत सवार था। अपनी भूख मिटाकर वे भेडिये उसे वहीं छोड़कर भाग गए। फिर उसने अपने आपको समेटा और कानून के सामने पहुंची। पर उसे यहाँ भी इंसाफ नहीं मिला! शायद उसे अब कभी इंसाफ मिलेगा भी नहीं! क्योंकि, उसने खोया है उसकी पूर्ति न तो कानून कर सकता है न समाज और न परिवार! इसलिए कि ये ऐसा दुःख है जिसका अनुभव उसे हर सांस के साथ होगा।  
  अब जो होगा वो भी किसी जबरदस्ती से काम नहीं होगा! उससे पूछे जाने वाले सवाल भी किसी दूसरे दुराचार से कम नहीं होंगे। ऐसी घटनाओं के बाद पीड़िता का एसटीआई, एचआईवी और प्रेग्नेंसी टेस्ट किया जाता है। अभी तो मामला अदालत नहीं पहुँचा है, फिर वहाँ होता है तीसरा दुराचार! पुलिस और अदालती सवाल किसी भी पीड़िता को चिड़चिड़ा बनाने के लिए काफी होते हैं। क्योंकि, डॉक्टरों को उसे हर बार अपने साथ हुई ज्यादती की कहानी विस्तार से सुनाना पड़ती है। बेतुके सवाल किये जाते हैं, जिनका जवाब उसे मजबूर होकर देना ही पड़ता है। क्योंकि, यदि उन भेड़ियों को अपने गुनाह की सजा दिलाना है तो ये करना ही होगा। न चाहते हुए भी उसे यह सब तो करना ही होगा! यानी उसके साथ जो घटा, वो उसे चाहकर भी भुला नहीं सकेगी! क्योंकि, कार्रवाई, पूछताछ और फिर अँधा कानून तो आँख खोलकर उस दर्द को महसूस करने से तो रहा!  
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Sunday 5 November 2017

परदे का नया विवाद है भंसाली की 'पद्मावती'

- एकता शर्मा

 सिनेमा और विवादों का चोली-दामन का साथ है। ऐसे कई उदाहरण है जब फिल्मों को लेकर विवाद पनपे! अब एक नया विवाद सामने आया है संजय लीला भंसाली की फिल्म 'पद्मावती' को लेकर! इसकी कथित कहानी लेकर राजस्थान की राजपूत करणी सेना ने आपत्ति उठाई है! उन्हें लगता है कि फिल्म की कहानी ज्ञात इतिहास से अलग लिखी गई! जबकि, भंसाली ने इससे इंकार किया है। लेकिन, फिल्म की संभावित सफलता ने 'पद्मावती' के आसपास रिलीज होने वाली 8 फिल्मों को प्रभावित जरूर कर दिया। इस फिल्म के ट्रेलर ने ही 24 घंटे में डेढ़ लाख व्यूज के साथ रिकॉर्ड बना लिया। इसमें दीपिका पादुकोण और शाहिद कपूर मुख्य भूमिका में हैं और रणवीर सिंह ने सुलतान अलाउद्दीन खिलजी की भूमिका निभाई है। इस किरदार की एक झलक ने ही रणवीर सिंह ने फैन्‍स का दिल जीत लिया। हिंदी फिल्मकारों ने अभी तक मुग़लकाल से जुडी कहानियों पर ही ज्यादा फ़िल्में बनाई गई है। जोधा, अकबर, जहांगीर, शाहजहाँ, पसंदीदा करैक्टर साबित हुए।

  जयपुर में इसी साल जनवरी में जब 'पद्मावती' की शूटिंग शुरू हुई, तब राजपूत करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने संजय लीला भंसाली के साथ मारपीट की थी। इन लोगों ने फिल्म के सेट पर पहुंचकर काफी तोड़फोड़ भी की थी। इन्हें फिल्म की कहानी से जुड़े एक तथ्य पर आपत्ति जताते हुए ये कदम उठाने का दावा किया है। आरोप लगाया गया था कि ये फिल्म गलत तथ्यों पर बनाई जा रही है, यही कारण है कि हम इसका विरोध कर रहे हैं। करणी सेना का कहना है कि रानी पद्मावती के साथ अलाउद्दीन खिलजी का रोमांस दिखाने की कोशिश कथित तौर पर फिल्म में की जा रही है, जो गलत है। उन्होंने कहा कि पद्मावती वो महिला थीं, जिसने अपनी आन-बान-शान के लिए जौहर किया था! लेकिन, अभी तक फिल्म की कहानी सामने नहीं आई, इसलिए दावा नहीं किया जा सकता कि ये आरोप कितने सही हैं! हाल ही में गुजरात के एक शहर में 'पद्मावती' की सात घंटों में बनी भव्य रंगोली को भी करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने बिगाड़ दिया था। इसे लेकर काफी विवाद हुआ तब कहीं जाकर रंगोली बिगाड़ने वाले 5 लोगों को पकड़ा गया। 
 इतिहास पन्नों को पलटा जाए तो संजय लीला भंसाली से पहले साइलेंट फिल्मों के दौर में 1924 में बाबूराव पेंटर ने 'सति पद्मिनी' नाम से इसी कहानी पर फिल्म बनाई थी। चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी की एक झलक दिल्ली का नवाब अलाउद्दीन ख़िलजी देख लेता है। पद्मिनी को पाने के लिए वो चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण कर देता है। अलाउद्दीन ख़िलजी चित्तौड़ के राजपूतों को हरा तो देता है, पर पद्मिनी उसे नहीं मिलती! वो अलाउद्दीन के हाथ आने से पहले ही जौहर कर लेती है। कहा जाता है कि इतिहास में भी यही है। लेकिन, संजय लीला भंसाली की 'पद्मावती' की फिल्म के कथानक को लेकर अभी सिर्फ कयास ही लगाए जा सकते हैं।
 अपना इतिहास देखना सबको अच्छा लगता है। लेकिन, इतिहास को किताब में पढ़ने और परदे पर देखने में फर्क है। जब फिल्मकार इतिहास को फंतासी अंदाज परदे पर उतारता है, तो दर्शकों का रोमांचित होना स्वाभाविक होता है। लेकिन, इस बात की कोई गारंटी नहीं होती कि ये ऐतिहासिक फ़िल्में सफल हो ही जाएंगी! इन ऐतिहासिक फिल्मों का इतिहास बताता है कि ये फार्मूला ही हमेशा चला!
जब फिल्मों को आवाज मिली तो पहली बोलती फिल्म ही 'आलमआरा' कॉस्ट्यूम ड्रामा ही थी! निर्देशक सोहराब मोदी की यह हिंदी फिल्मों के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई। बाद में सोहराब मोदी ने पुकार, सिकंदर, पृथ्वी वल्लभ और झाँसी की रानी जैसी ऐतिहासिक फ़िल्में बनाई! 'झांसी की रानी' पहली टेक्नीकलर फिल्म थी।
  देखा गया है कि इतिहास से जुडी फिल्मों में भी महिला कैरेक्टरों को ही ज्यादा पसंद किया गया है। 'पद्मावती' भी इसी श्रृंखला की अगली कड़ी है। संजय लीला भंसाली ने इतिहास की रोचक कहानियों को खोजकर जिस तरह बड़े कैनवास पर फ़िल्में बनाने की शुरुआत की है तय है कि 'पद्मावती' के बाद वे और भी कोई कहानी नई कहानी खोज लाएंगे। जहाँ तक विवाद की बात है तो ये भी सच है कि ऐसे विवाद ही कई बार फिल्मों की सफलता का कारण बनते हैं। 
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इन फिल्मों को हीरोइन के लिए याद किया जाएगा!

- एकता शर्मा 

  बॉलीवुड का नजरिया हमेशा पुरुष प्रधान रहा है। अकसर ऐसे आरोप भी लगते रहे हैं। क्योंकि, फिल्मों के हीरो कभी ही मैन, कभी एंग्री यंग मैन और कभी प्रेम के बादशाह बन जाते हैं। लेकिन, हीरोइनों को कभी इस नजरिए से नहीं देखा जाता। उन्हें कभी ऐसे सम्मानजनक टाइटल  मिले। याद किया जाए तो ऐसी चंद फ़िल्में हैं जिसमें महिला किरदार ही प्रमुख थीं और फिल्म के चलने का श्रेय भी उन्हें ही मिला। 'मदर इंडिया' से 'लिपस्टिक : अंडर माय बुर्का' तक का समय काफी लम्बा रहा, पर ऐसी सभी फ़िल्में मील का पत्थर बन गईं।   
  सिनेमा में महिला किरदारों को 'वस्तु' की तरह इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे माहौल में कोई नारीवादी फ़िल्म आ जाए तो उसकी बात ही और होती है। ऐसी ही एक फिल्म 'लिपस्टिक : अंडर माय बुर्का' से बोल्ड, सुंदर और दमदार फ़िल्म कोई दूसरी नहीं है। ये विदेशों में भी प्रशंसा पा चुकी है और कई कारणों से इसे बोल्ड फिल्म कहा जा सकता है। ‘नारीवादी’ होने के कारण देश में इसे सेंसर बोर्ड ने प्रतिबंधित कर दिया था। पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं की सामाजिक अवधारणा को चुनौती देने वाली और महिलाओं की दैहिक इच्छाएं व्यक्त करने वाली इस फ़िल्म को हमारी संस्कृति के लिए हानिकारक माना गया। लेकिन, जब ये फिल्म रिलीज हुई तो दर्शकों ने इसे हाथों हाथ लिया।  
  महिला प्रधान फिल्मों की गिनती की जाए तो ऐसी ही एक फिल्‍म थी सत्तर के दशक की 'मदर इंडिया' जिसमें नरगिस दत्‍त की अदाकारी ने महिला किरदारों के लिए नया रास्‍ता खोला था। कुछ फिल्‍में हैं जिनमें नायिकाओं को केंद्र में लेकर फिल्‍में बनी और चली भी! विद्या बालन की अदाकारी के सभी कायल हैं। उनकी फिल्‍म 'कहानी' और बाद में इसके सीक्वेल में उनकी एक्टिंग देखकर दर्शक हैरान थे। ये वो हीरोइन है जो अपने दम पर फिल्‍म चलाने का माद्दा रखती है। फिल्म चलाना और उसे कामयाब बनाना विद्या की आदत है। 'डर्टी पिक्‍चर' भी विद्या की एक परफार्मेंस वाली फिल्‍म है, जिसमें वो बोल्‍ड और बिंदास दिखीं। प्रियंका चोपड़ा की 'सात खून माफ' और 'फैशन' भी ऐसी ही फिल्म है जो लीक से हटकर होने के साथ नायिका के किरदार में चार चाँद लगाती है। नायिका प्रधान फिल्मों में सीमा बिस्वास की 'बैंडिट क्‍वीन' को भी गिना जा सकता है। सीमा बिस्वास को लीड रोल बहुत नहीं मिले, लेकिन 'बेंडिट क्वीन' जैसी फिल्म ने उन्‍हें एक झटके में स्‍थापित कर दिया। 
  ऐसी चंद फिल्मों की फेहरिस्त में 'लज्‍जा' को भी गिना जा सकता है। जिसमे रेखा, मनीषा कोईराला, माधुरी दीक्षित और महिमा चौधरी जैसी अभिनेत्रियों के सामने अनिल कपूर और जैकी श्रॉफ जैसे बड़े नायक भी फीके पड़ गए थे। मुंबई की बार बालाओं के अंधेरे पहलुओं को जिस बारीकी से तब्बू ने 'चांदनी बार' में दर्शाया वो काम और कोई नहीं कर सका। अपने वक़्त की एक्ट्रेस मीनाक्षी शेषाद्री ने कई हिट फिल्‍में दीं। लेकिन, उन्हें आज भी 'दामिनी' में अपनी अदाकारी के लिए ही याद किया जाता है। रेखा की अभिनय क्षमता किसी की मोहताज नहीं है। लेकिन, 'खून भरी मांग' में उनका अवतार पहली बार दिखा और आज भी वे दर्शकों की आँखों में बसा है। इस फेहरिस्त में कंगना रनौत की 'क्‍वीन' का जिक्र होना जरुरी है। 
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