Friday 20 July 2018

'कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे'

यादें  : गोपालदास 'नीरज'

- एकता शर्मा

   हिंदी के जाने-माने कवि और गीतकार गोपालदास 'नीरज' का एक लोकप्रिय गीत 'कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे' आज बहुत याद आ रहा है। क्योंकि, आज नीरज का कारवां अनंत यात्रा पर निकल गया, हम दूर से उनकी यादों का गुबार हम देख रहे हैं। वे हिंदी मंचों के प्रसिद्ध कवियों में से एक थे। लम्बे अरसे तक कवि सम्मेलनों का दौर उनके बिना अधूरा रहता था, पर अब ये खालीपन हमेशा बना रहेगा। गोपालदास सक्सेना उर्फ़ 'नीरज' का फिल्मी सफर बहुत छोटा रहा! उन्होंने महज पाँच साल ही गीत लिखे, लेकिन सांस बंद होने तक लिखने रहने की ख्वाहिश रखने वाले इस कवि को इस दौर में लिखे गए ‘कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे’ और ‘जीवन की बगिया महकेगी’ जैसे अमर गीतों के लिए अंत तक रायल्टी मिलती रही। दिनकर उन्हें हिंदी की 'वीणा' मानते तो अन्य कवि उन्हें 'संत कवि' कहा करते थे। 
  नीरज की रचनाएँ करीब सात दशक तक सुनने वालों को लुभाती रही! पहचान की ख्वाहिश से अछूते इस गीतकार का यह सफर शायद कवियों, गीतकारों में सबसे लम्बा रहा! हिन्दी कवियों की नई पौध के अगुवा माने जाने वाले नीरज प्रख्यात कवि हरिवंशराय बच्चन को अपना आदर्श मानते थे। उनका कहना था कि मेरा कवित्व बच्चनजी की प्रेरणा से ही जागा! हरिवंशराय बच्चन से जुड़ा एक किस्सा वे अकसर सुनाते थे। कहते थे कि मैं उन कवियों में से हूँ, जिन्हें बच्चनजी की गोद में बैठने का भी मौका मिला था! वो वाक्या सुनाते हुए उन्होंने बताया था कि उस वक्त मेरी उम्र करीब 17 साल रही होगी। मैं, बच्चनजी कुछ कवियों के साथ बांदा में एक कवि सम्मेलन के लिए बस से जा रहे थे। बस खचाखच भरी थी और मुझे सीट नहीं मिली थी। उस वक्त बच्चनजी ने मुझे अपनी गोद में बैठने को कहा और मैं बैठ भी गया! मैं बहुत खुशकिस्मत हूँ कि मुझे उनसे इतना स्नेह मिला। 
   फिल्मों में कई सुपरहिट गाने लिख चुके नीरज को उनके गीतों के लिए कई सम्मान मिले। उन्हें 1991 में पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया था। इससे पहले नीरज को 2007 में पद्मभूषण सम्मान से नवाजा गया! उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें 'यश भारती' सम्मान से भी सम्मानित किया था। फिल्मों में कई हिट गीत लिखने वाले गोपालदास नीरज को तीन बार फिल्म फेयर अवार्ड मिला! 'पहचान' फिल्म के गीत 'बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं' और 'मेरा नाम जोकर' के 'ए भाई ज़रा देख के चलो' ने नीरज की प्रतिभा को कामयाबी की बुलंदियों पर पहुंचाया! उनके एक दर्जन से ज्यादा कविता संग्रह प्रकाशित हुए! 
  उनका जन्म 4 जनवरी, 1924 को उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के पुरावली गांव में हुए था। जीवन की शुरुआत इटावा की कचहरी में टाइपिस्ट का काम करते हुए शुरू की थी। उसके बाद एक दुकान पर नौकरी की! फिर दिल्ली में सफाई विभाग में टाइपिस्ट की नौकरी की। नौकरी छूट जाने पर कानपुर के डीएवी कॉलेज में क्लर्की की। मेरठ कॉलेज में हिन्दी प्रवक्ता के पद पर अध्यापन कार्य भी किया। इसके बाद कवि सम्मेलनों में लोकप्रियता के चलते नीरज को मुंबई फ़िल्मी दुनिया में गीतकार के रूप में काम करने का अवसर मिला। 
  नीरज ने एक बार कहा था कि अगर दुनिया से रुखसती के वक्त आपके गीत और कविताएँ लोगों की जबान और दिल में हों, तो यही आपकी सबसे बड़ी पहचान होगी। इसकी ख्वाहिश हर फनकार को होती है। शायद सचिन देव बर्मन और संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन के शंकर जैसे मौसीकीकारों के निधन की वजह से उनका फिल्मी सफर बहुत छोटा रह गया। लिखे जो खत तुझे’ ‘ए भाई जरा देख के चलो’ ‘दिल आज शायर है, ‘फूलों के रंग से’ और ‘मेघा छाए आधी रात’ जैसे सदाबहार गीतों के रचयिता नीरज का मानना था कि     सचिन देव बर्मन के संगीत ने इन गीतों को यादगार बनाया, इसी वजह से देश-विदेश में मेरे गीतों की  रॉयल्टी बढ़ गई है।
  नीरज सिर्फ मंचीय कवि ही नहीं थे, उन्हें फिल्मों में भी उतनी ही कामयाबी मिली! उनके लिखे लोकप्रिय फिल्मी गीतों में शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब, लिखे जो खत तुझे, ऐ भाई ... जरा देखकर चलो, दिल आज शायर है, खिलते हैं गुल यहां, फूलों के रंग से, रंगीला रे ...  तेरे रंग में और आदमी हूं  आदमी से प्यार करता हूं शामिल है। नीरज' की लोकप्रियता का इसी से आंकी जा सकती है कि उन्होंने अपनी हिंदी रचनाओं से पाठकों के मन की गहराई में अपनी जगह बनाई, वहीं गंभीर पाठकों के मन को भी गुदगुदाया! उनकी कई कविताओं का गुजराती, मराठी, बंगाली, पंजाबी और रूसी में भी अनुवाद हुआ है। उनकी रचनाओं में जो दर्द था, वो उनकी अपनी पीड़ा थी। उनकी लिखे संग्रहों में आसावरी, बादलों से सलाम लेता हूँ, गीत जो गाए नहीं, नीरज की पाती, नीरज दोहावली, गीत-अगीत, कारवां गुजर गया, पुष्प पारिजात के, काव्यांजलि, नीरज संचयन, नीरज के संग-कविता के सात रंग, बादर बरस गयो, मुक्तकी, दो गीत, नदी किनारे, लहर पुकारे, प्राण-गीत, फिर दीप जलेगा, तुम्हारे लिये, वंशीवट सूना है और नीरज की गीतिकाएँ शामिल हैं। लेकिन, अब ये सारे संग्रह रखे रह गए! उनका भी एक कारवां था, जो आज गुजर गया ... हमेशा के लिए! उससे उठने वाला गुबार हमें उनकी याद दिलाता रहेगा। 
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Monday 16 July 2018

दर्शकों ने 'संजू' को दी जादू की झप्पी!


- एकता शर्मा 

  संजय दत्त की बायोपिक 'संजू' बॉक्स ऑफिस पर लगातार कमाई कर रही है। फिल्म को लेकर समीक्षकों की जो भी राय हो, पर रणवीर कपूर की अदाकारी से सजी इस फिल्म की पहले दिन की कमाई ने सलमान खान की रेस-3, टाइगर श्रॉफ की बागी-2 और दीपिका पादुकोण और रणवीर सिंह की पद्ममावत को भी पीछे छोड़ दिया। 'संजू' का दूसरे दिन का कलेक्शन भी बेहतरीन रहा! फिल्म ने करीब 39 करोड़ रुपए का बिजनेस किया। सभी फिल्मों को पछाड़ते हुए 'संजू' आज टॉप- वन मूवी बन चुकी है। सलमान खान स्टारर 'रेस-3' ने पहले दिन 29.17 करोड़ रुपये का बिजनेस किया था। 'बागी-2' ने पहले दिन 25.10 करोड़ का आंकड़ा छुआ था। इस लिस्‍ट में अब चौथे नंबर पर रणबीर कपूर, दीपिका पादुकोण और शाहिद कपूर की फिल्‍म 'पद्मावत' (19 करोड़)' है और पांचवे पर 'वीरे दी वेडिंग' (10.70 करोड़) है। 

   जानकारी के मुताबिक 'संजू' ने अब तक इंडियन बॉक्स-ऑफिस पर करीब 300 करोड़ रुपए का बिजनेस किया है। फिल्म की वर्ल्ड वाइड कमाई भी जबरदस्त रही है। फिल्म ने शुरुआती 11 दिनों में 460 करोड़ रुपए का वर्ल्ड वाइड कलेक्शन किया था। फिल्म एक्सपर्ट्स 'संजू' की कमाई की रफ्तार देखकर अनुमान लगा रहे हैं कि फिल्म इंडियन बॉक्स ऑफिस पर नया रिकॉर्ड बनाएगी। 'संजू' के कारण दूसरे हफ्ते कोई बड़ी फिल्म रिलीज नहीं हुई! तीसरे हफ्ते 'सुरमा' ने हिम्मत की, पर बात नहीं बनी! 'धड़क' भी 'संजू' की स्पीड देखकर किनारे हो गई है। अब 'धड़क' नई तारीख पर रिलीज होगी। अनुमान लगाया जा रहा है कि संजय दत्त और रणबीर कपूर दोनों की लाइफ टर्निंग फिल्म साबित होगी।      
  रणबीर के करियर की अभी तक की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बन गई है। 'संजू' से पहले 'ये जवानी है दीवानी' ही रणबीर की सबसे बड़ी हिट फिल्म थीं, जिसने बॉक्स-ऑफिस पर करीब 190 करोड़ रुपए की कमाई की थीं! लगातार फ्लॉप फिल्मों के कारण रणबीर कपूर का ग्राफ लगातार गिर रहा था जिसे 'संजू' ने संभाल लिया। समीक्षकों का कहना है कि परदे पर रणबीर को देखकर लगता है, जैसे उन्होंने संजय दत्त की पर्सनालिटी को घोलकर पी लिया हो! परदे पर रणबीर कपूर चलते हुए ऐसे लगते हैं, मानो संजय दत्त खुद चल रहे हों! फिल्म के गाने भी रिलीज से ही लोगों की जुबान पर चढ़ गए हैं। 
  संजय दत्त की भूमिका निभा रहे रणबीर कपूर की एक्टिंग को भी सराहा गया है. रणबीर ने भी इस फिल्म के लिए काफी मेहनत की है। देखकर लगता है कि दर्शक रणबीर को नहीं, बल्कि संजय दत्त को देख रहे हैं। रणबीर कपूर ने पहली बार राजकुमार हिरानी के साथ काम किया है। रणबीर ने बॉलीवुड में अपने करियर की शुरुआत साल 2007 में संजय लीला भंसाली की फिल्म 'सांवरिया' फिल्म से की थी। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर नहीं चल पाई, लेकिन इसके बाद 'वेक अप सिड', 'रॉकेट सिंह', 'सेल्समेन ऑफ द इयर ' जैसी फिल्मों में उसने अपने अभिनय का अलग परिचय दिया। लेकिन, 'संजू' ने बता दिया कि रणबीर कपूर चॉकलेटी हीरो ही नहीं है, उसकी रेंज बहुत बड़ी है।   
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कुछ ज्यादा ही बीमार होने लगा बॉलीवुड



- एकता शर्मा 

   बीमारी से कोई भी मुक्त नहीं है! फिर वो चाहे आम आदमी हो या बॉलीवुड का कलाकार! लेकिन, देखने में आ रहा है कि ज्यादातर कलाकार किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त हो रहे हैं। उनकी ये बीमारी फिल्म का हिस्सा न होकर वास्तविक है। यही कारण है कि वे भी दर्द से कराहते हैं और दवाइयों खाते हुए एक्टिंग भी करते रहते हैं। रहते हैं। अभी बॉलीवुड में हरफनमौला कलाकार इरफ़ान (खान) की बीमारी की चर्चा थमी भी नहीं थी कि सोनाली बेंद्रे को कैंसर होने की खबर आई! कुछ दिन पहले एक टीवी शो 'इंडियाज़ बेस्ट ड्रामेबाज़' में बतौर जज शामिल हुई सोनाली बेंद्रे दिखना बंद हो गई, तो किसी ने नहीं सोचा था कि ये उनकी बीमारी की वजह से है! सोनाली ने सोशल मीडिया पर यह जानकारी दी। सोनाली ने लिखा कि हाल ही में जांच के बाद मुझे ये पता चला है कि मुझे हाईग्रेड मेटास्टेटिस कैंसर है। इसकी उम्मीद मुझे कभी नहीं थी। होने वाले दर्द के बाद मैंने अपनी जांच करवाई, इसके बाद चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई! 
    इरफ़ान ने अभी तक सौ से अधिक फिल्मों में काम किया है। जिनमें पीकू, मक़बूल, हांसिल, लंच बॉक्स, पान सिंह तोमर और हिंदी मीडियम जैसी फिल्में शामिल हैं। बीमारी का शिकार होने वालों में इरफ़ान अकेले नहीं हैं। बॉलीवुड का इतिहास कलाकारों की बीमारियों से भरा पड़ा है। सलमान खान आज सबसे सफल हीरो हैं। लगातार हिट फिल्में दे रहे हैं। लेकिन, लंबे समय से वे एक बीमारी से परेशान हैं। सलमान को एक अजीब सी बीमारी है, मेडिकल की भाषा में इसे 'ट्रिगेमिनल न्यूराल्जिया' कहा जाता है। सामान्य बोलचाल में कहें तो, यह चेहरे और जबड़े से जुड़ी एक बीमारी है जिसमें मरीज को हमेशा झनझनाहट जैसा दर्द होता रहता है। इसे फेसियल डिसऑर्डर भी समझा जा सकता है। ये बीमारी भी हज़ारों में से किसी एक को होती है। शाहरुख खान भी अब तक आठ सर्जरी करा चुके हैं। घुटना, गर्दन, टखना, पसली और कंधे की! बताया जाता है कि इसका कारण फिल्मों में डांस और एक्शन सीन हैं। लेकिन, फिर भी शाहरुख ने ये काम छोड़ा नहीं है।
  'कृष' की शूटिंग के समय रितिक रोशन ने कई एक्शन सीन किए थे, जिसका उनके दिमाग पर भी पड़ा। पता चला कि उनके दिमाग में जगह-जगह खून जमा है। ऑपरेशन के बाद से रितिक ठीक हैं। सैफ अली खान को भी छाती में दर्द की तकलीफ हो चुकी है। नेपाल के राज परिवार से जुडी और बॉलीवुड की सेंशेसन रही मनीषा कोइराला भी अंडाशय के कैंसर से जूझ चुकी है। मुमताज को भी 2002 में स्तन कैंसर से पीड़ित बताया गया था। अमिताभ बच्चन भी 'स्प्लीनिक रप्चर' से त्रस्त हैं। 1984 में वे एक बीमारी के कारण शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर हो गए और डिप्रेशन में भी चले गए थे। आज भी उन्हें पूरी तरह स्वस्थ नहीं बताया जाता।
 गुजरे जमाने के राज कपूर भी दमे का शिकार हुए थे। दिलीप कुमार तो अकसर अस्पताल आते-जाते रहते हैं। एक्ट्रेस साधना ऐसे रोग से बीमार हुई, जिसका इलाज आज 50 पैसे की गोली से हो जाता है। बचपन में चेचक का टीका न लगने से गीताबाली को जान गंवानी पड़ी थी। पृथ्वीराज कपूर कैंसर का शिकार होने वाले पहले फिल्म सितारा थे। उनके बेटे शम्मीकपूर ने अपने जीवन की सांझ डायलसिस करते गुजारी। जुबली फिल्मों के सितारे राजेंद्र कुमार भी बीमारी का ही शिकार हुए थे! 
  संजीव कुमार, विनोद मेहरा, अमजद खान, संगीतकार आदेश श्रीवास्तव, लक्ष्मीकांत बेर्डे, नरगिस, गुरुदत्त, मीना कुमारी, मधुबाला और गीता बाली जैसे लोग भी थे, जिनकी आज सिर्फ यादें ही शेष हैं। ये सभी किसी न किसी बीमारी का असमय शिकार हुए थे। लेकिन, बीमारी किसी की लोकप्रियता से प्रभावित नहीं होती! जब बीमारी को आना होता है तो वो कोई पहचान नहीं देखती कि उसका शिकार होने वाला इरफ़ान खान है सोनाली बेंद्रे या कोई आम आदमी! बॉलीवुड में जब कोई कलाकार बीमार होता है तो उसकी बीमारी सिर्फ उसे ही दर्द नहीं देती, बल्कि उससे उसकी फिल्म से जुड़े कई लोग प्रभावित होते हैं। ऐसे में दर्शक भगवान् से दुआ ही कर सकता है कि उनके पसंदीदा कलाकार को स्वस्थ रखना! 

फ़िल्में किसी की सलाह से नहीं चलती!



 - एकता शर्मा 

    ब वो दौर नहीं रहा, जब दर्शक फिल्म की समीक्षा पढ़कर फिल्म देखने जाते थे! एक समय था जब शुक्रवार को फिल्म रिलीज होती थी, उसकी समीक्षा रविवार के अखबार में छपती थी! फिल्म के निर्माता और निर्देशक भी फिल्म समीक्षकों को प्रभावित करने का बहाना ढूंढते रहते थे। लेकिन, अब वो दौर नहीं रहा! फिल्म देखने वालों को अब न तो समीक्षा का इंतजार रहता है और न वे इससे प्रभावित ही होते हैं। असल बात तो ये है कि फिल्म समीक्षा अब स्वांतः सुखाय होकर रह गई है। इसलिए भी कि फिल्मों के ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने से आजतक फिल्मों का कारोबार कभी समीक्षाओं का मोहताज नहीं रहा! ऐसी फिल्मों की लिस्ट बहुत लम्बी है, जिन्हें समीक्षकों ने नकार दिया, पर वे देखने वालों की पसंद पर खरी उतरी! ताजा उदाहरण है ईद पर रिलीज हुई सलमान खान की फिल्म 'रेस-3' जिसे समीक्षकों ने नकार दिया, लेकिन सलमान के चाहने वालों ने फिल्म को हिट करा दिया! इस फिल्म ने 200 करोड़ की कमाई की है। 

  थोड़ा पीछे जाएं, तो हिंदुस्तानी फिल्म इतिहास के सफलतम फिल्मों में से एक 'शोले' (1975) के बारे लिखा गया था कि ये बुझे अंगारे जैसी  फिल्म है। बदले के फॉर्मूले पर बनी इस फिल्म में कुछ भी नयापन नहीं है। पर, 'शोले' ने सफलता का जो शिखर रचा, वो किसी से छुपा नहीं हैं। अमिताभ बच्चन की फिल्म 'मर्द' (1985) को भी देशभक्ति के जबरन ठूंसे फॉर्मूले की फिल्म कहा गया था। लेकिन, इस फिल्म ने भी धमाल किया था। सलमान खान की सुपर हिट फिल्म 'हम आपके है कौन' को भी नापसंद कर दिया था। लिखा गया था कि ये किसी शादी के वीडियो लगता है। जबकि, बॉलीवुड में 100 करोड़ रुपए कमाने वाली ये पहली फिल्म थी। आमिर खान और करिश्मा कपूर की 1996 में आई 'राजा हिंदुस्तानी' को समीक्षकों ने औसत दर्जे की फिल्म कहा था। जबकि, ये फिल्म उस साल की सबसे बड़ी हिट फिल्म हुई! 'गदर' (2001) की भी जबरदस्त आलोचना का शिकार हुई थी। कहा गया था कि इसे देशभक्ति का पुराना फॉर्मूला कहा गया था। पर, जब फिल्म परदे पर उतरी तो बॉक्स ऑफिस तक गरमा गया था।
 1943 में आई अशोक कुमार की फिल्म 'किस्मत' के बारे में समीक्षकों ने लिखा था कि फिल्म में अशोक कुमार को जिस तरह जेबकतरा और अपराधी बताया गया है, उसे देखकर युवाओं का सोच अपराधी बनने की तरफ मुड़ सकता है! लेकिन, दर्शकों ने उस फिल्म को बेहद पसंद किया था। राजकपूर की फिल्म 'श्री-420' (1955) भी जबरदस्त आलोचना का शिकार हुई थी। पर इस फिल्म को भी दर्शकों ने हाथों हाथ लिया। सर्वकालीन सफल प्रेम कहानी 'बॉबी (1973) को समीक्षकों ने प्यार के घिसे पिटे फॉर्मूले पर बनी फिल्म बताकर नकार दिया था। पर, दर्शकों ने 'बॉबी' को सफलता की उस ऊंचाई पर पहुँचाया। 
  शाहरुख़ खान और अनुष्का शर्मा की 2008 में आई फिल्म 'रब ने बना दी जोड़ी' को पुरानी प्रेम कहानी बताया गया था। फिल्म के कुछ हिस्सों को बेवकूफियों से भरा लिखा गया। जबकि, इस फिल्म ने 90 करोड़ की धुंवाधार कमाई की थी। सलमान खान की बॉडीगार्ड (2011) के बारे में कि इस फिल्म में कई खामियां हैं। पर, इस फुरसतिया सलाह को दर्शकों ने झटक दिया! ये फिल्म बॉलीवुड के इत‌िहास की सबसे सफल फिल्मों में दर्ज हुई! राउडी राठौर (2012) के बारे में तो कहा गया था कि ये मूर्खतापूर्ण घटनाओं से भरी फिल्म है। जबकि, अक्षय कुमार के दो दशक लंबे करियर में इस फिल्म ने सबसे शानदार ओपनिंग की थी। ग्रांड मस्ती (2013), 2 स्टेट (2014), और 'जय हो' भी ऐसी ही फ़िल्में हैं, जो समीक्षकों को पसंद नहीं आई थी, पर दर्शकों ने इन्हें सर पर चढ़ाया। दरअसल, फ़िल्में दर्शकों के लिए बनती हैं न कि समीक्षकों के लिए! इसलिए सच्ची सफल फिल्म वही है जो दर्शकों की नजरों में चढ़े! वैसे भी आजकल दर्शक फिल्म की रिलीज से हफ्तेभर पहले फिल्म की ऑनलाइन बुकिंग करवाते हैं। लेकिन, फिर भी यदि समीक्षकों को लगता है कि फिल्म उनकी वजह से चलती है तो ये उनकी खुशफ़हमी ही है।  
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संजय दत्त की जिंदगी के पाँच पहलु है 'संजू' में



- एकता शर्मा

   संजय दत्त की जिंदगी के कई रंग रहे हैं। ये बाहर से दिखने में जितनी रंगीन थी, अंदर से उतनी ही बदरंग और उलझी हुई! संजय दत्त एक ऐसे परिवार से हैं, जिसकी समाज में काफी इज्जत रही है। पिता सुनील दत्त सिर्फ एक्टर ही नहीं थे, एक समाजसेवी के रूप में उनकी पहचान कहीं ज्यादा सशक्त थी। संजय की माँ नरगिस भी उन शख्सियतों में से थी, जो एक बेहतरीन एक्ट्रेस होने के साथ अपना अलग रसूख रखती थीं। लेकिन, इस दंपत्ति के बेटे संजय के जीवन का लम्बा अरसा काफी उलझनों में बीता। लाड़, प्यार और परिवार की शानोशौकत ने संजय को बिगड़ैल बना दिया था। संजय की जिंदगी में इतने उतार-चढ़ाव और मोड़ आए, जो किसी कहानी से कम नहीं थे। पिता-पुत्र का रिश्ता, तीन शादियां, कई अफेयर्स, अपराध, फिल्म, ड्रग्स, जेल की सजा जैसी बातें उनकी जिंदगी का हिस्सा रही हैं। यही कारण था कि राजकुमार हिरानी ने कोई काल्पनिक कहानी के बजाए संजय दत्त की जिंदगी को ही अपनी फिल्म 'संजू' के लिए चुना जो अब परदे पर उतरने के लिए तैयार है।  
  सुनील दत्त और नरगिस की पहली संतान संजय दत्त को बचपन में इतना प्यार मिला कि वे बिगडैल संतान बन गए। उनमें 'मदर इंडिया' के बिरजू के गुण पल्लवित होने लगे। यहीं से एडवेंचर ने उनकी जिंदगी में दस्तक दी और वह एक के बाद एक एडवेंचर करते रहे और ता उम्र उसमें उलझते रहे। उनका पहला एडवेंचर था नशे को आजमाना। संजय दत्त ने एडवेंचर की तरह आजमाया गया नशा, उनकी जिंदगी का हिस्सा बन गया। लेकिन, सुनील दत्त और नरगिस उसे इस दलदल से बाहर निकाल लाए। उसके बाद उन्होंने फिल्मों में काम करना आरंभ किया। पहली फिल्म 'राॅकी' के प्रदर्शन से पहले नरगिस के निधन ने उनके जीवन से प्रेम छिन लिया। उसके बाद जो कुछ हुआ, वो किसी एडवेंचर से कम नहीं है!
 ‘संजू’ के जरिए राजकुमार हिरानी संजय दत्त की जिंदगी के उन सभी पहलुओं से पर्दा उठाने की कोशिश की है, जो अभी तक लोग ठीक से नहीं जानते! इस फिल्म में संजय दत्त की जिंदगी के पांच दौर को समेटा गया है। इन पांच दौर में संजय दत्त की जिंदगी में जो कुछ घटा, उन सभी घटनाओं को रनबीर कपूर के जरिए बड़े परदे पर उतारा जाएगा। इसमें संजय दत्त के ड्रग्स एडिक्ट होने से लेकर उनकी 308 गर्लफ्रेंड्स तक के बारे जिक्र है। संजय का हीरोइनों से नाम जुड़ना सामान्य बात थी! लेकिन, फिल्म से माधुरी दीक्षित से उनके रिश्तों को अलग रखा गया है। 'खलनायक' के दौरान संजय दत्त और माधुरी दीक्षित एक-दूसरे के करीब आए थे। इस बीच संजय दत्त अपराध के दलदल में फंस गए और माधुरी ने उनसे दूरी बना ली। माधुरी-संजय का अफसाना संजय दत्त की जिंदगी का अहम मोड़ है। लेकिन, इस किस्से को फिल्म से अलग रखा गया है। 
  राजकुमार हिरानी ने इस फिल्म का प्लॉट तभी बना लिया था, जब संजय पुणे के यरवदा जेल से सजा काटकर निकले थे। हिरानी ने उनके बाहर आने का रियल शॉट लिया था, जो शायद फिल्म में भी दिखाई दे! संजय की जिंदगी इतनी पैचीदगी भरी है कि खुद संजय दत्त को भी उस पर आश्चर्य है कि वे उन रास्तों पर कैसे पहुंचे, जो उनके लिए नहीं बने थे! निर्देशक राजकुमार हिरानी ने खुलासा भी किया कि संजय दत्त फिल्म की स्क्रिप्ट सुनते वक्त रो पड़े थे। हिरानी ने संजय दत्त पर बायोपिक बनाने के लिए काफी रिसर्च किया है। संजय की जिंदगी के कई अनछुए पहलुओं को इसमें जगह दी गई! हिरानी का कहना है कि स्क्रिप्ट खत्म होने के बाद जब हम संजय दत्त के पास गए और पूरी कहानी सुनाई! इस स्क्रिप्ट को सुनने के बाद वे खुद पर काबू नहीं रख सके और रो पड़े! कहने लगे कि 'ढाई घंटे में तुमने मेरी सारी जिंदगी बता दी।' देखा जाए तो हमेशा चर्चा में बने रहना संजय दत्त का शगल रहा है। कभी वे अपनी हरकतों के कारण सुर्खियाँ बनते रहे, उन्हीं सुर्ख़ियों पर बनी फिल्म के कारण वे छाए हुए हैं। 
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अब क्रूर नहीं रही परदे की सौतेली माँ!



-  एकता शर्मा 

  सौतेली माँ ऐसा डरावना शब्द है, जो सदियों से समाज को कंपकंपाता आ रहा है। असल माँ की मौत बाद यदि पिता दूसरी शादी कर ले, तो घर आने वाली दूसरी औरत पति की पहली पत्नी से हुई संतानों की सौतेली माँ होती है। ये दूसरी औरत जैसी भी हो, बच्चों के साथ अच्छा व्यवहार भी करे, तब भी उसकी छवि हमेशा ख़राब बताई जाती रही है। समाज में भी और फिल्मों में भी! फिल्मों में ये चरित्र हमेशा ही क्रूरता का पर्याय रहा है। ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के समय से अभी तक ये परंपरा जारी है। उस दौर में सामाजिक फिल्मों में ट्विस्ट देने के लिए एक खलनायिका की भूमिका रखी जाती थी, जो या तो क्रूर जल्लाद सास होती थी या सौतेली माँ!    
 फिल्मों में अकसर सौतेली मां की छवि बेहद क्रूर और डरावनी दिखाई जाती है। जबकि, असल जिदंगी में सभी सौतेली माँ जुल्मी नहीं होती! ललिता पंवार, मनोरमा और शशिकला वाले ज़माने की बात अलग है, जब आँखे तरेरने वाली सौतेली मायें बच्चों पर हर तरह के जुल्म करती थी! इसके बाद 'बेटा' जैसी फिल्म आई जिसमें अरुणा ईरानी ने सौतेली माँ का किरदार अपने बेटे अनिल कपूर के साथ कुछ अलग ही अंदाज निभाया था। अब ऐसी फिल्मों का जमाना तो चुक सा गया है। अब तो फिल्मकारों ने भी किरदार को नया कलेवर देकर समाज नई हवा के झौंके का अहसास कराया है।      

  जानी-मानी और हाल ही में दिवंगत अभिनेत्री श्रीदेवी की अंतिम फिल्म 'मॉम' की कहानी भी कुछ अलग ट्रीटमेंट वाली थी। ये दो बेटियों और सौतेली माँ के रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित करने वाली फिल्म है। जिसने सौतेली माँ की छवि को खंडित कर दर्शकों के दिल में सौतेले शब्द के मायने बदल दिए। इस फिल्म में बेटी सौतेली माँ को मैडम कहकर बुलाती है। फिल्म की कहानी एक ऐसी मां की है, जो अपनी सौतेली बेटी के गुनाहगारों को सजा दिलाने लिए किसी भी हद तक चली जाती है। इसमें श्रीदेवी ने देवकी का किरदार निभाया, जो सख्त बायलॉजी सख्त टीचर होती  है और पति और दो बेटियों के साथ दिल्ली में रहती है। देवकी की लाइफ में एक ऐसा मोड़ आता है, जब कुछ लोग उसकी बड़ी बेटी के साथ दुष्कर्म करके उसे नाले में फेककर चले जाते हैं। आर्या की जान तो बच जाती है, लेकिन उसकी जिंदगी पूरी तरह बदल जाती है। सबूत न होने से के आर्या के गुनाहगार भी रिहा कर दिए जाते हैं। ऐसे में देवकी खुद अपने बेटी को इंसाफ दिलाने का फैसला करती है। लेकिन, देवकी चाहती है कि वह अपने हाथों से अपनी बेटी के गुनाहगारों को सजा दे। 
   फिल्मकारों की असल जिंदगी में भी सौतेली माओं की कमी नहीं है। ये मायें न तो क्रूर हैं और न षड्यंत्रकारी! बल्कि, ज्यादातर सौतेली मायें उन बच्चों की सबसे अच्छी दोस्त साबित हुई हैं। करीना कपूर खान और उनकी सौतेली बेटी सारा अली खान की उम्र में सिर्फ 13 साल का अंतर है। सैफ से शादी करने के बाद करीना ने अपने सौतेले बच्चों को अपना दोस्त समझा और उनके साथ हमेशा दोस्तों की ही तरह पेश आईं। सारा खान, सैफ की पहली पत्नी अमृता सिंह की बेटी हैं। संजय दत्त की सबसे बड़ी बेटी त्रिशाला उम्र में अपनी मम्मी मान्यता से सिर्फ 9 साल छोटी हैं। मान्यता और त्रिशाला का रिश्ता भी दोस्तों जैसा है। बताते हैं कि मान्यता की सोशल मीडिया पर हर फोटो को सबसे पहले उनकी बेटी त्रिशाला का ही लाइक मिलता है। महेश भट्ट की दूसरी पत्नी सोनी राजदान (आलिया भट्ट की माँ) के साथ पूजा भट्ट भी काफी कम्फर्टेबल फील करती हैं। पूजा और उनकी सौतेली माँ सोनी में 16 साल का अतंर है। आशय यही कि सभी सौतेली मायें क्रूर नहीं होती! पर, सभी 'मॉम' फिल्म के किरदार की तरह  अच्छी होती है, ये दावा भी नहीं किया जा सकता!
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Tuesday 12 June 2018

कुछ फ़िल्में जो सिनेमाघर से सालों नहीं उतरी!


- एकता शर्मा 

  ज उन फिल्मों को हिट माना जाता है, जो सौ करोड़ या उससे ज्यादा का बिजनेस कर ले। जबकि, पहले हिट का मतलब था, जो फ़िल्में कई महीनों क्या सालों तक टाकीजों में चलें! 1943 में बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘किस्मत’ रिलीज हुई थी। फिल्म में अशोक कुमार हीरो थे। ये फिल्म भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के इतिहास की पहली ब्लॉकबस्टर थी। लेकिन, यह आजादी से पहले की बात थी। आजादी के बाद की सबसे बड़ी ब्लॉकबस्टर फिल्मों में राजकपूर की 'बरसात' फिल्म का नाम आता है। उसके बाद 'मुगल-ए-आजम' और 'शोले' जैसी फिल्में भी हैं। 
    समय के साथ करवट लेटे बॉलीवुड ने कई रूप बदले। आमिर खान की फिल्म 'कयामत से कयामत तक' के आने पर 80 के दशक का अमिताभ बच्चन का एंग्री यंगमैन का किरदार हवा हो गया। उसकी जगह ले ली सलमान, आमिर और शाहरुख़ जैसे हीरो ने। लेकिन, 'दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे' के साथ ही इस बात का एलान हो गया कि बॉलीवुड से गांव और देहात की फिल्मों का दौर गुजर चुका है। फिर दस्तक दी एनआरआई फिल्मों ने दस्तक दी! लगभग एक दशक तक ऐसी ही फिल्मों का जमाना छाया रहा जिनका हीरो परदेश से आता था। 2010 के बाद बॉलीवुड ने फिर से करवट लेनी शुरू की। फिर जमाना आया असल जिंदगी से जुड़ी फिल्मों का। फिर वह चाहे 'दम लगा के हईशा' हो या 'अलीगढ़' या फिर क्वीन, बरेली की बर्फी,शुभ मंगल सावधान। बेशक इसके साथ ही बॉलीवुड से गांव देहात खत्म हो गए। लेकिन, छोटे शहर लौट रहे हैं। 
  इसी दौर के साथ जरा उन फिल्मों पर नजर डालें, जिनके पोस्टर सिनेमाघरों पर ऐसे चढ़े कि सालों, महीनों तक नहीं उतरे! 'दिलवाले दुलहनिया ले जाएंगे'  भारतीय सिनेमा के इतिहास में सबसे ज्यादा हफ्तों तक चलने वाली फिल्म है। ये फिल्म 20 अक्टूबर, 1995 में रिलीज हुई थी, और 20 साल तक मुंबई के मराठा मंदिर में चली। फिल्म दर्शकों के दिलों पर राज करने वाले जय, वीरू, ठाकुर, कालिया, सांबा, बसंती, धन्नो और गब्बर जैसे यादगार किरदारों वाली फिल्म 'शोले' 15 अगस्त, 1975 को रिलीज हुई। ये फिल्म मुंबई के मिनर्वा थिएटर में पांच साल तक लगातार चली थी। लगभग 286 हफ्ते तक इसने दर्शकों का मनोरंजन किया। 
  दिलीप कुमार, मधुबाला और पृथ्वीराज कपूर की अदाकारी वाली शानदार फिल्म  'मुगल-ए-आजम' अपने समय की महंगी फिल्मों में से थी। इसने भी सिनेमाघरों में लगभग 150 हफ्ते पूरे किए। दिलीप और मधुबाला की कैमिस्ट्री, अपने संगीत और भव्य सेट्स की वजह से फिल्म ने खूब नाम कमाया। राज कपूर की फिल्म 'बरसात' फिल्म 21 अप्रैल, 1949 को रिलीज हुई थी। राज कपूर की यह पहली हिट फिल्म थी। फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 100 हफ्ते पूरे किए थे। कहा जाता है कि इस फिल्म की सफलता के बाद राज कपूर ने आरके स्टूडियो ही खरीद लिया था। इसी फिल्म के पोस्टर से आर.के स्टूडियो का लोगो लिया गया। 
   राजश्री की 'मैंने प्यार किया' फिल्म 29 दिसंबर, 1989 को रिलीज हुई थी। इसके शुरू में सिर्फ 29 प्रिंट रिलीज किए गए थे। इस फिल्म के साथ सलमान खान ने बॉलीवुड में डेब्यू किया था। फिल्म लगभग 50 हफ्तों तक सिनेमाघरों में चली। आमिर खान और करिश्मा कपूर की ‘जब जब फूल खिले’ का रीमेक  फिल्म 'राजा हिंदुस्तानी' 15 नवंबर, 1996 को रिलीज हुई थी। फिल्म का गाना परदेसी परदेसी सुपरहिट हो गया था, और फिल्म का कामयाबी में इसका काफी बड़ा हाथ रहा था। 'कहो न प्यार है' हृतिक रोशन की डेब्यू फिल्म थी जो 14 जनवरी, 2000 में रिलीज हुई। फिल्म में हृतिक का स्टाइल, डांस और एक्शन सब दर्शकों को खूब भाया, और उन्हें एक नया सुपरस्टार मिला। ये फिल्म भी करीब एक साल तक सिनेमाघरों में चली। अब तो कोई फिल्म 4 हफ्ते  भी किसी सिनेमाघर में टिक जाए तो उसके बॉक्स ऑफिस बिजनेस की दुहाई ली जाने लगती है।  
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हमारे घरों में टीवी नहीं होता, तो क्या होता?


- एकता शर्मा 
   आज टेलीव‌िजन जिंदगी की जरुरत बन गया है। ख़बरें जानना हो या मनोरंजन मूड हो, टीवी के रिमोट के बिना किसी का काम नहीं चलता। अब तो ये कल्पना करना भी मुश्किल है कि यदि घरों में टीवी नहीं होता तो क्या होता? कभी बुद्धू बक्सा कहा जाने वाला टेलीविजन आज ज्ञान का भंडार भी है। देश में टीवी को आए 5 दशक से ज्यादा हो गए! डेढ़ दशक तो निजी मनोरंजन चैनलों को हो गए। इस दौरान सैकड़ों सीरियल दर्जनों चैनलों पर दिखाए गए! टीवी का एक ऐसा दौर भी आया जब 'रामायण' और उसके बाद बीआर चोपड़ा की 'महाभारत' देखने को दर्शक इतने लालायित रहते थे। सडकों पर अघोषित कर्फ्यू जैसा माहौल हो जाता था। टीवी पर आने वाले राम और सीता के चरित्रों की पूजा की जाती थी। 
  ये वही वक़्त था जब इन धार्मिक सीरियलों के प्रसारण पर टीवी की आरती उतारी जाती थी। रविवार को देर तक सोने वाले लोग भी 'रंगोली' देखने के लिए नींद का त्याग करने से नहीं हिचकते थे। तब शनिवार और रविवार की शाम को फ़िल्म का इंतजार किसे नहीं होता था! लेकिन, उसके बाद टीवी का मनोरंजन स्तर पारिवारिक षड्यंत्रों वाले सीरियलों में फंसकर रह गया। रिश्तों में साजिशों का छोंक लगाकर गढ़ी गई कहानियों पर बने सीरियल ही मनोरंजन बनते हैं। मनोरंजन का दूसरा फार्मूला बने रियलिटी शो! इनमें भी नाच, गाने वाले शो ही ज्यादा हैं। 

  सिनेमा और टीवी के मनोरंजन में सबसे बड़ा फर्क ये है कि सीरियलों की कहानियाँ और किरदार तभी तक दर्शकों की नजर में चढ़े रहते हैं, जब तक वो शो ऑनएयर होता है। शो के ख़त्म होते ही दर्शक उन्हें भुला देते हैं। लेकिन, दूरदर्शन के दौर में जो सीरियल आते थे, उन्हें लोग आज भी नहीं भूले! इसलिए कि उनका कथानक भारतीय परंपरा, जीवन शैली, संस्कृति और सभ्यता से जुड़ा रहता था! 'रामायण' और 'महाभारत' जैसे शो धर्मग्रंथों पर आधारित थे तो 'चाणक्य' और 'चंद्रकांता संतति' को पसंद करने वालों की भी बड़ी संख्या थी! 'रजनी' जैसे सीरियल ने एक तरह से उपभोक्ता आंदोलन को जन्म दिया तो 'मुंगेरीलाल के हसीन सपने' स्वस्थ्य हास्य था! 'शक्तिमान' जहाँ बच्चों का पसंदीदा शो था, तो 'शांति' ने परिवारिक रिश्तों और एक औरत की कहानी को इस तरह से स्‍थापित किया कि आज के टीवी शो उसी लकीर पर चल रहे हैं। 
  टीवी के याद रखने लायक कार्यक्रम उँगलियों पर गिने जा सकते हैं! टीवी के दर्शक भी बंटें हुए हैं, इसलिए ये पता नहीं चलता कि दर्शकों की पसंद क्या है? टीआरपी (टेलीविज़न रेटिंग पॉइंट) का फार्मूला टीवी कार्यक्रमों की लोकप्रियता दर्शाता है। पर, उसे भी सटीक आकलन नहीं माना जा सकता! आशय ये कि दर्शक क्या देखना चाहता है, ये कोई नहीं जानता! टीवी सीरियल के इतिहास में हम लोग, बुनियाद, ब्योमकेश बख्‍शी, मुंगेरीलाल के हसीन सपने, ये जो है जिंदगी, नीम का पेड़, कच्ची धूप, विक्रम और बेताल, अलिफ लैला, मालगुडी डेज, भारत एक खोज, परमवीर चक्र, रजनी, फौजी, चित्रहार और रंगोली को कौन भूल सकता है? पर, उसके बाद ऐसा क्या हुआ कि कोई भी कार्यक्रम दर्शकों के दिल में ये जगह नहीं बना पाया? 
  बिग बॉस, भाभी जी घर पर हैं, बालिका वधु, लॉफ्टर शो, कॉमेडी नाइट्स विद कपिल को दर्शकों ने पसंद तो किया, पर इनका सुरूर स्थाई नहीं रहा! रामायण, महाभारत, चंद्रकांता, चाणक्य, जंगल बुक, सास भी कभी बहू थी और कौन बनेगा करोड्पति जैसे कार्यक्रमों ने जरूर दर्शकों बांधे रखा! टीवी के मनोरंजन के उस दौर की तुलना आज से नहीं की जा सकती! इसलिए कि नई पीढ़ी के लिए सोशल मीडिया भी मनोरंजन का बड़ा माध्यम बन गया है।
  अब तो ये सवाल उठने लगा है कि टीवी मनोरंजन का भविष्य क्या होगा? क्योंकि, धीरे-धीरे फिल्मों के लगभग बड़े कलाकार टीवी पर दिखाई देने लगे! शायद ही कोई ऐसा फिल्म एक्टर होगा, जिसने इस परदे से परहेज किया हो! ऐसे में मनोरंजन के इन दोनों माध्यमों में अंतर कैसे किया जाए? अमिताभ बच्चन से लगाकर सलमान खान और माधुरी दीक्षित से शिल्पा शेट्टी तक ने रियलिटी शो जरिए छोटे परदे पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है। फिल्मों से बाहर हुए कलाकार भी सीरियलों में नजर आने लगे! दर्शक जिन चेहरों को फिल्मों से खारिज कर देते हैं, वही टीवी पर नजर आने लगेंगे तो मनोरंजन नई हवा का क्या होगा?
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Thursday 31 May 2018

याद कीजिए, कब से परदे पर मुजरा नहीं देखा?


- एकता शर्मा

  लम्बे अरसे परदे पर जो दिखाई नहीं दिया वो है फ़िल्मी तवायफों का मुजरा! याद किया जाए तो बीते कई सालों में बॉलीवुड के दर्शकों ने किसी फिल्म में तवायफ को नहीं देखा। इसलिए कि पिछले कुछ सालों से नवाबों और मध्यकालीन भारत से जुड़ी फिल्में नहीं बनी। 'देवदास' ने जरुर तवायफ के किरदार को जरूर जिन्दा किया था, लेकिन उस बात को भी कई साल गुजर गए। इसे 'पाकीजा' में तवायफ बनी मीना कुमारी और 'उमराव जान' में तवायफ का दर्द बयान करने वाली रेखा के बाद की एक कड़ी भी माना गया। 'देवदास' की तवायफ यानी चन्द्रमुखी बनी माधुरी दीक्षित के अभिनय व सौंदर्य को देखकर कहा जा सकता है कि सिनेमा की बहुचर्चित तवायफों के किरदार में मीना कुमारी और रेखा के बाद माधुरी दीक्षित का ही नाम लिया जाएगा। 
  सिनेमा में तवायफों को हमेशा ही एक ग्लैमरस किरदार के रूप में देखा जाता रहा है। हर दौर में तवायफों को अलग-अलग नजरिए से पेश किया जाता रहा। लेकिन, जिस संजीदगी से 'पाकीजा' और 'उमराव जान' में तवायफ की जिंदगी की परतें खोली गई, वह अपने आपमें मिसाल है। यही कारण है कि इन दोनों फिल्मों को सिनेमा इतिहास की अमर कृतियां माना जाता हैं। 'पाकीजा' में मां-बेटी के किरदार को निभाने वाली मीना कुमारी और 'उमराव जान' बनी रेखा के फिल्मी जीवन की सर्वश्रेष्ठ फिल्म होने का सम्मान इन दोनों फिल्मों ने ही हांसिल किया। 
   सिनेमा के शुरूआती काल यानी ब्लैक एंड व्हाइट के समय में कई तवायफों ने ही फिल्मों में अभिनेत्री की कमी पूरी की थी। इसलिए बाद के दौर की अभिनेत्रियों द्वारा पर्दे पर तवायफ की भूमिका साकार करना कोई अहम बात नहीं थी। लेकिन, आजादी के बाद जन्म हुआ एक नए सिनेमा का, जिसमें फिल्मों से जुड़े लोगों ने न सिर्फ शोहरत और लोकप्रियता का स्वाद चखना शुरू किया। बल्कि, उनके अभिनय को सामाजिक तौर पर सम्मानित भी किया जाने लगा। लेकिन, समस्या यह थी कि कई अभिनेत्रियां परदे पर तवायफ की भूमिका निभाने से कतराती थीं। फिर भी नरगिस और मधुबाला जैसी सफल अभिनेत्रियों ने किसी भी भूमिका के साथ पक्षपात न करने की अच्छी मिसाल पेश की। 
  सही मायने में पाकीजा पहली ऐसी फिल्म थी जिसमें दर्शकों ने तवायफ के हुस्न के पीछे छुपी तड़प, प्रेम और समर्पण भाव से परिचित करवाया। इस फिल्म में निर्देशक कमाल अमरोही ने तवायफ का घृणित सामाजिक जीवन जीने को विवश औरतों की समस्याओं का समाधान खोजने का भी प्रयास किया था। फिल्म की सफलता में यदि निर्देशक की सही पकड़ , भव्य सैट और मधुर संगीत की अहम भूमिका रही तो इसमें कोई दो राय नहीं कि मीना के अभिनय का सम्मोहन भी दर्शकों को बार-बार सिनेमा घर तक खींच लाया। 
  उर्दू कथाकार रुसवा के उपन्यास 'उमराव जान' से प्रेरित होकर मुजफ्फर अली ने इसी नाम से फिल्म का निर्माण किया। फिल्म में तवायफ की भूमिका निभाने वाली रेखा ने इसके अलावा मुकद्दर का सिकंदर, प्यार की जीत, उत्सव, दीदार-ए-यार और जाल जैसी फिल्मों में भी तवायफ की भूमिका निभाई। लेकिन, उमराव जान के किरदार में रेखा के अभिनय ने जो जौहर दिखाए उस करिश्मे के फिर दोहराने में रेखा भी सफल नहीं हो सकीय। इस फिल्म के लिए रेखा को सर्वश्रष्ठ अभिनेत्री के राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। लेकिन, आज परदे की दुनिया से तवायफ हाशिए पर है। लगता नहीं कि अब कोई फिल्मकार संजय लीला भंसाली की तरह तवायफ की जिंदगी पर फिल्म बनाने का साहस कर पाएगा। क्योंकि, अब फिल्मों की कहानियाँ जिस रास्ते पर जा रही हैं, वहां किसी तवायफ का कोठा नहीं आता! 
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वेब सीरीज के जादू से सिनेमा और टीवी पीछे छूटे!

- एकता शर्मा

  अभी तक मनोरंजन के कुछ ही माध्यम मौजूद थे। दो दृश्य माध्यम सिनेमा और टीवी और एक श्रवण माध्यम यानी रेडियो! करीब तीन दशकों से यही चल रहा था। लेकिन, अब मनोरंजन के एक और माध्यम 'वेब सीरीज' ने ले लिया और बहुत कम समय में इस माध्यम ने एक पूरी पीढ़ी को इसके दायरे में ले लिया। आज युवाओं की पहली पसंद यही वेब सीरीज बन गई है। अभी चार साल भी पूरे नहीं हुए, जब वेब सीरीज जैसा प्रयोग किया गया था और ये इतना सफल रहा कि आज फिल्म और टीवी के बड़े-बड़े प्रोडक्शन हाउस भी वेब सीरीज बनाने लगे। 2014 में आई ‘परमानेंट रूममेट’ नाम की वेब सीरीज को लोगों ने पंसद किया था। ये सीरीज आज भी देखी जा रही है। इसे देखने वालों की संख्या 50 मिलियन को पार कर गई। ये सीरीज इतनी हिट हुई कि 2016 में इसका दूसरा सीजन बनाया गया। इसके बाद तो वेब सीरीज की लाइन लग गई. बेक्ड, ट्रिपलिंग, परमानेंट रूममेट सीजन-2, पिचर, बैंग बाजा बारात, ट्विस्टेड, ट्विस्टेड-2, गर्ल इन द सिटी और अलीशा जैसी तमाम सीरीज मोबाइल के परदे पर उतर आई। 
   टीवी की महारानी कही जाने वाली एकता कपूर ने तो वेब सीरीज बनाने के लिए एलएलटी-बालाजी  पूरी कंपनी ही खोल ली! विक्रम भट्ट जैसे नामी फिल्मकार भी बड़े परदे का मोह छोड़कर हथेली में समाने वाले परदे की दुनिया के लिए वेब सीरीज बनाने लगे। धीरे-धीरे और भी कई बड़े फिल्मकार इस प्रयोग से जुड़ रहे हैं। जब बड़े फिल्मकारों मोह वेब सीरीज की तरफ लगेगा तो तय है कि उतने ही बड़े कलाकार भी इससे जुड़ेंगे।       
  इसे वेब सीरीज का ही तो क्रेज माना जाना चाहिए कि राजकुमार राव ‘बोस’ नाम की वेब सीरीज के लिए अपना सर मुंडवा लेते हैं। राम गोपाल वर्मा भी अंडरवर्ल्ड की कहानियां सुनाने के लिए इसी रेस में कूदे तो पर चल नहीं सके। फरहान अख्तर और प्रोड्यूसर रितेश सिद्धवानी भी एक वेब सीरीज लेकर आने वाले हैं। 
  इतने कम समय में बेव सीरीज की लोकप्रियता का कारण है इसका कंटेंट! क्योंकि, युवा वर्ग की शिकायत रही है कि आजकल टीवी चैनल्स उनकी पसंद के कार्यक्रम नहीं बना रहे! इसके अलावा वेब सीरीज में समय की कोई पाबंदी नहीं होती! सीरीज का एक एपिसोड 10 से 22 मिनट तक का होता है और एक सीरीज में 8 से 12 तक एपिसोड होते हैं। इसमें कोई सेंसरशिप नहीं होती है. इसलिए सीरीज मेकर अपनी पूरी क्रिएटिविटी दिखा सकते हैं। सेंसर न होने से कई सीरीज में एडल्ट कंटेंट और गालियों का जमकर इस्तेमाल होता है। सबसे अच्छी बात तो ये है कि फोन में ही इसे कहीं भी बैठकर देखा जा सकता हैं। ये सीरीज टीवीएफ प्ले, नेटफ्लिक्स, हॉट स्टार और ज्यादातर यू-ट्यूब पर आराम से मिल जाती हैं। 
  आज इनका क्रेज पूरे देस युवा पीढ़ी में फैल गया है। अब ये अलग-अलग भाषाओं में भी बन रही हैं। ट्रिपलिंग, परमानेंट रूममेट, पिचर, बैंग बाजा बारात, द ट्रिप, गर्ल इन द सिटी, बेक्ड, अलीशा, हैप्पी टू बी सिंगल, नॉट फिट, लेडीज रूम, मैन्स वर्ल्ड, आइशा- ए वर्चुअल गर्लफ्रेंड, लव शॉट्स, तन्हाइयां, ट्विस्टेड सीजन जैसी वेब सीरीज हिंदी के दर्शकों में अपनी पैठ बना रही है। उधर, इंटरनेट और डिजिटल मीडिया के युग में अब बॉलीवुड के बड़े से बड़े एक्टर्स भी फिल्मी पर्दों पर सीमित न रह कर डिजिटल मीडिया का हिस्सा बनने में अपनी रूचि दिखा रहे है.
  ऋतिक रोशन भी जल्द ही वेब-सीरीज में काम करते नजर आएंगे। अमेजन प्राइम ने ऋतिक को वेब-सीरीज में काम करने का प्रस्ताव दिया है। कहा जा रहा है कि फिलहाल इस प्रोजेक्ट को लेकर बातचीत चल रही है और मेकर्स इस वेब-सीरीज की स्क्रिप्ट को और भी बेहतर बनाने के लिए काम कर रहे हैं। ऋतिक के पास करीब सितंबर या फिर अक्टूबर में ही समय होगा. उस समय ऋतिक इस वेब-सीरीज पर काम शुरू कर सकते हैं। बडे़ पर्दे और छोटे पर्दे के बाद अब बंगाली जासूस ब्योमकेश बक्शी वेब सीरीज में भी जासूसी करते नजर आए। 'सत्यन्वेशी' और 'पाथेर कांटा' नाम की दो कहानियों में ब्योमकेश की प्रतिभा नजर आएगी। ये वेब सीरीज एसवीएफ के डिजिटल प्लेटफार्म होइचोई पर आई है। 
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पाकिस्तान के बिना अधूरी है फ़िल्मी देशभक्ति!


- एकता शर्मा 

  पाकिस्तान का विरोध बॉलीवुड की फिल्मों का एक प्रिय विषय रहा है। युद्धकाल में तो ऐसी फ़िल्में पसंद की ही जाती हैं, पर सामान्य परिस्थितियों में भी पाकिस्तान से जुड़ी दर्शकों की पसंद में अव्वल रही है। हाल ही में रिलीज हुई आलिया भट्ट की फिल्म 'राजी' इसकी ताजा मिसाल है। ये फिल्म 1971 के जंग के दौर में पाकिस्तान में भारत की जासूसी पर सच्ची घटना व देशभक्ति पर आधारित फिल्म है। इसमें आलिया भट्ट ने एक खुफिया एजेंट का रोल निभाया है, जो शादी करके पाकिस्तान चली जाती है और वहाँ से भारत को ख़ुफ़िया जानकारियाँ भेजती है। फिल्म में एक अच्छी प्रेम कहानी भी है। इसमें बेटी, बहू और पत्नी के अलावा आलिया ने जासूस की भी भूमिका निभाई है। 
  बॉलीवुड में भारत-पाकिस्तान के रिश्‍तों और इनकी लड़ाइयों पर कई फिल्‍में बनी हैं। चेतन आनंद ने 'हिंदुस्तान की कसम' बनाकर 1971 में हुई जंग को भुनाया था। इसमें युद्ध की बर्बरता को दिखाया गया था। 1973 में आई इस फिल्म में राज कुमार और प्रिया आनंद ने मुख्य भूमिका निभाई थी। जेपी दत्ता ने 'बॉर्डर' में भी 1971 के भारत-पाक युद्द को दिखाया था। लेकिन, इसमें फोकस राजस्थान के लोंगेवाला में हुई लड़ाई थी। निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा की 2000 में रिलीज फिल्म 'मिशन कश्मीर' में दिखाया गया था कि कश्मीर विवाद के कारण कैसे ये खूबसूरत जगह आतंक का केंद्र बन गई! ''एलओसी कारगिल' 2003 में आई थी। ये फिल्म 1999 के भारत-पाक कारगिल युद्द की कहानी थी। 2004 में आई 'लक्ष्य' फरहान अख्तर के निर्देशन में बनी थी। इसमें कारगिल युद्द को दिखाया गया था। 1999 में 'हिन्‍दुस्‍तान की कसम' एक बार फिर बनी! वीरू देवगन की इस फिल्म में अजय देवगन दोहरी भूमिका में थे। 26/11 के मुंबई आतंकी हमलों के साजिशकर्ता हाफिज सईद पर बनी फिल्म 'फैंटम' पर तो पाकिस्तान में प्रतिबंध ही लगा दिया गया था। सईद ने आरोप लगाया था कि 26/11 के हमलों के बाद की परिस्थितियों पर बनी फिल्म में उसके तथा उसके संगठन के खिलाफ कुत्सित दुष्प्रचार है। 
  इन दोनों देशों के बीच युद्ध और आतंकवाद के अलावा भी कई ऐसे विषय हैं जो पाकिस्तान से जुड़कर हिंदी फिल्मों की कहानी बने! यशराज की फिल्म 'चक दे इंडिया' भी एक ऐसी ही फिल्म थी, जो महिला हॉकी पर केंद्रित थी लेकिन इसमें भी पाकिस्तान का तड़का लगा था। सलमान खान की फिल्म 'बजरंगी भाईजान' में पाकिस्तान का विरोध कहीं नहीं था, पर ये पूरी कहानी पाकिस्तान को जोड़कर ही लिखी गई थी। 2001 में आई 'ग़दर' फिल्म की कहानी तो पूरी तरह पाकिस्तान में घुसकर अपनी पत्नी को उठाकर लाने वाले हीरो की थी। पार्टीशन पर केंद्रित सनी देओल की इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 70 करोड़ से ज्यादा का अच्छा खासा कलेक्शन किया था। सलमान खान की 'टाइगर' और उसका सीक्वल 'टाइगर जिंदा है' दोनों ही फ़िल्में पाकिस्तान और भारत के दो जासूसों के बीच पनपी प्रेम कहानी है। कैटरीना कैफ और सलमान खान अभिनीत इस फिल्म में कहीं देशभक्ति या पाकिस्तान विरोध नहीं है। इस विषय पर इतनी ही फ़िल्में नहीं बनी, ये एक लम्बी फेहरिस्त है।     
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महँगी हो गई फिल्मों की हीरोइनें!


- एकता शर्मा 

  अब फ़िल्में सिर्फ हीरो की वजह से नहीं चलती। किसी भी फिल्म की सफलता में हीरोइन का भी बड़ा योगदान  होता है। इस बदलाव का सबसे ज्यादा असर यह भी हुआ कि स्टार हैसियत मिलने से हीरोइनों को भी अच्छा खासा मेहनताना मिलने लगा। इसका ताजा उदहारण 'पद्मावत' है जिसके लिए दीपिका पादुकोण ने सबसे ज्यादा मेहनताना लिया है। फिल्म में रणबीर सिंह और शाहिद कपूर जैसे हीरो थे, पर अपने अभिनय की ज्यादा कीमत दीपिका ने वसूली।   है। इससे पहले ‘रोबोट’ के लिए ऐश्वर्य राय और ‘हीरोइन’ के लिए करीना कपूर को हीरो बराबर पैसे मिले थे। कहा जा सकता है कि आज की हीरोइनें अब मेहनताने के लिए भाव-ताव करने की स्थिति में आ गई हैं। 

   हीरो को पूजने, उसे सम्मान व मेहनताना देने की परंपरा का आमतौर पर फिल्म इंडस्ट्री में बरसों से पालन होता आया है। कुश्ती के किंग दारासिंह को जब पहली बार फिल्म में लिया गया, तो उन्हें ठीक से हिंदी बोलना भी नहीं आता था। अभिनय में तो वे हमेशा ही जीरो रहे! लेकिन, वे फिल्म के हीरो थे इसलिए उन्हें तीन लाख रूपए दिए गए और ज्यादा अनुभवी व एक्टिंग की समझ रखने वाली मुमताज के हिस्से में आए सवा दो लाख! नायिका प्रधान फिल्में वैसे भी कम ही बनती हैं, फिर भी फिल्मों में हीरोइनों की हैसियत पहले से ज्यादा बढ़ी है। 50 और 60 के दशक में जरूर हीरोइनों नेअपनी पहचान और हैसियत बनाई थी। उस दौर में नायिका प्रधान फिल्में ज्यादा बनती थी और उनकी कहानियों में हीरोइन को ज्यादा महत्व भी दिया जाता था। लेकिन, यह दौर ज्यादा नहीं चला और उस जमाने की कुछ हीरोइनों पर ही केंद्रीय रहा।  
  पिछले कुछ सालों में फिर हीरो प्रदान फिल्मों का दौर आया और पुरानी मानसिकता के चलते सलमान खान, शाहरुख खान, अमिर खान, अक्षय कुमार, ऋतिक रोशन, अजय देवगन को ही ज्यादा वाह-वाही मिली। लेकिन, अब हीरोइनों ने भी भी इसमें सेंध लगानी शुरू कर दी है। स्टार का जो दर्जा आमतौर पर हीरो के लिए आरक्षित माना जाता था, अब हीरोइनें भी उसमें दखल देने लगी हैं। इसी से उनकी हैसियत और मेहनताना भी तय होने लगा है। 
  आज की स्थितियों को देखकर भले ही यह आश्चर्य न लगे! लेकिन, पिछले आठ साल में विद्या बालन, दीपिका पादुकोण ने अपनी इमेज में काफी सुधर किया है। 'बाजीराव मस्तानी' और 'पद्मावत' में दीपिका ने अपने अभिनय से चार चाँद तो लगाए ही, ये संदेश भी दे दिया कि वे किसी हीरो से काम। यही स्थिति विद्या बालन की है, जिसने पहले परिणीता, भूल भुलैया, कहानी के बाद 'डर्टी पिक्चर्स' में अपनी दमदार मौजूदगी दिखाई थी। हिंदी फिल्मों में काम करने के बाद भी हिंदी बोलने से परहेज करने वाली कैटरीना कैफ की फिल्मों ने उन्हें भी करीना कपूर के बराबर लाकर खड़ा दिया। आज कैटरीना की फीस भी करीना से कम नहीं हैं। है। 
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साहित्य. सिनेमा और बॉक्स ऑफिस


- एकता शर्मा 

   हिंदी सिनेमा की अपनी दुनिया है। यहाँ समय के साथ कहानियों का ट्रेंड भी बदलता रहता है। कहानियों के बगैर फ़िल्में नहीं बन सकती! पर, जरुरी नहीं कि वे नामचीन कथाकारों या उपन्यासकारों ने लिखी हो! तो फिर सवाल उठता है कि जब फ़िल्मी कहानियां लिखने वाली गंभीर साहित्यिक व्यक्ति नहीं होते तो फिर उनपर करोड़ों के फिल्मकार दांव कैसे लगा देते हैं। सवाल लाख टके का है, पर ये जान लेना भी जरुरी है कि फिल्मों की कहानी लिखने वाले और साहित्यकारों में फर्क है। फ़िल्मी कहानियां दर्शकों की पसंद को ध्यान में रखते हुए गढ़ी जाती है, जबकि गंभीर साहित्यकार बिकाऊ कथा नहीं लिखता! बल्कि, जो लिखता है वो उसके नाम से बिक जाता है।    
  साहित्य और सिनेमा पर बरसों से बहस चल रही है। मुद्दा ये है कि बड़े कथाकार फिल्मों में सफल क्यों नहीं हो पाते? साहित्य जगत में जिनकी रचनाओं को पसंद किया जाता है, उनपर बनी फ़िल्में फ्लॉप क्यों हो जाती है? लोगों को इन लेखकों की लिखी कहानियाँ और उपन्यास तो पसंद आते हैं, पर उन्हीं कहानियों पर जब फिल्म बनती है तो उसे दर्शक नहीं मिलते!  फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी 'मारे गए गुलफाम' पर 'तीसरी कसम' बनी और फ्लाप रहीं।  प्रेमचंद की तीन कहानियों पर फिल्में बनी, लेकिन वे भी सफल नहीं हो सकीं। सत्यजित राय की पहली हिंदी फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' जरूर सफल रही, जो प्रेमचंद  कहानी पर आधारित थी।
   'तीसरी कसम' को भले ही श्रेष्ठ फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। लेकिन, ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह असफल हुई थी, जिसके कर्ज के बोझ तले निर्माता शैलेंद्र की तनाव में मौत हो गई! कई प्रशंसित कहानियाँ लिख चुके कहानीकार राजेंद्र सिंह बेदी की किताब 'एक चादर मैली सी' पर भी जब फिल्म बनी तो उसे दर्शकों ने नकार दिया। चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी 'उसने कहा था' पर बनी फिल्म भी नहीं चली! आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास परबीआर चोपड़ा ने 'धर्मपुत्र' बनाई जो नहीं चली!  
  सत्तर के दशक में जरूर बांग्ला साहित्य पर कुछ फ़िल्में बनी जो चली भी! बासु चटर्जी बांग्ला भाषी थे लेकिन उन्होंने राजेंद्र यादव के उपन्यास 'सारा आकाश' पर फिल्म बनाई जो नहीं चली! लेकिन, मन्नू भंडारी की कहानी 'यही सच' पर 'रजनीगंधा' बनाई तो वह सफल हुई। हिंदी साहित्यकारों का फिल्मों में असर 70 के दशक में ही ज्यादा नजर आया। इस दौर को लाने का श्रेय कथाकार कमलेश्वर को दिया जाना चाहिए। उपेंद्रनाथ अश्क और अमृतलाल नागर के बाद कमलेश्वर ही वह साहित्यकार थे, जिन्होंने सिनेमा की भाषा और दर्शकों की मानसिकता को समझा। बड़े टेलीविजन सीरियल के बाद वे फिल्मों में भी लंबे समय तक टिके रहे। 
  गुलजार ने कमलेश्वर की कथा पर जब 'आंधी' और 'मौसम' बनाई तो देखने वालों का ट्रेंड ही बदल गया। इसके लिए गुलजार भी जिन्हें श्रेय दिया जा सकता है। उन्होंने कहानी की संवेदना को गहराई से समझा और दोनों फिल्मों की पटकथा, संवाद और गीत खुद ही लिखे। कमलेश्वर के उपन्यास 'एक सड़क सत्तावन गलियाँ' और 'डाक बांग्ला' पर क्रमशः 'बदनाम बस्ती' (1971) और 'डाक बांग्ला' (1974) बनीं लेकिन सफल नहीं हो सकीं।  लेकिन,अब हिंदी फिल्मों का परिदृश्य बदल गया है। हर तरह की फिल्में बन रही हैं। छोटे बजट की रोचक विषयों वाली फिल्मों का बाजार आकार लेने लगा है। अभी बायोपिक फिल्में बनाने पर ज्यादा ध्यान है। आश्चर्य नहीं कि भविष्य में हिंदी साहित्य को लेकर फिल्मों में कुछ नए प्रयोग होने लगें! 
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छोटे परदे पर अंधविश्वास का उजास क्यों?

- एकता शर्मा

  टेलीविजन के सीरियल सिर्फ घरेलू मनोरंजन ही नहीं होते! ये दर्शकों के जीवन पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। दर्शक यदि धार्मिक सीरियल देखकर धर्म के प्रति आस्थावान होते हैं, तो भूत-प्रेत के सीरियलों से भी तो उनके दिमाग पर असर विपरीत असर होता होगा! 80 और 90 के दशक में जब रामानंद सागर और बीआर चोपड़ा ने 'रामायण' और 'महाभारत' जैसे सीरियल बनाए थे, तब धर्म के प्रति दर्शकों में उत्साह और श्रद्धा जागी थी! इसके बाद भी कई धार्मिक सीरियल बने, पर आस्था का वो ज्वार सामने नहीं आया! यही तथ्य बताता है कि टीवी पर दिखाए जाने वाले सीरियलों का दर्शकों के जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। उस दशक में दर्शकों ने इन सीरियलों से धर्म के बारे में बहुत कुछ सीखा था। इसके अलावा इस दौर में नीम का पेड़, बुनियाद, हम लोग, मालगुड़ी डेज, अलिफ़ लैला, स्वाभिमान, देख़ भाई देख़, तू-तू मैं-मैं जैसे कई सीरियल आए। 
    सूचना की क्रांति और नई टेक्नालॉजी कारण आज लोगों के हाथ में पूरी दुनिया है। इसके बाद भी टीवी के छोटे परदे पर भूत-प्रेत, जादू-टोने, नाग-नागिन और सुपरनेचुरल कहानियों की संख्या बढ़ती जा रही है। आश्चर्य की बात है कि ऐसे सीरियल को दर्शक पसंद भी कर रहे हैं। लगभग हर चैनल पर मनगढंत भुतहा कहानियां दिखाई जा रही है। एक वक़्त था जब छोटे पर्दे पर सीरियल के किरदारों की प्लास्टिक सर्जरी दिखाकर उनका चेहरा बदल दिया जाता था। जबकि, अब ट्रेंड है भूत-प्रेत और अंधविश्वास का, जो किसी न किसी रूप में हर सीरियल में दिखाई देने लगा है। इसमें नाग-नागिन से जुड़े सीरियल का चलन सबसे अधिक बढ़ा है। 'नागिन' जैसे सीरियल को लोगों ने काफी पसंद किया। इसका सीक्वल भी आ गया और अब तीसरा भाग आने की तैयारी है।     भूत-प्रेत, चुड़ैल, जादू-टोने और सुपरनेचुरल ताकतों से जुड़े सीरियलों की भी भरमार है। जबरन दर्शकों को ऐसे सीरियल परोसे जा रहे हैं, जिनका सच्चाई से कोई वास्ता नहीं होता। ऐसे सीरियल निश्चित रूप से लोगों ने मन में एक भ्रम और डर पैदा करने का काम कर रहे हैं। यदि इनको गंभीरता से लेकर समाधान नहीं निकाला गया, तो भविष्य के लिए नुकसानदायक साबित होगा।
  कुछ चैनल तो भूत-प्रेत और अंधविश्वास की हदें पार कर चुके है। यहाँ तक कि ‘भाभीजी घर पर हैं’ जैसा कॉमेडी सीरियल भी ‘चुड़ैल’ के ट्रेंड को भुनाने में पीछे नहीं रहा और दो एपिसोड चुड़ैल की कहानी के लिए झोंक दिए। सीरियल के अंत में बकायदा ‘चुड़ैल’ को सर्वमान्य ग्लैमरस खलनायिका स्थापित किया गया। एक सीरियल ‘ससुराल सिमर का’ में तो इतनी ‘डायनों’ की एंट्री हुई है कि दर्शक गिनती भी भूल गए। 
  क्या इस तरह के सीरियल बनाने वाले इससे बेखबर हैं कि भूत-प्रेत की कहानियों और नाग-नागिन की दुश्मनी से जुड़े किसी भी शो का असर सामाजिक यथास्थिति और जड़ता को कायम रखना है? रोज सुबह जब टीवी पर कोई ज्योतिषी दर्शकों का भविष्य बांचता दिखाई देता है! राशि के हिसाब से काल्पनिक लाभ-हानि परोसता है, तो ये सिर्फ टीवी शो या मनोरंजन ही नहीं होता। ये लाखों लोगों की आस्था का शोषण करके अंधविश्वासों के अंधकार में बनाए रखने की एक करतूत है।
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Sunday 8 April 2018

सलमान अकेले नहीं जिन्होंने जेल की हवा खाई!


- एकता शर्मा 

    सलमान खान को आज फिल्मों की सफलता का हिट-फार्मूला माना जाता है। 'ट्यूबलाइट' जैसी फिल्म को उल्लेख न किया जाए तो पिछले कुछ सालों में सलमान की अधिकांश फिल्मों ने 100 से 300 करोड़ तक का बिजनेस किया है। लेकिन, आजकल सलमान खान का नाम किसी फिल्म की सफलता के लिए नहीं लिया जा रहा, बल्कि काले हिरण के शिकार के मामले में सलमान को 5 साल की सजा सुनाई गई है और उन्हें एक रात जेल की सलाखों के पीछे भी गुजरना पड़ी! लेकिन, सलमान फ़िल्मी दुनिया के अकेले कलाकार नहीं हैं, जिन्हें किसी मामले में सजा हुई है और जेल की हवा भी खाना पड़ी है। उनसे पहले भी कई कलाकारों को सजा      हुई है। 
   ऐसे सितारों में संजय दत्त का नाम सबसे ज्यादा प्रासंगिक है, जिन्हें अवैध रूप से हथियार रखने के मामले में लम्बे समय तक जेल जाना पड़ा था। 2013 में उन्हें पांच साल की सजा हुई। पहली बार उन्हें 1993 में गिरफ्तार किया गया था। 1995 में वे जमानत पर बाहर आए। इसके बाद 2006 से 2007 तक वे जेल में रहे। उनकी इस जेल यात्रा से बॉलीवुड को बड़ा घाटा उठाना पड़ा था। 'गैंगस्टर' से बॉलीवुड में अपनी पहचान बनाने वाले शाइनी आहूजा पर उनकी नौकरानी ने ही रेप का आरोप लगाया था। मुंबई की एक अदालत ने उन्हें दोषी पाते हुए 7 साल की सजा सुनाई। शाइनी को जेल भी जाना पड़ा था, लेकिन बाद में उस नौकरानी ने केस वापस ले लिया और शाइनी रिहा कर दिया गया। 
 गुजरे ज़माने के अभिनेता फीरोज खान के एक्टर बेटे फरदीन खान को भी ड्रग्स मामले में पकड़ा गया था। फरदीन को 2001 में कोकिन खरीदते हुए पकड़े जाने के बाद जेल जाना पड़ा था। उन पर कोकिन रखने के आरोप भी तय हो गए थे। उन्हें अवैध रूप से ड्रग रखने के आरोप में 5 दिन जेल में रहना पड़ा था। लेकिन, अदालत ने उन्हें उनका पहला अपराध मानते हुए उन्हें राहत दे दी। अदालत के आदेश पर उन्हें रिहैबिलिटेशन सेंटर भेजा गया था। फरदीन खान ने 1998 में 'प्रेमअगन' से बॉलीवुड में डेब्यु किया। उन्हें बेस्ट डेब्यु एक्टर का अवॉर्ड भी मिला था। सैफ अली खान भी जेल की बैरक में रह चुके हैं। मुंबई के ताज होटल में सैफ और उनके दोस्तों को होटल में एक एनआरआई व्यक्ति ने शांत रहने के लिए क्या टोका, गुस्से में सैफ ने उसकी पिटाई कर दी थी। उन्हें प्राणघातक हमले के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया
  एक्टर जॉन अब्राहम भी सजा भुगत चुके हैं। 2006 में तेज रफ्तार बाइक से जॉन ने दो लोगों को टक्कर मारकर घायल कर दिया था। मुंबई की बांद्रा कोर्ट ने दोषी पाते हुए उन्हें 15 दिन की सजा सुनाई थी। लेकिन, बॉम्बे हाईकोर्ट से उन्हें जमानत मिल गई। फिल्म निर्देशक मधुर भंडारकर पर भी एक शार्ट टाइम अभिनेत्री प्रीति जैन ने आरोप लगाया था कि भंडारकर ने फिल्म में रोल देने के वादे के बहाने उसके साथ बलात्कार किया। बाद में कोर्ट ने उन्हें राहत देते हुए यह कहते हुए बरी कर दिया था कि भंडारकर के खिलाफ कोई सबूत नहीं है। पार्श्व गायक अंकित तिवारी ने फिल्म 'आशिकी 2' के गानों से लोकप्रियता पाई थी। अंकित पर कथित रूप से अपनी दोस्त के साथ रेप करने के प्रयास का आरोप लगा। इसके लिए उन्हें 2015 में जेल भी जाना पड़ा था। 
  एक्ट्रेस मोनिका बेदी भी स्मगलिंग के अपराधी अबू सलेम के साथ रिश्तों के लिए जेल जा चुकी हैं। मोनिका को फर्जी दस्तावेजों के साथ पुर्तगाल में दाखिल होने का भी दोषी पाया गया। उसे ढ़ाई साल जेल में सजा काटनी पड़ी थी। गुजरे वक़्त की फिल्मों की सबसे खूबसूरत अभिनेत्री मधुबाला को भी बीआर चोपड़ा की शिकायत पर जेल की हवा खाना पड़ी थी। शिकायत थी कि मधुबाला ने पैसे लेकर भी उनकी फिल्म में काम करने से मना कर दिया था और पैसे भी नहीं लौटाए! सोनाली बेंद्रे भी एक धार्मिक मामले में गिरफ्तार हो चुकी हैं। बाद में जमानत पर उन्हें छुड़ा लिया गया।
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आमिर, अंबानी और 'महाभारत' का इंतजार!


-  एकता शर्मा 

   अंबानी सिर्फ देश के सबसे अमीर बिजनेसमैन का नाम नहीं, बल्कि आज एक स्थापित 'ब्रांड' है। वे जो भी करते हैं, वो मीडिया में बड़ी खबर बन जाती है। हाल ही में मुकेश अंबानी के बेटे आकाश की सगाई हीरों के बड़े व्यापारी रसेल मेहता की बेटी श्लोका से हुई! सगाई के बाद मुकेश अंबानी ने मुंबई में अपने भव्य घर 'एंटिला' में ग्रैंड पार्टी दी। इस पार्टी में बॉलीवुड की तमाम हस्तियां थीं। क्योंकि, अंबानी का गेस्ट बनना किसी सेलिब्रिटी बनने जैसा सम्मान है। इस ग्रैंड पार्टी में शाहरुख अपनी पत्नी गौरी के साथ पहुंचे। अभिनेत्री ऐश्वर्या राय बच्चन अपनी बेटी आराध्या के साथ पहुंची। केटरीना कैफ, जॉन अब्राहम, करण जौहर, जहीर खान, सागरिका घटगे और किरण राव समेत कई सितारे इस जश्न का हिस्सा बनें।
    ये तो हुई मुकेश अंबानी के बेटे आकाश की सगाई पार्टी की बात! असल बात ये है कि इन दिनों देश और दुनिया के ये चर्चित कारोबारी सिनेमा जगत में भी ज्यादा रूचि ले रहे हैं। सबसे ज्यादा चर्चा तो इस बात की है कि आमिर खान की करीब एक हजार करोड़ में बनने वाली महत्वाकांक्षी फिल्म 'महाभारत' में मुकेश अंबानी पैसा लगा रहे हैं। अभी ये तय नहीं है कि अंबानी इसे 'वायकॉम 18' से प्रोड्यूस करेंगे या फिर इसके लिए नया प्रोडक्शन हाउस खोलेंगे। सिनेमा की दुनिया में किसी एक फिल्म प्रोजेक्ट के लिए ये सबसे बड़ा बजट होगा। यही कारण है कि सभी की नजरें आम‍िर खान के इस नए प्रोजक्‍ट पर लगी हैं।
   अभी फिल्म को लेकर कोई औपचारिक घोषणा नहीं हुई और न एक्टर्स के बारे में ही कोई अधिकृत जानकारी सामने आई है! जो कुछ है सब कयासों का ही दौर है। लेकिन, सिनेमा की दुनिया में ये सामान्य बात है। यहाँ ख़बरें छुपा-छुपाकर बताई जाती है। कहा तो ये भी जा रहा है कि इसमें बॉलीवुड के तीनों चर्चित खान होंगे! आम‍िर खान कृष्ण बनेंगे, सलमान खान अर्जुन और कर्ण की भूम‍िका में होंगे शाहरुख खान। शायद अमिताभ बच्चन का नाम भीष्म पितामह के किरदार के लिए सोचा गया है। द्रोपदी के नाम को लेकर अभी कोई चर्चा नहीं है। पर उड़ती खबर है कि विद्या बालन को इसी किरदार की तरह सोचा जा रहा है।
  आमिर खान अपने इस महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट का काम न तो खुद अकेले करेंगे और न किसी एक को जिम्मेदारी देंगे। इस फिल्म को हॉलीवुड फिल्म ‘लॉर्ड ऑफ द रिंग्स’ और ‘गेम ऑफ थ्रोन्स’ की तर्ज पर बनाया जाएगा। कहा जा रहा है कि इसमें एक से ज्यादा निर्देशक होंगे! फिल्म भी एक या पाँच सिरीज में बनेगी। पहली सीरीज़ अद्धैत चंदन के निर्देशन में बनेगी, जिन्होंने आमिर की ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ को निर्देशित किया है। एक सिरिज खुद आमिर खान बनाएंगे। आमिर इस पूरी सिरीज को अपने करियर के 10 साल देना चाहते हैं। 'महाभारत' का खाका बहुत कुछ 'बाहुबली' की तरह होगा। जिसमें एक सिरीज की कहानी का अंत दूसरी सिरीज से जुड़ा होगा।
  'महाभारत' ऐसा महाकाव्य है जिसपर कई फ़िल्में और कई टेलीविजन सीरियल बन चुके हैं। बीआर चोपड़ा का सीरियल 'महाभारत' तो छोटे परदे का कालजयी सीरियल है। लेकिन, नए दौर में कोई बड़ी फिल्म 'महाभारत' के कथानक पर नहीं बनी। दुबई में बसे भारतीय कारोबारी बीआर शेट्टी ने भी 'महाभारत' पर फिल्म बनाने की घोषणा की थी। उनका बजट भी हज़ार करोड़ के करीब ही है। इस फिल्म का निर्देशन विज्ञापन जगत के विख्यात निर्देशक वीए श्रीकुमार मेनन को सौंपा गया था। इससे मलयाली एक्टर मोहनबाबू भी जुड़े हैं। इस फिल्म की तो शूटिंग भी इसी साल सितंबर में शुरू होना है। पर अभी कुछ भी सामने नहीं आया। लेकिन, यदि आमिर खान इस प्रोजेक्ट पर हैं, तो हज़ार करोड़ लगाने का साहस तो शायद ही अंबानी घराने के अलावा कोई और करे?
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Monday 26 March 2018

आज का फिल्म संगीत कालजयी क्यों नहीं?

-एकता शर्मा 
   हिंदी फिल्म संगीत का ये कौनसा दौर है, कोई नहीं जानता! क्योंकि, आजकल की फिल्मों में संगीत को लेकर बहुत घालमेल जैसा माहौल है। कभी किसी फील्म का संगीत दिल में उतर जाता है, तो किसी फिल्म के संगीत से उकताहट सी होने लगती है। अरिजीत सिंह, आतिफ असलम की आवाज और अमित त्रिवेदी के संगीत ने जरूर मैलोडी को जिंदा रखा है, वरना ज्यादातर फिल्मों में कानफोड़ू संगीत ही सुनाई देता है। आश्चर्य की बात है कि बीते कुछ सालों में न तो किसी नए भजन की रचना हुई, न किसी कव्वाली की और न राष्ट्रभक्ति वाले किसी गीत की! याद करने की कोशिश भी की जाए तो शायद याद नहीं आएगा कि एक-दो दशक में कभी ऐसा कोई नया गीत सुनने में आया हो! 
    आजकल ज्यादातर फिल्मों में जो भी गाने लिए जा रहे हैं, वो या तो कहानियों से जुड़े प्रेम में पगे गीत होते हैं या फिर संगीत कंपनियों के पास से रेडीमेड ले लिए जाते हैं। अब तो इससे भी आगे का दौर ये आ गया कि पुरानी फिल्मों के गीतों को नए कलेवर में नए गायकों से गवा लिया जाता है। इसलिए कहा जा सकता है कि फिल्म संगीत का यह दौर बड़ा बेहद निराशाजनक है। स्थापित और सिद्धहस्त संगीतकार और पार्श्व गायक-गायिकाएं सिर्फ टेलीविजन के लाइव शो में जज बनकर बैठे नजर आ रहे हैं। जबकि, कानफोड़ू संगीत वाले संगीतकारों को जमकर काम मिल रहा है। आजकल जो फिल्म संगीत सुनाई दे रहा है उसका सबसे नकारात्मक पक्ष ये है कि उसमे 'मैलोडी' कहीं नहीं है। भारतीय फिल्म संगीत अपने आपमें चिंतन का बहुत बड़ा और विस्तारित विषय है।  इसने संगीत की कई शैलियों को जन्म दिया है। फिल्मों का सुगम संगीत दशकों से प्रचलित है। सुगम संगीत  में फिल्म संगीत है। 
  आज के समय के श्रेष्ठ संगीत की बात की जाए तो जिस संगीतकार ने सुनने वालों के दिलों पर राज किया, वो है एआर रहमान। वो संगीत की ताजी हवा का झोंका बनकर आए और सबके दिलों में बस गए। उन्होंने बहुत कम समय में सफलता का स्वाद चख लिया। एआर रहमान ने अपने करिअर की शुरुआत मणिरत्नम की फिल्म 'रोजा' से की थी। लेकिन, फिर पलटकर नहीं देखा। उन्होंने रंगीला, बॉम्बे,  ताल, लगान, रंग दे बसंती, जोधा अकबर से लेकर 'मॉम' तक में अपनी विविधता का परिचय दिया है। शास्त्रीय संगीत, सूफी संगीत, कर्नाटक संगीत और कव्वाली तक पर उनका पूरा-पूरा अधिकार है। कहा जा सकता है कि वे आज के वक़्त के सबसे वे सफलतम संगीतकार है। लेकिन, उनके जैसा कोई दूसरा क्यों नहीं बन सका? आज भी फिल्म संगीत का यह सफर जारी है। इस दौर का कुछ फिल्म संगीत सुनने लायक तो है, लेकिन कालजयी नहीं! संगीत प्रेमी आज भी 60 और 70 के दशक के संगीतकारों और गायकों के गीत गुनगुनाते हैं। बीते दो दशकों में आई कुछ धुनें कर्णप्रिय तो थीं, लेकिन संगीत को समझने वालों के दिलों में जगह नहीं बना सकीं। 
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अब क्यों नहीं बनती, गाँव पर फ़िल्में?

- एकता शर्मा 

 हिंदी फिल्मों में 'राजश्री' प्रोडक्शन को इसलिए याद किया जाता था कि बरसों तक उनकी फिल्मों में ग्रामीण जीवन सौंधी महक होती थी। गाँव की जिंदगी और वहाँ की लोकजीवन से सजी परंपराओं पर फ़िल्में बनाने के लिए पहचाने जाने वाला ये प्रोडक्शन हाउस भी अब बड़े परिवारों की कहानियों पर फ़िल्में बनाने लगा है! नदिया के पार, बालिका वधु और गीत गाता चल जैसी फ़िल्में बनाने वाली ये कंपनी भी गाँवों से शहर पहुँच गई! क्योंकि, सारा मामला व्यावसायिक है। ये किसी एक फिल्म प्रोडक्शन हाउस की बात  नहीं है। अधिकांश फिल्म बनाने वालों ने गाँव को भुला ही दिया। 
   1957 में आई 'मदर इंडिया' को वास्तविक ग्रामीण जीवन का आईना दिखाने वाली फिल्म कहा जाता है। निर्देशक महबूब खाँ की इस फिल्म को वास्तव में 'दो बीघा जमीन' का विस्तार कहा जाता है। साहूकार के शोषण से पिसते किसान परिवार की वेदना को जिस संवेदनशीलता से उन्होंने परदे पर चित्रित किया, उससे किसान की दमित आवाज़ जन-जन तक पहुँची। इस फिल्म में लोकधुनों पर आधारित गीत थे, जिन्हें आज भी लोग गुनगुनाते हैं। लेकिन, अब ऐसी फ़िल्में बनाने का साहस कौन करेगा?
   बीते कुछ सालों में ऐसी कोई फिल्म नहीं आई, जिसमें गाँव नजर आया हो? आमिर खान की फिल्म 'लगान' के बाद तो शायद ऐसी कोई फिल्म आई भी नहीं, जिसकी कहानी गाँव पर केंद्रित हो! 'पीपली लाइव' जरूर आई, पर उसमें किसानों के लिए बनी योजनाओं को बाबुओं और अफसरों द्वारा हड़पने का जिक्र ज्यादा था! 1980 में गोविन्द निहलानी ने गाँव पर केंद्रित फिल्म 'आक्रोश' आई थी। यह फिल्म एक लोमहर्षक सच्ची घटना पर बनी थी। कहानी लहनिया भीकू नाम के एक किसान की है, जो ज़मींदार के अत्याचारों से त्रस्त होता है। इसी दौर में डाकुओं पर भी फ़िल्में बनी उनमें भी गाँव था, अत्याचार था और डाकू बनने की एक संवेदनशील कहानी थी! 
  सर्वाधिक सफल फिल्म मानी जाने वाली रमेश सिप्पी की 'शोले' में रामगढ़ नाम के गाँव की ही कहानी थी! लेकिन, वास्तव में इस फिल्म से भी गाँव नदारद था। जो गाँव था वो डाकू गब्बर सिंह और बदले पर उतारू ठाकुर साहब के बीच कहीं गुम था। यहाँ तक कि फिल्म के गीतों में भी गाँव नहीं झलका! फिल्म में कोई लोकधुन सुनाई नहीं दी! गब्बर सिंह भी अपने अड्डे पर अरबी धुन वाला 'महबूबा ओ महबूबा' गाना सुनता है। इससे पहले जो फ़िल्में गाँव के जीवन पर बनी, उनमें एक अलग सी महक होती थी! गाँव हमारा-शहर तुम्हारा, दो बीघा जमीन, आक्रोश को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। 
    आज की कहानियों में तो काल्पनिक प्रेम और मौज मस्ती ही ज्यादा होती है। जबकि, सिनेमा का मकसद सिर्फ मनोरंजन नहीं है। सिनेमा समाज का आईना भी है। दर्शकों को सामाजिक समस्याओं और उनके निवारण की राह भी दिखाई जाना चाहिए। हमारे देश की 60 फीसदी आबादी गाँवों में रहती है। ऐसे में परदे पर गाँव का प्रतिनिधित्व घटता जा रहा है! शायद इसका एक कारण ये भी है कि हमारे गाँव भी अब बदलने लगे! वहाँ भी शहरी जीवन की चमक दिखाई देने लगी! जब हमारे गाँव ही नहीं रहेंगे, तो वहाँ की कहानियों पर फिल्म बनाने का साहस भला कौन करेगा? 
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अजीबो-गरीब दावे से परेशान होते सितारे!

- एकता शर्मा
   बॉलीवुड के किस्से भी अजीब हैं। यहाँ की हर घटना किसी फ़िल्मी कथानक सी लगती है। बाकी की घटनाएं तो छोड़िए, खुद को किसी फ़िल्मी सितारे का बेटा या बेटी बताने में भी लोग संकोच नहीं करते! चाहे साबित कुछ हो न हो, पर इस बहाने जो पब्लिसिटी मिलती है, उसकी कीमत नहीं आँकी जा सकती। कुछ दिन पहले ऐश्‍वर्या राय बच्‍चन एक ऐसे शख्‍स की वजह से सुर्खियों में हैं, जिसने खुद को उनका बेटा बताया। आंध्रप्रदेश के रहने वाले 29 वर्षीय संगीथ कुमार ने दावा किया था कि साल 1988 में ऐश्‍वर्या ने उन्‍हें आईवीएफ के जरिए लंदन में जन्‍म दिया था। मीडिया की खबरों में कहा गया था कि संगीथ कुमार नाम के इस शख्स पर पुलिस कार्रवाई करने की तैयारी हुई थी। पुलिस का कहना है कि अगर इस मामले में ऐश्वर्या बच्चन की तरफ से उनकी छवि खराब करने की शिकायत दर्ज की जाती है तो संगीथ कुमार पर कार्रवाई भी की जाएगी। 
    यह पहली बार नहीं है जब इस तरह का मामला सामने आया हो! इससे पहले अभिनेता अभिषेक बच्चन, शाहरुख खान से लेकर शाहिद कपूर तक के साथ इस तरह की घटना हो चुकी है। रवीना टंडन को भी एक सिरफिरे फैन के दावे ने मुश्किल में डाल दिया था। 2014 में इस फैन ने दावा किया था कि वो रवीना टंडन का पति है। इसने रवीना के पति अनिल थडानी की कार पर हमला भी कर दिया था। इतना ही नहीं इस फैन ने के घर पर पत्‍थर भी फैंका था। इसकी हरकतों से तंग आकर रवीना और अनिल ने पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराई थी। जब पुलिस ने उस व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई की, तो उसने कहा कि वो सिर्फ रवीना को प्रोटेक्‍ट करने की कोशिश कर रहा था। 
   जाह्नवी कपूर नाम की एक मॉडल ने साल 2007 में यह कहकर हंगामा मचा दिया था कि वो अभिषेक बच्चन की पत्नी है! उस मॉडल ने अभिषेक बच्चन के बंगले के बाहर अपने हाथ की नस तक काट ली थी। उस वक्त अभिषेक बच्चन, ऐश्वर्या राय के साथ शादी के बंधन में बंधने जा रहे थे। जाह्नवी नाम की इस मॉडल का कहना था कि वो अभिषेक और ऐश्वर्या की शादी होते हुए नहीं देख सकती। बाद में इस मॉडल को गिरफ्तार कर लिया गया था। 
  ऐसा ही किस्सा अभिनेता शाहिद कपूर के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। शाहिद कपूर के पीछे दिवंगत अभिनेता राजकुमार की बेटी वास्तविकता पंडित पड़ गई थी। ख़बरों की मानें तो वास्तविकता खुद को शाहिद कपूर की पत्नी बताती थीं और जहां भी शाहिद जाते, उनका पीछा करती। बाद में थक-हारकर शाहिद को वास्तविकता के खिलाफ शिकायत दर्ज करानी पड़ी। हालांकि, आज वास्तविकता कहाँ है, इसकी किसी को कोई खबर नहीं! शाहरुख खान भी ऐसी परेशानी का सामना कर चुके हैं। 1996 में लातूर (महाराष्‍ट्र) की एक महिला ने कोर्ट जाकर शाहरुख खान को अपना बेटा बताया था। उन्‍होंने दावा किया था कि 1960 में उन्होंने शाहरुख को खो दिया था। महिला ने दावा किया कि उन्‍होंने शाहरुख को फिल्‍म के पोस्‍टर में देखकर पहचाना! अदालत ने महिला के इस दावे को खारिज कर दिया था। 
  साउथ फिल्म इंडस्ट्री के सुपरस्टार और अभिनेता रजनीकांत के दामाद धनुष भी एक ऐसे ही मामले को लेकर परेशानी में पड़ चुके हैं। पिछले साल एक बुजुर्ग दंपति ने दावा किया था कि वो उनके बेटे हैं, जो बचपन में घर छोड़कर चला गया था. यह मामला हाईकोर्ट तक पहुंच गया था। यहाँ तक कि धनुष के डीएनए टेस्ट की नौबत आ गई थी। हालांकि, तमाम जांच व टेस्ट के बाद बुजुर्ग दंपति का दावा झूठा साबित हुआ। 
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Wednesday 7 March 2018

औरतों को लेकर कानून में अभी भी ढेर सारी खामियाँ!


महिला दिवस पर विशेष

- एकता शर्मा 

   हर सरकार महिलाओं की बराबरी, शिक्षा, सुरक्षा, रोज़गार आदि को लेकर मौखिक प्रतिबद्धताएं जताती है। लेकिन, अगर देश के कानूनों में इस प्रतिबद्धता को ढूंढा जाए तो कह पाना मुश्किल है कि असहनशीलता औरतों के दमन को लेकर है या खुद औरतों की तरफ़! जैसे कि गोआ के हिन्दुओं के लिए बनाए गए एक कानून के तहत अगर महिला 25 साल की उम्र तक माँ नहीं बनती या 30 की आयु तक उसे कोई पुत्र नहीं होता, तो उसके पति की दूसरी शादी कानूनी रूप से वैध मानी जाती है। अगर पहली पत्नी की तरफ से अलगाव की पहल की गई और अगर उसका कोई पुत्र नहीं, तो पुरुष के दूसरे विवाह को ही मान्यता दी जाती है।  
   महिला व बाल अधिकारों पर काम करनेवाली वकील कीर्ति सिंह द्वारा लिखी और अगस्त 2013 में प्रकाशित संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में इस तरह के कई अन्य कानूनों का भी जिक्र है। ये कानून औरतों के अधिकार के खिलाफ़ हैं या उनकी राह में लिए मुश्किल खडी करके बेटियों की तुलना में बेटों को बढावा देते हैं। ऐसे ही अन्य कानूनी खामियों को यहाँ प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है : 

यौनिक हिंसा के खिलाफ़ कानून 
  कानून के एक हिस्से में 'दुर्भावनापूर्ण उद्देश्य से की गई शिकायत' के लिए महिला को सज़ा का हकदार ठहराने की बात की गई है। यह बाकी पूरे कानून को कमज़ोर बनाता है। इससे महिलाएँ शिकायत करने में और भी असुरक्षित महसूस करती हैं। असंगठित श्रम में जुटी औरतों के लिए भी इसमें कोई प्रावधान नहीं। 
वैवाहिक संपत्ति पर अधिकार  
  तलाक के बाद महिला का ऐसी संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं है, जो उसके विवाहित काल के दौरान पति के नाम पर खरीदी गई हो। अपने पति से निर्वाह के लिए मिलने वाले जिन पैसों पर उसका हक है, उसे हाँसिल करने के लिए और लम्बे मुकदमों में उलझना पड़ता है, जिनमें आनेवाले खर्चों को वहन करना आसान नहीं। 2013 में महिलाओं पर किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि विवाह विच्छेद के बाद 71.4 फीसदी महिलाएँ अपने माता-पिता के घर लौट जाती हैं। जिनके बच्चे होते हैं उनमें से 85.6 फीसदी अपने बच्चों को भी पाल रही होती हैं। केवल 18.5 फीसदी महिलाएं ही खुद तलाक की माँग करती हैं। विलग और तलाकशुदा औरतों के साथ काम करती संस्थाएँ कहती आई हैं कि आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा के कारण भारत में बहुत कम ही औरतें तलाक लेने के लिए सामने आती हैं। 
विवाह और यौनिक हिंसा 
  बलात्कार संबंधी कानून में हिंसा की सीमित परिभाषाओं और उसकी दूसरी कमियाँ चर्चा का एक बड़ा विषय है। जहाँ शादीशुदा होने पर बलात्कार (पत्नी की मर्जी के विरुद्ध पति द्वारा) का मुद्दा है, तो उसके लिए कोई सक्षम कानून नहीं है। वहीं अलग हुई पत्नी का बलात्कार करने पर केवल 2 से 7 साल तक की सज़ा का ही प्रावधान है, जो बलात्कार के अधिकतम दंड से भी कम है। 
दहेज विरोधी कानून 
   अभी तक के आंकड़ों का औसत है कि हर 5 मिनट में पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा महिला से क्रूरता की जाती है। प्रति 61 मिनट में देश में किसी महिला की दहेज मामले में मृत्यु होती है और प्रत्येक 79 मिनट में दहेज निषेध कानून के तहत मामला दर्ज किया जाता था। इस कानून को इस तरह से परिभाषित किया गया है, जिससे लगता है कि लड़के वाले भी उसी तरीके से दहेज देने के लिए मजबूर और प्रताडित किए जा सकते हैं। यह स्थिति की सच्ची तस्वीर बिल्कुल नहीं। दहेज को उस धन-संपत्ति की तरह देखा गया है जिसे विवाह के सिलसिले में लिया-दिया गया हो। पर शादी के बाद के उन सभी मौकों को नज़रंदाज़ किया गया है जब लड़की के घरवालों से कई तरह की माँगें की जाती हैं। इस रिपोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि दहेज न तो महिलाओं के उत्तराधिकार हक की जगह ले सकता है और न ऐसी स्थिति वांछनीय है। दहेज केवल औरतों की आर्थिक और सामाजिक हैसियत को गौण बनाता है। 
उत्तराधिकार संबंधी कानून 
  हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत पति की मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति पर पत्नी का अधिकार बनता है। जबकि, औरतों के लिए यह अलग है। यदि उसे संपत्ति माँ या पिता से मिली है, तो उस पर हक बनता है पिता के उत्तराधिकारियों का। पति या ससुर से प्राप्त किए जाने पर पति के वारिस उस सम्पत्ति पर अपना हक समझ सकते हैं। यदि औरत की सम्पत्ति उसकी खुद की बनाई हुई है, तो उसकी मृत्यु के बाद उस पर पहला हक बनता है उसके पति और बच्चों का। इन दोनों के न होने पर ही सम्पत्ति उसकी माँ या उसके पिता के हिस्से जा सकती है।
  मुस्लिम व्यक्तिगत विधि के हिसाब से औरत को मर्द को मिलनेवाली सम्पत्ति का आधा हिस्सा मिलता है। यानि अगर बेटा और बेटी दोनों मौजूद हैं, तो बेटी को एक और बेटे को सम्पत्ति के दो हिस्से मिलते हैं। ईसाई धर्म में जन्मे जो लोग उसके परंपरागत कानूनों के तहत नहीं आते उन पर भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम लागू होता है। अगर किसी गैर-पारसी महिला ने किसी पारसी पुरुष से शादी की, तो उस पुरुष की सम्पत्ति पर पत्नी का कोई हक नहीं बनता, जबकि बच्चों को हकदार माना जाता है। पारसी महिला के गैर-पारसी पुरुष से विवाह करने पर बच्चों को पारसी नहीं माना जाता। 
लिंग जाँच निषेध कानून 
  देश में लड़कियों के जन्म का औसत लड़कों के मुकाबले लगातार घट रहा है। सख्त कानून होने के बावजूद अभी इसमें ऐसा कोई विधान नहीं जिससे एक गर्भवती महिला के नियमित परीक्षण के दौरान हो रहे अल्ट्रासाउंड के ज़रिए करवाये जा रहे लिंग जाँच को रोका जा सके। भारतीय दंड संहिता में 'गर्भपात' की सज़ा से जुड़ी कुछ धाराएं हैं, जैसे यदि कोई महिला 'स्वयं अपने गर्भ समापन के लिए ज़िम्मेदार हो', तो उसे दोषी माना जा सकता है। इसके अलावा जनसंख्या नियन्त्रण के तहत केवल दो बच्चे होने पर सरकार ने जो फायदे देने शुरु किए उसका असर भी लड़कियों की भ्रूण हत्या पर पड़ा। दो बच्चे रखने की स्थिति में लोगों ने लड़कियों की जगह लड़कों को और वरीयता देनी शुरु कर दी। 
बाल विवाह प्रतिबंध 
  बाल विवाह पर रोक होने के बाद भी कानून ने इसे अवैध नहीं ठहराया है। विवाह के लिए लड़की की आयु 18 और लड़के की उम्र 21 रखी गई है। इस अंतर को न तो कानून में समझाया गया है, और न इस फर्क की ज़रुरत थी। शादी के वक्त लड़की का 18 साल का होना ज़रुरी है। फिर भी कानूनी तौर पर 'शादी' के अन्दर अगर यौनिक संबन्ध बनाए गए हैं और लड़की कम से कम 15 साल की है, तो उसे बलात्कार नहीं माना जाएगा। 
बच्चों के संरक्षण का हक 
  संविधान संशोधन के बाद हिंदू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम के तहत शादीशुदा महिलाओं को गोद लेने का बराबर हक है। लेकिन, यह सभी धर्म-समुदाय के लिए नहीं है। पर, वे आज भी अपने बच्चों की बराबर संरक्षक की हकदार नहीं हैं। प्राकृतिक अभिभावक आज भी पिता ही है। 
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औरत के लिए बने कानून से औरत का ही शिकार!

   

  'दहेज़ उत्पीड़न कानून' ससुराल में बहू की रक्षा के लिए बनाया गया था, लेकिन वह बहू को बचाते-बचाते परिवार की अन्य औरतों को सताने लगा। दरअसल, ये न्याय की एकपक्षीय अवधारणा है। इसके तहत अंतर्गत औरत को सिर्फ बहू या पत्नी माना गया था। ये नहीं देखा गया कि वह सास, ननद, जेठानी और देवरानी भी है वे भी औरतें हैं। इस कानून से प्रचारित भी किया गया कि ये सभी औरतें सिर्फ बहुओं को सताने के लिए हैं। बहुएं भी किसी को सता सकती हैं, इसे बिल्कुल भुला दिया गया। जिसने भी इस बात को कभी उठाने की कोशिश की, उसे महिला विरोधी कहा जाने लगा। 
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- एकता शर्मा 
  सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिन पहले अपने एक फैसले में कहा था कि दहेज उत्पीड़न के मामले में ससुराल पक्ष के लोगों की गिरफ्तारी तभी की जाए, जब ऐसा करना बहुत ज्यादा जरूरी हो। जबकि, पहले ससुराल पक्ष के लोगों को शिकायत के तत्काल बाद गिरफ्तार कर लिया जाता था। 'राष्ट्रीय महिला आयोग' ने इस फैसले के खिलाफ सुधारात्मक याचिका दायर की थी। देशभर के महिला संगठनों ने भी इस फैसले का विरोध किया था। मगर कोर्ट ने अपने पहले के फैसले में किसी भी तरह का बदलाव करने से इंकार कर दिया। महिला आयोग की याचिका भी खारिज कर दी गई। दरअसल, इस कानून से औरत का ही शिकार ज्यादा होने लगा था। लगने लगा था कि सास, ननंद और जेठानी जैसे रिश्ते सिर्फ बहू पर जुल्म करने के लिए ही बने हैं।  
  दहेज उत्पीड़न विरोधी धारा 498-ए ऐसी है, जिसका नाम सुनते ही लोग दहशत में आ जाते हैं। सालों पहले सुप्रीम कोर्ट इस धारा को 'लीगल टेररिज्म' यानी 'कानूनी आतंकवाद' तक कह चुका है। क्योंकि, इस कानून के तहत बहू और उसके घर वाले जिसका नाम ले लें, उसे पकड़ लिया जाता! कई मामलों में तो ससुराल पक्ष को झूठे ही फंसाने के लिए भी ऐसे मामले गढ़े गए थे। यह भी देखने में आया कि वर पक्ष के पूरे कुनबे के नाम लिखवा दिए गए। जो लोग विदेश में रहते थे और जिनका इस मामले से कोई वास्ता नहीं था, उन्हें भी आरोपी बना दिया गया। क्योंकि, अभी तक शायद ही कोई ऐसा अध्ययन हुआ हो, जिससे पता चल सके कि दहेज उत्पीड़न कानून के जरिए वास्तव में सताई गई कितनी औरतों को न्याय मिला और कितनी निरपराध फंसाई गईं! 
 इस धारा के दुरूपयोग के बारे में 'सेव इंडियन फैमिली' नामक संस्था ने एक बार कहा था कि इस धारा में हर 21 मिनट में एक औरत गिरफ्तार हो रही है। अजीब बात ये थी कि जिस कानून को औरतों की रक्षा के लिए बनाया गया था, वही औरतों को सताने लगा। न्याय की एकपक्षीय अवधारणा अकसर ऐसा ही करती है। इस कानून के अंतर्गत औरत सिर्फ बहू थी या पत्नी! मां, बहन, चाची, ताई , बुआ, सास, ननद, जिठानी, देवरानी आदि औरतें नहीं थीं। मान लिया गया और लगातार प्रचारित भी किया गया कि ये सबकी सब औरतें सिर्फ बहुओं को सताने के लिए बनी हैं। बहुएं भी किसी को सता सकती हैं, इसे बिल्कुल भुला दिया गया। जिसने भी इस बात को कभी उठाने की कोशिश की, उसे महिला विरोधी होने का तमगा सौंप दिया गया।
 कुछ साल पहले ये जानकारी भी सामने आई थी कि बहुत से गांव ऐसे हैं, जो बाकायदा 'दहेज उत्पीड़न कानून' के नाम पर ब्लैकमेलिंग करते हैं। वहां ऐसे बहुत से संगठित गिरोह बन गए हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट देखें, तो कहा जा सकता है कि दहेज उत्पीड़न के मामले बढ़े हैं। मगर ब्यूरो थाने में की गई शिकायतों के आधार पर यह निष्कर्ष निकालता है। वह कभी उन बातों और खबरों पर ध्यान नहीं दे पाता, जिनमें कहा जाता है कि इन दिनों इस कानून के तहत की जाने वाली अधिकांश शिकायतें या तो झूठी होती हैं या बदला लेने के लिए की गई होती हैं। यह दुखद ही है कि एक कानून महिलाओं के भले के लिए बनाया गया था। मगर उसके दुरुपयोग के कारण आज उसे कमजोर किया जा रहा है। पक्ष दोनों ही मजबूत हैं। इस कानून को ढीला कर देने से दहेज़ के लिए बहू को पीड़ित करने वाले बेख़ौफ़ होंगे! उधर, ऐसे लोगों को राहत भी मिली है जो निरपराध होते हुए भी बेवजह इस कानून में फंसा दिए गए थे।  
  देश में जब 'दहेज उत्पीड़न कानून' बना था, उस समय सोचा गया था कि इससे हमारे समाज में फैला दहेज़ उत्पीड़न का रोग दूर होगा। लड़कियों और उनके माता-पिता को राहत की सांस मिलेगी। मगर ऐसा हुआ नहीं! एक तरफ शादी अपनी हैसियत दिखाने की चीज बनी और दहेज में दी जाने वाली चीजें स्टेट्स सिम्बल बनती चली गईं। दूसरी तरफ वे गरीब माता-पिता थे, जो लड़की को जैसे-तैसे पालते, पढ़ाते थे, लेकिन दहेज नहीं दे सकते थे, उनकी विपत्तियां कम नहीं हुईं। क्योंकि कानून भी उसे न्याय दे पाता है, जिसके पास उसका लाभ उठाने के संसाधन होते हैं। लेकिन, कुछ चालाक लोग, जिन्हें 498-ए की जानकारी थी, वे इसे एक तरह से लड़के वालों को सताने और उनसे वसूली करने का साधन समझने लगे। 
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