Thursday 31 May 2018

याद कीजिए, कब से परदे पर मुजरा नहीं देखा?


- एकता शर्मा

  लम्बे अरसे परदे पर जो दिखाई नहीं दिया वो है फ़िल्मी तवायफों का मुजरा! याद किया जाए तो बीते कई सालों में बॉलीवुड के दर्शकों ने किसी फिल्म में तवायफ को नहीं देखा। इसलिए कि पिछले कुछ सालों से नवाबों और मध्यकालीन भारत से जुड़ी फिल्में नहीं बनी। 'देवदास' ने जरुर तवायफ के किरदार को जरूर जिन्दा किया था, लेकिन उस बात को भी कई साल गुजर गए। इसे 'पाकीजा' में तवायफ बनी मीना कुमारी और 'उमराव जान' में तवायफ का दर्द बयान करने वाली रेखा के बाद की एक कड़ी भी माना गया। 'देवदास' की तवायफ यानी चन्द्रमुखी बनी माधुरी दीक्षित के अभिनय व सौंदर्य को देखकर कहा जा सकता है कि सिनेमा की बहुचर्चित तवायफों के किरदार में मीना कुमारी और रेखा के बाद माधुरी दीक्षित का ही नाम लिया जाएगा। 
  सिनेमा में तवायफों को हमेशा ही एक ग्लैमरस किरदार के रूप में देखा जाता रहा है। हर दौर में तवायफों को अलग-अलग नजरिए से पेश किया जाता रहा। लेकिन, जिस संजीदगी से 'पाकीजा' और 'उमराव जान' में तवायफ की जिंदगी की परतें खोली गई, वह अपने आपमें मिसाल है। यही कारण है कि इन दोनों फिल्मों को सिनेमा इतिहास की अमर कृतियां माना जाता हैं। 'पाकीजा' में मां-बेटी के किरदार को निभाने वाली मीना कुमारी और 'उमराव जान' बनी रेखा के फिल्मी जीवन की सर्वश्रेष्ठ फिल्म होने का सम्मान इन दोनों फिल्मों ने ही हांसिल किया। 
   सिनेमा के शुरूआती काल यानी ब्लैक एंड व्हाइट के समय में कई तवायफों ने ही फिल्मों में अभिनेत्री की कमी पूरी की थी। इसलिए बाद के दौर की अभिनेत्रियों द्वारा पर्दे पर तवायफ की भूमिका साकार करना कोई अहम बात नहीं थी। लेकिन, आजादी के बाद जन्म हुआ एक नए सिनेमा का, जिसमें फिल्मों से जुड़े लोगों ने न सिर्फ शोहरत और लोकप्रियता का स्वाद चखना शुरू किया। बल्कि, उनके अभिनय को सामाजिक तौर पर सम्मानित भी किया जाने लगा। लेकिन, समस्या यह थी कि कई अभिनेत्रियां परदे पर तवायफ की भूमिका निभाने से कतराती थीं। फिर भी नरगिस और मधुबाला जैसी सफल अभिनेत्रियों ने किसी भी भूमिका के साथ पक्षपात न करने की अच्छी मिसाल पेश की। 
  सही मायने में पाकीजा पहली ऐसी फिल्म थी जिसमें दर्शकों ने तवायफ के हुस्न के पीछे छुपी तड़प, प्रेम और समर्पण भाव से परिचित करवाया। इस फिल्म में निर्देशक कमाल अमरोही ने तवायफ का घृणित सामाजिक जीवन जीने को विवश औरतों की समस्याओं का समाधान खोजने का भी प्रयास किया था। फिल्म की सफलता में यदि निर्देशक की सही पकड़ , भव्य सैट और मधुर संगीत की अहम भूमिका रही तो इसमें कोई दो राय नहीं कि मीना के अभिनय का सम्मोहन भी दर्शकों को बार-बार सिनेमा घर तक खींच लाया। 
  उर्दू कथाकार रुसवा के उपन्यास 'उमराव जान' से प्रेरित होकर मुजफ्फर अली ने इसी नाम से फिल्म का निर्माण किया। फिल्म में तवायफ की भूमिका निभाने वाली रेखा ने इसके अलावा मुकद्दर का सिकंदर, प्यार की जीत, उत्सव, दीदार-ए-यार और जाल जैसी फिल्मों में भी तवायफ की भूमिका निभाई। लेकिन, उमराव जान के किरदार में रेखा के अभिनय ने जो जौहर दिखाए उस करिश्मे के फिर दोहराने में रेखा भी सफल नहीं हो सकीय। इस फिल्म के लिए रेखा को सर्वश्रष्ठ अभिनेत्री के राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। लेकिन, आज परदे की दुनिया से तवायफ हाशिए पर है। लगता नहीं कि अब कोई फिल्मकार संजय लीला भंसाली की तरह तवायफ की जिंदगी पर फिल्म बनाने का साहस कर पाएगा। क्योंकि, अब फिल्मों की कहानियाँ जिस रास्ते पर जा रही हैं, वहां किसी तवायफ का कोठा नहीं आता! 
--------------------------------------------------------------------

वेब सीरीज के जादू से सिनेमा और टीवी पीछे छूटे!

- एकता शर्मा

  अभी तक मनोरंजन के कुछ ही माध्यम मौजूद थे। दो दृश्य माध्यम सिनेमा और टीवी और एक श्रवण माध्यम यानी रेडियो! करीब तीन दशकों से यही चल रहा था। लेकिन, अब मनोरंजन के एक और माध्यम 'वेब सीरीज' ने ले लिया और बहुत कम समय में इस माध्यम ने एक पूरी पीढ़ी को इसके दायरे में ले लिया। आज युवाओं की पहली पसंद यही वेब सीरीज बन गई है। अभी चार साल भी पूरे नहीं हुए, जब वेब सीरीज जैसा प्रयोग किया गया था और ये इतना सफल रहा कि आज फिल्म और टीवी के बड़े-बड़े प्रोडक्शन हाउस भी वेब सीरीज बनाने लगे। 2014 में आई ‘परमानेंट रूममेट’ नाम की वेब सीरीज को लोगों ने पंसद किया था। ये सीरीज आज भी देखी जा रही है। इसे देखने वालों की संख्या 50 मिलियन को पार कर गई। ये सीरीज इतनी हिट हुई कि 2016 में इसका दूसरा सीजन बनाया गया। इसके बाद तो वेब सीरीज की लाइन लग गई. बेक्ड, ट्रिपलिंग, परमानेंट रूममेट सीजन-2, पिचर, बैंग बाजा बारात, ट्विस्टेड, ट्विस्टेड-2, गर्ल इन द सिटी और अलीशा जैसी तमाम सीरीज मोबाइल के परदे पर उतर आई। 
   टीवी की महारानी कही जाने वाली एकता कपूर ने तो वेब सीरीज बनाने के लिए एलएलटी-बालाजी  पूरी कंपनी ही खोल ली! विक्रम भट्ट जैसे नामी फिल्मकार भी बड़े परदे का मोह छोड़कर हथेली में समाने वाले परदे की दुनिया के लिए वेब सीरीज बनाने लगे। धीरे-धीरे और भी कई बड़े फिल्मकार इस प्रयोग से जुड़ रहे हैं। जब बड़े फिल्मकारों मोह वेब सीरीज की तरफ लगेगा तो तय है कि उतने ही बड़े कलाकार भी इससे जुड़ेंगे।       
  इसे वेब सीरीज का ही तो क्रेज माना जाना चाहिए कि राजकुमार राव ‘बोस’ नाम की वेब सीरीज के लिए अपना सर मुंडवा लेते हैं। राम गोपाल वर्मा भी अंडरवर्ल्ड की कहानियां सुनाने के लिए इसी रेस में कूदे तो पर चल नहीं सके। फरहान अख्तर और प्रोड्यूसर रितेश सिद्धवानी भी एक वेब सीरीज लेकर आने वाले हैं। 
  इतने कम समय में बेव सीरीज की लोकप्रियता का कारण है इसका कंटेंट! क्योंकि, युवा वर्ग की शिकायत रही है कि आजकल टीवी चैनल्स उनकी पसंद के कार्यक्रम नहीं बना रहे! इसके अलावा वेब सीरीज में समय की कोई पाबंदी नहीं होती! सीरीज का एक एपिसोड 10 से 22 मिनट तक का होता है और एक सीरीज में 8 से 12 तक एपिसोड होते हैं। इसमें कोई सेंसरशिप नहीं होती है. इसलिए सीरीज मेकर अपनी पूरी क्रिएटिविटी दिखा सकते हैं। सेंसर न होने से कई सीरीज में एडल्ट कंटेंट और गालियों का जमकर इस्तेमाल होता है। सबसे अच्छी बात तो ये है कि फोन में ही इसे कहीं भी बैठकर देखा जा सकता हैं। ये सीरीज टीवीएफ प्ले, नेटफ्लिक्स, हॉट स्टार और ज्यादातर यू-ट्यूब पर आराम से मिल जाती हैं। 
  आज इनका क्रेज पूरे देस युवा पीढ़ी में फैल गया है। अब ये अलग-अलग भाषाओं में भी बन रही हैं। ट्रिपलिंग, परमानेंट रूममेट, पिचर, बैंग बाजा बारात, द ट्रिप, गर्ल इन द सिटी, बेक्ड, अलीशा, हैप्पी टू बी सिंगल, नॉट फिट, लेडीज रूम, मैन्स वर्ल्ड, आइशा- ए वर्चुअल गर्लफ्रेंड, लव शॉट्स, तन्हाइयां, ट्विस्टेड सीजन जैसी वेब सीरीज हिंदी के दर्शकों में अपनी पैठ बना रही है। उधर, इंटरनेट और डिजिटल मीडिया के युग में अब बॉलीवुड के बड़े से बड़े एक्टर्स भी फिल्मी पर्दों पर सीमित न रह कर डिजिटल मीडिया का हिस्सा बनने में अपनी रूचि दिखा रहे है.
  ऋतिक रोशन भी जल्द ही वेब-सीरीज में काम करते नजर आएंगे। अमेजन प्राइम ने ऋतिक को वेब-सीरीज में काम करने का प्रस्ताव दिया है। कहा जा रहा है कि फिलहाल इस प्रोजेक्ट को लेकर बातचीत चल रही है और मेकर्स इस वेब-सीरीज की स्क्रिप्ट को और भी बेहतर बनाने के लिए काम कर रहे हैं। ऋतिक के पास करीब सितंबर या फिर अक्टूबर में ही समय होगा. उस समय ऋतिक इस वेब-सीरीज पर काम शुरू कर सकते हैं। बडे़ पर्दे और छोटे पर्दे के बाद अब बंगाली जासूस ब्योमकेश बक्शी वेब सीरीज में भी जासूसी करते नजर आए। 'सत्यन्वेशी' और 'पाथेर कांटा' नाम की दो कहानियों में ब्योमकेश की प्रतिभा नजर आएगी। ये वेब सीरीज एसवीएफ के डिजिटल प्लेटफार्म होइचोई पर आई है। 
-------------------------------------------------------------

पाकिस्तान के बिना अधूरी है फ़िल्मी देशभक्ति!


- एकता शर्मा 

  पाकिस्तान का विरोध बॉलीवुड की फिल्मों का एक प्रिय विषय रहा है। युद्धकाल में तो ऐसी फ़िल्में पसंद की ही जाती हैं, पर सामान्य परिस्थितियों में भी पाकिस्तान से जुड़ी दर्शकों की पसंद में अव्वल रही है। हाल ही में रिलीज हुई आलिया भट्ट की फिल्म 'राजी' इसकी ताजा मिसाल है। ये फिल्म 1971 के जंग के दौर में पाकिस्तान में भारत की जासूसी पर सच्ची घटना व देशभक्ति पर आधारित फिल्म है। इसमें आलिया भट्ट ने एक खुफिया एजेंट का रोल निभाया है, जो शादी करके पाकिस्तान चली जाती है और वहाँ से भारत को ख़ुफ़िया जानकारियाँ भेजती है। फिल्म में एक अच्छी प्रेम कहानी भी है। इसमें बेटी, बहू और पत्नी के अलावा आलिया ने जासूस की भी भूमिका निभाई है। 
  बॉलीवुड में भारत-पाकिस्तान के रिश्‍तों और इनकी लड़ाइयों पर कई फिल्‍में बनी हैं। चेतन आनंद ने 'हिंदुस्तान की कसम' बनाकर 1971 में हुई जंग को भुनाया था। इसमें युद्ध की बर्बरता को दिखाया गया था। 1973 में आई इस फिल्म में राज कुमार और प्रिया आनंद ने मुख्य भूमिका निभाई थी। जेपी दत्ता ने 'बॉर्डर' में भी 1971 के भारत-पाक युद्द को दिखाया था। लेकिन, इसमें फोकस राजस्थान के लोंगेवाला में हुई लड़ाई थी। निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा की 2000 में रिलीज फिल्म 'मिशन कश्मीर' में दिखाया गया था कि कश्मीर विवाद के कारण कैसे ये खूबसूरत जगह आतंक का केंद्र बन गई! ''एलओसी कारगिल' 2003 में आई थी। ये फिल्म 1999 के भारत-पाक कारगिल युद्द की कहानी थी। 2004 में आई 'लक्ष्य' फरहान अख्तर के निर्देशन में बनी थी। इसमें कारगिल युद्द को दिखाया गया था। 1999 में 'हिन्‍दुस्‍तान की कसम' एक बार फिर बनी! वीरू देवगन की इस फिल्म में अजय देवगन दोहरी भूमिका में थे। 26/11 के मुंबई आतंकी हमलों के साजिशकर्ता हाफिज सईद पर बनी फिल्म 'फैंटम' पर तो पाकिस्तान में प्रतिबंध ही लगा दिया गया था। सईद ने आरोप लगाया था कि 26/11 के हमलों के बाद की परिस्थितियों पर बनी फिल्म में उसके तथा उसके संगठन के खिलाफ कुत्सित दुष्प्रचार है। 
  इन दोनों देशों के बीच युद्ध और आतंकवाद के अलावा भी कई ऐसे विषय हैं जो पाकिस्तान से जुड़कर हिंदी फिल्मों की कहानी बने! यशराज की फिल्म 'चक दे इंडिया' भी एक ऐसी ही फिल्म थी, जो महिला हॉकी पर केंद्रित थी लेकिन इसमें भी पाकिस्तान का तड़का लगा था। सलमान खान की फिल्म 'बजरंगी भाईजान' में पाकिस्तान का विरोध कहीं नहीं था, पर ये पूरी कहानी पाकिस्तान को जोड़कर ही लिखी गई थी। 2001 में आई 'ग़दर' फिल्म की कहानी तो पूरी तरह पाकिस्तान में घुसकर अपनी पत्नी को उठाकर लाने वाले हीरो की थी। पार्टीशन पर केंद्रित सनी देओल की इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 70 करोड़ से ज्यादा का अच्छा खासा कलेक्शन किया था। सलमान खान की 'टाइगर' और उसका सीक्वल 'टाइगर जिंदा है' दोनों ही फ़िल्में पाकिस्तान और भारत के दो जासूसों के बीच पनपी प्रेम कहानी है। कैटरीना कैफ और सलमान खान अभिनीत इस फिल्म में कहीं देशभक्ति या पाकिस्तान विरोध नहीं है। इस विषय पर इतनी ही फ़िल्में नहीं बनी, ये एक लम्बी फेहरिस्त है।     
------------------------------------------------------------------------

महँगी हो गई फिल्मों की हीरोइनें!


- एकता शर्मा 

  अब फ़िल्में सिर्फ हीरो की वजह से नहीं चलती। किसी भी फिल्म की सफलता में हीरोइन का भी बड़ा योगदान  होता है। इस बदलाव का सबसे ज्यादा असर यह भी हुआ कि स्टार हैसियत मिलने से हीरोइनों को भी अच्छा खासा मेहनताना मिलने लगा। इसका ताजा उदहारण 'पद्मावत' है जिसके लिए दीपिका पादुकोण ने सबसे ज्यादा मेहनताना लिया है। फिल्म में रणबीर सिंह और शाहिद कपूर जैसे हीरो थे, पर अपने अभिनय की ज्यादा कीमत दीपिका ने वसूली।   है। इससे पहले ‘रोबोट’ के लिए ऐश्वर्य राय और ‘हीरोइन’ के लिए करीना कपूर को हीरो बराबर पैसे मिले थे। कहा जा सकता है कि आज की हीरोइनें अब मेहनताने के लिए भाव-ताव करने की स्थिति में आ गई हैं। 

   हीरो को पूजने, उसे सम्मान व मेहनताना देने की परंपरा का आमतौर पर फिल्म इंडस्ट्री में बरसों से पालन होता आया है। कुश्ती के किंग दारासिंह को जब पहली बार फिल्म में लिया गया, तो उन्हें ठीक से हिंदी बोलना भी नहीं आता था। अभिनय में तो वे हमेशा ही जीरो रहे! लेकिन, वे फिल्म के हीरो थे इसलिए उन्हें तीन लाख रूपए दिए गए और ज्यादा अनुभवी व एक्टिंग की समझ रखने वाली मुमताज के हिस्से में आए सवा दो लाख! नायिका प्रधान फिल्में वैसे भी कम ही बनती हैं, फिर भी फिल्मों में हीरोइनों की हैसियत पहले से ज्यादा बढ़ी है। 50 और 60 के दशक में जरूर हीरोइनों नेअपनी पहचान और हैसियत बनाई थी। उस दौर में नायिका प्रधान फिल्में ज्यादा बनती थी और उनकी कहानियों में हीरोइन को ज्यादा महत्व भी दिया जाता था। लेकिन, यह दौर ज्यादा नहीं चला और उस जमाने की कुछ हीरोइनों पर ही केंद्रीय रहा।  
  पिछले कुछ सालों में फिर हीरो प्रदान फिल्मों का दौर आया और पुरानी मानसिकता के चलते सलमान खान, शाहरुख खान, अमिर खान, अक्षय कुमार, ऋतिक रोशन, अजय देवगन को ही ज्यादा वाह-वाही मिली। लेकिन, अब हीरोइनों ने भी भी इसमें सेंध लगानी शुरू कर दी है। स्टार का जो दर्जा आमतौर पर हीरो के लिए आरक्षित माना जाता था, अब हीरोइनें भी उसमें दखल देने लगी हैं। इसी से उनकी हैसियत और मेहनताना भी तय होने लगा है। 
  आज की स्थितियों को देखकर भले ही यह आश्चर्य न लगे! लेकिन, पिछले आठ साल में विद्या बालन, दीपिका पादुकोण ने अपनी इमेज में काफी सुधर किया है। 'बाजीराव मस्तानी' और 'पद्मावत' में दीपिका ने अपने अभिनय से चार चाँद तो लगाए ही, ये संदेश भी दे दिया कि वे किसी हीरो से काम। यही स्थिति विद्या बालन की है, जिसने पहले परिणीता, भूल भुलैया, कहानी के बाद 'डर्टी पिक्चर्स' में अपनी दमदार मौजूदगी दिखाई थी। हिंदी फिल्मों में काम करने के बाद भी हिंदी बोलने से परहेज करने वाली कैटरीना कैफ की फिल्मों ने उन्हें भी करीना कपूर के बराबर लाकर खड़ा दिया। आज कैटरीना की फीस भी करीना से कम नहीं हैं। है। 
----------------------------------------------------------------

साहित्य. सिनेमा और बॉक्स ऑफिस


- एकता शर्मा 

   हिंदी सिनेमा की अपनी दुनिया है। यहाँ समय के साथ कहानियों का ट्रेंड भी बदलता रहता है। कहानियों के बगैर फ़िल्में नहीं बन सकती! पर, जरुरी नहीं कि वे नामचीन कथाकारों या उपन्यासकारों ने लिखी हो! तो फिर सवाल उठता है कि जब फ़िल्मी कहानियां लिखने वाली गंभीर साहित्यिक व्यक्ति नहीं होते तो फिर उनपर करोड़ों के फिल्मकार दांव कैसे लगा देते हैं। सवाल लाख टके का है, पर ये जान लेना भी जरुरी है कि फिल्मों की कहानी लिखने वाले और साहित्यकारों में फर्क है। फ़िल्मी कहानियां दर्शकों की पसंद को ध्यान में रखते हुए गढ़ी जाती है, जबकि गंभीर साहित्यकार बिकाऊ कथा नहीं लिखता! बल्कि, जो लिखता है वो उसके नाम से बिक जाता है।    
  साहित्य और सिनेमा पर बरसों से बहस चल रही है। मुद्दा ये है कि बड़े कथाकार फिल्मों में सफल क्यों नहीं हो पाते? साहित्य जगत में जिनकी रचनाओं को पसंद किया जाता है, उनपर बनी फ़िल्में फ्लॉप क्यों हो जाती है? लोगों को इन लेखकों की लिखी कहानियाँ और उपन्यास तो पसंद आते हैं, पर उन्हीं कहानियों पर जब फिल्म बनती है तो उसे दर्शक नहीं मिलते!  फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी 'मारे गए गुलफाम' पर 'तीसरी कसम' बनी और फ्लाप रहीं।  प्रेमचंद की तीन कहानियों पर फिल्में बनी, लेकिन वे भी सफल नहीं हो सकीं। सत्यजित राय की पहली हिंदी फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' जरूर सफल रही, जो प्रेमचंद  कहानी पर आधारित थी।
   'तीसरी कसम' को भले ही श्रेष्ठ फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। लेकिन, ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह असफल हुई थी, जिसके कर्ज के बोझ तले निर्माता शैलेंद्र की तनाव में मौत हो गई! कई प्रशंसित कहानियाँ लिख चुके कहानीकार राजेंद्र सिंह बेदी की किताब 'एक चादर मैली सी' पर भी जब फिल्म बनी तो उसे दर्शकों ने नकार दिया। चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी 'उसने कहा था' पर बनी फिल्म भी नहीं चली! आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास परबीआर चोपड़ा ने 'धर्मपुत्र' बनाई जो नहीं चली!  
  सत्तर के दशक में जरूर बांग्ला साहित्य पर कुछ फ़िल्में बनी जो चली भी! बासु चटर्जी बांग्ला भाषी थे लेकिन उन्होंने राजेंद्र यादव के उपन्यास 'सारा आकाश' पर फिल्म बनाई जो नहीं चली! लेकिन, मन्नू भंडारी की कहानी 'यही सच' पर 'रजनीगंधा' बनाई तो वह सफल हुई। हिंदी साहित्यकारों का फिल्मों में असर 70 के दशक में ही ज्यादा नजर आया। इस दौर को लाने का श्रेय कथाकार कमलेश्वर को दिया जाना चाहिए। उपेंद्रनाथ अश्क और अमृतलाल नागर के बाद कमलेश्वर ही वह साहित्यकार थे, जिन्होंने सिनेमा की भाषा और दर्शकों की मानसिकता को समझा। बड़े टेलीविजन सीरियल के बाद वे फिल्मों में भी लंबे समय तक टिके रहे। 
  गुलजार ने कमलेश्वर की कथा पर जब 'आंधी' और 'मौसम' बनाई तो देखने वालों का ट्रेंड ही बदल गया। इसके लिए गुलजार भी जिन्हें श्रेय दिया जा सकता है। उन्होंने कहानी की संवेदना को गहराई से समझा और दोनों फिल्मों की पटकथा, संवाद और गीत खुद ही लिखे। कमलेश्वर के उपन्यास 'एक सड़क सत्तावन गलियाँ' और 'डाक बांग्ला' पर क्रमशः 'बदनाम बस्ती' (1971) और 'डाक बांग्ला' (1974) बनीं लेकिन सफल नहीं हो सकीं।  लेकिन,अब हिंदी फिल्मों का परिदृश्य बदल गया है। हर तरह की फिल्में बन रही हैं। छोटे बजट की रोचक विषयों वाली फिल्मों का बाजार आकार लेने लगा है। अभी बायोपिक फिल्में बनाने पर ज्यादा ध्यान है। आश्चर्य नहीं कि भविष्य में हिंदी साहित्य को लेकर फिल्मों में कुछ नए प्रयोग होने लगें! 
------------------------------------------------------

छोटे परदे पर अंधविश्वास का उजास क्यों?

- एकता शर्मा

  टेलीविजन के सीरियल सिर्फ घरेलू मनोरंजन ही नहीं होते! ये दर्शकों के जीवन पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। दर्शक यदि धार्मिक सीरियल देखकर धर्म के प्रति आस्थावान होते हैं, तो भूत-प्रेत के सीरियलों से भी तो उनके दिमाग पर असर विपरीत असर होता होगा! 80 और 90 के दशक में जब रामानंद सागर और बीआर चोपड़ा ने 'रामायण' और 'महाभारत' जैसे सीरियल बनाए थे, तब धर्म के प्रति दर्शकों में उत्साह और श्रद्धा जागी थी! इसके बाद भी कई धार्मिक सीरियल बने, पर आस्था का वो ज्वार सामने नहीं आया! यही तथ्य बताता है कि टीवी पर दिखाए जाने वाले सीरियलों का दर्शकों के जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। उस दशक में दर्शकों ने इन सीरियलों से धर्म के बारे में बहुत कुछ सीखा था। इसके अलावा इस दौर में नीम का पेड़, बुनियाद, हम लोग, मालगुड़ी डेज, अलिफ़ लैला, स्वाभिमान, देख़ भाई देख़, तू-तू मैं-मैं जैसे कई सीरियल आए। 
    सूचना की क्रांति और नई टेक्नालॉजी कारण आज लोगों के हाथ में पूरी दुनिया है। इसके बाद भी टीवी के छोटे परदे पर भूत-प्रेत, जादू-टोने, नाग-नागिन और सुपरनेचुरल कहानियों की संख्या बढ़ती जा रही है। आश्चर्य की बात है कि ऐसे सीरियल को दर्शक पसंद भी कर रहे हैं। लगभग हर चैनल पर मनगढंत भुतहा कहानियां दिखाई जा रही है। एक वक़्त था जब छोटे पर्दे पर सीरियल के किरदारों की प्लास्टिक सर्जरी दिखाकर उनका चेहरा बदल दिया जाता था। जबकि, अब ट्रेंड है भूत-प्रेत और अंधविश्वास का, जो किसी न किसी रूप में हर सीरियल में दिखाई देने लगा है। इसमें नाग-नागिन से जुड़े सीरियल का चलन सबसे अधिक बढ़ा है। 'नागिन' जैसे सीरियल को लोगों ने काफी पसंद किया। इसका सीक्वल भी आ गया और अब तीसरा भाग आने की तैयारी है।     भूत-प्रेत, चुड़ैल, जादू-टोने और सुपरनेचुरल ताकतों से जुड़े सीरियलों की भी भरमार है। जबरन दर्शकों को ऐसे सीरियल परोसे जा रहे हैं, जिनका सच्चाई से कोई वास्ता नहीं होता। ऐसे सीरियल निश्चित रूप से लोगों ने मन में एक भ्रम और डर पैदा करने का काम कर रहे हैं। यदि इनको गंभीरता से लेकर समाधान नहीं निकाला गया, तो भविष्य के लिए नुकसानदायक साबित होगा।
  कुछ चैनल तो भूत-प्रेत और अंधविश्वास की हदें पार कर चुके है। यहाँ तक कि ‘भाभीजी घर पर हैं’ जैसा कॉमेडी सीरियल भी ‘चुड़ैल’ के ट्रेंड को भुनाने में पीछे नहीं रहा और दो एपिसोड चुड़ैल की कहानी के लिए झोंक दिए। सीरियल के अंत में बकायदा ‘चुड़ैल’ को सर्वमान्य ग्लैमरस खलनायिका स्थापित किया गया। एक सीरियल ‘ससुराल सिमर का’ में तो इतनी ‘डायनों’ की एंट्री हुई है कि दर्शक गिनती भी भूल गए। 
  क्या इस तरह के सीरियल बनाने वाले इससे बेखबर हैं कि भूत-प्रेत की कहानियों और नाग-नागिन की दुश्मनी से जुड़े किसी भी शो का असर सामाजिक यथास्थिति और जड़ता को कायम रखना है? रोज सुबह जब टीवी पर कोई ज्योतिषी दर्शकों का भविष्य बांचता दिखाई देता है! राशि के हिसाब से काल्पनिक लाभ-हानि परोसता है, तो ये सिर्फ टीवी शो या मनोरंजन ही नहीं होता। ये लाखों लोगों की आस्था का शोषण करके अंधविश्वासों के अंधकार में बनाए रखने की एक करतूत है।
---------------------------------------------------------------