Tuesday 17 December 2019

मीडिया का एकतरफा संवाद का दौर अब ख़त्म!

पारम्परिक मीडिया 
बनाम नया मीडिया

  बदलाव प्रकृति का नियम है और इससे कभी कोई अछूता नहीं रहा! व्यक्ति के स्वभाव, आसपास के परिवेश के साथ-साथ सूचना पाने का स्रोत भी बदला है। पहले जहां अखबार और रेडियो ही सूचनाओं के स्रोत थे, वहीं इसमें समय के साथ टेलीविजन भी जुड़ा। जब यह नया माध्यम मीडिया से जुड़ा तो कई लोगों का कहना था कि समाचार और सूचना का यह माध्‍यम बेहद सशक्‍त है! ये अखबार एवं रेडियो को काफी पीछे छोड़ देगा! लेकिन, ऐसा नहीं हुआ। नए अखबारों के आने के साथ पुराने अखबारों के भी नए संस्‍करण निकले! इस कड़ी में वेब पत्रकारिता जुड़ गई, जो सबसे नए कलेवर का मीडिया है। इसका सबसे सशक्त पक्ष है कि यह सबके एंड्राइड मोबाइल में उपलब्ध है। इस मीडिया ने अख़बारों का एकतरफा संवाद का बंधन भी ख़त्म कर दिया। अब पाठक ख़बरों पर अपनी प्रतिक्रिया दे सकता है, जो अभी तक संभव नहीं था। 
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- एकता शर्मा

   नए ज़माने की पत्रकारिता और पारंपरिक पत्रकारिता की शैली में जमीन-आसमान का अंतर है। पुरानी शैली की पत्रकारिता में एक तरफा संवाद होता था। उसमे भी विलम्ब होता था। किसी रपट के लिखे जाने और उसके पाठक तक पहुँचने में अमूमन 12 घंटे का समय लगता था। फिर, रपट को पढ़कर, सुनकर या देखकर पाठक के मन में कई सारे सवाल खड़े होना स्वाभाविक है। वह अपनी जिज्ञासाओं का जवाब जानने को व्याकुल रहता था। सवाल पूछने को लेकर भी वो आतुर होता था! मगर, उसके पास कोई जरिया नहीं होता था। उसके सवाल अनुत्तरित रह जाते थे। आज वह जमाना नहीं है। अब संवाद दो-तरफ़ा होता है। पाठक कोई रचना या कोई रपट या कोई अदना सा विचार जब वेब पर पढ़ते हैं, तो तत्काल अपनी टिप्पणी के माध्यम से सवाल दाग सकते हैं। पसंद न आए तो लिखी सामग्री की बखिया उधेड़ सकते हैं! लिखने वाला पाठकों के सवालों के जवाब भी दे सकता है। विचारों को प्रकट करने का इससे बेहतरीन माध्यम शायद कोई दूसरा नहीं हो सकता।
    ये भी सही है कि पारंपरिक पत्रकारिता में लचीलापन नहीं था। यदि पत्र-पत्रिका माध्यम है, तो उसमें चलचित्र व दृश्य श्रव्य माध्यम का अभाव होता है। रेडियो में सिर्फ श्रव्य माध्यम होता है व क्षणिक होता है तो टीवी में दृश्य-श्रव्य माध्यम होता है। लेकिन, इसमें पठन सामग्री नहीं होती। यह भी क्षणभंगुर होता है। किसी खबर का कोई अंश उसके चलते रहने तक ही जिंदा रहता है, उसके बाद वह दफ़न हो जाता है! देखा जाए तो वेब की दुनिया में हिंदी पत्रकारिता अपने शैशव काल से गुजर रही है। इसके बावजूद बहुत कम समय में सायबर जगत में समाचारों व विचारों में हिंदी का प्रयोग तेजी से बढ़ता दिखाई दिया! वास्तव में ये अंग्रेजी की बेडि़यां तोड़ने का फरमान जैसा प्रतीत होता है। इसके बावजूद हिंदी का व्‍यापक इस्‍तेमाल सूझबूझ व सहजता के साथ करना होगा, ताकि हमारी मातृभाषा केवल मात्र भाषा बनकर न रह जाए। अभी तक हमारे पास सूचना के तीन माध्यम थे प्रिंट मीडिया, रेड़ियो और टेलीविजन! परन्तु अब कलम विहीन पत्रकारिता के रुप में साइबर जर्नलिजम     का सूत्रपात हुआ। जिस समाचार के लिए कुछ समय पहले तक घंटों इंतजार करना पड़ता था, वह अब पल    भर में हमारे दृश्य पटल पर होता है। इसे विस्तार से पढ़ा भी जा सकता है और संग्रहित भी किया जा सकता    है।  महत्वपूर्ण राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय समाचार पत्रों के इंटरनेट संस्करणों ने एक नई ई-जर्नलिज्म की    शुरूआत की है।
 
    अखबार में जहां हम समाचार पढ़ते हैं, वहीं इलेक्‍ट्रॉनिक और रेडियो माध्‍यम में उन्‍हें सुनते हैं। जबकि, वेब में समाचारों को देखा जाता है। पढ़ने, सुनने और देखने की अलग-अलग विशेषताओं की वजह से यहां काम में आने वाले शब्‍दों का चयन भी इसी के अनुरुप करना पड़ता है। तीनों माध्‍यमों के शब्‍दों को एक-दूसरे में काम में लेने से इसका वास्‍तविक आनंद कम हो जाता है। इस समय वेब में जो कुछ लिखा जा रहा है, उसमें लेखक जो लिख रहे हैं या फिर जो समाचार आ रहे हैं वे जस के तस जा रहे हैं। वेब पत्रकारिता के लिए जरुरी देखने वाले शब्‍दों को गढ़ने का कार्य अभी शुरू नहीं हुआ है। एक अहम बात देखें तो वेब पत्रकारिता में आने वाले पूर्णकालिक पत्रकारों की संख्‍या प्रिंट और इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम की तुलना में काफी कम है। प्रिंट और इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम में काम कर रहे पत्रकारों का ही वेब पत्रकारिता में अधिक योगदान है। इन्‍हीं माध्‍यमों के पत्रकार समय-समय पर स्‍टोरी और लेख से वेब पत्रकारिता को आगे बढ़ाने में योगदान दे रहे हैं।
  सूचना प्रौद्योगिकी और आधुनिक संचार क्रांति के इस युग में यदि हम यह स्वीकार लें कि देश की एक सम्पर्क भाषा जरुरी है, तो वह केवल हिन्दी ही हो सकती है। इसलिए कि हिन्दी ही वह भाषा है जो हर उस चुनौती का सामना करने में समर्थ है, जो उसके सामने खड़ी होगी। इंटरनेट ही ऐसा मंच है, जहां से हम अपनी मातृभाषा को अंतर्राष्ट्रीय पटल पर चमका सकते हैं। फिलहाल हिंदी के करीब 2500 दैनिक तथा 10000 के आसपास साप्ताहिक समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे हैं! परन्तु, इनमें से दो दर्जन के भी इंटरनेट संस्करण नहीं है। विडम्बना है कि इनमें से अधिकतर समाचार पत्रों की वेबसाइटों पर अखबारों की खबर ही ज्यों की त्यों परोसी जाती है। इन वेबसाइटों में समाचारों को अपडेट करने वाले वेब पोर्टलों की संख्या न के बराबर है। सीधा कारण यह है कि इन वेबसाइटों को विज्ञापन के रूप मे मिलने वाली कमाई बहुत कम है। बाज़ारवाद व प्रतिस्‍पर्धा की दौड़ में धन के बिना इंटरनेट पोर्टल को समय के साथ चलाना काफी कठिन है। समाचार पोर्टलों पर समाचार पढ़ने के साथ-साथ कुछ अंतर्राष्ट्रीय समाचार संगठनों ने हिन्दी मे समाचार सुनाने की सुविधा भी प्रदान की है।
   एक सूचना को विश्व के कोने कोने मे पहुंचाने के लिए एक संदेश एक भाषा से दूसरी, दूसरी से तीसरी और तीसरी से चौथी भाषा की गोद में कूदता हुआ विश्व के सभी उन्नत भाषाओं की गोदे मे खेलने लगा है। इंटरनेट पत्रकारिता ने करीब दस साल पहले हमारे देश में दस्तक दी थी। कुछ समय पहले तक जहां हमें अपनी समाचार पढ़ने संबंधी जरूरतों की पूर्ति के लिए समाचार पत्र, समाचार सुनने के लिए रेडियो तथा समाचार देखने के लिए टेलीविजन पर निर्भर रहना पडता था। वहीं, अब समाचार पढ़ने, सुनने व देखने का एक स्थान इंटरनेट समाचार पोर्टल के रूप में विकसित हो चुका है। वेब पत्रकारिता पर काफी लम्बे समय तक अंग्रेजी भाषा का कब्ज़ा रहा है। लेकिन, पांच-छह सालों से हिन्दी का प्रयोग समाचार पोर्टल के रूप में बढ़ने लगा है। ताजा समाचारों से लैस वेबसाइटों ने समाचारों की रुपरेखा को नया आयाम प्रदान किया है।
  आज मीडिया का सबसे तेजी से विकसित होने वाला माध्यम वेब पत्रकारिता बन गया है। इसमें वेब पत्र, जर्नल, ब्लॉग और पत्रिकाओं का जाल सा बिछ गया है। छोटे-बड़े हर शहर और यहाँ तक कि गाँव में भी वेब पत्रकारिता पहुँच गई! मीडिया के पूरे बाजार की नजर भी आज हिंदी की वेब पत्रकारिता पर है। ख़ास बात ये कि यूरोप के लोग सही खबरों के लिए न्यूज़ चैनलों और अख़बारों से कहीं ज्यादा वेबसाइट्स पर भरोसा करते है। क्योंकि, आप न सिर्फ दूसरो की विचारधारा से परिचित होते हैं, बल्कि उस पर अपनी प्रतिक्रिया भी दे सकते हैं। ये सही भी है कि ख़बरों के वेब पोर्टल्स हमेशा अपडेट होते हैं, इसलिए उन पर ताजा और सही ख़बरें पढ़ने को मिलती है।
  पत्रकारिता की अब कोई भौगोलिक सीमा नहीं बची। यह दुनिया के हर कोने में आसानी से उपलब्ध हो जाती है। यही इसकी सबसे बड़ी ताकत है। इसमें हर पल कुछ नया जुड़ रहा है। अनेक पत्रिकाएं हैं, जो एक स्तरीय सामग्री संयोजित कर पाठकों तक ला रहीं है। हिंदी में सामग्री की संख्या और स्तर का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है। यह माध्यम हिन्दी साहित्य में भी नई शक्ति का भी संचार कर रहा है। क्योंकि, आज भागमभाग की दुनिया में किसी के पास इतना समय नहीं है, कि वह अपनी पसंद की पत्रिकाएं ढूंढे और खरीदें। वास्तव में तेजी से बदलती दुनिया, बदलते शहरीकरण और जड़ों से उखड़ते लोगों ने ही इंटरनेट को लोकप्रिय किया है। कभी किताबें, अखबार और पत्रिकाएं दोस्त हुआ करते थे। आज आपका सबसे अच्छा दोस्त इंटरनेट है! क्योंकि, यह दोतरफा संवाद का माध्यम जो है। प्रसारित सामग्री पर तत्काल प्रतिक्रिया ने इसे सबसे ज्यादा लोकप्रिय बनाया। पढ़ने वाले के लिए इंटरनेट पर सब कुछ मुहैया है। देश में साहित्यिक पत्रिकाओं का संचालन बहुत कठिन और श्रम साध्य काम है। ऐसे में वेब पर पत्रिका का प्रकाशन तकनीकी दक्षता और सीमित संसाधनों में भी किया जा सकता है। ख़ास बात ये कि वेब पत्रिका का भविष्य उसकी गुणवत्ता वाली पठनीय सामग्री पर अधिक निर्भर है न कि उसकी विपणन रणनीति पर। जबकि, अखबार और पत्रिकाएं अपनी सरकुलेशन पॉलिसी और प्रबंधन के दम पर ही जीवित रहने के लिए मजबूर हैं।
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Sunday 15 December 2019

पिता ने बेटी का यौन शोषण किया, माँ अंजान बन गई!

- एकता शर्मा

   ये कहानी दो ऐसी बच्चियों की है, जिनका शोषण उनके घर में ही उनके पिता ने किया। बड़ी बेटी तो पिता की हवस का शिकार बन गई, पर छोटी पर भी उसकी नीयत ख़राब होने लगी थी! यदि बाल कल्याण समिति मध्यस्त बनकर बच्चियों को नहीं बचाती, तो हो सकता है कोई बड़ी घटना घट जाती! ख़ास बात ये कि हादसा होने के बाद भी किसी को पता नहीं चलता और बच्चियाँ शोषित होती रहती!  धार के भोज अस्पताल परिसर में दो बहनें 12 साल की शांति और 8 साल की शोभा निराश्रित स्थिति में कचरा बीन रही थी। इन दोनों बहनों देखकर लोगों को अहसास हुआ कि बात कुछ संदिग्ध है। उनसे बात की गई, तो वे ठीक से जवाब नहीं दे सकीं।
   इस बीच किसी ने बाल कल्याण समिति के एक सदस्य को इस बात की सूचना दी। जानकारी मिलने पर बाल कल्याण समिति के सदस्य आए और दोनों बहनों को अपने साथ ले गए। उनसे उनके परिवार और माता-पिता के बारे में पूरी जानकारी ली। समिति के सदस्यों ने विचार-विमर्श करके दोनों बहनों को घर भेजने की कोशिश की। लेकिन, जब उन्हें घर भेजने की बात आई, तो बड़ी बच्ची शांति रोने लगी! उसने घर जाने से साफ़ इंकार किया और अजीब से डर से सहम गई! बाल कल्याण समिति के सदस्यों के लिए यह स्थिति अप्रत्याशित थी! क्योंकि, ऐसे बच्चे घर जाने से कभी इंकार नहीं करते! लेकिन, बड़ी बच्ची को देखकर लगा कि वो किसी भी परिस्थिति में घर नहीं जाएगी!  
  उसकी इस हालत को देखकर बाल कल्याण समिति ने उसे काउंसलर के पास भेजा। काउंसलर ने सारे हालात को समझा और बच्ची को समझाया! उससे उसकी घबराहट का कारण पूछा और सच्चाई जानना चाहा! बड़ी मुश्किल से बताया कि उनका पिता उनसे सड़क पर कचरा और पन्नी बिनवाने का काम करवाता है। मना करने पर मारपीट करता है और मां से भी शराब पीकर मारपीट कर करता है। इस कारण माँ कुछ दिनों से सबको छोड़कर मायके चली गई। शांति ने बताया कि जब मां नहीं होती, तो उनका पिता उसके साथ जबरदस्ती करता है। उसने उसके साथ कई बार दुष्कर्म किया है। पिता की इस हरकत से उसे असहनीय पीड़ा होती है, इस कारण वह घर जाना नहीं चाहती! उसने बताया पिता उसके साथ लगभग 3 महीनों से यही कृत्य कर रहा है।
   काउंसलर बाल कल्याण समिति को जानकारी दी कि दोनों बच्चियाँ बहुत डरी और सहमी हुई थी। बड़ी बच्ची की उम्र रिकॉर्ड पर 12 साल है, किंतु प्रत्यक्ष बात करने पर उसकी उम्र 10 वर्ष के करीब लगती है। वह इतनी सहमी हुई थी, कि सामान्य तौर पर किसी पर विश्वास नहीं कर पा रही थी। मुझे भी यह बात बताने में भी उसने 3 दिन का समय लिया। बहुत मुश्किल से शांति ने काउंसलर पर विश्वास किया और सारी बातें बताई। इसके बाद काउंसलर ने मामला किशोर न्याय बोर्ड के पीठासीन अधिकारी को बताया। उनके द्वारा शिकायत करने पर शांति के पिता के विरुद्ध मामला दर्ज हुआ। न्यायालय में शांति के बयान हो चुके हैं। 
  इस केस की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि न्यायालय में शांति की माँ के बयान होने पर जब उसे बताया कि उसके पति ने अबोध बेटी से दुष्कर्म किया है, तो उसने भी पति के पक्ष में बयान देते हुए मामले की जानकारी नहीं होना बताया। इसके बाद न्यायालय ने सुरक्षा की दृष्टि से दोनों बच्चियों को इंदौर के बाल आश्रय गृह में रखने का आदेश दिया है। फिलहाल शांति और शोभा दोनों इंदौर के छावनी स्थित बाल आश्रय गृह में रह रही हैं और खुश हैं। छोटी बच्ची अभी किसी भी स्थिति को समझने में सक्षम नहीं है, किंतु बड़ी वाली शांति अपनी उम्र से पहले ही बहुत बड़ी हो गई! लेकिन, सामान्य स्थिति में आने में अभी उसे समय लगेगा। बाल आश्रय गृह के संचालकों का कहना है कि शांति पढ़ाई में बहुत तेज है और बहुत जल्द ही अपनी सामान्य जिंदगी जीने लगेगी!
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कुपोषित आदिवासी बच्चों के लिए सरकार की अधूरी तैयारी!

- एकता शर्मा

   मध्यप्रदेश के तीन प्रमुख आदिवासी क्षेत्रों धार, झाबुआ और आलीराजपुर आलीराजपुर में बाल कुपोषण ऐसा कलंक बन गया है, जिसे मिटाने के लिए जितना सरकारी प्रयास हो रहा है वह उतना ही बढ़ रहा है। प्रदेश सरकार ने महिला एवं बाल विकास विभाग को 2209 करोड़ 49 लाख रुपए का बजट मुहैया जाता है। लेकिन, इन पिछड़े जिलों में जिस तेजी से कुपोषण फैल रहा है, उससे सरकार के सारे प्रयास बेमानी साबित हो रहे हैं। सरकार के तमाम प्रयासों के बाद भी आदिवासियों, दलितों और समाज के अन्य वंचित समुदाय में नवजात शिशुओं से लेकर पांच वर्ष तक की आयु के 60% बच्चे कुपोषण की समस्या से ग्रस्त होने के कारण कमज़ोर और बीमार हैं। इनमें से कई बच्चों की असमय मौत हो जाती है।  
   सरकारी रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल जिले में कुपोषण की स्थिति सबसे ज्यादा चिंताजनक है। इनमें झाबुआ, आलीराजपुर, और धार जिलों में अतिकुपोषित बच्चों की संख्या 7% से 15% तक रही। इन ताजे परिणामों से भी साबित होता है, कि मध्यप्रदेश में बच्चों में कुपोषण की स्थिति काफी खतरनाक स्थिति में हैं। इस मामले को लेकर प्रदेश सरकार और प्रशासनिक अमला कितना गंभीर है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रदेश में 'समेकित बाल विकास सेवाओं' के लिए पूरे राज्य में जहाँ 1 लाख 46 हजार आंगनबाड़ी केंद्रों की जरूरत है, वहां राज्य में केवल 70 हजार आंगनबाड़ी केंद्र ही संचालित हो रहे हैं। जो कि राज्य के 76% बच्चों को ही अपनी सेवाएं दे पा रही हैं, जबकि एक चौथाई बच्चे अभी भी बाल कल्याण सेवाओं से पूरी तरह से वंचित हैं। प्रदेश की केवल 13 हजार आदिवासी बस्तियों में 'समेकित बाल विकास सेवा' का लाभ पहुंच रहा है, लेकिन करीब 4200 आदिवासी बस्तियां इस सेवा से आज भी वंचित हैं।
   आदिवासी इलाकों में वहां के रहवासियों के लिए चलाई जा रही अधिकांश योजनाएं अपेक्षा के अनुरूप परिणाम नहीं दे पा रही! जबकि, शासकीय दस्तावेज में आदिवासी समुदाय के पोषण के नाम पर जो बडी धनराशि खर्च करना बताया जा रहा है! लेकिन, इसकी हकीकत आदिवासी बहुल गाँवो में देखी जा सकती है। आदिवासी समुदाय में बच्चों के पोषण की स्थिति जितनी सोचनीय है, वो भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है। इसके अलावा दलित और वंचित समाज में भी हालत चिंताजनक ही कही जाएगी। जगंल में रहने वाले आदिवासी और शहरों में बसे दलित और वंचित लोग अपने बच्चों का ठीक से पेट भी नहीं भर पा रहे, तो वो उन्हें पोषण आहार कैसे देंगे, ये सोचा जा सकता है। ये लोग जीवन यापन के लिए जिस तरह की विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष कर रहे हैं, उनमे सबसे ज्यादा ख़राब स्थिति खाद्यान्न को लेकर है! केंद्र सरकार ने 'खाद्यान्न सुरक्षा कानून' लागू किया है, पर उसका भी समुचित लाभ समाज के इस वर्ग को नहीं मिल पा रहा। खाद्यान्न वितरण प्रणाली की दोषपूर्ण व्यवस्था आदिवासी, दलित और वंचित समाज के बच्चों के कुपोषण और खाद्यान्न सुरक्षा में सबसे बड़ी खामी मानी जाएगी।  
   सरकार आदिवासी समाज को जंगल से बेदखल करने में ज्यादा रूचि ले रही है, उतनी उनकी या उनके बच्चों की खाद्यान्न व्यवस्था में नहीं लेती, इसका क्या कारण है? इसी का नतीजा है कि मध्यप्रदेश में जहाँ भी आदिवासी बहुलता से बसे हैं, वहां उनके बच्चे भूख, कुपोषण और बीमारियों से लडते हुए अपनी जिदंगी खत्म कर रहे हैं। सरकारी उपेक्षा ने आदिवासी समुदाय के जीवन को और अधिक विकट बना दिया है। भूख और कुपोषण के कारण मध्यप्रदेश में पिछले कुछ सालों में छह वर्ष से कम उम्र के 55% बच्चों की मौत हुई! 'रीजनल मेडिकल रिसर्च सेंटर फार ट्राईबल' के एक अध्ययन के अनुसार आदिवासियों के 93.5 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। 58 प्रतिशत से अधिक महिलाएं एनीमिया (रक्तअल्पता) सहित विभिन्न बीमारियों की शिकार हैं, इस कारण उनके नवजात बच्चे कुपोषित जन्म लेते हैं। यही कुपोषण आदिवासियों के नवजात बच्चों की सर्वाधिक मौत का बडा कारण बनता है। जब माँ को ही पर्याप्त पोषण आहार नहीं मिलेगा तो बच्चे का पोषण कैसे होगा? यही वजह है कि नवजात बच्चे कुपोषित होते हैं और समय पर उपचार न मिलने के कारण उनकी मृत्यु हो जाती है।
 मध्यप्रदेश में शिशु मृत्यु दर 76 प्रति हजार है। जबकि, आदिवासियों में शिशु मृत्युदर 84% से ज्यादा है। आदिवासियों के कल्याण का दावा करने वाले सरकार के जिम्मेदार अधिकारियों का ध्यान उनके लिए आवंटित बजट को अलग-अलग योजनाओं के नाम पर खर्च करने में रहता है! यह देखने में ध्यान नहीं रहता कि इन योजनाओं से आदिवासी समुदाय को कितना लाभ हुआ अथवा हो रहा है! एक-दो आदिवासियों को मिला लाभ सफलता की कहानी बनाकर प्रचारित कर दिया जाता है। जबकि, आदिवासी समुदाय के बाकी लोग मुश्किलों के बीच जीने की राह ढूढतें रहते है। आदिवासी विकास के नाम पर भारी धनराशि हर साल अनियमितताओं की भेंट चढ जाती है। उसका परिणाम यह है कि मध्यप्रदेश में आदिवासी समुदाय में कुपोषण ओैर मातृ एवं शिशु मृत्यु दर बढ रही है।
   इस समुदाय के सामने जीवित रहने का संकट उत्पन्न हो गया है। पर्याप्त पौष्टिक भोजन का अभाव में जीतोड मेहनत करने वाला आदिवासी समुदाय अपने परिवार के लिए भरपेट भोजन तक का इंतजाम नहीं कर पाता। महिलाएं बीमार होकर बीमार बच्चों को जन्म दे रही है। समय पर ठीक उपचार नहीं मिलने से माँ और बच्चे बेमौत मर रहे है। ऐसे हालात सरकार द्वारा चलाए जा रहे पोषण पुनर्वास केन्द्रों और आगंनवाडी केन्दों की कार्यप्रणाली पर सवाल खडे करती है। कुपोषण को दूर करने के लिए सरकार की ओर से जो पोषण आहार उपलब्ध कराया जाता है, वह सभी बच्चों को नियमित नहीं मिल पा रहा है। महिला बाल विकास अधिकारी द्वारा पोषण आहार बेचे जाने के मामले भी सामने आए। हैं जब पोषण आहार बाँटने वाले अधिकारी ही बेचने का कारोबार करने लगे तो आदिवासी और दलित, वंचित बच्चों में कुपोषण ओर उनकी मौत का सिलसिला कैसे रूकेगा? यही कारण है कि मध्यप्रदेश में करीब 4 हजार करोड रूपए खर्च किए जाने के बाद भी कुपोषण को सभी जिलों से पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सका! मध्यप्रदेश सरकार अपने सालाना बजट में 'आदिवासी उपयोजना' के तहत 33% राशि का प्रावधान करती है। आंगनवाड़ियां, जननी सुरक्षा योजनाएं तथा स्कूलों में मध्यान्ह भोजन जैसी योजनाएं चलाई जा रही है। इसके बावजूद कुपोषण की समस्या से निजात नहीं मिल सका है।      
  आदिवासी जंगल में निवास करने वाला समाज है। इसका इतिहास बहुत पुराना है। यह प्राचीनकाल से ही जंगलों में निवास करते हुए प्रकृति से मिलने वाले खाद्य पदार्थ जैसे तेंदू, महुआ, गोंद, भाजी, बेर, सहजन आदि खाकर अपना जीवनयापन करता रहा है। इन खाद्य पदार्थो से आदिवासी समुदाय को पर्याप्त पोषक आहार मिल जाते थे! इसलिए पहले उनके सामने कुपोषण का सकंट नहीं था और न उनको खाद्य सुरक्षा के लिए सरकार या समाज पर आश्रित रहना होता था। आदिवासी समुदाय ने प्रकृति,जगंल से अपनी खाद्य संबंधी आवश्कताओं की पूर्ति की! लेकिन, जब से इन्हें जंगल से बेदखल करने का सिलसिला शुरू हुआ, तब से ही इस समुदाय के सामने जीवन बचाने का संकट खड़ा हो गया है। प्राकृतिक माहौल में रहने के अभ्यस्त आदिवासी जनजाति के लोग जंगल से दूर होने के कारण परम्परागत खाद्यान्न से भी वंचित हो गए। इसका नुकसान उन्हें कुपोषण के रूप में भुगतना पड रहा है। इस समुदाय के अधिकांश लोग अशिक्षित होने के कारण लगातार पोषण और उपेक्षा के शिकार हो रहे है। बेरोजगारी, पोषण, भूख, कुपोषण इस समुदाय की पहचान बन गया। अपने अस्तित्व को बचाने के लिए आदिवासी आज भी सरकार से उम्मीद लगाए बैठा है। ऐसे में हाशिए पर खडे और उपेक्षा झेल रहे आदिवासी समुदाय को सरकार के सही प्रयासों की जरूरत है।
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परदे पर राम का चरित्र हर युग में खरा सोना!

- एकता शर्मा   

 राम नाम की इन दिनों कुछ ज्यादा ही गूंज है। राम जन्मभूमि पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इन दिनों भगवान राम चर्चा में हैं। सारा मामला किसी हाईवोल्टेज फिल्मी ड्रामें से कम नहीं लग रहा! ऐसा इसलिए भी होना प्रतीत होता है कि समाज, सरकार और साधु संतों के बीच राम नाम का कुछ ख़ास ही महत्व है। हिन्दी फिल्मों के लिए भी राम हमेशा से महत्वपूर्ण कैरेक्टर रहे हैं। क्योंकि, चाहे हिन्दी फिल्मों के शैशव काल की बात हो या मध्यकाल की राम नाम को फिल्मकारों ने जमकर भुनाया! हिंदुस्तानी समाज में राम ऐसा चरित्र है जिन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम की तरह पूजा जाता है! यही कारण है कि हिंदी फिल्मों के सौ साल से ज्यादा लम्बे इतिहास में रामचंद्र जी पर कई फ़िल्में बनी और वे सफल भी हुईं!    
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     हिन्दी फिल्मों की शुरूआत ही राम के पितृपुरूष राजा हरिश्चन्द्र पर आधारित फिल्म 'राजा हरिशचंद्र' से ही हुई थी। उसके बाद लगभग हर दशक में सिनेमा के परदे पर राम अवतरित होते रहे! दर्शक कभी जूते उतारकर तो कभी राम की जयजयकार करते हुए फिल्मी राम के दर्शन कर अपने आपको धन्य मानते रहे। शुरूआती दिनों में 'अयोध्या चा राजा' ने बाॅक्स आफिस पर सिक्के बरसाकर इस परम्परा के बीज बो दिए थे कि सिनेमा में और कोई चले या न चले, राम का नाम हमेशा निर्माताओं की झोली भरता रहेगा। आज के दर्शक भले आश्चर्य करें कि 1943 में प्रेम अदीब और शोभना समर्थ अभिनीत फिल्म 'राम राज्य' के प्रदर्शन के बाद दर्शक सालों तक प्रेम अदीब को राम और शोभना समर्थ को सीता मानकर ही उन्हें प्रणाम करते और उनकी आरती उतारते रहे। विजय भट्ट के निर्देशन में बनी इस फिल्म ने बाॅक्स ऑफिस पर उस समय 60 लाख रूपए की कमाई कर नया कीर्तिमान रचा था। यह पहली हिन्दी फिल्म थी, जिसका प्रीमियर अमेरिका में हुआ था। यह पहली और आखिरी फिल्म है, जिसे महात्मा गांधी ने भी देखा। हो सकता है इसे देखने के बाद ही महात्मा गांधी के दिमाग में राम राज्य की अवधारणा बलवती हुई हो!
   उसके बाद 1961 में बाबूभाई मिस्त्री के निर्देशन में बनी 'सम्पूर्ण रामायण' ने फिर एक बार सिनेमाघरों को जय जय सियाराम की गूंज से सरोबार किया था। ट्रिक फोटोग्राफी के लिए मशहूर बाबूभाई मिस्त्री ने रावण और हनुमान को उडते दिखाकर फिर लंका दहन और राम रावण युद्ध के रोमांचक दृश्य फिल्माकर दर्शको का भरपूर मनोरंजन किया। इस फिल्म के गीत भी बहुत पसंद किए गए और महिपाल और अनीता गुहा राम-सीता की भूमिका में पहचाने गए। रावण की भूमिका निभाकर बीएम व्यास पक्के खलनायक बन गए थे। हिन्दी फिल्मकारों के लिए राम एक हुण्डी जैसे साबित हुए।   यही कारण है कि अब तक जितनी भी पौराणिक फिल्में बनी, उनमें राम पर आधारित फिल्में सबसे ज्यादा बनी और चली भी! ऐसी ही फिल्मों में लंका दहन (1917), राम पादुका पट्टाभिषेकम (1932), सीता कल्याणम (1934), सती अहिल्या (1937), सीता राम जनम (1944), रामायणी (1945), रामबाण (1948), रामजन्म (1951), रामायण (1954), सम्पूर्ण रामायण (1958,1961,1971), सीता राम कल्याणम (1961), लवकुश (1963 और 1997), हनुमान विजय (1974), बजरंग बली (1976), रावण (1984 और 2010), रामायणा : द लिजेंड ऑफ़ प्रिंस रामा (1992), हनुमान (2005), रिटर्न आफ हनुमान (2007), दशावतार (2008) और हनुमान चालीसा (2013) प्रमुख है।
  वैसे कुछ ऐसी फिल्में भी है, जिनका भगवान राम से दूर दूर का नाता नहीं, लेकिन उनके शीर्षक में भी राम का इस्तेमाल कर दर्शकों को आकर्षित करने का प्रयास किया गया। इनमें राम-लखन, राम तेरी गंगा मैली, रामावतार, राम और श्याम, रामलीला, राम जाने और 'हे राम' प्रमुख है। फिल्मों की तरह गानों में भी राम का जगह जगह प्रयोग किया गया है। मसलन राम करे ऐसा हो जाए, ओ राम जी, रोम रोम में बसने वाले राम, रामचन्द्र कह गए सिया से, जय रघुनंदन जय सिया राम। ऐसा नहीं कि केवल हिन्दी फिल्मों पर ही रामचन्द्रजी का आशीष बरसा! बरसात, और आरजू जैसी रोमांटिक फिल्मों के लेखक और निर्देशक रामानंद सागर ने भी जब टीवी पर कदम रखकर रामाश्रय लिया तो उनके धारावाहिक रामायण ने अरूण गोविल, दीपिका चिखलिया और दारासिंह को दर्शकों के दिलोें मे राम-सीता और हनुमान के रूप में बसा दिया। आज जब वीएफएक्स सहित कम्पयूटर ग्राफिक्स जैसी तकनीक उपलब्ध हैं, तो एक बार फिर भव्य पैमाने पर सिनेमाई पर्दे पर राम के अवतरण की संभावना प्रबल हो गई है।
  राम पर फ़िल्में सिर्फ ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने तक ही सीमित नहीं थीं! आज भी ये चरित्र उसी तरह लोकप्रिय है। 'दंगल' और फिर 'छिछोरे' से चर्चित हुए डायरेक्टर नितेश तिवारी का अगला प्रोजेक्ट 'रामायण' भी चर्चा में है। फिल्म की कास्टिंग को लेकर जबरदस्त चर्चा है। ऋतिक रोशन को राम और दीपिका पादुकोण को सीता के रोल में कास्ट करने की प्लानिंग है। वहीं प्रभास को रावण का रोल निभाने के लिए अप्रोच किया गया! नीतेश तिवारी ने कहा भी था कि 'छिछोरे' के बाद मैं 'रामायण' बनाने जा रहा हूं। ये एक ट्राइलॉजी होगी। हम इस प्रोजेक्ट को बनाने के लिए हर संभव कोशिश कर रहे हैं। जब नितेश से दीपिका और ऋतिक रोशन को कास्ट करने के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि हम अभी कॉन्सेप्ट लेवल पर हैं। हमने अभी कास्टिंग के बारे में सोचा तक नहीं है। मगर प्रोड्क्शन से जुड़े सूत्र ने बताया कि रामायण में पहली बार ऋतिक-दीपिका स्क्रीन शेयर करेंगे। इसके अलावा एक पॉपुलर सुपरस्टार रावण का रोल प्ले करेगा। मेकर्स ने रामायण के लिए 600 करोड़ का बजट रखा है। ये किसी भी इंडियन फिल्म के लिए साइन किया जाने वाला बड़ा बजट है।
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फ़िल्मी परदे पर ज्यादा नहीं मनती दीपावली!

- एकता शर्मा 

   फिल्मों के कथानक में त्यौहारों को कुछ ख़ास महत्व दिया जाता है। त्यौहारों में भी सबसे ज्यादा मनाई जाती है होली, जन्माष्टमी, ईद और कुछ हद तक क्रिसमस। लेकिन, बड़ा त्यौहार होते हुए भी फ़िल्मी कथानकों में दीपावली का प्रसंग कम ही देखने को मिला! परदे पर दीपावलीतभी दिखाई देती है, जब उसे फिल्म की कहानी में कहीं पिरोया गया हो! दीपावलीको लेकर कुछ फ़िल्में भी बनी, पर इनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक ही रही! बदलती दुनिया में दीपावली मनाने का तरीका बदला और उसके साथ ही फिल्मों में भी बदलाव दिखाई दिया। दीपावली से जुड़े गीत और दृश्य अहम प्रसंग की तरह शामिल रहे। कई फिल्मों में महत्‍वपूर्ण दृश्‍य भी इस त्यौहार की पृष्‍ठभूमि में भी फिल्‍माए गए। फिल्मों में गीतों माध्यम से दीपावली का उजियारा, खुशियां, भव्‍यता और सामूहिक परिवार की भावना स्‍पष्‍ट नज़र आई। ब्‍लैक एंड व्‍हाइट के दौर से लेकर आज की रंगीन फिल्‍मों तक में दीपावलीकेंद्रीय भाव की तरह कायम रही हो, ऐसा बहुत कम हुआ! 
   सिनेमा इतिहास के मुताबिक जयंत देसाई ने 1940 में ‘दिवाली’ नाम से पहली बार फिल्म बनाई थी! करीब पंद्रह साल बाद 1955 में बनी ‘घर घर में दिवाली’ बनी, जिसमें गजानन जागीरदार ने काम किया था। फिर एक लंबा अरसा गुजरा और 1965 में दीपक आशा की फिल्म ‘दिवाली की रात’ आई! आदित्य चोपड़ा ने 2000 में बनाई ‘मोहब्बतें’ के कथानक में दीपावली के जरिए फिल्म के पात्रों को एक जरूर किया, पर इसके आगे प्रसंग बदल गया था। 1998 में बनी कमल हासन की फिल्म ‘चाची-420’ में भी दीपावलीका प्रसंग था, जब कमल हसन की बेटी पटाखे से घायल हो जाती है। विनोद मेहरा और मौसमी चटर्जी की 1972 में आई ‘अनुराग’ में भी दिवाली के कुछ दृश्य दिखाई दिए थे। फिल्म के एक दृश्य में दीपावली की ही रात होती है जब पूरा घर खुशियों से झूम रहा होता है। तभी परिवार के मुखिया को खबर मिलती है कि उसके पोते को असाध्य बीमारी है। पूरा घर अचानक मायूस हो जाता है और उनकी सारी खुशियां दुख में बदल जाती हैं।
  हम आपके है कौन, एक रिश्ता : द बांड ऑफ लव और 'ख्वाहिश' आदि में भी दीपावली के दृश्य तो दिखाए गए हैं, लेकिन वे कहीं से भी कहानी का हिस्सा नही लगते! महेश मांजरेकर की संजय दत्त अभिनीत फिल्म 'वास्तव' में जरूर दीपावली के दृश्य को कहानी का हिस्सा बनाया गया था। चेतन आंनद की 1965 में प्रदर्शित फिल्म 'हकीकत' में भी दिवाली का उल्लेख है। भारत और चीन के बीच 1962 में हुए युद्ध पर आधारित इस फिल्म के एक दृश्य में दीपावली के दिन फिल्म के अभिनेता जयंत देश के जवानों को एक संदेश भेजते हैं, जो बहुत मार्मिक होता है। अमिताभ बच्चन को एंग्री यंगमैन बनाने वाली फिल्म ‘जंजीर’ जरूर ऐसी फिल्म है, जिसकी शुरुआत ही दिवाली से होती है। पटाखों के शोर में खलनायक अजीत एक परिवार को ख़त्म कर देता है! लेकिन, एक बच्चा छुपकर सब देखता है और क्लाइमैक्स में वो अजीत से बदला ले लेता है। 
  जब से ओवरसीज में हिंदी सिनेमा के दर्शक बढे हैं, दिवाली जैसे त्यौहारों को फिल्मकारों ने सीमित कर दिया। कई फिल्मों में दिवाली को अहमियत भी दी गई, तो उन्हें गीतों तक ही! याद किया जाए तो वर्तमान दौर में शिर्डी के सांई बाबा, हम आपके हैं कौन, मुझे कुछ कहना है, मोहब्बतें, कभी खुशी कभी गम, आमदनी अठ्ठन्नी खर्चा रूपैया और चाची-420 ही ऐसी फिल्में रहीं जिनमें दीपावली दिखाई दी ! अमिताभ बच्चन ने अपनी फिल्म कंपनी 'एबीसीएल' के तहत 2001 में ‘हैप्पी दिवाली’ बनाने की घोषणा की थी! इसमें अमिताभ के अलावा आमिर खान और रानी मुखर्जी भी थे! फिल्म की शूटिंग भी शुरू हुई, लेकिन बाद में किसी कारण से फिल्म लटक गई, तो आगे नहीं बढ़ सकी! 
   फिल्मकारों ने पिछले कुछ सालों से दिवाली के दृश्यों और गानों से किनारा ही कर लिया! एक तरह से कथानक से त्यौहार गायब ही हो गए। विषयवस्तु में भी बदलाव आता दिखाई देने लगा! दीपावली की पृष्ठभूमि के कुछ गानों को जरूर प्रसिद्धि मिली। गोविंदा की फिल्म ‘आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया’ का गाना ‘आई है दिवाली … सुनो जी घरवाली’ दिवाली को ध्यान में रखकर बना था। 1961 में आई ‘नज़राना’ में भी लता मंगेशकर का गाया दिवाली गीत ‘एक वो भी दिवाली थी, दिवाली है’ था। 1977 में आई मनोज कुमार की फिल्म ‘शिर्डी के सांई बाबा’ का दीवाली गीत ‘दीपावली मनाए सुहानी’ अब तक का सर्वाधिक लोकप्रिय दिवाली गीत माना जाता है। करण जौहर की 2001 में आई ‘कभी खुशी कभी गम’ का टाइटल गीत भी दीपावली पर केंद्रित था। ब्लैक एंड व्हाइट युग की फिल्म ‘खजांची’ के ‘आई दीवाली आई, कैसी खुशहाली लाई’ भी अनोखे अंदाज का दिवाली गीत था। ‘पैग़ाम’ में मोहम्‍मद रफ़ी का गाया और जॉनी वाकर पर फिल्माया दिवाली गीत वास्‍तव में यह कॉमेडी गाना था। इस सबके बावजूद दूसरे त्यौहारों मुकाबले सिनेमा के परदे पर दिवाली के पटाखे कम ही फूटते हैं।
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अपराध के आंकड़े बताते हैं, मध्यप्रदेश में बच्चे सबसे ज्यादा असुरक्षित!

- एकता शर्मा 

   समाज में सबसे घृणित कृत्य है बच्चों के साथ यौन शोषण! हमारे लिए सबसे शर्मनाक बात ये है कि पूरे देश में बाल यौन शोषण के मामले में मध्यप्रदेश का नंबर दूसरा है। हमसे आगे सिर्फ उत्तरप्रदेश है। लेकिन, वहाँ की आबादी मध्यप्रदेश से करीब तीन गुना ज्यादा है। 2011 की जनगणना के मुताबिक मध्यप्रदेश की आबादी 7.33 है, जबकि उत्तरप्रदेश की आबादी करीब 20 करोड़ है। ऐसे में कल्पना की जा सकती है कि बाल यौन अपराध की मध्यप्रदेश में स्थिति क्या होगी! इस नजरिए से सबसे ज्यादा बाल यौन शोषण के मामलों में मध्यप्रदेश को देश में नंबर-वन माना जाना चाहिए। हाल ही में जारी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2017 की रिपोर्ट में भी मध्यप्रदेश में 2016 में नाबालिग मासूमों से ज्यादती के 3082 मामले रिकॉर्ड में आए थे। 
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   बाल यौन शोषण की लगातार बढ़ती घटनाओं ने समाज का सिर शर्म से झुका दिया। कायदे-कानून कड़े किए जाने के बावजूद ऐसी घटनाएं कम होने का नाम नहीं ले रही। एक उल्लेखनीय पहलू यह भी है कि अधिकांश मामलों में अपराधी कोई अपरिचित नहीं, बल्कि क़रीबी ही निकला! इतना करीबी कि सहज विश्वास करना मुश्किल है। ऐसी ही एक घटना की गंभीरता को समझिए! धार के भोज अस्पताल परिसर में पिछले दिनों दो बहनें कचरा बीन रही थी। इन दोनों बहनों को इस हालत में देखकर किसी व्यक्ति ने बाल कल्याण समिति को सूचित किया। समिति ने दोनों बच्चियों को बुलवाकर माता-पिता के बारे में जानकारी ली। उन्हें घर भेजने की कोशिश की गई, तो बड़ी बच्ची रोने लगी! उसने घर जाने से साफ़ इंकार किया और अजीब से डर से सहम सी गई! उसकी इस हालत को देखकर बाल कल्याण समिति के सदस्यों को शक हुआ! उन्होंने दोनों को काउंसलर के पास भेजा और उसकी घबराहट का कारण जानना चाहा! बड़ी मुश्किल से बच्ची ने बताया कि पिता उसके साथ जबरदस्ती करता है। माता, पिता में झगडे के बाद माँ घर छोड़कर अपने पीहर चली गई! उसने बताया कि पिता ने उसके साथ कई बार बलात्कार किया। पिता की इस हरकत से उसे असहनीय पीड़ा होती है, इस कारण वह घर जाना नहीं चाहती! इसके बाद न्यायालय ने सुरक्षा की दृष्टि से दोनों बच्चियों को सुरक्षा की दृष्टि से बाल आश्रय गृह में रखने का आदेश दिया। ये महज एक घटना नहीं, ये इस बात का प्रमाण है कि बच्चे अपने घर में ही सुरक्षित नहीं हैं। ऐसे में वे अपनी पीड़ा किससे कहें?
  ये महज एक घटना नहीं, समाज की दुर्दशा का एक नमूना मात्र है। बच्चियां यदि अपने घर, परिवार और परिजनों के बीच ही सुरक्षित नहीं होगी तो कहाँ होगी? बाल यौन शोषण को लेकर देशभर में जितनी भी घटनाएं होती हैं, उनमें 70% मामलों में अपराध करने वाला कोई रिश्तेदार या परिचित ही होता है! यही कारण है कि मामले दब जाते हैं या अपराधी अदालत से छूट जाते हैं! आश्चर्य है कि दुनिया के आधुनिकीकरण के बावजूद ऐसी घटनाएं कम होने के बजाए बढ़ रही हैं। इसका सुबूत है, देशभर में होने वाली सभी आपराधिक घटनाओं पर 'नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो' (एनसीआरबी) हर साल आने वाली रिपोर्ट! 2016 में जारी 'एनसीआरबी' की रिपोर्ट पर नजर डालें, तो देशभर में बच्चों के साथ होने वाले अपराधों में तेजी से बढ़ौतरी हुई है। 2014 में जहाँ बच्चों के साथ अपराध की 89,423 घटनाएं दर्ज हुईं, 2015 में इनकी संख्या 94,172 हुई और 2016 में 1,06,958 घटनाएं दर्ज की गईं! इन 3 सालों में ही बच्चों के साथ अपराध की दर 24% तक पहुंच गई! 2014-15 में 5.3% की तुलना में 2015-16 में 13.6% अपराध हुए! 2016 में बच्चों के साथ हुए 1,06,958 घटनाएं हुई। इनमें 36,022 मामले पॉक्सो एक्ट के थे। देखा जाए तो बाल यौन शोषण के मामले में 34.4% की वृद्धि दर्ज की गई! 2017 की रिपोर्ट में मध्यप्रदेश में नाबालिग मासूमों से ज्यादती के 3082 मामले प्रकाश में आए हैं। मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा
  पॉक्सो एक्ट और आईपीसी के सेक्शन 376 के तहत बाल यौन शोषण (चाइल्ड रेप) के मामलों में भी मध्यप्रदेश अव्वल है। बच्चों के साथ सबसे ज्यादा दुष्कर्म के मामले दर्ज हुए। मध्यप्रदेश (2,467) के बाद महाराष्ट्र (2,292) और उत्तर प्रदेश (2,115) का नाम है! इन्हीं 3 राज्यों में पॉक्सो एक्ट और आईपीसी के सेक्शन 376 के तहत 2 हजार से ज्यादा केस दर्ज हुए।  यौन शोषण के 692 मामले झूठे
  एक मुद्दे की बात ये भी है कि बाल यौन शोषण की घटनाओं को पुलिस अपनी जाँच में गंभीरता से तवज्जो नहीं देती। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2016 में जारी रिपोर्ट कहती है कि पॉक्सो के तहत 2015 में बाल यौन शोषण के 36,022 मामले दर्ज हुए, जबकि उसके पिछले साल 12,038 मामलों की जांच शुरू होनी थी। इसी तरह से 48,060 मामले पॉक्सो के तहत दर्ज हैं। 12,226 मामले बच्चों के साथ यौन शोषण के दर्ज हुए। जबकि, शोषण के 19,765 नए मामले पॉक्सो सेक्शन 4 और 6/आईपीसी की धारा 376 के तहत सामने आए। बाल यौन शोषण के तहत दर्ज 48,060 मामलों के अलावा 868 मामलों में यौन शोषण के आरोप सही तो पाए गए, लेकिन ठोस सबूत न होने के कारण आरोपी बरी हो गए! जबकि 692 यौन शोषण के मामले झूठे साबित हुए। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भी बाल यौन उत्पीड़न की बढ़ती घटनाओं पर लगाम कसने के लिए बाल यौन अपराध संरक्षण (पॉक्सो) कानून को कड़ा किया है। इन संशोधनों में बच्चों के साथ गंभीर यौन उत्पीड़न करने वालों को मौत की सजा और नाबालिगों के साथ दूसरे अपराधों के लिए कड़ी सजा का प्रावधान है। 
  पॉक्सो कानून की 3 धाराओं (4, 5 और 6) में बदलाव कर बाल यौन शोषण के मामलों में सजा को और कड़ा करने के लिए मौत की सजा का प्रावधान  लाया गया है। अब बाल यौन शोषण के मामले को सुप्रीम कोर्ट ने गंभीरता से लिया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि कोर्ट सरकार की मदद से कुछ ऐसे और कड़े कदम उठाए जाएंगे कि खुद को सभ्य समाज का हिस्सा कहने वाले मानव समाज ऐसे वीभत्स कुकृत्य करने से बचेगा और बच्चों का बचपन सुरक्षित रहेगा। लेकिन, दोषियों को समय पर कड़ी सजा देने के बाद ही अपराधियों के सुरक्षित बच निकलने के रास्ते बंद होंगे। लेकिन, सरकारी आंकड़ेबाजी से ऐसी घटनाएं तो रूक नहीं सकती! पिता, बड़ा भाई. चाचा या फिर कोई नजदीकी रिश्तेदार कब किसी मासूम बच्ची को कुचल दे, कहा नहीं जा सकता! ऐसी घटनाएं सरकारी प्रयासों से थम सकेंगी, इस बात का भी दावा नहीं किया जा सकता! समाज को खुद बदलना होगा या ऐसे अपराधियों को इतनी कड़ी सजा दी जाना चाहिए कि देखने और सुनने वालों की रूह काँप जाए! 
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Monday 21 October 2019

जन्मदिन भी जोड़ी से, पर परदे पर टूट गया साथ!

-  एकता शर्मा

   अक्टूबर के इस दूसरे सप्ताह में बॉलीवुड की सबसे ज्यादा सदाबहार रही जोडी अमिताभ बच्चन और रेखा के जन्मदिन हैं। रेखा का 11 अक्टूबर को और अगले दिन यानी 12 को अमिताभ का। एक दिन आगे-पीछे जन्मे अमिताभ और रेखा कभी फिल्मों में भी एक दूसरे के आगे पीछे ही रहे! परदे पर इनकी केमिस्ट्री को दर्शकों ने राजकपूर-नर्गिस, धर्मेन्द्र-हेमा मालिनी और ऋषि कपूर-नीतू सिंह की जोडी की तरह सराहा और पसंद किया। आज भी रेखा और अमिताभ की जोड़ी का जिक्र होता है। इस जोड़ी ने जितनी हिट फिल्में दी, उतने ही वे विवादित भी रहे! अमिताभ का रेखा से एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर इतना चर्चा में रहा कि अब दोनों एक-दूसरे से नजरें मिलाने में डरते हैं। अब ये दोनों एक-दूसरे का सामना तक नहीं करते! आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी है जो एक ही जगह पर होते हुए भी वो एक-दूसरे को देख मुस्कुराते तक नहीं! 80 के दशक की सबसे चर्चित जोड़ी अमिताभ-रेखा आज उम्र के उस पायदान पर खड़े हैं, जहां सारे गिले-शिकवे भुला दिए जाते हैं। लेकिन, इनके साथ ऐसा नहीं हुआ!   
  सिनेमा को पसंद करने वाले लोग जानते हैं कि रेखा के फिल्म करियर ने अमिताभ का साथ मिलने के बाद ही सही उड़ान भरी थी। लगता था जैसे अमिताभ उनके लिए किस्मत की लॉटरी का टिकट लेकर आए हों। प्रकाश मेहरा की फिल्म 'मुकद्दर का सिकंदर' में रेखा और अमिताभ की जोड़ी ने पहली बार शोहरत के आसमान को छुआ था। देखते ही देखते इस जोड़ी ने हिन्दी सिनेमा के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया था। इस तरह बनी जोड़ियों को बहुत जल्द निजी जिंदगी की प्रेम कहानी से जोड़ने की पुरानी परंपरा है। रील लाइफ को रियल लाइफ के प्यार में बदलने की जो परंपरा राजकपूर-नर्गिस, देवआनंद-सुरैया, दिलीप कुमार-मधुबाला, ऋषि कपूर-नीतू सिंह, रणधीर कपूर-बबीता और धर्मेन्द्र हेमा मालिनी ने आरंभ की थी। उसी परम्परा को अमिताभ-रेखा ने बड़े प्यार से आगे बढाया। जैसे-जैसे इन दोनों की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट होने लगी, वैसे-वैसे ही निजी जिंदगी में भी इनका प्यार के किस्से सुनाई देने लगे। दोनों की एक साथ की गई सुपरहिट फिल्में आई जैसे दो अंजाने, सुहाग, मि. नटवरलाल, गंगा की सौगंध, नमक हराम, खून पसीना और सिलसिला हैं। 
  अमिताभ का साथ मिलने के बाद रेखा ने अपने आपको पूरी तरह बदल दिया था। पहली फिल्म 'सावन भादो' में सांवली और मोटी सी दिखने वाली रेखा का नाम जब अमिताभ के साथ जुड़ा तो वे काफी बोल्ड नजर आने लगीं। दोनों के चाहने वाले आज भी फिल्म 'सिलसिला' में दिखाई गई अमिताभ और रेखा की लव स्टोरी को याद करते हैं। फिल्म 'कुली' की शूटिंग के दौरान हुए हादसे के बाद फिल्मी दुनिया के इन दो परिंदों की सच्ची प्रेम कहानी का अंत हो गया था। घायल अमिताभ की जान की दुआ मांगने के लिए रेखा ने वह सब किया जो शायद 'किसी' ने नहीं किया होगा। उज्जैन आकर महामृत्युंजय जाप और परिक्रमा के प्रभाव से अमिताभ तो बच गए, लेकिन दोनों के बीच का प्यार नहीं बच पाया। इस दौरान दोनों के बीच एक तनाव की स्थिति निर्मित हो गई, जिसे दोनों के सिवा तीसरा कोई नहीं जानता! आज भी यह बात राज ही है कि 'कुली' के दौरान हुई घटना के बाद ऐसा क्या हो गया था जो अमिताभ और रेखा को एक-दूसरे का साथ छोड़ना पड़ा। बीच-बीच में दोनों के बीच सौहार्द्रपूर्ण वातावरण की खबरें आती है। अमिताभ और रेखा के अधूरे प्यार का पूरा सच कोई नहीं जानता। इन दोनों ने 'सिलसिला' के बाद एक साथ कभी काम नहीं किया। दोनों को अपनी फिल्म में लेने के लिए आज भी कई फिल्मकार तैयार है। लेकिन, अब शायद ये ही ये संभव हो!
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अब गब्बर को कौन बताएगा 'कितने आदमी थे?'

- एकता शर्मा

   हिंदी फिल्म इतिहास में मील का पत्थर बन चुकी फिल्म 'शोले' का हर डायलॉग चर्चित हुआ है! फिल्म के किरदारों की छवि दर्शकों के दिमाग में कहीं छप सी गई है। गब्बर सिंह, ठाकुर साहब, जय-वीरू, बसंती के अलावा 'सांभा' और 'कालिया' के किरदार तो अमर हो चुके हैं। इस फिल्म में 'कालिया' जैसा छोटा सा रोल करने वाले कलाकार वीजू खोटे तक को दर्शकों ने पहचाना था! ये फिल्म के सबसे चर्चित किरदार गब्बर सिंह की गेंग के तीन ख़ास साथियों में से एक था। कालिया का रोल बहुत छोटा था, लेकिन इसके डायलॉग आज भी लोगों की जुबान पर हैं।   
  कालिया के इस रोल की खासियत थी, कि डाकू होते हुए वो पहले जय और वीरू से पिटता है और फिर गब्बर के हाथों मारा गया। हालांकि, शुरु में ये किरदार दर्शकों को डराने में कामयाब हुआ था। लेकिन, अब ये कलाकार नहीं रहा, दिल का दौरा पड़ने से 78 साल की उम्र में उनका निधन हो गया! इसके साथ ही अब गब्बर के इस सवाल का जवाब देने वाला इस दुनिया में नहीं रहा कि 'कितने आदमी थे!'     
   'शोले' में वीजू खोटे का एक और डायलॉग था 'सरदार, हमने आपका नमक खाया है!' को भी दर्शकों ने बहुत पसंद किया था। वीजू खोटे ने कुछ सालों से फिल्म के पर्दे से दूरी बना ली है। आखिरी बार उन्हें 'गोलमाल-3' में देखा गया था। उससे पहले वो 'अजब प्रेम की गजब कहानी' फिल्म में भी दिखाई दिए थे। सेहत की समस्याओं से लगातार शूटिंग में उन्हें परेशानी होती है। वीजू ने हिंदी फिल्मों के अलावा मराठी फिल्मों में भी काफी काम किया है। उन्होंने अपने करियर में चाइना गेट, मेला, अंदाज अपना अपना, गोलमाल-3 और नगीना समेत 300 से ज्यादा फिल्मों में काम किया।
  उन्होंने अपने करियर की शुरुआत 1964 में की थी। शोले के 'कालिया' वाले रोल के अलावा 'अंदाज अपना-अपना' में उनके किरदार 'रॉबर्ट' को भी याद किया जाता है। काफी लंबे समय से बीमार चल रहे विजू खोटे को हाल ही में अस्पताल में भी भर्ती कराया गया था। उन्होंने 300 से ज्यादा हिंदी और मराठी फिल्मों और धारावाहिकों में काम किया। छोटे से सीन के जरिए ही दर्शकों के दिलों में अपनी जगह बनाने वाले कलाकार वीजू खोटे को कई फिल्मों में देखा और पसंद किया गया। 'शोले' में कालिया के अलावा, कॉमेडी फिल्म 'अंदाज अपना-अपना' में भी वीजू खोटे के 'रॉबर्ट' के किरदार को काफी पसंद किया गया था जिसमें उनका डायलॉग 'गलती से मिस्टेक हो गई' काफी लोकप्रिय हुआ था।   
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संगीत के इस सुर में समाया माधुर्य और महक!

- एकता शर्मा

  संगीत का एक महत्वपूर्ण अंग है 'ताल।' इस शब्द को उलट दिया जाए तो जो शब्द बनता है, संगीत की शुरूआत उसी शब्द से होती है। संगीत के सारे सुर उस शब्द पर आकर थम जाते हैं, यह शब्द है 'लता।' भारत रत्न लता मंगेशकर को दुनिया में किसी परिचय की जरूरत ही नहीं है। आखिर चांद, सितारों, जमीन, आसमान, नदियों और सागरों की तरह शास्वत वस्तुएं किसी परिचय की मोहताज नहीं होती। संगीत की स्वरलहरियों और सात सुरों के संसार में लता ऐसी ही शास्वत शख्यियत है, जिनके कंठ से सरस्वती के सुर निकलते हैं। लताजी ने फ़िल्मी दुनिया में 71 साल और उम्र के 90 साल जरूर पूरे जरूर कर लिए, पर संगीत का ये सफर आज भी जारी है। उनकी आवाज में कुदरत का वही आशीर्वाद और मां सरस्वती की वही अनुकम्पा है।
   हिन्दी सिनेमा के ट्रेजेडी किंग और विख्यातनाम कलाकार दिलीप कुमार ने लगभग चार दशक पहले 1974 में लंदन स्थित रायल एलबर्ट हाल में अपनी दिलकश आवाज में कहा था 'जिस तरह कि फूल की खुशबू या महक का कोई रंग नहीं होता, वह महज खुशबू होती है। जिस तरह बहते पानी के झरने या ठंडी हवा का कोई मुकाम, घर, गांव, देश या वतन नहीं होता। जिस उभरते सूरज या मासूम बच्चे की मुस्कान का कोई मजहब या भेदभाव नहीं होता, उसी तरह से कुदरत का एक करिश्मा है लता मंगेशकर।' तो दर्शकों से खचाखच भरे हाल में कई मिनटों तक तालियों की गडगडाहट गूंजती रही! वास्तव में दिलीप कुमार ने लता मंगेशकर का जो परिचय दिया वह न केवल उनकी सुरीली आवाज बल्कि उनके सौम्य व्यक्तित्व का सच्चा इजहार है।
   1974 से 1991 तक दुनिया में सबसे ज्यादा गीत गाकर 'गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड' में अपना नाम शुमार कराने वाली लता मंगेशकर ने सभी भारतीय भाषाओं में अपने सुर बिखेरें हैं। यदि भारतीय फिल्मी गायक-गायिकाओं में कोई नाम सबसे ज्यादा सम्मान से लिया जाता है, तो वह है सिर्फ और सिर्फ लता मंगेशकर। 28 सितम्बर 1929 को इंदौर मे जन्मी लताजी को गायन कला विरासत में मिली। उनके पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर शास्त्रीय गायक तथा थिएटर कलाकार थे। यदि दीनानाथ मंगेशकर के नाटक 'भावबंधन' की नायिका का नाम लतिका न होता और उनके माता-पिता अपनी सबसे बड़ी बेटी को यह नाम नहीं देते! ऐसा नहीं होता तो शायद आज हम उन्हें उनके बचपन के नाम हेमा हर्डिकर के नाम से ही जानते! लता का बचपन का नाम हेमा और सरनेम हर्डिकर था, जिसे बाद में उनके परिवार ने गोवा मे अपने गृह नगर मंगेशी के नाम पर मंगेशकर रखा और आज इसी नाम लता मंगेशकर को सारी दुनिया जानती है। 
  1942 में जब लताजी मात्र 13 साल की थी, उनके पिताजी की हृदय रोग से मृत्यु हो गई। तब अभिनेत्री नंदा के पिता और नवयुग चित्रपट कंपनी के मालिक मास्टर विनायक ने बतौर अभिनेत्री और गायिका लता मंगेशकर का करियर आरंभ करने में मदद की। वसंत जोगलेकर की मराठी फिल्म 'किती हसाळ' में पहली बार सदाशिवराव नार्वेकर की संगीत रचना में गाए गीत 'नाचु या गडे, खेलू सारी मानी हाउस भारी' गाकर अपना करियर आरंभ करने वाली लताजी ने कभी पीछे मुड कर नहीं देखा! उस्ताद अमानत अली खान से हिन्दुस्तानी संगीत सीखकर उन्होंने 1946 में पहला हिन्दी गीत 'पा लागू कर जोरी' गाया। 1945 में 'बड़ी मां' में अभिनय के साथ लता ने 'माता तेरे चरणों में' भजन गाया। 90 साल की उम्र में भी वे हिन्दी फिल्म जगत की शीर्षस्थ और सर्वाधिक सम्मानित गायिका के रूप में विराजमान है।
   1947 में विभाजन के बाद जब उनके गुरू अमानत अली खान पाकिस्तान चले गए तो उन्होंने अमानत खान देवास वाले से शास्त्रीय संगीत सीखा। इस दौरान बड़े गुलाम अली खान के शिष्य पंडित तुलसीदास शर्मा ने भी उन्हें प्रशिक्षित किया और संगीतकार गुलाम हैदर ने उन्हें 1948 में 'मजबूर' फिल्म का गीत 'दिल मेरा तोड़ा' गवाया और अपने उर्दू के उच्चारण को सुधारने के लिए मास्टर शफी से बकायदा उर्दू का ज्ञान लिया। 1949 में जब कमाल अमरोही की फिल्म 'महल' में उन्होंने मधुबाला पर फिल्माया गीत 'आएगा आने वाला गाया' तो सारा देश उनकी आवाज से मंत्रमुग्ध हो गया। उसके बाद से हर फिल्म में लता का गाया गाना जरूरी माना जाने लगा।
   पचास के दशक में अनिल विश्वास के साथ अपना गायन आरंभ कर लताजी ने शंकर-जयकिशन, नौशाद, एसडी.बर्मन, पंडित हुस्नलाल भगतराम, सी. रामचन्द्र, हेमंत कुमार, सलिल चौधरी, खैयाम, रवि, सज्जाद हुसैन, रोशन, कल्याणजी-आनंदजी, वसंत देसाई, सुधीर फडके, उषा खन्ना, हंसराज और मदनमोहन के साथ स्वरलहरियां बिखेरी। साठ और सत्तर के दशक में लता ने चित्रगुप्त, आरडी बर्मन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, सोनिक ओमी जैसे नए संगीतकारों के साथ काम किया। उसके बाद उन्होंने राजेश रोशन, अन्नु मलिक, आनंद मिलिन्द, भूपेन हजारिका, ह्रदयनाथ मंगेशकर, शिवहरी, राम-लक्ष्मण, नदीम श्रवण, जतिन-ललित, उत्तम सिंह, एआर रहमान और आदेश श्रीवास्तव जैसे नए संगीतकारों को अपनी आवाज देकर फिल्मी दुनिया में स्थापित किया। जहां तक गायकों का सवाल है लता ने हर काल के हर छोटे बड़े गायकों की आवाज से आवाज मिलाकर श्रोताओं के कानों में रस घोला है।
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Saturday 21 September 2019

सोनाक्षी के ज्ञान ने तो 'आलिया' को मात दे दी!

- एकता शर्मा

   पाँच साल बाद फिर कोई बड़ी फ़िल्मी नायिका अपने सामान्य ज्ञान को लेकर ट्रोल हो रही है। ये है जाने-माने फिल्म एक्टर शत्रुघ्न सिन्हा की हीरोइन बेटी सोनाक्षी सिन्हा। उन्हें अमिताभ बच्चन के बहुचर्चित शो 'कौन बनेगा करोड़पति' में 'कर्मवीर' एपिसोड के तहत राजस्थान के बाड़मेर जिले कि रूमादेवी की सहयोगी के तौर पर बुलाया गया था। लेकिन, सोनाक्षी के सामान्य ज्ञान ने साबित कर दिया कि शिक्षा, सुंदरता और बड़े घर में पैदा होना ही किसी के ज्ञानवान होने की निशानी नहीं है! वास्तविक ज्ञानवान वो है, जो अपने अनुभव, संघर्ष और दिमाग को खुला रखकर सीखता है! रूमादेवी वो शख्सियत हैं, जिन्होंने कसीदाकारी से से अपने इलाके की करीब 22 हजार ऐसी महिलाओं को काम दिया, जो घरेलू मोर्चे पर आर्थिक रूप से कमजोर थीं! 
  रूमादेवी के संघर्ष की कहानी सुनकर और उनसे प्रभावित होकर सोनाक्षी सिन्हा उनकी मदद के लिए बुलाई गई थीं। लेकिन, इस शो के दौरान सोनाक्षी का कमजोर सामान्य ज्ञान देखकर लोग अचरज में आ गए! खासकर रामायण से जुड़े एक आसान सवाल की वजह से! रूमादेवी और सोनाक्षी सिन्हा की जोड़ी से पूछा गया था 'रामायण के मुताबिक, हनुमान किसके लिए संजीवनी बूटी लेकर आए थे?' इसके वैकल्पिक उत्तर दिए थे सुग्रीव, लक्ष्मण, सीता, राम!
  इस आसान सवाल के जवाब पर सोनाक्षी इस कदर अटकी कि सही जवाब (लक्ष्मण) लिए उन्हें लाइफलाइन 'आस्क द एक्सपर्ट' का सहारा लेना पड़ा। इसे लेकर सोशल मीडिया पर उनका खूब मजाक उड़ रहा है! जबकि, शो के सूत्रधार अमिताभ बच्चन ने उसी समय सोनाक्षी सिन्हा को उनके परिवार का परिचय देते हुए कहा कि आपका परिवार ही पूरा रामायण है! शत्रुघ्न सिन्हा पिता है, लव और कुश भाई हैं। राम, लक्ष्मण और भरत आपके चाचा हैं। उनके घर का नाम भी 'रामायण' है। इसी शो का एक सवाल था कि महाराणा प्रताप के समय भारत में किस मुग़ल बादशाह का शासन था! इसका जवाब (अकबर) भी मुश्किल नहीं था! क्योंकि, सोनाक्षी की माताजी पूनम सिन्हा ने इसी इतिहास से जुडी में काम भी किया था! लेकिन, सोनाक्षी इस सवाल पर भी बगले झांकती रही! ख़ास बात ये कि बेहद कम पढ़ी-लिखी रूमादेवी को कई सवालों के सही जवाब आते थे, पर सोनाक्षी उन्हें कन्फ्युस करती रही!
   सोनाक्षी के (अ) सामान्य ज्ञान की तुलना पाँच साल पहले घटी एक ऐसी ही घटना से की जा रही है! तब आलिया भट्ट ने एक टीवी शो 'कॉफी विद करन' में ऐसे ही कुछ सामान्य सवालों के बेढंगे जवाब देकर देशभर में अपना नाम रोशन किया था। वे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और देश के राष्ट्रपति के बीच कन्फ्यूज हो गई थीं। करण जौहर का सवाल था 'भारत के राष्ट्रपति का नाम बताइए?' आलिया भट्ट ने जवाब दिया पृथ्वीराज चव्हाण! तभी से आलिया भट्ट का लगातार मजाक बनाया जाता रहा है। उनके नाम से कई मजाकिया जोक बने थे। इससे पहले भी आलिया, परिणीति चोपड़ा के साथ 'कॉफ़ी विद करण' के एक एपिसोड में आई थीं। तब भी उनसे सामान्य ज्ञान के कई सवाल पूछे गए थे, जिनका परिणीति ने तो ठीक-ठीक जवाब दिया था। लेकिन, आलिया उस समय भी सही जवाब नहीं दे पाई थीं। 
   सोनाक्षी का कुछ महीने पहले एक वीडियो भी जमकर वायरल हुआ था! इसमें उन्हें एक प्रशंसक से बदतमीजी करते देखा गया था। इस वीडियो को अब तक सोशल मीडिया पर 50 हजार से अधिक लोग देख चुके हैंl इस वीडियो को गीतिका स्वामी ने ट्विटर पर डालाl उन्होंने इसे पोस्ट करते हुए प्रश्न पूछा है, ‘अपनी मां के चुनावी प्रचार के दौरान जब एक प्रशंसक ने उन्हें गुलदस्ता देने की कोशिश की, तो उन्होंने इस प्रकार प्रतिक्रिया दी हैl वह सिर्फ मूर्ख ही नहीं अपने प्रसंशक के प्रति घमंडी भी हैं?’ इसके साथ ही उन्होंने एक वीडियो भी शेयर किया थाl इसमें सोनाक्षी सिन्हा को गाड़ी में बैठे हुए देखा जा सकता है और उन्हें एक व्यक्ति गुलदस्ता देने का प्रयत्न कर रहा है! सोनाक्षी सिन्हा यह कहती नजर आ रही है कि नहीं चाहिए और दरवाजा कैसे खोला आपने? 
   ये कुछ वे घटनाएं हैं, जो प्रशंसकों को निराश करने के साथ ही उन कलाकारों की असलियत भी बताती है, जिनके वे दीवाने होते हैं! 'मंगल मिशन' में वैज्ञानिक बनी सोनाक्षी का वास्तव में सामान्य ज्ञान कैसा है, ये 'कौन बनेगा करोड़पति' में सामने आ गया! नामचीन परिवार, बड़े स्कूल-कॉलेजों शिक्षा और बड़ा नाम ज्ञान का आधार नहीं होता! ऐसे घर, परिवारों में भी सोनाक्षी जैसी बेटियां होती हैं, जिन्हें कुछ नहीं आता!
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हर मूड में हिट और फिट हैं, बरसते सावन के गीत!

- एकता शर्मा

  हिंदी फिल्मों में सावन और बरसात के गीतों की अलग ही रंगत रही है। अब तो न ऐसी फ़िल्में बनती हैं और न सावन के गीत फिल्माने का कोई चलन है। लेकिन, ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के ज़माने में ज्यादातर गीत नायिकाओं पर विरह के अंदाज में फिल्माए गए! नायिका को ये विरह अपने साजन का भी था, पीहर का भी, भाई का भी और पिता का भी! लेकिन, नायिका को अपने साजन के घर वापस आने का इंतजार कुछ ज्यादा होता था। इस अहसास का फिल्मों में जमकर इस्तेमाल किया गया।
   1944 की फिल्म ‘रतन’ में ‘रूमझुम बरसे बदरवा मस्त हवाएं आई, पिया घर आजा ...' इसी तरह 1955 में आई ‘आजाद’ में नायिका बादलों से याचना करती है ‘जारी-जारी ओ कारी बदरिया, मत बरसो री मेरी नगरिया, परदेस गए हैं सांवरिया।’ 1955 में ही आई राजकपूर और नरगिस की 'श्री 420' का गीत ‘प्यार हुआ इकरार हुआ’ संगीत प्रेमियों का पसंदीदा है। फिल्म ‘जुर्माना’ (1969) का लता मंगेशकर का गाया गीत ‘सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ’ आज भी सावन में बजता सुनाई देता है। 'पड़ गए झूले सावन ऋतु आई रे' (बहू बेगम), ‘गरजत बरसत सावन आयो रे’ (बरसात की रात), ‘अब के सजन सावन में आग लगेगी बदन में’ (चुपके चुपके) गीत नायिका के विरह की याद दिलाते हैं। 'सावन आया बादल आए मोरे पिया नहीं आए’ (‘जान हाजिर है), ‘तुझे गीतों में ढालूंगा, सावन को आने दो’ (सावन को आने दो), और ‘लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है’ (चांदनी) को कौन भूल सकता है। अक्षय कुमार और रवीना टंडन का 'मोहरा' का गीत ‘टिप टिप बरसा पानी सावन में आग लगाए’ अपने ख़ास अंदाज के लिए याद किया जाता है। इसी तरह मिक्का के एलबम ‘सावन में लग गई आग, दिल मेरा हाय’ लोकप्रिय है।
   किशोर कुमार का सावन वाले गीतों से खास रिश्ता रहा है! उन्होंने इस रंगीले मौसम के कई गीतों गाए हैं। 1958 की फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' का किशोर कुमार और मधुबाला पर फिल्माया गीत ‘एक लड़की भीगी-भागी सी’ भी बहुत प्यारा गीत है। 'मंजिल' फिल्म के ‘रिमझिम गिरे सावन सुलग-सुलग जाए मन’ किशोर कुमार का बरसात पर गाया खूबसूरत गाना था। 'अजनबी' फिल्म के ‘भीगी-भीगी रातों में’ किशोर कुमार की मदहोश कर देने वाली आवाज थी। 'नमक हलाल' के लिए किशोर कुमार का गाया ‘आज रपट जाएं तो हमें न उठईयों’ बेहद खुशनुमा गीत है। जितेन्द्र, रीना राय पर फिल्माया ‘अब के सावन में जी डरे रिमझिम सर से पानी गिरे तन में लगे आग सी...’ (जैसे को तैसा) बरसात में होंठों पर आ ही जाता है।
 आशा पारेख और धर्मेन्द्र का गीत ‘आया सावन झूम के (आया सावन झूम के), और राजेन्द्र कुमार, बबीता पर फिल्माया ‘रिमझिम के गीत सावन ... ’ (अंजाना) के अलावा फिल्म 'मिलन' में सुनील दत्त की गायन क्लास में शिष्या नूतन की मीठी तान ‘सावन का महीना पवन करे शोर’ की मधुरता का कोई जवाब नहीं! धर्मेन्द्र और आशा पारेख की जोड़ी वाली फिल्म 'मेरा गाँव-मेरा देश' का गीत ‘कुछ कहता है ये सावन’ भी बेहतरीन प्रस्तुति था। नीलम और शशि कपूर पर फिल्माया 'सिंदूर' का गीत ‘पतझड़ सावन बसंत बहार, एक बरस में मौसम चार’ मर्म आज भी सुनने वाले को कचोटता है।
  देशभक्ति वाली फ़िल्में बनाने वाले मनोज कुमार ने भी 'रोटी कपड़ा और मकान' में जीनत अमान को देहदर्शना गीत 'हाय हाय ये मज़बूरी ...' पर नचाकर दर्शकों को प्रसन्न किया था। 1958 की फिल्म 'फागुन' के गीत 'बरसो रे बैरी बदरवा बरसो रे ...' के बोल ही नायिका के मनोभाव को व्यक्त करते हैं। प्रेमियों के साथ सावन गीत किसानों को भी सुकून दिलाते हैं। किसानों को इस मौसम का हमेशा ही इंतजार रहता है। 'लगान' का गीत ‘घनन-घनन घिर-घिर आए बदरा’ इसी का उदाहरण है। 'गुरु' के गीत ‘बरसो रे मेघा-मेघा’ के जरिए एक ग्रामीण अल्हड़ लड़की के बारिश में सबसे बेखबर होकर मस्ती करती दिखती है। 60 और 70 के दशक में जब ग्रामीण पृष्ठभूमि पर फिल्में बनती थीं, तब होली गीतों को सावन गीत की तरह भी इस्तेमाल किया गया। कई फिल्मों के तो नाम तक सावन से जोड़कर रखे गए! आया सावन झूम के, सावन को आने दो, ‘प्यासा सावन, सोलहवां सावन, सावन की घटा, और ‘सावन भादो’ जैसी कई फ़िल्में उस दौर में बनी!
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इस अत्याचार का जख्म जिंदगीभर नहीं भरता!

बाल यौन शोषण

- एकता शर्मा 



  यौन विकृतियों से पीड़ित लोगों को बच्चे सबसे सॉफ्ट टारगेट लगते हैं। इसलिए कि बच्चों का बालमन ये भी समझ नहीं पाता कि उनके साथ जो हो रहा है, वो एक घृणित कृत्य है! वे छोटे-छोटे लालच में फँस जाते हैं या धमकियों से डरकर शोषण झेल जाते हैं। मनोचिकित्सकों का कहना है कि अभी बाल यौन शोषण के जितने मामले पुलिस में दर्ज किए जा रहे हैं, असली संख्या उससे कहीं बहुत ज्यादा है। ये इसलिए दर्ज नहीं होते कि कई मामलों में घटना का आरोपी परिवार का नजदीकी सदस्य ही होता है।
  रेलवे स्टेशन, सडकों या धार्मिक स्थलों पर लावारिस घूमने वाले बच्चों के पुनर्वास के क्षेत्र में काम कर रही 'चाइल्ड हेल्प लाइन' के मुताबिक घरों से भागने वाले अधिकांश बच्चे घरों पर किसी न किसी रूप में यौन अत्याचार के शिकार पाए गए हैं। देशभर में 53.22 प्रतिशत बच्चे यौन अत्याचार के शिकार होते हैं। इस पर नियंत्रण का सबसे अच्छा उपाय है 'जागरूकता।' बच्चों को जितना ज्यादा जागरूक किया जाएगा, इस तरह से शोषण को रोकना उतना ही आसान होगा। इसे विडंबना ही माना जाना चाहिए कि हर साल 'विश्व बाल यौन अत्याचार दिवस' की औपचारिक निभाई जाती है, पर कोई सार्थक पहल नहीं होती।  
  इंदौर के एमवाय अस्पताल के मनोरोग विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. वीएस पाल का कहना है कि बच्चों के साथ बचपन में हुआ ये ऐसा हादसा है, जिस अत्याचार के जख्म वे जिंदगीभर नहीं भरता। वे बताते हैं कि मेरे इलाज के लिए आने वाले अधिकांश मनोरोगी ऐसी ही किसी न किसी समस्या से ग्रस्त पाए जाते हैं। हम यह स्वीकार नहीं करना चाहते, कि हमारे देश में ऐसा भी होता है! लेकिन, यह सच है और ये सच्चाई महिला एवं बाल मंत्रालय द्वारा कराए गए अध्ययन और पुलिस में दर्ज शिकायतों से से स्पष्ट हो जाती है। इसके लिए सबसे जरुरी है कि पालक (विशेषकर माताएं) अपने बच्चों के प्रति इस दृष्टिकोण से भी जागरूक हों! बच्चों को आँख मूंदकर किसी के भी भरोसे नहीं किया जाए।
  डॉ पाल का कहना है कि अकसर घरों में रहने वाले अपने बुजुर्गों पर विश्वास करके बच्चे उनके हवाले कर देते हैं। इसी के चलते बच्चे सॉफ्ट टारगेट बन जाते हैं। वे न तो यौन शोषण का विरोध कर पाते हैं और न किसी से अपने साथ हुए अत्याचार का जिक्र कर पाते हैं। ये भी देखा गया है कि कई बार माता या पिता ही बदनामी के डर से घटना को दबा देते हैं। घर के बड़े पुराने नौकर, मामा, चाचा, ताऊ या पिता के दोस्त में से किसके मन में क्या खोट है, कोई नहीं समझ सकता! कई ऐसे मामले भी सामने आए, जब भाई, पिता, काका या बहुत नजदीकी रिश्तेदार ही परिवार की बेटियों या बहनों के यौन शोषण का आरोपी निकला। लेकिन, बदनामी और सामाजिक भय के कारण या तो मामला पुलिस के पास नहीं पहुँचता या उसे दबा दिया जाता है। यदि तात्कालिक प्रतिक्रिया के तहत पुलिस तक पहुँचता भी है, तो मामला अदालत में इतना कमजोर हो जाता है, कि आरोप साबित नहीं हो पाता!
  डॉ पाल बताते हैं कि 55 साल की एक महिला मनोविकार के चलते चिकित्सकीय परामर्श के लिए मेरे यहाँ लाई गई थी। काफी कोशिशों के बाद उसने बताया कि उसके साथ बचपन में दुष्कृत्य करने वाले बड़े काका थे। 'मैं उनके साथ खेलती थी। जब थोड़ी बड़ी हुई, तो उन्होंने मेरे साथ 'बुरा काम' किया। इस हादसे के बाद मैं उनसे डरने लगी और बहुत बुलाने पर भी उनके पास कभी नहीं गई! मैंने माता-पिता या किसी रिश्तेदार तक से इस बात का कभी जिक्र नहीं किया। मैं सारे समय माँ के पास ही चिपकी रहती थी। बड़ी हुई तो मेरे मन में पुरुषों के प्रति नफरत भरी है। आज भी मैं उस हादसे से मुक्त नहीं हो सकी हूँ।' दूसरा मामला 40 साल के एक व्यक्ति का भी है, जिसके मन पर बचपन में हुई यौन शोषण की घटना ने ऐसा दुष्प्रभाव डाला कि शादी के बाद भी वह कभी सामान्य नहीं हो पाया। तीसरी घटना 26 साल की एक युवती की है, जिसने बताया था 'मैं और मेरे काका का लड़का संयुक्त परिवार में एक साथ खेल और पढ़-लिखकर बड़े हुए हैं। वो उम्र में मेरे से एक साल बड़ा था। मैं जब चौथी क्लास में थी, तब उसने मेरे साथ ये कुकृत्य किया। वो घटना काफी त्रासद थी! मैं इस घटना को कभी भूल नहीं पाती। आज भी जब वो हादसा याद आ जाता है, तो मैं कई रातों को सो नहीं पाती!'
  हमारे समाज में संयुक्त परिवारों में रहने वाले बुजुर्ग सम्मानित होते हैं। उनके अनुभव को देखते हुए अधिकांश लोग बच्चों पढ़ाने या घुमाने ले जाने की जिम्मेदारी इन्हें ही सौंपते हैं! जबकि, कोई ये नहीं सोचता कि अकेला बुजुर्ग बच्चों पर यौन अत्याचार करने वाला सबसे बड़ा शिकारी होता है। वर्षों तक मस्तिष्क में इकट्ठा होने वाली यौन कुंठाएँ, बढ़ती उम्र के कारण हो रहे हार्मोनल चेंजेस इस असंतुलित व्यवहार के लिए जिम्मेदार हैं। प्रोस्टेट ग्रंथि के बढ़ने के साथ ही यौन इच्छाएँ भी बढ़ जाती हैं। परिवार के बच्चे आसानी से उनके चंगुल में आ जाते हैं, इसलिए वे आसानी से शिकार भी बन जाते हैं। मनोचिकित्सकों के मुताबिक, बुजुर्गों को पूरा सम्मान दें उनकी देखभाल करें पर बच्चों को उनके हवाले करें तो नजर जरूर रखें! क्योंकि, ऐसे मामलों में सबसे ज्यादा धोखे विश्वास में ही हुए हैं!   
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दर्शकों नहीं चाहते कि फ़िल्में उन्हें ज्ञान बांटे!

-  एकता शर्मा

  फिल्मों में कला और व्यवसाय के बीच तालमेल होना बहुत जरुरी है। इसलिए कि फिल्मों का मूल मकसद मनोरंजन होता है। दर्शक मनोरंजन के लिए ही पैसे खर्च करके सिनेमाघर तक आते है। वे फिल्मों से कोई ज्ञान की उम्मीद नहीं करते! यदि उन्हें ज्ञान की जरुरत भी होगी तो वे फिल्मों से नहीं लेंगे! लेकिन, फिल्मों से मनोरंजन कैसा हो, ये भी एक बड़ा सवाल है! फूहड़ हास्य और अश्लील दृश्यों से भरी कोई फिल्म मनोरंजन नहीं कर सकती! फिल्मों का मनोरंजन ऐसा हो, जो दर्शकों की संवेदनाओं को झकझोर दे!
 फिल्मकारों की जिम्मेदारी है, कि वह समाज को बेहतर दिशा दे! नैतिकता के स्तर को ऊपर उठाने में और बच्चों को बेहतर मूल्य की समझ देने में भूमिका अदा करे! लेकिन, आज के दौर में तथाकथित कला फिल्में या आक्रोशित करने वाली फिल्में या सेक्स कॉमेडी बनाने वालों का तर्क यह रहा है कि फिल्मकारों का काम संदेश देना नहीं है, सिर्फ फिल्में बनाना है। अगर उनकी फिल्मों में अत्यधिक सेक्स, हिंसा, अश्लीलता या संबंधों की विसंगतियां दिखती हैं तो इसके लिए वे नहीं, बल्कि समाज दोषी है, क्योंकि समाज में यह सब होता है और वे समाज से ही अपनी कहानियां उठाते हैं!
   फिल्मकारों को इस बात की आजादी होना चाहिए, कि वे किस तरह की फिल्म बनाना चाहते हैं! इसमें कुछ गलत भी नहीं, पर इस आजादी का दुरूपयोग नहीं होना चाहिए! दुर्भाग्य से हमारी फिल्म इंडस्ट्री का अर्थशास्त्र बड़ी और मसालेदार फिल्मों को ही समर्थन देता है। ये भी सही है कि छोटी और सार्थक फिल्में देखने के इच्छुक दर्शकों का एक बड़ा समुदाय है। आज सार्थक और समाज को प्रेरित करने वाली फिल्मों के दर्शकों की संख्या अनगिनत है। लेकिन, इनकी अनदेखी करके मनोरंजन के बहाने फूहड़ता परोसना किसी भी नजरिए से ठीक नहीं है। लेकिन, फ़िल्मी स्वतंत्रता को स्वछंदता नहीं बनने दिया जाना चाहिए। व्यावसायिकता की दौड़ में भी फिल्मकारों को अपनी जिम्मेदारियों को नहीं भूलना चाहिए!
 फिल्मकारों की समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी होगी, ऐसा नहीं लगता! फिल्मकारों की सबसे बड़ी ताकत उनकी सिनेमाई आजादी है। इसका मतलब है अपनी मर्जी के अनुरूप फिल्में बनाने और उसे दर्शकों तक पहुंचाने की! भले ही दर्शक उन्हें नकार दें! आशय यह कि स्वतंत्रता पर स्वच्छंदता हावी है! यही स्वच्छंदता आजकल फिल्मों में गालियों, सेक्स दर्शना दृश्यों, हिंसा, भौंडी कॉमेडी और गैर जरुरी आक्रोश के रूप में दिखाई दे रही है। फिल्मों में जो आक्रोश दिखता है उनमें कोई स्पष्ट उद्देश्य या वैचारिक आस्था नहीं होती! वो सिर्फ आक्रोश होता हैं। इस आक्रोश का कोई सामाजिक आधार भी नहीं होता और न कोई जिम्मेदारी होती है। जबकि, श्याम बेनेगल, केतन मेहता, गोविन्द निहलानी और प्रकाश झा जैसे फिल्मकारों की फिल्मों में, जिन्हें कला फिल्में या समानांतर फिल्में कहा जाता था, आक्रोश का एक सामाजिक और वैचारिक आधार होता था! लेकिन, कला या समानांतर फिल्मों ने अपना जनाधार को खो दिया! क्योंकि, माना गया कि अतिशय-यथार्थवाद के कारण ये फिल्में दर्शकों से दूर होती गईं। दर्शकों को जब ये फिल्में बोझिल लगने लगीं, तो इनमें पैसे लगाने वाले पीछे हटते गए और कला फिल्में इतिहास में चली गईं!
  देखा गया है कि फिल्मों में आक्रोश व्यक्त करना बहुत आसान है! क्योंकि, उसमें यथार्थ को जस का तस रख देना होता है। लेकिन, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक या धार्मिक विसंगति या मुद्दों पर फिल्में बनाना मुश्किल काम होता है। 70 और 80 के दशक में फिल्मकारों ने समाज और देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझकर फिल्में बनाईं! पुराने दौर को देखें तो महबूब खान, हृषिकेश मुखर्जी, वासू चटर्जी, शक्ति सामंत, वी. शांताराम जैसे फिल्मकारों की फिल्मों में कला और व्यवसाय में जो संतुलन और सार्थक मिलन दिखता था, जाहिर है, उसे पाना आसान नहीं था।
  मौजूदा फिल्मों की एक और जमात हैं, जिनका सामाजिक सरोकार अलग ही है! लेकिन, उनकी फिल्में समाज की किसी न किसी सामाजिक, पारिवारिक विसंगति की ओर लोगों का ध्यान जरूर खींचती हैं। ये फिल्मकार स्वतंत्र हैं, स्वच्छंद नहीं! इनकी फिल्मों को दर्शक पसंद भी करते हैं। ओएमजी, मुन्ना भाई एमबीबीएस, लगे रहो मुन्ना भाई, थ्री इडियट्स, रंग दे बसंती, नो वन किल्ड जेसिका, तनु वेड्स मनु, बरेली की बर्फी और बधाई हो जैसी कई फिल्में हैं, जिन्होंने महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए और कमाई के रिकॉर्ड भी तोड़े! दर्शक ऐसी ही फ़िल्में देखना चाहते हैं! क्योंकि, ये खालिस मनोरंजन है, कोई ज्ञान का अध्याय नहीं!
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Monday 19 August 2019

खय्याम के साथ संगीत के स्वर्ण युग के अंतिम कड़ी टूटी!


- एकता शर्मा 

  संगीतकार ख़य्याम के साथ एक युग का अंत हो गया! हिंदी फिल्मों के जिस दौर को संगीत का गोल्डन युग कहा जाता है, उस दौर की वे अंतिम कड़ी थे। खय्याम के साथ ये कड़ी भी टूट गई! लेकिन, फिर भी हिंदी फिल्म संगीत को जिन संगीतकारों के नाम से जाना जाएगा, उनमें एक खय्याम भी होंगे! ख़य्याम ने दूसरों के मुकाबले बहुत कम संगीत दिया, पर जितना दिया है उसमें ज्यादातर फ़िल्में मील का पत्थर बनीं! किसी भी फिल्म या गीत के साथ कोई समझौता नहीं किया! कभी किसी की नक़ल नहीं की और न ट्रेंड के साथ बहे! 
  उनका नाम कुछ अटपटा सा था! इसके पीछे भी एक कारण रहा। एक बार एक इंटरव्यू में ज़िया सरहदी ने उनसे पूछा कि आपका पूरा नाम क्या है, इस पर खय्याम ने उन्हें बताया 'मोहम्मद ज़हूर ख़य्याम!' इस पर उन्होंने कहा कि अरे तुम 'ख़य्याम' नाम क्यों नहीं रखते! उस दिन से उनका नाम ख़य्याम हो गया! ये वही जिया सरहदी थे, जिनकी फिल्म 'फुटपाथ' (1952) में खय्याम ने संगीत दिया था। 1947 में जब उन्होंने अपना संगीत करियर शुरू किया था, तब उन्होंने करीब 5 साल 'शर्माजी' के नाम से संगीत दिया! वे रहमान के साथ जोड़ी बनाकर संगीत देते थे! आजादी के बाद संगीतकार रहमान पाकिस्तान चले गए तो उन्होंने मोहम्मद ज़हूर ख़य्याम नाम से संगीत दिया। 
   खय्याम को भी उस दौर के नौजवानों की तरह एक्टिंग का शौक था! वे केएल सहगल की तरह गायक और एक्टर बनना चाहते थे! इसी धुन में वे दिल्ली से अपने चाचा के पास मुंबई आ गए थे। घर में सभी नाराज़ हुए। परिवार वाले एक्टिंग के लिए तो तैयार नहीं हुए, पर ये मान गए कि वे मशहूर पं हुस्नलाल-भगतराम से संगीत की शिक्षा लेंगे! 1947 में खय्याम को पहली बार 'हीर रांझा' फिल्म में संगीत देने का मौका मिला। 1950 में मोहम्मद रफ़ी के फ़िल्म 'बीवी' के गाने 'अकेले में वो घबराते तो होंगे' से उनकी पहचान बनी! इसके बाद उन्होंने 'रोमियो जूलियट' जैसी फ़िल्मों में संगीत तो दिया ही था और गाना भी गाया! इसके बाद ख़य्याम का नाम चल पड़ा। 1953 में आई 'फ़ुटपाथ' से ये सिलसिला चल निकला। कभी-कभी, बाज़ार, उमराव जान, रज़िया सुल्तान जैसी फ़िल्मों में संगीत दिया।
   राजकपूर के साथ उन्होंने 'फिर सुबह होगी' फिल्म का संगीत दिया। इस फिल्म के मिलने की एक बड़ी वजह ये थी कि खय्याम ने उस उपन्यास 'क्राइम एंड पनिशमेंट' को पढ़ा थी, इसी पर वो फ़िल्म बनी थी। 1958 में 'फिर सुबह होगी' में मुकेश के साथ उनका गीत 'वो सुबह कभी तो आएगी' आज भी कानों में रस घोलता है। 1961 में 'शोला और शबनम' में रफ़ी के साथ 'जाने क्या ढूँढती रहती हैं ये आँखें मुझमें' गीत की रचना की तो 1966 की फ़िल्म 'आख़िरी ख़त' में लता के साथ 'बहारों मेरा जीवन भी सवारो' का संगीत बनाया! ये वो चंद गीत हैं, जो हिंदी फिल्म संगीत की विरासत हैं और ये खय्याम के नाम पर दर्ज है। 
   ख़य्याम ने 70 और 80 के दशक में कई बड़ी फिल्मों के लिए संगीत दिया। कभी-कभी, त्रिशूल, ख़ानदान, नूरी, थोड़ी सी बेवफ़ाई, दर्द, आहिस्ता आहिस्ता, दिल-ए-नादान, बाज़ार, रज़िया सुल्तान जैसी फ़िल्मों में एक से बढ़कर एक गाने दिए। ये उनके संगीत करियर का सुनहरा दौर था। ख़य्याम भले ही संगीत प्रेमियों से जुदा हो गए हों लेकिन बहुत सारे संगीत प्रेमियों के लिए वाक़ई उनसे बेहतर कहने वाला कोई नहीं होगा।1976 में 'कभी कभी' से खय्याम ने अपने करियर की नई पारी शुरू की थी। गायिका जगजीत कौर उनकी पत्नी थीं। कुछ साल पहले ख़्य्याम साहब और जगजीत कौर जी ने अपनी पूरी संपत्ति करीब दस करोड़ रुपए संघर्षरत कलाकारों के नाम दान कर दी थी। 
  आज बॉलीवुड की ज्यादातर फिल्मों में पंजाबी गाने होते हैं! इसकी शुरुआत का श्रेय भी ख़य्याम को जाता है! ‘कभी-कभी’ पंजाबी पृष्ठभूमि में बनी प्रेम त्रिकोण वाली फ़िल्म थी, जिसमें खय्याम ने संगीत दिया था। पंजाब की ढोलक की टाप, टप्पे, गिद्द्दा और भांगड़ा इस फिल्म के संगीत की खासियत थी। इस फ़िल्म का हर गाना हिट हुआ। इस फिल्म के गीत ‘कभी-कभी मेरे दिल में’ के लिए तो मुकेश को मरणोपरांत फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मिला था। ये वो फिल्म थी जिसने तीन दशक से संघर्ष कर रहे ख़य्याम को संगीतकारों के शिखर पर खड़ा कर दिया था। 1981 को उनके जीवन का श्रेष्ठ समय कहा जा सकता है, जब 'उमराव जान' रिलीज़ हुई थी। इस फिल्म के गानों ने उन्हें कालजयी बना दिया। शहरयार की ग़ज़लें, आशा भौंसले की आवाज और रेखा की एक्टिंग ने इस फिल्म के संगीत ने जादू किया था। खय्याम ने आशा भोंसले की आवाज़ को नया आयाम दिया। इसके बाद ‘बाज़ार’ में मीर तकी मीर की ग़ज़ल ‘दिखाई दिए यूं के बेख़ुद किया’ भी यादगार गीत रहा! 

खय्याम के संगीतबद्ध किए कुछ यादगार नगमे :
1. शाम-ए-ग़म की कसम (फ़िल्म- फ़ुटपाथ – 1953)
2. फिर ना कीजे मेरी गुस्ताख़ निगाही का गिला (फिर सुबह होगी – 1958)
3. जाने क्या ढूंढती रहती हैं ये आंखें मुझ में (फ़िल्म – शोला और शबनम 1961)
4. तुम अपना रंजो ग़म अपनी परेशानी (फ़िल्म – शगुन 1964)
5. बहारो, मेरा जीवन भी संवारो (फ़िल्म- आख़री ख़त 1966) 
6. कभी कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है (कभी कभी 1976)
7. हज़ार राहें, मुड़ के देखें (फ़िल्म – थोड़ी से बेवफ़ाई 1980)
8. दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए (फ़िल्म – उमराव जान 1981)
9. कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता (फ़िल्म – आहिस्ता आहिस्ता 1981)
10. दिखाई दिए क्यों (फ़िल्म – बाज़ार 1982) 
11. ऐ दिल-ए-नादां (फ़िल्म – रज़िया सुल्तान 1983)
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Saturday 17 August 2019

'रजनीगंधा' सी महकती 'विद्या' का ख़ामोशी से चले जाना!

   फ़िल्मी दुनिया का अपना अजीब सा ढर्रा है, जो आजतक कोई समझ नहीं पाया! यहाँ जो कलाकार जिस किरदार में ढल जाता है, वही उसकी पहचान बन जाती है। ऐसे में वो वहाँ से बड़ी मुश्किल से निकल पाता है! सबसे ज्यादा परेशानी नायिकाओं के साथ आती है! यदि उनका करियर सीधी-साधी घरेलू लड़की में ढल गया तो उन्हें मॉर्डन गर्ल का रोल मिलना आसान नहीं होता! 70 के दशक की नायिका विद्या सिन्हा ऐसी ही अभिनेत्री थी, जो दस साल में 30 फ़िल्में करने के बाद भी अपनी छवि का कवच तोड़कर बाहर नहीं निकल सकीं और अपनी उसी पहचान के साथ दुनिया से बिदा हो गईं! विद्या की निजी जिंदगी काफी तकलीफों भरी रही। उन्होंने दो शादियां की थीं। लेकिन, उन्हें जीवन का सुख एक से भी नहीं मिला। 
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  फिल्मों में आदर्श भारतीय लड़की का रोल निभाने वाली विद्या सिन्हा उस खाके में कभी फिट नहीं हुई, जिसे हिंदी फिल्मों की हीरोइन कहा जाता है। उनकी नैसर्गिक सुंदरता सहज और आम भारतीय नारी जैसी थी! सामाजिक नजरिए से ये पहचान अच्छी है, पर विद्या सिन्हा के लिए ये खामी की तरह थी! आम तौर पर फिल्मों में यही होता है। 1974 में आई 'रजनीगंधा' से लगाकर बाद में आई सभी फिल्मों में इस अभिनेत्री को साड़ी वाले रोल मिले! कारण वे चाहकर भी उस मुकाम तक नहीं पहुँच सकी, जो उनकी काबलियत थी! वे शबाना आजमी की तरह बड़े बाप की बेटी तो थी नहीं, जिन्हें अंकुर, निशांत, मंथन और चक्र जैसी ठेठ कला फ़िल्में करने के बाद शशि कपूर के साथ 'फकीरा' और विनोद खन्ना के साथ 'परवरिश' जैसी बड़ी फिल्म करने का मौका मिले! विद्या सिन्हा ने काम तो संजीव कुमार, राजेश खन्ना और शशि कपूर जैसे बड़े नायकों के साथ किया, पर अपनी छवि को तोड़कर बाहर नहीं निकल सकी! 
     आमतौर पर फ़िल्मी दर्शक शादीशुदा हीरोइनों को ज्यादा पसंद नहीं करते! वही विद्या सिन्हा के साथ भी हुआ! 'मिस मुंबई' बनने के बाद उन्होंने अपने पडोसी वेंकेटेश्वर अय्यर से शादी कर ली! विद्या के ससुराल वाले उनके फिल्मों में काम करने के खिलाफ थे! लेकिन, बाद में वे मान गए। विद्या को पहली फिल्म 'राजा काका' ही राजेश खन्ना के साथ मिली थी! पर ये रिलीज हुई 'रजनीगंधा' के बाद! हुआ यूँ कि 'मिस मुंबई' बनने के बाद विद्या मॉडलिंग करने लगी थी! साड़ी के एक विज्ञापन में उन्हें वासू चटर्जी ने देखा और अमोल पालेकर के साथ 'रजनीगंधा' के लिए सिलेक्ट कर लिया। 'रजनीगंधा' पहले रिलीज हुई और हिट भी हो गई। इस फिल्म के दो गीत 'कई बार यूं भी देखा है, ये जो मन की सीमा रेखा है और 'रजनीगंधा फूल तुम्हारे' तो इतने पसंद किए गए कि आज साढ़े 4 दशक बाद भी गुनगुनाए जाते हैं। 'रंजनीगंधा' ने बेस्ट फिल्म का 'फिल्म फेयर' अवॉर्ड भी जीता। 'कई बार यूं भी देखा है ...' के लिए गायक मुकेश को भी 'फिल्म फेयर' मिला। लेकिन, विद्या की दूसरी फिल्म 'राजा काका' नहीं चली! एक हिट और एक फ्लॉप का असर ये हुआ कि 'रजनीगंधा' के बाद विद्या को कोई फिल्म नहीं मिली!
  करीब दो साल बाद फिर उन्हें बासु चटर्जी ने ही 'छोटी सी बात' में मौका दिया। इस फिल्म ने भी अपार लोकप्रियता पाई और एक बार फिर फिल्म की सफलता में गीतों की अहम भूमिका रही। इस फिल्म के गीत 'ना जाने क्यों, होता है ये जिंदगी के साथ' और 'जानेमन जानेमन तेरे दो नयन' को भुलाया नहीं जा सकता! विद्या सिन्हा को इसके बाद फ़िल्में तो मिली, पर उसी छवि में जो उनकी बन चुकी थी! सीधी-साधी घरेलू लड़की की उनकी पहचान इतनी मजबूत हो गई थी कि उन्हें कभी भी ग्लैमरस किरदार नही मिले। विद्या ने चालू मेरा नाम, इंकार और 'मुकद्दर' जैसी फिल्में भी की पर बात नहीं बनी! राजेश खन्ना के साथ उन्होंने अंधविश्वास वाली फिल्म 'कर्म' भी की, लेकिन छवि नहीं टूटी! उनके जीवन में 'मुक्ति' अहम पड़ाव बनी। इसमें शशि कपूर और संजीव कुमार जैसे कलाकार थे, इस कारण विद्या फिल्म में गुम होकर रह गई! विद्या की सबसे बड़ी फिल्मों में एक थी संजीव कुमार और रंजीता के साथ 'पति पत्नी और वो!' ये भी खूब चली पर सारा श्रेय संजीव कुमार को मिला। दस साल में भी अपनी छवि से बाहर न निकल पाने की पीड़ा उन्हें इतनी सालने लगी कि विद्या ने फिल्मों से संन्यास ले लिया। उसके बाद वे फिल्म परिदृश्य से गायब ही हो गई!
   बेटी के कहने पर विद्या सिन्हा ने अभिनय की दूसरी पारी खेलने का फैसला किया और शुरूआत टीवी से की। 'तमन्ना' उनका पहला सीरियल था। फिर बहूरानी, हम दो हैं ना, काव्यांजलि, भाभी और 'कुबूल है' जैसे कई सीरियलों में वे दिखाई दीं। उन्होंने सलमान खान की 'फिल्म बॉडीगार्ड' में भी काम किया। 'कुल्फी कुमार बाजेवाला' विद्या का आखिरी सीरियल था, जिसमें उन्होंने मां का रोल किया था। साधारण महिला के किरदार में फिट होने वाली विद्या चली भी बड़ी ख़ामोशी से गई! लेकिन, 'रजनीगंधा' की महक की तरह वे उनके प्रशंसकों के दिल से जल्दी बिदा नहीं होंगी!  
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हर मूड में हिट और फिट हैं, बरसते सावन के गीत!

- एकता शर्मा

 हिंदी फिल्मों में सावन और बरसात के गीतों की अलग ही रंगत रही है। अब तो न ऐसी फ़िल्में बनती हैं और न सावन के गीत फिल्माने का कोई चलन है। लेकिन, ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के ज़माने में ज्यादातर गीत नायिकाओं पर विरह के अंदाज में फिल्माए गए! नायिका को ये विरह अपने साजन का भी था, पीहर का भी, भाई का भी और पिता का भी! लेकिन, नायिका को अपने साजन के घर वापस आने का इंतजार कुछ ज्यादा होता था। इस अहसास का फिल्मों में जमकर इस्तेमाल किया गया।
  1944 की फिल्म ‘रतन’ में ‘रूमझुम बरसे बदरवा मस्त हवाएं आई, पिया घर आजा ...' इसी तरह 1955 में आई ‘आजाद’ में नायिका बादलों से याचना करती है ‘जारी-जारी ओ कारी बदरिया, मत बरसो री मेरी नगरिया, परदेस गए हैं सांवरिया।’ 1955 में ही आई राजकपूर और नरगिस की 'श्री 420' का गीत ‘प्यार हुआ इकरार हुआ’ संगीत प्रेमियों का पसंदीदा है। फिल्म ‘जुर्माना’ (1969) का लता मंगेशकर का गाया गीत ‘सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ’ आज भी सावन में बजता सुनाई देता है। 'पड़ गए झूले सावन ऋतु आई रे' (बहू बेगम), ‘गरजत बरसत सावन आयो रे’ (बरसात की रात), ‘अब के सजन सावन में आग लगेगी बदन में’ (चुपके चुपके) गीत नायिका के विरह की याद दिलाते हैं। 'सावन आया बादल आए मोरे पिया नहीं आए’ (‘जान हाजिर है), ‘तुझे गीतों में ढालूंगा, सावन को आने दो’ (सावन को आने दो), और ‘लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है’ (चांदनी) को कौन भूल सकता है। अक्षय कुमार और रवीना टंडन का 'मोहरा' का गीत ‘टिप टिप बरसा पानी सावन में आग लगाए’ अपने ख़ास अंदाज के लिए याद किया जाता है। इसी तरह मिक्का के एलबम ‘सावन में लग गई आग, दिल मेरा हाय’ लोकप्रिय है। 
     किशोर कुमार का सावन वाले गीतों से खास रिश्ता रहा है! उन्होंने इस रंगीले मौसम के कई गीतों गाए हैं। 1958 की फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' का किशोर कुमार और मधुबाला पर फिल्माया गीत ‘एक लड़की भीगी-भागी सी’ भी बहुत प्यारा गीत है। 'मंजिल' फिल्म के ‘रिमझिम गिरे सावन सुलग-सुलग जाए मन’ किशोर कुमार का बरसात पर गाया खूबसूरत गाना था। 'अजनबी' फिल्म के ‘भीगी-भीगी रातों में’ किशोर कुमार की मदहोश कर देने वाली आवाज थी। 'नमक हलाल' के लिए किशोर कुमार का गाया ‘आज रपट जाएं तो हमें न उठईयों’ बेहद खुशनुमा गीत है। जितेन्द्र, रीना राय पर फिल्माया ‘अब के सावन में जी डरे रिमझिम सर से पानी गिरे तन में लगे आग सी...’ (जैसे को तैसा) बरसात में होंठों पर आ ही जाता है।
 आशा पारेख और धर्मेन्द्र का गीत ‘आया सावन झूम के (आया सावन झूम के), और राजेन्द्र कुमार, बबीता पर फिल्माया ‘रिमझिम के गीत सावन ... ’ (अंजाना) के अलावा फिल्म 'मिलन' में सुनील दत्त की गायन क्लास में शिष्या नूतन की मीठी तान ‘सावन का महीना पवन करे शोर’ की मधुरता का कोई जवाब नहीं! धर्मेन्द्र और आशा पारेख की जोड़ी वाली फिल्म 'मेरा गाँव-मेरा देश' का गीत ‘कुछ कहता है ये सावन’ भी बेहतरीन प्रस्तुति था। नीलम और शशि कपूर पर फिल्माया 'सिंदूर' का गीत ‘पतझड़ सावन बसंत बहार, एक बरस में मौसम चार’ मर्म आज भी सुनने वाले को कचोटता है।
  देशभक्ति वाली फ़िल्में बनाने वाले मनोज कुमार ने भी 'रोटी कपड़ा और मकान' में जीनत अमान को देहदर्शना गीत 'हाय हाय ये मज़बूरी ...' पर नचाकर दर्शकों को प्रसन्न किया था। 1958 की फिल्म 'फागुन' के गीत 'बरसो रे बैरी बदरवा बरसो रे ...' के बोल ही नायिका के मनोभाव को व्यक्त करते हैं। प्रेमियों के साथ सावन गीत किसानों को भी सुकून दिलाते हैं। किसानों को इस मौसम का हमेशा ही इंतजार रहता है। 'लगान' का गीत ‘घनन-घनन घिर-घिर आए बदरा’ इसी का उदाहरण है। 'गुरु' के गीत ‘बरसो रे मेघा-मेघा’ के जरिए एक ग्रामीण अल्हड़ लड़की के बारिश में सबसे बेखबर होकर मस्ती करती दिखती है। 60 और 70 के दशक में जब ग्रामीण पृष्ठभूमि पर फिल्में बनती थीं, तब होली गीतों को सावन गीत की तरह भी इस्तेमाल किया गया। कई फिल्मों के तो नाम तक सावन से जोड़कर रखे गए! आया सावन झूम के, सावन को आने दो, ‘प्यासा सावन, सोलहवां सावन, सावन की घटा, और ‘सावन भादो’ जैसी कई फ़िल्में उस दौर में बनी! 
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सिर्फ याद करने की तारीख न रहे आजादी का ये दिन!

  देश का जनमानस उस तिथि या घटना को ही अक्षुण्ण बनाए रख पाता है, जिसमें आध्यात्मिकता का पुट हो! क्योंकि, एतिहासिकता में आध्यात्मिकता का भाव होना जरुरी है। अन्यथा, भारतीय जनमानस औपचारिकताओं में अपनी रुचि कम कर देता है। इसी भाव के कारण दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से राष्ट्रीय पर्वों पर आम जनमानस का उत्साह धार्मिक पर्वों के अवसर पर कम दिखाई देता है। हालांकि, आध्यात्मिकता के बिना एतिहासिक घटनाओं के प्रति जनमानस का अधूरापन दिखाना, जागरुक लोगों को बुरा लगता है। 
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- एकता शर्मा 

  क बार फिर 15 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस का दिन आ गया! एक ऐसा दिन जो हमारी और आपकी आजादी को याद दिलाता है। उस आजादी को जिसने हमें धर्म और कर्म के साथ हर वो आजादी दी जो किसी के भी सामाजिक जीवन के लिए जरुरी होती है। लेकिन, बढ़ते भ्रष्टाचार, अराजकता, बेरोजगारी और भुखमरी के कारण कई लोगों के लिए स्वतंत्रता दिवस का ये दिन भूली-बिसरी घटना हो गई है। आजादी को सात दशक बीत गए। आशय यह है कि हर परिवार की करीब चार पीढ़ियों ने इस आजाद देश में सांस ली होगी! पीढ़ी दर पीढ़ी एतिहासिक घटनाओं की स्मृतियां फीकी पड़ती जाती हैं। फिर एक समय ऐसा आता है जब उन्हें विस्मृत कर दिया जाता है। यदि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को हर वर्ष औपचारिक रूप से पूरे देश में नहीं मनाया जाए, तो शायद हम इन तारीखों को भी भूल चुके होते! औपचारिक रूप से मनाए जाने के बाद भी कुछ सालों बाद एक दिन यह स्थिति जरूर आएगी, जब इसे याद रखने वालों की संख्या भी कम हो जाएगी या फिर लोग इसे औपचारिकता मानकर इसमें अरुचि दिखाएंगे। 
   देखा गया है कि ऐतिहासिक स्मृतियों की आयु कम होने का कारण इनके भुला देने की आशंका ज्यादा रहती है। क्योंकि, दुनिया में लोगों की अन्य विषयों में लिप्तता इतनी रहती है कि उनमें सक्रियता का संचार नई एतिहासिक घटनाओं का सृजन करता है। लोगों की इसी सक्रियता के कारण जहां इतिहास दर इतिहास बनता है, वही उनको विस्मृत भी कर दिया जाता है। इतिहास गवाह है कि हर पीढ़ी उन्हीं घटनाओं से प्रभावित होती है, जो उसके सामने घटती हैं। पुरानी घटनाओं को नई पीढ़ी कम ही याद रखती है। इसके विपरीत जिन घटनाओं का अध्यात्मिक महत्व होता है, उन्हें सदियों तक जहन में संजोय रखा जाता है। हम अपने अध्यात्मिक स्वरूपों में भगवत् स्वरूप की अनुभूति करते हैं क्योंकि भगवान श्री विष्णु, श्री ब्रह्मा, श्री शिव, श्री राम, श्री कृष्ण तथा अन्य स्वरूपों की गाथाएं दृढ़ता से हमारे जनमानस में बसी हैं। कबीर, तुलसी, रहीम, और मीराबाई ने हमारे अंदर तक आंदोलित किया है। यही कारण है कि उनकी जगह ऐसी बनी कि वह हमारे इतिहास में भक्त स्वरूप हो गए। उनकी श्रेणी भगवान से कम नहीं बनी।
  हमारे देश के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अनेक महापुरुष हुए। उनके योगदान का इतिहास है, जिसे बरसों से पढ़ाया जा रहा है। हैरानी की बात है कि इनमें से अनेक भारतीय अध्यात्म से सराबोर होने के बावजूद भारतीय जनमानस में उनकी छवि भक्त या ज्ञानी के रूप में नहीं बन पाई। स्वतंत्रता संग्राम में उनकी सक्रिय छवि ने उनके अध्यात्मिक पक्ष को ढंक दिया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी अनेक लोग राजनीतिक संत कहते हैं, जबकि उन्होंने मानव जीवन को सहजता से जीने की कला सिखाई है। आज महात्मा गाँधी को भी इसलिए लोग भुला नहीं पाए, क्योंकि वे किसी न किसी रूप में हमारे चारों और मौजूद हैं। आध्यात्मिक दर्शन राष्ट्र या मातृभूमि को महत्व नहीं देता, ये बात नहीं है! श्रीकृष्ण ने तो महाभारत के युद्ध के समय अपने मित्र अर्जुन को राष्ट्रहित के लिए उसे धर्म के अनुसार निर्वाह करने का उपदेश दिया। दरअसल, क्षत्रिय कर्म का निर्वाह मनुष्य के हितों की रक्षा के लिए ही किया जाता है। यह जरूर है कि चाहे कोई भी धर्म हो या कर्म अध्यात्मिक ज्ञान होने पर ही पूर्णरूपेण उसका निर्वाह किया जा सकता है। 
    भारत और यूनान दुनिया के सबसे पुराने राष्ट्र माने जाते हैं। भारतीय इतिहास के अनुसार एक समय यहां के राजाओं के राज्य का विस्तार ईरान और तिब्बत तक था कि आज का भारत उनके सामने बहुत छोटा दिखाई देता है। ऐसे राजा ही चक्रवर्ती राजा कहलाए! यह इतिहास ही राष्ट्र के प्रति गौरव रखने का भाव अनेक लोगों में अन्य देशों के नागरिकों की राष्ट्र भक्ति दिखाने की प्रवृत्ति की अपेक्षा कम कर देता है। कई देशों के लोग इस देश के लोगों में कुछ ज्यादा ही राष्ट्र भक्ति होने की बात कहते हैं। इसलिए कि विदेशी शासकों ने यहाँ आक्रमण जरूर किया पर भारत की संस्कृति और सभ्यता अक्षुण्ण रही! आशय यह कि 15 अगस्त को देश ने केवल राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त की और कालांतर में वैसा ही महत्व माना भी गया!
  स्वतंत्रता के बाद देश के लोगों ने भारतीय अध्यात्मिकता को तिरस्कृत नहीं किया, उसके साथ पश्चिम से आए विचारों को भी अपनाया! उनको शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में जोड़ने की सदाशयता भी दिखाई। भारतियों ने विदेशी साहित्य को हिन्दी में अनुवाद करके विदेशी विद्वानों को कालजयी भी बनाया! इससे नुकसान ये हुआ कि धीमे-धीमे सांस्कृतिक विभ्रम की स्थिति बनी। अब तो यह स्थिति यह है कि कई नए विद्वान भारतीय आध्यात्मक के प्रति निरपेक्ष भाव रखना आधुनिकता समझते हैं! इसके बावजूद साढ़े छह दशकों में इतिहास की छवि भारत के अध्यात्मिक पक्ष को विलोपित नहीं कर सकी। इसका श्रेय उन महानुभावों को दिया जाना चाहिए, जिन्होंने निष्काम से जनमानस में अपने देश के पुराने ज्ञान की धारा को प्रवाहित रखने का प्रयास किया। यही कारण है कि 15 अगस्त और 26 जनवरी को मनाने तथा भीड़ को अपने साथ बनाए रखने के लिए तरह-तरह के प्रयास करने पड़ते हैं! जबकि, रामनवमी, जन्माष्टमी और महाशिवरात्रि को लोग स्वप्रेरणा से ही मनाते हैं। क्योंकि, इतिहास और आध्यात्मिक धाराएं अलग-अलग हो गई हैं, जो कि नहीं होना चाहिए!
 सबसे बड़ी बात यह है कि इस आजादी ने देश का औपचारिक रूप से बंटवारा कर दिया, जिसने देश के जनमानस को निराश किया है। कई लोगों को अपने घरबार छोड़कर शरणार्थी की तरह जीवन जीना पड़ा! शुरुआती दौर में विस्थापितों को लगा कि यह विभाजन क्षणिक है, पर कालांतर में जब उसके स्थाई होने की बात सामने आई तो उन पर से स्वतंत्रता का बुखार उतर गया! जो विस्थापित नहीं हुए उन्हें भी देश के इस बंटवारे का दुःख है। विभाजन के समय हुई हिंसा का इतिहास आज भी याद किया जाता है। यह सब भी विस्मृत हो जाता, अगर देश ने वैसा स्वरूप पाया होता जिसकी कल्पना आजादी के समय दिखाई गई थी!
  ऐसा न होने से निराशा होती है पर भारतीय अध्यात्मिक दर्शन इसे उबार लेता है। फिर जब हमारे अंदर यह भाव आता है कि भारत तो प्राचीन काल से है राजा बदलते रहे हैं! सीधे शब्दों में कहें तो देश का जनमानस उस तिथि या घटना को ही अक्षुण्ण बनाए रख पाता है, जिसमें आध्यात्मिकता का पुट हो! एतिहासिकता के साथ आध्यात्मिकता का भाव होना जरुरी है। अन्यथा, भारतीय जनमानस औपचारिकताओं में अपनी रुचि कम कर देता है। इसी भाव के कारण दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से राष्ट्रीय पर्वों पर आम जनमानस का उत्साह धार्मिक पर्वों के अवसर पर कम दिखाई देता है। हालांकि, आध्यात्मिकता के बिना एतिहासिक घटनाओं के प्रति जनमानस का अधूरापन दिखाना, जागरुक लोगों को बुरा लगता है। भविष्य में इस बात पर आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए कि 15 अगस्त और 26 जनवरी याद करने की तारीख भी न रह जाए!
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