Wednesday 13 February 2019

अधूरी इच्छाओं और दुखभरे जीवन वाली निष्णात खूबसूरती 'मधुबाला'


- एकता शर्मा 

  ज यदि किसी से पूछा जाए कि फिल्मों की सबसे खूबसूरत अभिनेत्री कौनसी है, तो उसके जहन में कई नाम एक साथ उभरेंगे! लेकिन, यदि सर्वकालीन खूबसूरत अभिनेत्री की बात की जाए तो अधिकांश लोग 'मधुबाला' को ही सबसे खूबसूरत मानेंगे! वास्तव में आज भी कोई अभिनेत्री मधुबाला के मुकाबले में सुंदर नहीं है। वे सिर्फ चेहरे से ही सुंदर नहीं थीं, उनके अभिनय में एक आदर्श भारतीय नारी को देखा गया था! चेहरे से भावाभियक्ति तथा नज़ाक़त उनकी प्रमुख खासियत थी। मधुबाला की अभिनय प्रतिभा, व्यक्तित्व और खूबसूरती को देखकर यही कहा जाता है कि वे भारतीय सिनेमा की आज भी उनकी जोड़ की कोई अभिनेत्री नहीं हुई! हिन्दी फ़िल्मों में मधुबाला के अभिनय काल को स्वर्ण युग कहा जाता है।
    मधुबाला का जन्म 14 फरवरी 1933 को दिल्ली में हुआ था। उन्होंने बचपन से ही फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया और साल 1949 में फिल्म 'महल' के साथ उन्हें पहली बड़ी कामयाबी भी मिली। इसके बाद मधुबाला ने अमर, मिस्टर एंड मिसेज 55, काला पानी, चलती का नाम गाड़ी और 'मुगल-ए-आजम' जैसी सुपरहिट फिल्मों में काम किया। अपने अभिनय से उन्होंने करोड़ों प्रशंसकों के दिलों पर अपनी खूबसूरती और अभिनय की छाप छोड़ी। अपने करियर के दौरान उनका नाम कई अभिनेताओं के साथ जोड़ा गया! लेकिन, दिलीप कुमार के साथ उनकी हाई-प्रोफाइल लव स्टोरी को खास तवज्जो मिली! बीआर चोपड़ा ने फिल्म 'नया दौर' के लिए पहले मधुबाला को ही साइन किया था, लेकिन उनके पिता मुंबई से बाहर शूटिंग के लिए राजी नहीं हुए और मधुबाला को ये फिल्म छोड़ना पड़ी! बाद में ये सारा विवाद कोर्ट तक गया और कहा जाता है कि दिलीप कुमार ने अदालत में मधुबाला के खिलाफ गवाही दी थी। इससे मधुबाला का दिल टूट गया था। दिलीप कुमार से ब्रेकअप के बाद मधुबाला को अपनी दिल की लाइलाज बीमारी के बारे में पता चला। इसी दौरान उनकी किशोर कुमार से शादी हुई। कहा जाता है कि सबकुछ पाकर भी मधुबाला की एक इच्छा अधूरी ही रही! वे बिमल रॉय की फ़िल्म 'बिराज बहू' में काम करना चाहती थीं। उन्होंने इस फिल्म के लिए बिमल रॉय के दफ़्तर के कई चक्कर भी लगाए! लेकिन, बिमल रॉय ने उन्हें कास्ट नहीं किया। मधुबाला को अंतिम वक़्त तक इस बात का अफ़सोस रहा!      
  मधुबाला का बचपन का नाम 'मुमताज़ बेग़म जहाँ देहलवी' था। कहा जाता है कि एक भविष्यवक्ता ने उनके माता-पिता से ये कहा था कि मुमताज़ बहुत ख्याति तथा सम्पत्ति अर्जित करेगी! लेकिन, उसका जीवन बेहद दुखद होगा। ये बात सुनकर उनके पिता अयातुल्लाह खान दिल्ली से बंबई एक बेहतर जीवन की तलाश में आ गए थे। यहाँ आकर उन्होंने बेटी के बेहतर जीवन के लिए काफ़ी संघर्ष भी किया। लेकिन, फिल्मों में उनका आगमन 'बेबी मुमताज़' के नाम से ही हुआ। उनकी पहली फ़िल्म 'बसंत' थी जो 1942 में आई! देविका रानी इस फिल्म में उनके अभिनय से बहुत प्रभावित हुई और नाम मुमताज़ से बदलकर 'मधुबाला' रख दिया। इसके बाद उन्होंने कभी पलटकर नहीं देखा और 'मुगल-ए-आजम' के बाद तो वे सितारा बन गईं थी। अपने छोटे से एक्टिंग करियर में मधुबाला को करोड़ों लोगों का प्यार मिला। उनकी फिल्में भी बेहद कामयाब रही। लेकिन, उनकी निजी जिंदगी में भी एक साथ कई तरह की परेशानियां चलती रही। दिलीप कुमार के साथ उनकी अधूरी प्रेम कहानी हो या किशोर कुमार के साथ उनकी शादीशुदा जिंदगी! 23 फरवरी 1969 को महज 36 साल की उम्र में मधुबाला ने दुनिया को अलविदा कह दिया था। 
   बॉलीवुड की इस महान शख्सियत पर बायोपिक बनाने का ऐलान हो गया है! भारतीय सिनेमा की वीनस कही जाने वाली मधुबाला की निजी जिंदगी जल्द ही पर्दे पर देखने को मिल सकती है। मधुबाला की छोटी बहन मधुर बृजभूषण ने दो साल पहले यह बात कही थी। उन्होंने कहा था कि कई फिल्म निर्माताओं और निर्देशकों ने उनकी बहन पर बायोपिक बनाने में दिलचस्पी दिखाई है, लेकिन उन्होंने अभी तक किसी को भी इस फिल्म के लिए फाइनल नहीं किया है। फिलहाल ये आइडिया शुरुआती स्तर पर ही है। 
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अब फिर जुटने लगे सिनेमाघरों में दर्शक


- एकता शर्मा 

   एक वो वक़्त था, जब सिनेमा घरों में महीनों तक फ़िल्में चलती थीं! 6 महीने चली तो वो 'सिल्वर जुबली' और सालभर चले तो 'गोल्डन जुबली' मनती थी। लोग भी एक ही फिल्म को कई-कई बार देखा करते थे! फर्स्ट डे, फर्स्ट शो देखने का एक अलग ही जुनून होता था। सिनेमा घरों की टिकट खिड़कियों पर मारा-मारी तक होती थी! लोग देर रात से ही टिकट की लाइन में लग जाया करते थे। अब ये सब गुजरे दिन की बात हो गई! सिंगल परदे वाले थियेटर की जगह मल्टीप्लेक्स ने ली! लेकिन, फिल्म देखने वाले आज भी वही हैं।   
  बीच में एक वक़्त भी आया जब फिल्म के दर्शक घट गए। सिनेमाघर खाली हो गए और सारे दर्शक विडीयो कैसेट के सामने सिमट गए। ये दौर लम्बे समय तक चला! सीधे शब्दों में कहा जाए तो ये सिनेमा के बुरे दिन थे। लेकिन, अब वो दौर बीत गया। अब वो हालात नहीं रहे! अब न तो फिल्मकारों को फिल्म बनाने के लिए बड़ा कर्ज लेना पड़ता है और न अपनी संपत्ति बेचना पड़ती है। अब फ़िल्में भी आसानी से दो से तीन सौ करोड़ का बिजनेस कर लेती हैं। याद किया जाए तो सिनेमा के शुरुआती दशक में 91 फिल्में बनी थी। आज सौ साल बाद सिनेमा उद्योग का चेहरा बदल चुका है। अब यहाँ हर साल एक हजार से ज्यादा फिल्में बनती है। 
   हमारे यहाँ फिल्म बनाना हमेशा से ही जुनून रहा है। दादासाहेब फाल्के ने जब 1913 में भारत में पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाई थी, तो उन्हें पत्नी के गहने तक बेचने पड़े थे। राज कपूर ने 'मेरा नाम जोकर' बनाई थी, तब उनका सबकुछ कर्ज में डूब गया था। लेकिन, अब ऐसे किस्से सुनाई नहीं देते, क्योंकि फ़िल्में ऐसा बिजनेस नहीं रह गया कि फिल्मकार की सारी पूंजी डूब जाए! भारतीय फिल्म उद्योग तेजी से आगे बढ़ रहा है। 2020 तक इस उद्योग के 23,800 करोड़ रुपए तक पहुंचने की संभावना है। पिछले दो साल में इसकी कंपाउंड एनुएल ग्रोथ रेट (सीएजीआर) 10% से ज्यादा रही है।  
    अब वे हालत नहीं है कि फ्लॉप फिल्म के निर्माता को कर्ज अदा करने के लिए अपना बंगला और गाड़ी तक गंवाना पड़ती हो! सच ये है कि अब कोई फिल्म फ्लॉप नहीं होती। कमाई से कमाई के कई तरीके खोज लिए गए हैं। फ्लॉप फिल्में भी आसानी से अपनी लागत निकालने में कामयाब हो जाती हैं। फ़िल्मी सितारों के नाम पर टिकी सिनेमा की दुनिया के अर्थशास्त्र को कॉरपोरेट कंपनियों ने अपनी पूंजी के सहारे मुनाफा कमाने के फॉर्मूले से जोड़ लिया है। बड़ी फ़िल्म के ढाई-तीन हजार प्रिंट रिलीज किए जाते हैं, जो प्रचार के दम पर तीन दिन में ही लागत के साथ मुनाफा निकाल लेती हैं। यशराज फिल्म की 'ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान' और शाहरुख़ खान की 'जीरो' इसका सबसे ताजा उदाहरण है! बड़े बजट की  फ़िल्में बुरी तरह फ्लॉप हुई। 
   फिल्म का अर्थशास्त्र पूरी तरह मुनाफे के सिद्धांत पर चलने लगा है। अब तो एनआरआई ने इस उद्योग में पैसा लगाना शुरू कर दिया। 2001 में जब सरकार ने फिल्मों को उद्योग का दर्जा दिया, इसके बाद से फिल्म उद्योग का पूरी तरह कॉरपोरेटीकरण हो गया! फिल्मों के निर्माण से इसके डिस्ट्रीब्यूशन तक के तरीके में इतना बदलाव आया कि हिट और फ्लॉप फिल्म की परिभाषा ही बदल गई। फिल्म के रिलीज से पहले ही सेटेलाइट राइट्स, अब्रॉड, म्यूजिक, वीडियो के लिए अलग-अलग राइट्स बेचे जाते हैं। इससे प्रोडक्शन हाऊस को जबरदस्त आय होती है और एक तरह से रिलीज से पहले ही फिल्म की लागत निकल आती है। देखा जाए तो यूटीवी मोशन पिक्चर्स, इरॉस, रिलायंस इंटरनेटमेंट, एडलैब्स, वायकॉम-18, बालाजी टेलीफिल्म्स और यशराज फिल्म्स जैसे प्रोडक्शन हाउसों ने सिनेमा कारोबार का पूरा खेल बदल दिया है। इनका फिल्मों में पैसा लगाने का तरीका भी अलग है। अब ये फिल्म नहीं ‘पोर्टफोलियो मैनजमेंट’ करते हैं। 
   मल्टीप्लेक्स ने भी फिल्म देखने के तरीके बदल दिए। यही कारण है कि कम बजट की फ़िल्में भी दर्शकों तक पहुंच रही है और अच्छा खासा बिजनेस कर रही है। सिर्फ कुछ अलग सी कहानी के दम पर ही निर्माता लागत से तीन से चार गुना कमाई करने लगे हैं। ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ 30 करोड़ में बनी, इसने 108.95 करोड़ का कारोबार किया। आलिया भट्ट तथा विक्की कौशल की फिल्म 'राजी' भी 30 करोड़ के बजट में बनी थी। इसने भी 123.84 करोड़  की। राजकुमार राव तथा श्रद्धा कपूर की हॉरर कॉमेडी 'स्त्री' की तो समीक्षकों ने भी तारीफ़ की। 24 करोड़ में बनी इस फिल्म ने 129 .90 करोड़ रुपए कमाए। ये तो चंद आंकड़े हैं, जो फिल्मों के बदले अर्थशास्त्र का उदाहरण हैं। ये पूरा परिवेश ही धीरे-धीरे बदल रहा है। इसीलिए समझा आने लगा है कि किसी के अच्छे दिन आए हों या नहीं, पर सिनेमा के तो अच्छे दिन आ ही गए! अब दर्शकों को हर शुक्रवार फिल्मों का इंतजार  लगा है। 
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प्यार अनमोल है, पर इसके इजहार का कारोबार अरबों का!


- एकता शर्मा 

   हा जाता है कि दुनिया में प्यार की कोई कीमत नहीं होती! लेकिन, वेलेंटाइन-डे के इस त्यौहार ने साबित कर दिया कि प्यार अनमोल नहीं होता, इसका भी कोई मोल होता है। ये ऐसा प्यार का दिन होता है, जिसके लिए प्रेमी करोड़ों रुपए लुटा देते हैं। पूरे हफ्ते मनाए जाने वाले मोहब्बत के त्यौहार के लिए कोई पैसे के मोल को कई नहीं देखता। यही कारण है कि प्यार का ये त्यौहार कारोबार में बदल गया! प्यार के नाम पर बने इस वैलेंटाइंस-डे और वैलेंटाइन-वीक पर प्यार करने वाले कितना खर्च करते हैं, उसका भी कोई हिसाब नहीं लगाया जा सकता! इसके बावजूद कारोबारियों की नजर इस पर बनी रहती है। वैलेंटाइन-वीक को औद्योगिक मांग में छाई सुस्ती को दूर करने का उपाय भी माना जा सकता है। वेलेंटाइन डे पूरी दुनिया में पूरे जोश के साथ मनाया जाता है और भारत में भी इसका प्रसार तेजी से हो रहा है। इस दिन एक दूसरे को चाहने वाले मनपसंद तोहफे देकर अपनी भावनाओं का इजहार करते हैं।
    कारोबार की नजर से देखा जाए तो प्यार जितना बढ़ेगा, प्रेमी जितने बढ़ेंगे ये कारोबार भी उतनी ही तेजी बढ़ेगा। लेकिन, ये कारोबार कितना होगा, इस बारे में कोई दावा नहीं कर सकता! क्योंकि, यदि उपहार कोई प्रोडक्ट हो, तो उसकी बिक्री का अनुमान लगाया जा सकता है! लेकिन, वैलेंटाइन-वीक में इतनी वैरायटी होती है कि उस कारोबार को आंकड़ों में नहीं समेटा जा सकता! बस अनुमान ही लगाया जा सकता है कि प्रेमियों ने अपने प्यार पर कितना खर्च किया! यही अनुमान बताता है कि ये आंकड़ा 22 से 25 अरब रुपए के आसपास है। ये अनुमान भी दो साल पहले व्यापारिक संगठन 'एसोचैम' ने अपने सर्वे से निकाला है। इस सर्वे के मुताबिक वेलेंटाइन-डे के मौके पर बड़े वेतन वाले अफसर, सरकारी नौकरी करने वाले, कॉरपोरेट सेक्टर और आईटी कंपनियों के अफसर 50 हजार रुपए तक गिफ्ट में खर्च करते हैं। वहीं कॉलेज के छात्र हज़ार रुपए से 10 हजार तक खर्च कर देते हैं।
    'एसोचैम' ने इस सर्वें के लिए बड़े शहरों के 800 कंपनी अधिकारी, 150 शिक्षा संस्थानों के 1000 से अधिक विद्यार्थियों से बात की थी। बाद में निष्कर्ष से यह आंकड़ें निकाले गए! 'एसोचैम' का मानना था कि इस कारोबार में 20% की दर से इजाफा हो रहा है। सर्वे में कहा गया था कि इस दौरान स्पॉ और ब्यूटी पार्लर के काम में भी लगातार तेजी आने की संभावना है। इसमें कहा गया है कि करीब 65% पुरुष अपनी प्रेमिका के लिए उपहार की खरीदते हैं, जबकि 35% महिलाएं भी इसी तरह की खरीददारी करती हैं। वैलेंटाइन-वीक पर उपहार के रूप में टेडी-बीयर, गुलाब, कपड़े, गहने, ग्रीटिंग कार्डस, चॉकलेट्स और इलेक्ट्रॉनिक्स गेजेट्स की जमकर बिक्री होती है। लेकिन, सबसे ज्यादा बिकता है गुलाब! प्यार के इस त्यौहार पर लाल गुलाब की खासी मांग होती है। प्रेमी महंगे दाम पर गुलाब खरीदकर अपनी प्रेमिकाओं को देकर अपने प्यार का इजहार करते है। अनुमान है कि फूलों का ही कारोबार 200 मिलियन का होता है। 
   एसोचैम सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2014 में वैलेंटाइन-डे पर जहां 16,000 करोड़ रुपए का फुटकर कारोबार हुआ था, वहीं 2016 में यह 40% बढ़कर 22,000 करोड़ रुपए तक पहुंचा! वैलंटाइंस-डे पर इस साल ऑनलाइन खरीदारी का जोर ज्यादा रहने का अनुमान है। अनुमान है कि कुल बिक्री में ऑनलाइन का हिस्सा करीब 35% से ज्यादा होगा। ग्रीटिंग कार्ड्स और गिफ्ट कारोबार के लीडर कहे जाने वाले 'आर्चीज' के बिजनेस डेवपमेंट हेड राघव मूलचंदानी का कहना है कि कंपनी की कुल बिक्री में से 11% वैलेंटाइन-वीक से आती है। कंपनी के प्रीमियम कार्ड की बिक्री और मांग भी इसी दौरान देखी जाती है। आर्चीज ग्रीटिंग कार्ड, स्टेशनरी और गिफ्ट आइटम का कारोबार करती है। कंपनी के भारत में 230 ऑफिस हैं और भारत के बाहर कंपनी की 300 फ्रैंचाइजी हैं। कई विदेशी कंपनियों के साथ आर्चीज की साझेदारी है। 
  वैलेंटाइन-वीक पर मासूम से दिखने वाले रंग-बिरंगे टेडी बेयर, गुलाब के गुलदस्ते और बड़ी चॉकलेट बॉक्स में दो छोटी टॉफ़ी जैसी रोमांटिक चीज़ों की बिक्री ज्यादा होती है। ये भी एक आश्चर्य की बात है कि इस प्यार के त्यौहार का कोई परंपरागत गिफ्ट नहीं होता! प्रेमी-प्रेमिका आपस में भी एक दूसरे को उनकी पसंद की चीजें गिफ्ट करते हैं। ये भी एक कारण है कि वैलेंटाइन-वीक के दौरान होने वाले कारोबार को किसी दायरे में नहीं बांधा जा सकता! एक हैरान करने वाला एक ट्रेंड ये भी सामने आया था! वैलेंटाइन-डे से ठीक पहले लकड़ी वाली हॉकी स्टिक और क्रिकेट की विकेट्स के प्री-ऑर्डर में भी जमकर इज़ाफ़ा हुआ। मशहूर वैलेंटाइन विशेषज्ञ और जाने-माने मनोवैज्ञानिक कोकी कूलेरस भी इस हॉकी ट्रेंड को लेकर काफ़ी अचरज में थे। उन्होंने बताया था कि हॉकी इतनी क्यों बिक रही है? मेरे ख़याल से हॉकी को लेकर नौजवान लोगों में जागरूकता बढ़ रही है। अच्छी बात है, ऐसी जागरूकता का हम स्वागत करते हैं।
  प्यार के प्रतीक गुलाब के फूल की कीमत वैलेंटाइन-डे पर 10 रुपए से बढ़कर 60 रुपए के रिकॉर्ड स्तर पर होने का अनुमान है। गुलाब को उपहार के तौर पर इसलिए वरीयता दी जाती है कि सस्ता होने के साथ प्यार के इजहार माध्यम भी माना जाता है। 'एसौचेम' के सर्वे के मुताबिक वैलेंटाइन-डे पर फूलों की मांग कई गुना बढ़ जाती है। इससे पूरे पुष्प उत्पादन उद्योग सालाना 30% की दर से बढ़ रहा है। फूलों की मांग तेजी से बढऩे के कारण इस साल ये उद्योग 10 हज़ार करोड़ रुपए तक पहुंचेगा। इस साल पुष्प उद्योग बढ़कर 10% होने की संभावना है। 
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Sunday 3 February 2019

परदे पर नारी की आजादी का बदलता दौर


 - एकता शर्मा 

  हिंदी फिल्मों में फेमिनिज्म एक महत्वपूर्ण विषय है। इस पर पहले भी कई फिल्में बन चुकी है, जो हिंदी सिनेमा में आज भी मील के पत्थर याद की तरह जाती है। स्मिता पाटिल और शबाना आजमी अभिनीत फिल्म 'अर्थ' में नारी स्वतंत्रता का जो चित्रण है, वो अद्भुत है। फिल्म के क्लाइमैक्स पर शादीशुदा कुलभूषण खरबंदा अपनी प्रेमिका स्मिता पाटिल को छोड़कर वापस अपनी पहली पत्नी शबाना आजमी के पास पहुंचकर माफी मांगता है। शबाना आजमी उसको माफी देने से मना करती हैं और कहती हैं कि अगर मैं किसी मर्द के साथ इतने दिन गुजारकर तुम्हारे पास वापस आती तो क्या मुझे माफ कर देते! यहीं फिल्म खत्म हो जाती है। दरअसल, ये फिल्म नारी स्वतंत्रता का उत्सव है। बगैर किसी शोर शराबे या किसी गाली गलौच के इस फिल्म में बहुत कुछ कह दिया गया था। उस फिल्म की नायिका जितनी बोल्ड और बिंदास थी, वैसी 'वीरे दी वेडिंग' में बात नहीं है।
   'मदर इंडिया' से लगाकर लज्जा, क्वीन और उससे आगे 'सुई धागा' तक फिल्म की कहानी हर दौर में बदली है। वास्तव में यही वे फ़िल्में हैं, जो नारी प्रधान फिल्मों की नींव बनती है। हाल के दिनों में महिला प्रधान फिल्मों के सफल होने की संख्या बढ़ी है। समकालीन समय में हम 'क्वीन' को इसका मोड़ मान सकते है और फिर ये राह 'सुई धागा' तक पहुंची! 2014 में रिलीज हुई इस फिल्म में कंगना रनौट ने अपने अभिनय के बल पर सफलता पाई थी। 'क्वीन' के निर्माण पर करीब 13 करोड़ रुपए खर्च हुए और फिल्म ने सौ करोड़ से ज्यादा का बिजनेस किया था। श्रीदेवी अभिनीत फिल्म 'मॉम' भी सफल रही थी। उसने भी अपनी लागत से कई गुणा ज्यादा का बिजनेस किया था। इसी अभिनेत्री की 'इंग्लिश-विंग्लिश' को भी इसी फेहरिस्त में रखा जा सकता है। 'तनु वेड्स मनू' और इसी श्रृंखला की दूसरी फिल्म भी नारी प्रधान फिल्मों की श्रेणी में आती है।   

  सत्तर और अस्सी के दशक के दौर के आसपास बनने वाली फिल्मों का नैतिक स्तर बिल्कुल शून्य था। उनका मकसद ही मुनाफा कमाना था। ऐसी फिल्मों में नायिकाओं को जिसका सीधा संबंध ऐसी भूमिकाओं से रहता था, जो या तो भोली भाली स्त्री होती थी या नायकों को अपने हाव-भाव से लुभानेवाली नायिका। बाद में 1990 से लेकर 2000 तक के दौर में भी पुरुष प्रधान फिल्मों का दौर चला! बल्कि दो-चार साल आगे तक भी! लेकिन, अब नए लेखकों का दौर आया तो उन्होंने हिंदी फिल्मों में नारी की परंपरागत छवि को ध्वस्त करते हुए उसका एक नया रूप गढ़ा है।
   इस नए रूप में कई बार बदलाव भी देखने को मिले। लेकिन, वो ज्यादातर यथार्थ के करीब होती हैं। अगर 2011 में आई फिल्म 'डर्टी पिक्चर' को देखा जाए जो दक्षिण भारतीय फिल्मों की नायिका सिल्क स्मिता की जिंदगी पर बनी थी। इसमें तमाम मसालों और सेक्सी दृश्यों की भरमार के बावजूद यथार्थ बहुत ही खुरदरे रूप में मौजूद था। नायिका प्रधान फिल्मों की सफलता इस और भी संकेत देती है कि अगर कहानी अच्छी हो, उस कहानी का फिल्मांकन बेहतर हो तो उसकी सफलता को कोई रोक नहीं सकता! यह भी लगता है कि हिंदी दर्शकों की रुचि बदल रही है। ऐसी फिल्मों को यथार्थवादी फिल्मों से ज्यादा करने किया जाने लगा है।
  2016 में रिलीज हुई 'पिंक' को लें तो वो फिल्म अपनी कहानी और उसके बेहतरीन चित्रण की वजह से दर्शकों को पसंद आई। 23 करोड़ की लागत से बनी फिल्म ने 100 करोड़ से ज्यादा बिजनेस किया। इस तरह की फिल्मों की सफलता से यह उम्मीद जागी है, कि अगर हिंदी फिल्मों में नारी पात्रों का चित्रण यथार्थपरक तरीके से किया जाए, तो वो समाज पर असर भी डालेंगी और कारोबार भी अच्छा करेगी। इस दौर का अगला पड़ाव है 'सुई धागा' जिसने नारी के सामर्थ्य पुरुष के बराबर खड़ा कर दिया। 
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