Wednesday 22 May 2019

इस कौटुम्बिक व्यभिचार में कानून के बंधे हाथ!


   बच्चों का यौन शोषण की अधिकांश घटनाएं 'परिवारों' में होती है। वास्तव में ये अबूझ पहेली है और सामाजिक रूप से एक बड़ा खतरा भी! ऐसी घटनाओं में पिता, चाचा, मौसा, भाई, चचेरा भाई या पड़ौसी कोई भी परिवार की बच्ची का शोषण कर सकता है? इसके बाद बच्चे को दुष्कर्म छुपाने के लिए कहा जाता है। यदि मामला पुलिस तक पहुँच जाए परिवार दबाव डालकर मामले को गलत दिशा में मोड़ देता है! इससे सबसे बड़ी दुविधा अदालत के सामने आ जाती है, जो सच जानकर भी अपराधी को सजा नहीं दे पाता!  
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- एकता शर्मा

- घर में अकेले पाकर मौसा ने बच्ची के साथ व्यभिचार किया!
- सौतेले पिता ने दो बच्चियों को अपनी हवस का शिकार बनाया!
- चचेरे भाई ने घर में अकेली बहन के साथ दुष्कर्म किया!

  ये अख़बारों के वे शीर्षक हैं, जो अकसर हम पढ़ते रहते हैं और बस खबर का यही हिस्सा पढ़कर पन्ना पलट देते हैं! अख़बारों की महिला पाठक तो ऐसे शीर्षक पढ़ने के बाद कभी-कभी खबर पढ़ भी लेती हैं, पर सामान्यतः पुरुष ऐसा भी नहीं करते! दरअसल, ये हमारी सामाजिक सोच का एक नमूना है कि कौटुम्बिक व्यभिचार को लेकर हमारा सोच क्या है? परिवारों में ऐसी घटनाओं को किस नजरिए से लिया जाता है, उसी से स्पष्ट होता है कि समाज बाल यौन शोषण को लेकर किस तरह का सोच रखता है! इसलिए कि परिवार से बना 'घर' भी समाज का ही एक छोटा रूप है और परिवारों की सोच से ही समाज की सोच जन्म लेती है!     
   ये एक और काला दर्दनाक सच है कि बाल यौन शोषण की ज्यादातर घटनाएं बड़े परिवारों, रिश्तेदारी या बहुत नजदीकी संबंधों में ही होती हैं! पुलिस में दर्ज आंकड़ों मुताबिक बाल यौन शोषण के 90% से 94% मामलों में परिवार के सदस्य, परिवार के नजदीकी लोग या बच्चों की सुरक्षा में तैनात किए गए लोग शामिल होते हैं। इस वजह से सामाजिक दबाव या बदनामी के भय से घटनाएं दबकर रह जाती है या परिवार के लोग ही उसे सामने नहीं आने देते! जब ऐसी घटनाओं की रिपोर्ट ही दर्ज नहीं होती तो स्वाभाविक है कि बात वहीं रह जाती है! लेकिन, अंततः इसका दर्द उस बच्ची को ही सहना पड़ता है, जो इसका शिकार होती है!
   ये कितनी कड़वी सच्चाई है कि बाल यौन शोषण के मामलों में औसतन 4% से 5% आरोपियों को ही अभी तक सजा मिल सकी है। 6% से 10% आरोपी सबूतों के अभाव और गवाहों के अदालत में पलट जाने से छूट गए। अदालतों में ऐसे 90% मामलों के लंबित होने का सबसे बड़ा कारण है कि ऐसे ज्यादातर आरोपी परिवार से या नजदीकी होते हैं और सामाजिक बदनामी के भय से वे गवाही देने भी नहीं आते! यदि आते भी हैं तो अदालत में बदल जाते हैं और प्रकरण कमजोर हो जाता है। यूनिसेफ के मुताबिक भारत के 53% बच्चे किसी न किसी रूप से यौन शोषण का शिकार बनते हैं। सामाजिक दृष्टिकोण को ध्यान रखकर विचार किया जाए तो आज सबसे बड़ी चुनौती समृद्ध सामाजिक संरचना बनाने की है ताकि बाल यौन शोषण जैसी घटनाएं थम सके! लेकिन, इस दिशा में अभी लंबा सफर तय करना पड़ेगा!
     ऐसी घटनाओं को दबा दिए जाने का सबसे बड़ा कारण हमारी पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था को भी माना जा सकता है। इसलिए कि हमारी सामाजिक और आर्थिक संरचना में ज्यादातर परिवारों में पुरूषों का वर्चस्व है। ऐसे में जब कोई पुरुष इस तरह के किसी मामले में आरोपी बनता है तो परिवार बहुत आगे तक का सोचकर अपने गुस्से को दबा जाता है। पीड़ित पक्ष को सामाजिक उलाहना के साथ-साथ बच्ची के भविष्य के बारे में भी डराया जाता है और आरोपी पुरुष को सजा होने पर एक और परिवार की बर्बादी का दृश्य दिखाया जाता है! आशय यह कि जिस बच्ची के साथ ये हादसा होता है, उसके परिजनों को बाकी का पूरा परिवार भविष्य की आशंकाओं से भयभीत कर देता है! साथ ही ये भी समझाया जाता है कि 'जो होना था वो हो गया!' कारण कि बाल यौन शोषण के मामलों में आरोपी आदतन नहीं होता! लेकिन, इसका आशय ये भी नहीं कि सामाजिक व्यवस्थाओं और बदमानी का डर बताकर अपराध को दबाया जाए, पर होता यही है!
   अपराध विज्ञान कहता है कि कोई भी अपराधी जब कोई अपराधिक कृत्य करता है, तो अपने आपको छुपाकर रखता है! क्योंकि, ये किसी भी अपराधी की मानसिकता है! लेकिन, बाल यौन अपराधी इसका अपवाद हैं! वे सबकुछ जानते हुए भी अपनी प्रवृत्ति पर काबू नहीं रख पाते और अपराध कर बैठते हैं! दुष्कर्म के बाद उनको ग्लानि होती है या नहीं, ये अलग मामला है! पर, वे घटना के बाद के हालात से अंजान भी नहीं होते! कानून के मुताबिक ये जानबूझकर किया गया अपराध है और इसकी सजा भी कड़ी है! लेकिन, यहाँ कानून इसलिए मजबूर होकर बंध जाता है कि कानूनी की भी अपनी प्रक्रिया है और वो सबूतों और गवाहों के बिना किसी को सजा नहीं दे सकता! यदि इस तरह के व्यभिचार पर काबू करना है तो समाज को आगे आना होगा! लेकिन, उससे पहले समाज के ऐसे खलपात्रों को परिवार को पहचानकर घर से बाहर करना होगा, तभी कानून भी उन्हें सजा दे सकेगा! 
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लम्बे इंतजार के बाद फिर चल निकला सिनेमा!


- एकता शर्मा 

  सिनेमा में एक दौर ऐसा भी आया, जब दर्शकों का फिल्मों से मोहभंग हो गया था। अब वो हालात नहीं रहे! अब न तो फिल्मकारों को फिल्म बनाने के लिए बड़ा कर्ज लेना पड़ता है और न अपनी संपत्ति बेचना पड़ती है। अब फ़िल्में भी आसानी से दो से तीन सौ करोड़ का बिजनेस कर लेती हैं। याद किया जाए तो सिनेमा के शुरुआती दशक में 91 फिल्में बनी थी। आज सौ साल बाद सिनेमा उद्योग का चेहरा बदल चुका है। अब यहाँ हर साल एक हजार से ज्यादा फिल्में बनती है। 
   एक वो वक़्त था, जब सिनेमा घरों में महीनों तक फ़िल्में चलती थीं! 6 महीने चलती तो चली तो 'सिल्वर जुबली' और सालभर चले तो 'गोल्डन जुबली' मनती थी। लोग भी एक ही फिल्म को कई-कई बार देखा करते थे! फर्स्ट डे, फर्स्ट शो देखने का एक अलग ही जुनून होता था। सिनेमा घरों की टिकट खिड़कियों पर मारा-मारी तक होती थी! लोग देर रात से ही टिकट की लाइन में लग जाया करते थे। अब ये सब गुजरे दिन की बात हो गई! सिंगल परदे वाले थियेटर की जगह मल्टीप्लेक्स ने ली! लेकिन, फिल्म देखने वाले आज भी वही हैं।   
    हमारे यहाँ फिल्म बनाना हमेशा से ही जुनून रहा है। दादासाहेब फाल्के ने जब 1913 में भारत में पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाई थी, तो उन्हें पत्नी के गहने तक बेचने पड़े थे। राज कपूर ने 'मेरा नाम जोकर' बनाई थी, तब उनका सबकुछ कर्ज में डूब गया था। लेकिन, अब ऐसे किस्से सुनाई नहीं देते, क्योंकि फ़िल्में ऐसा बिजनेस नहीं रह गया कि फिल्मकार की सारी पूंजी डूब जाए! भारतीय फिल्म उद्योग तेजी से आगे बढ़ रहा है। 2020 तक इस उद्योग के 23,800 करोड़ रुपए तक पहुंचने की संभावना है। पिछले दो साल में इसकी कंपाउंड एनुएल ग्रोथ रेट (सीएजीआर) 10% से ज्यादा रही है।  
    अब वो स्थिति नहीं कि फ्लॉप फिल्म के निर्माता को कर्ज अदा करने के लिए अपना बंगला और गाड़ी तक गंवाना पड़ती हो! सच ये है कि अब कोई फिल्म फ्लॉप नहीं होती। कमाई से कमाई के कई तरीके खोज लिए गए हैं। फ्लॉप फिल्में भी आसानी से अपनी लागत निकालने में कामयाब हो जाती हैं। फ़िल्मी सितारों के नाम पर टिकी सिनेमा की दुनिया के अर्थशास्त्र को कॉरपोरेट कंपनियों ने अपनी पूंजी के सहारे मुनाफा कमाने के फॉर्मूले से जोड़ लिया है। बड़ी फ़िल्म के ढाई-तीन हजार प्रिंट रिलीज किए जाते हैं, जो प्रचार के दम पर तीन दिन में ही लागत के साथ मुनाफा निकाल लेती हैं। यशराज फिल्म की 'ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान' इसका सबसे ताजा उदाहरण है! बुरी तरह फ्लॉप हुई इस फिल्म ने प्रचार से ऐसा आभामंडल बनाया कि शुरू के तीन दिन में ही कमाई कर ली। 
   फिल्म का अर्थशास्त्र पूरी तरह मुनाफे के सिद्धांत पर चलने लगा है। अब तो एनआरआई ने इस उद्योग में पैसा लगाना शुरू कर दिया। 2001 में जब सरकार ने फिल्मों को उद्योग का दर्जा दिया, इसके बाद से फिल्म उद्योग का पूरी तरह कॉरपोरेटीकरण हो गया! फिल्मों के निर्माण से इसके डिस्ट्रीब्यूशन तक के तरीके में इतना बदलाव आया कि हिट और फ्लॉप फिल्म की परिभाषा ही बदल गई। फिल्म के रिलीज से पहले ही सेटेलाइट राइट्स, अब्रॉड, म्यूजिक, वीडियो के लिए अलग-अलग राइट्स बेचे जाते हैं। इससे प्रोडक्शन हाऊस को जबरदस्त आय होती है और एक तरह से रिलीज से पहले ही फिल्म की लागत निकल आती है। देखा जाए तो यूटीवी मोशन पिक्चर्स, इरॉस, रिलायंस इंटरनेटमेंट, एडलैब्स, वायकॉम-18, बालाजी टेलीफिल्म्स और यशराज फिल्म्स जैसे प्रोडक्शन हाउसों ने सिनेमा कारोबार का पूरा खेल बदल दिया है। इनका फिल्मों में पैसा लगाने का तरीका भी अलग है। अब ये फिल्म नहीं ‘पोर्टफोलियो मैनजमेंट’ करते हैं। 
   मल्टीप्लेक्स ने भी फिल्म देखने के तरीके बदल दिए। यही कारण है कि कम बजट की फ़िल्में भी दर्शकों तक पहुंच रही है और अच्छा खासा बिजनेस कर रही है। सिर्फ कुछ अलग सी कहानी के दम पर ही निर्माता लागत से तीन से चार गुना कमाई करने लगे हैं। ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ 30 करोड़ में बनी, इसने 108.95 करोड़ का कारोबार किया। आलिया भट्ट तथा विक्की कौशल की फिल्म 'राजी' भी 30 करोड़ के बजट में बनी थी। इसने भी 123.84 करोड़  की। राजकुमार राव तथा श्रद्धा कपूर की हॉरर कॉमेडी 'स्त्री' की तो समीक्षकों ने भी तारीफ़ की। 24 करोड़ में बनी इस फिल्म ने 129 .90 करोड़ रुपए कमाए। ये तो चंद आंकड़े हैं, जो फिल्मों के बदले अर्थशास्त्र का उदाहरण हैं। ये पूरा परिवेश ही धीरे-धीरे बदल रहा है। इसीलिए समझा आने लगा है कि किसी के अच्छे दिन आए हों या नहीं, पर सिनेमा के तो अच्छे दिन आ ही गए। 
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वेब सीरीज से मुकाबले में पिछड़ने लगे टीवी और सिनेमा!

- एकता शर्मा
  नोरंजन के अभी तक कुछ ही माध्यम मौजूद थे। दो दृश्य माध्यम सिनेमा और टीवी और एक श्रवण माध्यम यानी रेडियो! करीब तीन दशकों से यही चल रहा था। लेकिन, अब मनोरंजन के एक और माध्यम 'वेब सीरीज' ने ले लिया है। बहुत कम समय में इस माध्यम ने एक पूरी पीढ़ी को इसके दायरे में ले लिया। आज युवाओं की पहली पसंद है वेब सीरीज! पाँच साल पूरे नहीं हुए, जब वेब सीरीज जैसा प्रयोग किया गया था। ये प्रयोग इतना सफल रहा कि आज फिल्म और टीवी के बड़े-बड़े प्रोडक्शन हाउस भी वेब सीरीज बनाने लगे। बड़े-बड़े एक्टर भी इसमें काम करने को ललचाते हैं। बीते दो-ढाई सालों पर गौर किया जाए तो डिजिटल प्लेटफॉर्म पर वेब सीरीज ने तो कमाल ही कर दिया। इसकी वजह ये है कि कहानियों के साथ कई तरह के प्रयोग हो रहे हैं। नए कंटेट ने दर्शकों को नया विकल्प दिया है। क्योंकि, टीवी से अलग यहां सास-बहू का घिसा-पिटा ड्रामा नहीं है और न लंबे ब्रेक। हालांकि अभी भी दर्शकों का एक बड़ा वर्ग है जो वेब सीरीज से अछूता है। 
   याद किया जाए तो 2014 में आई ‘परमानेंट रूममेट’ वेब सीरीज को लोगों ने काफी पंसद किया था। ये सीरीज आज भी देखी जा रही है। इसे देखने वालों की संख्या 50 मिलियन को पार कर गई। ये सीरीज इतनी हिट हुई कि 2016 में इसका दूसरा सीजन बनाया गया। इसके बाद तो वेब सीरीज की लाइन लग गई. बेक्ड, ट्रिपलिंग, परमानेंट रूममेट सीजन-2, पिचर, बैंग बाजा बारात, ट्विस्टेड, ट्विस्टेड-2, गर्ल इन द सिटी, अलीशा जैसी तमाम सीरीज मोबाइल के परदे पर उतर आई। नेटफ्लिक्स जैसे प्रोडक्शन हॉउस ने तो इसमें भूचाल ला दिया। इस प्रोडक्शन हॉउस के 'सेक्रेट गेम्स' में सैफ और नवाजुद्दीन शेख जैसे कलाकारों ने काम किया है। नेटफ्लिक्स की 'सारागढी' और 'दिल्ली क्राइम' को पसंद करने वालों की संख्या भी बहुत ज्यादा है। 'दिल्ली क्राइम' निर्भया कांड के आरोपियों को पकड़े जाने में पुलिस की भूमिका पर आधारित है।  
   टीवी की महारानी कही जाने वाली एकता कपूर ने तो वेब सीरीज बनाने के लिए एलएलटी-बालाजी नाम की पूरी कंपनी ही खोल ली! अब एकता कपूर सीरियल से ज्यादा वेब सीरीज पर अपना ध्यान लगा रही है। विक्रम भट्ट जैसे नामी फिल्मकार भी बड़े परदे का मोह छोड़कर हथेली में समाने वाले परदे की दुनिया के लिए वेब सीरीज बनाने लगे। यहाँ तक कि अब विक्रम भट्ट खुद भी एक्टिंग करने लगे हैं। धीरे-धीरे और भी कई बड़े फिल्मकार इस प्रयोग से जुड़ रहे हैं। जब बड़े फिल्मकारों मोह वेब सीरीज की तरफ लगेगा तो तय है कि उतने ही बड़े कलाकार भी इससे जुड़ेंगे। इसे वेब सीरीज का ही तो क्रेज माना जाना चाहिए कि राजकुमार राव जैसा एक्टर ‘बोस’ नाम की वेब सीरीज के लिए अपना सर मुंडवा लेता है। राम गोपाल वर्मा भी अंडरवर्ल्ड की कहानियां सुनाने के लिए इसी रेस में कूदे तो, पर चल नहीं सके। फरहान अख्तर और प्रोड्यूसर रितेश सिद्धवानी भी एक वेब सीरीज लेकर आ गए।  
  इतने कम समय में बेव सीरीज की लोकप्रियता का कारण है इसका कंटेंट! क्योंकि, युवा वर्ग की शिकायत रही है कि आजकल टीवी चैनल्स उनकी पसंद के कार्यक्रम नहीं बना रहे! इसके अलावा वेब सीरीज में समय की कोई पाबंदी नहीं होती! सीरीज का एक एपिसोड 10 से 22 मिनट तक का होता है और एक सीरीज में 8 से 12 तक एपिसोड होते हैं। इसमें कोई सेंसरशिप नहीं होती! इसलिए सीरीज मेकर अपनी पूरी क्रिएटिविटी दिखा सकते हैं। सेंसर न होने से कई सीरीज में एडल्ट कंटेंट और गालियों का जमकर इस्तेमाल होता है। सबसे अच्छी बात तो ये है कि फोन में ही इसे कहीं भी बैठकर देखा जा सकता हैं। ये सीरीज टीवीएफ प्ले, नेटफ्लिक्स, हॉट स्टार और ज्यादातर यू-ट्यूब पर आराम से मिल जाती हैं। 
  आज इनका क्रेज पूरे देस युवा पीढ़ी में फैल गया है। अब ये अलग-अलग भाषाओं में भी बन रही हैं। ट्रिपलिंग, परमानेंट रूममेट, पिचर, बैंग बाजा बारात, द ट्रिप, गर्ल इन द सिटी, बेक्ड, अलीशा, हैप्पी टू बी सिंगल, नॉट फिट, लेडीज रूम, मैन्स वर्ल्ड, आइशा- ए वर्चुअल गर्लफ्रेंड, लव शॉट्स, तन्हाइयां, ट्विस्टेड सीजन जैसी वेब सीरीज हिंदी के दर्शकों में अपनी पैठ बना रही है। उधर, इंटरनेट और डिजिटल मीडिया के युग में अब बॉलीवुड के बड़े से बड़े एक्टर्स भी फिल्मी पर्दों पर सीमित न रह कर डिजिटल मीडिया का हिस्सा बनने में अपनी रूचि दिखा रहे है.
  ऋतिक रोशन और ऋषि कपूर भी जल्द ही वेब-सीरीज में काम करते नजर आएंगे। अमेजन प्राइम ने ऋतिक को वेब-सीरीज में काम करने का प्रस्ताव दिया है। कहा जा रहा है कि फिलहाल इस प्रोजेक्ट को लेकर बातचीत चल रही है और मेकर्स इस वेब-सीरीज की स्क्रिप्ट को और भी बेहतर बनाने के लिए काम कर रहे हैं। बडे़ पर्दे और छोटे पर्दे के बाद अब बंगाली जासूस ब्योमकेश बक्शी भी वेब सीरीज में भी जासूसी करते नजर आए। 'सत्यन्वेशी' और 'पाथेर कांटा' नाम की दो कहानियों में ब्योमकेश की प्रतिभा नजर आएगी। 'सौदागर' और 'वीरे दी वेडिंग' जैसी फिल्मों में नजर आए एक्टर विवेक मुशरान भी जल्द ही वेब सीरीज में दिखाई देंगे। उनका कहना है कि वेब सीरीज ही मनोरंजन का आने वाला कल है। वे वेब सीरीज 'बैन्ड' में सत्यावन गुप्ता की भूमिका में दिखाई देंगे। विवेक का कहना है कि डेली शो करने वाले कलाकारों के लिए वेब सीरीज सुकून भरा है। मुझे वेब सीरीज देखना पसंद हैं और अब मुझे इसमें काम करते हुए भी मजा आने लगा है।
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