Saturday 21 September 2019

सोनाक्षी के ज्ञान ने तो 'आलिया' को मात दे दी!

- एकता शर्मा

   पाँच साल बाद फिर कोई बड़ी फ़िल्मी नायिका अपने सामान्य ज्ञान को लेकर ट्रोल हो रही है। ये है जाने-माने फिल्म एक्टर शत्रुघ्न सिन्हा की हीरोइन बेटी सोनाक्षी सिन्हा। उन्हें अमिताभ बच्चन के बहुचर्चित शो 'कौन बनेगा करोड़पति' में 'कर्मवीर' एपिसोड के तहत राजस्थान के बाड़मेर जिले कि रूमादेवी की सहयोगी के तौर पर बुलाया गया था। लेकिन, सोनाक्षी के सामान्य ज्ञान ने साबित कर दिया कि शिक्षा, सुंदरता और बड़े घर में पैदा होना ही किसी के ज्ञानवान होने की निशानी नहीं है! वास्तविक ज्ञानवान वो है, जो अपने अनुभव, संघर्ष और दिमाग को खुला रखकर सीखता है! रूमादेवी वो शख्सियत हैं, जिन्होंने कसीदाकारी से से अपने इलाके की करीब 22 हजार ऐसी महिलाओं को काम दिया, जो घरेलू मोर्चे पर आर्थिक रूप से कमजोर थीं! 
  रूमादेवी के संघर्ष की कहानी सुनकर और उनसे प्रभावित होकर सोनाक्षी सिन्हा उनकी मदद के लिए बुलाई गई थीं। लेकिन, इस शो के दौरान सोनाक्षी का कमजोर सामान्य ज्ञान देखकर लोग अचरज में आ गए! खासकर रामायण से जुड़े एक आसान सवाल की वजह से! रूमादेवी और सोनाक्षी सिन्हा की जोड़ी से पूछा गया था 'रामायण के मुताबिक, हनुमान किसके लिए संजीवनी बूटी लेकर आए थे?' इसके वैकल्पिक उत्तर दिए थे सुग्रीव, लक्ष्मण, सीता, राम!
  इस आसान सवाल के जवाब पर सोनाक्षी इस कदर अटकी कि सही जवाब (लक्ष्मण) लिए उन्हें लाइफलाइन 'आस्क द एक्सपर्ट' का सहारा लेना पड़ा। इसे लेकर सोशल मीडिया पर उनका खूब मजाक उड़ रहा है! जबकि, शो के सूत्रधार अमिताभ बच्चन ने उसी समय सोनाक्षी सिन्हा को उनके परिवार का परिचय देते हुए कहा कि आपका परिवार ही पूरा रामायण है! शत्रुघ्न सिन्हा पिता है, लव और कुश भाई हैं। राम, लक्ष्मण और भरत आपके चाचा हैं। उनके घर का नाम भी 'रामायण' है। इसी शो का एक सवाल था कि महाराणा प्रताप के समय भारत में किस मुग़ल बादशाह का शासन था! इसका जवाब (अकबर) भी मुश्किल नहीं था! क्योंकि, सोनाक्षी की माताजी पूनम सिन्हा ने इसी इतिहास से जुडी में काम भी किया था! लेकिन, सोनाक्षी इस सवाल पर भी बगले झांकती रही! ख़ास बात ये कि बेहद कम पढ़ी-लिखी रूमादेवी को कई सवालों के सही जवाब आते थे, पर सोनाक्षी उन्हें कन्फ्युस करती रही!
   सोनाक्षी के (अ) सामान्य ज्ञान की तुलना पाँच साल पहले घटी एक ऐसी ही घटना से की जा रही है! तब आलिया भट्ट ने एक टीवी शो 'कॉफी विद करन' में ऐसे ही कुछ सामान्य सवालों के बेढंगे जवाब देकर देशभर में अपना नाम रोशन किया था। वे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और देश के राष्ट्रपति के बीच कन्फ्यूज हो गई थीं। करण जौहर का सवाल था 'भारत के राष्ट्रपति का नाम बताइए?' आलिया भट्ट ने जवाब दिया पृथ्वीराज चव्हाण! तभी से आलिया भट्ट का लगातार मजाक बनाया जाता रहा है। उनके नाम से कई मजाकिया जोक बने थे। इससे पहले भी आलिया, परिणीति चोपड़ा के साथ 'कॉफ़ी विद करण' के एक एपिसोड में आई थीं। तब भी उनसे सामान्य ज्ञान के कई सवाल पूछे गए थे, जिनका परिणीति ने तो ठीक-ठीक जवाब दिया था। लेकिन, आलिया उस समय भी सही जवाब नहीं दे पाई थीं। 
   सोनाक्षी का कुछ महीने पहले एक वीडियो भी जमकर वायरल हुआ था! इसमें उन्हें एक प्रशंसक से बदतमीजी करते देखा गया था। इस वीडियो को अब तक सोशल मीडिया पर 50 हजार से अधिक लोग देख चुके हैंl इस वीडियो को गीतिका स्वामी ने ट्विटर पर डालाl उन्होंने इसे पोस्ट करते हुए प्रश्न पूछा है, ‘अपनी मां के चुनावी प्रचार के दौरान जब एक प्रशंसक ने उन्हें गुलदस्ता देने की कोशिश की, तो उन्होंने इस प्रकार प्रतिक्रिया दी हैl वह सिर्फ मूर्ख ही नहीं अपने प्रसंशक के प्रति घमंडी भी हैं?’ इसके साथ ही उन्होंने एक वीडियो भी शेयर किया थाl इसमें सोनाक्षी सिन्हा को गाड़ी में बैठे हुए देखा जा सकता है और उन्हें एक व्यक्ति गुलदस्ता देने का प्रयत्न कर रहा है! सोनाक्षी सिन्हा यह कहती नजर आ रही है कि नहीं चाहिए और दरवाजा कैसे खोला आपने? 
   ये कुछ वे घटनाएं हैं, जो प्रशंसकों को निराश करने के साथ ही उन कलाकारों की असलियत भी बताती है, जिनके वे दीवाने होते हैं! 'मंगल मिशन' में वैज्ञानिक बनी सोनाक्षी का वास्तव में सामान्य ज्ञान कैसा है, ये 'कौन बनेगा करोड़पति' में सामने आ गया! नामचीन परिवार, बड़े स्कूल-कॉलेजों शिक्षा और बड़ा नाम ज्ञान का आधार नहीं होता! ऐसे घर, परिवारों में भी सोनाक्षी जैसी बेटियां होती हैं, जिन्हें कुछ नहीं आता!
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हर मूड में हिट और फिट हैं, बरसते सावन के गीत!

- एकता शर्मा

  हिंदी फिल्मों में सावन और बरसात के गीतों की अलग ही रंगत रही है। अब तो न ऐसी फ़िल्में बनती हैं और न सावन के गीत फिल्माने का कोई चलन है। लेकिन, ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के ज़माने में ज्यादातर गीत नायिकाओं पर विरह के अंदाज में फिल्माए गए! नायिका को ये विरह अपने साजन का भी था, पीहर का भी, भाई का भी और पिता का भी! लेकिन, नायिका को अपने साजन के घर वापस आने का इंतजार कुछ ज्यादा होता था। इस अहसास का फिल्मों में जमकर इस्तेमाल किया गया।
   1944 की फिल्म ‘रतन’ में ‘रूमझुम बरसे बदरवा मस्त हवाएं आई, पिया घर आजा ...' इसी तरह 1955 में आई ‘आजाद’ में नायिका बादलों से याचना करती है ‘जारी-जारी ओ कारी बदरिया, मत बरसो री मेरी नगरिया, परदेस गए हैं सांवरिया।’ 1955 में ही आई राजकपूर और नरगिस की 'श्री 420' का गीत ‘प्यार हुआ इकरार हुआ’ संगीत प्रेमियों का पसंदीदा है। फिल्म ‘जुर्माना’ (1969) का लता मंगेशकर का गाया गीत ‘सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ’ आज भी सावन में बजता सुनाई देता है। 'पड़ गए झूले सावन ऋतु आई रे' (बहू बेगम), ‘गरजत बरसत सावन आयो रे’ (बरसात की रात), ‘अब के सजन सावन में आग लगेगी बदन में’ (चुपके चुपके) गीत नायिका के विरह की याद दिलाते हैं। 'सावन आया बादल आए मोरे पिया नहीं आए’ (‘जान हाजिर है), ‘तुझे गीतों में ढालूंगा, सावन को आने दो’ (सावन को आने दो), और ‘लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है’ (चांदनी) को कौन भूल सकता है। अक्षय कुमार और रवीना टंडन का 'मोहरा' का गीत ‘टिप टिप बरसा पानी सावन में आग लगाए’ अपने ख़ास अंदाज के लिए याद किया जाता है। इसी तरह मिक्का के एलबम ‘सावन में लग गई आग, दिल मेरा हाय’ लोकप्रिय है।
   किशोर कुमार का सावन वाले गीतों से खास रिश्ता रहा है! उन्होंने इस रंगीले मौसम के कई गीतों गाए हैं। 1958 की फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' का किशोर कुमार और मधुबाला पर फिल्माया गीत ‘एक लड़की भीगी-भागी सी’ भी बहुत प्यारा गीत है। 'मंजिल' फिल्म के ‘रिमझिम गिरे सावन सुलग-सुलग जाए मन’ किशोर कुमार का बरसात पर गाया खूबसूरत गाना था। 'अजनबी' फिल्म के ‘भीगी-भीगी रातों में’ किशोर कुमार की मदहोश कर देने वाली आवाज थी। 'नमक हलाल' के लिए किशोर कुमार का गाया ‘आज रपट जाएं तो हमें न उठईयों’ बेहद खुशनुमा गीत है। जितेन्द्र, रीना राय पर फिल्माया ‘अब के सावन में जी डरे रिमझिम सर से पानी गिरे तन में लगे आग सी...’ (जैसे को तैसा) बरसात में होंठों पर आ ही जाता है।
 आशा पारेख और धर्मेन्द्र का गीत ‘आया सावन झूम के (आया सावन झूम के), और राजेन्द्र कुमार, बबीता पर फिल्माया ‘रिमझिम के गीत सावन ... ’ (अंजाना) के अलावा फिल्म 'मिलन' में सुनील दत्त की गायन क्लास में शिष्या नूतन की मीठी तान ‘सावन का महीना पवन करे शोर’ की मधुरता का कोई जवाब नहीं! धर्मेन्द्र और आशा पारेख की जोड़ी वाली फिल्म 'मेरा गाँव-मेरा देश' का गीत ‘कुछ कहता है ये सावन’ भी बेहतरीन प्रस्तुति था। नीलम और शशि कपूर पर फिल्माया 'सिंदूर' का गीत ‘पतझड़ सावन बसंत बहार, एक बरस में मौसम चार’ मर्म आज भी सुनने वाले को कचोटता है।
  देशभक्ति वाली फ़िल्में बनाने वाले मनोज कुमार ने भी 'रोटी कपड़ा और मकान' में जीनत अमान को देहदर्शना गीत 'हाय हाय ये मज़बूरी ...' पर नचाकर दर्शकों को प्रसन्न किया था। 1958 की फिल्म 'फागुन' के गीत 'बरसो रे बैरी बदरवा बरसो रे ...' के बोल ही नायिका के मनोभाव को व्यक्त करते हैं। प्रेमियों के साथ सावन गीत किसानों को भी सुकून दिलाते हैं। किसानों को इस मौसम का हमेशा ही इंतजार रहता है। 'लगान' का गीत ‘घनन-घनन घिर-घिर आए बदरा’ इसी का उदाहरण है। 'गुरु' के गीत ‘बरसो रे मेघा-मेघा’ के जरिए एक ग्रामीण अल्हड़ लड़की के बारिश में सबसे बेखबर होकर मस्ती करती दिखती है। 60 और 70 के दशक में जब ग्रामीण पृष्ठभूमि पर फिल्में बनती थीं, तब होली गीतों को सावन गीत की तरह भी इस्तेमाल किया गया। कई फिल्मों के तो नाम तक सावन से जोड़कर रखे गए! आया सावन झूम के, सावन को आने दो, ‘प्यासा सावन, सोलहवां सावन, सावन की घटा, और ‘सावन भादो’ जैसी कई फ़िल्में उस दौर में बनी!
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इस अत्याचार का जख्म जिंदगीभर नहीं भरता!

बाल यौन शोषण

- एकता शर्मा 



  यौन विकृतियों से पीड़ित लोगों को बच्चे सबसे सॉफ्ट टारगेट लगते हैं। इसलिए कि बच्चों का बालमन ये भी समझ नहीं पाता कि उनके साथ जो हो रहा है, वो एक घृणित कृत्य है! वे छोटे-छोटे लालच में फँस जाते हैं या धमकियों से डरकर शोषण झेल जाते हैं। मनोचिकित्सकों का कहना है कि अभी बाल यौन शोषण के जितने मामले पुलिस में दर्ज किए जा रहे हैं, असली संख्या उससे कहीं बहुत ज्यादा है। ये इसलिए दर्ज नहीं होते कि कई मामलों में घटना का आरोपी परिवार का नजदीकी सदस्य ही होता है।
  रेलवे स्टेशन, सडकों या धार्मिक स्थलों पर लावारिस घूमने वाले बच्चों के पुनर्वास के क्षेत्र में काम कर रही 'चाइल्ड हेल्प लाइन' के मुताबिक घरों से भागने वाले अधिकांश बच्चे घरों पर किसी न किसी रूप में यौन अत्याचार के शिकार पाए गए हैं। देशभर में 53.22 प्रतिशत बच्चे यौन अत्याचार के शिकार होते हैं। इस पर नियंत्रण का सबसे अच्छा उपाय है 'जागरूकता।' बच्चों को जितना ज्यादा जागरूक किया जाएगा, इस तरह से शोषण को रोकना उतना ही आसान होगा। इसे विडंबना ही माना जाना चाहिए कि हर साल 'विश्व बाल यौन अत्याचार दिवस' की औपचारिक निभाई जाती है, पर कोई सार्थक पहल नहीं होती।  
  इंदौर के एमवाय अस्पताल के मनोरोग विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. वीएस पाल का कहना है कि बच्चों के साथ बचपन में हुआ ये ऐसा हादसा है, जिस अत्याचार के जख्म वे जिंदगीभर नहीं भरता। वे बताते हैं कि मेरे इलाज के लिए आने वाले अधिकांश मनोरोगी ऐसी ही किसी न किसी समस्या से ग्रस्त पाए जाते हैं। हम यह स्वीकार नहीं करना चाहते, कि हमारे देश में ऐसा भी होता है! लेकिन, यह सच है और ये सच्चाई महिला एवं बाल मंत्रालय द्वारा कराए गए अध्ययन और पुलिस में दर्ज शिकायतों से से स्पष्ट हो जाती है। इसके लिए सबसे जरुरी है कि पालक (विशेषकर माताएं) अपने बच्चों के प्रति इस दृष्टिकोण से भी जागरूक हों! बच्चों को आँख मूंदकर किसी के भी भरोसे नहीं किया जाए।
  डॉ पाल का कहना है कि अकसर घरों में रहने वाले अपने बुजुर्गों पर विश्वास करके बच्चे उनके हवाले कर देते हैं। इसी के चलते बच्चे सॉफ्ट टारगेट बन जाते हैं। वे न तो यौन शोषण का विरोध कर पाते हैं और न किसी से अपने साथ हुए अत्याचार का जिक्र कर पाते हैं। ये भी देखा गया है कि कई बार माता या पिता ही बदनामी के डर से घटना को दबा देते हैं। घर के बड़े पुराने नौकर, मामा, चाचा, ताऊ या पिता के दोस्त में से किसके मन में क्या खोट है, कोई नहीं समझ सकता! कई ऐसे मामले भी सामने आए, जब भाई, पिता, काका या बहुत नजदीकी रिश्तेदार ही परिवार की बेटियों या बहनों के यौन शोषण का आरोपी निकला। लेकिन, बदनामी और सामाजिक भय के कारण या तो मामला पुलिस के पास नहीं पहुँचता या उसे दबा दिया जाता है। यदि तात्कालिक प्रतिक्रिया के तहत पुलिस तक पहुँचता भी है, तो मामला अदालत में इतना कमजोर हो जाता है, कि आरोप साबित नहीं हो पाता!
  डॉ पाल बताते हैं कि 55 साल की एक महिला मनोविकार के चलते चिकित्सकीय परामर्श के लिए मेरे यहाँ लाई गई थी। काफी कोशिशों के बाद उसने बताया कि उसके साथ बचपन में दुष्कृत्य करने वाले बड़े काका थे। 'मैं उनके साथ खेलती थी। जब थोड़ी बड़ी हुई, तो उन्होंने मेरे साथ 'बुरा काम' किया। इस हादसे के बाद मैं उनसे डरने लगी और बहुत बुलाने पर भी उनके पास कभी नहीं गई! मैंने माता-पिता या किसी रिश्तेदार तक से इस बात का कभी जिक्र नहीं किया। मैं सारे समय माँ के पास ही चिपकी रहती थी। बड़ी हुई तो मेरे मन में पुरुषों के प्रति नफरत भरी है। आज भी मैं उस हादसे से मुक्त नहीं हो सकी हूँ।' दूसरा मामला 40 साल के एक व्यक्ति का भी है, जिसके मन पर बचपन में हुई यौन शोषण की घटना ने ऐसा दुष्प्रभाव डाला कि शादी के बाद भी वह कभी सामान्य नहीं हो पाया। तीसरी घटना 26 साल की एक युवती की है, जिसने बताया था 'मैं और मेरे काका का लड़का संयुक्त परिवार में एक साथ खेल और पढ़-लिखकर बड़े हुए हैं। वो उम्र में मेरे से एक साल बड़ा था। मैं जब चौथी क्लास में थी, तब उसने मेरे साथ ये कुकृत्य किया। वो घटना काफी त्रासद थी! मैं इस घटना को कभी भूल नहीं पाती। आज भी जब वो हादसा याद आ जाता है, तो मैं कई रातों को सो नहीं पाती!'
  हमारे समाज में संयुक्त परिवारों में रहने वाले बुजुर्ग सम्मानित होते हैं। उनके अनुभव को देखते हुए अधिकांश लोग बच्चों पढ़ाने या घुमाने ले जाने की जिम्मेदारी इन्हें ही सौंपते हैं! जबकि, कोई ये नहीं सोचता कि अकेला बुजुर्ग बच्चों पर यौन अत्याचार करने वाला सबसे बड़ा शिकारी होता है। वर्षों तक मस्तिष्क में इकट्ठा होने वाली यौन कुंठाएँ, बढ़ती उम्र के कारण हो रहे हार्मोनल चेंजेस इस असंतुलित व्यवहार के लिए जिम्मेदार हैं। प्रोस्टेट ग्रंथि के बढ़ने के साथ ही यौन इच्छाएँ भी बढ़ जाती हैं। परिवार के बच्चे आसानी से उनके चंगुल में आ जाते हैं, इसलिए वे आसानी से शिकार भी बन जाते हैं। मनोचिकित्सकों के मुताबिक, बुजुर्गों को पूरा सम्मान दें उनकी देखभाल करें पर बच्चों को उनके हवाले करें तो नजर जरूर रखें! क्योंकि, ऐसे मामलों में सबसे ज्यादा धोखे विश्वास में ही हुए हैं!   
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दर्शकों नहीं चाहते कि फ़िल्में उन्हें ज्ञान बांटे!

-  एकता शर्मा

  फिल्मों में कला और व्यवसाय के बीच तालमेल होना बहुत जरुरी है। इसलिए कि फिल्मों का मूल मकसद मनोरंजन होता है। दर्शक मनोरंजन के लिए ही पैसे खर्च करके सिनेमाघर तक आते है। वे फिल्मों से कोई ज्ञान की उम्मीद नहीं करते! यदि उन्हें ज्ञान की जरुरत भी होगी तो वे फिल्मों से नहीं लेंगे! लेकिन, फिल्मों से मनोरंजन कैसा हो, ये भी एक बड़ा सवाल है! फूहड़ हास्य और अश्लील दृश्यों से भरी कोई फिल्म मनोरंजन नहीं कर सकती! फिल्मों का मनोरंजन ऐसा हो, जो दर्शकों की संवेदनाओं को झकझोर दे!
 फिल्मकारों की जिम्मेदारी है, कि वह समाज को बेहतर दिशा दे! नैतिकता के स्तर को ऊपर उठाने में और बच्चों को बेहतर मूल्य की समझ देने में भूमिका अदा करे! लेकिन, आज के दौर में तथाकथित कला फिल्में या आक्रोशित करने वाली फिल्में या सेक्स कॉमेडी बनाने वालों का तर्क यह रहा है कि फिल्मकारों का काम संदेश देना नहीं है, सिर्फ फिल्में बनाना है। अगर उनकी फिल्मों में अत्यधिक सेक्स, हिंसा, अश्लीलता या संबंधों की विसंगतियां दिखती हैं तो इसके लिए वे नहीं, बल्कि समाज दोषी है, क्योंकि समाज में यह सब होता है और वे समाज से ही अपनी कहानियां उठाते हैं!
   फिल्मकारों को इस बात की आजादी होना चाहिए, कि वे किस तरह की फिल्म बनाना चाहते हैं! इसमें कुछ गलत भी नहीं, पर इस आजादी का दुरूपयोग नहीं होना चाहिए! दुर्भाग्य से हमारी फिल्म इंडस्ट्री का अर्थशास्त्र बड़ी और मसालेदार फिल्मों को ही समर्थन देता है। ये भी सही है कि छोटी और सार्थक फिल्में देखने के इच्छुक दर्शकों का एक बड़ा समुदाय है। आज सार्थक और समाज को प्रेरित करने वाली फिल्मों के दर्शकों की संख्या अनगिनत है। लेकिन, इनकी अनदेखी करके मनोरंजन के बहाने फूहड़ता परोसना किसी भी नजरिए से ठीक नहीं है। लेकिन, फ़िल्मी स्वतंत्रता को स्वछंदता नहीं बनने दिया जाना चाहिए। व्यावसायिकता की दौड़ में भी फिल्मकारों को अपनी जिम्मेदारियों को नहीं भूलना चाहिए!
 फिल्मकारों की समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी होगी, ऐसा नहीं लगता! फिल्मकारों की सबसे बड़ी ताकत उनकी सिनेमाई आजादी है। इसका मतलब है अपनी मर्जी के अनुरूप फिल्में बनाने और उसे दर्शकों तक पहुंचाने की! भले ही दर्शक उन्हें नकार दें! आशय यह कि स्वतंत्रता पर स्वच्छंदता हावी है! यही स्वच्छंदता आजकल फिल्मों में गालियों, सेक्स दर्शना दृश्यों, हिंसा, भौंडी कॉमेडी और गैर जरुरी आक्रोश के रूप में दिखाई दे रही है। फिल्मों में जो आक्रोश दिखता है उनमें कोई स्पष्ट उद्देश्य या वैचारिक आस्था नहीं होती! वो सिर्फ आक्रोश होता हैं। इस आक्रोश का कोई सामाजिक आधार भी नहीं होता और न कोई जिम्मेदारी होती है। जबकि, श्याम बेनेगल, केतन मेहता, गोविन्द निहलानी और प्रकाश झा जैसे फिल्मकारों की फिल्मों में, जिन्हें कला फिल्में या समानांतर फिल्में कहा जाता था, आक्रोश का एक सामाजिक और वैचारिक आधार होता था! लेकिन, कला या समानांतर फिल्मों ने अपना जनाधार को खो दिया! क्योंकि, माना गया कि अतिशय-यथार्थवाद के कारण ये फिल्में दर्शकों से दूर होती गईं। दर्शकों को जब ये फिल्में बोझिल लगने लगीं, तो इनमें पैसे लगाने वाले पीछे हटते गए और कला फिल्में इतिहास में चली गईं!
  देखा गया है कि फिल्मों में आक्रोश व्यक्त करना बहुत आसान है! क्योंकि, उसमें यथार्थ को जस का तस रख देना होता है। लेकिन, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक या धार्मिक विसंगति या मुद्दों पर फिल्में बनाना मुश्किल काम होता है। 70 और 80 के दशक में फिल्मकारों ने समाज और देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझकर फिल्में बनाईं! पुराने दौर को देखें तो महबूब खान, हृषिकेश मुखर्जी, वासू चटर्जी, शक्ति सामंत, वी. शांताराम जैसे फिल्मकारों की फिल्मों में कला और व्यवसाय में जो संतुलन और सार्थक मिलन दिखता था, जाहिर है, उसे पाना आसान नहीं था।
  मौजूदा फिल्मों की एक और जमात हैं, जिनका सामाजिक सरोकार अलग ही है! लेकिन, उनकी फिल्में समाज की किसी न किसी सामाजिक, पारिवारिक विसंगति की ओर लोगों का ध्यान जरूर खींचती हैं। ये फिल्मकार स्वतंत्र हैं, स्वच्छंद नहीं! इनकी फिल्मों को दर्शक पसंद भी करते हैं। ओएमजी, मुन्ना भाई एमबीबीएस, लगे रहो मुन्ना भाई, थ्री इडियट्स, रंग दे बसंती, नो वन किल्ड जेसिका, तनु वेड्स मनु, बरेली की बर्फी और बधाई हो जैसी कई फिल्में हैं, जिन्होंने महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए और कमाई के रिकॉर्ड भी तोड़े! दर्शक ऐसी ही फ़िल्में देखना चाहते हैं! क्योंकि, ये खालिस मनोरंजन है, कोई ज्ञान का अध्याय नहीं!
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