Saturday 24 June 2017

ईद, सलमान और दर्शकों का धमाल!

- एकता शर्मा 
  ईद भी आ गई और सलमान खान की 'ट्यूबलाइट' भी! ये लगातार आठवां साल है, जब ईद पर सलमान की फिल्म रिलीज हुई है। पहली बार 2009 में ईद के मौके पर 'वाटेंड' की रिलीज के साथ ये सिलसिला जो शुरू हुआ था। सलमान ने हर साल ईद पर अपने दर्शकों को धमाकेदार फिल्मों का तोहफा दिया है। यही कारण है कि अब हर साल ईद पर दर्शकों को सलमान की फिल्म का इंतजार होता है। आमिर खान ने क्रिसमस को अपनी फिल्म की रिलीज के लिए तय कर दिया तो ईद को सलमान ने!  
   पिछले कुछ सालों से सलमान के चाहने वाले अपने इस पसंदीदा कलाकार ईद के मौके फिल्म की सफलता के रूप में ईदी देते रहे हैं। इस साल ईद के मौके पर रिलीज हुई 'ट्यूबलाइट' भी उन्ही में से एक हैं। बॉलीवुड में सलमान खान अपनी फिल्मों को ईद के मौके पर रिलीज क्यों करते है, इसका कारण तो सलमान और फिल्म के प्रोड्यूसर ही जाने! लेकिन, उनकी इस मौके पर रिलीज होने वाली फिल्मों को मिलने वाली सफलता इशारा करती हैं कि ईद मुक़द्दस त्यौहार उनके और उनकी फिल्मों के लिए सही साबित होता हैं।
  'ट्यूबलाइट' की कहानी गांधीजी के आदर्शों से भरपूर है। फिल्म में 'ट्यूबलाइट' सलमान का किरदार (लक्ष्मण) है, जिसे लोग इसलिए चिढ़ाने लिए ट्यूबलाइट कहते हैं। क्योंकि, उसे को बातें थोड़ी देर से समझ में आती है। लक्ष्मण का छोटा भाई भरत (सोहेल खान) ही। ये वक़्त है 1962 का। भारत और चीन में जंग छिड़ती है। भरत को फौज में रख लिया जाता है। उसे सरहद पर भेज दिया जाता है। भरत को काफी समय सरहद पर हो जाता है। लेकिन, लक्ष्मण को यकीन है कि उसका भाई जंग से जरूर वापस लौटेगा! उसके इस यकीन में लक्ष्मण का साथ देते हैं बन्नेखान चाचा (ओम पुरी), जादूगर शाशा (शाहरूख खान) और शी लिंग (झू झू)। 
   ईद पर रिलीज का सलमान खान का यह सिलसिला 'वांटेड' से शुरू हुआ था। ये फिल्म सलमान की पहली ईद धमाका फिल्म थी। उसके बाद हर ईद पर रिलीज होने वाली सलमान की फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर धमाका मचाया। यदि ईद पर रिलीज होने वाली फिल्मों की सफलता  करें तो 2009 में आई 'वांटेड' ने 120 करोड़ का कलेक्शन किया था। 2010 में इसी दिन आई फिल्म 'दबंग' ने 140 करोड़ की कमाई की। 2011 में आई 'बॉडीगॉर्ड' ने 148 करोड़ रुपए दर्शकों से बटोरे।
  2012 में ईद पर आई फिल्म 'एक था टाईगर' 198 करोड़ की कमाई की थी। 2014 में रिलीज हुई सलमान की ही फिल्म 'किक' ने लगभग 232 करोड़ का कलेक्शन किया था। 2015 में आई 'बजरंगी भाईजान' तो सलमान की सबसे ज्यादा कमाने वाली फिल्म रही, इस फिल्म ने 320 करोड़ रुपए कमाए। जबकि, पिछले साल 2016 में आई 'सुल्तान' ने 300 करोड़ पार का कलेक्शन किया था। इसलिए उम्मीद की जा रही है कि 'ट्यूबलाइट' की कमाई भी करोड़ों में ही होगी!  
   ईद पर सलमान की फिल्मों का टोटका इतना जबरदस्त है कि 2018 की ईद पर रिलीज होने वाली फिल्म भी तय हो गई! अगले साल दबंग की सीक्वेल 'दबंग-3' का आना पक्का हो गया है। 'दबंग-3' को अरबाज़ खान निर्देशित कर रहे हैं। इस साल सलमान खान की 'ट्यूबलाईट' के अलावा एक और फिल्म यशराज फिल्म्स की 'टाइगर ज़िंदा है' रिलीज़ होगी। इस फिल्म को अलीअब्बास ज़फर निर्देशित कर रहे हैं।  
  सलमान को चाहने वाले हमारे देश में ही नहीं पकिस्तान में भी बहुत हैं। यही कारण है कि वहां भी जब ईद पर सलमान की फिल्म रिलीज होती है तो पाकिस्तानी फिल्मों के प्रोडयूसर हाथ मलते रह जाते हैं। इस साल ईद पर वहाँ दो फ़िल्में रिलीज हो रही है। ये फ़िल्में धराशायी न हो इसलिए वहां के प्रोडयुसरों ने सलमान की 'ट्यूबलाइट' की रिलीज को आगे बढ़वा दिया। क्योंकि, उन्हें पता था कि यदि इस साल भी सलमान की 'ट्यूबलाइट' जली तो उनकी फ़िल्में फ्यूज हो जाएंगी। 
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Monday 12 June 2017

हिंदी सिनेमा में बारिश का तड़का

- एकता शर्मा 

  हिंदी सिनेमा में बारिश को कई मकसदों के लिए इस्तेमाल किया गया है। फ़िल्मी कथानक में, गीतों में, दृश्यों में और एक्शन सीन में भी बारिश का इस्तेमाल होता रहा है! हर मनोभाव को बारिश का सहारा लेकर दर्शाया गया। फिल्मों में बरसों से नायक-नायिकाओं और अन्य चरित्रों, परिस्थितियों और मनोदशाओं को व्यक्त करने के लिए भी बारिश का सहारा लिया जाता रहा है। 1949 में बनी राजकपूर की चर्चित फिल्म 'बरसात' का तो शीर्षक ही सारे मनोभाव प्रदर्शित करता है। फिल्म का शीर्षक गीत 'बरसात में तुमसे मिल हम सजन' फुहार की तरह ही मनो भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है। 

   2007 में आई फिल्म 'लाइफ इन ए मेट्रो' में रोमांस इसी बारिश के मौसम में परवान चढ़ता है। 1969 की फिल्म 'आराधना' में बरसात में 'रूप तेरा मस्ताना' गीत गाते हीरो और हीरोइन, 1973 की फिल्म 'जैसे को तैसा' में 'अब के सावन में जी डरे' गीत के दौरान नायक-नायिका की अदाएं उस वक़्त के दर्शकों को आज भी याद होगी। मनोज कुमार की 1974 में आई 'रोटी कपड़ा और मकान' में नायिका का 'हाय हाय ये मजबूरी' गाते हुए नायक को ताना देना कि 'तेरी दो टकिया की नौकरी मेरा लाखों का सावन जाए!' आज भी लुभाता है।   
  ऐसी कई फिल्में हैं, जिनके नाम में ही बरसात का महत्व समझ आता है। सावन की घटा (1966), आया सावन झूम के (1969), सावन को आने दो (1979), प्यासा सावन (1981), बरसात (1949, 2005), बरसात की एक रात (1998) और बारिश (1957, 1990) ऐसी कुछ फिल्में हैं, जिनके नाम में तो सावन या बरसात है परंतु उनके कथानक से बारिश का कोई सरोकार नहीं था। कुछ समय पहले अंग्रेजी और हिंदी में बनी मीरा नायर की 'मानसून वेडिंग' की कथावस्तु में जरूर बारिश का महत्व था। 
कई फिल्मों के बहुत से ऐसे दृश्य हैं जिनमें प्रेम भाव प्रकट करने के लिए बारिश का सहारा लिया गया है। 1998 में आई 'चांदनी' में विनोद खन्ना अपनी दिवंगत पत्नी की याद में जो गीत गाता है उसके लिए बारिश की पृष्ठभूमि सही लगती है। 1984 की फिल्म 'मशाल' में दिलीप कुमार अपनी घायल पत्नी की मदद के लिए भींगी रात में ही गुहार लगाते हैं। कंपनी (2002) और जॉनी गद्दार (2007) के दृश्यों, जिसमें काफी खून-खराब था को फिल्माने के लिए बारिश को ही उपयुक्त समझा गया।  
   फिल्मों के हर चरित्र को बारिश का आनंद लेने के अनुकूल दिखाया जाता है। 1977 में आई 'प्रियतमा' में नीतू सिंह द्वारा 'छम छम बरसे घटा' गीत और 1997 में माधुरी दीक्षित का 'दिल तो पागल है' में बच्चों के साथ सड़कों पर नाचते हुए गाना 'चक धूम धूम' कुछ ऐसी ही कहानी सुनाते हैं। 1973 में बनी राजेश खन्ना, शर्मीला टैगोर और राखी की फिल्म 'दाग' का उल्लेख करना जरुरी है। इस फिल्म की लगभग सभी घटनाएं भारी बरसात में ही होती है।
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समय और पसंद का मोहताज रहा फिल्म संगीत


- एकता शर्मा 

फिल्म संगीत की भी अपनी अलग कहानी है! समय, काल और दर्शकों की मनःस्थिति को देखते हुए इसमें बदलाव होते रहे हैं! जबकि, फिल्मों का शुरुआती लंबा दौर खामोश बना रहा! फिल्मी संगीत की शुरुआत का समय 40 का दशक था! तब विश्व युद्ध और उसके बाद आजादी के बाद बंटवारे से घिरे देश के माहौल ने संगीत को भी प्रभावित किया! इस समयकाल में दो तरह के गाने सुनाई दिए! एक वे गीत जिनमें रोमांस का सुख था या विरह की पीड़ा! दूसरी तरह के गीत देश प्रेम और बंटवारे के दर्द से उभरी भावनाएं      लिए थे! 

  माना जाता है कि 40 से 50 का दशक फिल्म संगीत के लिए स्वर्णिम काल था। इस काल में फिल्म संगीत की तकनीक में सुधार आना शुरू हुआ! परंपरागत हिंदुस्तानी संगीत वाद्य यंत्रों के साथ विदेशी वाद्य भी सुनाई देने लगे! ढोलक की थाप को गिटार की जुगलबंदी के साथ जोड़ा गया। संगीत को नई शक्ल देने वालों में नौशाद, सचिनदेव बर्मन और शंकर जयकिशन का नाम लिया जा सकता है! इस दौर में देव आनंद की फिल्मों के कई गीत मशहूर हुए! गुरुदत्त की फिल्म 'प्यासा' के गीत ‘दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है' हो या ‘वक्त ने किया क्या हंसी सितम' जैसे गीतों में अलग ही माधुर्य सुनाई दिया! 'मुगले आजम' जिस तरह की भव्य फिल्म थी, उसके संगीत में भी नौशाद ने उसी भव्यता का अहसास कराया! 'तेरी महफ़िल में किस्मत आजमाकर हम भी देखेंगे' जैसे गीत सुनकर ही लग जाता है, कि इनका फिल्मांकन किस भव्यता से किया गया होगा! 

  जैसे-जैसे वक़्त गुजरता गया, फिल्म संगीत में भी उतर चढ़ाव आने लगा। बजाए ऊपर उठने के ये संगीत ढलान पर आने लगा! 40 के दशक के गीतों में शायरी और संगीत का जो तालमेल था, वो गायब होने लगा! 50 और 60 के दशक के बाद वाले गीतों में रुमानियत ज्यादा थी! लेकिन, इसके बाद इस संगीत पर आरडी बर्मन का प्रभाव हावी हो गया! उन्होंने योरपीय संगीत साथ नए प्रयोग जो शुरू किए। लेकिन, 80 के दशक के शुरुआत से फ़िल्मी गीतों से माधुर्य गायब हो गया! माधुरी के ठुमकों ने गीतों को गिनती में ढाल दिया और एक, दो, तीन ... जैसे घटिया गीतों ने जन्म लिया! 'जुम्मा चुम्मा दे दे' के बाद 'चोली के पीछे क्या है ...' और उसके बाद गोविंदा स्टाइल के गीत 'एक चुम्मा तू मुझको उधार दई दे ...' ने मीठे सुकून के लिए सुने जाने वाले फिल्म संगीत को एक तरह से ख़त्म ही कर दिया! 

  फिर 90 का दशक ऐसा आया, जिसमें फिल्म संगीत का भटकाव और द्वंद साफ़ नजर आने लगा! इसलिए भी कि ये पीढ़ी के बदलाव का भी वक़्त था! गीतों में माधुर्य चाहने वाले लोग भी थे और डिस्को के दीवाने भी! इस दौर में सबसे ज्यादा प्रयोग किए गए! भप्पी लाहिरी ने मिथुन चक्रवर्ती स्टाइल के गीतों की रचना के लिए मैलोडी को हाशिए पर पटक दिया! फिर लंबे इंतजार के बाद 'रोजा' के गीत संगीत समझने वालों के कान में पड़े! इसके साथ ही जन्म हुआ एआर रहमान का! जैज जैसी योरपीय संगीत शैली को रहमान ने फिल्म संगीत में चतुराई से पिरोया! स्वर के साथ वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल करने में रहमान को महारथ हांसिल है। इसके बाद याद रखने योग्य संगीतकार हैं अमित त्रिवेदी, जिसे लीक से हटकर संगीत रचना के लिए जाना जाने लगा है। बदलते समाज के साथ कोई चीज तेजी से बदलती है, तो वो है फिल्म संगीत! क्योंकि, जब सोच बदलता है तो संगीत सुनने की पसंद भी बदल जाती है, वही आज भी हो रहा है। 

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कटप्पा को छोड़ो! सवाल ये कि कितनी कमाई करेगी 'बाहुबली-2'

- एकता शर्मा 

  'कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा ...!' इस सवाल के जवाब के लिए दर्शकों को डेढ़ साल से इंतजार करना पड़ा! लेकिन, इंतजार का फल हमेशा मीठा होता है, ये बात सही साबित हुई! इस सबके बीच अब सबसे बड़ा सवाल ये है कि ‘बाहुबली 2’ की कमाई क्‍या होगी? फिल्‍म कितने नए रिकॉर्ड गढ़ेगी? पहले दिन की कमाई में ही फिल्म सौ करोड़ के क्लब में शामिल हो गई! दक्षिण भारत की फिल्‍मों के बाजार को ‘बाहुबली’ सीरीज की दोनों फिल्मों ने नया आयाम दिया। ‘बाहुबली-2’ ने तो हिंदी फिल्मों के सामने बहुत लम्बी लकीर खींच दी! 'दंगल' जैसी फिल्म को इसने कई मामलों में काफी पीछे छोड़ दिया! उम्‍मीद की जा रही है कि फिल्‍म तेलुगू और तमिल वर्जन से भी कमाई का रिकॉर्ड बनाएगी।


   9 हज़ार स्‍क्रीन्‍स पर रिलीज हुई ‘बाहुबली 2’ को जबरदस्‍त रेस्‍पॉन्‍स मिला है। यह फिल्म नॉन हॉलिडे रिलीज है। फिर भी बड़ी संख्‍या में दर्शक पहले दिन फिल्‍म देखने पहुंचे। विदेशों में भी ‘बाहुबली 2’ का क्रेज देखा गया। उत्तरी अमेरिका में फिल्म को अच्छा रिस्‍पॉन्‍स मिला। विदेश में यह करीब 2 हज़ार स्‍क्रीन्‍स पर रिलीज हुई। देश और विदेश की पहले दिन की कमाई मिलाकर यह 100 करोड़ से ज्यादा का है। ओपनिंग-डे पर 100 करोड़ का बिजनेस करने वाली भी यह पहली फिल्‍म है। ‘दंगल’ से तुलना की जाए तो ‘बाहुबली-2’ दुगुने स्‍क्रीन पर रिलीज हुई है। देश में 7 हज़ार से अधिक स्‍क्रीन्‍स पर रिलीज हुई है।
  फिल्म ने सबसे महंगे टिकट होने का भी रिकॉर्ड बनाया है। ये पहली फिल्म है जिसके टिकट 2400 रुपए के बिके। एडवांस बुकिंग के मामले में भी फिल्म सबसे आगे रही। फिल्म ने एडवांस बुकिंग में ही 125 करोड़ रुपये कमा लिए। 'दंगल' का रिकॉर्ड तो फिल्म ने तोड़ ही दिया। फिल्म की 10 लाख टिकटों की एडवांस बुकिंग हुई है।
  तीन भाषाओं तेलुगू, तमिल और हिंदी में रिलीज हुई 'बाहुबली-2' पहले वीकएंड में ही 200 करोड़ क्‍लब में शामिल हो जाएगी, ये तय है। फिल्म ने ऑनलाइन बुकिंग में भी रिकॉर्ड बनाया है। फिल्म ने करीब 25 करोड़ रुपए ऑनलाइन बुकिंग से ही कमाए हैं। मल्‍टीप्‍लेक्‍स में टिकटों की बढ़ी हुई कीमत ने भी फिल्‍म की कमाई बढ़ाने का काम किया। फिल्म विशेषज्ञों के मुताबिक ‘बाहुबली-2’ ‘दंगल’ का रिकॉर्ड आसानी से तोड़ देगी। बॉक्‍स ऑफिस पर ओपनिंग डे पर सबसे ज्‍यादा कमाई करने वाली फिल्‍म ‘हैप्‍पी न्‍यू ईयर’ है। इस फिल्‍म ने 44 करोड़ रुपए से अध‍िक का कारोबार किया था। तय है कि ‘बाहुबली 2’ हिंदी डब वर्जन की सबसे ज्‍यादा कमाई करने वाली फिल्‍म बनेगी। फिलहाल इसका यह रिकॉर्ड तोड़ती कोई दूसरी फिल्‍म नजर नहीं आती। फिल्म के तीनों वर्जन मिलाकर पहले दिन देश की सबसे ज्‍यादा कमाई करने वाली फिल्‍म बनना तय है।
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कला और कमर्शियल सिनेमा के बीच की गली

 - एकता शर्मा 

  सौ साल से ज्यादा वक़्त हो गया हिंदी सिनेमा को! इस दौर में बहुत कुछ बदला। लेकिन, जो नहीं बदला, वो है कमर्शियल फिल्मों का बोलबाला। दर्शकों को रिझाने के लिए कमर्शियल फिल्मों में हमेशा नए-नए फॉर्मूले इस्तेमाल किए जाते रहे। पर, साथ में कला फ़िल्में भी बनती रही हैं, जिन्हें पसंद करने वाले दर्शक कुछ ख़ास ही थे। पिछले कुछ सालों से सिनेमा का एक नया रूप देखने को मिला। इसे न तो कमर्शियल कहा जा सकता है और न इन्हें पूरी तरह आर्ट फिल्मों की गिनती में रखा जा सकता है। ये फिल्में रियलिटी के ज्यादा करीब हैं। फिल्म निर्माताओं की एक ऐसी खेप उभरकर सामने आई है जो लीक से अलग हटकर रीयल सिनेमा बनाने में विश्वास करता है।


    द वेडनसडे, मद्रास कैफे, लंच बॉक्स, फंड्री, सिद्धार्थ, अनवर का अजब किस्सा को कला फिल्मों की श्रेणी  रखा जा सकता। ये फिल्में रियलिटी के करीब होते हुए भी आर्ट फिल्में नहीं हैं। समानांतर और कला फिल्में एक खास आयु वर्ग के लोगों द्वारा पसंद की जाती रही हैं। इस तरह की फिल्मों में युवाओं की दिलचस्पी कम होती है। लेकिन, आज का युवा कमर्शियल सिनेमा के अलावा अन्य तरह की फिल्में भी देखना और समझना चाहता है। यथार्थ को लेकर चलने वालीं छोटी बजट की फिल्मों को आज का युवा वर्ग ज्यादा पसंद कर रहा है।
  एक वक़्त ऐसा भी था, जब फिल्मकार नए मुद्दों को फिल्माने से घबराते थे, आज उन पर फिल्में बन रही हैं। राजनीतिक मुद्दे पर आधारित फिल्म ‘मद्रास कैफे’ ने फिल्मकारों के लिए नया कैनवास उपलब्ध कराया है। डॉक्यूमेंट्री की अंदाज वाली इस फिल्म ने बॉलीवुड फिल्मों में एक नया द्वार खोला है। मद्रास कैफे, द वेडनेसडे की सफलता यह बताती है कि संजीदगी से बनाई गई फिल्म चाहे वह डॉक्यूमेंट्री के कलेवर में ही क्यों न हो, दर्शक उसे पसंद करेंगे। आज के नए फिल्मकार बदलती पीढ़ी के स्वाद को पहचान रहे हैं। नई पीढ़ी ज्यादा तार्किक है और उसकी बौद्धिक खुराक बढ़ रही है। वह मसालेदार फिल्में देखना और वैचारिक मसलों पर चर्चा करना चाहती है। उसके लिए फिल्म अब केवल मनोरंजन का साधन नहीं है। फिल्मकार इस चीज को पहचानने लगे हैं।
 जिस तरह की फ़िल्में बन रही है, उनमें जोखिम भी ज्यादा है। लेकिन, फिल्मकारों ने जोखिम लेने का साहस भी दिखाया। इस क्रम में नागराज मंजुले की फिल्म ‘फंड्री’ का उल्लेख जरूरी है। ‘फंड्री’ एक दलित किशोर लड़के की कहानी है जो जाति व्यवस्था के खिलाफ लड़ता है। फिल्म में दलित किशोर जाब्या अपने साथ पढ़ने वाली एक ऊंची जाति की लड़की से प्रेम करता है। मंजुले ने अपनी इस फिल्म के जरिए जाति व्यवस्था के कुरूप चेहरे को बड़े ही तंज अंदाज में बेनकाब किया है। जबकि रिचि मेहता की फिल्म ‘सिद्धार्थ’ गांव से विस्थापित होकर शहर आए एक परिवार की त्रासदी बयां करती है। विस्थापन वर्तमान समय की एक बड़ी घटना है, जिसके दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहर गवाह हैं। ‘लंच बॉक्स’ और ‘अनवर का अजब किस्सा’ जैसी फिल्में इस नई जोनर को परिभाषित कर रही हैं। दरअसल, ये फ़िल्में न तो कमर्शियल हैं और न पूरी तरह कला फ़िल्में! ये दोनों के बीच की एक गली है, जो कहीं न कहीं वास्तविकता के बहुत करीब है। जब नए ज़माने के दर्शक ये पसंद कर रहे हैं, तो फिल्मकार इस नए फॉर्मूले को क्यों छोड़ें?  
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आकर कहाँ चला गया 'हीरो'


- एकता शर्मा 

   गोविंदा की एक और फिल्म डिब्बा बंद हो गई! फिल्म का नाम तो 'आ गया हीरो' था, पर ये हीरो कब आकर चला गया किसी को पता ही नहीं चला! संभवतः: हीरो बनने का उनका ये उनका आखरी प्रयोग था। बुरी तरह फ्लॉप रही इस फिल्म ने बरसों तक शिखर पर रहे एक हीरो को ख़त्म कर दिया। फ़िल्मी दुनिया ने दस सालों में अपने आपमें काफी बदलाव किया! लेकिन, गोविंदा अपनी मस्ती और भोलेपन में ही रह गए। जबकि, उनको उबारने वाले सलमान खान काफी आगे निकल गए। एक समय फिल्म के हिट होने का फार्मूला माने जाने वाले गोविंदा दस सालों से अपने स्टारडम लेकर परेशान हैं।
   गोविंदा के पास कॉमेडियन जैसी एक्टिंग के अलावा उनकी डांसिंग स्टाइल भी थी। परंतु, उन्होंने न तो रितिक रोशन बनने की कोशिश की और न शाहिद कपूर बनने की! उन्होंने अपने आपको परीक्षा देने से भी हमेशा बचाया! वे अपने पूरे दौर में सुरक्षित दायरे में बने रहे! जहां से बाहर का कुछ भी नजर नहीं आता था। आज उनके लिए वही सुरक्षित दायरा मुश्किल बन गया। अपना स्टारडम खो चुके गोविंदा को फिल्में करने की आदत 80 और 90 के दशक की लगी थी। सेट पर देरी से आना उनकी आदत में शुमार रहा। इससे फिल्मकारों में उनकी छवि नकारात्मक  पनपती गई। फिल्में मिलना बंद हो गई। क्योंकि, हमेशा हीरो बने रहने के लिए वैसी लाईफस्टाईल में भी बने रहना पड़ता है। ऐसे दौर में सलमान खान ने 'पार्टनर' में उन्हें लेकर उन पर जैसे उपकार किया था। 'पार्टनर' खूब चली पर गोविंदा इस सफलता को भुना नहीं पाए! क्योंकि, गोविंदा अपने आपको बदल नहीं पाएं। समय के अनुसार चलने की बजाए उन्होंने समय को अपने अनुरुप ढालने का प्रयत्न किया और मात खा गए।
  एक वक्त था जब अमिताभ बच्चन को पैसौं की जरुरत थी और उस समय गोविंदा के सितारे बुलंदी पर थे। गोविंदा और डेविड धवन की जोड़ी याने हिट फिल्म की ग्यारंटी। 'बड़े मियां छोटे मियां' फिल्म करने के बाद अमिताभ और गोविंदा दोनों को फायदा हुआ! पर, अमिताभ ने इस फिल्म से आगे की सौ सीढ़ियों को कैसे पार करना है, इसकी योजना बना ली थी। क्योंकि, वे आर्थिक रुप से कंगाल हो चुके थे और उन्हें अपने आपको फिर से स्थापित करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ रहा था। वही गोविंदा सफलता का स्वाद पेटभर चखने के बाद आलस्य को अपना गए और सफलता के एक शिखर पर से उन्होंने दूसरे शिखर की ओर देखने की जहमत नहीं उठाई।
   गोविंदा अब यह कह भी रहे है कि वे बॉलीवुड में किसी कैंम्प के नहीं हुए जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा! पर, प्रश्न यह उठता है कि जब सफलता के शिखर पर थे तब भविष्य के बारे में रियेलिस्टिक होकर उन्होंने क्यों नहीं सोचा? गोविंदा अमिताभ का भी उदाहरण देते है कि किस प्रकार से अमिताभ को भी किसी कैंम्प का नहीं होने के कारण आर्थिक नुकसान झेलना पड़ा! लेकिन, अमिताभ ने अपने आपमें बदलाव किया और समय के अनुरुप वे सोशल मीडिया से लेकर तमाम सभी आधुनिक प्रचार माध्यमों का प्रयोग कर आगे बढ़ते गए। अमिताभ ने प्रयोग किए जबकि गोविंदा ऐसा कुछ भी नहीं कर पाएं। 'आ गया हीरो' के हश्र ने उस हीरो को भुलाने के लिए मजबूर कर दिया जिसकी पहचान ही 'हीरो नंबर-1' थी!
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फिर शुरू हो गया कॉस्ट्यूम ड्रामा!

- एकता शर्मा 
    इतिहास पर बनाया गया कॉस्ट्यूम ड्रामा फिल्मकारों का पुराना शगल रहा है। 'बाजीराव मस्तानी' के बाद संजय लीला भंसाली अब 'पद्मावती' ला रहे हैं। 'बाहुबली : द बिगनिंग' का दूसरा पार्ट 'बाहुबली : द कंक्लूजन।' भी लाइन में है। केतन मेहता भी 'रानी लक्ष्मीबाई' बनाने की तैयारी कर रहे हैं। आशुतोष गोवारिकर भी 'मोहन जोदड़ो' लेकर आए थे, पर दर्शकों द्वारा नकार दिए गए। आशय यह कि ऐतिहासिक और कॉस्ट्यूम ड्रामा फिल्मों का दौर फिर शुरू होने वाला है! वैसे इसकी शुरुआत तो आशुतोष गोवारिकर ने 'जोधा-अकबर' बनाकर कुछ साल पहले कर ही दी थी!  


   अपना इतिहास देखना सभी को अच्छा लगता है। लेकिन, इतिहास को किताब में पढ़ने और परदे पर देखने में फर्क होता है। जब फिल्मकार इतिहास को फंतासी अंदाज परदे पर उतारता है तो दर्शकों का रोमांचित होना स्वाभाविक होता है। लेकिन, इस बात की कोई गारंटी नहीं होती कि ये ऐतिहासिक फ़िल्में सफल हो ही जाएंगी! इन ऐतिहासिक फिल्मों का इतिहास बताता है कि ये फार्मूला ही हमेशा चला! फिल्मों के साइलेंट दौर में 1924 में आई बाबूराव पेंटर ने 'सति पद्मिनी' निर्देशित की थी। चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी की एक झलक दिल्ली का नवाब अलाउद्दीन ख़िलजी देख लेता है। पद्मिनी को पाने के लिए चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण कर देता है। अलाउद्दीन ख़िलजी चित्तौड़ के राजपूतों को हरा तो देता है, पर पद्मिनी उसे नहीं मिलती! वो अलाउद्दीन के हाथ आने से पहले ही जौहर कर लेती है।
  हिंदी फिल्मकारों ने मुग़लकाल से जुडी कहानियों पर ही ज्यादा फ़िल्में बनाई गई है। जोधा, अकबर, जहांगीर, शाहजहाँ, पसंदीदा करैक्टर साबित हुए।
जब फिल्मों को आवाज मिली तो पहली बोलती फिल्म ही 'आलमआरा' कॉस्ट्यूम ड्रामा ही थी! निर्देशक सोहराब मोदी की यह हिंदी फिल्मों के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई। बाद में सोहराब मोदी ने पुकार, सिकंदर, पृथ्वी वल्लभ और झाँसी की रानी जैसी ऐतिहासिक फ़िल्में बनाई! 'झांसी की रानी' पहली टेक्नीकलर फिल्म थी।
  देखा गया है कि इतिहास से जुडी फिल्मों में भी महिला कैरेक्टरों को ही ज्यादा पसंद किया गया है। जहांगीर और अनारकली से प्रेम कहानी पर बनी 'अनारकली' और 'मुग़ले आज़म' का आज भी उल्लेख किया जाता है। 'अनारकली' का वास्तविकता से कोई सरोकार हो न हो, लेकिन परदे पर ये काल्पनिक चरित्र अमर जरूर हो गया। 'मुग़ले आज़म' में सम्राट अकबर और जोधा के बीच जहांगीर को लेकर टकराव हुआ था। जबकि, आशुतोष  गोवारिकर की 'जोधा-अकबर' में ये नई प्रेम कहानी में बदल गया। कमाल अमरोही की फिल्म 'रजिया सुलतान' दिल्ली की शासक रज़िया की कहानी थी, जिसे गुलाम याकूत से प्रेम हो जाता है। इसी कहानी पर 60 दशक में निरुपा रॉय और कामरान लेकर फिल्म बनाई गई थी! 'ताजमहल' में मुमताज़ महल और शाहजहाँ की अमर कहानी केंद्र में थी! शाहजहाँ की बेटी 'जहाँआरा' पर भी फिल्म बन चुकी है।
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अब भाषाई सिनेमा का बढ़ता बाजार

 - एकता शर्मा 

  धीरे-धीरे हिंदी फिल्मों का तिलस्म टूटने लगा है। अभी तक हिंदी के अलावा दक्षिण भारतीय भाषा की फिल्मों का बाजार था! लेकिन, अब मराठी, पंजाबी, बांग्ला, भोजपुरी और अन्य भाषाई फिल्मों का नया बाजार बनने लगा है। जिस तरह मराठी, भोजपुरी और पंजाबी फ़िल्में बन रही है और बिजनेस कर रही है, हिंदी फिल्मों के दर्शक घटने लगी। मराठी की सबसे सफल मानी जाने वाली फिल्म 'सैराट' को हिंदी में बनाया जा रहा है। हिंदी में बनी फिल्म ‘एम एस धोनी : द अनटोल्ड स्टोरी‘ को मराठी में डब किया गया। फिल्म के निर्देशक नीरज पांडे का कहना है कि क्षेत्रीय सिनेमा जिस तरह से फलफूल रहा है, ये प्रयोग करना जरुरी हो गया।
  हिंदी सिनेमा की जन्मस्थली कहे जाने वाले मुंबई में मराठी सिनेमा तेजी से अपनी जगह बनाता जा रहा है। इस दौर में ऐसी कई फिल्में आई, जिन्होंने मराठी सिनेमा की पहचान और उसके बारे में सोच बदल दिया। 2013 में आई 'फंड्री' 2014 में 'एलिजाबेथ एकादशी' और 2015 में 'कत्यार कालजात घुसली' के बाद इस साल आई 'सैराट' ने तो सारा माहौल ही बदल दिया। 'सैराट' अब तक की सबसे ज्यादा कमाई वाली मराठी फिल्म साबित हुई है। 4 करोड़ में बनी इस फिल्म ने करीब 100 करोड़ का बिजनेस किया है। बदतर हालत में पहुंच चुके मराठी सिनेमा के लिए ये बेहद संतोष की बात है। कुछ साल पहले तक मराठी फिल्मों का मतलब सिर्फ दादा कोंडके स्टाइल वाली द्विअर्थी फ़िल्में थी। लेकिन, अब मराठी फिल्मकारों को भी समझ आ गया कि दर्शक हर नए प्रयोग के पक्षधर होते हैं। अब इन फिल्मों को पसंद करने वाले मराठी भाषी ही नहीं रहे, इन्हें दूसरी भाषा और प्रांतों के दर्शक भी मिल गए। ये प्रयोग वैसा ही है जैसा हॉलीवुड की फिल्मों का हिंदी या भोजपुरी डब करके प्रदर्शित किया जाना। 'उड़ता पंजाब' भी हिंदी के साथ ही पंजाबी में बनी।
  देश में हिंदी और दक्षिण भारतीय भाषा की फिल्मों की तरह बांग्ला सिनेमा का इतिहास भी बहुत पुराना है। संसाधन की कमी के बावजूद वहां के फिल्मकारों ने अपनी संस्कृति को सिनेमा से जोड़कर पकड़ बनाई है। उन्होंने बांग्ला साहित्य  कहानियां चुनी और कलात्मक और उद्देश्यपूर्ण फिल्में बनाई। ऋत्विक घटक, सत्यजीत राय, मृणाल सेन, तपन सिन्हा से लेकर बुद्धदेव दासगुप्ता, गौतम घोष उत्पलेंदु चक्रवर्ती, अपर्णा सेन ने कई फिल्में बनाकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय सिनेमा पहचान बनाई। आज बांग्ला के बाद मलयालम में ही यथार्थवादी सिनेमा जिंदा है। लेकिन, फिल्मों की बढ़ती लागत नई पीढ़ी की बदलती रूचि ने फार्मूला फिल्मों की मांग बढ़ा दी है। ऐसे में हिंदी और तमिल, तेलगु के अलावा क्षेत्रीय सिनेमा में भी नए प्रयोग शुरू हो गए।
  आज भले ही फिल्मों का मतलब हिंदी सिनेमा समझा जाता हो, पर पिछले साल की सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्म 'बाहुबली' ही थी। ये तेलुगू और तमिल में बनी, फिर उसे हिंदी के अलावा मलयालम तथा फ्रेंच में डब किया गया। तकनीक के साथ संसाधनों की बात जाए तो तमिल-तेलगु के फिल्मकार किसी भी मामले में हिंदी के फिल्मकारों से कम नहीं हैं। हिंदी की फिल्मों की तरह इन फिल्मों की शूटिंग भी विदेशों में होती है। आज टीवी के अधिकांश चैनलों पर दिखने वाली फ़िल्में दक्षिण भारतीय ही हैं।देखा जाए तो क्षेत्रीय सिनेमा जिस तरह से जमीन पकड़ रहा है, ये हिंदी सिनेमा के लिए खतरा है। जब क्षेत्रीय दर्शकों को जो मनोरंजन अपनी भाषा में मिलेगा तो वो हिंदी फिल्मों की तरफ क्यों रुख करेगा? भाषाई फिल्मों का नया बाजार बनने का एक सबूत ये भी है कि प्रियंका चोपड़ा जैसी बड़ी एक्ट्रेस ने अपना प्रोडक्शन हाउस खोलकर पंजाबी फ़िल्में बनाना शुरू की, न कि हिंदी! क्योंकि, कनाडा में बसे भारतीयों में यही फ़िल्में पसंद की जाती हैं। ऐसे में हिंदी के फिल्मकारों की नींद उड़ जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए!
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