Monday 26 March 2018

आज का फिल्म संगीत कालजयी क्यों नहीं?

-एकता शर्मा 
   हिंदी फिल्म संगीत का ये कौनसा दौर है, कोई नहीं जानता! क्योंकि, आजकल की फिल्मों में संगीत को लेकर बहुत घालमेल जैसा माहौल है। कभी किसी फील्म का संगीत दिल में उतर जाता है, तो किसी फिल्म के संगीत से उकताहट सी होने लगती है। अरिजीत सिंह, आतिफ असलम की आवाज और अमित त्रिवेदी के संगीत ने जरूर मैलोडी को जिंदा रखा है, वरना ज्यादातर फिल्मों में कानफोड़ू संगीत ही सुनाई देता है। आश्चर्य की बात है कि बीते कुछ सालों में न तो किसी नए भजन की रचना हुई, न किसी कव्वाली की और न राष्ट्रभक्ति वाले किसी गीत की! याद करने की कोशिश भी की जाए तो शायद याद नहीं आएगा कि एक-दो दशक में कभी ऐसा कोई नया गीत सुनने में आया हो! 
    आजकल ज्यादातर फिल्मों में जो भी गाने लिए जा रहे हैं, वो या तो कहानियों से जुड़े प्रेम में पगे गीत होते हैं या फिर संगीत कंपनियों के पास से रेडीमेड ले लिए जाते हैं। अब तो इससे भी आगे का दौर ये आ गया कि पुरानी फिल्मों के गीतों को नए कलेवर में नए गायकों से गवा लिया जाता है। इसलिए कहा जा सकता है कि फिल्म संगीत का यह दौर बड़ा बेहद निराशाजनक है। स्थापित और सिद्धहस्त संगीतकार और पार्श्व गायक-गायिकाएं सिर्फ टेलीविजन के लाइव शो में जज बनकर बैठे नजर आ रहे हैं। जबकि, कानफोड़ू संगीत वाले संगीतकारों को जमकर काम मिल रहा है। आजकल जो फिल्म संगीत सुनाई दे रहा है उसका सबसे नकारात्मक पक्ष ये है कि उसमे 'मैलोडी' कहीं नहीं है। भारतीय फिल्म संगीत अपने आपमें चिंतन का बहुत बड़ा और विस्तारित विषय है।  इसने संगीत की कई शैलियों को जन्म दिया है। फिल्मों का सुगम संगीत दशकों से प्रचलित है। सुगम संगीत  में फिल्म संगीत है। 
  आज के समय के श्रेष्ठ संगीत की बात की जाए तो जिस संगीतकार ने सुनने वालों के दिलों पर राज किया, वो है एआर रहमान। वो संगीत की ताजी हवा का झोंका बनकर आए और सबके दिलों में बस गए। उन्होंने बहुत कम समय में सफलता का स्वाद चख लिया। एआर रहमान ने अपने करिअर की शुरुआत मणिरत्नम की फिल्म 'रोजा' से की थी। लेकिन, फिर पलटकर नहीं देखा। उन्होंने रंगीला, बॉम्बे,  ताल, लगान, रंग दे बसंती, जोधा अकबर से लेकर 'मॉम' तक में अपनी विविधता का परिचय दिया है। शास्त्रीय संगीत, सूफी संगीत, कर्नाटक संगीत और कव्वाली तक पर उनका पूरा-पूरा अधिकार है। कहा जा सकता है कि वे आज के वक़्त के सबसे वे सफलतम संगीतकार है। लेकिन, उनके जैसा कोई दूसरा क्यों नहीं बन सका? आज भी फिल्म संगीत का यह सफर जारी है। इस दौर का कुछ फिल्म संगीत सुनने लायक तो है, लेकिन कालजयी नहीं! संगीत प्रेमी आज भी 60 और 70 के दशक के संगीतकारों और गायकों के गीत गुनगुनाते हैं। बीते दो दशकों में आई कुछ धुनें कर्णप्रिय तो थीं, लेकिन संगीत को समझने वालों के दिलों में जगह नहीं बना सकीं। 
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अब क्यों नहीं बनती, गाँव पर फ़िल्में?

- एकता शर्मा 

 हिंदी फिल्मों में 'राजश्री' प्रोडक्शन को इसलिए याद किया जाता था कि बरसों तक उनकी फिल्मों में ग्रामीण जीवन सौंधी महक होती थी। गाँव की जिंदगी और वहाँ की लोकजीवन से सजी परंपराओं पर फ़िल्में बनाने के लिए पहचाने जाने वाला ये प्रोडक्शन हाउस भी अब बड़े परिवारों की कहानियों पर फ़िल्में बनाने लगा है! नदिया के पार, बालिका वधु और गीत गाता चल जैसी फ़िल्में बनाने वाली ये कंपनी भी गाँवों से शहर पहुँच गई! क्योंकि, सारा मामला व्यावसायिक है। ये किसी एक फिल्म प्रोडक्शन हाउस की बात  नहीं है। अधिकांश फिल्म बनाने वालों ने गाँव को भुला ही दिया। 
   1957 में आई 'मदर इंडिया' को वास्तविक ग्रामीण जीवन का आईना दिखाने वाली फिल्म कहा जाता है। निर्देशक महबूब खाँ की इस फिल्म को वास्तव में 'दो बीघा जमीन' का विस्तार कहा जाता है। साहूकार के शोषण से पिसते किसान परिवार की वेदना को जिस संवेदनशीलता से उन्होंने परदे पर चित्रित किया, उससे किसान की दमित आवाज़ जन-जन तक पहुँची। इस फिल्म में लोकधुनों पर आधारित गीत थे, जिन्हें आज भी लोग गुनगुनाते हैं। लेकिन, अब ऐसी फ़िल्में बनाने का साहस कौन करेगा?
   बीते कुछ सालों में ऐसी कोई फिल्म नहीं आई, जिसमें गाँव नजर आया हो? आमिर खान की फिल्म 'लगान' के बाद तो शायद ऐसी कोई फिल्म आई भी नहीं, जिसकी कहानी गाँव पर केंद्रित हो! 'पीपली लाइव' जरूर आई, पर उसमें किसानों के लिए बनी योजनाओं को बाबुओं और अफसरों द्वारा हड़पने का जिक्र ज्यादा था! 1980 में गोविन्द निहलानी ने गाँव पर केंद्रित फिल्म 'आक्रोश' आई थी। यह फिल्म एक लोमहर्षक सच्ची घटना पर बनी थी। कहानी लहनिया भीकू नाम के एक किसान की है, जो ज़मींदार के अत्याचारों से त्रस्त होता है। इसी दौर में डाकुओं पर भी फ़िल्में बनी उनमें भी गाँव था, अत्याचार था और डाकू बनने की एक संवेदनशील कहानी थी! 
  सर्वाधिक सफल फिल्म मानी जाने वाली रमेश सिप्पी की 'शोले' में रामगढ़ नाम के गाँव की ही कहानी थी! लेकिन, वास्तव में इस फिल्म से भी गाँव नदारद था। जो गाँव था वो डाकू गब्बर सिंह और बदले पर उतारू ठाकुर साहब के बीच कहीं गुम था। यहाँ तक कि फिल्म के गीतों में भी गाँव नहीं झलका! फिल्म में कोई लोकधुन सुनाई नहीं दी! गब्बर सिंह भी अपने अड्डे पर अरबी धुन वाला 'महबूबा ओ महबूबा' गाना सुनता है। इससे पहले जो फ़िल्में गाँव के जीवन पर बनी, उनमें एक अलग सी महक होती थी! गाँव हमारा-शहर तुम्हारा, दो बीघा जमीन, आक्रोश को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। 
    आज की कहानियों में तो काल्पनिक प्रेम और मौज मस्ती ही ज्यादा होती है। जबकि, सिनेमा का मकसद सिर्फ मनोरंजन नहीं है। सिनेमा समाज का आईना भी है। दर्शकों को सामाजिक समस्याओं और उनके निवारण की राह भी दिखाई जाना चाहिए। हमारे देश की 60 फीसदी आबादी गाँवों में रहती है। ऐसे में परदे पर गाँव का प्रतिनिधित्व घटता जा रहा है! शायद इसका एक कारण ये भी है कि हमारे गाँव भी अब बदलने लगे! वहाँ भी शहरी जीवन की चमक दिखाई देने लगी! जब हमारे गाँव ही नहीं रहेंगे, तो वहाँ की कहानियों पर फिल्म बनाने का साहस भला कौन करेगा? 
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अजीबो-गरीब दावे से परेशान होते सितारे!

- एकता शर्मा
   बॉलीवुड के किस्से भी अजीब हैं। यहाँ की हर घटना किसी फ़िल्मी कथानक सी लगती है। बाकी की घटनाएं तो छोड़िए, खुद को किसी फ़िल्मी सितारे का बेटा या बेटी बताने में भी लोग संकोच नहीं करते! चाहे साबित कुछ हो न हो, पर इस बहाने जो पब्लिसिटी मिलती है, उसकी कीमत नहीं आँकी जा सकती। कुछ दिन पहले ऐश्‍वर्या राय बच्‍चन एक ऐसे शख्‍स की वजह से सुर्खियों में हैं, जिसने खुद को उनका बेटा बताया। आंध्रप्रदेश के रहने वाले 29 वर्षीय संगीथ कुमार ने दावा किया था कि साल 1988 में ऐश्‍वर्या ने उन्‍हें आईवीएफ के जरिए लंदन में जन्‍म दिया था। मीडिया की खबरों में कहा गया था कि संगीथ कुमार नाम के इस शख्स पर पुलिस कार्रवाई करने की तैयारी हुई थी। पुलिस का कहना है कि अगर इस मामले में ऐश्वर्या बच्चन की तरफ से उनकी छवि खराब करने की शिकायत दर्ज की जाती है तो संगीथ कुमार पर कार्रवाई भी की जाएगी। 
    यह पहली बार नहीं है जब इस तरह का मामला सामने आया हो! इससे पहले अभिनेता अभिषेक बच्चन, शाहरुख खान से लेकर शाहिद कपूर तक के साथ इस तरह की घटना हो चुकी है। रवीना टंडन को भी एक सिरफिरे फैन के दावे ने मुश्किल में डाल दिया था। 2014 में इस फैन ने दावा किया था कि वो रवीना टंडन का पति है। इसने रवीना के पति अनिल थडानी की कार पर हमला भी कर दिया था। इतना ही नहीं इस फैन ने के घर पर पत्‍थर भी फैंका था। इसकी हरकतों से तंग आकर रवीना और अनिल ने पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराई थी। जब पुलिस ने उस व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई की, तो उसने कहा कि वो सिर्फ रवीना को प्रोटेक्‍ट करने की कोशिश कर रहा था। 
   जाह्नवी कपूर नाम की एक मॉडल ने साल 2007 में यह कहकर हंगामा मचा दिया था कि वो अभिषेक बच्चन की पत्नी है! उस मॉडल ने अभिषेक बच्चन के बंगले के बाहर अपने हाथ की नस तक काट ली थी। उस वक्त अभिषेक बच्चन, ऐश्वर्या राय के साथ शादी के बंधन में बंधने जा रहे थे। जाह्नवी नाम की इस मॉडल का कहना था कि वो अभिषेक और ऐश्वर्या की शादी होते हुए नहीं देख सकती। बाद में इस मॉडल को गिरफ्तार कर लिया गया था। 
  ऐसा ही किस्सा अभिनेता शाहिद कपूर के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। शाहिद कपूर के पीछे दिवंगत अभिनेता राजकुमार की बेटी वास्तविकता पंडित पड़ गई थी। ख़बरों की मानें तो वास्तविकता खुद को शाहिद कपूर की पत्नी बताती थीं और जहां भी शाहिद जाते, उनका पीछा करती। बाद में थक-हारकर शाहिद को वास्तविकता के खिलाफ शिकायत दर्ज करानी पड़ी। हालांकि, आज वास्तविकता कहाँ है, इसकी किसी को कोई खबर नहीं! शाहरुख खान भी ऐसी परेशानी का सामना कर चुके हैं। 1996 में लातूर (महाराष्‍ट्र) की एक महिला ने कोर्ट जाकर शाहरुख खान को अपना बेटा बताया था। उन्‍होंने दावा किया था कि 1960 में उन्होंने शाहरुख को खो दिया था। महिला ने दावा किया कि उन्‍होंने शाहरुख को फिल्‍म के पोस्‍टर में देखकर पहचाना! अदालत ने महिला के इस दावे को खारिज कर दिया था। 
  साउथ फिल्म इंडस्ट्री के सुपरस्टार और अभिनेता रजनीकांत के दामाद धनुष भी एक ऐसे ही मामले को लेकर परेशानी में पड़ चुके हैं। पिछले साल एक बुजुर्ग दंपति ने दावा किया था कि वो उनके बेटे हैं, जो बचपन में घर छोड़कर चला गया था. यह मामला हाईकोर्ट तक पहुंच गया था। यहाँ तक कि धनुष के डीएनए टेस्ट की नौबत आ गई थी। हालांकि, तमाम जांच व टेस्ट के बाद बुजुर्ग दंपति का दावा झूठा साबित हुआ। 
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Wednesday 7 March 2018

औरतों को लेकर कानून में अभी भी ढेर सारी खामियाँ!


महिला दिवस पर विशेष

- एकता शर्मा 

   हर सरकार महिलाओं की बराबरी, शिक्षा, सुरक्षा, रोज़गार आदि को लेकर मौखिक प्रतिबद्धताएं जताती है। लेकिन, अगर देश के कानूनों में इस प्रतिबद्धता को ढूंढा जाए तो कह पाना मुश्किल है कि असहनशीलता औरतों के दमन को लेकर है या खुद औरतों की तरफ़! जैसे कि गोआ के हिन्दुओं के लिए बनाए गए एक कानून के तहत अगर महिला 25 साल की उम्र तक माँ नहीं बनती या 30 की आयु तक उसे कोई पुत्र नहीं होता, तो उसके पति की दूसरी शादी कानूनी रूप से वैध मानी जाती है। अगर पहली पत्नी की तरफ से अलगाव की पहल की गई और अगर उसका कोई पुत्र नहीं, तो पुरुष के दूसरे विवाह को ही मान्यता दी जाती है।  
   महिला व बाल अधिकारों पर काम करनेवाली वकील कीर्ति सिंह द्वारा लिखी और अगस्त 2013 में प्रकाशित संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में इस तरह के कई अन्य कानूनों का भी जिक्र है। ये कानून औरतों के अधिकार के खिलाफ़ हैं या उनकी राह में लिए मुश्किल खडी करके बेटियों की तुलना में बेटों को बढावा देते हैं। ऐसे ही अन्य कानूनी खामियों को यहाँ प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है : 

यौनिक हिंसा के खिलाफ़ कानून 
  कानून के एक हिस्से में 'दुर्भावनापूर्ण उद्देश्य से की गई शिकायत' के लिए महिला को सज़ा का हकदार ठहराने की बात की गई है। यह बाकी पूरे कानून को कमज़ोर बनाता है। इससे महिलाएँ शिकायत करने में और भी असुरक्षित महसूस करती हैं। असंगठित श्रम में जुटी औरतों के लिए भी इसमें कोई प्रावधान नहीं। 
वैवाहिक संपत्ति पर अधिकार  
  तलाक के बाद महिला का ऐसी संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं है, जो उसके विवाहित काल के दौरान पति के नाम पर खरीदी गई हो। अपने पति से निर्वाह के लिए मिलने वाले जिन पैसों पर उसका हक है, उसे हाँसिल करने के लिए और लम्बे मुकदमों में उलझना पड़ता है, जिनमें आनेवाले खर्चों को वहन करना आसान नहीं। 2013 में महिलाओं पर किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि विवाह विच्छेद के बाद 71.4 फीसदी महिलाएँ अपने माता-पिता के घर लौट जाती हैं। जिनके बच्चे होते हैं उनमें से 85.6 फीसदी अपने बच्चों को भी पाल रही होती हैं। केवल 18.5 फीसदी महिलाएं ही खुद तलाक की माँग करती हैं। विलग और तलाकशुदा औरतों के साथ काम करती संस्थाएँ कहती आई हैं कि आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा के कारण भारत में बहुत कम ही औरतें तलाक लेने के लिए सामने आती हैं। 
विवाह और यौनिक हिंसा 
  बलात्कार संबंधी कानून में हिंसा की सीमित परिभाषाओं और उसकी दूसरी कमियाँ चर्चा का एक बड़ा विषय है। जहाँ शादीशुदा होने पर बलात्कार (पत्नी की मर्जी के विरुद्ध पति द्वारा) का मुद्दा है, तो उसके लिए कोई सक्षम कानून नहीं है। वहीं अलग हुई पत्नी का बलात्कार करने पर केवल 2 से 7 साल तक की सज़ा का ही प्रावधान है, जो बलात्कार के अधिकतम दंड से भी कम है। 
दहेज विरोधी कानून 
   अभी तक के आंकड़ों का औसत है कि हर 5 मिनट में पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा महिला से क्रूरता की जाती है। प्रति 61 मिनट में देश में किसी महिला की दहेज मामले में मृत्यु होती है और प्रत्येक 79 मिनट में दहेज निषेध कानून के तहत मामला दर्ज किया जाता था। इस कानून को इस तरह से परिभाषित किया गया है, जिससे लगता है कि लड़के वाले भी उसी तरीके से दहेज देने के लिए मजबूर और प्रताडित किए जा सकते हैं। यह स्थिति की सच्ची तस्वीर बिल्कुल नहीं। दहेज को उस धन-संपत्ति की तरह देखा गया है जिसे विवाह के सिलसिले में लिया-दिया गया हो। पर शादी के बाद के उन सभी मौकों को नज़रंदाज़ किया गया है जब लड़की के घरवालों से कई तरह की माँगें की जाती हैं। इस रिपोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि दहेज न तो महिलाओं के उत्तराधिकार हक की जगह ले सकता है और न ऐसी स्थिति वांछनीय है। दहेज केवल औरतों की आर्थिक और सामाजिक हैसियत को गौण बनाता है। 
उत्तराधिकार संबंधी कानून 
  हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत पति की मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति पर पत्नी का अधिकार बनता है। जबकि, औरतों के लिए यह अलग है। यदि उसे संपत्ति माँ या पिता से मिली है, तो उस पर हक बनता है पिता के उत्तराधिकारियों का। पति या ससुर से प्राप्त किए जाने पर पति के वारिस उस सम्पत्ति पर अपना हक समझ सकते हैं। यदि औरत की सम्पत्ति उसकी खुद की बनाई हुई है, तो उसकी मृत्यु के बाद उस पर पहला हक बनता है उसके पति और बच्चों का। इन दोनों के न होने पर ही सम्पत्ति उसकी माँ या उसके पिता के हिस्से जा सकती है।
  मुस्लिम व्यक्तिगत विधि के हिसाब से औरत को मर्द को मिलनेवाली सम्पत्ति का आधा हिस्सा मिलता है। यानि अगर बेटा और बेटी दोनों मौजूद हैं, तो बेटी को एक और बेटे को सम्पत्ति के दो हिस्से मिलते हैं। ईसाई धर्म में जन्मे जो लोग उसके परंपरागत कानूनों के तहत नहीं आते उन पर भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम लागू होता है। अगर किसी गैर-पारसी महिला ने किसी पारसी पुरुष से शादी की, तो उस पुरुष की सम्पत्ति पर पत्नी का कोई हक नहीं बनता, जबकि बच्चों को हकदार माना जाता है। पारसी महिला के गैर-पारसी पुरुष से विवाह करने पर बच्चों को पारसी नहीं माना जाता। 
लिंग जाँच निषेध कानून 
  देश में लड़कियों के जन्म का औसत लड़कों के मुकाबले लगातार घट रहा है। सख्त कानून होने के बावजूद अभी इसमें ऐसा कोई विधान नहीं जिससे एक गर्भवती महिला के नियमित परीक्षण के दौरान हो रहे अल्ट्रासाउंड के ज़रिए करवाये जा रहे लिंग जाँच को रोका जा सके। भारतीय दंड संहिता में 'गर्भपात' की सज़ा से जुड़ी कुछ धाराएं हैं, जैसे यदि कोई महिला 'स्वयं अपने गर्भ समापन के लिए ज़िम्मेदार हो', तो उसे दोषी माना जा सकता है। इसके अलावा जनसंख्या नियन्त्रण के तहत केवल दो बच्चे होने पर सरकार ने जो फायदे देने शुरु किए उसका असर भी लड़कियों की भ्रूण हत्या पर पड़ा। दो बच्चे रखने की स्थिति में लोगों ने लड़कियों की जगह लड़कों को और वरीयता देनी शुरु कर दी। 
बाल विवाह प्रतिबंध 
  बाल विवाह पर रोक होने के बाद भी कानून ने इसे अवैध नहीं ठहराया है। विवाह के लिए लड़की की आयु 18 और लड़के की उम्र 21 रखी गई है। इस अंतर को न तो कानून में समझाया गया है, और न इस फर्क की ज़रुरत थी। शादी के वक्त लड़की का 18 साल का होना ज़रुरी है। फिर भी कानूनी तौर पर 'शादी' के अन्दर अगर यौनिक संबन्ध बनाए गए हैं और लड़की कम से कम 15 साल की है, तो उसे बलात्कार नहीं माना जाएगा। 
बच्चों के संरक्षण का हक 
  संविधान संशोधन के बाद हिंदू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम के तहत शादीशुदा महिलाओं को गोद लेने का बराबर हक है। लेकिन, यह सभी धर्म-समुदाय के लिए नहीं है। पर, वे आज भी अपने बच्चों की बराबर संरक्षक की हकदार नहीं हैं। प्राकृतिक अभिभावक आज भी पिता ही है। 
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औरत के लिए बने कानून से औरत का ही शिकार!

   

  'दहेज़ उत्पीड़न कानून' ससुराल में बहू की रक्षा के लिए बनाया गया था, लेकिन वह बहू को बचाते-बचाते परिवार की अन्य औरतों को सताने लगा। दरअसल, ये न्याय की एकपक्षीय अवधारणा है। इसके तहत अंतर्गत औरत को सिर्फ बहू या पत्नी माना गया था। ये नहीं देखा गया कि वह सास, ननद, जेठानी और देवरानी भी है वे भी औरतें हैं। इस कानून से प्रचारित भी किया गया कि ये सभी औरतें सिर्फ बहुओं को सताने के लिए हैं। बहुएं भी किसी को सता सकती हैं, इसे बिल्कुल भुला दिया गया। जिसने भी इस बात को कभी उठाने की कोशिश की, उसे महिला विरोधी कहा जाने लगा। 
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- एकता शर्मा 
  सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिन पहले अपने एक फैसले में कहा था कि दहेज उत्पीड़न के मामले में ससुराल पक्ष के लोगों की गिरफ्तारी तभी की जाए, जब ऐसा करना बहुत ज्यादा जरूरी हो। जबकि, पहले ससुराल पक्ष के लोगों को शिकायत के तत्काल बाद गिरफ्तार कर लिया जाता था। 'राष्ट्रीय महिला आयोग' ने इस फैसले के खिलाफ सुधारात्मक याचिका दायर की थी। देशभर के महिला संगठनों ने भी इस फैसले का विरोध किया था। मगर कोर्ट ने अपने पहले के फैसले में किसी भी तरह का बदलाव करने से इंकार कर दिया। महिला आयोग की याचिका भी खारिज कर दी गई। दरअसल, इस कानून से औरत का ही शिकार ज्यादा होने लगा था। लगने लगा था कि सास, ननंद और जेठानी जैसे रिश्ते सिर्फ बहू पर जुल्म करने के लिए ही बने हैं।  
  दहेज उत्पीड़न विरोधी धारा 498-ए ऐसी है, जिसका नाम सुनते ही लोग दहशत में आ जाते हैं। सालों पहले सुप्रीम कोर्ट इस धारा को 'लीगल टेररिज्म' यानी 'कानूनी आतंकवाद' तक कह चुका है। क्योंकि, इस कानून के तहत बहू और उसके घर वाले जिसका नाम ले लें, उसे पकड़ लिया जाता! कई मामलों में तो ससुराल पक्ष को झूठे ही फंसाने के लिए भी ऐसे मामले गढ़े गए थे। यह भी देखने में आया कि वर पक्ष के पूरे कुनबे के नाम लिखवा दिए गए। जो लोग विदेश में रहते थे और जिनका इस मामले से कोई वास्ता नहीं था, उन्हें भी आरोपी बना दिया गया। क्योंकि, अभी तक शायद ही कोई ऐसा अध्ययन हुआ हो, जिससे पता चल सके कि दहेज उत्पीड़न कानून के जरिए वास्तव में सताई गई कितनी औरतों को न्याय मिला और कितनी निरपराध फंसाई गईं! 
 इस धारा के दुरूपयोग के बारे में 'सेव इंडियन फैमिली' नामक संस्था ने एक बार कहा था कि इस धारा में हर 21 मिनट में एक औरत गिरफ्तार हो रही है। अजीब बात ये थी कि जिस कानून को औरतों की रक्षा के लिए बनाया गया था, वही औरतों को सताने लगा। न्याय की एकपक्षीय अवधारणा अकसर ऐसा ही करती है। इस कानून के अंतर्गत औरत सिर्फ बहू थी या पत्नी! मां, बहन, चाची, ताई , बुआ, सास, ननद, जिठानी, देवरानी आदि औरतें नहीं थीं। मान लिया गया और लगातार प्रचारित भी किया गया कि ये सबकी सब औरतें सिर्फ बहुओं को सताने के लिए बनी हैं। बहुएं भी किसी को सता सकती हैं, इसे बिल्कुल भुला दिया गया। जिसने भी इस बात को कभी उठाने की कोशिश की, उसे महिला विरोधी होने का तमगा सौंप दिया गया।
 कुछ साल पहले ये जानकारी भी सामने आई थी कि बहुत से गांव ऐसे हैं, जो बाकायदा 'दहेज उत्पीड़न कानून' के नाम पर ब्लैकमेलिंग करते हैं। वहां ऐसे बहुत से संगठित गिरोह बन गए हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट देखें, तो कहा जा सकता है कि दहेज उत्पीड़न के मामले बढ़े हैं। मगर ब्यूरो थाने में की गई शिकायतों के आधार पर यह निष्कर्ष निकालता है। वह कभी उन बातों और खबरों पर ध्यान नहीं दे पाता, जिनमें कहा जाता है कि इन दिनों इस कानून के तहत की जाने वाली अधिकांश शिकायतें या तो झूठी होती हैं या बदला लेने के लिए की गई होती हैं। यह दुखद ही है कि एक कानून महिलाओं के भले के लिए बनाया गया था। मगर उसके दुरुपयोग के कारण आज उसे कमजोर किया जा रहा है। पक्ष दोनों ही मजबूत हैं। इस कानून को ढीला कर देने से दहेज़ के लिए बहू को पीड़ित करने वाले बेख़ौफ़ होंगे! उधर, ऐसे लोगों को राहत भी मिली है जो निरपराध होते हुए भी बेवजह इस कानून में फंसा दिए गए थे।  
  देश में जब 'दहेज उत्पीड़न कानून' बना था, उस समय सोचा गया था कि इससे हमारे समाज में फैला दहेज़ उत्पीड़न का रोग दूर होगा। लड़कियों और उनके माता-पिता को राहत की सांस मिलेगी। मगर ऐसा हुआ नहीं! एक तरफ शादी अपनी हैसियत दिखाने की चीज बनी और दहेज में दी जाने वाली चीजें स्टेट्स सिम्बल बनती चली गईं। दूसरी तरफ वे गरीब माता-पिता थे, जो लड़की को जैसे-तैसे पालते, पढ़ाते थे, लेकिन दहेज नहीं दे सकते थे, उनकी विपत्तियां कम नहीं हुईं। क्योंकि कानून भी उसे न्याय दे पाता है, जिसके पास उसका लाभ उठाने के संसाधन होते हैं। लेकिन, कुछ चालाक लोग, जिन्हें 498-ए की जानकारी थी, वे इसे एक तरह से लड़के वालों को सताने और उनसे वसूली करने का साधन समझने लगे। 
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Monday 5 March 2018

श्रीदेवी से पहले और भी कई मौतों पर परदा पड़ा!

- एकता शर्मा
 
श्रीदेवी की मौत पर 5 दिन जमकर मीडिया ट्रायल चला! इस मौत एंगल को मीडिया अपने-अपने तरीके समझा और दर्शकों को समझाया। लेकिन, फिर  श्रीदेवी की मौत हमेशा ही एक अबूझ पहेली बनकर रहेगी। संयुक्त अरब अमीरात सरकार ने भले ही श्रीदेवी की मौत को हादसा मानकर फाइल बंद कर दी हो, पर इस खूबसूरत और बेहतरीन सवालों की मौत पर सवालों की फाइल कभी बंद होगी। वे बॉथटब कैसे डूबी, उस वक़्त श्रीदेवी की दिमागी हालत क्या थी, क्या उन्होंने शराब पी राखी थी? ये और ऐसे सैकड़ों सवाल श्रीदेवी के चाहने वालों के दिमाग में कौंधते रहेंगे!
    फिल्म इंडस्ट्री में इस तरह का ये पहला हादसा नहीं हैं। पहले भी कई एक्ट्रेस की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हुई है, जिन पर से आजतक परदा नहीं उठा। शायद कभी उठेगा भी नहीं! क्योंकि, हाई-प्रोफाइल सोसायटी सिर्फ रहन-सहन में ही हाई-प्रोफाइल होती, उनकी ख़बरें भी सेंसर्ड होकर बाहर आती है।
श्रीदेवी से पहले बॉलीवुड में किस-किस एक्ट्रेस की मौत पहेली बनकर रह गई, इस पर एक नजर :     
     
- सिल्क स्मिता : साऊथ की फ़िल्म इंडस्ट्री की कलाकार सिल्क स्मिता ने 1996 में आत्महत्या कर ली थी! उन्होंने कई पारिवारिक दिक्कतों को झेलते हुए फिल्मों में अपनी जगह बनाई! लेकिन, जब परेशानियों ने वहां भी पीछा नहीं छोड़ा तो इस अभिनेत्री ने आत्महत्या कर ली! इस एक्ट्रेस के जीवन पर एक फिल्म भी बनी, जो बेहद सफल रही थी!

- परवीन बॉबी : अमिताभ बच्चन के साथ कई फिल्मों में जोड़ी बनाने वाली इस अभिनेत्री ने सफलता का शिखर छुआ था! लेकिन, वहां से उतरना उसे गवारा नहीं हुआ! बाद में संदिग्ध हालातों में उनकी मृत्यु गई। उनके बारे में लम्बे समय तक कई तरह की अफवाहें चलती रही। लेकिन, ये भी सच है कि जीवन के अंतिम दिनों में वे मानसिक रूप से अस्थिर हो गई थी! उनकी लाश उनके अपार्टमेंट से दो-तीन दिन बाद निकाली गई।
- दिव्या भारती  : मशहूर अभिनेत्री दिव्या भारती की मात्र 19 साल की उम्र में मृत्यु हो गई थी! हालांकि, आत्महत्या, हत्या या महज हादसे को लेकर कोई तस्वीर साफ़ नहीं हुई! मरने से एक साल पूर्व उन्होंने साजिद नाडियावाला से शादी की थी। मुंबई के वर्सोवा इलाके के तुलसी अपार्टमेंट के पांचवे फ्लोर से गिर जाने के कारण दिव्या की मृत्यु हुई थी। दिव्या भारती ने अपने अभिनय की शुरुआत तेलुगु फिल्म 'बोब्बिली राजा' से सन् 1990 में की। उनका हिंदी फिल्मों में सफलता 'विश्वात्मा' से मिली। इसी फिल्म के 'सात समुन्दर पार गाने' से उन्हें एक अलग पहचान मिली। सन् 1992 तक भारती स्वयं को बॉलीवुड में स्थापित कर लिया था। फिल्म 'दीवाना' में दिव्या भारती को फिल्म फेयर के सर्वश्रेष्ठ नवोदित अभिनेत्री के पुरस्कार से नवाजा गया।1992-1993 के मध्य तक भारती ने मात्र 19 वर्ष की आयु में 14 हिंदी और 7 साउथ की फिल्में की। अपने कम समय के करियर के दौरान मुख्यधारा के सिनेमा के अलावा भारती ने एक शक्तिशाली अभिनय की उत्पत्ति की। 

- जिया ख़ान : नि:शब्द, गजनी और हाउसफुल में काम कर चुकी जिया ख़ान ने 2013 को अपने घर पर पंखे से लटककर आत्महत्या कर ली। 25 साल की ये अदाकारा मरने के पीछे कई सवाल छोड़ कर गई है जिसके जवाब आज भी नहीं मिले हैं। उन्होंने प्रेम में असफल होने पर मौत को गले लगाया या काम न मिलने से वे डिप्रेशन में थी! ये बात स्पष्ट नहीं हो सकी!
- विवेका बाबाजी : मॉडल विवेका बाबाजी ने 2010 को 37 साल की उम्र में आत्महत्या कर ली। वे 'कामसूत्र' के विज्ञापन में काम करने के बाद चर्चा में आई थी! इसके अलावा 1993 में उन्होंने मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता में भी भाग लिया था और मिस मॉरीशस भी रह चुकी हैं। माना जाता है कि निजी ज़िंदगी में चल रहे उतार-चढ़ाव के कारण विवेका ने अपनी जान दी थी!

नफीसा जोसफ़ :  नफीसा एमटीवी चैनल में वीडियो जॉकी भी थीं। वे मॉडल होने के साथ 1997 में मिस इंडिया यूनिवर्स की विजेता भी रही थी। जोसफ़ ने 2004 को अपने फ्लैट पर फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली थी। जोसफ़ के माता-पिता का कहना है कि शादी टूटने के बाद उसने ऐसा कदम उठाया! जबकि, ये भी कहा जाता था कि वे बेकार थी और काम मिलने के कोई आसार भी नजर नहीं आ रहे थे।
- वर्षा भोंसले :  गायिका आशा भौंसले की बेटी वर्षा अपने वैवाहिक संबंधों को लेकर निराश थी! वर्षा ने 2012 में खुद को गोली मार ली थी। वर्षा भोजपुरी और हिंदी में प्लेबैक गायिका भी थीं। वर्षा 2008 में भी ख़ुदकुशी करने की कोशिश कर चुकी थीं। 
  इसके अलावा 'कोहिनूर' और 'हिप हिप हुर्रे' समेत कुछ धारावाहिकों में छोटे-मोटे रोल करने वाली कुलजीत रंधावा ने 2006 में आत्महत्या कर ली और सुसाइड नोट में इसका कारण मानसिक दबाव बताया। अभिनेत्री शिखा जोशी अपने घर में मृत पाई गई थी। उन्होंने फ़िल्म 'बीए पास' में छोटा सा रोल किया था। हालांकि, उनकी मौत से रहस्य का पर्दा नहीं उठा है। बंगाली फिल्मों की अभिनेत्री दिशा गांगुली ने अपने ही घर में आत्महत्या कर ली थी। उनके आवास का दरवाजा तोड़कर उनके झूलते हुए शव को बरामद किया  गया था।
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