Monday 19 August 2019

खय्याम के साथ संगीत के स्वर्ण युग के अंतिम कड़ी टूटी!


- एकता शर्मा 

  संगीतकार ख़य्याम के साथ एक युग का अंत हो गया! हिंदी फिल्मों के जिस दौर को संगीत का गोल्डन युग कहा जाता है, उस दौर की वे अंतिम कड़ी थे। खय्याम के साथ ये कड़ी भी टूट गई! लेकिन, फिर भी हिंदी फिल्म संगीत को जिन संगीतकारों के नाम से जाना जाएगा, उनमें एक खय्याम भी होंगे! ख़य्याम ने दूसरों के मुकाबले बहुत कम संगीत दिया, पर जितना दिया है उसमें ज्यादातर फ़िल्में मील का पत्थर बनीं! किसी भी फिल्म या गीत के साथ कोई समझौता नहीं किया! कभी किसी की नक़ल नहीं की और न ट्रेंड के साथ बहे! 
  उनका नाम कुछ अटपटा सा था! इसके पीछे भी एक कारण रहा। एक बार एक इंटरव्यू में ज़िया सरहदी ने उनसे पूछा कि आपका पूरा नाम क्या है, इस पर खय्याम ने उन्हें बताया 'मोहम्मद ज़हूर ख़य्याम!' इस पर उन्होंने कहा कि अरे तुम 'ख़य्याम' नाम क्यों नहीं रखते! उस दिन से उनका नाम ख़य्याम हो गया! ये वही जिया सरहदी थे, जिनकी फिल्म 'फुटपाथ' (1952) में खय्याम ने संगीत दिया था। 1947 में जब उन्होंने अपना संगीत करियर शुरू किया था, तब उन्होंने करीब 5 साल 'शर्माजी' के नाम से संगीत दिया! वे रहमान के साथ जोड़ी बनाकर संगीत देते थे! आजादी के बाद संगीतकार रहमान पाकिस्तान चले गए तो उन्होंने मोहम्मद ज़हूर ख़य्याम नाम से संगीत दिया। 
   खय्याम को भी उस दौर के नौजवानों की तरह एक्टिंग का शौक था! वे केएल सहगल की तरह गायक और एक्टर बनना चाहते थे! इसी धुन में वे दिल्ली से अपने चाचा के पास मुंबई आ गए थे। घर में सभी नाराज़ हुए। परिवार वाले एक्टिंग के लिए तो तैयार नहीं हुए, पर ये मान गए कि वे मशहूर पं हुस्नलाल-भगतराम से संगीत की शिक्षा लेंगे! 1947 में खय्याम को पहली बार 'हीर रांझा' फिल्म में संगीत देने का मौका मिला। 1950 में मोहम्मद रफ़ी के फ़िल्म 'बीवी' के गाने 'अकेले में वो घबराते तो होंगे' से उनकी पहचान बनी! इसके बाद उन्होंने 'रोमियो जूलियट' जैसी फ़िल्मों में संगीत तो दिया ही था और गाना भी गाया! इसके बाद ख़य्याम का नाम चल पड़ा। 1953 में आई 'फ़ुटपाथ' से ये सिलसिला चल निकला। कभी-कभी, बाज़ार, उमराव जान, रज़िया सुल्तान जैसी फ़िल्मों में संगीत दिया।
   राजकपूर के साथ उन्होंने 'फिर सुबह होगी' फिल्म का संगीत दिया। इस फिल्म के मिलने की एक बड़ी वजह ये थी कि खय्याम ने उस उपन्यास 'क्राइम एंड पनिशमेंट' को पढ़ा थी, इसी पर वो फ़िल्म बनी थी। 1958 में 'फिर सुबह होगी' में मुकेश के साथ उनका गीत 'वो सुबह कभी तो आएगी' आज भी कानों में रस घोलता है। 1961 में 'शोला और शबनम' में रफ़ी के साथ 'जाने क्या ढूँढती रहती हैं ये आँखें मुझमें' गीत की रचना की तो 1966 की फ़िल्म 'आख़िरी ख़त' में लता के साथ 'बहारों मेरा जीवन भी सवारो' का संगीत बनाया! ये वो चंद गीत हैं, जो हिंदी फिल्म संगीत की विरासत हैं और ये खय्याम के नाम पर दर्ज है। 
   ख़य्याम ने 70 और 80 के दशक में कई बड़ी फिल्मों के लिए संगीत दिया। कभी-कभी, त्रिशूल, ख़ानदान, नूरी, थोड़ी सी बेवफ़ाई, दर्द, आहिस्ता आहिस्ता, दिल-ए-नादान, बाज़ार, रज़िया सुल्तान जैसी फ़िल्मों में एक से बढ़कर एक गाने दिए। ये उनके संगीत करियर का सुनहरा दौर था। ख़य्याम भले ही संगीत प्रेमियों से जुदा हो गए हों लेकिन बहुत सारे संगीत प्रेमियों के लिए वाक़ई उनसे बेहतर कहने वाला कोई नहीं होगा।1976 में 'कभी कभी' से खय्याम ने अपने करियर की नई पारी शुरू की थी। गायिका जगजीत कौर उनकी पत्नी थीं। कुछ साल पहले ख़्य्याम साहब और जगजीत कौर जी ने अपनी पूरी संपत्ति करीब दस करोड़ रुपए संघर्षरत कलाकारों के नाम दान कर दी थी। 
  आज बॉलीवुड की ज्यादातर फिल्मों में पंजाबी गाने होते हैं! इसकी शुरुआत का श्रेय भी ख़य्याम को जाता है! ‘कभी-कभी’ पंजाबी पृष्ठभूमि में बनी प्रेम त्रिकोण वाली फ़िल्म थी, जिसमें खय्याम ने संगीत दिया था। पंजाब की ढोलक की टाप, टप्पे, गिद्द्दा और भांगड़ा इस फिल्म के संगीत की खासियत थी। इस फ़िल्म का हर गाना हिट हुआ। इस फिल्म के गीत ‘कभी-कभी मेरे दिल में’ के लिए तो मुकेश को मरणोपरांत फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मिला था। ये वो फिल्म थी जिसने तीन दशक से संघर्ष कर रहे ख़य्याम को संगीतकारों के शिखर पर खड़ा कर दिया था। 1981 को उनके जीवन का श्रेष्ठ समय कहा जा सकता है, जब 'उमराव जान' रिलीज़ हुई थी। इस फिल्म के गानों ने उन्हें कालजयी बना दिया। शहरयार की ग़ज़लें, आशा भौंसले की आवाज और रेखा की एक्टिंग ने इस फिल्म के संगीत ने जादू किया था। खय्याम ने आशा भोंसले की आवाज़ को नया आयाम दिया। इसके बाद ‘बाज़ार’ में मीर तकी मीर की ग़ज़ल ‘दिखाई दिए यूं के बेख़ुद किया’ भी यादगार गीत रहा! 

खय्याम के संगीतबद्ध किए कुछ यादगार नगमे :
1. शाम-ए-ग़म की कसम (फ़िल्म- फ़ुटपाथ – 1953)
2. फिर ना कीजे मेरी गुस्ताख़ निगाही का गिला (फिर सुबह होगी – 1958)
3. जाने क्या ढूंढती रहती हैं ये आंखें मुझ में (फ़िल्म – शोला और शबनम 1961)
4. तुम अपना रंजो ग़म अपनी परेशानी (फ़िल्म – शगुन 1964)
5. बहारो, मेरा जीवन भी संवारो (फ़िल्म- आख़री ख़त 1966) 
6. कभी कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है (कभी कभी 1976)
7. हज़ार राहें, मुड़ के देखें (फ़िल्म – थोड़ी से बेवफ़ाई 1980)
8. दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए (फ़िल्म – उमराव जान 1981)
9. कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता (फ़िल्म – आहिस्ता आहिस्ता 1981)
10. दिखाई दिए क्यों (फ़िल्म – बाज़ार 1982) 
11. ऐ दिल-ए-नादां (फ़िल्म – रज़िया सुल्तान 1983)
--------------------------------------------------------------------------------

Saturday 17 August 2019

'रजनीगंधा' सी महकती 'विद्या' का ख़ामोशी से चले जाना!

   फ़िल्मी दुनिया का अपना अजीब सा ढर्रा है, जो आजतक कोई समझ नहीं पाया! यहाँ जो कलाकार जिस किरदार में ढल जाता है, वही उसकी पहचान बन जाती है। ऐसे में वो वहाँ से बड़ी मुश्किल से निकल पाता है! सबसे ज्यादा परेशानी नायिकाओं के साथ आती है! यदि उनका करियर सीधी-साधी घरेलू लड़की में ढल गया तो उन्हें मॉर्डन गर्ल का रोल मिलना आसान नहीं होता! 70 के दशक की नायिका विद्या सिन्हा ऐसी ही अभिनेत्री थी, जो दस साल में 30 फ़िल्में करने के बाद भी अपनी छवि का कवच तोड़कर बाहर नहीं निकल सकीं और अपनी उसी पहचान के साथ दुनिया से बिदा हो गईं! विद्या की निजी जिंदगी काफी तकलीफों भरी रही। उन्होंने दो शादियां की थीं। लेकिन, उन्हें जीवन का सुख एक से भी नहीं मिला। 
000 
  फिल्मों में आदर्श भारतीय लड़की का रोल निभाने वाली विद्या सिन्हा उस खाके में कभी फिट नहीं हुई, जिसे हिंदी फिल्मों की हीरोइन कहा जाता है। उनकी नैसर्गिक सुंदरता सहज और आम भारतीय नारी जैसी थी! सामाजिक नजरिए से ये पहचान अच्छी है, पर विद्या सिन्हा के लिए ये खामी की तरह थी! आम तौर पर फिल्मों में यही होता है। 1974 में आई 'रजनीगंधा' से लगाकर बाद में आई सभी फिल्मों में इस अभिनेत्री को साड़ी वाले रोल मिले! कारण वे चाहकर भी उस मुकाम तक नहीं पहुँच सकी, जो उनकी काबलियत थी! वे शबाना आजमी की तरह बड़े बाप की बेटी तो थी नहीं, जिन्हें अंकुर, निशांत, मंथन और चक्र जैसी ठेठ कला फ़िल्में करने के बाद शशि कपूर के साथ 'फकीरा' और विनोद खन्ना के साथ 'परवरिश' जैसी बड़ी फिल्म करने का मौका मिले! विद्या सिन्हा ने काम तो संजीव कुमार, राजेश खन्ना और शशि कपूर जैसे बड़े नायकों के साथ किया, पर अपनी छवि को तोड़कर बाहर नहीं निकल सकी! 
     आमतौर पर फ़िल्मी दर्शक शादीशुदा हीरोइनों को ज्यादा पसंद नहीं करते! वही विद्या सिन्हा के साथ भी हुआ! 'मिस मुंबई' बनने के बाद उन्होंने अपने पडोसी वेंकेटेश्वर अय्यर से शादी कर ली! विद्या के ससुराल वाले उनके फिल्मों में काम करने के खिलाफ थे! लेकिन, बाद में वे मान गए। विद्या को पहली फिल्म 'राजा काका' ही राजेश खन्ना के साथ मिली थी! पर ये रिलीज हुई 'रजनीगंधा' के बाद! हुआ यूँ कि 'मिस मुंबई' बनने के बाद विद्या मॉडलिंग करने लगी थी! साड़ी के एक विज्ञापन में उन्हें वासू चटर्जी ने देखा और अमोल पालेकर के साथ 'रजनीगंधा' के लिए सिलेक्ट कर लिया। 'रजनीगंधा' पहले रिलीज हुई और हिट भी हो गई। इस फिल्म के दो गीत 'कई बार यूं भी देखा है, ये जो मन की सीमा रेखा है और 'रजनीगंधा फूल तुम्हारे' तो इतने पसंद किए गए कि आज साढ़े 4 दशक बाद भी गुनगुनाए जाते हैं। 'रंजनीगंधा' ने बेस्ट फिल्म का 'फिल्म फेयर' अवॉर्ड भी जीता। 'कई बार यूं भी देखा है ...' के लिए गायक मुकेश को भी 'फिल्म फेयर' मिला। लेकिन, विद्या की दूसरी फिल्म 'राजा काका' नहीं चली! एक हिट और एक फ्लॉप का असर ये हुआ कि 'रजनीगंधा' के बाद विद्या को कोई फिल्म नहीं मिली!
  करीब दो साल बाद फिर उन्हें बासु चटर्जी ने ही 'छोटी सी बात' में मौका दिया। इस फिल्म ने भी अपार लोकप्रियता पाई और एक बार फिर फिल्म की सफलता में गीतों की अहम भूमिका रही। इस फिल्म के गीत 'ना जाने क्यों, होता है ये जिंदगी के साथ' और 'जानेमन जानेमन तेरे दो नयन' को भुलाया नहीं जा सकता! विद्या सिन्हा को इसके बाद फ़िल्में तो मिली, पर उसी छवि में जो उनकी बन चुकी थी! सीधी-साधी घरेलू लड़की की उनकी पहचान इतनी मजबूत हो गई थी कि उन्हें कभी भी ग्लैमरस किरदार नही मिले। विद्या ने चालू मेरा नाम, इंकार और 'मुकद्दर' जैसी फिल्में भी की पर बात नहीं बनी! राजेश खन्ना के साथ उन्होंने अंधविश्वास वाली फिल्म 'कर्म' भी की, लेकिन छवि नहीं टूटी! उनके जीवन में 'मुक्ति' अहम पड़ाव बनी। इसमें शशि कपूर और संजीव कुमार जैसे कलाकार थे, इस कारण विद्या फिल्म में गुम होकर रह गई! विद्या की सबसे बड़ी फिल्मों में एक थी संजीव कुमार और रंजीता के साथ 'पति पत्नी और वो!' ये भी खूब चली पर सारा श्रेय संजीव कुमार को मिला। दस साल में भी अपनी छवि से बाहर न निकल पाने की पीड़ा उन्हें इतनी सालने लगी कि विद्या ने फिल्मों से संन्यास ले लिया। उसके बाद वे फिल्म परिदृश्य से गायब ही हो गई!
   बेटी के कहने पर विद्या सिन्हा ने अभिनय की दूसरी पारी खेलने का फैसला किया और शुरूआत टीवी से की। 'तमन्ना' उनका पहला सीरियल था। फिर बहूरानी, हम दो हैं ना, काव्यांजलि, भाभी और 'कुबूल है' जैसे कई सीरियलों में वे दिखाई दीं। उन्होंने सलमान खान की 'फिल्म बॉडीगार्ड' में भी काम किया। 'कुल्फी कुमार बाजेवाला' विद्या का आखिरी सीरियल था, जिसमें उन्होंने मां का रोल किया था। साधारण महिला के किरदार में फिट होने वाली विद्या चली भी बड़ी ख़ामोशी से गई! लेकिन, 'रजनीगंधा' की महक की तरह वे उनके प्रशंसकों के दिल से जल्दी बिदा नहीं होंगी!  
--------------------------------------------------------------------------------

हर मूड में हिट और फिट हैं, बरसते सावन के गीत!

- एकता शर्मा

 हिंदी फिल्मों में सावन और बरसात के गीतों की अलग ही रंगत रही है। अब तो न ऐसी फ़िल्में बनती हैं और न सावन के गीत फिल्माने का कोई चलन है। लेकिन, ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के ज़माने में ज्यादातर गीत नायिकाओं पर विरह के अंदाज में फिल्माए गए! नायिका को ये विरह अपने साजन का भी था, पीहर का भी, भाई का भी और पिता का भी! लेकिन, नायिका को अपने साजन के घर वापस आने का इंतजार कुछ ज्यादा होता था। इस अहसास का फिल्मों में जमकर इस्तेमाल किया गया।
  1944 की फिल्म ‘रतन’ में ‘रूमझुम बरसे बदरवा मस्त हवाएं आई, पिया घर आजा ...' इसी तरह 1955 में आई ‘आजाद’ में नायिका बादलों से याचना करती है ‘जारी-जारी ओ कारी बदरिया, मत बरसो री मेरी नगरिया, परदेस गए हैं सांवरिया।’ 1955 में ही आई राजकपूर और नरगिस की 'श्री 420' का गीत ‘प्यार हुआ इकरार हुआ’ संगीत प्रेमियों का पसंदीदा है। फिल्म ‘जुर्माना’ (1969) का लता मंगेशकर का गाया गीत ‘सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ’ आज भी सावन में बजता सुनाई देता है। 'पड़ गए झूले सावन ऋतु आई रे' (बहू बेगम), ‘गरजत बरसत सावन आयो रे’ (बरसात की रात), ‘अब के सजन सावन में आग लगेगी बदन में’ (चुपके चुपके) गीत नायिका के विरह की याद दिलाते हैं। 'सावन आया बादल आए मोरे पिया नहीं आए’ (‘जान हाजिर है), ‘तुझे गीतों में ढालूंगा, सावन को आने दो’ (सावन को आने दो), और ‘लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है’ (चांदनी) को कौन भूल सकता है। अक्षय कुमार और रवीना टंडन का 'मोहरा' का गीत ‘टिप टिप बरसा पानी सावन में आग लगाए’ अपने ख़ास अंदाज के लिए याद किया जाता है। इसी तरह मिक्का के एलबम ‘सावन में लग गई आग, दिल मेरा हाय’ लोकप्रिय है। 
     किशोर कुमार का सावन वाले गीतों से खास रिश्ता रहा है! उन्होंने इस रंगीले मौसम के कई गीतों गाए हैं। 1958 की फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' का किशोर कुमार और मधुबाला पर फिल्माया गीत ‘एक लड़की भीगी-भागी सी’ भी बहुत प्यारा गीत है। 'मंजिल' फिल्म के ‘रिमझिम गिरे सावन सुलग-सुलग जाए मन’ किशोर कुमार का बरसात पर गाया खूबसूरत गाना था। 'अजनबी' फिल्म के ‘भीगी-भीगी रातों में’ किशोर कुमार की मदहोश कर देने वाली आवाज थी। 'नमक हलाल' के लिए किशोर कुमार का गाया ‘आज रपट जाएं तो हमें न उठईयों’ बेहद खुशनुमा गीत है। जितेन्द्र, रीना राय पर फिल्माया ‘अब के सावन में जी डरे रिमझिम सर से पानी गिरे तन में लगे आग सी...’ (जैसे को तैसा) बरसात में होंठों पर आ ही जाता है।
 आशा पारेख और धर्मेन्द्र का गीत ‘आया सावन झूम के (आया सावन झूम के), और राजेन्द्र कुमार, बबीता पर फिल्माया ‘रिमझिम के गीत सावन ... ’ (अंजाना) के अलावा फिल्म 'मिलन' में सुनील दत्त की गायन क्लास में शिष्या नूतन की मीठी तान ‘सावन का महीना पवन करे शोर’ की मधुरता का कोई जवाब नहीं! धर्मेन्द्र और आशा पारेख की जोड़ी वाली फिल्म 'मेरा गाँव-मेरा देश' का गीत ‘कुछ कहता है ये सावन’ भी बेहतरीन प्रस्तुति था। नीलम और शशि कपूर पर फिल्माया 'सिंदूर' का गीत ‘पतझड़ सावन बसंत बहार, एक बरस में मौसम चार’ मर्म आज भी सुनने वाले को कचोटता है।
  देशभक्ति वाली फ़िल्में बनाने वाले मनोज कुमार ने भी 'रोटी कपड़ा और मकान' में जीनत अमान को देहदर्शना गीत 'हाय हाय ये मज़बूरी ...' पर नचाकर दर्शकों को प्रसन्न किया था। 1958 की फिल्म 'फागुन' के गीत 'बरसो रे बैरी बदरवा बरसो रे ...' के बोल ही नायिका के मनोभाव को व्यक्त करते हैं। प्रेमियों के साथ सावन गीत किसानों को भी सुकून दिलाते हैं। किसानों को इस मौसम का हमेशा ही इंतजार रहता है। 'लगान' का गीत ‘घनन-घनन घिर-घिर आए बदरा’ इसी का उदाहरण है। 'गुरु' के गीत ‘बरसो रे मेघा-मेघा’ के जरिए एक ग्रामीण अल्हड़ लड़की के बारिश में सबसे बेखबर होकर मस्ती करती दिखती है। 60 और 70 के दशक में जब ग्रामीण पृष्ठभूमि पर फिल्में बनती थीं, तब होली गीतों को सावन गीत की तरह भी इस्तेमाल किया गया। कई फिल्मों के तो नाम तक सावन से जोड़कर रखे गए! आया सावन झूम के, सावन को आने दो, ‘प्यासा सावन, सोलहवां सावन, सावन की घटा, और ‘सावन भादो’ जैसी कई फ़िल्में उस दौर में बनी! 
----------------------------------------------------------------

सिर्फ याद करने की तारीख न रहे आजादी का ये दिन!

  देश का जनमानस उस तिथि या घटना को ही अक्षुण्ण बनाए रख पाता है, जिसमें आध्यात्मिकता का पुट हो! क्योंकि, एतिहासिकता में आध्यात्मिकता का भाव होना जरुरी है। अन्यथा, भारतीय जनमानस औपचारिकताओं में अपनी रुचि कम कर देता है। इसी भाव के कारण दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से राष्ट्रीय पर्वों पर आम जनमानस का उत्साह धार्मिक पर्वों के अवसर पर कम दिखाई देता है। हालांकि, आध्यात्मिकता के बिना एतिहासिक घटनाओं के प्रति जनमानस का अधूरापन दिखाना, जागरुक लोगों को बुरा लगता है। 
000

- एकता शर्मा 

  क बार फिर 15 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस का दिन आ गया! एक ऐसा दिन जो हमारी और आपकी आजादी को याद दिलाता है। उस आजादी को जिसने हमें धर्म और कर्म के साथ हर वो आजादी दी जो किसी के भी सामाजिक जीवन के लिए जरुरी होती है। लेकिन, बढ़ते भ्रष्टाचार, अराजकता, बेरोजगारी और भुखमरी के कारण कई लोगों के लिए स्वतंत्रता दिवस का ये दिन भूली-बिसरी घटना हो गई है। आजादी को सात दशक बीत गए। आशय यह है कि हर परिवार की करीब चार पीढ़ियों ने इस आजाद देश में सांस ली होगी! पीढ़ी दर पीढ़ी एतिहासिक घटनाओं की स्मृतियां फीकी पड़ती जाती हैं। फिर एक समय ऐसा आता है जब उन्हें विस्मृत कर दिया जाता है। यदि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को हर वर्ष औपचारिक रूप से पूरे देश में नहीं मनाया जाए, तो शायद हम इन तारीखों को भी भूल चुके होते! औपचारिक रूप से मनाए जाने के बाद भी कुछ सालों बाद एक दिन यह स्थिति जरूर आएगी, जब इसे याद रखने वालों की संख्या भी कम हो जाएगी या फिर लोग इसे औपचारिकता मानकर इसमें अरुचि दिखाएंगे। 
   देखा गया है कि ऐतिहासिक स्मृतियों की आयु कम होने का कारण इनके भुला देने की आशंका ज्यादा रहती है। क्योंकि, दुनिया में लोगों की अन्य विषयों में लिप्तता इतनी रहती है कि उनमें सक्रियता का संचार नई एतिहासिक घटनाओं का सृजन करता है। लोगों की इसी सक्रियता के कारण जहां इतिहास दर इतिहास बनता है, वही उनको विस्मृत भी कर दिया जाता है। इतिहास गवाह है कि हर पीढ़ी उन्हीं घटनाओं से प्रभावित होती है, जो उसके सामने घटती हैं। पुरानी घटनाओं को नई पीढ़ी कम ही याद रखती है। इसके विपरीत जिन घटनाओं का अध्यात्मिक महत्व होता है, उन्हें सदियों तक जहन में संजोय रखा जाता है। हम अपने अध्यात्मिक स्वरूपों में भगवत् स्वरूप की अनुभूति करते हैं क्योंकि भगवान श्री विष्णु, श्री ब्रह्मा, श्री शिव, श्री राम, श्री कृष्ण तथा अन्य स्वरूपों की गाथाएं दृढ़ता से हमारे जनमानस में बसी हैं। कबीर, तुलसी, रहीम, और मीराबाई ने हमारे अंदर तक आंदोलित किया है। यही कारण है कि उनकी जगह ऐसी बनी कि वह हमारे इतिहास में भक्त स्वरूप हो गए। उनकी श्रेणी भगवान से कम नहीं बनी।
  हमारे देश के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अनेक महापुरुष हुए। उनके योगदान का इतिहास है, जिसे बरसों से पढ़ाया जा रहा है। हैरानी की बात है कि इनमें से अनेक भारतीय अध्यात्म से सराबोर होने के बावजूद भारतीय जनमानस में उनकी छवि भक्त या ज्ञानी के रूप में नहीं बन पाई। स्वतंत्रता संग्राम में उनकी सक्रिय छवि ने उनके अध्यात्मिक पक्ष को ढंक दिया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी अनेक लोग राजनीतिक संत कहते हैं, जबकि उन्होंने मानव जीवन को सहजता से जीने की कला सिखाई है। आज महात्मा गाँधी को भी इसलिए लोग भुला नहीं पाए, क्योंकि वे किसी न किसी रूप में हमारे चारों और मौजूद हैं। आध्यात्मिक दर्शन राष्ट्र या मातृभूमि को महत्व नहीं देता, ये बात नहीं है! श्रीकृष्ण ने तो महाभारत के युद्ध के समय अपने मित्र अर्जुन को राष्ट्रहित के लिए उसे धर्म के अनुसार निर्वाह करने का उपदेश दिया। दरअसल, क्षत्रिय कर्म का निर्वाह मनुष्य के हितों की रक्षा के लिए ही किया जाता है। यह जरूर है कि चाहे कोई भी धर्म हो या कर्म अध्यात्मिक ज्ञान होने पर ही पूर्णरूपेण उसका निर्वाह किया जा सकता है। 
    भारत और यूनान दुनिया के सबसे पुराने राष्ट्र माने जाते हैं। भारतीय इतिहास के अनुसार एक समय यहां के राजाओं के राज्य का विस्तार ईरान और तिब्बत तक था कि आज का भारत उनके सामने बहुत छोटा दिखाई देता है। ऐसे राजा ही चक्रवर्ती राजा कहलाए! यह इतिहास ही राष्ट्र के प्रति गौरव रखने का भाव अनेक लोगों में अन्य देशों के नागरिकों की राष्ट्र भक्ति दिखाने की प्रवृत्ति की अपेक्षा कम कर देता है। कई देशों के लोग इस देश के लोगों में कुछ ज्यादा ही राष्ट्र भक्ति होने की बात कहते हैं। इसलिए कि विदेशी शासकों ने यहाँ आक्रमण जरूर किया पर भारत की संस्कृति और सभ्यता अक्षुण्ण रही! आशय यह कि 15 अगस्त को देश ने केवल राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त की और कालांतर में वैसा ही महत्व माना भी गया!
  स्वतंत्रता के बाद देश के लोगों ने भारतीय अध्यात्मिकता को तिरस्कृत नहीं किया, उसके साथ पश्चिम से आए विचारों को भी अपनाया! उनको शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में जोड़ने की सदाशयता भी दिखाई। भारतियों ने विदेशी साहित्य को हिन्दी में अनुवाद करके विदेशी विद्वानों को कालजयी भी बनाया! इससे नुकसान ये हुआ कि धीमे-धीमे सांस्कृतिक विभ्रम की स्थिति बनी। अब तो यह स्थिति यह है कि कई नए विद्वान भारतीय आध्यात्मक के प्रति निरपेक्ष भाव रखना आधुनिकता समझते हैं! इसके बावजूद साढ़े छह दशकों में इतिहास की छवि भारत के अध्यात्मिक पक्ष को विलोपित नहीं कर सकी। इसका श्रेय उन महानुभावों को दिया जाना चाहिए, जिन्होंने निष्काम से जनमानस में अपने देश के पुराने ज्ञान की धारा को प्रवाहित रखने का प्रयास किया। यही कारण है कि 15 अगस्त और 26 जनवरी को मनाने तथा भीड़ को अपने साथ बनाए रखने के लिए तरह-तरह के प्रयास करने पड़ते हैं! जबकि, रामनवमी, जन्माष्टमी और महाशिवरात्रि को लोग स्वप्रेरणा से ही मनाते हैं। क्योंकि, इतिहास और आध्यात्मिक धाराएं अलग-अलग हो गई हैं, जो कि नहीं होना चाहिए!
 सबसे बड़ी बात यह है कि इस आजादी ने देश का औपचारिक रूप से बंटवारा कर दिया, जिसने देश के जनमानस को निराश किया है। कई लोगों को अपने घरबार छोड़कर शरणार्थी की तरह जीवन जीना पड़ा! शुरुआती दौर में विस्थापितों को लगा कि यह विभाजन क्षणिक है, पर कालांतर में जब उसके स्थाई होने की बात सामने आई तो उन पर से स्वतंत्रता का बुखार उतर गया! जो विस्थापित नहीं हुए उन्हें भी देश के इस बंटवारे का दुःख है। विभाजन के समय हुई हिंसा का इतिहास आज भी याद किया जाता है। यह सब भी विस्मृत हो जाता, अगर देश ने वैसा स्वरूप पाया होता जिसकी कल्पना आजादी के समय दिखाई गई थी!
  ऐसा न होने से निराशा होती है पर भारतीय अध्यात्मिक दर्शन इसे उबार लेता है। फिर जब हमारे अंदर यह भाव आता है कि भारत तो प्राचीन काल से है राजा बदलते रहे हैं! सीधे शब्दों में कहें तो देश का जनमानस उस तिथि या घटना को ही अक्षुण्ण बनाए रख पाता है, जिसमें आध्यात्मिकता का पुट हो! एतिहासिकता के साथ आध्यात्मिकता का भाव होना जरुरी है। अन्यथा, भारतीय जनमानस औपचारिकताओं में अपनी रुचि कम कर देता है। इसी भाव के कारण दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से राष्ट्रीय पर्वों पर आम जनमानस का उत्साह धार्मिक पर्वों के अवसर पर कम दिखाई देता है। हालांकि, आध्यात्मिकता के बिना एतिहासिक घटनाओं के प्रति जनमानस का अधूरापन दिखाना, जागरुक लोगों को बुरा लगता है। भविष्य में इस बात पर आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए कि 15 अगस्त और 26 जनवरी याद करने की तारीख भी न रह जाए!
-------------------------------------------------------------------

Saturday 10 August 2019

'झूठ बोले कव्वा काटे ...' फिर भी फिल्मों में झूठ का कारोबार!

- एकता शर्मा

 हिन्दी फ़िल्मों के इतिहास को टटोला जाए तो इसमें सच-झूठ का खेल जमकर चला! हीरो से लगाकर विलेन तक ने झूठ बोल बोलकर कभी हीरोइन को फंसाया तो कभी भरमाया! जब से फ़िल्में बनना शुरू हुई, हीरो या विलेन झूठ बोलते और कहानी को बढ़ाते रहे हैं। हीरो भले ही कितना आदर्शवादी हो, उसे झूठ बोलना क्षम्य है। कई फिल्मों में हीरो, हीरोइन को खुलेआम झूठ बोलते दिखाया गया। फिल्मों में कुछ ऐसे किरदार होते हैं, जो झूठ का कारोबार करने के लिए होते हैं। इनमें से अधिकांश पात्र खलनायक या उसके नुमाइंदे होते हैं। यदि फिल्म राजे राजवाड़े पर आधारित हो तो राज्य का खोया उत्तराधिकारी अपनी बाहों पर नकली राजचिह्न बनाकर हाजिर हो जाता है। जीतेन्द्र अभिनीत फिल्म 'वारिस' में यही ड्रामा चलता रहा। 
    नासिर हुसैन की लगभग हर फिल्म का खलनायक एक झूठा पात्र होता था। यदि सौतेले माँ बेटे पर आधारित फिल्म हो तो परदे पर झूठ परोसने का काम 'मामा' के सुपूर्द किया जाता है। इस तरह के फिल्मी मामाओं को मदन पुरी, जीवन, कन्हैयालाल, अनुपम खेर से लेकर कादर खान ने कभी गुर्रा के हुए तो कभी गुदगुदाने हुए बखूबी पेश किया।    फिल्मों में झूठ का अपना अलग ही कारोबार है! राजकपूर की सर्वाधिक सफल फिल्मों में से एक 'बॉबी' में तो ऋषि कपूर को चिढ़ाकर डिम्पल कपाड़िया गाना भी गाती है 'झूठ बोले कव्वा काटे!' फ़िल्मों के गानों में भी झूठ का जादू खूब चला है। सैंया झूठों बड़ा सरताज निकला, झूठ बोले कौआ काटे, सजन रे झूठ मत बोलो, झूठा कहीं का मुझे ऐसा मिला, दो झूठ कहे एक सच के लिए, झूठ बोले कौआ काटे जैसे गाने आज भी श्रोताओं के लबों पर सजे हुए हैं। कहने मतलब यह कि चाहे सिनेमा में सच के बजाए 'झूठ' काे लोगों ने मनोरंजन के रूप में ज्यादा पसंद किया। यानी परदे पर कहानी को आगे बढ़ाने के लिए दशकों से झूठ चलता रहा है और चलता रहेगा!   
  सिनेमा मे लगभग सारे कलाकारों ने परदे पर झूठ बोला है। किसी फिल्म में ऋषि कपूर झूठ बोलकर 'झूठा कहीं का' कहलाए तो इसी तरह की दोहरी भूमिका निभाते हुए राजेश खन्ना ने 'सच्चा झूठा' का तमगा लटकाया। झूठ पर आधारित फिल्मों में क्योंकि मैं झूठ नहीं बोलता, अंगूर, सच्चे का बोलबाला, दो झूठ, पति पत्नी और वो, सफेद झूठ, चुपके-चुपके और 'मिस्टर नटवरलाल' सहित दर्जनों फिल्मों ने बॉक्स आफिस पर सिक्के बरसाए हैं। सिनेमा में झूठ के सहारे केवल प्यार ही नहीं होता बल्कि दुष्कर्म भी होता है। दर्जनों फ़िल्में ऐसी हैं जिनमें भाई की खोज में शहर आई बहन को कोई खलनायक झूठ बोलकर या तो उसकी इज्ज़त से खिलवाड़ करता है या उसे कोठे पर बैठा देता है। ऐसे पात्रों से सीएस दुबे और अनवर हुसैन जैसे कलाकारों की दाल रोटी चलती थी। ‌परदे पर झूठ को सच बनाकर पेश करने में प्राण, विनोद खन्ना, शक्ति कपूर और शत्रुघ्न सिन्हा को माहिर माना जाता रहा है। जब यह झूठ बयां कर रहे होते हैं, तो इनका शातिर चेहरा दर्शकों की तरफ रहता है जिससे पता चल जाता है कि वे कितने झूठे हैं।
  फिल्मों में ऐसे किरदार निभाने के लिए हिन्दी सिनेमा में कुछ कलाकार हमेशा फिट पाए गए। सिनेमा में झूठ को विश्वसनीय तरीके से आगे बढाने में बीते जमाने के नायक शम्मी कपूर को माहिर माना जाता था। शम्मी कपूर ने पर्दे पर झूठ बोलकर कई नायिकाओं का दिल जीता! 'प्रोफेसर' में वे बेरोजगारी दूर करने के लिए झूठ बोलकर हीरोइन को पढाते-पढाते प्यार का पाठ पढ़ाने लगते हैं! 'ब्लफ मास्टर' में वे लगातार झूठ पर झूठ बोलकर दर्शकों को गुदगुदाते रहते हैं। यदि नायिका गरीब हो तो अमीर नायक झूठ बोल कर गरीब बन जाता है और नायक गरीब हो तो अमीर नायिका झूठ बोलकर गरीबी का नाटक करके प्यार की दौलत लूटकर फिल्म को आगे बढाता है। ऐसे में कभी राज कपूर नूतन के हाथों 'अनाड़ी' बनते हैं तो कभी अपर्णा सेन के हाथों 'विश्वास' टूट जाने पर जीतेन्द्र 'एक धनवान की बेटी ने निर्धन का दामन छोड़ दिया ...' गाते हैं। 
-------------------------------------------------------------------------------

Saturday 3 August 2019

हर मूड में हिट और फिट हैं, बरसते सावन के गीत!


- एकता शर्मा 

  फिल्मों में सावन और बरसात के गीतों की अलग ही रंगत रही है। अब तो न ऐसी फ़िल्में बनती हैं और न सावन के गीत फिल्माने का कोई चलन है। लेकिन, ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के ज़माने में ज्यादातर गीत नायिकाओं पर विरह के अंदाज में फिल्माए गए! नायिका को ये विरह अपने साजन का भी था, पीहर का भी, भाई का भी और पिता का भी! लेकिन, नायिका को अपने साजन के घर वापस आने का इंतजार कुछ ज्यादा होता था। इस अहसास का फिल्मों में जमकर इस्तेमाल किया गया।
  1944 की फिल्म ‘रतन’ में ‘रूमझुम बरसे बदरवा मस्त हवाएं आई, पिया घर आजा ...' इसी तरह 1955 में आई ‘आजाद’ में नायिका बादलों से याचना करती है ‘जारी-जारी ओ कारी बदरिया, मत बरसो री मेरी नगरिया, परदेस गए हैं सांवरिया।’ 1955 में ही आई राजकपूर और नरगिस की 'श्री 420' का गीत ‘प्यार हुआ इकरार हुआ’ संगीत प्रेमियों का पसंदीदा है। फिल्म ‘जुर्माना’ (1969) का लता मंगेशकर का गाया गीत ‘सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ’ आज भी सावन में बजता सुनाई देता है। 'पड़ गए झूले सावन ऋतु आई रे' (बहू बेगम), ‘गरजत बरसत सावन आयो रे’ (बरसात की रात), ‘अब के सजन सावन में आग लगेगी बदन में’ (चुपके चुपके) गीत नायिका के विरह की याद दिलाते हैं। 'सावन आया बादल आए मोरे पिया नहीं आए’ (‘जान हाजिर है), ‘तुझे गीतों में ढालूंगा, सावन को आने दो’ (सावन को आने दो), और ‘लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है’ (चांदनी) को कौन भूल सकता है। अक्षय कुमार और रवीना टंडन का 'मोहरा' का गीत ‘टिप टिप बरसा पानी सावन में आग लगाए’ अपने ख़ास अंदाज के लिए याद किया जाता है। इसी तरह मिक्का के एलबम ‘सावन में लग गई आग, दिल मेरा हाय’ लोकप्रिय है।
   किशोर कुमार का सावन वाले गीतों से खास रिश्ता रहा है! उन्होंने इस रंगीले मौसम के कई गीतों गाए हैं। 1958 की फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' का किशोर कुमार और मधुबाला पर फिल्माया गीत ‘एक लड़की भीगी-भागी सी’ भी बहुत प्यारा गीत है। 'मंजिल' फिल्म के ‘रिमझिम गिरे सावन सुलग-सुलग जाए मन’ किशोर कुमार का बरसात पर गाया खूबसूरत गाना था। 'अजनबी' फिल्म के ‘भीगी-भीगी रातों में’ किशोर कुमार की मदहोश कर देने वाली आवाज थी। 'नमक हलाल' के लिए किशोर कुमार का गाया ‘आज रपट जाएं तो हमें न उठईयों’ बेहद खुशनुमा गीत है। जितेन्द्र, रीना राय पर फिल्माया ‘अब के सावन में जी डरे रिमझिम सर से पानी गिरे तन में लगे आग सी...’ (जैसे को तैसा) बरसात में होंठों पर आ ही जाता है।
 आशा पारेख और धर्मेन्द्र का गीत ‘आया सावन झूम के (आया सावन झूम के), और राजेन्द्र कुमार, बबीता पर फिल्माया ‘रिमझिम के गीत सावन ... ’ (अंजाना) के अलावा फिल्म 'मिलन' में सुनील दत्त की गायन क्लास में शिष्या नूतन की मीठी तान ‘सावन का महीना पवन करे शोर’ की मधुरता का कोई जवाब नहीं! धर्मेन्द्र और आशा पारेख की जोड़ी वाली फिल्म 'मेरा गाँव-मेरा देश' का गीत ‘कुछ कहता है ये सावन’ भी बेहतरीन प्रस्तुति था। नीलम और शशि कपूर पर फिल्माया 'सिंदूर' का गीत ‘पतझड़ सावन बसंत बहार, एक बरस में मौसम चार’ मर्म आज भी सुनने वाले को कचोटता है।
  देशभक्ति वाली फ़िल्में बनाने वाले मनोज कुमार ने भी 'रोटी कपड़ा और मकान' में जीनत अमान को देहदर्शना गीत 'हाय हाय ये मज़बूरी ...' पर नचाकर दर्शकों को प्रसन्न किया था। 1958 की फिल्म 'फागुन' के गीत 'बरसो रे बैरी बदरवा बरसो रे ...' के बोल ही नायिका के मनोभाव को व्यक्त करते हैं। प्रेमियों के साथ सावन गीत किसानों को भी सुकून दिलाते हैं। किसानों को इस मौसम का हमेशा ही इंतजार रहता है। 'लगान' का गीत ‘घनन-घनन घिर-घिर आए बदरा’ इसी का उदाहरण है। 'गुरु' के गीत ‘बरसो रे मेघा-मेघा’ के जरिए एक ग्रामीण अल्हड़ लड़की के बारिश में सबसे बेखबर होकर मस्ती करती दिखती है। 60 और 70 के दशक में जब ग्रामीण पृष्ठभूमि पर फिल्में बनती थीं, तब होली गीतों को सावन गीत की तरह भी इस्तेमाल किया गया। कई फिल्मों के तो नाम तक सावन से जोड़कर रखे गए! आया सावन झूम के, सावन को आने दो, ‘प्यासा सावन, सोलहवां सावन, सावन की घटा, और ‘सावन भादो’ जैसी कई फ़िल्में उस दौर में बनी!
------------------------------------------------------------------------

तू मेरा चाँद मैं मेरी चाँदनी...!


- एकता शर्मा 

  हिन्दी फ़िल्मों में 'चाँद' सबसे लोकप्रिय और दिलचस्प किरदार है। हमारे देश ने भले ही चाँद पर पहुँच के लिए यान भेज दिया हो, पर हमारे लिए चाँद आज भी भगवान है, जिसकी साल में दो-चार बार पूजा तक होती है। फिल्मी किरदारों से लेकर फ़िल्मों के शीर्षकों और गानों तक में चाँद बरसों से चमक रहा है! हिन्दी फ़िल्मों मे दिल के अलावा 'चाँद' ही ऐसा शब्द है जिसे गीतकारों ने भी सबसे ज्यादा बार सुरीले गीतों में पिरोया है। अधिकांश गीतों नें नायिका के चेहरे की तारीफ में कसीदे पढ़े हैं। ऐसे ही गीतों में ये चांद सा रोशन चेहरा, चौदहवीं का चांद हो, चांद सा मुखड़ा क्यों शरमाया और चांद छुपा बादल में जमकर लोकप्रिय हुए। चांद की एक खूबी यह भी है कि फिल्मकारों ने इसे एक रिश्ते या सीमा में बांधकर नहीं रखा। स्त्री पुरुष के भेद से भी इसे मुक्त रखा गया। इसीलिए तो नायिका की चांद से तुलना करते हुए नायक कहता है 'एक चांद आसमान पे एक मेरे पास है।' वहीं बहन अपने भाई को चांद की उपमा देते हुए गाती है 'मेरे भईया मेरे चंदा मेरे अनमोल रतन तेरे बदले मैं जमाने की कोई चीज न लूँ।' ऐसे में फिल्मी मां भी कहां पीछे रहने वाली हैं, वह भी अपने लाडले को दुलारते हुए गुनगुनाती है- 'चंदा है तू मेरा सूरज है तू।' 
   हिन्दी फिल्मी गीतों में चांद को प्रतीक तो कभी संबंध बनाने के लिए भी उपयोग में लाया गया है। कुछ बानगियां प्रस्तुत है तू मेरा चांद मैं तेरी चांदनी, चांद मेरा दिल चांदनी हो तुम!, कभी चांद को संबोधित करते हुए नायक और नायिका एक दूसरे को संदेश देते हैं चांद फिर निकला, मगर तुम ना आए, चांद छुपने से पहले चली जाऊंगी, ओ चांद जहाँ वो जाए। हिन्दी फ़िल्मों में शायद ही कोई नायक या नायिका हो, जिसने रूपहले पर्दे पर चांद को याद न किया हो। हिन्दी फिल्मों की त्रिमूर्ति देव-दिलीप-राज भी चांद की चर्चा किए बिना रह नहीं पाए! दरअसल, इन पर फिल्माए गए चंद्र गीत आज भी भूलाए नहीं भूलते। राजकपूर-नरगिस पर फिल्माए गए गीतों में 'उठा धीरे धीरे वो चांद प्यारा प्यारा, दम भर जो उधर मुँह फेरे ओ चंदा' और 'आजा सनम मधुर चांदनी में हम-तुम।' देव आनंद पर फिल्माए गए गीत खोया खोया चांद, धीरे धीरे चल चांद गगन में  और दिलीप कुमार पर फिल्माया गया 'आदमी' फिल्म का गीत 'एक चांद आसमान पर एक मेरे पास है' आज भी लोकप्रिय है। करण जौहर ने करवा चौथ के जरिए हिंदी फिल्मों जो चन्द्र अभियान आरंभ किया है, वह भी खासा लोकप्रिय और कमाऊ साबित हुआ! 
  हिन्दी फ़िल्मों में चांद को लेकर सभी सिचुएशन के गीतों को फिल्माए जाने की परम्परा रही है। खुशी का मौका हो तो चांद, बिरह की सिचुएशन हो तो चांद यानी हिन्दी सिनेमाघरों के लिए चांद, चांद नहीं अलादीन का चिराग बन गया है। ऐसे में गुलज़ार जैसे प्रयोगवादी गीतकार को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता! उन्होंने चांद का अलग अंदाज में उपयोग करते हुए कभी कहा है चांद चुरा कर लाया हूं, चांद कटोरा लिए रात भिखारन आए रे ...  जैसे बेमिसाल शब्दों को अपना कर सभी को चौंकाया है।  
  फिल्म निर्माताओं ने चाँद को लेकर भी कई फिल्में बनाई, जो सफल भी रही! 'चांद' शीर्षक से बनी पहली फिल्म फिल्म 40 के दशक में आई थी, जो मुस्लिम संस्कृति पर आधारित थी। उसके बाद 'चांद' नाम से प्रदर्शित ज्यादातर फिल्मों में मुस्लिम समाज की कहानी दोहराई गईं! चाहे फिर वो गुरुदत्त की सुपरहिट फिल्म 'चौदहवीं का चांद हो' या सलमान खान की 'चांद का टुकड़ा' हो। चांद और इससे मिलते जुलते शीर्षकों पर बनी फिल्मों में चांद मेरे आजा, दूज का चांद, चांदनी, खोया खोया चांद, ट्रिप टू मून, चंदा और बिजली, ईद का चाँद प्रमुख हैं। हम भले ही चाँद को फतह कर लें, फिर भी हमारा चाँद से रिश्ता कभी ख़त्म नहीं होगा!
--------------------------------------------------------------------