Sunday 18 December 2016

संगीत के बिना अधूरी है फ़िल्में

-  एकता शर्मा  

  संगीत हमारे सांस्कृतिक मूल्यों को भी प्रदर्शित करता है। जहाँ तक हिन्दी फिल्मों के गानों का सवाल है, वह समय के साथ बदलते रहे हैं। कभी गजलों का दौर आता है, कभी परदे पर कव्वालियां गूंजने लगती है। फिल्मों के संगीत ने कभी किसी संगीत से परहेज नहीं किया! फिर वो शास्त्रीय संगीत हो, पॉप संगीत वो या फोक संगीत! फिल्म की कहानी शहर की हो या गांव की, रोमांटिक फिल्म हो या सस्पेंस हमेशा ही गाने फिल्म का हिस्सा थे, हैं और रहेंगे! कथानक के साथ गीत और संगीत का तालमेल बैठा ही लिया जाता है।  

  फिल्मों के आरंभिक वर्षों में कई तरह की फिल्में बनी, जिन्हें आसानी से ऐतिहासिक, पौराणिक ,धार्मिक, फेंटेसी फिल्मों के रूप में वर्गीकृत किया सकता था। जब हिन्दी फिल्मों ने पहली बोलती फिल्म 'आलमआरा' के साथ आवाज पाई, ये चलन तभी से शुरू हो गया! 1931 में अर्देशर इरानी की इस फिल्म में 7 गाने थे। इसके बाद ही जमशेदजी की फिल्म 'शीरी फरहाद' आई, जिसमें आपेरा स्टाइल में 42 गाने थे। इसके बाद 'इंद्रसभा' में 69 गीतों का भंडार था। लेकिन, इसके बाद फिल्मों में गानों की संख्या घटने लगी! हर फिल्म में 6 से लेकर 10 गाने शामिल किए जाने का सिलसिला शुरू हुआ। 1934 से गानों को ग्रामोफोन्स पर रिकार्ड किए जाने शुरू हुआ और बाद में रेडियो चैनलों पर इसका प्रसारण आरंभ हुआ।
    फिल्मों के शुरूआती दिनों में फिल्मी गीतों की जगह भजनों का दौर जारी रहा। उसके बाद इस पर उर्दू जुबान में लिखे गीतों का जादू छाया! अब तो वो दौर है कि इसमें सारी भाषाएं और शैलियां घुलमिल गई! फिर भी ब्रज, भोजपुरी, पंजाबी और राजस्थानी लोक गीतों का इस पर हमेशा प्रभाव रहा है। हिन्दी फिल्मों में गानों के साथ नृत्य का भी चोली-दामन का साथ रहा है। फिल्म की सिचुएशन कैसी भी हो, फिल्मकार इसके अनुरूप गाने बनवा ही लेते है। यहां तक कि एक्शन फिल्मों में भी मारधाड़ के बीच भी गानों के लिए जगह बनाने का कारनामा कई फिल्मों में दोहराया जाता रहा है।  
  हमारी बहुसंस्कृति जीवन शैली ने हिन्दी फ़िल्मी गानों ने भाषाओं के सारे बंधन तोड़ दिए और देश के कोने-कोने में हिन्दी फिल्मी गीत सुने जाने लगे! यहां तक की स्थानीय लोक मनोरंजन के साधनों जैसे रामलीला, नौटंकी और तमाशों में भी हिन्दी फिल्मों के गाने गूंजने लगे। पिछले सात दशक से ये गाने हमारे देश के अलावा दक्षिण एशिया के कई देशों में धूम मचा रहे हैं। हिन्दी फिल्म संगीत को लोकप्रिय बनाने में 80 के दशक में आए सस्ते टेपरिकार्डरों और सस्ती टेपों ने भी भरपूर योगदान दिया। आज भी हिन्दी फिल्मी गीत रेडियो, टीवी और यू-टयूब जैसी साइटों पर उपलब्ध हैं। इसके अलावा सीडी और डीवीडी के माध्यम से भी हिन्दी फिल्मी गीत सारी दुनिया में सुने जा रहे हैं।
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Friday 9 December 2016

इस्लाम में निकाह बंधन नहीं महज कॉन्ट्रैक्ट!

- एकता शर्मा 

प्रसंग : तीन तलाक़ 

   किसी भी शादीशुदा मुस्लिम महिला के लिए ‘तलाक, तलाक, तलाक’ ऐसे शब्द हैं जो उसकी जिंदगी को बर्बाद करने की कुव्वत रखते हैं। इलाहाबाद हाई कोर्ट का ताजा फैसला इसी पृष्ठभूमि से जुड़ा है। सुप्रीम कोर्ट के पूछने पर केंद्र सरकार ने भी स्पष्ट किया था कि वो इस प्रथा का विरोध करती है। इसे जारी रखने देने के पक्ष में नहीं है। सरकार का दावा है कि उसका ये कदम देश में समानता और मुस्लिम महिलाओं को उनके संवैधानिक अधिकार दिलाने के लिए है। सरकार ये भी कह रही है कि ऐसी मांग खुद मुस्लिम समुदाय के भीतर से उठी है! क्योंकि, मुस्लिम महिलाएं लंबे समय से तीन तलाक के खिलाफ आवाज उठाती आ रही हैं। कुल मिलाकर सरकार तलाक के मुद्दे पर खुद को मुस्लिम महिलाओं के मसीहा के तौर पर प्रोजेक्ट कर रही है।
   इस्लाम में निकाह हिंदू विवाह व्यवस्था की तरह बंधन नहीं होता! निकाह को 'अहदो पैमान' यानि पक्का समझौता (सिविल कॉन्ट्रैक्ट) माना गया है। मर्द और औरत आपसी रज़ामंदी के बाद ये करार करता है। इस्लाम ने पति-पत्नी को इस समझौते को निभाने के लिए कई हिदायतें दी हैं! इसे तोड़ना आसान भी नहीं है। सिर्फ तीन बार तलाक़ कह देने से ही शादी टूट जाती हो, ऐसा नहीं है। शरिअत में पूरे इंतजाम हैं कि एक बार रिश्त-ए-निकाह में जुड़ने वाला पुरुष और महिला खानदान बनाएं और आखिरी वक़्त तक इसको कायम रखने की पूरी कोशिश करें। कुरआन ने भी निकाह को मीसाक-ए-गलीज़ यानी मजबूत समझौता करार दिया है।
  इस्लाम में तलाक देने के तीन तरीके सबसे ज्यादा चलन में हैं। तलाक-ए-हसन, तलाक-ए-अहसन और तलाक-ए-बिद्अत! यही झगड़ें की सबसे बड़ी वजह भी हैं। एक साथ तलाक, तलाक, तलाक कहना ये मामला 'तलाक-ए-बिद्अत' से जन्मा है। मुसलमानों के बीच तलाक-ए-बिद्अत का ये झगड़ा 1400 साल पुराना है। जबकि, भारत में मुस्लिम पर्सनल के झगड़े की बुनियाद 1765 में पड़ी! इस्लाम में निकाह तोड़ने के चार तरीके हैं! तलाक, तफवीज़-ए-तलाक़, खुलअ और फ़स्ख़-ए-निकाह। 'तलाक' के तहत पूरा अधिकार मर्द को है। इसी तरह निकाह को खत्म करने के लिए तफवीज़-ए-तलाक़, खुलअ और फ़स्ख़-ए-निकाह का अधिकार औरतों को भी है।
  इस्लाम में 'तफवीज़-ए-तलाक़' पति-पत्नी के अलग होने का एक तरीका है। इसमें निकाह तोड़ने का अधिकार औरत को है। मर्द तलाक देने का अपना अधिकार बीबी के सुपुर्द कर देता है। ख़ुलअ भी निकाह तोड़ने का एक तरीका है। इसका हक भी औरत को है। अगर औरत को लगता है कि वो शादीशुदा जिंदगी की जिम्मेदारियों को पूरा नहीं कर सकती या इस मर्द के साथ उसका निर्वाह संभव नहीं है, तो वो अलग होने का फैसला करती है। लेकिन, अलग होने पर औरत को मैहर की रक़म वापस पड़ती है। तीसरा है तलाक़। ये अधिकार मर्द को है और सारा झमेला इसे लेकर है। तलाक देने का तरीका बहुत ही साफ है। इसकी तीन कड़ियाँ हैं। तलाक-ए-रजई, तलाक-ए-बाइन और तलाक-ए-मुगल्लज़ा।
  'तलाक-ए-रजई' को तलाक की कार्रवाई का पहला चरण कहा जाता है। इस्लाम के मुताबिक यदि कोई पति अपनी पत्नी को छोड़ना चाहता है तो पहले उसे एक तलाक देना होता है। ये तलाक भी माहवारी के समय लागू नहीं माना जाता! 'तलाक-ए-बाइन' दूसरा चरण है। शुरु के दो महीनों में यदि पुरुष ने दिया गया पहला तलाक वापस नहीं लिया और तीसरा महीना शुरू हो गया तो अब तलाक पड़ना माना जाता है। इसे 'तलाक-ए-बाइन' कहते हैं। तीसरा चरण है 'तलाक-ए-मुगल्लज़ा!' ये तलाक का तीसरा और अंतिम चरण है। तीसरे महीने में अगर पुरुष ने कहा कि 'मैं तुमको तीसरी बार तलाक देता हूँ!' ऐसा कहने के बाद आखिरी तलाक भी पड़ गई मानी जाती है। इसे 'तलाक-ए-मुगल्लज़ा' कहा जाता हैं। इसके बाद पति-पत्नी के बीच निकाह नहीं हो सकता!
    ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) मुसलमानों में प्रचलित ‘तीन तलाक’ की प्रथा में किसी भी फेरबदल के खिलाफ अड़ा है। जबकि, इस मुद्दे पर पूरी दुनिया का नजरिया उलट है। करीब 22 मुस्लिम देश जिनमें पाकिस्तान और बांग्लादेश भी शामिल हैं, ने अपने यहां सीधे तीन बार तलाक की प्रथा खत्म कर दी। इस सूची में तुर्की और साइप्रस भी शामिल है, जिन्होंने धर्मनिरपेक्ष पारिवारिक कानूनों को अपना लिया। ट्यूनीशिया, अल्जीरिया और मलेशिया के सारावाक प्रांत में कानून के बाहर किसी तलाक को मान्यता नहीं है। ईरान में शिया कानूनों के तहत तीन तलाक की कोई मान्यता नहीं है। यह अन्यायपूर्ण प्रथा इस समय भारत और दुनियाभर के सिर्फ सुन्नी मुसलमानों में बची है।
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विवादों की विरासत है कंगना रनौत

 - एकता शर्मा 

  कंगना रनौत का जब भी जिक्र होता है, बात उनसे जुड़े विवादों की ही होती है। उसके अभिनय को लेकर चर्चा कम ही होती देखी गई! क्योंकि, कंगना उन एक्ट्रेस में से है, जो अपने विवादस्पद बयानों और कारनामों से मीडिया में छाई रहती है। फिलहाल वे रितिक रोशन से चल रहे अदालती मामले को लेकर सुर्ख़ियों में है। कंगना ने दावा किया था कि वो और रितिक रोशन रिलेशनशिप में थे, तब रितिक ने उन्हें कई मेल किए थे। इस पर रितिक ने साइबर क्राइम सेल में शिकायत दर्ज कराई थी कि कोई उनके नाम का इस्तेमाल करके कंगना को मेल भेज रहा है। इससे पहले अध्ययन सुमन से रिश्ते को लेकर भी वे ख़बरों में छाई रही थी!
  जबकि, इस एक्ट्रेस ने अपने छोटे से करियर में तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार जीता है और एक्टिंग के मामले में अपनी समकालीन एक्ट्रेस से आगे हैं। क्वीन, फैशन और तनु वेड्स मनू सीरीज की दोनों फिल्मों में कंगना ने अपने रोल में जान डाल दी थी! कंगना ने भी 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स' की रिलीज से पहले कहा था कि इस फिल्म में मैं जो रोल मैं कर रही हूँ, जानती हूँ कि इसे काफी पसंद किया जाएगा! आखिरकार जब फिल्म परदे पर आई तो न सिर्फ व्यवसायिक रूप से सफल रही बल्कि इसे कई पुरस्कार भी मिले।
  कंगना को फिल्म 'फैशन' में सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री व फिल्म 'क्वीन' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है। राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने पर तो उत्साहित कंगना ने अपने उत्साह का कारण पुरस्कार के बजाए ये बताया था कि मैं इसलिए ज्यादा रोमांचित हूं, क्योंकि मेरे साथ अमिताभ बच्चन को भी सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया गया। ‘पीकू’ में श्रेष्ठ अभिनय के लिए अमिताभ बच्चन को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया है। 'क्वीन' में अभिनय के लिए पहले सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का 'फिल्म फेयर' और फिर राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिलने के बाद से ही कंगना को नंबर वन अभिनेत्री माना जाने लगा है। कंगना को बॉलीवुड की उन एक्ट्रेस में भी गिना जाता है, जो अपने बलबूते पर किसी फिल्म को हिट कराने का माद्दा रखती हैं, वह भी अभिनय के दम पर।
  रितिक रोशन से जुबानी जंग के अलावा कंगना अपने पूर्व बॉयफ्रेंड अध्ययन सुमन को लेकर भी खासी चर्चित रही है। अध्ययन ने कंगना के सनकीपन और बर्ताव को लेकर कई आरोप लगाए थे। यहाँ तक कहा था कि वे काला जादू करती हैं। दोनों काफी करीब थे, पर अचानक न जाने क्या हो गया कि दोनों के बीच दूरियां आने लगीं और फिर दोनों का ब्रेकअप हो गया! दोनों के ब्रेकअप की कहानी किसी रहस्य से कम नहीं थी! इसके अलावा कंगना के एटीट्यूट को लेकर भी कई बार विवाद उभरे हैं। खुद के बारे में कंगना रनौत का कहना है कि उन्हें एक स्वतंत्र और मजबूत महिला माना जाता है, इसलिए युवतियां खुद को उनसे जोड़कर देख पाती हैं। मेरे स्टाइल की समझ का इसलिए अनुसरण किया जाता हैं कि मेरे ड्रेसिंग सेंस से प्रतिबिंबित होने वाली आधुनिक सोच से वे खुद को जोड़ पाती हैं।
   आशा चंद्रा से प्रशिक्षण लेकर 2005 में कंगना ने फिल्मों में अपना भाग्य आजमाया। एक कैफे में निर्देशक अनुराग बसु की उन पर नजर पड़ी और उन्होंने कंगना को अपनी फिल्म 'गैंगस्टर' का लीड़ रोल का प्रस्ताव दिया, जिसे कंगना ने स्वीकार कर लिया। फिल्म चल निकली और इसी के साथ कंगना भी बॉलीवुड में छा गई! इसके बाद कंगना की 'वो लम्हे' आई, जो हिट रही। कंगना ने अनुराग बसु की 'लाइफ इन ए मेट्रो' में भी काम किया, जिसमें उनके काम को समीक्षकों की अच्छी सराहना मिली। 2008 में आई मधुर भंडारकर की 'फैशन' ने तो कंगना के दिन फेर दिए! इस फिल्म में कंगना के साथ प्रियंका चोपड़ा भी थीं। फिल्म में अपनी भूमिका के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहअभिनेत्री का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला।
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Wednesday 30 November 2016

आलिया को याद करो तो उसकी 'एक्टिंग' से

- एकता शर्मा 

  जिसने आलिया भट्ट की नई फिल्म 'डियर जिंदगी' नहीं देखी, उन्हें जरूर देखना चाहिए। इसलिए नहीं कि फिल्म बहुत अच्छी है या उसके बहुत बिजनेस करने की उम्मीद है! ये पूरी तरह आलिया भट्ट की फिल्म है। इसमें कोई रोमांस नहीं, कहानी में साजिश नहीं, कोई खलनायक भी नहीं है! लेकिन, फिर भी फिल्म बांधकर रखती है! सिर्फ इसलिए कि इसमें आलिया ने श्रेष्ठ अभिनय किया है। गौरी शिंदे ने जब आलिया को कायरा के किरदार के लिए चुना होगा, तब क्या सोचा होगा, ये सोचने वाली बात है! नए ज़माने की इस एक्ट्रेस ने जो बेहतरीन अभिनय किया है, वो काबिले तारीफ है।    
     फिल्म में आलिया की परफॉर्मेन्स को देखकर कहा जा सकता है कि वे अपनी समकालीन एक्ट्रेस मेंश्रेष्ठ हैं। उनके पास एक्सप्रेसशंस की कमी नहीं! फिल्म में कायरा के किरदार में इतने रंग हैं, जिन्हें समेटना इस उम्र की किसी अभिनेत्री के लिए आसान नहीं था। फिल्म में आलिया का कैरेक्टर जितना उलझा हुआ है, उसे सुलझाना मुश्किल बात थी। ये कैरेक्टर कभी हंसाता हैं, कभी आँखे गीली भी कर देता है तो कभी सोचने मजबूर कर देता है कि ये तो हमारी कहानी है! सिनेमा हॉल में बैठे हर दर्शक को ये अपने आसपास के किसी परिवार से जोड़ती है। कहानी और माहौल के हिसाब से आलिया के चेहरे पर कहानी की डिमांड के मुताबिक क्यूटनेस अौर इमोशन उभरते है। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि नए ज़माने की एक्ट्रेस में आलिया का जवाब नहीं! अभी तक अालिया भट्ट को ग्लैमरस रोल के अलावा हाइवे, उड़ता पंजाब में अभिनय के लिए जाना जाता है। लेकिन, इस अभिनेत्री ने साबित कर दिया कि अभिनय के मामले में वे किसी से कम नहीं।
  बॉलीवुड की नई पीढ़ी और फ्रेश टैलेंट्स में जो नाम सबसे पहले लिया जाता है वो आलिया ही है। अपनी पहली फिल्म 'स्टूडेंट ऑफ़ द ईयर' से अपना करियर शुरू करने वाली आलिया ने अपने चंद साल के करियर में और 23 साल के उम्र में वो ऊंचाई पाई, जो पाने में कलाकारों की पूरी जिंदगी निकल जाती है। भले ही 'उड़ता पंजाब' को विवादों के बाद भी सफलता नहीं मिली हो, पर फिल्म में बिना मेकअप वाली आलिया के काम को दर्शकों ने जमकर सराहा! 'हाइवे' में भी इस एक्ट्रेस ने अपह्त का किरदार निभाया था, जो उसी से प्यार करने लगती है, जो उसका अपहरण करता है। ये आलिया की दूसरी ही फिल्म थी। लेकिन, वे तारीफ की हकदार बनी हैं। उन्होंने अपने हिस्से का काम बखूबी से किया था। 
  सोशल मीडिया पर कुछ दिनों पहले आलिया भट्ट के नाम पर जनरल नॉलेज से जुड़े जोक्स की बहार आई थी। जोक्स के जरिए दर्शाया गया था कि आलिया का सामान्य ज्ञान कमजोर है। हो सकता है ये उनकी पब्लिसिटी का कोई स्टंट हो, लेकिन वो अनाड़ी नहीं है। आलिया अच्छी तरह जानती है कि करियर में आगे कैसे बढ़ाना है और समकालीन एक्ट्रेस को कैसे मात देना है। आलिया को भले ही देश  प्रधानमंत्री का नाम नहीं पता हो, पर वे बॉक्स ऑफिस पर नजर रखती है। उसे पता है कि कौन सी फिल्म चली और कौनसी नहीं! आलिया अपनी समकक्ष अभिनेत्रियों पर निगाह रखती हैं। आज दीपिका पादुकोण, कैटरीना कैफ, प्रियंका चोपड़ा उनसे आगे हैं! लेकिन परिणति चोपड़ा, श्रद्धा कपूर, कृति सेनन को आलिया अपने समकक्ष मानती हैं। कुछ ही समय में वे दर्शकों की पंसदीदा अभिनेत्री बन गई! आलिया ने सिद्धार्थ मल्होत्रा, वरुण धवन और अर्जुन कपूर जैसे अभिनेताओं के साथ फिल्में की हैं। 
 बॉलीवुड के सबसे आधुनिक और खुलेपन के विचारों वाले महेश भट्ट परिवार की इस बेटी को अभिनय विरासत में मिला है। यही कारण है कि इस परिवार के सभी बच्चे भी अपने आपमें अलग हैं। आलिया का आइडिया है कि उन पर व उनकी दोनों बहनों की जिंदगी पर आधारित फिल्म बनना चाहिए। यदि तीनों भट्ट बहनों पर फिल्म बनाई जाए, तो यह बहुत बढिय़ा कहानी होगी। वे, शाहीन और पूजा बिल्कुल अलग-अलग शख्सियत हैं। ऐसे में जब हमें मिलाया जाएगा, तो यह बहुत मजेदार होगा। फिल्म की शैली ड्रामा व हास्य वाली होगी। खैर, ये तो हाइपोथीटिकल बात है, पर 'डियर जिंदगी' को जब भी याद किया गया, उसका कारण गौरी शिंदे का डायरेक्शन या शाहरुख़ खान भले न हों, आलिया भट्ट का अभिनय जरूर होगा। 
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गानों में भी होता है एक अजीब सा नशा

- एकता शर्मा 

    इन दिनों दो फ़िल्मी गानों का जलवा है! एक है 'बेफिक्रे' का नशे सी चढ़ती है और दूसरा है 'दंगल' का गीत बापू सेहत के लिए तू तो हानिकारक है'। दोनों ही फ़िल्में अभी रिलीज नहीं हुई, पर इन दोनों गानों ने फिल्म को अभी से चर्चित कर दिया! ये फ़िल्में कितनी सफल होती हैं, ये बात अलग है पर दोनों गानों ने माहौल तो बना ही दिया। दरअसल, ये अकसर होता है। दो-तीन महीनों में कोई न कोई गाना ऐसा सुनाई दे जाता है, जो लोगों की जुबान पर चढ़ जाता है। याद किया जाए तो इससे पहले 'सुल्तान' का गीत 'जग घूमिया तेरे जैसा न कोई' लोगों की जुबान पर चढ़ा! माना जाता है कि अगर फिल्म के गीत हिट हो जाते हैं, तो फिल्म भी चल पड़ती है! पर, वक़्त के साथ कई बार ये कारण सही नहीं निकला! ऐसी कई फिल्मों के नाम याद किए जा सकते हैं, जिनके गीतों ने धूम मचाई, पर फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर पानी भी नहीं माँगा! 

  फिल्म ‘आशिकी-2' के गीतों को भी बहुत पसंद किया गया! वास्तव में ये भी एक प्रयोग ही था! इस फिल्म का संगीत किसी एक संगीतकार ने नहीं, बल्कि नए 5 संगीतकारों की एक टीम दिया था! जबकि, अमित त्रिवेदी ने देव डी, और वेकअप सिड जैसी फिल्मों में संगीत देकर अपनी एक पहचान बना ली थी! फिल्म संगीत के मामले में महिलाओं का नाम कम ही आता है। उषा खन्ना के अलावा किसी का नाम बरसों तक याद भी नहीं आया! लेकिन, अब संगीत में महिलाएं भी सामने आ रही है। स्नेहा खानविलकर को ‘गैंग ऑफ वासेपुर' से ‘वुमनिया' के संगीत के लिए पहचाना जाता है। स्नेहा बॉलीवुड की चौथी महिला संगीतकार हैं। उनसे पहले एक्ट्रेस नर्गिस कि माँ जद्दन बाई, सरस्वती देवी और उषा खन्ना रही हैं। स्नेहा का कहना हैं कि महिलाएं भी इस क्षेत्र बहुत आगे आ चुकी हैं! अब संगीत में पुरुषों का एकाधिकार नहीं है। वे ओए लकी लकी ओए, लव,-सेक्स और धोखा और भेजा फ्राइ-2 में भी संगीत दे चुकी हैं। ख़ास बात ये है कि इनकी पृष्ठभूमि छोटे शहर-कस्बे और गांव ही रहे हैं। 
  बदलते समाज के साथ फिल्म संगीत भी बदलता है! कुछ बदलते संगीत के साथ समाज की पसंद बदलती जाती है। लेकिन, माना जाता है कि सच्चा संगीतकार वही है, जो सुनने वालों की पसंद को अपने प्रयोगों से बदल दे! क्योंकि, आज दुनियाभर के संगीत को सुनने तक सभी की पहुंच है! टेक्नोलॉजी ने सबकुछ आसान कर दिया! लोग प्रयोगों के लिए, कुछ नया सुनने के लिए भी तैयार हैं! यही कारण है कि आज के समय को हिंदी फिल्म संगीत का सबसे रोचक दौर कहा जा सकता है! आजादी के पहले पहले के संगीतकारों में कई पाकिस्तानी गायक शामिल थे! ये वही थे, जो पुराने संगीत घरानों से जुड़े थे! उनके संगीत में उर्दू का प्रभाव था! आज वही काम राहत फतेह अली खान और शफकत अमानत अली जैसे कलाकारों के फिल्म संगीत से जुड़ने से उर्दू और उन घरानों से रिश्ता रखने वाले गायक मिले हैं। यहीं संगीत ने एक तरह की करवट भी ली है। हिंदी फिल्मों के गीत दुनियाभर में सुने जाते हैं।
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समानांतर सिनेमा की अपनी ही दुनिया

- एकता शर्मा 

   फिल्मकारों को जब लगता है कि एक जैसी फ़िल्में बनाकर वे टाइप्ड हो गए तो कुछ नया करने की कोशिश करते हैं। ऐसा ही नया प्रयोग है 'कला' या 'समानांतर सिनेमा।' इसे व्यावसायिक सिनेमा की मुख्यधारा से हटकर एक नए विकल्प के रूप में देखा जाता है। यह भारतीय सिनेमा का एक नया आंदोलन है, जिसे गंभीर विषय, वास्तविकता और नैसर्गिकता के साथ जोड़कर माना गया है। इस तरह के सिनेमा में एक नए अंदाज में सामाजिक और राजनीतिक घटनाक्रमों को सेल्युलाइड पर उतारने की कोशिश की जाती है। जापान और फ्रांस के सिनेमा में यर्थाथवादी दृष्टिकोण की फिल्मों को मिली सफलता से प्रेरणा लेकर सबसे पहले बंगाली सिनेमा में समानांतर सिनेमा का प्रवेश सत्यजीत रे, मृणाल सेन और ऋत्विक घटक जैसे फिल्मकारों के जरिए हुआ! इसके बाद हिन्दी सिनेमा में इस शैली की फ़िल्में बनना शुरू हुई! 
  1950 से 1960 के दौरान बुध्दिजीवी फिल्मकार तथा कथाकार उस दौर की संगीतमय फिल्मों से हताश हो चुके थे। इसका मुकाबला करने के लिए उन्होंने एक ऐसी शैली विकसित की, जो अपने कलात्मक रूप के कारण 'कला फिल्म' कहलाई। इस जमाने की अधिकांश फिल्मों में सरकारी पैसा लगा था, ताकि कला फिल्मों को पोषित किया जा सके! इन नव-यर्थाथवादी फिल्मकारों में सत्यजीत रे का नाम सबसे ऊपर आता है। उनके बाद इस परम्परा को श्याम बेनेगल, मृणाल सेन, अदूर गोपालकृष्णन तथा गिरीश कासारावल्ली ने आगे बढ़ाया। सत्यजीत की सर्वाधिक प्रसिध्द फिल्मों में पाथेर पांचाली (1955), अपराजितो (1956) द वर्ल्ड आफ अप्पू (1959) याद रखने वाली फ़िल्में हैं। 
  कला फिल्मों का दर्शक एक विशेष वर्ग होता है। सीमित दर्शकों के कारण इन फिल्मों की व्यावसायिक सफलता संदिग्ध मानी गई है। लेकिन, इसका मतलब यह नहीं कि कला फिल्मों का निर्माण घाटे का सौदा है! ऐसी कई कला फिल्में हैं, जिन्होंने बाक्स ऑफिस पर पैसा भी बटोरा है। बिमल राय की 'दो बीघा जमीन' (1953) ने समीक्षकों की प्रशंसा के साथ व्यावसायिक सफलता भी प्राप्त की थी। इसे कॉन फेस्टिवल (1954) में अंतर्राष्ट्रीय सम्मान भी मिला। 1970 और 1980 के दौरान समानांतर सिनेमा ने जमकर विकास किया। श्याम बेनेगल की फिल्म 'अंकुर' को मिली व्यापक सफलता के बाद इस शैली के फिल्मकारों का हौंसला बुलंद हुआ! इसी दौर में शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, रेहाना सुल्तान, अमोल पालेकर, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, अनुपम खेर, कुलभूषण खरबंदा, पंकज कपूर, गिरीश कर्नाड के साथ समय-समय पर रेखा और हेमा मालिनी का भी सानिध्य मिला।
  2000 के बाद एक बार फिर समानांतर सिनेमा थोड़े बदले अंदाज में लौट आया। इस दौर में प्रायोगिक फिल्मों के नाम से नए प्रयोग होने लगे। मणिरत्नम की दिल से (1998) और युवा (2004), नागेश कुकनूर की तीन दीवारें (2003) और डोर (2006), सुधीर मिश्रा की हजारों ख्वाहिशें ऐसी (2005), जान्हु बरूआ की मैने गांधी को नहीं मारा (2005), नंदिता दास की फिराक (2008) ओनिर की माय ब्रदर निखिल (2005) और बस एक पल (2006), अनुराग कश्यप की देव डी (2009) तथा गुलाल (2009) पियूष झा की सिकन्दर ( 2009 ) और विक्रमादित्य मोटवानी की उडान (2009) से एक बार फिर समानांतर सिनेमा का अंकुरण होने लगा है। हाल ही में सफलता के नए कीर्तिमान बनाने वाली फिल्म राजनीति, आरक्षण, कहानी और पिंक को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है।
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त्यौहार पर रिलीज़, फिल्म का हिट फार्मूला नहीं!

- एकता शर्मा 


  त्यौहारों को किसी भी फिल्म की सफलता का ब्लैंक चैक माना जाता है। यही कारण है कि दिवाली, ईद, क्रिसमय पर फ़िल्में रिलीज़ करने की होड़ सी लग जाती है। क्योंकि, लोगों को फुरसत के वक़्त में फिल्म दिखाकर कैसे बहलाया जाए, ये सिर्फ फिल्मकार ही जानते हैं। लेकिन, ये फार्मूला धीरे-धीरे फेल होता नजर आ रहा है। क्योंकि, इस बार दिवाली पर रिलीज़ हुई दोनों फिल्में 'शिवाय' और 'ए दिल है मुश्किल' दर्शकों के दिल पर नहीं चढ़ी! बॉक्स ऑफिस के आंकड़ें भी यही इशारा करते हैं। इसलिए कि आज फिल्म की सफलता को उसके सौ, दो सौ करोड़ या उससे ज्यादा की कमाई से आकलित किया जाता है। जबकि, एक वक़्त था जब फिल्म के सिल्वर, गोल्डन और प्लेटिनम जुबली मनाने को ही फिल्म का हिट होना समझा जाता था! उस समय फिल्म ने कितनी कमाई की, इससे दर्शकों का कोई सरोकार नहीं होता था, पर आज है! 
  औसत रूप से देखा जाए तो फ़िल्मी दुनिया की सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्म 1975 में आई 'जय संतोषी मां' ही मानी जाएगी! इस धार्मिक फिल्म ने संभवतः आजतक प्रदर्शित करोडों की लागत वाली सभी फिल्मों को पीछे छोड रखा है। इस फिल्म की सफलता का आश्चर्यजनक आकलन इसलिए किया गया कि 'जय संतोषी माँ' के निर्माण में कुछ लाख रूपए लगे थे और इसके वितरकों की कमाई का आंकड़ा 5 करोड रूपए तक पहुंचा था। लागत और कमाई की तुलना में ये 100 गुना ज्यादा था! इस नजरिए से आज 50-60 करोड में बनने वाली फिल्म को यदि 'जय संतोषी  माँ' का रिकॉर्ड तोडना है तो उसे 5 से 6 हज़ार करोड़ की कमाई करना पड़ेगी, जो संभव नहीं है।
 इस अनुपात से दूसरी सुपरहिट फिल्म है, 1989 में प्रदर्शित 'मैने प्यार किया।' जिसने अपनी लागत से लगभग 15 गुना कमाई का रिकॉर्ड बनाया था। इसके बाद भी यह फिल्म 'जय संतोषी माँ' से पीछे है। बॉलीवुड के इतिहास में 'मैंने प्यार किया' के अलावा सात और ऐसी फिल्में हैं, जिन्हें ऑल टाइम ब्लाक-बस्टर माना जाता है। इन फिल्मों ने सारे रिकार्ड तोड़कर ऐसे रिकार्ड बनाए हैं, जिन्हें छूना आज की फिल्मो के लिए मुश्किल है। 1975 में बनी शोले को हिन्दी फिल्म इतिहास की यह एक ऐसी फिल्म है जो अपने प्रदर्शन के समय तो औसत बिजनेस कर रही थी! लेकिन, एक सप्ताह के बाद जब इसे माउथ पब्लिसिटी मिली, तो इसे देखने के लिए थिएटरों में भीड़ उमड़ पड़ी। यह फिल्म अपने प्रदर्शन के तीन दशक बाद आज भी जब दर्शकों के सामने आती है, तो दर्शक बंध सा जाता हैं।
  बॉक्स आफिस पर रंग ज़माने वाली यादगार फिल्मों मे संगम, उपकार, बॉबी, रोटी कपडा और मकान, क्रांति, कुली, राम तेरी गंगा मैली, कभी-कभी, राजा हिन्दुस्तानी, कुछ-कुछ होता है, कभी ख़ुशी कभी गम, धूम-2, मुन्नाभाई एमबीबीएस, दबंग और दबंग-2, बॉडीगार्ड, सिंघम, बरफी आदि फ़िल्में भी हैं। लेकिन, ये सभी उन 8 मेगा ब्लाक-बस्टर से नीचे हैं। इसलिए कि कम निर्माण लागत के मुकाबले इन फिल्मों ने पैसा तो ज्यादा बटोरा, लेकिन दर्शक नहीं बटोरे! शायद 'शिवाय' और 'ए दिल है मुश्किल' का हश्र देखकर फिल्मकार सीखेंगे कि फिल्म अच्छी पटकथा से चलती है, कोई और फार्मूला उसे सफल नहीं बना सकता!
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Monday 31 October 2016

परदे पर कम ही मनी दिवाली!

एकता शर्मा 

    हिंदी फिल्मों के कथानक में त्यौहारों को कुछ ख़ास ही महत्व दिया जाता है। फिल्मों में सबसे ज्यादा मनाई जाती है होली, जन्माष्टमी और ईद। हिंदूओं का सबसे बड़ा त्यौहार होते हुए भी कथानक में दिवाली का प्रसंग कम ही देखने को मिला! परदे पर दिवाली तभी दिखाई देती है, जब उसे फिल्म में कहीं पिरोया गया हो! दिवाली को लेकर कुछ फ़िल्में भी बनी, पर इनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक ही रही! 

  बदलती दुनिया में दिवाली मनाने का तरीका बदला और उसके साथ ही फिल्मों में भी यही बदलाव दिखाई दिया। दिवाली से जुड़े गीत और सीन अहम प्रसंग की तरह शामिल रहे। कई फिल्मों में महत्‍वपूर्ण दृश्‍य दिवाली की पृष्‍ठभूमि में भी फिल्‍माए गए। कई फिल्मों में गीतों माध्यम से दिवाली का उजियारा, खुशियां, भव्‍यता और सामूहिक परिवार की भावना स्‍पष्‍ट नज़र आई। ब्‍लैक एंड व्‍हाइट के दौर से लेकर आज की रंगीन फिल्‍मों तक में दिवाली केंद्रीय भाव की तरह कायम रही है, लेकिन ऐसा बहुत कम ही हुआ!  
   ज्ञात सिनेमा इतिहास के मुताबिक जयंत देसाई ने 1940 में 'दिवाली' नाम से पहली बार फिल्म बनाई थी! करीब पंद्रह साल बाद 1955 में बनी 'घर घर में दिवाली' बनी, जिसमें गजानन जागीरदार ने काम किया था। फिर एक लंबा अरसा गुजरा और 1965 में दीपक आशा की फिल्म 'दिवाली की रात' आई! आदित्य चोपड़ा ने 2000 में बनाई 'मोहब्बतें' के कथानक में दिवाली के जरिए फिल्म के पात्रों को एक जरूर किया, पर इसके आगे प्रसंग बदल गया था। 1998 में बनी कमल हासन की फिल्म 'चाची-420' में भी दिवाली का प्रसंग था, जब कमल हसन की बेटी पटाखे से घायल हो जाती है। विनोद मेहरा और मौशमी चटर्जी की 1972 में आई 'अनुराग' में भी दिवाली के कुछ दृश्य दिखाई दिए थे।
    अमिताभ बच्चन की सुपर हिट फिल्म 'जंजीर' जरूर ऐसी फिल्म है, जिसकी शुरुआत ही दिवाली से होती है। पटाखों के शोर में अजीत एक परिवार को ख़त्म कर देता है! लेकिन, एक बच्चा छुपकर सब देखता है और क्लाइमैक्स में वो अजीत से बदला ले लेता है। इसके अलावा कभी किसी फिल्म में दिवाली कभी कहानी से नहीं जोड़ी गई! जब से ओवरसीज में हिंदी सिनेमा के दर्शक बढे हैं, दिवाली जैसे त्यौहारों को फिल्मकारों ने सीमित कर दिया। कई फिल्मों में दिवाली को अहमियत भी दी गई, तो उन्हें गीतों तक ही! याद किया जाए तो वर्तमान दौर में शिर्डी के सांई बाबा, हम आपके हैं कौन, मुझे कुछ कहना है, मोहब्बतें, कभी खुशी कभी गम, आमदनी अठ्ठन्नी खर्चा रूपैया और चाची-420 ही ऐसी फिल्में रहीं! अमिताभ बच्चन ने अपनी फिल्म कंपनी एबीसीएल के तहत 2001 में 'हैप्पी दिवाली' बनाने की घोषणा की थी! इसमें अमिताभ के अलावा आमिर खान और रानी मुखर्जी भी थे! फिल्म की शूटिंग भी शुरू हुई, लेकिन बाद में किसी कारण से फिल्म लटक गई, तो फिर आगे ही नहीं बढ़ सकी!
  देखा गया है कि फिल्मकारों ने पिछले कुछ सालों से दिवाली के दृश्यों और गानों से किनारा ही कर लिया! एक तरह से कथानक से त्यौहार गायब ही हो गए।विषयवस्तु में भी बदलाव आता दिखाई देने लगा! दिवाली को पृष्ठभूमि  के कुछ गानों जरूर प्रसिद्धि मिली। गोविंदा की फिल्म 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया' का गाना 'आई है दिवाली ... सुनो जी घरवाली' दिवाली को ध्यान में रखकर बना था। 1961 में आई 'नज़राना' में भी लता मंगेशकर का गाया दिवाली गीत 'एक वो भी दिवाली थी,  दिवाली है' था। 1977 में आई मनोज कुमार की फिल्म 'शिर्डी के सांई बाबा' का दीवाली गीत 'दीपावली मनाये सुहानी' अब तक का सर्वाधिक लोकप्रिय दिवाली गीत माना जाता है। करण जौहर की 2001 में आई 'कभी खुशी कभी गम' का टाइटल गीत ही दीवाली पर केंद्रित था। ब्लैक एंड व्हाइट युग की फिल्म 'खजांची' के 'आई दीवाली आई, कैसी खुशहाली लाई' भी अनोखे अंदाज का दिवाली गीत था। 'पैग़ाम' में मोहम्‍मद रफ़ी का गाया और जॉनी वाकर पर फिल्माया दिवाली गीत वास्‍तव में यह कॉमेडी गाना था। इस सबके बावजूद दूसरे त्यौहारों मुकाबले सिनेमा के परदे पर दिवाली के पटाखे कम ही फूटते हैं।
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Tuesday 25 October 2016

परदे से गायब किसान का दर्द!

- एकता शर्मा 

  हिंदी सिनेमा में भी किसान एक अहम विषय रहा है। इस पर कई फिल्में बनीं। रोटी, माँ, मदर इंडिया, दो बीघा जमीन, उपकार, खानदान और 'गंगा-जमुना' से लेकर 'लगान' तक सिनेमा में किसान की जिंदगी फिल्माई जाती रही हैं। लेकिन, जब से फिल्मों में कॉरपोरेट कल्चर का तड़का लगा है, 'पीपली लाइव' तक आते-आते किसान का दर्द भी फ़िल्मी मसाला बन गया! हिंदी सिनेमा में दशकों तक जमीन, किसान और मजदूर पर फिल्में बनती रहीं! लेकिन, आर्थिक उदारवाद के बाद हमारी जीवनशैली इतनी बदली कि गांव और किसान तो दूर, फिल्मों से दिवाली, होली जैसे त्यौहार भी गायब हो गए! 
     पचास और साठ के दशक में किसान और गांव की पृष्ठभूमि पर कई फ़िल्में बनी। ज्यादातर फिल्मों में साहूकार और उसके पाले हुए गुंडे पटकथा का स्थाई हिस्सा होते थे! कर्ज वसूलने के लिए ये किसान की फसलों में आग लगा देते थे। मजबूर किसान की बेटी को उठा ले जाते थे। लंबे समय तक यही पटकथा घुमा फिराकर फिल्माई जाती रही! महबूब खान द्वारा निर्देशित 'मदर इंडिया' तो एक औरत के किसानी संघर्ष और त्रासदी की महागाथा थी। इस फिल्म में गाँव की महाजनी सभ्यता की क्रूरता और अत्याचार से लड़ती औरत की मार्मिक कहानी कही गई थी। बाबूराव पेंटर की ‘साहूकारी पाश’ भी इसी तरह की ग्रामीण फिल्म थी! सत्यजित रे ने ‘पाथेर पांचाली’ बनाकर गांव और किसान के दर्द  दुनिया को दिखाया। ऋत्विक घटक की फिल्मों ने भी हाशिए पर बैठे किसानों के लिए कुछ ऐसा ही किया! बिमल राय ने भी ‘दो बीघा जमीन’ बनाई! महबूब खान से लेकर दिलीप कुमार, फिर नरगिस, राजकपूर, सुनील दत्त और मनोज कुमार, अमिताभ बच्चन ने भी गांव-किसान को महत्‍व दिया।   
   प्रेमचंद की कहानी 'हीरा-मोती' के माध्‍यम में भी किसान का दर्द बताने की पहल हुई थी। तब किसानों को साहूकारी पंजे में जकड़कर अपने ही खेतों पर बंधुआ बनाकर काम करवाना जमींदारी की पहचान बन चुकी थी। 'हीरा मोती' में फिल्मकार ने सामंती शोषण के इसी चक्र के खिलाफ आवाज उठाई थी। सआदत हसन मंटो की कहानी ‘किसान कन्या’ पर ख्वाजा अहमद अब्बास ने ‘धरती के लाल’ बनाई! बिमल राय की ‘दो बीघा जमीन’ भी सराही गई! 'गोदान' के बाद यदि किसानों की व्यथा कहीं अपने भयावह रूप में सामने आई, तो वह इस फिल्म में देखने को मिली थी। बलराज साहनी और निरूपा राय के बेहतरीन अभिनय ने इस फिल्म को और अधिक ऊँचाई दी थी। आज के दौर में आई अनुषा रिजवी की फिल्म 'पीपली लाइव' में विवश किसान की आत्महत्या को महिमा मंडित करने पर व्यंग्य था। मीडिया चैनलों, पत्रकारों तथा राजनेताओं की हास्यास्पद हरकतों पर ये तीखा व्यंग्य था। यह दिखाने की कोशिश की गई थी कि टीआरपी की होड़ में समाचार चैनल किस हद तक जा सकते हैं।  
  आशुतोष गोवारिकर की 'लगान' में विक्टोरिया युग के औपनिवेशिक भारत में जारी लगान प्रथा का कथानक था। इसके माध्यम से आशुतोष ने गुलाम भारत में लगान व्यवस्था से त्रस्त किसान की विवशता का चित्रण करने की कोशिश की थी। फिल्म के संवादों में अवधी, ब्रज तथा भोजपुरी का अद्भुत सम्मिश्रण था। 'मदर इंडिया' के बाद यह फिल्म ऑस्कर अवार्ड के लिए भारत से विदेशी फिल्म श्रेणी में भी नामित की गई थी।
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Sunday 2 October 2016

'गरबा' और 'डांडिया' से ग्लैमर का तड़का

- एकता शर्मा 
  नवरात्रि में देवी प्रतिमा के सामने होने वाला गुजरात का परंपरागत लोक नृत्य 'गरबा' और 'डांडिया' कब फिल्मों के परदे पर पहुँच गया, पता ही नहीं चला! फिल्मों में इस चलन के बारे में कोई दावा तो नहीं किया जा सकता! पर, 70 के दशक तक की फिल्मों में ये कम ही दिखाई दिया! धार्मिक गीत तो ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों में भी होते थे, पर उसमें गरबा या डांडिया का तड़का बाद में लगा! 'सरस्वती चंद्र' का नूतन पर फिल्माया गीत 'मैं तो भूल चली बाबुल का देस' जरूर गरबे का रंग लिए था। दरअसल, परदे पर डांडिया या गरबा गीतों को भक्ति, मोहब्बत और ग्लैमर का प्रतीक माना जाता हैं। इस तरह के गीतों को फिल्माने में बड़े केनवस का इस्तेमाल होता है। सैकड़ों जूनियर डांसरों के बीच भारी-भरकम कपडे और गहने इसकी खासियत होते। लेकिन, ये न तो विशुद्ध डांडिया होता है, न गरबा! वास्तव में अधिकांश फिल्मों में इन दोनों नृत्य शैलियों का घुलामिला रूप होता है। 
   बॉलीवुड के हर बड़े एक्टर  एक्ट्रेस ने परदे पर डांडिया किया है! अमिताभ बच्चन और रेखा पर फिल्म 'सुहाग' में 'नाम रे सबसे बड़ा तेरा नाम' फिल्माया गया था। इसमें भक्ति के साथ फिल्म का अहम् मोड़ भी था! 'काई पो चे' का गीत 'परी हूँ मैं ...' भी गरबा पंडालों में सबसे ज्यादा बजने वाला गीत है। 'ब्राइड एंड प्रेज्यूडिस' में ऐश्वर्या रॉय 'डोला डोला ... ' पर थिरकी थी। 'मिर्च मसाला' फिल्म में भी गरबा शैली का एक डांस स्मिता पाटिल, दीप्ति नवल और सुप्रिया और रत्ना पाठक पर फिल्माया था। 'अवतार' में ‘चलो बुलावा आया है ...' का आज भी हर कोई दीवाना है। 'जय संतोषी माँ' के गीत 'मैं तो आरती उतारूं रे ... ' भक्‍तों की पहली पसंद है। ऐसे गीत दर्शकों की धार्मिक भावनाओं के लिए आइटम के तौर पर फिल्माए गए हैं। 
 आमिर खान ने भी 'लगान' में ग्रेसी सिंह के साथ गरबा शैली में 'राधा कैसे न जले ... ' पर गरबा किया था। यह गीत आमिर और ग्रेसी सिंह के बीच मनुहार का चित्रण था। आमिर खान तो 'लव लव लव' में जूही चावला के साथ 'डिस्को डांडिया ... ' पर थिरके थे। 'आप मुझे अच्छे लगाने लगे' में रितिक रोशन और अमीषा पटेल के साथ गरबा नृत्य पर थिरके थे। 'मैं प्रेम की दीवानी हूँ' में करीना कपूर स्टेज पर रितिक रोशन के लिए 'बनी बनी मैं तो बनी ... ' गीत पर गरबा करते हुए प्यार का इज़हार करती है। 'प्रतिकार' फिल्म के 'चिट्ठी मुझे लिखना ... ' गीत को डांडिया शैली में अनिल कपूर और माधुरी दीक्षित के साथ फिल्माया था।
  दक्षिण की कई फिल्मों में भी डांडिया और गरबा का मिला-जुला रूप दिखाई दिया! जबकि, उस इलाके में इस लोक नृत्य जानने वाले कम। 'कांधलर धिनम' (वैलेंटाइन डे) में गरबा और डांडिया था। इस फिल्म को हिंदी में 'दिल ही दिल में' नाम से डब करके रिलीज़ किया गया! इसमें 'चाँद उतर आया है ज़मीन पे गरबे की रात में' सोनाली बेंद्रे और कुणाल सिंह पर फिल्माया था। जबकि, संजय लीला भंसाली की फ़िल्में गुजराती पृष्टभूमि वाली होती हैं, इसलिए उनमें गरबा या डांडिया एक आइटम सॉंग जैसा होता है। 'हम दिल दे चुके सनम' के 'ढोली तारो ढोल बाजे' में सलमान खान और ऐश्वर्या राय के बीच का पनपते रोमांस को उभारा गया था! ' गोलियों की रासलीला : रामलीला' के 'नगाडा संग ढोल बाजे' में दीपिका पादुकोण के घेरदार लहंगे ने डांस को नया कलेवर दिया था। सलमान खान समेत बॉलीवुड के कई बड़े स्टार फिल्मों में डांडिया और गरबा तो कर चुके हैं।लेकिन, शाहरुख खान पर अभी तक गरबा या डांडिया शैली का कोई डांस नहीं फिल्माया गया! लेकिन, शायद आने वाली फिल्म 'रईस' में वे भी गरबा करते नज़र आएंगे। 
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Thursday 29 September 2016

जो दर्शकों का गम भुला दे, वही फिल्म सफल!

- एकता शर्मा 

  दर्शकों की पैसा वसूल फिल्म कौनसी होती है? इस सवाल का सबसे सीधा जवाब है, वो फिल्में जो दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करे और उनके सारे गम 3 घंटे के लिए भुला दे! मतलब स्पष्ट है कि दर्शकों को कॉमेडी फ़िल्में ही सही और सार्थक मनोरंजन दे सकती है! यही कारण है कि जब भी कोई कॉमेडी फिल्म लगती है, दर्शक उसे हाथों हाथ लेते हैं। हॉउसफुल-3, ग्रेट ग्रैंड मस्ती और ए फ्लाइंग जट की सफलता इसी की निशानी है। देखा जाए तो हर तीन फिल्मों के बाद एक कॉमेडी फिल्म रिलीज होती ही है। हिंदी फिल्मों में एक दौर चलता है ट्रेंड का! जब कोई एक्शन फिल्म हिट होती है तो मारधाड़ वाली फिल्मों कि लाइन लग जाती है! प्रेम कहानी को दर्शक पसंद करते हैं तो यही दौर चल पड़ता है। लेकिन, कॉमेडी फ़िल्में ऐसी हैं, जिनका दौर कभी ख़त्म नहीं होता! बीच-बीच में जब भी कोई फिल्म हिट होती है, तो नई फिल्म का इंतजार शुरू हो जाता है। फिल्मों का इतिहास देखा जाए तो हर काल में कॉमेडी फ़िल्में ही सबसे ज्यादा पसंद की गई हैं। आज भी दर्शकों को ऐसी  फिल्मों का इंतजार होता है, जो उनके गम भुलाकर उन्हें तीन घंटे का स्वस्थ्य मनोरंजन दे सकें!  
     कॉमेडी कभी भी फिल्मों का मूल विषय नहीं रहा! ब्लैक एंड व्हाइट ज़माने से फिल्मों में कॉमेडियन एक ऐसा पात्र होता था, जो कहानी में सीन बदलनेभर लिए होता था। ये कभी फिल्म कि मूल कहानी से जुड़ा होता था, कभी अलग होता था! गोप, आगा और टुनटुन ऐसे ही कॉमेडियन थे! फिर आए, बदरुद्दीन उर्फ़ जॉनी वॉकर जिन्होंने अपनी कौम को नई पहचान दी और फिल्म में कॉमेडियन को अहम भूमिका में खड़ा कर दिया! लम्बे समय तक जॉनी वॉकर सिक्का चला! इसी दौर में किशोर कुमार ने भी 'चलती का नाम गाड़ी' और 'हाफ टिकट' जैसी फिल्मों से अपने जलवे दिखाए! लेकिन, फिर भी अच्छी कॉमेडी फ़िल्में आज भी उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं। कुछ फिल्मकारों ने जरूर अच्छी कॉमेडी फ़िल्में दी, जिन्हें आज भी दर्शक देखना पसंद करते हैं। सवाल उठता है कि अच्छी कॉमेडी फ़िल्म किसे कहा जाए? इसका एक ही जवाब है कि जिस फिल्म को हम अपनी ज़िन्दगी और उसकी उलझनों के जितना करीब पाते हैं, वही अच्छी कॉमेडी फिल्म होती है! एक दौर ऐसा भी आया जिसमें सेक्स को कॉमेडी फिल्मों का विषय बनाया जाने लगा! इंद्र कुमार ने 'ग्रैंड मस्ती' बनाकर इस विषय को छुआ! इस फिल्म बारे उनका दावा था कि ये हॉलीवुड की 'अमेरिकन पाई' और 'हैंगओवर' जैसी सेक्स कॉमेडी से आगे कि फिल्म है। लेकिन, अभी दर्शकों ने ऐसी फिल्मों के बारे में खुलकर राय नहीं दी है कि वे कॉमेडी में भी सेक्स कॉमेडी पसंद करेंगे या नहीं?
   याद कीजिए 1968 में आई 'पड़ोसन' को! ये ऐसी फिल्म थी, जिसे जितनी बार देखा जाए मन नहीं भरता! रोमांटिक कॉमेडी वाली ये फिल्म गंवार सुनील दत्त और मार्डन सायरा बानो के आसपास कॉमेडी के रंग बिखेरती है। 1972 में अमिताभ बच्चन की शुरूआती फिल्म 'बाम्बे टू गोआ' को भी फिल्में देखने वाले भूल नहीं पाते, जिसमें बस सफर में हास्य खोजा गया था! 1975 में बनी 'चुपके चुपके' भी ऐसी फिल्म थी, जिसमें अमिताभ बच्चन और धर्मेन्द्र ने कॉमेडी रिकॉर्ड बनाया था। इस फिल्म में नकली और बेढंगे हास्य के बजाए परिस्थितिजन्य से उपजा शिष्ट हास्य था। इस परम्परा को इसी साल आई 'छोटी सी बात' ने आगे बढ़ाया। दर्शकों को इस फिल्म में शिष्ट कॉमेडी नजर आई, जिसमें फूहड़ता और द्विअर्थी संवादों लिए कोई जगह नहीं थी! एक शर्मिला युवक अमोल पालेकर किस तरह अपनी सादगी से एक लड़की विद्या सिन्हा को प्रभावित करता है। इसी तरह का शिष्ट हास्य 1979 में आई फिल्म 'गोलमाल' में भी नजर आया! इसी को आधार बनाकर रोहित शेट्टी ने 'बोल बच्चन' बनाई, जिसने भी सराहा गया। कॉमेडी को नया रूप देने वाली 1981 में आई सईं परांजपे की फिल्म 'चश्मे बद्दूर' को भी भुलाया नहीं जा सकता। 2013 में इसी स्टोरी को नए कलाकारों के साथ डेविड धवन ने बनाया था। सई परांजपे की ही फिल्म 'कथा' ने अपने तरीके से खरगोश और कछुवे पुरानी कहानी को जिंदा किया था। 
  मनोरंजन का सही मतलब ये कॉमेडी फ़िल्में ही हैं, जिन्हें देखकर दर्शक अपना टाइम पास करता है। इंग्लिश फिल्म 'सेवन ब्राड फार सेवन ब्रदर्स' पर 1082 में बनी 'सत्ते पर सत्ता' फुल मनोरंजन का सबूत था। गुलजार की 'अंगूर' भी इसी के साथ आई, जिसमें संजीव कुमार और देवेन वर्मा की जोड़ी ने खूब गुदगुदाया था। इसी थीम पर ब्लैक एंड व्हाइट युग में किशोर कुमार 'दो दूनी चार' आ चुकी है। इस बात से इंकार नहीं कि समय और दर्शकों पसंद के मुताबिक कॉमेडी का रूप बदलता रहा, पर इनका मकसद हमेशा दर्शकों को गुदगुदाना ही होता है। 1983 में कुन्दन शाह ने 'जाने भी दो यारो' बनाई और दर्शकों को बांधे रखा! इसके एक सीन महाभारत का मंचन और क्लाइमेक्स में लाश की गड़बड़ को दर्शक आज भी नहीं भूले हैं। प्रकाश मेहरा ने 1986 में अनिल कपूर, अमृता सिंह को लेकर 'चमेली की शादी' में कॉमेडी का तालमेल बनाया था। अब ये जरुरी नहीं कि कॉमेडियन ही फिल्मों में  किरदार निभाएं! गोविंदा, संजय दत्त, आमिर खान, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र और सलमान जैसे बड़े कलाकारों ने भी कॉमेडी रोल करने मौका नहीं छोड़ा! कुली नंबर-1, मुन्नाभाई, अंदाज अपना अपना, हेराफेरी, गोलमाल और वेलकम सीरीज की फ़िल्में इसी का उदहारण है।  
  डेविड धवन और गोविंदा के नए दौर की कॉमेडी के लिए आज भी याद किया जाता है। द्विअर्थी संवाद के साथ डेविड और गोविंदा ने हास्य कि अलग ही दुनिया बनाई थी! 1995 में 'कुली नम्बर वन' में गोविन्दा के साथ शक्ति कपूर और कादर खान ने हंसी के फटाखे जमकर फोड़े थे। इसी साल 'दीवाना मस्ताना' में भी कादर खान, जानी लीवर और सतीश कौशिक ने दर्शकों को कुर्सी से खड़े होने पर मजबूर कर दिया था। प्रियदर्शन ने 2000 में आई 'हेराफेरी' से फिल्म की कॉमेडी धारा को पकड़ा जिसमें उन्होंने अक्षय और सुनील शेट्टी से कॉमेडी करवा ली! इस फिल्म में परेश रावल और ओमपुरी ने भी अपनी नई विधा का परिचय दिया। इसके बाद तो कॉमेडी फिल्मों की लाइन लग गई। 2001 में लव के लिए कुछ भी करेगा आई! लेकिन, 2003 में 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' से कॉमेडी पसंद करने वाले नए दर्शक सामने आए। 2005 में 'नो एण्ट्री' ने भी दर्शकों का खूब हंसाया! एक्शन फिल्मों के नामी डायरेक्टर रोहित शेट्टी का कॉमेडी बनाने में भी कोई जोड़ नहीं! उन्होंने 'गोलमाल' सीरीज से 2006, 2008 और 2010 में तीन फिल्में बनाई! तीनों फिल्में बॉक्स आफिस पर पैसा बटोरने में सफल रही। 
  2007 में आई 'धमाल' का नाम इस फिल्म की थीम बता देता है। इस साल 'भेजा फ्राय' ने भी कामेडी का एक नया रंग प्रस्तुत किया। लेकिन, 2009 में प्रदर्शित 'थ्री इडियटस' एक सोद्देश कॉमेडी फिल्म थी! इसी के साथ आई 'आल द बेस्ट' में संजय दत्त और अजय देवगन ने भी दर्शकों को खूब हंसाया। बात ये कि दर्शकों को पैसा वसूल मनोरंजन सिर्फ कॉमेडी फिल्मों से ही मिलता है। क्योंकि, फिल्म देखने का असल मकसद अपनी जिंदगी के दर्द को भूलना होता है,जो दर्शक सिर्फ कॉमेडी फिल्म में ही भूल पाता है। 
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जंगल के 'टाइगर' की तरह बॉलीवुड पर राज करता हीरो

 - एकता शर्मा 


  फ़िल्मी दुनिया में चढ़ते सूरज को अर्ध्य देने का चलन पुराना है। जब भी कोई नया सितारा जन्म देता है, उसकी आरती उतारना शुरू कर दी जाती है। आजकल पूरी इंडस्ट्री टाइगर श्रॉफ को हाथों हाथ ले रही है! उससे जुडी हर बात खबर बनने लगी! अपने ज़माने के सुपर हिट हीरो जैकी श्रॉफ के बेटे टाइगर की पहली फिल्म 'हीरोपंती' के हिट होने के बाद जब 'बागी' ने भी सफलता की पायदान चढ़ी, तो जैकी के घर के बाहर निर्माताओं की लाइन लग गई! अपने ख़ास तरह के डांस और एक्शन कारण नई पीढ़ी के दर्शकों ने टाइगर को हाथों हाथ लिया! 'बागी' में टाइगर ने जिस तरह की एक्शन के नज़ारे दिखाए उनमें एक नया जैकी देखा जाने लगा! 
  टाइगर एक बड़े अभिनेता के बेटे हैं, इसलिए उनका हीरो बनना तो तय था, पर उनसे कई दंतकथाएं भी जुडी हैं। कहा जाता है कि जब जैकी के घर बेटे का जन्म हुआ तो 'हीरो' के निर्देशक सुभाष घई उसे देखने पहुंचे थे! सुभाष घई ने पहली बार टाइगर को देखा और उसे एक सौ रुपए का नोट कहते हुए दिया कि यह साइनिंग अमाउंट है! तुम्हें मैं बतौर हीरो लांच करूंगा। लेकिन, जब टाइगर बड़े हुए और जब उन्होंने फिल्मों में अभिनय की रूचि दिखाई तो चर्चा चली कि सुभाष घई अपनी सुपरहिट फिल्म 'हीरो' का रिमेक टाइगर को लेकर ही बनाएंगे। लेकिन, ऐसा हुआ नहीं! टाइगर को साजिद नाडियाडवाला ने 'हीरोपंती' में लांच किया। 
  बॉलीवुड में जब टाइगर का पहली बार जिक्र हुआ तो लोगों को उनके नाम को लेकर आश्चर्य हुआ? सब बोले ये कैसा नाम? टाइगर ने इस बात का खुलासा एक इंटरव्यू में किया! उससे पूछा गया था कि क्या आपको कभी अपने नाम की वजह से शर्मिंदगी उठानी पड़ी? तो उन्होंने बड़े ही गर्व से कहा कि मेरे स्कूल में कोई दूसरा टाइगर नहीं था, इसलिए सबको मेरा नाम बहुत कूल लगता था! मैं चाहता हूं कि मैं अपने करियर को उसी ऊंचाई पर ले जाऊं, जहां बाकी टाइगर, जैसे गोल्फर टाइगर वुड्स और क्रिकेटर मंसूर अली खान पटौदी थे! मुझे ये नाम इसलिए मिला, क्योंकि बचपन में मैं लोगों को काटता और नोचता था! लेकिन, वास्तव में टाइगर का नाम हेमंत श्रॉफ है। टाइगर भले ही अपने जीवन में अपने नाम की वजह से शर्मिंदा न हुए हों, लेकिन अपने इस शानदार जवाब के लिए जो रिएक्शन्स सोशल मीडिया पर आए, उन्हें देखकर टाइगर जरूर शर्मिंदा हुए होंगे! लेकिन, टाइगर श्राॉफ को शर्मिंदा करना इतना भी आसान नहीं! क्योंकि, विलुप्त होने की कगार तक पहुंच चुके असल बाघों को बचाने के लिए रियल हीरो हैं! 
  टाइगर श्रॉफ ने अपनी पहली फिल्म से ही दर्शकों का और क्रिटिक्स का दिल जीत लिया। टाइगर को पहली फिल्म के लिए चार अवार्ड से नवाजा गया। जिनमें 'आइफा' का मेल डेब्यू अवॉर्ड भी शामिल है। उनकी सबसे ज्यादा रूचि बॉडी बनाने में है। टाइगर की रूचि इसी बात से नजर आती है कि फिल्म 'धूम-3' के दौरान टाइगर ने ही आमिर खान को उनकी बॉडी बनाने में मदद की थी। इस दौरान टाइगर और आमिर में काफी अच्छी बॉन्डिंग भी हो गई थीं। आमिर टाइगर की डेब्यू फिल्म को प्रोड्यूस भी करना चाहते थे, पर ऐसा नहीं हो सका! लेकिन, फिल्म का ट्रेलर आमिर खान ने ही लांच किया! टाइगर श्रॉफ एक्टिंग में आने से पहले मार्शल आर्ट्स और स्पोर्ट्स में रूचि रखते थे!
  टाइगर की नई फिल्म 'ए फ्लाइंग जट्ट' में सुपर हीरो का किरदार निभा रहे हैं। टाइगर का कहना है कि फिल्म इंडस्ट्री में कई सुपर हीरो हुए जैसे ‘कृष’ में ऋतिक रोशन, ‘रा-वन’ में शाहरुख खान और ‘शिवा के इंसाफ’ में उनके पिता जैकी श्रॉफ! इन सबको देखकर उन्हें लगता है कि उनकी जिम्मेदारी बढ़ गई है! क्योंकि, उनके पिता और ऋतिक के साथ अन्य लोग भी उनसे उम्मीद लगाए बैठे हैं, जिससे टाइगर काफी दबाव महसूस कर रहे हैं! ‘ए फ्लाइंग जट्ट’ में टाइगर में कॉमेडी और एक्शन के साथ सुपर हीरो का किरदार निभाया हैं। 
  'हीरोपंती' और 'बागी' के हिट होने के बाद टाइगर को बॉलीवुड के अलावा इंटरनेशनल फिल्मो के ऑफर मिलने लगे! हाल ही में टाइगर को जैकी चेन ने भी बुलावा भेजा है। लेकिन, टाइगर के पास अभी हॉलीवुड के प्रोजेक्ट्स के लिए भी समय नहीं है। टाइगर ने हाल ही में कोरियोग्राफर अहमद खान की वीडियो ‘चल वहां जाते हैं’ में कृति सेनन के साथ काम किया! इससे पहले वे आतिफ असलम के साथ ‘ज़िन्दगी आ रहा हूँ’ में भी काम कर चुके हैं। दोनों ही वीडियो बिज़नेस के लिहाज से कामयाब रहे। 
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बॉलीवुड में नहीं चलती हीरोइनों की दूसरी पारी

- एकता शर्मा 

  अभिनय एक ऐसा कारोबार है, जो तब तक मंदा नहीं पड़ता, जब तक दर्शकों का साथ मिलता रहता है! लेकिन, जैसे ही किसी हीरो या हेरोइन से दर्शकों का दिल उचाट हुआ, अभिनय का सारा कारोबार दरक जाता है। क्योंकि, बॉलीवुड अभी तक वो फार्मूला नहीं खोज पाया, जिसे अपनाकर फिल्म की सफलता का दावा किया जा सके! लेकिन, बॉलीवुड के जांबाज हीरो और हीरोइन भी उस मिट्टी के बने होते हैं, जो आसानी से हार नहीं मानते! उनकी एक पारी पूरी होती है, तो कुछ वक़्त बाद दूसरी पारी की तैयारी कर लेते हैं! ऐसे हीरो, हीरोइनें की लंबी लिस्ट है, जिन्होंने दूसरी पारी में किस्मत आजमाई! कुछ का सिक्का दूसरी बार में भी अच्छा चला! पर, ज्यादातर दूसरी पारी में कोई करिश्मा नहीं कर सके! अपनी दूसरी पारी में सर्वकालीन सफल अभिनेताओं में अमिताभ बच्चन अकेले हैं! अमिताभ पहली पारी में जितने सफल रहे, उससे कहीं ज्यादा सफलता उन्होंने दूसरी पारी में पाई! 
 याद करने पर भी कोई अभिनेत्री दूसरी पारी में बहुत ज्यादा सफलता नहीं पा सकी! फिर वो धक् धक् गर्ल माधुरी दीक्षित ही क्यों न हो! क्योंकि, हीरोइन की वापसी आसान नहीं होती! उम्र की ढलान का असर दर्शक भांप लेते हैं! वे बूढ़े हीरो को तो स्वीकार लेते हैं, पर बूढ़ी हीरोइन को परदे पर इश्क़ फरमाते देखना नहीं चाहते! बॉलीवुड में 35 प्लस की हीरोइन के लिए वैसे भी कोई पटकथा नहीं लिखी जाती! अधिकांश हीरोइनों की दूसरी पारी माँ या बहन  सीमित हो जाती हैं।  
  सौदागर, खामोशी, दिल से जैसी फिल्मों से पहचान बनाने वाली मनीषा कोइराला कैंसर से जंग लड़ने के बाद ‘डियर माया’ में दिखाई दी! पर, बात नहीं बनी! कपूर खानदान की करिश्मा की दूसरी पारी भी कमजोर साबित हुईं। छ: साल बाद करिश्मा ने विक्रम भट्ट की 'डेंजरस इश्क' जैसी फिल्म की! लेकिन, दर्शकों ने फिल्म को नकार दिया! सफलतम हीरोइन  वाली माधुरी दीक्षित की दूसरी पारी भी फीकी रही! 2007 में उन्होंने 'आजा नच ले' से वापसी की कोशिश की, लेकिन फिल्म नहीं चली! इसके बाद एक्शन फिल्म 'गुलाब गैंग' भी पानी नहीं माँगा! 'डेढ़ इश्किया' को दर्शक नहीं मिले! रेखा जैसी नामचीन एक्ट्रेस ने भी 'सुपर नानी' से वापसी की कोशिश की, लेकिन फिल्म ने पानी नहीं माँगा! 
  तब्बू भी काफी समय से इस इंतजार में थीं कि बॉलीवुड में उनकी दूसरी पारी शुरू हो! लेकिन, तब्बू का ये फैसला सही था कि उन्होंने हीरोइन के बजाय कैरेक्टर रोल को चुना! पहले 'हैदर' और उसके बाद तब्बू 'दृश्यम' में दिखाई दी और दोनों ही फिल्मों में उनके अभिनय को सराहा गया! श्रीदेवी को भी उस फेहरिस्त में रखा जा सकता है, जिनकी वापसी का दर्शकों ने स्वागत किया! 2012 में आई 'इंग्लिश विंग्लिश' सफल रही थी! फिल्म की पटकथा मजबूत थी और श्रीदेवी ने भी उस अधेड़ महिला का किरदार निभाया था, जो बेटियों  पर इंग्लिश सीखती है। इस फिल्म की सफलता के बाद भी श्रीदेवी ने दूसरी फिल्म की जल्दबाजी नहीं की! डिम्पल कपाड़िया दूसरी पारी को भी सफल कहा जा सकता है। रुदाली, लेकिन, बनारस जैसी फिल्मों से डिम्पल ने अपनी ग्लैमरस पहचान को पूरी तरह बदल डाला था! लेकिन, राजेश खन्ना की मौत के बाद से ही वे परदे से दूर हैं! डिंपल ने होमी अदजानिया की ही फिल्म 'कॉकटेल' की थी। फिल्म में डिंपल सैफ अली की माँ के रोल में थी! 'कॉकटेल' से पहले डिंपल ने होमी की एक फिल्म 'बीइंग सायरस' में भी काम किया था। 
  सलमान खान से साथ 'तेरे नाम' से अभिनय यात्रा शुरू करने वाली एक्ट्रेस भूमिका चावला कई सालों से बॉलीवुड से अलग रहीं! भूमिका ने 'तेरे नाम' में निर्झरा का किरदार निभाकर दर्शकों का जीता था! 2007 में उनकी आखिरी फिल्म 'गांधी माई फादर' रिलीज हुई थी। अब भूमिका 'एसएस धोनी' की बायोपिक फिल्म में धोनी की 'बहन' बनकर वापसी कर रही हैं। पीछे पलटकर देखा जाए तो पुराने दौर में हीरोइन का वापसी करना बेहद मुश्किल काम माना जाता था। वापसी होती थी तो मां के रोल में! वहीदा रहमान, नूतन, माला सिन्हा, शर्मीला टैगोर, सायरा बानू समेत कई हीरोइनों ने फिर परदे का रुख किया, पर हीरो या हीरोइन की माँ बनकर! हीरोईन बनने का साहस संभवतः सत्तर के दशक में अपने अभिनय से धूम मचाने वाली मुमताज ने किया था! 1990 में 'आंधियां' से वापसी की कोशिश की थी। लेकिन, इस फिल्म के पिटने के साथ ही उन हीरोइनों की वापसी के दरवाजे भी बंद हो गए, जो मुमताज की समकालीन थीं और वापसी की राह देख रही थीं।
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Sunday 18 September 2016

अदालत की दहलीज पर औरत की अनंत पीड़ा

- एकता शर्मा 
  हमेशा ही अदालत, अस्पताल और पुलिस थाने से जहाँ तक हो सके बचकर रहने की सलाह दी जाती है। ये बात अपनी जगह इसलिए भी सही है! क्योंकि, ये तीन वो जगह होती है, जहाँ कोई भी अपनी मर्जी से नहीं जाता! मज़बूरी ही व्यक्ति को वहाँ ले जाती है। अस्पताल और पुलिस थाने की मज़बूरी अपनी जगह अलग है! लेकिन, अदालतों के चक्कर लगाना एक अलग तरह की मानसिक पीड़ा भोगने जैसा है। ये पीड़ा एक या दो बार की नहीं, कई बरसों की भी हो सकती है। लेकिन, जब यही पीड़ा किसी महिला को भोगना पड़े तो यंत्रणा कई गुना ज्यादा बढ़ जाती है। किसी घरेलू महिला का अदालत की सीढ़ियाँ चढ़ना बेहद पीड़ादायक क्षण होता है। खासकर उस महिला के लिए जिसने 'अपनी दुनिया' में अदालत का दरवाजा तक नहीं देखा हो! जब इस तरह की महिलाएं अदालत में आती हैं तो उन्हें मानसिक, आर्थिक और शारीरिक पीड़ा के अलावा एक और दर्द झेलना पड़ता है, जो होता है उनके लिए अदालत में बुनियादी सुविधाओं का अभाव!      


  एक वकील के तौर पर मैंने अपने 15 साल के करियर में कई ऐसी महिलाओं को इस तरह की असुविधाओं से जूझते देखा है! एक सच ये भी है कि जब भी कोई महिला अदालत की सीढ़ियाँ चढ़ने के लिए मजबूर होती है, सामने उसका पति होता है, ससुराल होता है या कोई निकट संबंधी! जबकि, आम घरेलू महिलाओं को न तो कानूनी दांव-पेंचों का पता होता है और न वे अदालतों की कार्यप्रणाली से वाकिफ होती हैं! अदालतों में अधिकांश मामले तलाक, दहेज़ प्रताड़ना, भरण-पोषण, संपत्ति में अधिकार, जमीन-जायदाद में बंटवारा, बच्चों की कस्टडी, विवाह पुनर्स्थापना और घरेलू हिंसा से जुड़े होते हैं। ये भी सच है कि किसी भी महिला के जीवन में जब ऐसी कोई विपत्ति आती है, ज्यादातर मामलों में पति उसके साथ नहीं होता! ऐसे में बच्चों को साथ लेकर अदालत तक आना, वकीलों से प्रकरण को लेकर जद्दोजहद करना, फीस का इंतजाम, अदालत में लगने वाले खर्चे का इंतजाम, भागदौड़, सारा दिन अदालत में बिताना, बच्चे साथ हो तो उनको बहलाए रखना, यदि बच्चों को घर में छोड़ा हो तो उनकी चिंता करना! यदि कामकाजी हो तो वहाँ से छुट्टी लेना! अंत में फिर एक नई तारीख के साथ वापस लौटना! ये वो संत्रास है जो अदालत में चल रहे मामलों से अलग होते हैं। 
  महिला चाहे घरेलू हो या कामकाजी उसकी कुछ निर्धारित जरूरतें हैं। यदि वो घर या दफ्तर में है, तो वहां उसे इन जरूरतों का अभाव नहीं खटकता, पर जब वो बाहर निकलती है तो यही छोटी-छोटी जरूरतें उसके लिए परेशानी बन जाती है। जहाँ तक अदालतों में महिलाओं की बुनियादी सुविधाओं का सवाल है तो यहाँ उसे इनका अभाव कुछ ज्यादा ही खटकता है। शायद इसलिए कि यहाँ उसकी मानसिक परेशानी चरम पर होती है! ऐसे में यही बुनियादी सुविधाओं का अभाव उसे तोड़कर रख देता है। मेरी एक महिला पक्षकार को उसके पति ने दूसरी बार भी बेटी होने के कारण चारित्रिक लांछन लगाकर छोड़ दिया है। वो हर तारीख पर दो छोटी बच्चियों को लेकर अदालत आती है! सबसे ज्यादा परेशानी उसे दुधमुहीं बच्ची को सँभालने में होती है! उसे कैसे दूध पिलाए, दोपहर में कहाँ सुलाए, खुद कहाँ बैठे, दूसरी बच्ची पर भी उसे नजर रखना है कि वो कहीं चली न जाए! ऐसी कई परेशानियां हैं, जिन्हें झेलते मैंने उस महिला को देखा है। ये किसी एक महिला के दुःख की कहानी नहीं है, इससे अधिकांश महिलाएं हमेशा ही जूझती रहती हैं। आज जब सरकार ट्रेनों में छोटे बच्चे वाली महिला यात्रियों को दूध, गर्म पानी और बेबी फ़ूड की सुविधा देने की पहल कर रही है! क्या अदालत की चौखट पर खड़ी ऐसी परेशान महिलाओं के कुछ नहीं किया जा सकता? यदि अदालत परिसर में छोटे बच्चो के लिए झूलाघर, महिलाओं के लिए बैठने के अलग इंतजाम, महिला शौचालय, महिला गार्ड हो तो इनकी उस परेशानी काफी हद तक जा सकता है, जिनके अभाव में ये टूट सी जाती हैं!   
  इस तरह की बुनियादी सुविधाओं की सबसे ज्यादा जरुरत कुटुंब न्यायालयों में होती हैं, जहाँ एक पक्ष हमेशा महिलाएं ही होती है! कई जगह तो कुटुंब न्यायालय दूसरी मंजिल पर भी देखे गए हैं! विचार करने वाली बात कि यदि कोई महिला पक्षकार गर्भवती या बूढी हो, तो वो कैसे ऊपर मंजिल तक तक जाएगी? यही कारण है कि इन न्यायालयों में महिलाओं के लिए बुनियादी सुविधाओं जरुरत बहुत ज्यादा है! उनके लिए न तो कवर्ड बरामदे या कमरे हैं न अलग से सुविधाघर! यदि सुविधाघर हैं भी तो वो पुरुषों के लिए बने हुए सुविधाघरों से सटे हुए हैं। छोटे बच्चे वाली महिलाओं, उनके बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए कोई सुविधाएँ नहीं होती! बैठने की ठीक व्यवस्थाएं न होने से गर्मी और बरसात में सबसे ज्यादा परेशानी महिलाओं को ही होती है। पुरुष पक्षकार तो किसी भी होटल या पान की दुकान में पनाह ले लेते हैं, पर महिलाएं तो ये सब कर नहीं पाती और न किसी से कह ही पाती हैं! जहाँ तक महिलाओं के लिए विधिक सहायता की बात है तो ये इंतजाम अदालतों में किए तो गए हैं, पर महिलाओं के लिए ये अलग से होना चाहिए! महिलाओं से जुडी विधिक सहायता के लिए महिला वकीलों को ही ये काम सौंपा जाए, ताकि वे उनकी समस्याओं को ठीक से समझ सकें! 
  सरकार ने अदालतों में बाहर से आने वाले गरीब और कमजोर वर्ग के पक्षकारों और उनके परिजनों के रुकने के लिए 'न्याय सेवा सदन' बनाए। 2006 में शुरू की गई ये योजना अभी सभी जगह लागू नहीं हुई! लेकिन, जहाँ भी इस तरह के इंतजाम किए गए हैं, उनमें रुकने की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि सामान्य पक्षकार तो इस सुविधा का लाभ ले ही नहीं सकता! इस स्थान पर भी महिलाएं नहीं रुक पाती, क्योंकि सुरक्षा के इंतजाम नाकाफी होते हैं! महिला गार्ड जैसी भी कोई व्यवस्था नहीं होती! 'न्याय सेवा सदन' अदालत परिसर में होते हैं, जो सामान्यतः शहर से बाहर बने होते हैं। कई स्थानों पर बने 'न्याय सेवा सदनों' में तो अभी तक कोई रुक भी नहीं सका! 
  महिला पक्षकार का दर्द पुरुष पक्षकारों मुकाबले बहुत ज्यादा होता है। एक महिला को सिर्फ अदालत कार्रवाई से ही नहीं जूझना पड़ता, बल्कि बुनियादी सुविधाओं की कमी को भी सहना पड़ता है। ऊपर से समाज की तरफ से उठती संदेह की नजरें भी उसे लज्जित करने से बाज नहीं आती! कानून सबके लिए बराबर होता है फिर चाहे वो पुरुष हो या महिला! लेकिन, किसी महिला के लिए अदालत की सीढ़ियाँ चढ़ना ही अपने आपमें अपमानजनक हालात होते हैं! ऐसे में यदि उसे बुनियादी सुविधाएँ भी मुहैया न हो तो उसकी मानसिक पीड़ा कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है। यदि इस तरह की परेशानी को महिला की नजरों से समझकर हल करने के प्रयास किए जाएँ, तो शायद किसी महिला के लिए अदालत आना दर्द का दुगुना होने से बच जाएगा! 

फिल्मों का कथानक बनते खेल और खिलाडी!

- एकता शर्मा 

   खिलाडियों और फिल्म एक्ट्रेस का संबंध सिर्फ रोमांस और शादी तक ही सीमित नहीं है! खेलों पर फ़िल्में भी कम नहीं बनी! लेकिन, खिलाडियों और खेल पर फ़िल्में बनने की गति पहले काफी धीमी रही! लेकिन, कुछ सालों में फ़िल्मी कहानियों में खेल एक विषय बनने लगा है। फिलहाल चर्चा है महेंद्रसिंह धोनी की फिल्म ‘एमएस धोनी : द अनटोल्ड स्टोरी’ की जिनमें सुशांतसिंह राजपूत ने धोनी का किरदार बेहद खूबसूरती से निभाया है। परदे पर धोनी के किरदार को उभारने के लिए सुशांत ने मेहनत भी बहुत की! खास तौर पर धोनी  पहचान कहे जाने वाले ‘हेलीकाप्टर’ शॉट मारने की प्रेक्टिस की!   
   कुछ साल पहले शाहरुख खान की भूमिका वाली फिल्म ‘चक दे इंडिया’ खेल भावना को नए सिरे से उभारा था! ये फिल्म मीररंजन नेगी के साथ हुई, एक घटना से जुडी थी, पर कहानी में  ट्विस्ट थे! फिल्म में महिला हॉकी टीम को विश्व विजेता बनाने की कल्पना की गई थी! अंत में एक हॉकी कोच की जिजीविषा रंग लाती है और महिला हॉकी टीम विजेता बनती भी है। लेकिन, ये खेलों पर केंद्रित फिल्मों की शुरुआत नहीं थी! पहले भी कुछ फिल्में बनी जिनमें आल राउंडर, अव्वल नंबर, हिप हिप हुर्रे, जो जीता वही सिकंदर, साला खड़ूस, लगान जैसी फिल्में उल्लेखनीय रही। साला खड़ूस, बॉम्बे वेलवेट, ब्रदर्स के बाद 'मेरी कॉम' के केंद्र में मुक्केबाजी थी।
  एक अनजान खिलाड़ी जो बाद में डाकू बन गया था उस पानसिंह तोमर पर तिंग्माशु धूलिया ने फिल्म बनाई थी। इसके बाद जानी मानी बॉक्सर 'मेरी कॉम' पर उमंग कुमार ने उन्हीं के नाम से प्रियंका चोपड़ा को लेकर फिल्म बनाई, जिसने बहुत अच्छा बिजनेस किया। राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने धावक मिल्खा सिंह 'भाग मिल्खा भाग' बनाकर सफलता क्या पाई, इसके बाद तो खिलाड़ियों पर फिल्में बनाने की बाढ़ आ गई! लेकिन, क्रिकेटर मोहम्मद अजहरुद्दीन पर 'अजहर' बनी पर चली नहीं! अब महेंद्र सिंह धोनी पर फिल्म आने की तैयारी है। पिछले कुछ सालों में खेलों की दुनिया में कुछ स्टार भी दिए, जो फिल्म वालों के फोकस में है। सबसे ज्यादा रूचि सानिया मिर्जा, साइना नेहवाल, प्रकाश पादुकोण, विश्वनाथन आनंद आदि पर फिल्म बनाने में दिलचस्पी ली जा रही है। साइना नेहवाल पर अमोल गुप्ते फिल्म बना रहे हैं। 
  चीन में कुछ साल पहले एक विकलांग ओलंपियन पर फिल्म बनी थी। गांव का एक विकलांग और गरीब लड़का तैराक बनना चाहता है। कैसे प्रतिकूल स्थितियों का मुकाबला करते हुए वो विजय पाता है, यह उस फिल्म का कथानक था। महत्वपूर्ण योगदान उसके कोच का था, जो विकलांग होने की उसकी कुंठा को दूर करने के लिए खेल अधिकारियों तक से लड़ जाता है। एक पैर से एवरेस्ट फतह करने वाली अरुणिमा सिन्हा की जीवनी पर फरहान अख्तर की फिल्म बनाने की योजना है। माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई करने वाली पहली बछेंद्री पाल पर भी फिल्म बनने की तैयारी है। 
  आमिर खान अपने टीवी शो ‘सत्यमेव जयते’ के एक एपिसोड में कुश्ती की दुनिया में अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाने वाली हरियाणा की फोगट बहनों में परिचय कराया था। अपनी बेटियों व भतीजी को अखाड़े में उतारने की हिम्मत दिखाने वाले महावीर पहलवान की लगन ने आमिर को इतना प्रभावित किया कि वे ‘दंगल’ में महावीर की भूमिका निभाने में जुट गए। लेकिन, इससे पहले ही यशराज प्रोडक्शन ने सलमान खान को लेकर 'सुल्तान' बना दी, जिसने इस साल सबसे ज्यादा बिजनेस किया है। अभी खेल और खिलाडियों पर फ़िल्में बनने का सिलसिला थमा नहीं है! ‘एमएस धोनी : द अनटोल्ड स्टोरी’ और आमिर खान की 'दंगल' लाइन में है।  
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(लेखिका फिल्मों पर शोध कार्य किया है) 

Thursday 15 September 2016

ऋगवेद और पारितोष की सुनने वाला कोई है क्या?

- एकता शर्मा 

  जिस बस्ते में बच्चा अपनी कॉपी-किताबें लेकर जाता है, उसका वज़न उसकी सेहत और शारीरिक विकास पर ख़राब असर डाल रहा है। एक सर्वे के मुताबिक बच्चों के स्कूल बैग का औसत वज़न 8 किलो होता है! औसतन साल में 200 दिन तक स्कूल खुलते हैं। स्कूल जाने और स्कूल से वापस आने के दौरान, जो वज़न आपका बच्चा अपने कंधों पर उठाता है। अगर उसे आधार माना जाए तो बच्चा सालभर में 3200 किलो का वज़न उठाता है। अच्छे नंबर लाने का दबाव और भारी भरकम कॉपी किताबों के बोझ से बचपन दब रहा है। लेकिन, कोई इसके खिलाफ आवाज़ नहीं उठाता! ब्रिटेन ही अकेला देश है, जहाँ स्कूल बैग का औसत वजन (12 किलो) भारतीय बच्चों के स्कूल बैग से ज्यादा है। 

  महाराष्ट्र के चंद्रपुर में स्कूल जाने वाले 2 बच्चों ने स्कूल बेग के भारी वज़न के खिलाफ आवाज़ उठाई! इन बच्चों ने एक प्रेस कांफ्रेंस करके बताया कि कैसे स्कूल जाने वाले बच्चे अपनी क्षमता से ज्यादा वज़न को उठाने पर मजबूर हैं। सातवीं में पढ़ने वाले इन दो बच्चों के नाम हैं ऋगवेद और पारितोष ने कहा कि उन्हें रोज़ अपने स्कूल बैग में 19 कॉपियां और किताबें ले जानी होती हैं। हर पीरियड के हिसाब से कॉपी और किताब रखना जरुरी है। इसके अलावा भी कुछ किताबें स्कूल बैग में रखनी ही पड़ती है। लंच बॉक्स और पानी की बॉटल वज़न भी जोड़ लें, तो एक स्कूल बैग का वज़न 11 किलो से ज्यादा हो जाता है। ये पहली बार है कि स्कूल जाने वाले बच्चो ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके स्कूल बैग के वज़न के खिलाफ आवाज़ उठाई! 
  बच्चा भले ही ठीक से खाता पीता हो, अच्छी नींद लेता हो और अन्य बच्चों की तरह चहकता रहता हो! लेकिन, रोजाना स्कूली बस्ते का बोझ उसकी सेहत के लिए समस्या खड़ी कर सकता है। स्कूली बस्ते का उसकी सेहत पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। बच्चा अपनी पीठ पर असामान्य बोझ ढो रहा हो, तो उसे कमरदर्द, रीढ़ की विकृति या गरदन के पास खिंचाव जैसी तकलीफें हो सकती हैं। स्कूली बच्चे और्थोपैडिक समस्याओं की चपेट में आ रहे हैं और डाक्टर पीठ या कमरदर्द से पीडि़तों के आयुवर्ग में जबरदस्त बदलाव के गवाह बन रहे हैं। सेहत संबंधी परेशानियों के कई ऐसे खतरे हैं, जिनसे बच्चे का वास्ता पड़ सकता है। 
  30 साल वर्ष पहले 1986 में जानेमाने लेखक आरके नारायण ने राज्यसभा में स्कूल बैग के ज्यादा वज़न पर बोलते हुए कहा था कि जब भी वो किसी बच्चे को भारी भरकम स्कूल बैग लटकाए हुए स्कूल जाते हुए देखते हैं तो उनका दिल दुखता है। नारायण ने कहा था कि इस वज़न से बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास नहीं होता! बल्कि, ये वज़न उन्हें कूबड़ा बना देता है। स्कूल बैग के वज़न को लेकर जिस दुख का इज़हार आरके नारायण ने 30 साल पहले किया था। उसमें आज भी कोई अंतर नहीं आया। यशपाल समिति ने भी काफी पहले सुझाव दिया था कि बस्ते का बोझ कम किया जाए। लेकिन न तो निजी स्कूलों को यह सलाह अच्छी लगी, न सरकार ने इसे गंभीरता से लिया। अधिकांश शहरों में बच्चों को अपने वजन का 35% या उससे अधिक बस्ता ढोते देखा गया। इस सिलसिले में दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान अदालत में महाराष्ट्र सरकार ने सफाई दी कि बच्चों को भारी बस्ता ढोने की मज़बूरी से छुटकारा दिलाने के लिए स्कूलों में लॉकर बनाने पर विचार किया जा रहा है। 
  'चिल्ड्रन स्कूल बैग एक्ट 2006' के अनुसार स्कूल जाने वाले किसी भी छात्र के बैग का अधिकतम वज़न उसके शरीर के भार का 10 प्रतिशत होना चाहिए। एक्ट में ये भी कहा गया है कि स्कूलों को चाहिए कि वो छात्रों को स्कूल में ही लॉकर की सुविधा दें। 2012 में 'एसोचैम' ने भी देश के 5 से 12 साल की आयु के 2 हज़ार बच्चों पर एक सर्वे किया था! सर्वे में पाया गया कि 82 प्रतिशत बच्चे अपने वज़न के 35 प्रतिशत के बराबर वज़न वाला स्कूल बैग ढोते हैं। सर्वे में 1500 बच्चों ने माना था कि उनकी कमर में दर्द होता है! वो बिना सहारे ठीक से बैठ भी नहीं पाते! 2015 में महाराष्ट्र सरकार ने बॉम्बे हाईकोर्ट में दाखिल एक रिपोर्ट में माना था कि 10 वर्ष तक के 58 प्रतिशत बच्चे हड्डियों से जुड़े दर्द की वजह से परेशान हैं। इस समस्या के लिए भारी स्कूल बैग को ही ज़िम्मेदार माना गया था। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के पास भी कुछ आंकड़े हैं! मौजूद आंकड़ों के अनुसार हरियाणा के बच्चे सबसे वजनी स्कूली बैग ढोते हैं! फिर, गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान के स्कूली बैग का नंबर आता है। यही स्थिति सरकारी स्कूलों की है। देश के अधिकतर निजी स्कूलों में तो बच्चों को 8 से 10 किलो या इससे भी अधिक वजन के बस्ते के साथ स्कूल जाना पड़ता है। राज्यवार स्कूली बस्ते के वजन में भी अंतर है। जैसे गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान में दूसरे राज्यों के मुकाबले स्कूली बच्चों को कम कॉपी-किताबें ढोनी पड़ती हैं!
    ज्यादातर देशों के बच्चे भारतीय बच्चों के मुकाबले कम वज़न वाले स्कूल बैग उठाते हैं। अमेरिका में स्कूल बैग का औसत वज़न करीब 5.7 किलोग्राम है। ब्रिटेन में जरूर स्कूल जाने वाले बच्चों के बैग का भारतीय स्कूल बैग के वज़न ज्यादा होता है। यहाँ औसत वज़न 12 किलोग्राम है। लेकिन, इन बच्चों के बैग में टैबलेट और लैपटॉप जैसे उपकरण होने से स्कूल बैग का वज़न बढ़ जाता है। ईरान में औसत वज़न 4.6 किलोग्राम है। फिनलैंड में 8 साल की उम्र तक के स्कूल जाने वाले बच्चे औसतन 4.5 किलो वज़न उठाते हैं। फ्रांस में स्कूल जाने वाले बच्चों के बस्ते काफी हल्के होते हैं। फ्रांस में बच्चों को औसतन 2 किलो 600 ग्राम वज़न ही उठाना पड़ता है।
  अगर बच्चा भारी स्कूल बैग से परेशान हैं, तो पालक इसकी शिकायत कर सकते हैं? 'नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ चाइल्ड राइट्स' को कॉल करके भी शिकायत दर्ज कराई जा सकती हैं। 'इबलिदान डॉट निक डॉट निक' पर भी भारी स्कूल बैग के मुद्दे पर ऑनलाइन शिकायत हो सकती हैं। सीबीएससी के हेल्प लाइन नंबर पर फोन करके भी अपनी शिकायत दर्ज करा सकते हैं। अगर आपके बच्चे को भी भारी स्कूल बैग उठाने पर मजबूर किया जाता है तो संबंधित जिले के शिक्षा अधिकारी से भी शिकायत की जा सकती है।  
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Tuesday 13 September 2016

कामकाजी महिलाओं की भागीदारी में हम बहुत पीछे!

'एसोचैम' की रिपोर्ट ने पोल खोली 

- एकता शर्मा 

  सरकार कामकाज में महिलाओं  भागीदारी बढ़ाने के लिए हर संभव कोशिश कर रही है! लेकिन, जो तथ्य सामने आए हैं, वे सरकार की कोशिशों को सही नहीं ठहरा रहे! तथ्य बताते हैं कि कामकाजी महिलाओं की भागीदारी के मामले में भारत अन्य देशों से बहुत पीछे है। 'एसोचैम' और 'थॉट आर्बिट्रेज रिसर्च' द्वारा संयुक्त रूप से कराए गए सर्वे रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ! भारत सरकार बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, सेल्फी विद डॉटर, मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप जैसे कार्यक्रमों के जरिए महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने पर जोर दे रही है। लेकिन, एसोचैम की ये स्टडी चौंकाने वाली है!
  'महिला श्रम बल भागीदारी' पिछले एक दशक में 10 फीसदी घटकर निचले स्तर पर पहुंच गई! इस रिसर्च स्टडी के मुताबिक 2000-05 में कार्यशील महिलाओं की भागीदारी 34 प्रतिशत से बढ़कर 37 फीसदी तक पहुंची थी! जो साल 2014 तक लगातार गिरते हुए 27 फीसदी पर आ गई! देश में महिला श्रम बल भागीदारी (एफएलएफपी) दर एक दशक में 10 फीसदी कम हुई है। 'वर्ल्ड बैंक' के आंकड़ों के मुताबिक भी महिला भागीदारी के मामले में भारत 186 देशों में 170वें पायदान पर है। ब्रिक्स देशों में भी भारत 27 फीसदी के साथ आखिरी पायदान पर है। जबकि, महिला श्रम बल भागीदारी के मामले में चीन में 64 फीसदी के साथ पहले पायदान पर है। इसके बाद ब्राजील में 59 फीसदी, रूस में 57 फीसदी, दक्षिण अफ्रीका में 45 फीसदी और आखिर में भारत 27 फीसदी पर है। साल 2011 में ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुष और महिला श्रम बल भागीदारी का फासला जहां करीब 30 फीसदी रहा, वहीं शहरी क्षेत्रों में यह करीब 40 फीसदी रहा!
    महिलाओं के सशक्तीकरण की चाहें कितनी ही बातें की जाएं लेकिन महिलाएं न सिर्फ पुरुषों के मुकाबले रोजगार के मामले में पीछे हैं बल्कि वेतनमान में भी भेदभाव की शिकार हैं। श्रम बाजार में महिलाओं को शहरी और ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों में कम दर पर पारिश्रमिक मिलता है। नौकरीपेशा महिलाओं के लिए भारत में अनुकूल परिस्थितियां एक अपरिहार्य जरूरत है। लेकिन, भारत में जिस तरह से कई दूसरे क्षेत्रों में भी महिलाएं भेदभाव की शिकार हैं, उसे देखते हुए यह जल्द होना संभव नहीं लगता!
   मुद्दा ये है कि क्या कारण है कि सरकार की तमाम कोशिशों और कार्यक्रमों के बावजूद महिलाओं की श्रम बल भागीदारी लगातार घट रही है? 'एसोचैम' के सुझावों के मुताबिक श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए विशेष स्किल डेवलप ट्रेनिंग, छोटे शहरों में रोजगार के अवसर, बच्चों और बुजुर्गों की देखरेख के लिए केयर सेंटर, सुरक्षित वर्क एनवायरमेंट, सुरक्षित शहर-सड़क, महिला ओरिएटेंड बैंक, ओनली वुमेन पुलिस स्टेशन जैसे महत्वपूर्ण कदम सरकार को उठाने होंगे। वहीं कामकाजी महिलाओं की मानें तो समाज को महिलाओं के प्रति सोच और नजरिया बदलना होगा! सामाजिक बंदिशों में जकड़ने की बजाए उन्हें जब तक सुरक्षित माहौल नहीं मिलेगा, इस अंतर को कम करना संभव नहीं होगा! 'वुमेन एक्टिविस्ट' भी इस रिपोर्ट को चिंताजनक मानते हैं। 'यूएन इकनॉमिक एंड सोशल कमीशन फॉर एशिया एंड द पैसेफिक' के मुताबिक एफएलएफपी दर में 10 फीसदी बढ़ोतरी से जीडीपी में 0.3 फीसदी वृद्धि हो सकती है। इसलिए जरूरी है कि सरकार देश में महिलाओं का श्रम बल अनुपात बढ़ाने के लिए नीतियां और कार्यक्रम को गंभीरता से लागू करें!
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Saturday 20 August 2016

परदे की दुनिया में बिखरते असली रिश्ते


- एकता शर्मा 

   फिल्मों की ही तरह फ़िल्मी दुनिया के लोगों की जिंदगी भी उतार-चढ़ाओ से भरी होती है! कौनसी फिल्म हिट हो और कौनसी फ्लॉप हो जाए, ये कोई दावा नहीं कर सकता! यही स्थिति फिल्मवालों की जिंदगी में भी होती है! किसकी जोड़ी कब तक बनी रहेगी, कब टूटेगी ये बात भी तय नहीं है। रिश्तों के टूटने और बिखरने का जो सीन इन दिनों आकार ले रहा है, वही इस चमचमाती जिंदगी का असली सच है। रिश्ते रूठ भी रहे हैं और टूट भी रहे हैं। दरअसल, जीवन में मिली सफलता और सफलता से आगे की चाहत ही इन रिश्तों दीवार के दरकने का सबसे बड़ा कारण है। जीवन में सफलता की चाह अच्छी बात है और मशहूर होना भी। मुश्किल यह है कि ये दोनों हमेशा साथ नहीं रहते। एक दिन दोनों को खत्म होना ही है। फ़िल्मी लोग जब नए रिश्ते बनाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हो जाते हैं, तो रिश्तों के साथ-साथ दिल की दीवारों में भी दरारें जनम ले लेती हैं। सिनेमाई संसार की ताजा तस्वीर भी इस ही कुछ कहती है।  
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   रणबीर कपूर और कैटरीना कैफ की मोहब्ब्त का रंग चढ़ने से पहले ही उतर गया! रिचा चड्ढा ने अपने फ्रेंच प्रेमी से प्यार का ऐलान किया और शादी की तैयारियां भी शुरू कीं, लेकिन सारी तैयारियां धरी की धरी रह गई। मलाइका अरोड़ा के भी पति अरबाज खान के बीच भी तनाव बना हुआ है। अंकिता लोखंडे और सुशांत सिंह राजपूत के बीच 6 साल बाद ब्रेकअप हो गया! सोहेल खान की पत्नी सीमा भी घर छोड़कर अपने माता पिता के पास पहुंच गई हैं। करिश्मा कपूर ने पति संजय कपूर से अलग होने के बाद मुकदमा कर दिया! चर्चा है कि दोनों पक्ष तलाक के लिए राजी है। फरहान अख्तर और उनकी पत्नी अधुना ने भी अपने अलग रास्ते चुन लिए हैं। जॉन अब्राहम और उनकी पत्नी प्रिया रुंचाल की शादी भी टूटने की कगार पर है। पुलकित सम्राट और पत्नी रोहिरा के बीच भी दरारें आ गई!  
  सिनेमा के संसार में सालों पुराने रिश्ते अपना अस्तित्व खो रहे हैं। तलाक के तेवर तीखे हैं और ब्रेकअप भी बहार पर है। माना कि इन दिनों पतझड़ का मौसम है। हर पेड़ के पत्ते गिरते नजर आ रहे हैं। लेकिन, असली जिंदगी के संबंधों का यूं पतझड़ सा बिखरना और दिल की दीवारों के दरकने का यह सैलाब सिरहन पैदा कर रहा है। जिधर देखो उधर, रिश्ते टूटते-बिखरते नजर आ रहे हैं। किसी का दिल दरक गया, तो किसी का रिश्ता रूठ गया। किसी ने अपना रास्ता अलग चुनने के लिए कोर्ट में अर्जी दे दी है तो फूल जैसे रिश्तों रंग अपने असली अंदाज में आने से पहले ही बिखर रहे हैं।
  जॉन अब्राहम और प्रिया रुंचाल की शादी को अभी दो साल ही हुए हैं कि मामला बिखर गया। बिपाशा बसु के साथ जॉन अब्राहम के अफेयर ने करीब एक दशक तक खूब सुर्खियां बटोरी। जॉन ने प्रिया से शादी कर ली। मगर मन तो मन है, एक से भर गया तो दूसरे पर अटका थोड़े ही रहेगा। सो, अब प्रिया और जॉन, दोनों का एक दूसरे से मन भर गया है। दोनों अलग हो गए हैं। बिपाशा बसू भी जॉन को भुलाकर करन ग्रोवर की हो गई! फरहान अख्तर और अधुना के बीच सब कुछ ठीक ठाकचल रहा था, लेकिन हाल ही में इनका भी तलाक हो गया है। करण जौहर की पार्टी में फरहान अख्तर अदिती की बांहों में बांहे डाले पहुंचे तो अधूना के सब्र का बांध टूट गया और उन्होंने फरहान से अलग होने का फैसला किया। फरहान अख्तर और अधुना ने अपनी 15 साल पुरानी शादी टूटने के बाद भले ही मौन धारण कर लिया हो। लेकिन रिश्ता टूटने की वजह अदिती राव हैदरी ही हैं, यह पक्का हो गया है। पुलकित सम्राट और उनकी पत्नी रोहिरा में भी अनबन हो गई और दोनों अलग हो गए। इस शादी के टूटने के लिए यामी गौतम को जवाबदार माना जा रहा है। पुलकित से ‘सनम रे‘ की शूटिंग के दौरान यामी इतनी नजदीक आ गई कि रोहिरा को दूर होना पड़ा।
   सलमान खान तो खैर, 50 पार के होकर भी अब तक 'बजरंगी भाईजान' की मुद्रा में हनुमान चालीसा ही पढ़ रहे हैं। लेकिन उनके छोटे भाई अरबाज और मलाइका की शादी कोई 18 साल पहले ही हो गई थी। लेकिन, इतने सालों के बावजूद दोनों में दूरियां बढ़ गई हैं। रिश्ता दरक रहा है। सलमान के दूसरे भाई सोहेल और उनकी पत्नी सीमा के बीच भी दूरियां आ गई हैं। खबर आई है कि हुमा कुरैशी की वजह से सीमा अपने पति सोहेल का घर और उसके बेटे को छोड़कर अपने माता पिता के पास रहने चली गई हैं। रणवीर और कैटरीना 7 साल से साथ थे। दोनों का उठना, बैठना, रहना सब कुछ साथ-साथ ही था। लेकिन ऋषि कपूर और नीतू सिंह ने कैटरीना को अपनी बहू के रूप में स्वीकार नहीं किया। मामला जो भी हो, रिश्ता टूट ही गया!  
  विराट व अनुष्का इसी साल शादी के बंधन में बंधने वाले थे। लेकिन बंधने से पहले टूटने और फिर जुड़ने की खबरें हवा में है। शादी के लिए अनुष्का अभी तैयार नहीं हैं। रिचा चड्ढा साल भर पहले अपने फ्रांसिसी दोस्त से मिली थीं। शादी करने का फैसला किया, सो उन्होंने फ्रेंच सीखना भी शुरू किया था। रिचा बीच में कई बार फ्रांस भी गई, लेकिन व्यस्तता की वजह से अपने दोस्त से नहीं मिल पाई। जिसके बाद दोनों ने फैसला किया कि जो रिश्ता आकार ही नहीं ले पा रहा है, उसे खत्म कर देना चाहिए। इस रिश्ते के टूटने के अगले ही पल रिचा की लाइफ में हुमा कुरैशी के भाई साकिब सलीम आ गए। साकिब को अक्सर रिचा के साथ देखा जा सकता है। इससे पहले आमिर खान, सैफ अली खान, रितिक रोशन ने भी अपनी जीवन साथी के साथ रिश्ते तोड़कर नए रास्ते चुन लिए थे!
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Monday 15 August 2016

आजादी की जंग का दस्तावेज बनी ये फ़िल्में

 - एकता शर्मा 

 सिनेमा परदे पर समय-समय पर देश की आजादी, उससे जुड़ी घटना या किसी महत्वपूर्ण संदेश को फिल्म का विषय बनाकर परदे पर पेश किया जाता रहा है। काले, सफ़ेद ज़माने की फिल्म 'शहीद' हो या आज की 'रंग दे बसंती!' इन फिल्मों की हर स्तर पर तारीफ भी हुई और दर्शकों की सराहना भी मिली! ये फिल्में जहाँ आज के दर्शकों को आजादी के संघर्ष के सच से परिचित कराती हैं, वहीं देशप्रेम की भावना भी जागृत करती हैं। कुछ फिल्में आजादी की जंग लड़ने वालों की जद्दोजहद को दिखाती रही हैं, तो कुछ फिल्मों में आजादी के बाद के संघर्ष को अपनी कहानी में पिरोया है। यहाँ ऐसी ही कुछ फिल्मों का जिक्र, जो देशप्रेम जगाने के मामले में अव्वल तो रही ही हैं! इन फिल्मों कप बरसों तक याद भी किया जाता रहेगा!  
   गुलामी के बादलों को छांटने के लिए कैसे संघर्ष हुए, यह 'आनंदमठ' फिल्म में पूरे जज्बे से दर्शकों के सामने आया। 'नवरंग' पूरी तरह आजादी के रंग में डूबी फिल्म नहीं थी, मगर अंग्रेजों के अत्याचार इस फिल्म में भी दिखाई दिए! उस दौर के दर्शकों ने जाना कि आजादी के मायने क्या हैं। बॉलीवुड समय-समय पर आजादी का जश्न अपने हिसाब से बनाता रहा। जैसे-जैसे साल-दर-साल बीतते गए आजादी और देशभक्ति की परिभाषा भी बॉलीवुड के परदे पर बदलती गई। पहले जो खलनायक अंग्रेज हुआ करते थे उसकी जगह पड़ोसी देशों के साथ युद्ध और फिर सीमा पार आतंकवाद ने ले ली।
कुछ ऐसी ही फिल्मों का जिक्र जो अपने कथानक और अभिनय के कारण मील का पत्थर बन गई!
* शहीद : आजादी के बाद 1948 में प्रदर्शित हुई, इस फिल्म में स्वतंत्रता संग्राम को दर्शाने की कोशिश की गई थी! इसी दौर में कुछ और फिल्में भी इसी विषय को दर्शाते हुए बनाई गईं, लेकिन 'शहीद' उन सबसे अलग थी! फिल्म के मुख्य कलाकार दिलीप कुमार और कामिनी कौशल थे। फिल्म के निर्देशक थे रमेश सहगल। फिल्म का गाना 'वतन की राह में, वतन के नौजवां शहीद हों!' आज भी हिट है।
* हकीकत : 1964 में प्रदर्शित इस फिल्म में भारत और चीन के बीच 1962 में हुई जंग को आधार बनाया गया था। देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू आज़ादी के बाद चीन को सबसे बड़ा मित्र समझ रहे थे। उस वक्त 'हिन्दी-चीनी भाई-भाई' का नारा भी मशहूर हुआ था, लेकिन 1962 में चीन ने पीछे से वार किया और भारत पर हमला कर दिया। भारत की सेना इस अप्रत्याशित हमले के लिए तैयार नहीं थी। इस कारण भारत को हार का मुंह देखना पड़ा। फिल्म का निर्देशन चेतन आनंद का था। कलाकार थे बलराज साहनी, धर्मेंद्र, प्रिया राजवंश, संजय खान और विजय आनंद।
* गांधी : इस फिल्म को आज़ादी (15 अगस्त) और संविधान स्थापना के दिन (26 जनवरी) की परमानेंट फिल्म माना जाता है। 1982 में रिलीज़ हुई इस फिल्म को बनाया था हॉलीवुड के मशहूर निर्माता-निर्देशक रिचर्ड एटनबरो ने। फिल्म में गांधी की भूमिका निभाने वाले बल्कि ब्रिटिश एक्टर थे सर बेन किंग्सले! इसमें महात्मा गांधी के जीवन संघर्ष और स्वतंत्रता संग्राम के विभिन्न पहलुओं को पेश किया गया है। कई भारतीय और विदेशी कलाकारों से सजी इस फिल्म को पूरी दुनिया में सराहना मिली। 55वें ऑस्कर अवार्ड्स में फिल्म को 11 अलग-अलग कैटेगरी में नॉमिनेशन मिला और इनमें से आठ पुरस्कार उसकी झोली में आए। 
* बॉर्डर :  जेपी दत्ता की 1997 में रिलीज़ हुई ये फिल्म 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान राजस्थान के लौंगेवाला पोस्ट पर लड़ी गई लड़ाई पर आधारित और सच्ची घटनाओं से प्रेरित थी। दिखाया गया है कि कैसे पंजाब रेजिमेंट के 120 जवानों ने मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी के नेतृत्व में पाकिस्तानी सेना की पूरी टैंक रेजिमेंट के खिलाफ रातभर अपनी पोस्ट को बचाए रखा था। फिल्म में सारे कलाकारों ने अपने किरदारों को बखूबी निभाया और फिल्म सुपरहिट रही। फिल्म के मुख्य कलाकारों में सनी देओल, अक्षय खन्ना, जैकी श्रॉफ, सुनील शेट्टी, पूजा भट्ट, तब्बू, शर्बानी मुखर्जी आदि थे।
* लगान : आमिर खान निर्देशित फिल्म 'लगान' भी देशभक्ति की भावना से लबरेज़ फिल्म है। इसमें अंग्रेजों के खिलाफ आवाज बुलंद करने और क्रिकेट, जो उस दौर में अंग्रेजों का पसंदीदा खेल था, में उन्हीं ही मात देने की अनोखी कहानी है। फिल्म में अंग्रेज अधिकारी गांव वालों पर भारी लगान थोपता है। जब गांव वाले लगान कम करने की विनती करते हैं तो लगान और बढ़ा दिया जाता है। तभी एक सीनियर अंग्रेज अधिकारी प्रस्ताव रखता है कि अगर गांव वाले अंग्रेजों को क्रिकेट में हरा दें तो उनका तीन साल का लगान माफ हो जाएगा। प्रस्ताव स्वीकार करने के बाद गांव वाले क्रिकेट सीखने की जी-तोड़ कोशिश करते हैं और अंत में फिरंगियों को हरा भी देते हैं। 'लगान' का निर्देशन आशुतोष गोवारीकर का था और मुख्य कलाकार थे आमिर खान, ग्रेसी सिंह, रैचेल शैली और पॉल ब्लैकथॉर्न।
* लीजेंड ऑफ भगत सिंह : शहीद भगत की सिंह की जिंदगी पर बनी और 2002 में प्रदर्शित फिल्मों के जिक्र के बगैर आज़ादी से जुड़ी फिल्मों की पूरी नहीं होती! आजादी की जंग के दौरान शहीद भगत सिंह ने 24 साल की उम्र में अंग्रेजों के फांसी के फंदे को हंसते-हंसते गले लगा लिया था। उनके जीवन की कहानी हमेशा ही लोगों के लिए प्रेरणादायी रही है। राजकुमार संतोषी के निर्देशन में बनी ये फिल्म भगत सिंह की जिंदगी पर आधारित है। फिल्म में अजय देवगन ने भगत सिंह का किरदार निभाया है। फिल्म में राज बब्बर, अमृता राव और फरीदा जलाल जैसे मशहूर कलाकार भी थे। फिल्म के निर्देशक थे राजकुमार संतोषी।
* स्वदेस : शाहरुख खान अभिनीत इस फिल्म में अमेरिका में रह रहा एक कामयाब भारतीय वैज्ञानिक कैसे वापस अपनी मिट्टी से जुड़ता है, इसे बखूबी दिखाया गया है। 2004 में प्रदर्शित इस फिल्म में शाहरुख खान वैज्ञानिक की भूमिका हैं, जो 'नासा' में काम करते हैं। वह अपनी दादी को लेने भारत आता है और यहां उसकी पहचान एक बार फिर अपनी मातृभूमि से होती है। भारत आकर वह पाता है कि शहरों में हो रहे विकास से गांव वाले अब भी महरूम हैं और वह गांव वालों की हर तरह से मदद करने की कोशिश करता है। आशुतोष गोवारीकर की इस फिल्म न सिर्फ कामयाबी के झंडे गाड़े, बल्कि शाहरुख खान को एक अभिनेता के तौर पर स्थापित भी कर दिया।
* लक्ष्य : 2004 में प्रदर्शित ये फिल्म 1999 के कारगिल युद्ध पर आधारित थी। इसमें दिखाया गया है कि कैसे एक युवक, जिसे पता ही नहीं है कि उसे जीवन में क्या करना है। वह सेना में भर्ती होता है और न सिर्फ युद्ध में हिस्सा लेता है, बल्कि अपनी टीम को विजय भी दिलाता है। रितिक रोशन ने लेफ्टिनेंट करण शेरगिल का किरदार बखूबी निभाया है। हालांकि फिल्म की कहानी काल्पनिक थी, लेकिन फिर भी लोगों का दिल जीतने में कामयाब रही। फिल्म के निर्देशक थे फरहान अख्तर! रितिक के अलावा प्रीति जिंटा, अमिताभ बच्चन, ओम पुरी और बोमन ईरानी थे।
* रंग दे बसंती : इसे लोगों की आंखें खोलने वाली और लोगों के विश्वास की फिल्म कहा जाए तो गलत नहीं होगा! जहां विद्रोह की भावना समय और उम्र से परे हो जाती है। 2006 में आयी इस फिल्म में भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और उनके सहयोगियों की भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई पर फिल्म बनाने के लिए एक फिरंगी युवा फिल्म निर्माता सू भारत आती है। लेकिन, पैसों की कमी की वजह से वह अपनी फिल्म में काम करने के लिए दिल्ली यूनिवर्सिर्टी के कुछ छात्रों को चुनती है। ये युवा आज के युवाओं जैसे ही हैं। आत्मकेंद्रित और मस्ती करने वाले, जिनके लिए देशभक्ति और बदलाव लाने जैसी बातें किताबों में ही होती हैं। फिल्म बेहतरीन है और युवाओं को भी काफी पसंद आई। फिल्म में कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं, जो इन युवकों को सिस्टम के खिलाफ लड़ने को मजबूर कर देती हैं। फिल्म के निर्देशक हैं राकेश ओमप्रकाश मेहरा और मुख्य कलाकार हैं आमिर खान, सोहा अली खान, कुणाल कपूर, आर माधवन, सिद्धार्थ नारायण, शरमन जोशी, अतुल कुलकर्णी और ब्रिटिश एक्ट्रेस एलिस पैट्टन।
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