Thursday 29 September 2016

जो दर्शकों का गम भुला दे, वही फिल्म सफल!

- एकता शर्मा 

  दर्शकों की पैसा वसूल फिल्म कौनसी होती है? इस सवाल का सबसे सीधा जवाब है, वो फिल्में जो दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करे और उनके सारे गम 3 घंटे के लिए भुला दे! मतलब स्पष्ट है कि दर्शकों को कॉमेडी फ़िल्में ही सही और सार्थक मनोरंजन दे सकती है! यही कारण है कि जब भी कोई कॉमेडी फिल्म लगती है, दर्शक उसे हाथों हाथ लेते हैं। हॉउसफुल-3, ग्रेट ग्रैंड मस्ती और ए फ्लाइंग जट की सफलता इसी की निशानी है। देखा जाए तो हर तीन फिल्मों के बाद एक कॉमेडी फिल्म रिलीज होती ही है। हिंदी फिल्मों में एक दौर चलता है ट्रेंड का! जब कोई एक्शन फिल्म हिट होती है तो मारधाड़ वाली फिल्मों कि लाइन लग जाती है! प्रेम कहानी को दर्शक पसंद करते हैं तो यही दौर चल पड़ता है। लेकिन, कॉमेडी फ़िल्में ऐसी हैं, जिनका दौर कभी ख़त्म नहीं होता! बीच-बीच में जब भी कोई फिल्म हिट होती है, तो नई फिल्म का इंतजार शुरू हो जाता है। फिल्मों का इतिहास देखा जाए तो हर काल में कॉमेडी फ़िल्में ही सबसे ज्यादा पसंद की गई हैं। आज भी दर्शकों को ऐसी  फिल्मों का इंतजार होता है, जो उनके गम भुलाकर उन्हें तीन घंटे का स्वस्थ्य मनोरंजन दे सकें!  
     कॉमेडी कभी भी फिल्मों का मूल विषय नहीं रहा! ब्लैक एंड व्हाइट ज़माने से फिल्मों में कॉमेडियन एक ऐसा पात्र होता था, जो कहानी में सीन बदलनेभर लिए होता था। ये कभी फिल्म कि मूल कहानी से जुड़ा होता था, कभी अलग होता था! गोप, आगा और टुनटुन ऐसे ही कॉमेडियन थे! फिर आए, बदरुद्दीन उर्फ़ जॉनी वॉकर जिन्होंने अपनी कौम को नई पहचान दी और फिल्म में कॉमेडियन को अहम भूमिका में खड़ा कर दिया! लम्बे समय तक जॉनी वॉकर सिक्का चला! इसी दौर में किशोर कुमार ने भी 'चलती का नाम गाड़ी' और 'हाफ टिकट' जैसी फिल्मों से अपने जलवे दिखाए! लेकिन, फिर भी अच्छी कॉमेडी फ़िल्में आज भी उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं। कुछ फिल्मकारों ने जरूर अच्छी कॉमेडी फ़िल्में दी, जिन्हें आज भी दर्शक देखना पसंद करते हैं। सवाल उठता है कि अच्छी कॉमेडी फ़िल्म किसे कहा जाए? इसका एक ही जवाब है कि जिस फिल्म को हम अपनी ज़िन्दगी और उसकी उलझनों के जितना करीब पाते हैं, वही अच्छी कॉमेडी फिल्म होती है! एक दौर ऐसा भी आया जिसमें सेक्स को कॉमेडी फिल्मों का विषय बनाया जाने लगा! इंद्र कुमार ने 'ग्रैंड मस्ती' बनाकर इस विषय को छुआ! इस फिल्म बारे उनका दावा था कि ये हॉलीवुड की 'अमेरिकन पाई' और 'हैंगओवर' जैसी सेक्स कॉमेडी से आगे कि फिल्म है। लेकिन, अभी दर्शकों ने ऐसी फिल्मों के बारे में खुलकर राय नहीं दी है कि वे कॉमेडी में भी सेक्स कॉमेडी पसंद करेंगे या नहीं?
   याद कीजिए 1968 में आई 'पड़ोसन' को! ये ऐसी फिल्म थी, जिसे जितनी बार देखा जाए मन नहीं भरता! रोमांटिक कॉमेडी वाली ये फिल्म गंवार सुनील दत्त और मार्डन सायरा बानो के आसपास कॉमेडी के रंग बिखेरती है। 1972 में अमिताभ बच्चन की शुरूआती फिल्म 'बाम्बे टू गोआ' को भी फिल्में देखने वाले भूल नहीं पाते, जिसमें बस सफर में हास्य खोजा गया था! 1975 में बनी 'चुपके चुपके' भी ऐसी फिल्म थी, जिसमें अमिताभ बच्चन और धर्मेन्द्र ने कॉमेडी रिकॉर्ड बनाया था। इस फिल्म में नकली और बेढंगे हास्य के बजाए परिस्थितिजन्य से उपजा शिष्ट हास्य था। इस परम्परा को इसी साल आई 'छोटी सी बात' ने आगे बढ़ाया। दर्शकों को इस फिल्म में शिष्ट कॉमेडी नजर आई, जिसमें फूहड़ता और द्विअर्थी संवादों लिए कोई जगह नहीं थी! एक शर्मिला युवक अमोल पालेकर किस तरह अपनी सादगी से एक लड़की विद्या सिन्हा को प्रभावित करता है। इसी तरह का शिष्ट हास्य 1979 में आई फिल्म 'गोलमाल' में भी नजर आया! इसी को आधार बनाकर रोहित शेट्टी ने 'बोल बच्चन' बनाई, जिसने भी सराहा गया। कॉमेडी को नया रूप देने वाली 1981 में आई सईं परांजपे की फिल्म 'चश्मे बद्दूर' को भी भुलाया नहीं जा सकता। 2013 में इसी स्टोरी को नए कलाकारों के साथ डेविड धवन ने बनाया था। सई परांजपे की ही फिल्म 'कथा' ने अपने तरीके से खरगोश और कछुवे पुरानी कहानी को जिंदा किया था। 
  मनोरंजन का सही मतलब ये कॉमेडी फ़िल्में ही हैं, जिन्हें देखकर दर्शक अपना टाइम पास करता है। इंग्लिश फिल्म 'सेवन ब्राड फार सेवन ब्रदर्स' पर 1082 में बनी 'सत्ते पर सत्ता' फुल मनोरंजन का सबूत था। गुलजार की 'अंगूर' भी इसी के साथ आई, जिसमें संजीव कुमार और देवेन वर्मा की जोड़ी ने खूब गुदगुदाया था। इसी थीम पर ब्लैक एंड व्हाइट युग में किशोर कुमार 'दो दूनी चार' आ चुकी है। इस बात से इंकार नहीं कि समय और दर्शकों पसंद के मुताबिक कॉमेडी का रूप बदलता रहा, पर इनका मकसद हमेशा दर्शकों को गुदगुदाना ही होता है। 1983 में कुन्दन शाह ने 'जाने भी दो यारो' बनाई और दर्शकों को बांधे रखा! इसके एक सीन महाभारत का मंचन और क्लाइमेक्स में लाश की गड़बड़ को दर्शक आज भी नहीं भूले हैं। प्रकाश मेहरा ने 1986 में अनिल कपूर, अमृता सिंह को लेकर 'चमेली की शादी' में कॉमेडी का तालमेल बनाया था। अब ये जरुरी नहीं कि कॉमेडियन ही फिल्मों में  किरदार निभाएं! गोविंदा, संजय दत्त, आमिर खान, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र और सलमान जैसे बड़े कलाकारों ने भी कॉमेडी रोल करने मौका नहीं छोड़ा! कुली नंबर-1, मुन्नाभाई, अंदाज अपना अपना, हेराफेरी, गोलमाल और वेलकम सीरीज की फ़िल्में इसी का उदहारण है।  
  डेविड धवन और गोविंदा के नए दौर की कॉमेडी के लिए आज भी याद किया जाता है। द्विअर्थी संवाद के साथ डेविड और गोविंदा ने हास्य कि अलग ही दुनिया बनाई थी! 1995 में 'कुली नम्बर वन' में गोविन्दा के साथ शक्ति कपूर और कादर खान ने हंसी के फटाखे जमकर फोड़े थे। इसी साल 'दीवाना मस्ताना' में भी कादर खान, जानी लीवर और सतीश कौशिक ने दर्शकों को कुर्सी से खड़े होने पर मजबूर कर दिया था। प्रियदर्शन ने 2000 में आई 'हेराफेरी' से फिल्म की कॉमेडी धारा को पकड़ा जिसमें उन्होंने अक्षय और सुनील शेट्टी से कॉमेडी करवा ली! इस फिल्म में परेश रावल और ओमपुरी ने भी अपनी नई विधा का परिचय दिया। इसके बाद तो कॉमेडी फिल्मों की लाइन लग गई। 2001 में लव के लिए कुछ भी करेगा आई! लेकिन, 2003 में 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' से कॉमेडी पसंद करने वाले नए दर्शक सामने आए। 2005 में 'नो एण्ट्री' ने भी दर्शकों का खूब हंसाया! एक्शन फिल्मों के नामी डायरेक्टर रोहित शेट्टी का कॉमेडी बनाने में भी कोई जोड़ नहीं! उन्होंने 'गोलमाल' सीरीज से 2006, 2008 और 2010 में तीन फिल्में बनाई! तीनों फिल्में बॉक्स आफिस पर पैसा बटोरने में सफल रही। 
  2007 में आई 'धमाल' का नाम इस फिल्म की थीम बता देता है। इस साल 'भेजा फ्राय' ने भी कामेडी का एक नया रंग प्रस्तुत किया। लेकिन, 2009 में प्रदर्शित 'थ्री इडियटस' एक सोद्देश कॉमेडी फिल्म थी! इसी के साथ आई 'आल द बेस्ट' में संजय दत्त और अजय देवगन ने भी दर्शकों को खूब हंसाया। बात ये कि दर्शकों को पैसा वसूल मनोरंजन सिर्फ कॉमेडी फिल्मों से ही मिलता है। क्योंकि, फिल्म देखने का असल मकसद अपनी जिंदगी के दर्द को भूलना होता है,जो दर्शक सिर्फ कॉमेडी फिल्म में ही भूल पाता है। 
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जंगल के 'टाइगर' की तरह बॉलीवुड पर राज करता हीरो

 - एकता शर्मा 


  फ़िल्मी दुनिया में चढ़ते सूरज को अर्ध्य देने का चलन पुराना है। जब भी कोई नया सितारा जन्म देता है, उसकी आरती उतारना शुरू कर दी जाती है। आजकल पूरी इंडस्ट्री टाइगर श्रॉफ को हाथों हाथ ले रही है! उससे जुडी हर बात खबर बनने लगी! अपने ज़माने के सुपर हिट हीरो जैकी श्रॉफ के बेटे टाइगर की पहली फिल्म 'हीरोपंती' के हिट होने के बाद जब 'बागी' ने भी सफलता की पायदान चढ़ी, तो जैकी के घर के बाहर निर्माताओं की लाइन लग गई! अपने ख़ास तरह के डांस और एक्शन कारण नई पीढ़ी के दर्शकों ने टाइगर को हाथों हाथ लिया! 'बागी' में टाइगर ने जिस तरह की एक्शन के नज़ारे दिखाए उनमें एक नया जैकी देखा जाने लगा! 
  टाइगर एक बड़े अभिनेता के बेटे हैं, इसलिए उनका हीरो बनना तो तय था, पर उनसे कई दंतकथाएं भी जुडी हैं। कहा जाता है कि जब जैकी के घर बेटे का जन्म हुआ तो 'हीरो' के निर्देशक सुभाष घई उसे देखने पहुंचे थे! सुभाष घई ने पहली बार टाइगर को देखा और उसे एक सौ रुपए का नोट कहते हुए दिया कि यह साइनिंग अमाउंट है! तुम्हें मैं बतौर हीरो लांच करूंगा। लेकिन, जब टाइगर बड़े हुए और जब उन्होंने फिल्मों में अभिनय की रूचि दिखाई तो चर्चा चली कि सुभाष घई अपनी सुपरहिट फिल्म 'हीरो' का रिमेक टाइगर को लेकर ही बनाएंगे। लेकिन, ऐसा हुआ नहीं! टाइगर को साजिद नाडियाडवाला ने 'हीरोपंती' में लांच किया। 
  बॉलीवुड में जब टाइगर का पहली बार जिक्र हुआ तो लोगों को उनके नाम को लेकर आश्चर्य हुआ? सब बोले ये कैसा नाम? टाइगर ने इस बात का खुलासा एक इंटरव्यू में किया! उससे पूछा गया था कि क्या आपको कभी अपने नाम की वजह से शर्मिंदगी उठानी पड़ी? तो उन्होंने बड़े ही गर्व से कहा कि मेरे स्कूल में कोई दूसरा टाइगर नहीं था, इसलिए सबको मेरा नाम बहुत कूल लगता था! मैं चाहता हूं कि मैं अपने करियर को उसी ऊंचाई पर ले जाऊं, जहां बाकी टाइगर, जैसे गोल्फर टाइगर वुड्स और क्रिकेटर मंसूर अली खान पटौदी थे! मुझे ये नाम इसलिए मिला, क्योंकि बचपन में मैं लोगों को काटता और नोचता था! लेकिन, वास्तव में टाइगर का नाम हेमंत श्रॉफ है। टाइगर भले ही अपने जीवन में अपने नाम की वजह से शर्मिंदा न हुए हों, लेकिन अपने इस शानदार जवाब के लिए जो रिएक्शन्स सोशल मीडिया पर आए, उन्हें देखकर टाइगर जरूर शर्मिंदा हुए होंगे! लेकिन, टाइगर श्राॉफ को शर्मिंदा करना इतना भी आसान नहीं! क्योंकि, विलुप्त होने की कगार तक पहुंच चुके असल बाघों को बचाने के लिए रियल हीरो हैं! 
  टाइगर श्रॉफ ने अपनी पहली फिल्म से ही दर्शकों का और क्रिटिक्स का दिल जीत लिया। टाइगर को पहली फिल्म के लिए चार अवार्ड से नवाजा गया। जिनमें 'आइफा' का मेल डेब्यू अवॉर्ड भी शामिल है। उनकी सबसे ज्यादा रूचि बॉडी बनाने में है। टाइगर की रूचि इसी बात से नजर आती है कि फिल्म 'धूम-3' के दौरान टाइगर ने ही आमिर खान को उनकी बॉडी बनाने में मदद की थी। इस दौरान टाइगर और आमिर में काफी अच्छी बॉन्डिंग भी हो गई थीं। आमिर टाइगर की डेब्यू फिल्म को प्रोड्यूस भी करना चाहते थे, पर ऐसा नहीं हो सका! लेकिन, फिल्म का ट्रेलर आमिर खान ने ही लांच किया! टाइगर श्रॉफ एक्टिंग में आने से पहले मार्शल आर्ट्स और स्पोर्ट्स में रूचि रखते थे!
  टाइगर की नई फिल्म 'ए फ्लाइंग जट्ट' में सुपर हीरो का किरदार निभा रहे हैं। टाइगर का कहना है कि फिल्म इंडस्ट्री में कई सुपर हीरो हुए जैसे ‘कृष’ में ऋतिक रोशन, ‘रा-वन’ में शाहरुख खान और ‘शिवा के इंसाफ’ में उनके पिता जैकी श्रॉफ! इन सबको देखकर उन्हें लगता है कि उनकी जिम्मेदारी बढ़ गई है! क्योंकि, उनके पिता और ऋतिक के साथ अन्य लोग भी उनसे उम्मीद लगाए बैठे हैं, जिससे टाइगर काफी दबाव महसूस कर रहे हैं! ‘ए फ्लाइंग जट्ट’ में टाइगर में कॉमेडी और एक्शन के साथ सुपर हीरो का किरदार निभाया हैं। 
  'हीरोपंती' और 'बागी' के हिट होने के बाद टाइगर को बॉलीवुड के अलावा इंटरनेशनल फिल्मो के ऑफर मिलने लगे! हाल ही में टाइगर को जैकी चेन ने भी बुलावा भेजा है। लेकिन, टाइगर के पास अभी हॉलीवुड के प्रोजेक्ट्स के लिए भी समय नहीं है। टाइगर ने हाल ही में कोरियोग्राफर अहमद खान की वीडियो ‘चल वहां जाते हैं’ में कृति सेनन के साथ काम किया! इससे पहले वे आतिफ असलम के साथ ‘ज़िन्दगी आ रहा हूँ’ में भी काम कर चुके हैं। दोनों ही वीडियो बिज़नेस के लिहाज से कामयाब रहे। 
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बॉलीवुड में नहीं चलती हीरोइनों की दूसरी पारी

- एकता शर्मा 

  अभिनय एक ऐसा कारोबार है, जो तब तक मंदा नहीं पड़ता, जब तक दर्शकों का साथ मिलता रहता है! लेकिन, जैसे ही किसी हीरो या हेरोइन से दर्शकों का दिल उचाट हुआ, अभिनय का सारा कारोबार दरक जाता है। क्योंकि, बॉलीवुड अभी तक वो फार्मूला नहीं खोज पाया, जिसे अपनाकर फिल्म की सफलता का दावा किया जा सके! लेकिन, बॉलीवुड के जांबाज हीरो और हीरोइन भी उस मिट्टी के बने होते हैं, जो आसानी से हार नहीं मानते! उनकी एक पारी पूरी होती है, तो कुछ वक़्त बाद दूसरी पारी की तैयारी कर लेते हैं! ऐसे हीरो, हीरोइनें की लंबी लिस्ट है, जिन्होंने दूसरी पारी में किस्मत आजमाई! कुछ का सिक्का दूसरी बार में भी अच्छा चला! पर, ज्यादातर दूसरी पारी में कोई करिश्मा नहीं कर सके! अपनी दूसरी पारी में सर्वकालीन सफल अभिनेताओं में अमिताभ बच्चन अकेले हैं! अमिताभ पहली पारी में जितने सफल रहे, उससे कहीं ज्यादा सफलता उन्होंने दूसरी पारी में पाई! 
 याद करने पर भी कोई अभिनेत्री दूसरी पारी में बहुत ज्यादा सफलता नहीं पा सकी! फिर वो धक् धक् गर्ल माधुरी दीक्षित ही क्यों न हो! क्योंकि, हीरोइन की वापसी आसान नहीं होती! उम्र की ढलान का असर दर्शक भांप लेते हैं! वे बूढ़े हीरो को तो स्वीकार लेते हैं, पर बूढ़ी हीरोइन को परदे पर इश्क़ फरमाते देखना नहीं चाहते! बॉलीवुड में 35 प्लस की हीरोइन के लिए वैसे भी कोई पटकथा नहीं लिखी जाती! अधिकांश हीरोइनों की दूसरी पारी माँ या बहन  सीमित हो जाती हैं।  
  सौदागर, खामोशी, दिल से जैसी फिल्मों से पहचान बनाने वाली मनीषा कोइराला कैंसर से जंग लड़ने के बाद ‘डियर माया’ में दिखाई दी! पर, बात नहीं बनी! कपूर खानदान की करिश्मा की दूसरी पारी भी कमजोर साबित हुईं। छ: साल बाद करिश्मा ने विक्रम भट्ट की 'डेंजरस इश्क' जैसी फिल्म की! लेकिन, दर्शकों ने फिल्म को नकार दिया! सफलतम हीरोइन  वाली माधुरी दीक्षित की दूसरी पारी भी फीकी रही! 2007 में उन्होंने 'आजा नच ले' से वापसी की कोशिश की, लेकिन फिल्म नहीं चली! इसके बाद एक्शन फिल्म 'गुलाब गैंग' भी पानी नहीं माँगा! 'डेढ़ इश्किया' को दर्शक नहीं मिले! रेखा जैसी नामचीन एक्ट्रेस ने भी 'सुपर नानी' से वापसी की कोशिश की, लेकिन फिल्म ने पानी नहीं माँगा! 
  तब्बू भी काफी समय से इस इंतजार में थीं कि बॉलीवुड में उनकी दूसरी पारी शुरू हो! लेकिन, तब्बू का ये फैसला सही था कि उन्होंने हीरोइन के बजाय कैरेक्टर रोल को चुना! पहले 'हैदर' और उसके बाद तब्बू 'दृश्यम' में दिखाई दी और दोनों ही फिल्मों में उनके अभिनय को सराहा गया! श्रीदेवी को भी उस फेहरिस्त में रखा जा सकता है, जिनकी वापसी का दर्शकों ने स्वागत किया! 2012 में आई 'इंग्लिश विंग्लिश' सफल रही थी! फिल्म की पटकथा मजबूत थी और श्रीदेवी ने भी उस अधेड़ महिला का किरदार निभाया था, जो बेटियों  पर इंग्लिश सीखती है। इस फिल्म की सफलता के बाद भी श्रीदेवी ने दूसरी फिल्म की जल्दबाजी नहीं की! डिम्पल कपाड़िया दूसरी पारी को भी सफल कहा जा सकता है। रुदाली, लेकिन, बनारस जैसी फिल्मों से डिम्पल ने अपनी ग्लैमरस पहचान को पूरी तरह बदल डाला था! लेकिन, राजेश खन्ना की मौत के बाद से ही वे परदे से दूर हैं! डिंपल ने होमी अदजानिया की ही फिल्म 'कॉकटेल' की थी। फिल्म में डिंपल सैफ अली की माँ के रोल में थी! 'कॉकटेल' से पहले डिंपल ने होमी की एक फिल्म 'बीइंग सायरस' में भी काम किया था। 
  सलमान खान से साथ 'तेरे नाम' से अभिनय यात्रा शुरू करने वाली एक्ट्रेस भूमिका चावला कई सालों से बॉलीवुड से अलग रहीं! भूमिका ने 'तेरे नाम' में निर्झरा का किरदार निभाकर दर्शकों का जीता था! 2007 में उनकी आखिरी फिल्म 'गांधी माई फादर' रिलीज हुई थी। अब भूमिका 'एसएस धोनी' की बायोपिक फिल्म में धोनी की 'बहन' बनकर वापसी कर रही हैं। पीछे पलटकर देखा जाए तो पुराने दौर में हीरोइन का वापसी करना बेहद मुश्किल काम माना जाता था। वापसी होती थी तो मां के रोल में! वहीदा रहमान, नूतन, माला सिन्हा, शर्मीला टैगोर, सायरा बानू समेत कई हीरोइनों ने फिर परदे का रुख किया, पर हीरो या हीरोइन की माँ बनकर! हीरोईन बनने का साहस संभवतः सत्तर के दशक में अपने अभिनय से धूम मचाने वाली मुमताज ने किया था! 1990 में 'आंधियां' से वापसी की कोशिश की थी। लेकिन, इस फिल्म के पिटने के साथ ही उन हीरोइनों की वापसी के दरवाजे भी बंद हो गए, जो मुमताज की समकालीन थीं और वापसी की राह देख रही थीं।
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Sunday 18 September 2016

अदालत की दहलीज पर औरत की अनंत पीड़ा

- एकता शर्मा 
  हमेशा ही अदालत, अस्पताल और पुलिस थाने से जहाँ तक हो सके बचकर रहने की सलाह दी जाती है। ये बात अपनी जगह इसलिए भी सही है! क्योंकि, ये तीन वो जगह होती है, जहाँ कोई भी अपनी मर्जी से नहीं जाता! मज़बूरी ही व्यक्ति को वहाँ ले जाती है। अस्पताल और पुलिस थाने की मज़बूरी अपनी जगह अलग है! लेकिन, अदालतों के चक्कर लगाना एक अलग तरह की मानसिक पीड़ा भोगने जैसा है। ये पीड़ा एक या दो बार की नहीं, कई बरसों की भी हो सकती है। लेकिन, जब यही पीड़ा किसी महिला को भोगना पड़े तो यंत्रणा कई गुना ज्यादा बढ़ जाती है। किसी घरेलू महिला का अदालत की सीढ़ियाँ चढ़ना बेहद पीड़ादायक क्षण होता है। खासकर उस महिला के लिए जिसने 'अपनी दुनिया' में अदालत का दरवाजा तक नहीं देखा हो! जब इस तरह की महिलाएं अदालत में आती हैं तो उन्हें मानसिक, आर्थिक और शारीरिक पीड़ा के अलावा एक और दर्द झेलना पड़ता है, जो होता है उनके लिए अदालत में बुनियादी सुविधाओं का अभाव!      


  एक वकील के तौर पर मैंने अपने 15 साल के करियर में कई ऐसी महिलाओं को इस तरह की असुविधाओं से जूझते देखा है! एक सच ये भी है कि जब भी कोई महिला अदालत की सीढ़ियाँ चढ़ने के लिए मजबूर होती है, सामने उसका पति होता है, ससुराल होता है या कोई निकट संबंधी! जबकि, आम घरेलू महिलाओं को न तो कानूनी दांव-पेंचों का पता होता है और न वे अदालतों की कार्यप्रणाली से वाकिफ होती हैं! अदालतों में अधिकांश मामले तलाक, दहेज़ प्रताड़ना, भरण-पोषण, संपत्ति में अधिकार, जमीन-जायदाद में बंटवारा, बच्चों की कस्टडी, विवाह पुनर्स्थापना और घरेलू हिंसा से जुड़े होते हैं। ये भी सच है कि किसी भी महिला के जीवन में जब ऐसी कोई विपत्ति आती है, ज्यादातर मामलों में पति उसके साथ नहीं होता! ऐसे में बच्चों को साथ लेकर अदालत तक आना, वकीलों से प्रकरण को लेकर जद्दोजहद करना, फीस का इंतजाम, अदालत में लगने वाले खर्चे का इंतजाम, भागदौड़, सारा दिन अदालत में बिताना, बच्चे साथ हो तो उनको बहलाए रखना, यदि बच्चों को घर में छोड़ा हो तो उनकी चिंता करना! यदि कामकाजी हो तो वहाँ से छुट्टी लेना! अंत में फिर एक नई तारीख के साथ वापस लौटना! ये वो संत्रास है जो अदालत में चल रहे मामलों से अलग होते हैं। 
  महिला चाहे घरेलू हो या कामकाजी उसकी कुछ निर्धारित जरूरतें हैं। यदि वो घर या दफ्तर में है, तो वहां उसे इन जरूरतों का अभाव नहीं खटकता, पर जब वो बाहर निकलती है तो यही छोटी-छोटी जरूरतें उसके लिए परेशानी बन जाती है। जहाँ तक अदालतों में महिलाओं की बुनियादी सुविधाओं का सवाल है तो यहाँ उसे इनका अभाव कुछ ज्यादा ही खटकता है। शायद इसलिए कि यहाँ उसकी मानसिक परेशानी चरम पर होती है! ऐसे में यही बुनियादी सुविधाओं का अभाव उसे तोड़कर रख देता है। मेरी एक महिला पक्षकार को उसके पति ने दूसरी बार भी बेटी होने के कारण चारित्रिक लांछन लगाकर छोड़ दिया है। वो हर तारीख पर दो छोटी बच्चियों को लेकर अदालत आती है! सबसे ज्यादा परेशानी उसे दुधमुहीं बच्ची को सँभालने में होती है! उसे कैसे दूध पिलाए, दोपहर में कहाँ सुलाए, खुद कहाँ बैठे, दूसरी बच्ची पर भी उसे नजर रखना है कि वो कहीं चली न जाए! ऐसी कई परेशानियां हैं, जिन्हें झेलते मैंने उस महिला को देखा है। ये किसी एक महिला के दुःख की कहानी नहीं है, इससे अधिकांश महिलाएं हमेशा ही जूझती रहती हैं। आज जब सरकार ट्रेनों में छोटे बच्चे वाली महिला यात्रियों को दूध, गर्म पानी और बेबी फ़ूड की सुविधा देने की पहल कर रही है! क्या अदालत की चौखट पर खड़ी ऐसी परेशान महिलाओं के कुछ नहीं किया जा सकता? यदि अदालत परिसर में छोटे बच्चो के लिए झूलाघर, महिलाओं के लिए बैठने के अलग इंतजाम, महिला शौचालय, महिला गार्ड हो तो इनकी उस परेशानी काफी हद तक जा सकता है, जिनके अभाव में ये टूट सी जाती हैं!   
  इस तरह की बुनियादी सुविधाओं की सबसे ज्यादा जरुरत कुटुंब न्यायालयों में होती हैं, जहाँ एक पक्ष हमेशा महिलाएं ही होती है! कई जगह तो कुटुंब न्यायालय दूसरी मंजिल पर भी देखे गए हैं! विचार करने वाली बात कि यदि कोई महिला पक्षकार गर्भवती या बूढी हो, तो वो कैसे ऊपर मंजिल तक तक जाएगी? यही कारण है कि इन न्यायालयों में महिलाओं के लिए बुनियादी सुविधाओं जरुरत बहुत ज्यादा है! उनके लिए न तो कवर्ड बरामदे या कमरे हैं न अलग से सुविधाघर! यदि सुविधाघर हैं भी तो वो पुरुषों के लिए बने हुए सुविधाघरों से सटे हुए हैं। छोटे बच्चे वाली महिलाओं, उनके बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए कोई सुविधाएँ नहीं होती! बैठने की ठीक व्यवस्थाएं न होने से गर्मी और बरसात में सबसे ज्यादा परेशानी महिलाओं को ही होती है। पुरुष पक्षकार तो किसी भी होटल या पान की दुकान में पनाह ले लेते हैं, पर महिलाएं तो ये सब कर नहीं पाती और न किसी से कह ही पाती हैं! जहाँ तक महिलाओं के लिए विधिक सहायता की बात है तो ये इंतजाम अदालतों में किए तो गए हैं, पर महिलाओं के लिए ये अलग से होना चाहिए! महिलाओं से जुडी विधिक सहायता के लिए महिला वकीलों को ही ये काम सौंपा जाए, ताकि वे उनकी समस्याओं को ठीक से समझ सकें! 
  सरकार ने अदालतों में बाहर से आने वाले गरीब और कमजोर वर्ग के पक्षकारों और उनके परिजनों के रुकने के लिए 'न्याय सेवा सदन' बनाए। 2006 में शुरू की गई ये योजना अभी सभी जगह लागू नहीं हुई! लेकिन, जहाँ भी इस तरह के इंतजाम किए गए हैं, उनमें रुकने की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि सामान्य पक्षकार तो इस सुविधा का लाभ ले ही नहीं सकता! इस स्थान पर भी महिलाएं नहीं रुक पाती, क्योंकि सुरक्षा के इंतजाम नाकाफी होते हैं! महिला गार्ड जैसी भी कोई व्यवस्था नहीं होती! 'न्याय सेवा सदन' अदालत परिसर में होते हैं, जो सामान्यतः शहर से बाहर बने होते हैं। कई स्थानों पर बने 'न्याय सेवा सदनों' में तो अभी तक कोई रुक भी नहीं सका! 
  महिला पक्षकार का दर्द पुरुष पक्षकारों मुकाबले बहुत ज्यादा होता है। एक महिला को सिर्फ अदालत कार्रवाई से ही नहीं जूझना पड़ता, बल्कि बुनियादी सुविधाओं की कमी को भी सहना पड़ता है। ऊपर से समाज की तरफ से उठती संदेह की नजरें भी उसे लज्जित करने से बाज नहीं आती! कानून सबके लिए बराबर होता है फिर चाहे वो पुरुष हो या महिला! लेकिन, किसी महिला के लिए अदालत की सीढ़ियाँ चढ़ना ही अपने आपमें अपमानजनक हालात होते हैं! ऐसे में यदि उसे बुनियादी सुविधाएँ भी मुहैया न हो तो उसकी मानसिक पीड़ा कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है। यदि इस तरह की परेशानी को महिला की नजरों से समझकर हल करने के प्रयास किए जाएँ, तो शायद किसी महिला के लिए अदालत आना दर्द का दुगुना होने से बच जाएगा! 

फिल्मों का कथानक बनते खेल और खिलाडी!

- एकता शर्मा 

   खिलाडियों और फिल्म एक्ट्रेस का संबंध सिर्फ रोमांस और शादी तक ही सीमित नहीं है! खेलों पर फ़िल्में भी कम नहीं बनी! लेकिन, खिलाडियों और खेल पर फ़िल्में बनने की गति पहले काफी धीमी रही! लेकिन, कुछ सालों में फ़िल्मी कहानियों में खेल एक विषय बनने लगा है। फिलहाल चर्चा है महेंद्रसिंह धोनी की फिल्म ‘एमएस धोनी : द अनटोल्ड स्टोरी’ की जिनमें सुशांतसिंह राजपूत ने धोनी का किरदार बेहद खूबसूरती से निभाया है। परदे पर धोनी के किरदार को उभारने के लिए सुशांत ने मेहनत भी बहुत की! खास तौर पर धोनी  पहचान कहे जाने वाले ‘हेलीकाप्टर’ शॉट मारने की प्रेक्टिस की!   
   कुछ साल पहले शाहरुख खान की भूमिका वाली फिल्म ‘चक दे इंडिया’ खेल भावना को नए सिरे से उभारा था! ये फिल्म मीररंजन नेगी के साथ हुई, एक घटना से जुडी थी, पर कहानी में  ट्विस्ट थे! फिल्म में महिला हॉकी टीम को विश्व विजेता बनाने की कल्पना की गई थी! अंत में एक हॉकी कोच की जिजीविषा रंग लाती है और महिला हॉकी टीम विजेता बनती भी है। लेकिन, ये खेलों पर केंद्रित फिल्मों की शुरुआत नहीं थी! पहले भी कुछ फिल्में बनी जिनमें आल राउंडर, अव्वल नंबर, हिप हिप हुर्रे, जो जीता वही सिकंदर, साला खड़ूस, लगान जैसी फिल्में उल्लेखनीय रही। साला खड़ूस, बॉम्बे वेलवेट, ब्रदर्स के बाद 'मेरी कॉम' के केंद्र में मुक्केबाजी थी।
  एक अनजान खिलाड़ी जो बाद में डाकू बन गया था उस पानसिंह तोमर पर तिंग्माशु धूलिया ने फिल्म बनाई थी। इसके बाद जानी मानी बॉक्सर 'मेरी कॉम' पर उमंग कुमार ने उन्हीं के नाम से प्रियंका चोपड़ा को लेकर फिल्म बनाई, जिसने बहुत अच्छा बिजनेस किया। राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने धावक मिल्खा सिंह 'भाग मिल्खा भाग' बनाकर सफलता क्या पाई, इसके बाद तो खिलाड़ियों पर फिल्में बनाने की बाढ़ आ गई! लेकिन, क्रिकेटर मोहम्मद अजहरुद्दीन पर 'अजहर' बनी पर चली नहीं! अब महेंद्र सिंह धोनी पर फिल्म आने की तैयारी है। पिछले कुछ सालों में खेलों की दुनिया में कुछ स्टार भी दिए, जो फिल्म वालों के फोकस में है। सबसे ज्यादा रूचि सानिया मिर्जा, साइना नेहवाल, प्रकाश पादुकोण, विश्वनाथन आनंद आदि पर फिल्म बनाने में दिलचस्पी ली जा रही है। साइना नेहवाल पर अमोल गुप्ते फिल्म बना रहे हैं। 
  चीन में कुछ साल पहले एक विकलांग ओलंपियन पर फिल्म बनी थी। गांव का एक विकलांग और गरीब लड़का तैराक बनना चाहता है। कैसे प्रतिकूल स्थितियों का मुकाबला करते हुए वो विजय पाता है, यह उस फिल्म का कथानक था। महत्वपूर्ण योगदान उसके कोच का था, जो विकलांग होने की उसकी कुंठा को दूर करने के लिए खेल अधिकारियों तक से लड़ जाता है। एक पैर से एवरेस्ट फतह करने वाली अरुणिमा सिन्हा की जीवनी पर फरहान अख्तर की फिल्म बनाने की योजना है। माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई करने वाली पहली बछेंद्री पाल पर भी फिल्म बनने की तैयारी है। 
  आमिर खान अपने टीवी शो ‘सत्यमेव जयते’ के एक एपिसोड में कुश्ती की दुनिया में अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाने वाली हरियाणा की फोगट बहनों में परिचय कराया था। अपनी बेटियों व भतीजी को अखाड़े में उतारने की हिम्मत दिखाने वाले महावीर पहलवान की लगन ने आमिर को इतना प्रभावित किया कि वे ‘दंगल’ में महावीर की भूमिका निभाने में जुट गए। लेकिन, इससे पहले ही यशराज प्रोडक्शन ने सलमान खान को लेकर 'सुल्तान' बना दी, जिसने इस साल सबसे ज्यादा बिजनेस किया है। अभी खेल और खिलाडियों पर फ़िल्में बनने का सिलसिला थमा नहीं है! ‘एमएस धोनी : द अनटोल्ड स्टोरी’ और आमिर खान की 'दंगल' लाइन में है।  
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(लेखिका फिल्मों पर शोध कार्य किया है) 

Thursday 15 September 2016

ऋगवेद और पारितोष की सुनने वाला कोई है क्या?

- एकता शर्मा 

  जिस बस्ते में बच्चा अपनी कॉपी-किताबें लेकर जाता है, उसका वज़न उसकी सेहत और शारीरिक विकास पर ख़राब असर डाल रहा है। एक सर्वे के मुताबिक बच्चों के स्कूल बैग का औसत वज़न 8 किलो होता है! औसतन साल में 200 दिन तक स्कूल खुलते हैं। स्कूल जाने और स्कूल से वापस आने के दौरान, जो वज़न आपका बच्चा अपने कंधों पर उठाता है। अगर उसे आधार माना जाए तो बच्चा सालभर में 3200 किलो का वज़न उठाता है। अच्छे नंबर लाने का दबाव और भारी भरकम कॉपी किताबों के बोझ से बचपन दब रहा है। लेकिन, कोई इसके खिलाफ आवाज़ नहीं उठाता! ब्रिटेन ही अकेला देश है, जहाँ स्कूल बैग का औसत वजन (12 किलो) भारतीय बच्चों के स्कूल बैग से ज्यादा है। 

  महाराष्ट्र के चंद्रपुर में स्कूल जाने वाले 2 बच्चों ने स्कूल बेग के भारी वज़न के खिलाफ आवाज़ उठाई! इन बच्चों ने एक प्रेस कांफ्रेंस करके बताया कि कैसे स्कूल जाने वाले बच्चे अपनी क्षमता से ज्यादा वज़न को उठाने पर मजबूर हैं। सातवीं में पढ़ने वाले इन दो बच्चों के नाम हैं ऋगवेद और पारितोष ने कहा कि उन्हें रोज़ अपने स्कूल बैग में 19 कॉपियां और किताबें ले जानी होती हैं। हर पीरियड के हिसाब से कॉपी और किताब रखना जरुरी है। इसके अलावा भी कुछ किताबें स्कूल बैग में रखनी ही पड़ती है। लंच बॉक्स और पानी की बॉटल वज़न भी जोड़ लें, तो एक स्कूल बैग का वज़न 11 किलो से ज्यादा हो जाता है। ये पहली बार है कि स्कूल जाने वाले बच्चो ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके स्कूल बैग के वज़न के खिलाफ आवाज़ उठाई! 
  बच्चा भले ही ठीक से खाता पीता हो, अच्छी नींद लेता हो और अन्य बच्चों की तरह चहकता रहता हो! लेकिन, रोजाना स्कूली बस्ते का बोझ उसकी सेहत के लिए समस्या खड़ी कर सकता है। स्कूली बस्ते का उसकी सेहत पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। बच्चा अपनी पीठ पर असामान्य बोझ ढो रहा हो, तो उसे कमरदर्द, रीढ़ की विकृति या गरदन के पास खिंचाव जैसी तकलीफें हो सकती हैं। स्कूली बच्चे और्थोपैडिक समस्याओं की चपेट में आ रहे हैं और डाक्टर पीठ या कमरदर्द से पीडि़तों के आयुवर्ग में जबरदस्त बदलाव के गवाह बन रहे हैं। सेहत संबंधी परेशानियों के कई ऐसे खतरे हैं, जिनसे बच्चे का वास्ता पड़ सकता है। 
  30 साल वर्ष पहले 1986 में जानेमाने लेखक आरके नारायण ने राज्यसभा में स्कूल बैग के ज्यादा वज़न पर बोलते हुए कहा था कि जब भी वो किसी बच्चे को भारी भरकम स्कूल बैग लटकाए हुए स्कूल जाते हुए देखते हैं तो उनका दिल दुखता है। नारायण ने कहा था कि इस वज़न से बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास नहीं होता! बल्कि, ये वज़न उन्हें कूबड़ा बना देता है। स्कूल बैग के वज़न को लेकर जिस दुख का इज़हार आरके नारायण ने 30 साल पहले किया था। उसमें आज भी कोई अंतर नहीं आया। यशपाल समिति ने भी काफी पहले सुझाव दिया था कि बस्ते का बोझ कम किया जाए। लेकिन न तो निजी स्कूलों को यह सलाह अच्छी लगी, न सरकार ने इसे गंभीरता से लिया। अधिकांश शहरों में बच्चों को अपने वजन का 35% या उससे अधिक बस्ता ढोते देखा गया। इस सिलसिले में दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान अदालत में महाराष्ट्र सरकार ने सफाई दी कि बच्चों को भारी बस्ता ढोने की मज़बूरी से छुटकारा दिलाने के लिए स्कूलों में लॉकर बनाने पर विचार किया जा रहा है। 
  'चिल्ड्रन स्कूल बैग एक्ट 2006' के अनुसार स्कूल जाने वाले किसी भी छात्र के बैग का अधिकतम वज़न उसके शरीर के भार का 10 प्रतिशत होना चाहिए। एक्ट में ये भी कहा गया है कि स्कूलों को चाहिए कि वो छात्रों को स्कूल में ही लॉकर की सुविधा दें। 2012 में 'एसोचैम' ने भी देश के 5 से 12 साल की आयु के 2 हज़ार बच्चों पर एक सर्वे किया था! सर्वे में पाया गया कि 82 प्रतिशत बच्चे अपने वज़न के 35 प्रतिशत के बराबर वज़न वाला स्कूल बैग ढोते हैं। सर्वे में 1500 बच्चों ने माना था कि उनकी कमर में दर्द होता है! वो बिना सहारे ठीक से बैठ भी नहीं पाते! 2015 में महाराष्ट्र सरकार ने बॉम्बे हाईकोर्ट में दाखिल एक रिपोर्ट में माना था कि 10 वर्ष तक के 58 प्रतिशत बच्चे हड्डियों से जुड़े दर्द की वजह से परेशान हैं। इस समस्या के लिए भारी स्कूल बैग को ही ज़िम्मेदार माना गया था। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के पास भी कुछ आंकड़े हैं! मौजूद आंकड़ों के अनुसार हरियाणा के बच्चे सबसे वजनी स्कूली बैग ढोते हैं! फिर, गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान के स्कूली बैग का नंबर आता है। यही स्थिति सरकारी स्कूलों की है। देश के अधिकतर निजी स्कूलों में तो बच्चों को 8 से 10 किलो या इससे भी अधिक वजन के बस्ते के साथ स्कूल जाना पड़ता है। राज्यवार स्कूली बस्ते के वजन में भी अंतर है। जैसे गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान में दूसरे राज्यों के मुकाबले स्कूली बच्चों को कम कॉपी-किताबें ढोनी पड़ती हैं!
    ज्यादातर देशों के बच्चे भारतीय बच्चों के मुकाबले कम वज़न वाले स्कूल बैग उठाते हैं। अमेरिका में स्कूल बैग का औसत वज़न करीब 5.7 किलोग्राम है। ब्रिटेन में जरूर स्कूल जाने वाले बच्चों के बैग का भारतीय स्कूल बैग के वज़न ज्यादा होता है। यहाँ औसत वज़न 12 किलोग्राम है। लेकिन, इन बच्चों के बैग में टैबलेट और लैपटॉप जैसे उपकरण होने से स्कूल बैग का वज़न बढ़ जाता है। ईरान में औसत वज़न 4.6 किलोग्राम है। फिनलैंड में 8 साल की उम्र तक के स्कूल जाने वाले बच्चे औसतन 4.5 किलो वज़न उठाते हैं। फ्रांस में स्कूल जाने वाले बच्चों के बस्ते काफी हल्के होते हैं। फ्रांस में बच्चों को औसतन 2 किलो 600 ग्राम वज़न ही उठाना पड़ता है।
  अगर बच्चा भारी स्कूल बैग से परेशान हैं, तो पालक इसकी शिकायत कर सकते हैं? 'नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ चाइल्ड राइट्स' को कॉल करके भी शिकायत दर्ज कराई जा सकती हैं। 'इबलिदान डॉट निक डॉट निक' पर भी भारी स्कूल बैग के मुद्दे पर ऑनलाइन शिकायत हो सकती हैं। सीबीएससी के हेल्प लाइन नंबर पर फोन करके भी अपनी शिकायत दर्ज करा सकते हैं। अगर आपके बच्चे को भी भारी स्कूल बैग उठाने पर मजबूर किया जाता है तो संबंधित जिले के शिक्षा अधिकारी से भी शिकायत की जा सकती है।  
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Tuesday 13 September 2016

कामकाजी महिलाओं की भागीदारी में हम बहुत पीछे!

'एसोचैम' की रिपोर्ट ने पोल खोली 

- एकता शर्मा 

  सरकार कामकाज में महिलाओं  भागीदारी बढ़ाने के लिए हर संभव कोशिश कर रही है! लेकिन, जो तथ्य सामने आए हैं, वे सरकार की कोशिशों को सही नहीं ठहरा रहे! तथ्य बताते हैं कि कामकाजी महिलाओं की भागीदारी के मामले में भारत अन्य देशों से बहुत पीछे है। 'एसोचैम' और 'थॉट आर्बिट्रेज रिसर्च' द्वारा संयुक्त रूप से कराए गए सर्वे रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ! भारत सरकार बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, सेल्फी विद डॉटर, मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप जैसे कार्यक्रमों के जरिए महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने पर जोर दे रही है। लेकिन, एसोचैम की ये स्टडी चौंकाने वाली है!
  'महिला श्रम बल भागीदारी' पिछले एक दशक में 10 फीसदी घटकर निचले स्तर पर पहुंच गई! इस रिसर्च स्टडी के मुताबिक 2000-05 में कार्यशील महिलाओं की भागीदारी 34 प्रतिशत से बढ़कर 37 फीसदी तक पहुंची थी! जो साल 2014 तक लगातार गिरते हुए 27 फीसदी पर आ गई! देश में महिला श्रम बल भागीदारी (एफएलएफपी) दर एक दशक में 10 फीसदी कम हुई है। 'वर्ल्ड बैंक' के आंकड़ों के मुताबिक भी महिला भागीदारी के मामले में भारत 186 देशों में 170वें पायदान पर है। ब्रिक्स देशों में भी भारत 27 फीसदी के साथ आखिरी पायदान पर है। जबकि, महिला श्रम बल भागीदारी के मामले में चीन में 64 फीसदी के साथ पहले पायदान पर है। इसके बाद ब्राजील में 59 फीसदी, रूस में 57 फीसदी, दक्षिण अफ्रीका में 45 फीसदी और आखिर में भारत 27 फीसदी पर है। साल 2011 में ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुष और महिला श्रम बल भागीदारी का फासला जहां करीब 30 फीसदी रहा, वहीं शहरी क्षेत्रों में यह करीब 40 फीसदी रहा!
    महिलाओं के सशक्तीकरण की चाहें कितनी ही बातें की जाएं लेकिन महिलाएं न सिर्फ पुरुषों के मुकाबले रोजगार के मामले में पीछे हैं बल्कि वेतनमान में भी भेदभाव की शिकार हैं। श्रम बाजार में महिलाओं को शहरी और ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों में कम दर पर पारिश्रमिक मिलता है। नौकरीपेशा महिलाओं के लिए भारत में अनुकूल परिस्थितियां एक अपरिहार्य जरूरत है। लेकिन, भारत में जिस तरह से कई दूसरे क्षेत्रों में भी महिलाएं भेदभाव की शिकार हैं, उसे देखते हुए यह जल्द होना संभव नहीं लगता!
   मुद्दा ये है कि क्या कारण है कि सरकार की तमाम कोशिशों और कार्यक्रमों के बावजूद महिलाओं की श्रम बल भागीदारी लगातार घट रही है? 'एसोचैम' के सुझावों के मुताबिक श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए विशेष स्किल डेवलप ट्रेनिंग, छोटे शहरों में रोजगार के अवसर, बच्चों और बुजुर्गों की देखरेख के लिए केयर सेंटर, सुरक्षित वर्क एनवायरमेंट, सुरक्षित शहर-सड़क, महिला ओरिएटेंड बैंक, ओनली वुमेन पुलिस स्टेशन जैसे महत्वपूर्ण कदम सरकार को उठाने होंगे। वहीं कामकाजी महिलाओं की मानें तो समाज को महिलाओं के प्रति सोच और नजरिया बदलना होगा! सामाजिक बंदिशों में जकड़ने की बजाए उन्हें जब तक सुरक्षित माहौल नहीं मिलेगा, इस अंतर को कम करना संभव नहीं होगा! 'वुमेन एक्टिविस्ट' भी इस रिपोर्ट को चिंताजनक मानते हैं। 'यूएन इकनॉमिक एंड सोशल कमीशन फॉर एशिया एंड द पैसेफिक' के मुताबिक एफएलएफपी दर में 10 फीसदी बढ़ोतरी से जीडीपी में 0.3 फीसदी वृद्धि हो सकती है। इसलिए जरूरी है कि सरकार देश में महिलाओं का श्रम बल अनुपात बढ़ाने के लिए नीतियां और कार्यक्रम को गंभीरता से लागू करें!
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