Sunday 28 April 2019

अमिताभ के सवालों पर फिर न्यौछावर होंगे दर्शक!

- एकता शर्मा

  टीवी के सबसे सफल शो 'कौन बनेगा करोड़पति' का 11वां सीजन लेकर अमिताभ बच्चन फिर टीवी पर आ रहे हैं। बीते 19 सालों से अमिताभ इस रियलिटी शो को को होस्ट करते आ रहे हैं। हर साल 'कौन बनेगा करोड़पति' एक थीम पर आता है। इस बार भी केबीसी-11 के साथ नई थीम को समाज के हित के लिए जोड़ा जा रहा है। इस बार इस शो पर कई नई चीज़ों को जोड़ा जाएगा। अमिताभ बच्चन ने साल 2000 में इस शो से टीवी पर अपना पहला कदम रखा था। वहीं आज 19 सालों बाद भी 'केबीसी' के लिए उनसे बेहतर कोई होस्ट नहीं हो सकता! कोशिश तो कई बार की गई, लेकिन अमिताभ के अलावा सभी को ऑडिएंस ने रिजेक्ट कर दिया। हाल ही में चैनल ने शो का प्रोमो जारी किया है। इस प्रोमो की टैग लाइन काफी दिलचस्प है। इसमें कहा जा रहा है कि 'कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती!' 
   शो के निर्देशक सिद्धार्थ बसु का भी अपना अलग जलवा है। वे जाने-माने क्विज़ मास्टर तो हैं हीं, वे एक्टिंग भी करते हैं। दर्शक उनका जलवा दर्शक ‘मद्रास कैफ़े’ और ‘बॉम्बे वेलवेट’ जैसी फिल्मों में देख चुके हैं। बसु ने नाटकों में भी काम किया है। उन्होंने अपने जीवन के शुरूआती दिनों में काफी संघर्ष देखा, जिसमें नाटकों में कार्य करने के अतिरिक्त, डॉक्यूमेंट्री बनाना और होटल तक में काम करना शामिल रहा है। 'कौन बनेगा करोड़पति' सिद्धार्थ बसु का ही वह विजन है, जिसने टेलीविजन की दुनिया में एक नया इतिहास रचने में सफलता पाई है। ये एक ऐसा रियलिटी गेम शो है, जिसमें प्रतियोगी सवालों के सही जवाब देकर अधिकतम निर्धारित राशि तक जीत सकता है। अमिताभ बच्चन ने छोटे परदे पर इसी शो के माध्यम से पदार्पण किया था। अमिताभ के अलावा एक बार के अलावा एक बार शाहरुख खान भी इस शो को होस्ट कर चुके हैं! लेकिन, जो जादू अमिताभ बच्चन में है, वो शाहरुख़ नहीं ला सके और अगले शो में फिर अमिताभ को ही सूत्रधार की कुर्सी संभालना पड़ी! 
   इसका पहला प्रसारण सन् 2000 में हुआ था। यह शो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहे गए शो ‘हू वांट्स टू बी अ मिलियनेयर’ से प्रेरित है। अमिताभ बच्चन 2000 से ही इस शो के साथ जुड़े हैं। सीजन छोड़कर अमिताभ बच्चन केबीसी के सभी सीजन होस्ट कर चुके हैं। इस शो की बड़ी सफलता में सिद्धार्थ बसु के योगदान को भुला पाना भी संभव नहीं है। शो को इतने लम्बे समय तक रोचक बनाए रखने में अमिताभ बच्चन के अलावा उन बदलाव  योगदान है, जो किए जाते रहे हैं। इसे निर्देशन का ही प्रभाव कहा जाएगा कि 'केबीसी' की सफलता से प्रेरित होकर दस का दम, छप्पर फाड़ के, सच का सामना जैसे कई क्विज़ शो आए पर 'कौन बनेगा करोड़पति' के आस-पास भी ये न पहुँचे। 
    इसके बावजूद इस शो का होस्ट बनने की इच्छा जाहिर करने वाले कलाकारों की कमी नहीं है। अमिताभ बच्चन के फ्लॉप एक्टर बेटे अभिषेक बच्चन भी एक बार होस्ट की कुर्सी के प्रति अपना मोह दर्शा चुके हैं। पिछले दिनों तो 'दस का दम' जैसे फ्लॉप शो के होस्ट सलमान खान भी 'कौन बनेगा करोड़पति' को होस्ट करने की इच्छा जता चुके हैं। फैंस को शो का इंतजार काफी दिनों से था. इस बार के शो में क्या बदलाव होगें ये देखना दिलचस्प होगा। शो के क्विज़ मास्टर सिद्दार्थ बसु का कहना है कि इस बार हम दर्शकों के लिए बहुत सारा मनोरंजन लाए हैं। इस बार के सवाल पहले से ज्यादा मुश्किल हो सकते हैं। 'कौन बनेगा करोड़पति' ऐसा गेम शो है जो पहले सीजन से ही दर्शकों का पसंदीदा कार्यक्रम बन गया था। देखना होगा कि इस बार के मुकाबले में कौनसा प्रतियोगी सबसे ज्यादा रकम लेकर अपने घर जाता है। एक मई से शो के प्रतियोगियों के चुनाव के लिए सवाल शुरू हो रहे हैं! 
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सारा देश राजनीति में मस्त, पर सिनेमा अभी अछूता!


- एकता शर्मा

   इन दिनों पूरे देश में राजनीति का बुखार चरम पर है! चुनाव का रंग लोगों के जीवन में पूरी तरह घुलमिल गया है! चारों तरफ बस राजनीति की बातें हो रही है। पर, भारतीयों के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण आयाम कहा जाने वाला सिनेमा हमेशा ही राजनीतिक फिल्मों से बचने की कोशिश करता रहा है। राजनेताओं के भाषण, उनके नखरे और मंसूबे ये सब भारतीय राजनीति को काफ़ी नाटकीय बनाते हैं। लेकिन, कमाल की बात ये कि इस नाटक को फिल्मों का विषय बनाने से फिल्म इंडस्ट्री हमेशा कतराती है! किसी फिल्मकार के पास इसका जवाब नहीं कि वे राजनीति पर फिल्म बनाने से बचते क्यों हैं? क्या इसलिए कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहे जाने के बाद भी, भारत में राजनीतिक सिनेमा विकसित नहीं हुआ। 
 शायद इसलिए कि हमारे यहाँ सेंसर बेहद संवेदनशील है। किसी ने एक राजनीतिक फ़िल्म बना भी ली, तो सेंसर उसके सामने कैंची लेकर खड़ा हो जाता है। क्योंकि, वे नहीं चाहते की किसी भी पार्टी या समुदाय के मकसद और उनके दृष्टिकोण को सिनेमा के परदे पर लाकर लोगों के विचारों को बदला जाए। मुद्दे का जवाब मुश्किल है, तो फिर क्या तरीक़ा है राजनीतिक फ़िल्में बनाने का? फिल्मकारों का मानना है कि ऐसी फ़िल्में बनाना तो आसान है, पर ऐसे सिनेमा बेचना मुश्किल है। कोई भी प्रोड्यूसर ऐसे विषय पर दांव लगाने से पहले सोचेगा! ऐसा सिर्फ़ हमारे यहाँ ही नहीं, पूरी दुनिया में है। ऐसे में एक रास्ता ये भी है कि अगर किसी को राजनीतिक फ़िल्में ही बनाना है, तो डाक्यूमेंट्री की तरह से बनाए! क्योंकि, पूर्ण फ़िल्म बनाने में जोखिम ज़्यादा है। 
  भारत में फ़िल्मकार का मतलब है, जो आपका मनोरंजन करें, नाच-गाने वाली फ़िल्में बनाए। लेकिन, फिल्मकार अपनी फ़िल्मों के ज़रिए कभी एक पार्टी या समाज की गतिविधियों पर टिप्पणी या राय नहीं दे सकता। कई सालों से फ़िल्मों का मतलब ही मनोरंजन करना है। फिर राजनीतिक फिल्मों को कैसे जगह मिले? कई भारतीय फ़िल्में राजनीतिक संवाद करने में सक्षम नहीं होते! हमारे यहाँ कुछ सीखने का ज़रिया है, तो वो सिनेमा ही है। 
   भारत में राजनीतिक फ़िल्म बनाने का मौका भी बहुत कम लोगों को मिलता है। एक फ़िल्म के साथ बहुत से लोग जुड़ते हैं और शायद उनमें से कुछ को इस शैली पर विश्वास नहीं है। राजनीतिक विषय पर लेख लिखना आसान है, नाटक करना आसान है पर फ़िल्म बनाना नहीं! ये थोड़ा मुश्किल है। भारत में लगभग 80 करोड़ वोटर हैं और राजनीतिक फ़िल्में सालों में एक-आध बनती है। जब तक सिनेमा पर से नाच-गाने वाली फ़िल्मों के दिन पूरे नहीं होते, तब तक निर्माताओं की राजनीति जैसे अहम मुद्दे पर फ़िल्म बनाने की इच्छा नहीं होगी। तब तक यह सवाल उठता रहेगा कि  राजनीतिक फ़िल्मों से भागता क्यों है बॉलीवुड?’
  सिनेमा देखने वालों का मकसद होता है कि वे अपनी परेशानियां भूलकर सपनों की दुनिया में चले जाएं। दर्शक कभी अपनी जिंदगी की उलझनों को परदे पर देखना नहीं देखना चाहते। यही कारण है कि राजनीतिक फ़िल्में कम ही बनती हैं! 'अपहरण' और 'राजनीति' जैसी फ़िल्में बनाने वाले प्रकाश झा ने जरूर राजनीति पर फ़िल्में बनाई, पर अपनी बात को दबाकर कही! दरअसल, प्रकाश झा की फ़िल्मों की लपट तो राजनीतिक होती है, पर कहानी इतनी साधारण होती है, कि उसे पकड़ा नहीं जा सकता! क्योंकि, मार्केट की मांग भी यही है।
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जहाँ सलमान खड़े होते हैं, विवाद वहीं से शुरू!

- एकता शर्मा 

   इन दिनों मालवा-निमाड़ में सलमान खान का नाम चर्चा में है! उन्होंने हाल ही में अपनी होम प्रोडक्शन फिल्म 'दबंग-3' की महेश्वर और मांडू में शूटिंग की है! उनकी शूटिंग से कई विवाद भी जुड़े! लेकिन, सलमान की जिंदगी के लिए ये नई बात नहीं है। वे जितने बड़े कलाकार हैं, उससे कहीं ज्यादा विवाद उनके जीवन से जुड़े हैं। महेश्वर घाट पर एक शिवलिंग पर तख़्त रखे जाने पर विवाद की स्थिति निर्मित हुई, जिसे संभाला गया! मांडू में पुरातत्व महत्व की इमारत के साथ छेड़छाड़ का मामला उठा! कारण चाहे जो भी हो, कोई न कोई मसला ऐसा हो ही जाता है जो सलमान को चर्चा में ले आता है। 'कालिया' फिल्म में अमिताभ बच्चन का एक डायलॉग था 'हम जहाँ खड़े होते हैं, लाइन वहीँ से शुरू होती है!' इसे सलमान खान के नजरिए से सोचा जाए तो 'जहाँ सलमान खड़े होते हैं, विवाद वहीं से शुरू होते हैं।'    
    जोधपुर में 'हम साथ-साथ हैं' फिल्म की शूटिंग के दौरान काले हिरण के शिकार मामले ने सलमान खान को अभी तक उलझा रखा है। उन्हें इस मामले में सजा तक सुनाई गई! 1998 को सलमान खान के कमरे से पुलिस ने एक रिवॉल्वर और राइफल बरामद की गई थी। सलमान पर आरोप लगा था कि उन्होंने इस हथियार का इस्तेमाल शिकार में किया! इसके बाद सलमान के खिलाफ आर्म्स एक्ट लगा था। सलमान पर 'हिट एंड रन' यानी वाहन से टक्कर मारकर भाग जाने का भी आरोप लग चुका है। आरोप था कि 2002 में उन्होंने आधी रात में मुंबई के बांद्रा में अपनी कार फुटपाथ पर चढ़ा दी, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई और 4 लोग घायल हो गए थे। फिल्म 'कुछ न कहो' के सेट पर सलमान ने नशे में ऐश्वर्या राय से काफी झगड़ा किया था। यहाँ तक कि उन पर ऐश्वर्या को धक्का देने तक की बात सुनी गई! 2003 में एक्टर विवेक ओबरॉय को धमकाने का भी आरोप उन पर लग चुका है। विवेक ने तो एक बकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहा था कि वे ऐश्वर्या राय को डेट कर रहे हैं, इसलिए सलमान ने उनके साथ गाली-गलौच की और उन्हें जान से मारने की धमकी भी दी! गायक अरिजीत सिंह से भी सलमान का झगड़ा हो चुका है! इस कारण उन्होंने 'सुल्तान' से अरिजीत का गाना तक हटवा दिया था।  
  कहा जाता है कि सलमान का गुस्सा हमेशा उनकी नाक पर रहता है। वे कई बार फैंस और फिल्म की यूनिट के साथ भी बदसलूकी कर चुके हैं। कुछ फैंस को तो थप्पड़ भी जड़ें हैं। एक बार तो उन्होंने अपने बॉडीगार्ड को इसलिए तमाचा मार दिया था, क्योंकि गार्ड ने एक फैंस के साथ बदसलूकी कर दी थी। सलमान कई बार मीडिया पर भी भड़क चुके हैं। यानी, जहाँ सलमान हैं, वहाँ कुछ न कुछ तो होगा ही! मुंबई में हुई आतंकवादी हमले के बाद भी सलमान खान मुंबई अपने एक बयान को लेकर निशाने पर आ गए थे। उन्होंने कहा था कि इस हमले को इतनी ज्यादा हाइप इसलिए दी जा रही है! क्योंकि, इसमें समाज के सभ्रांत तबके को निशाना बनाया गया है। इस बयान के बाद सलमान मीडिया और लोगों के निशाने पर आ गए थे। बाद में उन्होंने अपने इस बयान पर माफी मांग कर इस विवाद को शांत किया था। 
  2008 में आई सुभाष घई की फिल्म ‘युवराज’ की शूटिंग के दौरान भी सलमान और सुभाष के बीच बड़ा झगड़ा हुआ था। बताते हैं कि बात मारपीट तक पहुँच गई थी। बॉलीवुड ने इस हाईप्रोफाइल विवाद को सुलझाने का भरसक प्रयास किया था। बताते हैं कि सलमान ने सुभाष घई से माफी जरूर मांग ली, लेकिन फिर इन दोनों ने कभी किसी फिल्म में साथ काम नहीं किया। शाहरुख़ खान के साथ भी सलमान का बड़ा पंगा हो चुका है। कटरीना कैफ की एक पार्टी में दोनों खान झगड़ लिए थे। ये बहुचर्चित सलमान-शाहरुख़ विवाद 2008 से शुरू होकर कई साल तक चला! फिर दोनों में सुलह भी एक ईद पार्टी में हुई! सलमान का एक लोकप्रिय टीवी शो है 'बिग-बॉस' इसमें भी सलमान के तेवर दर्शक हमेशा देखते रहते हैं। एक सीजन में उन पर काजोल की बहन तनीषा मुखर्जी का पक्ष लेने का भी आरोप लगा था। इससे सलमान इतने नाराज हुए थे कि शो छोड़ने तक की धमकी दे डाली थी। बाद में काफी मान-मनौव्वल के बाद सलमान शो में बने रहने को राजी हुए। इसलिए महेश्वर और मांडू में हुआ वो नई या अनोखी बात नहीं है! आश्चर्य तो तब होता, जब ये पूरी शूटिंग बिना किसी विवाद के निपट जाती! पर न तो ऐसा होना था न हुआ!
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जॉन की जासूसी नहीं चली, पर ये थीम हमेशा हिट रही!

-  एकता शर्मा

 दुनियाभर में जासूसी कहानियों पर बनीं फिल्मों की भरमार हैं। हॉलीवुड की सबसे सफल जेम्सबांड सीरीज़ भी जासूसी के ही कथानक पर बनी थी। हिंदी में भी जासूसी पर कई फ़िल्में बनी, जिन्हें दर्शकों ने पसंद भी किया! लेकिन, फिर भी कोई एक भी ऐसी फिल्म याद नहीं आती, जो ऑलटाइम हिट कही जाए! पिछले साल आई आलिया भट्ट की 'राजी' जासूसी और देशभक्ति पर बनी बेहतरीन फिल्म है। लेकिन, हाल ही में आई जॉन इब्राहम की 'रॉ' ज्यादा दम नहीं मार सकी और पहले ही हफ्ते में उसकी साँसे उखड़ गई! बॉक्स ऑफिस के मुताबिक 'रॉ' की पहले दिन की कमाई 5-7 करोड़ रुपए ही रही! इसे निराशाजनक प्रदर्शन ही माना जाएगा। इससे पहले रिलीज हुई जॉन अब्राहम की 'सत्यमेव जयते' पहले दिन 20 करोड़ की कमाई करने में कामायाब रही थी! 
   फिल्म की कहानी जासूसी पर केंद्रित होते हुए फिल्म के न चलने के दो बड़े कारण माने जा सकते हैं। पहला, फिल्म को क्रिटीक्स से न मिलने वाला अच्छा रिस्पांस है। फिल्म समीक्षकों ने 'रॉ' को सामान्य फिल्म बताया है। इस कारण भी दर्शकों ने इस पर पैसे और समय खर्च करने से इंकार कर दिया। दूसरा कारण आईपीएल मैचों को माना रहा है। जब दर्शकों को पता चला कि 'रॉ' में खास कुछ नहीं है, तो उन्होंने आईपीए देखने में ही भलाई समझी। 'रॉ' ने पहले दिन जिस तरह शुरूआत की उसके बाद उसे दर्शकों का रिस्पांस नहीं मिल रहा! 
  अब फिर बात करते हैं हिंदी की जासूसी फिल्मों की! सत्तर के दशक में रामानंद सागर की फिल्म 'आँखे' ने धूम मचाई थी। इस फिल्म में धर्मेन्द्र, माला सिन्हा और महमूद तीनों जासूस बने थे। वे चीन के चंगुल में फंसे भारतीय वैज्ञानिक को बचाने के मिशन पर काम करते हैं। इसके बाद आया जेम्स बांड के बॉलीवुड संस्करण वाली हिंदी फिल्मों का दौर जिसमें जितेंद्र की 'फर्ज' ने झंडे गाड़े थे। इसके बाद 80 के दशक में मिथुन चक्रवर्ती ने 'सुरक्षा, वारदात जैसी कई फिल्मों में 'जी-7' नामक जासूस को जिंदा रखा। विजय आनंद और राज खोसला ने इस थीम पर कई फ़िल्में बनाई! राज खोसला की 'ब्लेकमेल' में वैज्ञनिक के अपहरण और देश की सुरक्षा से जुड़े दस्तावेजों की चोरी को अनोखे ढंग से फिल्माया गया था। हमेशा सामाजिक और पारिवारिक फिल्में बनाने वाले राजश्री प्रोडक्शन ने भी एक बार महेंद्र संधू के साथ 'एजेंट विनोद' जैसी जासूसी फिल्म में हाथ आजमाए थे।  
  1994 में आई फिल्म 'द्रोहकाल' में बताया गया था कि जब आतंकवाद चरम पर पहुंच जाता है, तब दो पुलिस वाले मिलकर इसे खत्म करने की ठान लेते हैं। 'इंटरनल अफेयर्स' और 'द डिपार्टेड' के बाद 'द्रोहकाल' में दिखाया था कि कैसे आतंकवादी सामाजिक और लोकतांत्रिक उथल-पुथल के बीच खुद को खड़ा करते हैं। जॉन अब्राहम की फिल्म 'मद्रास कैफे' में श्रीलंका में उपजे आतंरिक हालातों को एक जासूस की नजर से दर्शाया था। सुजीत सरकार के द्वारा निर्देशित इस फिल्म में भेदभाव और मानसिक दुविधाओं के बावजूद इस थीम को बेहतरीन तरीके से दिखाया गया! कमल हासन की फिल्म 'विश्वरूपम' में  वैश्विक आतंकवाद का नजारा था, जो समुद्र के किनारे से होकर अफगानिस्तान के टोरा-बोरा मैनहट्टन तक फैला है। इस फिल्म की सबसे ख़ास बात यही थी। इसमें एक महिला को पति पर जासूस होने का शक होता है, यहीं से फिल्म की कहानी शुरू होती है। 'विश्वरूपम' को अब तक की सबसे बेहतरीन जासूसी फिल्मों में शुमार किया जाता है।
    जासूस ऐसा किरदार है, जिसे हर अभिनेता आजमाना चाहा। अमिताभ बच्चन ने भी 'ग्रेट गैम्बलर' जैसी फिल्म में जासूस की भूमिका निभाई थी। अमिताभ की फिल्म 'डॉन' भी जासूसी जैसी ही फिल्म थी। इस फिल्म ने सिनेमाघरों में खूब धमाल मचाया। बाद में शाहरुख़ खान ने भी 'डाॅन' के बाद 'डाॅन-2' में यही कारनामा किया और धमाल मचाया। सलमान खान ने 'एक था टायगर' और 'टायगर जिंदा है' में भारतीय जासूस बनकर इस्तंबुल की गलियों में पाकिस्तानी जासूस कैटरीना के साथ गोलियों की बौछार में इश्क फरमाया! वहीं परफेक्शनिस्ट आमिर खान ने 'सरफरोश' में पाकिस्तानी जासूसों का पर्दाफाश किया। मनोज कुमार के नए संस्करण      अक्षय कुमार ने भी बेबी, एयरलिफ्ट सहित आधा दर्जन फिल्मों में जासूसी कर अपनी नई छवि गढने का काम किया है।
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परदे पर संगीत का लोकरंग कभी कम नहीं हुआ!

-  एकता शर्मा

 फिल्म के कथानक और पृष्ठभूमि के अनुरूप गीतों की रचना की जाती है। जब से फ़िल्में बनना शुरू हुई, तब से अभी तक के दौर पर सरसरी नजर दौड़ाई जाए तो कई कालखंड ऐसे नजर आते हैं जब गीतकारों ने हिंदी, उर्दू और पंजाबी के अलावा कई और भाषाओं और बोलियों के शब्दों को भी अपने गीतों में जगह दी! 1981 में आई 'लावारिस' में अमिताभ बच्चन के कवि पिता हरिवंशराय बच्चन लिखे अवधी लोकगीत से प्रेरणा लेकर 'मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है' गीत रचा गया। ये गीत अपने दिलचस्प अंदाज के कारण बेहद लोकप्रिय भी हुआ। 
  यश चोपड़ा की फिल्म 'सिलसिला' के गीत आज भी याद किए जाते हैं। खासकर होली का वो लोकगीत 'रंग बरसे भीगे चुनर वाली' में पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोकगीतों का रंग हैं। मनोज कुमार की फिल्म 'क्रांति' के गीत 'चना ज़ोर गरम बाबू' पर भी लोकरंग का प्रभाव स्पष्ट दिखाई दिया था। राजश्री की फिल्म 'नदिया के पार' में पूर्वांचल के एक पारंपरिक ब्राह्मण परिवार का कथानक था तो वही प्रभाव गीतों में भी नजर आया। फिल्म के सभी गीत अवधी और भोजपुरी के लोकगीतों से प्रभावित थे। इस फिल्म के गीत कहीं न कहीं पूर्वाचल के लोकगीत साँस लेते सुनाई देते हैं।
  जेपी दत्ता तो 'गुलामी' में इससे भी आगे निकल गए। इस फिल्म के गीत ज़िहाल-ए-मिस्किन मुकन बरंजिश बेहाल ए हिजरा बेचारा दिल है' में फारसी के शब्दों को गुलज़ार ने खूबसूरत अंदाज़ में मिश्रित किया है। इस गीत में जिहाल का अर्थ है ध्यान देना, मिस्किन का अर्थ है गरीब, मुकन बरंजिश का अर्थ है से दुश्मनी न करना, बेहाल-ए-हिजरा का अर्थ है ताजा अलगाव। इसका हिन्दी में अर्थ है ये दिल जुदाई के गमों से अभी भी ताज़ा है, इसकी बेचारगी को निष्पक्षता से महसूस करो। गीत का पहला मुखड़ा हिन्दवी के पहले कवि अमीर खुसरो की मुकरी से लिया गया है। अमीर खुसरो ने फारसी में लिखा था- ज़िहाल-ए-मिस्किन मुकन तगाफुल दुराए नैना बताए बतियाँ किताब-ए-हिजरा नदारूमे जाँ, न लेहो काहे लगाए छतियाँ। आशय यह कि सुनने में जो अच्छा लगे, वही गीत अच्छा होता है, फिर वो किसी भी भाषा और बोली का क्यों न हो!
  'बहारों के सपने' फिल्म के गीतों आजा पिया तोहे प्यार दूँ, चुनरी सँभाल गोरी उड़ी चली जाए में ब्रज के लोकगीतों का प्रभाव महसूस किया जा सकता है। 'मिलन' के गीत सावन का महीना पवन करे सोर में भी गाँव के जीवन की निष्छलता दिखाई देती है। किशोर कुमार की 'पड़ोसन' के गीत इक चतुर नार तथा मेरे भोले बलम गीतों में लोकांचल को कौन महसूस नहीं करता! 'सरस्वती चंद्र' के मैं तो भूल चली बाबुल का देस और 'अनोखी रात' के गीत ओह रे ताल मिले नदी के जल में भी लोक जीवन की झलक है। राज कपूर की फिल्म 'मेरा नाम जोकर' के गाने अंग लग जा बलमा, ए भाई ज़रा देख के चलो, तीतर के दा आगे तीतर और 'सावन भादों' का कान में झुमका चाल में ठुमका में तो गाँव महकता है। 
  'हीर राँझा' फिल्म के गाने तेरे कूचे में तेरा दीवाना, डोली चढ़के, नाचे अंग वे गीतों में तो साफ़ पंजाब झलकता है। नितिन बोस की फिल्म 'गंगा जमना' के गीतों पर उत्तर प्रदेश और बिहार की बोलियों विशेषकर अवधी, भोजपुरी तथा ब्रज की छाप थी। नैना लड़ि जइहैं तो भइया, ना मानूँ ना मानूँ ना मानूँ रे, ढूँढो ढूँढो रे साजना, दो हंसों का जोड़ा, तोरा मन बड़ा पापी जैसे गीत से लोक जीवन से जुड़े थे। 
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