Sunday 28 January 2018

करणी विवाद ने 'पद्मावत' को बचा लिया!

- एकता शर्मा

संजय लीला भंसाली ने 'पद्मावत' बनाकर जो मुसीबत मोल ली है, उसने उन्हें कई सबक दे दिए। अब शायद वे खुद कोई और फिल्मकार इतिहास के साथ खिलवाड़ करने का साहस नहीं कर सकेगा! अब विवाद का विषय ये नहीं रह गया कि भंसाली सही हैं या राजपूतों का विरोध! क्योंकि, फिल्म भी रिलीज हो गई और राजपूतों ने विरोध भी दर्ज करवा दिया! लेकिन, रिलीज के बाद फिल्म को लेकर जो प्रतिक्रियाएं सामने आई, वो भंसाली की फिल्म निर्माण क्षमता पर ही सवाल उठाती हैं। क्योंकि, फिल्म भले ही रानी पद्मावती को ध्यान में रखकर बनाई हो, पर तीन घंटे की ये पूरी फिल्म क्रूर शासक अलाउद्दीन खिलजी के आसपास ही घूमती है। फिल्म में सबसे ज्यादा फुटेज भी खिलची के चरित्र को ही मिले हैं। रानी पद्मावती और चित्तौड़ के राजा रतनसिंह का प्रसंग तो फिल्म का एक हिस्सा बनकर रह गया! यदि इस फिल्म का विरोध न होता तो शायद ये फिल्म संजय लीला भंसाली की अब तक की सबसे बड़ी फ्लॉप साबित होती!

  फिल्म की कहानी बेहद कमजोर है और रफ्तार के मामले में भी फिल्म काफी सुस्त है। घटनाएं बहुत धीरे-धीरे आगे बढ़ती है। फिल्म के क्लाइमेक्स को ज्यादा लंबा खींच दिया गया। फिल्म को भव्य बनाने के मोह में भंसाली दर्शकों को पूरी तरह बाँधने में भी सफल नहीं हुए! फिल्म में महारानी पद्मावती की शान में खूब कसीदे गढ़े गए हैं। यदि करणी सेना के जवान फिल्म देखकर विरोध करने का सोचते तो शायद वे कुछ कर नहीं पाते! क्योंकि, ऐसी स्थिति में विरोध करने वाले भी साथ नहीं आते! फिल्म में विरोध करने जैसा कुछ है भी नहीं!
  इस फिल्म के विरोध में राजपूत क्यों सड़क पर आ गए, समझ नहीं आता! जबकि, वास्तव में फिल्म के खिलाफ मुसलमानों और ब्राह्मणों को आवाज उठाना थी! कारण कि फिल्म में ब्राह्मण कुलगुरु को विश्वासघाती, धोखेबाज और मतलबी दर्शाया गया। जबकि, अलाउद्दीन खिलजी को अय्याश, मक्कार और क्रूर दिखाया गया! राजपूतों की शान में तो कहीं गुस्ताखी नहीं हुई! खिलजी को इतना अय्याश बताया गया कि निकाह के लिए उसकी राह देखी जाती है, और वो किसी और के साथ अय्याशी करता रहता है। राजपूतों को इस बात पर विरोध है कि रानी पद्मावती और खिलची के बीच 'स्वप्न दृश्यों' में नजदीकी दिखाई गई! जबकि, फिल्म में दोनों का कहीं आमना-सामना तक नहीं होता! आईने में धुंधलेपन के बीच खिलची को पद्मावती की एक झलक मात्र दिखाई देती है। इसके अलावा पद्मावती तो कभी खिलची के ख्वाबों में भी नहीं आती!
  जयपुर के आमेर किले में फिल्म की शुरूआती शूटिंग पर हुए हमले के बाद भंसाली में जो भय समाया था, वो फिल्म के निर्माण पर भी साफ़ झलकता है। शायद इसीलिए फिल्म में राजपूती आन-बान-शान को कुछ ज्यादा ही बढ़ा चढ़ाकर दिखाने की कोशिश की गई। गर्दन कटने के बाद भी राजपूतों को युद्ध में लड़ते दिखाया गया हैं। राजपूती शान का बखान करने में गोरा सिंह और बादल के किरदारों को आगे किया गया। युद्ध में राजा रतनसिंह लहूलुहान हो जाते हैं। उनकी पीठ में कई तीर लग जाते हैं, लेकिन उनकी मौत तब होती है, जब वे सीना तानकर आसमान की तरफ देख रहे होते हैं। यानी यहाँ भी राजपूती शान का ध्यान रखा गया! जहाँ तक फिल्म में राजपूतों की बात है तो उन्हें खिलची से युद्ध जीतने की रणनीति बनाने की योजना बनाने के बजाए लफ्फाजी करते ज्यादा दर्शाया गया है। फिल्म में रानी पद्मावती को सुशील, युद्ध कला और युद्ध नीति की माहिर दर्शाया गया है। देखा जाए तो फिल्म का नाम रानी पद्मावती के नाम पर है! लेकिन, संजय लीला भंसाली नाम के साथ भी पूरी तरह न्याय नहीं कर सके। फिल्म का अंत संजय लीला भंसाली की ही फिल्म 'बाजीराव मस्तानी' की याद जरूर दिलाता है। 'पद्मावत' में जौहर के लिए जाते वक़्त रानी पद्मावती (दीपिका पादुकोण) के चेहरे पर जो तेज और अंदाज दिखाई दिया, वही 'बाजीराव मस्तानी' में बेड़ियों में जकड़ी मस्तानी के चेहरे पर भी दिखाया गया है! 
  फिल्म में खिलजी के किरदार में रणबीर सिंह सब पर भारी हैं। अय्याश, मक्कार, और क्रूरता वाली इस भूमिका में रणबीर सिंह ने जोरदार काम किया है। कहा जाए तो पूरी फिल्म पर खिलजी ही है। राजा रतनसिंह के किरदार में शाहिद कपूर ने जान डालने की पूरी कोशिश की, फिर भी वे रणबीर सिंह के अलाउद्दीन खिलची के किरदार को पीछे नहीं छोड़ पाए। फिल्म को भव्य बनाने की कोशिश में भंसाली न तो प्रेम को सही तरीके से फिल्मा पाए और न खिलची और राजा रतन सिंह की दुश्मनी ही परवान चढ़ सकी। फिल्म पर डर भी हावी था। यही कारण था कि क्लाइमेक्स लम्बा होने के बावजूद अधूरा ही रह गया! ढेर सारी कमजोरियों के बाद भी 'पद्मावत' बॉक्स ऑफिस पर तो कमाल दिखाएगी ही! क्योंकि, फिल्म के विरोध ने उसे इतना ज्यादा प्रचारित कर दिया कि दर्शक तो चुम्बक की तरह खींचे चले आएंगे। 
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Monday 22 January 2018

सत्ता के गलियारे में 'तीन तलाक़' और दुनिया का नजरिया!

  लोकसभा से पारित होने के बाद मुस्लिम पर्सनल लॉ का तीन तलाक से जुड़ा विधेयक अब राज्यसभा की दहलीज पर है। वहाँ इसका हश्र क्या होता है, ये कहा नहीं जा सकता! सरकार ने इस विधेयक में तीन तलाक देने को अपराध बना दिया गया है। इसका उल्लंघन करने पर तीन साल की कैद के साथ जुर्माने का भी प्रावधान है। पीड़ित महिला अदालत से अपने भरण-पोषण का दावा भी कर सकती है। पिछले साल अगस्त में यह ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक पर रोक लगा दी थी! सरकार का कहना है कि कानून के बगैर सुप्रीम कोर्ट का फैसला लागू करना मुश्किल है, इसलिए सरकार यह विधेयक लाई है। 

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- एकता शर्मा 
   भारत में रहने वाले सुन्नी मुसलमानों के बीच तीन-तलाक़ की बहस दसियों साल पुरानी है। इस्लाम में तलाक के तीन तरीके चलन में हैं। एक है तलाक-ए-अहसन! इसमें यदि यह जोड़ा चाहे तो भविष्य में शादी कर सकता है। इसलिए इस तलाक को अहसन (सर्वश्रेष्ठ) कहा जाता है। दूसरे प्रकार की तलाक को तलाक-ए-हसन कहा जाता है। इसकी प्रक्रिया की तलाक-ए-अहसन की तरह है लेकिन इसमें शौहर अपनी बीवी को तीन अलग-अलग बार तलाक कहता है। इस प्रक्रिया में तीसरी बार तलाक कहने के तुरंत बाद वह अंतिम मान लिया जाता है। इस्लाम के मुताबिक जो जोड़ा तीन बार के तलाक के बाद अलग हुआ है, उसे फिर शादी नहीं करनी चाहिए! लेकिन, हलाला की व्यवस्था इसका तोड़ निकालती है। तीसरी प्रकार की प्रक्रिया को 'तलाक-उल-बिदत' कहा जाता है। यहीं आकर तलाक की उस प्रक्रिया की बुराइयां साफ-साफ दिखने लगती हैं जिसमें शौहर एक बार में तीन तलाक कहकर बीवी को तलाक दे देता है। 'तलाक उल बिदत' के तहत शौहर तलाक के पहले ‘तीन बार’ शब्द लगा देता है या ‘मैं तुम्हें तलाक देता हूं’ को तीन बार दोहरा देता है। इसके बाद शादी टूट जाती है. इस तलाक को वापस नहीं लिया जा सकता! तलाकशुदा जोड़ा 'हलाला' के बाद ही फिर शादी कर सकता है। इसमें आमतौर पर यह होता है कि तीसरे व्यक्ति के साथ एक आपसी समझ बनाई जाती है जो संबंधित महिला से शादी कर उसे तुरंत तलाक दे देता है। इसके बाद वह महिला अपने पहले शौहर से शादी कर सकती है। 
  डॉ ताहिर महमूद और डॉ सैफ महमूद इस्लामिक कानूनों से जुड़ी अपनी किताब में लिखते हैं कि तलाक के लिए लगातार तीन तूहर (जब मासिक चक्र न चल रहा हो) का कम के कम समय निर्धारित होता है। लेकिन, हर मामले में यह निश्चित नहीं है। इन लेखकों ने अपनी बात के पक्ष में देवबंदी विद्वान अशरफ अली थानवी (1863-1943) की राय का हवाला दिया है। इसके अनुसार ‘कोई व्यक्ति एक बार तलाक कह देता है। उसके बाद वह बीवी से सुलह कर लेता है और दोनों फिर साथ रहने लगते हैं। कुछ सालों के बाद किसी तरह के उकसावे में आकर वह दूसरी बार फिर से तलाक कह देता है। इसके बाद वह उकसावे को भूल जाता है और फिर से बीवी के साथ रहने लगता है। लेकिन उसके दो तलाक पूरे हो चुके हैं, इसके बाद वह जब भी तलाक कहता है तो वह अंतिम तलाक होता है। उसके बाद निकाह तुरंत खत्म हो जाता है।
  इस मामले पर दुनिया में जिस तेजी से बदलाव आ रहा है, मुस्लिम धर्मावलम्बियों सहित एक तबके का नजरिया उसके खिलाफ है। मुद्दे की बात ये है कि करीब 22 मुस्लिम देश, जिनमें पाकिस्तान और बांग्लादेश भी शामिल हैं, अपने यहां तीन-तलाक की प्रथा खत्म कर चुके हैं। तुर्की और साइप्रस भी इसमें शामिल हैं, जिन्होंने धर्मनिरपेक्ष पारिवारिक कानूनों को अपना लिया। ट्यूनीशिया, अल्जीरिया और मलेशिया के सारावाक प्रांत में कानून के बाहर किसी तलाक को मान्यता नहीं है। ईरान में शिया कानूनों के तहत तीन तलाक की कोई मान्यता नहीं है। यह अन्यायपूर्ण प्रथा इस समय भारत और दुनियाभर के सिर्फ सुन्नी मुसलमानों में बची है। 
कहाँ से आया 'तीन-तलाक़'
   मिस्र पहला देश था जिसने 1929 में इस विचार को कानूनी मान्यता दी। वहां कानून-25 के जरिए घोषणा की गई कि तलाक को तीन बार कहने पर भी उसे एक ही माना जाएगा और इसे वापस लिया जा सकता है। 1935 में सूडान ने भी कुछ और प्रावधानों के साथ यह कानून अपना लिया। आज ज्यादातर मुस्लिम देश ईराक से लेकर संयुक्त अरब अमीरात, जॉर्डन, कतर और इंडोनेशिया तक ने तीन तलाक के मुद्दे पर विचार कर रहे हैं। 
  ट्यूनीशिया में 1956 में बने कानून के मुताबिक वहां अदालत के बाहर तलाक को मान्यता नहीं है। ट्यूनीशिया में बकायदा पहले तलाक की वजहों की पड़ताल होती है। यदि जोड़े के बीच सुलह की कोई गुंजाइश न दिखे तभी तलाक को मान्यता मिलती है। अल्जीरिया में भी करीब यही कानून है। वहीं तुर्की ने मुस्तफा कमाल अतातुर्क के नेतृत्व में 1926 में स्विस सिविल कोड अपना लिया था।  इसके लागू होने का मतलब था कि शादी और तलाक से जुड़े इस्लामी कानून अपने आप ही हाशिये पर चले गए! हालांकि, 1990 के दशक में इसमें कुछ संशोधन जरूर हुए, लेकिन जबर्दस्ती की धार्मिक छाप से यह तब भी बचे रहे. बाद में साइप्रस ने भी तुर्की में लागू कानून प्रणाली अपना ली!
   जहां तक भारत की बात है तो यहां तीन-तलाक की जड़ें आम जनमानस में काफी गहरी हैं। अनजाने में या पितृसत्तात्मक समाज के प्रभाव से यहां 'तीन तलाक' की यह प्रक्रिया सबसे प्रभावी बन गई। यहां तक कि कई मुसलमान यह भी मान लेते हैं कि इस्लाम में तलाक का यही एकमात्र तरीका है। इसलिए गुस्से के क्षणों में कई लोग 'तीन तलाक' कहकर अपनी बीवी तो तलाक दे देते हैं और फिर इस फैसले पछताते हैं। क्योंकि, यह तलाक वापस नहीं लिया जा सकता और तलाकशुदा लोगों को फिर से आपस में शादी करनी है तो उन्हें 'हलाला' की व्यवस्था से गुजरना पड़ता है। 
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मैं औरत हूँ, औरत! 
हव्वा की बेटी 
आसमान से भेजी गई नूर की वो पाको मुक्कदस बूँद 
जो बरसों से इस सरजमीं को सींचती चली आई है  'मैं औरत हूँ।'
मैंने ही प्यार के रंग-बिरंगे फूल खिलाकर इस दुनियाँ को जन्नत बनाया।
मैंने ही अपनी कोख से मर्द को जनम दिया, माँ बनकर उसको पाँव पर चलना सिखाया, 
बहन बनकर उसके बालापन को चुलबुली कहानियाँ दीं!
महबूबा बनकर उसकी ज़िंदगी को रेशमी नगमों में ढाला तो शरीके हयात बनकर 
अपनी जवानी के अनमोल मोती लुटाकर, उसके रात और दिन सजाए !  
मैंने ही वक्त पड़ने पर कंधे से कंधा और क़दम से क़दम मिलाकर 
कंटीली राहों में दोस्त बनकर उसका साथ दिया। 
ये सब करते हुये अपना वजूद खोकर मैं 'औरत' नूर की वो बूँद उसमें पूरी की पूरी समा गई ! 
आज सदियाँ बीत जाने पर हर लम्हा मुझे यही सताया रहता है कि न जाने कब 
अपनी ऊँचाई से मैं गिरा दी जाऊं!
कब किसी कोठे में ढकेल दी जाऊं! 
कब जुएं में दांव पर लगा दी जाऊँ और अपनी पाकीजगी का सबूत देने के लिये 
मुझे शोलों में झुलसना पड़े! 
कब जनमते ही मार डाली जाऊँ, कब हवस के मीना बाज़ार में नीलाम कर दी जाऊँ! 
कब निकाह कर अपनाई जाऊँ,कब तलाक़ देकर ठुकराई जाऊँ!
कब मेरी इज्ज़त, मेरी अस्मत का रखवाला मर्द मुझे ही बेआबरू कर डाले! क्योंकि 'मैं एक औरत हूँ।'
(फ़िल्म 'निकाह' में पैंटिंग के साथ कानों में पड़ने वाली पंक्तियाँ)
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Sunday 21 January 2018

'पद्मावत' के नाम से फिल्म इतिहास में नया पन्ना जुड़ेगा?

- एकता शर्मा 

  हिंदुस्तान के फिल्म इतिहास में संजय लीला भंसाली की फिल्म 'पद्मावत' (पुराना नाम 'पद्मावती') के लिए एक नया पन्ना जोड़ना पड़ेगा। क्योंकि, इस फिल्म के साथ इतने विवाद जुड़े जो आजतक किसी फिल्म को लेकर नहीं उठे! इसने विवादों का इतना गुबार उठा दिया, जो अभी भी थमने का नाम नहीं ले रहा! फिल्म की शूटिंग शुरू होने से लगाकर इसके फिल्म सेंसर बोर्ड तक जाने तक में बहुत कुछ हुआ! करणी सेना और कुछ राजनीतिक दलों की और से 'पद्मावत' की कहानी पर सवाल उठने के बाद फिल्म विवादों में आ गई! दरअसल, ये फिल्म चित्तौड़गढ़ की रानी पद्मिनी की कथित कहानी पर आधारित है.और दीपिका पादुकोण ने इसमें रानी पद्मावती का रोल किया है। इस कारण फिल्म की रिलीज भी कई बार टली! कभी इसके नाम को लेकर सवाल उठाए गए, कभी कहानी पर, कभी फिल्माए गए स्वप्न दृश्य पर तो अंत में फिल्म के घूमर गाने को भी विवादों में लपेट लिया गया।
 आरोप था कि संजय लीला भंसाली ने फिल्म में रानी पद्मावती के व्यक्तित्व को तोड़-मरोड़ कर पेश किया है। आरोप यह भी था कि फिल्म में रानी पद्मावती और खि‍लजी के बीच ड्रीम सीक्वेंस है। हालांकि, भंसाली खुद इस बात को खारिज कर चुके हैं। बाद में एक बयान में उन्होंने ये भी कहा कि उनकी फिल्म कवि जायसी की रचना 'पद्मावत' पर आधारित है। इसका नतीजा ये निकला कि फिल्म का नाम 'पद्मावती' से 'पद्मावत' कर दिया गया और राजपूत समाज के प्रतिनिधियों की सहमति से हल्की-फुल्की काटछांट के बाद फिल्म को रिलीज करने की अनुमति दे दी गई!
    फिल्म सेंसर बोर्ड ने रिव्यू कमेटी और एडवाइजरी पैनल की 3 बड़ी आपत्तियों को मान लिया। 28 दिसंबर को सेंसर बोर्ड की मीटिंग में कुछ बदलाव के बाद फिल्म को यूए-सर्टिफिकेट देने का फैसला लिया गया। कहा गया कि जैसे ही निर्माता सेंसर के सुझाए बदलाव कर लेंगे, फिल्म पास कर दी जाएगी। इस बीच मेवाड़ के पूर्व राजपरिवार और करणी सेना ने फिल्म की क्लियरेंस पर कई सवाल उठा दिए!   मेवाड़ के पूर्व राजपरिवार सदस्य विश्वराज सिंह ने सेंसर प्रमुख प्रसून जोशी को लंबा चौड़ा ख़त भेजा! विश्वराज सिंह ने ये भी कहा कि जब 5 मिनट के गाने में अब तक बदलाव नहीं किया जा सका, तो दो घंटे की फिल्म को बदलना कैसे संभव है?
  फिल्म निर्माता भंसाली कई बार स्पष्ट कर चुके हैं कि फिल्म किसी सच्ची घटना पर नहीं है, बल्कि मलिक मोहम्म्द जायसी की किताब 'पद्मावत' पर आधारित है। फिल्म में एक डिस्क्लेमर भी डाला जाएगा जिसमें जौहर प्रथा को महिमा मंडित न करने और ऐतिहासिक घटना पर फिल्म न होने की बात का जिक्र होगा। इसके पहले सेंसर बोर्ड को जमा की गई फिल्म की कॉपी में डिस्क्लेमर नहीं दिया गया था कि फिल्म सच्ची घटनाओं पर आधारित है या काल्पनिक है! फिल्म के विवादित घूमर सॉन्ग में भी बदलाव किया जाएगा। करणी सेना समेत राजस्थान के कई पूर्व राज परिवारों ने रानियों के नाचने-गाने पर कड़ी आपत्ति जताई थी। लेकिन, ये सवाल फिर भी जिन्दा है कि क्या 'पद्मावत' बिना किसी विघ्न के रिलीज होगी? 
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'पद्मावती' हो या 'पद्मावत' दोनों ही बार कई फ़िल्में प्रभावित

- एकता शर्मा 

  संजय लीला भंसाली की फिल्म 'पद्मावती' जो अब 'पद्मावत' हो गई! लगता है इस फिल्म को किसी की काली नजर लगी है। हर बार फिल्म किसी न किसी कारण से ये फिल्म लेट होती गई! यहाँ तक कि इसकी शूटिंग की शुरुआत में ही हमला हो गया था, जिस कारण भी फिल्म का निर्माण प्रभावित हुआ और फिल्म लेट हुई! भंसाली इस फिल्म को नवंबर 2017 में रिलीज करना चाहते थे, लेकिन विवाद बढ़ने के कारण ये हो नहीं सका! फिल्म कई झमेलों से निकलने के बाद अब 25 जनवरी को रिलीज किए जाने की कोशिश हो रही है। यदि कोई नया विवाद हुआ, जिसके कि आसार नजर आने लगे हैं तो फिल्म को फ़रवरी के दूसरे सप्ताह में यानी 9 फरवरी को रिलीज किया जा सकता है! अनुष्का शर्मा की फिल्म 'परी' भी इसी दिन रिलीज़ होगी। 'परी' के अलावा टक्कर देने के लिए 'पद्मावत' के सामने कोई और बड़ी फिल्म नहीं होगी। 
  फिलहाल संजय लीला भंसाली ने फिल्म 25 जनवरी को रिलीज करने का ही एलान किया है। जबकि, 25 जनवरी को अक्षय कुमार की पैडमैन रिलीज हो रही है। अक्षय ने 'पद्मावत' के कारण अपनी फिल्म की रिलीज डेट आगे बढ़ाने से इंकार कर दिया। जबकि नीरज पांडे ने 25 जनवरी को रिलीज होने वाली अपनी फिल्म 'अय्यारी' की रिलीज डेट को आगे बढ़ाकर 9 फरवरी कर दिया। इस मेगाक्लैश को देखते हुए ही नीरज पांडे ने यह फैसला किया है। फिल्म 'अय्यारी' के बाद 'दास देव' की रिलीज को भी आगे बढ़ा दिया गया। फिल्म निर्माता सुधीर मिश्रा ने अपनी फिल्म 'दास देव' की रिलीज को 2 मार्च कर दिया है। फिल्म इससे पहले 16 फरवरी को रिलीज होने वाली थी। इसमें अदिति राव हैदरी और राहुल भट्ट मुख्य रोल में हैं। फिल्म निर्माता सुधीर मिश्रा ने कहा कि पूरी टीम 'पद्मावत' की आधिकारिक रिलीज की खबर से रोमांचित है। हम सभी यही निर्णय चाहते थे और पूरा फिल्म उद्योग इस खबर से खुश है कि सिनेमाघरों में फिल्म जल्द आ रही है। इसलिए हमने अपनी फिल्म की रिलीज 2 मार्च तक स्थगित कर दी है। अब हम नई तारीख के लिए तैयारियां कर रहे हैं।
 इस फिल्म को लेकर ये स्थिति पहली बार नहीं आई! जब ये फिल्म 'पद्मावती' नाम से रिलीज होने वाली थी, तब भी कई फिल्म इस वजह से प्रभावित हुई थी। संजय लीला भंसाली की इस फिल्‍म की रिलीज डेट टलने से सिर्फ फिल्‍में पोस्‍टपोंर्न ही नहीं हुई हैं, कुछ फिल्‍मों की रिलीज नजदीक भी हुई! 15 दिसंबर को रिलीज होने वाली फिल्‍म 'फुकरे रिटर्न्‍स' 8 दिसंबर को रिलीज हो गई! यह फिल्‍म 'फुकरे' की सीक्‍वेल और 'फुकरे' भी साल 2015 में 8 दिसंबर को ही रिलीज हुई थी! बतौर प्रोड्यूसर कॉमेडियन कपिल शर्मा की फिल्म 'फिरंगी' 24 नवंबर को रिलीज होने वाली थी। लेकिन, 'पद्मावती' के कारण 'फिरंगी' प्रभावित होने वाली थी। लेकिन, फिल्म के लटकने के कारण कपिल शर्मा ने इसका फायदा उठाया और अपनी फिल्म को 1 दिसंबर को रिलीज किया। सिर्फ कपिल ही नहीं, बल्कि 24 नंवबर को रिलीज होने वाली अरबाज खान और सनी लियोन की फिल्‍म 'तेरा इंतजार' भी 1 दिसंबर को ही रिलीज हुई। 
  इस फिल्म को लेकर नया विवाद है राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश में इस फिल्म के प्रदर्शन को बैन किया जाना! ये संख्या और भी बढ़ सकती है। यदि ये मसला नहीं सुलझा तो हो सकता है फिल्म की रिलीज को फिर टाल दिया जाए! क्योंकि, उत्तर भारत के इन तीन बड़े राज्यों में ही फिल्म रिलीज नहीं होगी, तो फिल्म का बिजनेस प्रभावित हो सकता है। एक खतरा ये भी है कि जिन राज्यों में ये रिलीज हुई, वहां कानून व्यवस्था की स्थिति प्रभावित होने का अंदेशा है। यदि ऐसा कुछ होता है, तो भी फिल्म की रिलीज टल सकती है। यानी 'पद्मावती' हो या 'पद्मावत' नजर तो दोनों को ही लगी है।    
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Sunday 7 January 2018

तमिल राजनीति और सिनेमा के सितारे!


- एकता शर्मा

  दक्षिण भारत के राज्य तमिलनाडु की राजनीति पर बरसों से तमिल सिनेमा की हस्तियों का राज रहा है। परदे से मिलने वाली लोकप्रियता का उनके प्रशंसकों पर प्रभाव आज भी है। इसी लोकप्रियता के सहारे उन्होंने हमेशा चुनावी जीत भी हांसिल की! कुछ सितारे राजनीति के मैदान में सफलता का स्वाद चखने में विफल भी रहे। 67 साल के सुपरस्टार रजनीकांत तमिल राजनीति में उतरने वाले नए सितारे हैं। वहाँ अगला विधानसभा चुनाव साल 2021 में है। पिछले पांच दशकों से तमिलनाडु में द्रविड़ राजनीति करने वाले स्थानीय दलों का ही प्रभाव रहा है। रजनीकांत ने तमिल और हिंदी सिनेमा में अलग-अलग किरदार निभाएं हैं। उन्होंने कई फिल्मों में खुद को जनता के हीरो के रूप में पेश किया है। विरोधियों को रजनीकांत की लोकप्रियता का अंदाजा तो है, लेकिन वे राजनीति को फिल्मों से अलग मानते हैं। 
    हाल में कमल हासन तमिलनाडु के विपक्षी दल डीएमके के साथ मंच साझा करते नजर आए! इसके पहले भी हासन सत्ताधारी दल एआईएडीएमके की आलोचना करते रहे हैं। हालांकि, हासन की ओर से अब तक यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि वह किस दल के साथ जाएंगे! वे 'आम आदमी पार्टी' के मुखिया अरविन्द केजरीवाल से भी मिले थे। 
  अभिनेता एमजी रामचंद्रन तमिलनाडु में पहले सितारे थे, जो अन्नाद्रमुक बनाकर 1970 के दशक में राज्य की सत्ता में आए! उनके धुर विरोधी और पूर्व मुख्यमंत्री एम करुणानिधि का भी फिल्मी दुनिया से नाता रहा है। उन्होंने कई फिल्मों की पटकथाएं लिखीं। करुणानिधि 1969 में द्रमुक संस्थापक सीएन अन्नादुरई की मौत के बाद उनके उत्तराधिकारी और राज्य के मुख्यमंत्री बने! रामचंद्रन राज्य में 'एमजीआर' के नाम से लोकप्रिय थे। वे अपनी फिल्मों में गरीबों के मसीहा की भूमिका निभाते थे! करुणानिधि से मतभेद के बाद रामचंद्रन ने 'द्रमुक' से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई थी! 'एमजीआर' के संरक्षण में राजनीति के तौर-तरीके सीखने वाली जे जयललिता ने उनकी मृत्यु के बाद रामचंद्रन की विरासत को संभाला।  
 'एमजीआर' की मृत्यु के बाद अन्नाद्रमुक दो फाड़ हो गई और फिर 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में दोनों धड़ों का विलय हो गया। जयललिता ने पार्टी की बागडोर संभाली। वे दिसंबर 2016 में जीवन के अंत तक अन्नाद्रमुक की सर्वोच्च नेता बनी रहीं! उन्होंने 2011 और 2016 में लगातार दो विधानसभा चुनावों में अपनी पार्टी को सफलता दिलाई। एमजीआर' के समकालीन और अभिनेता शिवाजी गणेशन भी कांग्रेस में रहने के दौरान राजनीति में सक्रिय रहे, लेकिन, 1988 में अपनी पार्टी बनाने के बाद सफलता पाने में विफल रहे! अभिनेता विजयकांत ने भी 2006 के विधानसभा चुनाव से पहले 'डीएमडीके' नाम की अपनी पार्टी बनाई! साल 2011 का विधानसभा चुनाव उनकी पार्टी ने जयललिता की अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन करके लड़ा। 2016 का विधानसभा चुनाव उनकी पार्टी अकेले लड़ी, लेकिन उसे करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा। 
    राजनीति में फिल्मी हस्तियों का आना सिर्फ तमिलनाडु तक ही सीमित नहीं है। अन्य दक्षिणी राज्य आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में भी यही परंपरा है। आंध्र प्रदेश की राजनीति में सिनेमा जगत से आए नेता थे एनटी रामाराव! वे 'एनटीआर' के नाम से मशहूर रामाराव तेलुगू सिनेमा का बड़ा चेहरा थे। उन्होंने कई तेलुगू फिल्मों में भगवान के किरदार निभाए! एनटीआर ने अपनी इस छवि का इस्तेमाल तेलुगू गर्व के मुद्दे पर आधारित अपनी तेलुगू देशम पार्टी को स्थापित करने में बखूबी की। वे करीब सात साल राज्य के मुख्यमंत्री रहे।