Wednesday 30 November 2016

आलिया को याद करो तो उसकी 'एक्टिंग' से

- एकता शर्मा 

  जिसने आलिया भट्ट की नई फिल्म 'डियर जिंदगी' नहीं देखी, उन्हें जरूर देखना चाहिए। इसलिए नहीं कि फिल्म बहुत अच्छी है या उसके बहुत बिजनेस करने की उम्मीद है! ये पूरी तरह आलिया भट्ट की फिल्म है। इसमें कोई रोमांस नहीं, कहानी में साजिश नहीं, कोई खलनायक भी नहीं है! लेकिन, फिर भी फिल्म बांधकर रखती है! सिर्फ इसलिए कि इसमें आलिया ने श्रेष्ठ अभिनय किया है। गौरी शिंदे ने जब आलिया को कायरा के किरदार के लिए चुना होगा, तब क्या सोचा होगा, ये सोचने वाली बात है! नए ज़माने की इस एक्ट्रेस ने जो बेहतरीन अभिनय किया है, वो काबिले तारीफ है।    
     फिल्म में आलिया की परफॉर्मेन्स को देखकर कहा जा सकता है कि वे अपनी समकालीन एक्ट्रेस मेंश्रेष्ठ हैं। उनके पास एक्सप्रेसशंस की कमी नहीं! फिल्म में कायरा के किरदार में इतने रंग हैं, जिन्हें समेटना इस उम्र की किसी अभिनेत्री के लिए आसान नहीं था। फिल्म में आलिया का कैरेक्टर जितना उलझा हुआ है, उसे सुलझाना मुश्किल बात थी। ये कैरेक्टर कभी हंसाता हैं, कभी आँखे गीली भी कर देता है तो कभी सोचने मजबूर कर देता है कि ये तो हमारी कहानी है! सिनेमा हॉल में बैठे हर दर्शक को ये अपने आसपास के किसी परिवार से जोड़ती है। कहानी और माहौल के हिसाब से आलिया के चेहरे पर कहानी की डिमांड के मुताबिक क्यूटनेस अौर इमोशन उभरते है। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि नए ज़माने की एक्ट्रेस में आलिया का जवाब नहीं! अभी तक अालिया भट्ट को ग्लैमरस रोल के अलावा हाइवे, उड़ता पंजाब में अभिनय के लिए जाना जाता है। लेकिन, इस अभिनेत्री ने साबित कर दिया कि अभिनय के मामले में वे किसी से कम नहीं।
  बॉलीवुड की नई पीढ़ी और फ्रेश टैलेंट्स में जो नाम सबसे पहले लिया जाता है वो आलिया ही है। अपनी पहली फिल्म 'स्टूडेंट ऑफ़ द ईयर' से अपना करियर शुरू करने वाली आलिया ने अपने चंद साल के करियर में और 23 साल के उम्र में वो ऊंचाई पाई, जो पाने में कलाकारों की पूरी जिंदगी निकल जाती है। भले ही 'उड़ता पंजाब' को विवादों के बाद भी सफलता नहीं मिली हो, पर फिल्म में बिना मेकअप वाली आलिया के काम को दर्शकों ने जमकर सराहा! 'हाइवे' में भी इस एक्ट्रेस ने अपह्त का किरदार निभाया था, जो उसी से प्यार करने लगती है, जो उसका अपहरण करता है। ये आलिया की दूसरी ही फिल्म थी। लेकिन, वे तारीफ की हकदार बनी हैं। उन्होंने अपने हिस्से का काम बखूबी से किया था। 
  सोशल मीडिया पर कुछ दिनों पहले आलिया भट्ट के नाम पर जनरल नॉलेज से जुड़े जोक्स की बहार आई थी। जोक्स के जरिए दर्शाया गया था कि आलिया का सामान्य ज्ञान कमजोर है। हो सकता है ये उनकी पब्लिसिटी का कोई स्टंट हो, लेकिन वो अनाड़ी नहीं है। आलिया अच्छी तरह जानती है कि करियर में आगे कैसे बढ़ाना है और समकालीन एक्ट्रेस को कैसे मात देना है। आलिया को भले ही देश  प्रधानमंत्री का नाम नहीं पता हो, पर वे बॉक्स ऑफिस पर नजर रखती है। उसे पता है कि कौन सी फिल्म चली और कौनसी नहीं! आलिया अपनी समकक्ष अभिनेत्रियों पर निगाह रखती हैं। आज दीपिका पादुकोण, कैटरीना कैफ, प्रियंका चोपड़ा उनसे आगे हैं! लेकिन परिणति चोपड़ा, श्रद्धा कपूर, कृति सेनन को आलिया अपने समकक्ष मानती हैं। कुछ ही समय में वे दर्शकों की पंसदीदा अभिनेत्री बन गई! आलिया ने सिद्धार्थ मल्होत्रा, वरुण धवन और अर्जुन कपूर जैसे अभिनेताओं के साथ फिल्में की हैं। 
 बॉलीवुड के सबसे आधुनिक और खुलेपन के विचारों वाले महेश भट्ट परिवार की इस बेटी को अभिनय विरासत में मिला है। यही कारण है कि इस परिवार के सभी बच्चे भी अपने आपमें अलग हैं। आलिया का आइडिया है कि उन पर व उनकी दोनों बहनों की जिंदगी पर आधारित फिल्म बनना चाहिए। यदि तीनों भट्ट बहनों पर फिल्म बनाई जाए, तो यह बहुत बढिय़ा कहानी होगी। वे, शाहीन और पूजा बिल्कुल अलग-अलग शख्सियत हैं। ऐसे में जब हमें मिलाया जाएगा, तो यह बहुत मजेदार होगा। फिल्म की शैली ड्रामा व हास्य वाली होगी। खैर, ये तो हाइपोथीटिकल बात है, पर 'डियर जिंदगी' को जब भी याद किया गया, उसका कारण गौरी शिंदे का डायरेक्शन या शाहरुख़ खान भले न हों, आलिया भट्ट का अभिनय जरूर होगा। 
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गानों में भी होता है एक अजीब सा नशा

- एकता शर्मा 

    इन दिनों दो फ़िल्मी गानों का जलवा है! एक है 'बेफिक्रे' का नशे सी चढ़ती है और दूसरा है 'दंगल' का गीत बापू सेहत के लिए तू तो हानिकारक है'। दोनों ही फ़िल्में अभी रिलीज नहीं हुई, पर इन दोनों गानों ने फिल्म को अभी से चर्चित कर दिया! ये फ़िल्में कितनी सफल होती हैं, ये बात अलग है पर दोनों गानों ने माहौल तो बना ही दिया। दरअसल, ये अकसर होता है। दो-तीन महीनों में कोई न कोई गाना ऐसा सुनाई दे जाता है, जो लोगों की जुबान पर चढ़ जाता है। याद किया जाए तो इससे पहले 'सुल्तान' का गीत 'जग घूमिया तेरे जैसा न कोई' लोगों की जुबान पर चढ़ा! माना जाता है कि अगर फिल्म के गीत हिट हो जाते हैं, तो फिल्म भी चल पड़ती है! पर, वक़्त के साथ कई बार ये कारण सही नहीं निकला! ऐसी कई फिल्मों के नाम याद किए जा सकते हैं, जिनके गीतों ने धूम मचाई, पर फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर पानी भी नहीं माँगा! 

  फिल्म ‘आशिकी-2' के गीतों को भी बहुत पसंद किया गया! वास्तव में ये भी एक प्रयोग ही था! इस फिल्म का संगीत किसी एक संगीतकार ने नहीं, बल्कि नए 5 संगीतकारों की एक टीम दिया था! जबकि, अमित त्रिवेदी ने देव डी, और वेकअप सिड जैसी फिल्मों में संगीत देकर अपनी एक पहचान बना ली थी! फिल्म संगीत के मामले में महिलाओं का नाम कम ही आता है। उषा खन्ना के अलावा किसी का नाम बरसों तक याद भी नहीं आया! लेकिन, अब संगीत में महिलाएं भी सामने आ रही है। स्नेहा खानविलकर को ‘गैंग ऑफ वासेपुर' से ‘वुमनिया' के संगीत के लिए पहचाना जाता है। स्नेहा बॉलीवुड की चौथी महिला संगीतकार हैं। उनसे पहले एक्ट्रेस नर्गिस कि माँ जद्दन बाई, सरस्वती देवी और उषा खन्ना रही हैं। स्नेहा का कहना हैं कि महिलाएं भी इस क्षेत्र बहुत आगे आ चुकी हैं! अब संगीत में पुरुषों का एकाधिकार नहीं है। वे ओए लकी लकी ओए, लव,-सेक्स और धोखा और भेजा फ्राइ-2 में भी संगीत दे चुकी हैं। ख़ास बात ये है कि इनकी पृष्ठभूमि छोटे शहर-कस्बे और गांव ही रहे हैं। 
  बदलते समाज के साथ फिल्म संगीत भी बदलता है! कुछ बदलते संगीत के साथ समाज की पसंद बदलती जाती है। लेकिन, माना जाता है कि सच्चा संगीतकार वही है, जो सुनने वालों की पसंद को अपने प्रयोगों से बदल दे! क्योंकि, आज दुनियाभर के संगीत को सुनने तक सभी की पहुंच है! टेक्नोलॉजी ने सबकुछ आसान कर दिया! लोग प्रयोगों के लिए, कुछ नया सुनने के लिए भी तैयार हैं! यही कारण है कि आज के समय को हिंदी फिल्म संगीत का सबसे रोचक दौर कहा जा सकता है! आजादी के पहले पहले के संगीतकारों में कई पाकिस्तानी गायक शामिल थे! ये वही थे, जो पुराने संगीत घरानों से जुड़े थे! उनके संगीत में उर्दू का प्रभाव था! आज वही काम राहत फतेह अली खान और शफकत अमानत अली जैसे कलाकारों के फिल्म संगीत से जुड़ने से उर्दू और उन घरानों से रिश्ता रखने वाले गायक मिले हैं। यहीं संगीत ने एक तरह की करवट भी ली है। हिंदी फिल्मों के गीत दुनियाभर में सुने जाते हैं।
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समानांतर सिनेमा की अपनी ही दुनिया

- एकता शर्मा 

   फिल्मकारों को जब लगता है कि एक जैसी फ़िल्में बनाकर वे टाइप्ड हो गए तो कुछ नया करने की कोशिश करते हैं। ऐसा ही नया प्रयोग है 'कला' या 'समानांतर सिनेमा।' इसे व्यावसायिक सिनेमा की मुख्यधारा से हटकर एक नए विकल्प के रूप में देखा जाता है। यह भारतीय सिनेमा का एक नया आंदोलन है, जिसे गंभीर विषय, वास्तविकता और नैसर्गिकता के साथ जोड़कर माना गया है। इस तरह के सिनेमा में एक नए अंदाज में सामाजिक और राजनीतिक घटनाक्रमों को सेल्युलाइड पर उतारने की कोशिश की जाती है। जापान और फ्रांस के सिनेमा में यर्थाथवादी दृष्टिकोण की फिल्मों को मिली सफलता से प्रेरणा लेकर सबसे पहले बंगाली सिनेमा में समानांतर सिनेमा का प्रवेश सत्यजीत रे, मृणाल सेन और ऋत्विक घटक जैसे फिल्मकारों के जरिए हुआ! इसके बाद हिन्दी सिनेमा में इस शैली की फ़िल्में बनना शुरू हुई! 
  1950 से 1960 के दौरान बुध्दिजीवी फिल्मकार तथा कथाकार उस दौर की संगीतमय फिल्मों से हताश हो चुके थे। इसका मुकाबला करने के लिए उन्होंने एक ऐसी शैली विकसित की, जो अपने कलात्मक रूप के कारण 'कला फिल्म' कहलाई। इस जमाने की अधिकांश फिल्मों में सरकारी पैसा लगा था, ताकि कला फिल्मों को पोषित किया जा सके! इन नव-यर्थाथवादी फिल्मकारों में सत्यजीत रे का नाम सबसे ऊपर आता है। उनके बाद इस परम्परा को श्याम बेनेगल, मृणाल सेन, अदूर गोपालकृष्णन तथा गिरीश कासारावल्ली ने आगे बढ़ाया। सत्यजीत की सर्वाधिक प्रसिध्द फिल्मों में पाथेर पांचाली (1955), अपराजितो (1956) द वर्ल्ड आफ अप्पू (1959) याद रखने वाली फ़िल्में हैं। 
  कला फिल्मों का दर्शक एक विशेष वर्ग होता है। सीमित दर्शकों के कारण इन फिल्मों की व्यावसायिक सफलता संदिग्ध मानी गई है। लेकिन, इसका मतलब यह नहीं कि कला फिल्मों का निर्माण घाटे का सौदा है! ऐसी कई कला फिल्में हैं, जिन्होंने बाक्स ऑफिस पर पैसा भी बटोरा है। बिमल राय की 'दो बीघा जमीन' (1953) ने समीक्षकों की प्रशंसा के साथ व्यावसायिक सफलता भी प्राप्त की थी। इसे कॉन फेस्टिवल (1954) में अंतर्राष्ट्रीय सम्मान भी मिला। 1970 और 1980 के दौरान समानांतर सिनेमा ने जमकर विकास किया। श्याम बेनेगल की फिल्म 'अंकुर' को मिली व्यापक सफलता के बाद इस शैली के फिल्मकारों का हौंसला बुलंद हुआ! इसी दौर में शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, रेहाना सुल्तान, अमोल पालेकर, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, अनुपम खेर, कुलभूषण खरबंदा, पंकज कपूर, गिरीश कर्नाड के साथ समय-समय पर रेखा और हेमा मालिनी का भी सानिध्य मिला।
  2000 के बाद एक बार फिर समानांतर सिनेमा थोड़े बदले अंदाज में लौट आया। इस दौर में प्रायोगिक फिल्मों के नाम से नए प्रयोग होने लगे। मणिरत्नम की दिल से (1998) और युवा (2004), नागेश कुकनूर की तीन दीवारें (2003) और डोर (2006), सुधीर मिश्रा की हजारों ख्वाहिशें ऐसी (2005), जान्हु बरूआ की मैने गांधी को नहीं मारा (2005), नंदिता दास की फिराक (2008) ओनिर की माय ब्रदर निखिल (2005) और बस एक पल (2006), अनुराग कश्यप की देव डी (2009) तथा गुलाल (2009) पियूष झा की सिकन्दर ( 2009 ) और विक्रमादित्य मोटवानी की उडान (2009) से एक बार फिर समानांतर सिनेमा का अंकुरण होने लगा है। हाल ही में सफलता के नए कीर्तिमान बनाने वाली फिल्म राजनीति, आरक्षण, कहानी और पिंक को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है।
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त्यौहार पर रिलीज़, फिल्म का हिट फार्मूला नहीं!

- एकता शर्मा 


  त्यौहारों को किसी भी फिल्म की सफलता का ब्लैंक चैक माना जाता है। यही कारण है कि दिवाली, ईद, क्रिसमय पर फ़िल्में रिलीज़ करने की होड़ सी लग जाती है। क्योंकि, लोगों को फुरसत के वक़्त में फिल्म दिखाकर कैसे बहलाया जाए, ये सिर्फ फिल्मकार ही जानते हैं। लेकिन, ये फार्मूला धीरे-धीरे फेल होता नजर आ रहा है। क्योंकि, इस बार दिवाली पर रिलीज़ हुई दोनों फिल्में 'शिवाय' और 'ए दिल है मुश्किल' दर्शकों के दिल पर नहीं चढ़ी! बॉक्स ऑफिस के आंकड़ें भी यही इशारा करते हैं। इसलिए कि आज फिल्म की सफलता को उसके सौ, दो सौ करोड़ या उससे ज्यादा की कमाई से आकलित किया जाता है। जबकि, एक वक़्त था जब फिल्म के सिल्वर, गोल्डन और प्लेटिनम जुबली मनाने को ही फिल्म का हिट होना समझा जाता था! उस समय फिल्म ने कितनी कमाई की, इससे दर्शकों का कोई सरोकार नहीं होता था, पर आज है! 
  औसत रूप से देखा जाए तो फ़िल्मी दुनिया की सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्म 1975 में आई 'जय संतोषी मां' ही मानी जाएगी! इस धार्मिक फिल्म ने संभवतः आजतक प्रदर्शित करोडों की लागत वाली सभी फिल्मों को पीछे छोड रखा है। इस फिल्म की सफलता का आश्चर्यजनक आकलन इसलिए किया गया कि 'जय संतोषी माँ' के निर्माण में कुछ लाख रूपए लगे थे और इसके वितरकों की कमाई का आंकड़ा 5 करोड रूपए तक पहुंचा था। लागत और कमाई की तुलना में ये 100 गुना ज्यादा था! इस नजरिए से आज 50-60 करोड में बनने वाली फिल्म को यदि 'जय संतोषी  माँ' का रिकॉर्ड तोडना है तो उसे 5 से 6 हज़ार करोड़ की कमाई करना पड़ेगी, जो संभव नहीं है।
 इस अनुपात से दूसरी सुपरहिट फिल्म है, 1989 में प्रदर्शित 'मैने प्यार किया।' जिसने अपनी लागत से लगभग 15 गुना कमाई का रिकॉर्ड बनाया था। इसके बाद भी यह फिल्म 'जय संतोषी माँ' से पीछे है। बॉलीवुड के इतिहास में 'मैंने प्यार किया' के अलावा सात और ऐसी फिल्में हैं, जिन्हें ऑल टाइम ब्लाक-बस्टर माना जाता है। इन फिल्मों ने सारे रिकार्ड तोड़कर ऐसे रिकार्ड बनाए हैं, जिन्हें छूना आज की फिल्मो के लिए मुश्किल है। 1975 में बनी शोले को हिन्दी फिल्म इतिहास की यह एक ऐसी फिल्म है जो अपने प्रदर्शन के समय तो औसत बिजनेस कर रही थी! लेकिन, एक सप्ताह के बाद जब इसे माउथ पब्लिसिटी मिली, तो इसे देखने के लिए थिएटरों में भीड़ उमड़ पड़ी। यह फिल्म अपने प्रदर्शन के तीन दशक बाद आज भी जब दर्शकों के सामने आती है, तो दर्शक बंध सा जाता हैं।
  बॉक्स आफिस पर रंग ज़माने वाली यादगार फिल्मों मे संगम, उपकार, बॉबी, रोटी कपडा और मकान, क्रांति, कुली, राम तेरी गंगा मैली, कभी-कभी, राजा हिन्दुस्तानी, कुछ-कुछ होता है, कभी ख़ुशी कभी गम, धूम-2, मुन्नाभाई एमबीबीएस, दबंग और दबंग-2, बॉडीगार्ड, सिंघम, बरफी आदि फ़िल्में भी हैं। लेकिन, ये सभी उन 8 मेगा ब्लाक-बस्टर से नीचे हैं। इसलिए कि कम निर्माण लागत के मुकाबले इन फिल्मों ने पैसा तो ज्यादा बटोरा, लेकिन दर्शक नहीं बटोरे! शायद 'शिवाय' और 'ए दिल है मुश्किल' का हश्र देखकर फिल्मकार सीखेंगे कि फिल्म अच्छी पटकथा से चलती है, कोई और फार्मूला उसे सफल नहीं बना सकता!
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