Wednesday 23 March 2016

रंगों से सराबोर रहा है हिंदी फिल्मों परदा!


- एकता शर्मा 
       होली महज एक शब्द नहीं है! ये प्रतीक है रंगों का! बदलती दुनिया में बहुत कुछ बदला है, लेकिन होली के रंग नहीं बदले! कुछ ऐसा ही है फिल्मों के साथ भी हुआ! दशक बदले, दौर बदला, दर्शक बदले पर होली की उमंग वैसी ही कायम रही! जीवन में त्यौहारों की अहमियत कम हो रही है! क्योंकि, लोगों के पास अब त्यौहार मनाने वक़्त ही नहीं बचा! होली को लेकर भी अब वो उत्साह और उमंग कहीं नजर नहीं आती जो 20-25 साल पहले थी! कहा जाता है कि हमारी फिल्में भी समाज के बदलते नजरिए से प्रभावित होती है! यही कारण है कि अब फिल्मों में भी होली करीब-करीब नदारद हो गई! एक वक़्त ऐसा भी था जब फिल्मों में होली  और गीत भरे रहते थे, आज वो सब नहीं बचा! याद भी करें तो इक्का-दुक्का फ़िल्में ही होंगी, जिनमें पिछले कुछ सालों में होली नजर आई है।    

  हिंदी फिल्मों में होली दृश्यों की शुरूआत 1940 में सरदार अख्तर व कन्हैयालाल अभिनीत फिल्म 'औरत' को माना जाता है। यह ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म थी! जिसमें संगीत अनिल विश्वास ने दिया था। 1944 में आई दिलीप कुमार की फिल्म 'ज्वार भाटा' में भी जमकर होली मनी थी! इस फिल्म में होली के दृश्यों ने तो मानों इतिहास ही रच दिया था। इसके बाद तो वी शांताराम, जे ओमप्रकाश, रमेश सिप्पी, यश चोपड़ा समेत कई निर्देशकों ने होली को कथानक के मुताबिक नए-नए संदर्भों में उपयोग किया! दिलीप कुमार ने 1052 में आई 'आन' में निम्मी के साथ भी होली खेली! राजेश खन्ना और आशा पारेख की 1970 में आई 'कटी पतंग' के गीत आज ना छोडेंगे बस हम जोली खेलेंगे हम होली को भी दर्शक आजतक नहीं भूले हैं।     महबूब ख़ान की 'मदर इंडिया' में सुनील दत्त, नरगिस, राजकुमार, हीरालाल और अन्य कलाकारों के साथ फ़िल्माया गया होली गीत 'होली आई रे कन्‍हाई रंग छलके सुना दे बाँसुरी!' वी शांताराम की 'नवरंग' में होली का एक शानदार गीत था 'जा रे नटखट ना खोल मेरा घूंघट पलट के दूँगी तुझे गाली रे, मोहे समझो ना तुम भोली भाली रे!' 'कोहिनूर' में दिलीप कुमार और मीना कुमारी ने जब 'तन रंग लो जी आज मन रंग लो' गाया तो लगा होली को एक नई परिभाषा मिली! 'शोले' का गीत 'होली के दिन दिल खिल जाते हैं, रंगों में रंग मिल जाते हैं' जैसे गाने आज भी पसंद किए जाते हैं। यश चोपड़ा ने दर्शकों को तीन यादगार होलियों से रूबरू करवाया! 'सिलसिला' की 'रंग बरसे भीगे चुनरवाली' उसके बाद आई 'मशाल' की होली जिसमें दिलीप कुमार गाते हैं 'यही दिन था यही मौसम जवाँ जब हमने खेली थी!' अनिल कपूर वाली पंक्ति है 'अरे क्या चक्कर है भाई देखो होली आई रे, ये लड़की है या काली माई देखो होली आई रे!' यशराज की तीसरी होली मनी 'डर' में! जिसमें शाहरूख़ ख़ान ढोल बजाते हुए होली समारोह में बिन बुलाए चले आते हैं गाने के बोल थे 'अंग से अंग लगाना पिया हमें ऐसे रंग लगाना!' 'आखिर क्यों' में राकेश रोशन भी होली खेलते नज़र आए थे! बोल थे 'सात रंग में खेल रही हैं दिलवालों की होली रे!' 'बागबान' का ये गीत भी काफी लोकप्रिय हुआ था 'होली खेलें रघुबीरा अवध में होली खेलें रघुबीरा।'
   फिल्मों में होली सिर्फ गीतों तक ही सीमित नहीं रही! कथानक में भी होली का त्यौहार अपनी ख़ास जगह रखता था! 'शोले' में गब्बर सिंह का संवाद 'होली कब है, कब है होली? आज भी सबको याद है! कामचोर, फागुन, आप की कसम, सिलसिला और कोहिनूर जैसी फिल्मों में भी रंगों का ये त्यौहार खूब नजर आया! अमिताभ बच्चन रेखा और जया बच्चन की फिल्म 'सिलसिला' में भी होली के गीत से फिल्म की कहानी धूमती है। अमिताभ की आवाज में इस फिल्म का गीत रंग बरसे भीगे चुनरवाली आज भी सुनाई दे जाता है। मशाल, दयावान, नदिया के पार मोहब्बतें, दामिनी, मंगलपांडे और बागबान जैसी फिल्मों में भी होली का रंग देखने को मिला! 
  आज के निर्माता-निर्देशकों ने फिल्मों में होली के गीतों को भुला सा दिया है! एक जमाना था जब होली के गीत फिल्मों में रखे ही जाते थे! इन दिनों न इस तरह की फिल्में बन रही हैं और न होली आधारित गीत लिखे जा रहे हैं। हिन्दी फिल्मों में होली पर आधारित गीतों की शुरुआत 50 के दशक से मानी जाती है। उस दौर में रंगों के इस त्यौहार पर कई फिल्में बनी! होली के रचे गए! ये गीत आज भी उतने ही जिन्दा हैं, जितने उस वक़्त थे! आज याद भी किया जाए तो शायद कोई फिल्म याद नहीं आएगी, जिसमें होली गीत हो! 
(लेखिका ने 'हिंदी फिल्मों के 100 साल'पर शोध कार्य किया है)

---------------------------------------------------------------

Tuesday 22 March 2016

बदलती फिल्मों से बदलता समाज?

   

ये हमेशा से ही एक यक्ष प्रश्न रहा है कि फिल्में समाज से प्रभावित होती हैं या समाज को देखकर फिल्मों के कथानक लिखे जाते हैं! इस सवाल का जवाब कभी खोज जा सकेगा, ऐसा लगता नहीं! क्योंकि, कहीं न कहीं समाज और फिल्म दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। इस मुद्दे को लेकर समाज की नई और पुरानी पीढ़ियों में वैचारिक मतभेद भी देखे गए हैं! इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि फैशन के मामले में समाज को फिल्में ही प्रभावित करती रही हैं! लेकिन, क्या सामाजिक सोच और युवाओं में आते बदलाव में भी फ़िल्मी कथानकों का कोई योगदान है? सवालों के जवाब खोजने की कोशिश करता ये आलेख :
000     

- एकता शर्मा 
   फिल्में अपने शुरुआती काल से ही समाज को प्रभावित करती आई हैं। हमेशा से ही ये बात बहस का विषय रही है, क़ि फ़िल्में समाज का आईंना है या समाज फिल्मों से प्रभावित होता है। फिल्मों के इतिहास में झांका जाए तो हम देखेंगे कि कहीं न कहीं फ़िल्में ही समाज को प्रभावित करती आई हैं। थोड़ा कुरेदकर देखा जाए तो ये मानना भी पड़ेगा! क्योंकि, फिल्मों की कहानियां भले ही काल्पनिक रूप से लिखी जाती हों, पर उनका आईडिया समाज से ही उभरता है। कई ऐसी बातें जो समाज में हो पाना संभव नहीं होती, सिर्फ फिल्म को हिट करने के मकसद से लिख दी जाती है! बाद में समाज उसे अपना अंग समझकर सहज स्वीकार कर लेता है।

 बीते पांच दशकों में समाज में अप्रत्याशित बदलाव आया, जिसने एक तरह से समाज की विचारधारा को ही बदल डाला। यही बदलाव फिल्मों में दिखाई दिया। फिल्मों का सीधा असर शुरू से ही समाज पर पड़ता रहा है। खासकर फिल्मों में होने वाले हर अनुक्रम को सबसे ज्यादा अनुसरण करने वाला युवा वर्ग होता है।फिल्मों का मनोवैज्ञानिक असर भी होता है! यूँ कहना ज्यादा बेहतर होगा कि फ़िल्में हर व्यक्ति के अंदर के सपने को यथार्थ रूप में दिखाने का काम करती हैं। सामान्य शब्दों में कहा जाए तो फिल्मों को 'सपनो का सौदागर' कहा जा सकता है। 
    हर युवा फिल्म के हीरो में अपने आपको अनुभव करता है। यही प्रतिक्रिया हर लड़की में भी नजर आती है! यही कारण है कि फिल्म देखने वाला युवा फिल्म में हो रहे घटनाक्रम को अपनी असल जिंदगी में अनुसारित करने लगता है! यही अनुसरण समाज में असर के रूप में सामने आता है। अब अगर समाज में आए बदलाव कि बात करें, तो हम पाएंगे की कहीं न कहीं इसमें फिल्मों का सबसे ज्यादा योगदान दिखता है। शुरुआत के दौर की फिल्मों को देखा जाए तो उसमें नैतिकता और आदर्शवाद की सीख ज्यादा नजर आती थी! इन फिल्मों में नायक कभी कोई गलत काम या अपराध करता नजर नहीं आता था! यदि कुछ गलत होता भी था तो उसके लिए वो उसके लिए खलनायक होता था, जिसका फिल्म के अंतिम संघर्ष में अंत होना लगभग तय होता था! सीधे शब्दों में कहें तो ये संघर्ष सत्य और असत्य या सही-गलत के बीच होता था। जिसमें जीत हमेशा ही सत्य यानी नायक की ही होती थी! इसका सीधा संदेश होता था 'सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं।' 
   फिल्म की अनुमानित लंबाई 3 घंटे की मानी जाए तो लगभग ढाई घंटे उसमें खलनायक छाया रहता और हीरो परेशान होता रहता! किन्तु अंततः जीत नायक यानी 'सच' की ही होती! यदि फिल्म में यदि मज़बूरी में नायक से कोई गलत काम हो भी जाता या कानून की गिरफ्त में आ जाता या मार दिया जाता, तो कथानक में इस तरह बदलाव किया जाता कि नायक का नायकत्व जीवित रहे! अगर इससे भी ज्यादा कुछ दिखाना हो तो नायक के डबल रोल हो जाते थे! जिसमें एक अधर्मी होता था, जिसकी अंत में मौत हो जाती थी और सच्चा नायक जीत जाता और तोहफे उसे नायिका मिल जाती! 
   इस तरह का कथानक 60 से 80 के दशक की किसी भी फिल्म में आसानी से मिल जाएगा! फिर चाहे वो 'मदर इंडिया' का बिरजू (सुनील दत्त) हो, जिसे गलत काम करने पर खुद उसकी माँ ही मार देती है! 'गंगा-जमुना' का दिलीप कुमार भी डाकू होने के कारण मारा जाता है। इसके बाद के दशकों में अमिताभ बच्चन का युग रहा! इस नायक की सर्वकालीन सुपरहिट फिल्म 'डॉन' की बात करें, तो अपराधी अमिताभ के मारे जाने के बाद एक सज्जन आदमी चतुराई से अपनी जान खतरे में डालकर पुलिस और कानून की मदद करके समाज को कई अपराधियों से मुक्ति दिलाता है! इसके अलावा ऐसी फिल्मों में 'सत्ते पे सत्ता', देशप्रेमी, महान, कालिया और त्रिशूल का जिक्र  सकता है। अन्य हीरो में सच्चा झूठा, ज्वेल थीफ, जुगनू, कालीचरण जैसी अनगिनत फ़िल्में हैं, जिनके अंत में सच्चाई, नैतिकता और आदर्श की जीत होती है और झूठ की पराजय! 
  पिछले दो दशकों से फिल्मों में आए बदलाव ने कहीं न कहीं समाज में अपराध, भ्रष्टाचार और अनैतिकता को बढ़ावा देने का काम ही किया है। पिछले दशकों में आई फिल्मों को देखें तो ये स्वीकार करना पडेगा कि इन फिल्मों ने युवा वर्ग को भ्रमित ही किया है। समाज को भटकाव का संदेश ही दिया है! अश्लीलता और अपराध को बढ़ावा देने में भी इन फिल्मों का योगदान है। आज जो फ़िल्में बन रही हैं, उनका फोकस सिर्फ युवा वर्ग है! इन फिल्मों में लेखक, निर्माता और निर्देशक कुछ नया करने और फिल्म को किसी यह भी तरह हिट करने के फॉर्मूले के तहत समाज को गलत संदेश देने से भी नहीं चूक रहे! इसमें अपने आपको आगे बढ़ाने की होड़ में बड़े से बड़ा हीरो भी इसमें लगा हुआ है। 60 से 80 के दशक वाले नायक शायद इस तरह की कहानियो को इंकार कर देते! क्योंकि, उन्हें लगता था कि वे सिर्फ फिल्मों के ही नहीं समाज के भी नायक हैं! किन्तु आज के भटकाव वाले समाज में अंधा पैसा कमाने में आज की फिल्मों के नायक भी पीछे नहीं है।
 इस कड़ी में सबसे पहला नाम अक्षय कुमार का लिया जाए, तो उनकी फिल्म 'स्पेशल छब्बीस' को याद करना होगा! इस फिल्म में हीरो और उसका ग्रुप नकली सीबीआई टीम बनकर कई लोगो के यहाँ छापेमारी करते हैं। अंत में असली सीबीआई को भी चकमा देकर भाग जाते हैं। यदि इस फिल्म को देखे तो देश  की सीबीआई पर ही उंगली उठती नजर आती हैं। एक साधारण आदमी सीबीआई को कैसे बेवकूफ बना सकता है? फिल्म को जब एक युवा ने देखी होगी, तो सामान्य तौर पर उसके दिल में भी ऐसी चालबाजी करने का विचार एक बार तो आया ही होगा! उसे लगा होगा कि इस तरीके से अपराध करके आसानी से बचा जा सकता
है और पैसा भी कमाया जा सकता है!
  अगली कड़ी में शाहरुख़ खान की 'डॉन' हो या सलमान की 'दबंग।' इसमें भी हीरो को गलत काम करते हुए और सफल होते दिखाया गया है! 'दबंग' में तो खुले आम एक पुलिस अफसर रिश्वत लेता है और सफल होकर जीत हांसिल करता है। इसी क्रम में एक और महत्वपूर्ण फिल्म है 'द वेडनेसडे' जिसका में किरदार नसीरुद्दीन शाह ने निभाया है। लेकिन, अंत में एक साधारण आदमी कानून व्यवस्था को तमाचा मारकर आसानी से बचकर निकल जाता है। अपराध के साथ यदि आवारागर्दी, गुंडागर्दी औए नशे की लत को भी कई फिल्मों ने बढ़ावा दिया है! जिनमें हीरोपंती, गुंडे, इशकजादे, फुकरे आदि हैं! ऐसी अनगिनत फ़िल्में हैं, जो युवाओं को नैतिकता के रास्ते से भटकने की प्रेरणा देती है।
  अभी हर जगह एक ही विषय पर चर्चा जोरों पर है कि हमारी संस्कृति कहीं गुम हो रही है? किंतु यदि इसकी जड़ों में जाया जाए तो कारणों के पीछे कहीं न कहीं फ़िल्में ही वरीयता क्रम में पहली या दूसरी पायदान पर नजर आएगी। जरुरी है कि फिल्म मेकर और नायक नायिका अपनी जिम्मेदारी समझें और उसके बाद ही काम करें! 
--------------------------------------------------------------------------------------

नौकरी, परिवार और ज़िंदगी!


 एकता शर्मा 

   आज वक़्त में महिलाओं का नौकरी करना सामान्य बात है। ऐसे में यदि पति-पत्नी दोनों काम करते हैं तो परिवार का खर्च चलाना भी आसान हो जाता है। पुरुष के लिए तो परिवार और नौकरी के समय को एडजस्ट करना आसान है! पर, कामकाजी महिलाओं के लिए नौकरी, परिवार और जिंदगी के बीच सामंजस्य बनाना आसान नहीं होता! महिलाओं के लिए पारिवारिक जिम्मेदारियों के बावजूद कामकाजी होने के कुछ निजी कारण हैं। एक कामकाजी महिला का कहना है कि मैं अपने करियर में चुनौतियां पसंद करती हूँ! साथ ही नौकरी में रोजाना नई चीजें सीखने को भी मिलता है।

 अमेरिका में श्रम सांख्यिकी ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक यहाँ काम करने वाली महिलाएं 47 फीसदी हैं। जबकि, 1960 में यह संख्या 22 फीसदी थी। इस संख्या में उछाल की वजह यह है कि महिलाओं की कार्यक्षमता को लेकर लोगों की सोच में बदलाव आया है। समाज में जैसे-जैसे महिलाओं के साथ समानता का वातावरण बन रहा है, वैसे वैसे वे अपने पारंपरिक कामकाज के दायरे से बाहर निकलकर दूसरी पेशेवर भूमिकाओं में सामने आ रही हैं! अच्छी बात ये है कि उनके पति घरेलू कामकाज और बच्चों को संभालने जैसी ज़िम्मेदारी निभाने में भी संकोच नहीं कर रहे!
  दोहरी जिम्मेदारियां और खुद को नई पहचान देने की कोशिश ने कामकाजी महिलाओं में नया आत्मविश्वास जगाया है। इसके अलावा उन्हें काम के प्रति संतुष्टि का आभास दिलाया है। खासकर इसके जरिए वे हांसिल रचनात्मकता और रोजमर्रा के अपने सहकर्मियों से संबंधों को लेकर भी बहुत उत्साहित रहती हैं। अपने व्यक्तित्व और बुद्धि के इस पक्ष को बनाए रखना और उसे आगे बढ़ाना भी उनके लिए महत्वपूर्ण है।
   देखा जाए तो इन महिलाओं के कामकाजी और घरेलू जीवन में तालमेल की वजह है, इनकी व्यवस्थित दिनचर्या! ये सभी महिलाएं अपने परिवार और कामकाज के बारे में प्रतिबद्ध होकर चलती हैं। कामकाजी महिलाएं घड़ी की तरह से जीवन को चलाती हैं। इसलिए कि उनके लिए ये काफी व्यवस्थित होता है। इससे स्थितियां काबू में रहती हैं और परिवार का जीवन भी खुशियों से भरा होता है। इन सभी महिलाओं की कोशिश होती है कि कम से कम पूरा परिवार रात के खाने के लिए घर पर ही रहें। एक कामकाजी महिला की मां को इस बात की ख़ुशी है कि एक व्यस्त परिवार में पलने के बावजूद उनकी बेटी के लिए परिवार सबसे पहले है। वे कहती हैं कि हम सब डिनर के समय एक साथ रहते हैं। क्योंकि, हम सभी के लिए यह अहसास अद्भुत होता है।
  जिस परिवार में पति और पत्नी दोनों काम करते हैं उस घर में सप्ताहांत और छुट्टी का दिन खास होता है। ऐसे परिवारों में सप्ताहांत साथ बिताने की आदत होती है और पूरा परिवार भी इसे एंजॉय करता है। इस दिन दूसरे परिवारों के साथ भी उनका मिलना-जुलना होता है। एक तरह से पूरा परिवार दिनभर एक साथ रहता है।
   जीवन की तमाम व्यस्तताओं के बीच यही वो समय होता है जब कामकाजी महिला का परिवार संतुष्टि का अनुभव करता है। दरअसल, समाज की ये वे महिलाएं हैं जिन्होंने अपने बच्चों के सामने जीवन के दृष्टिकोण का एक सकारात्मक और ठोस उदाहरण पेश किया है। इन महिलाओं का सोच है कि जब वे रचनात्मक और पेशेगत चुनौतियों से गुजरती हैं, तो उनके बच्चे भी उस पूरे हालात, मेहनत, उसमें आने वाली मुश्किलों और आशंकाओं और उनके नतीजों के अनुभवों से रूबरू होते हैं।
------------------------------------------------------------

समाज और परिवार हर जगह बराबरी का दर्जा


महिलाओं के कानूनी अधिकार
------------------------------------

  समाज में आज महिलाएं शिक्षित होने के बावजूद अपने कानूनी अधिकारों से अनभिज्ञ रहती हैं! सिर्फ शिक्षित या अशिक्षित महिलाएं ही नहीं! समाज का एक बड़ा वर्ग भी अपने कानूनी अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं होता! महिलाएं आज हर क्षेत्र में कामयाबी की बुलंदियां छू रही हैं। हर जगह अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रही हैं। इसके बावजूद उन पर होने वाले अन्याय, बलात्कार, प्रताड़ना, शोषण आदि में कोई कमी नहीं आई! कई बार तो उन्हें अपने अधिकारों के बारे में जानकारी तक नहीं होती!

----------------------------------------------------------------------



- एकता शर्मा (एडवोकेट)

घरेलू हिंसा (डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट 2005) - शादीशुदा या अविवाहित स्त्रियाँ अपने साथ हो रहे अन्याय व प्रताड़ना को घरेलू हिंसा कानून के अंतर्गत दर्ज कराकर उसी घर में रहने का अधिकार पा सकती हैं जिसमे वे रह रही हैं। यदि किसी महिला की इच्छा के विरूद्ध उसके पैसे, शेयर्स या बैंक अकाउंट का इस्तेमाल किया जा रहा हो तो इस कानून का इस्तेमाल करके वह इसे रोक सकती है। साथ ही किसी महिला की  कुरूपता पर टिपण्णी करने या बेटा पैदा नहीं करने का ताना दिया जाए और वो उससे परेशान हो तो  इस कानून के तहत न्याय मांग सकती है । इस कानून के तहत घर का बंटवारा कर महिला को उसी घर में रहने का अधिकार मिल जाता है और उसे प्रताड़ित करने वालों को उससे बात तक करने की इजाजत नहीं दी जाती! विवाहित होने की स्थिति में अपने बच्चे की कस्टडी और मानसिक, शारीरिक प्रताड़ना का मुआवजा मांगने का भी उसे अधिकार है। घरेलू हिंसा में महिलाएं खुद पर हो रहे अत्याचार के लिए सीधे न्यायालय से गुहार लगा सकती है, इसके लिए वकील को लेकर जाना जरुरी नहीं है। अपनी समस्या के निदान के लिए पीड़ित महिला- वकील प्रोटेक्शन ऑफिसर और सर्विस प्रोवाइडर में से किसी एक को साथ ले जा सकती है और चाहे तो खुद ही अपना पक्ष रख सकती है। इसके अलावा अपने क्षेत्र की आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को जानकारी देकर भी प्रकरण दर्ज करा सकती है ।
दहेज़ प्रताड़ना - भारतीय दंड संहिता की धारा  498 (ए) के तहत किसी भी शादीशुदा महिला को दहेज़ के लिए प्रताड़ित करना कानूनन अपराध है। इसके अलावा दहेज़ प्रतिषेध अधिनियम  के अंतर्गत भी दहेज़ प्रताड़ना से सम्बंधित प्रावधान है । जिसमे दहेज़ लेना और देना दोनों अपराध बनाये गए है।
तलाक का अधिकार - हिन्दू विवाह अधिनियम १९९५ के तहत निम्न परिस्थितियों में कोई भी पत्नी अपने पति से तलाक ले सकती है। पहली पत्नी होने के वावजूद पति द्वारा दूसरी शादी करने पर, पति के सात साल तक लापता होने पर, परिणय संबंधों में संतुष्ट न कर पाने पर, मानसिक या शारीरिक रूप से प्रताड़ित करने पर, धर्म परिवर्तन करने पर, पति को गंभीर या लाइलाज बीमारी होने पर, यदि पति ने पत्नी को त्याग दिया हो और उन्हें अलग रहते हुए दो वर्ष से अधिक समय हो चुका हो तो!
- तलाक के बाद महिला को गुजारा भत्ता, स्त्रीधन और बच्चों की कस्टडी पाने का अधिकार भी होता है, लेकिन इसका फैसला साक्ष्यों के आधार पर अदालत ही करती है।
भरण पोषण का अधिकार- तलाक की याचिका पर शादीशुदा स्त्री 'हिन्दू मैरेज एक्ट' के सेक्शन-24 के तहत गुजारा भत्ता ले सकती है| तलाक लेने के निर्णय के बाद सेक्शन-25 के तहत परमानेंट एलिमनी लेने का भी प्रावधान है। विधवा महिलाएं यदि दूसरी शादी नहीं करती हैं, तो वे अपने ससुर से मेंटेनेंस पाने का अधिकार रखती हैं। यदि पत्नी को दी गई रकम कम लगती है, तो वह पति को अधिक खर्च देने के लिए बाध्य भी कर सकती है। गुजारे भत्ते का प्रावधान 'एडॉप्शन एंड मेंटेनेंस एक्ट' में भी है।
- सीआरपीसी के सेक्शन 125 के अंतर्गत वैध  पत्नी को भरण-पोषण का अधिकार मिला है। बशर्ते वह किसी योग्य कारण से पति से अलग रह रही हो । तथा खुद अपना भरण पोषण  करने में सक्षम नहीं हो। जिस तरह हिन्दू महिलाओं को ये तमाम अधिकार मिले हैं, उसी तरह या उसके समकक्ष या समानांतर अधिकार अन्य महिलाओं (जो कि हिन्दू नहीं हैं) को भी उनके पर्सनल लॉ में उपलब्ध हैं, जिनका उपयोग वे कर सकती हैं।
बच्चे की कस्टडी का अधिकार - यदि पति बच्चे की कस्टडी पाने के लिए कोर्ट में पत्नी से पहले याचिका दायर कर दे, तब भी महिला को बच्चे की कस्टडी प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार है। पति की मृत्यु या तलाक होने की स्थिति में महिला अपने बच्चों की संरक्षक बनने का दावा कर सकती है!
- भारतीय कानून के अनुसार, गर्भपात कराना अपराध की श्रेणी में आता है, लेकिन गर्भ की वजह से यदि किसी महिला के स्वास्थ्य को खतरा हो तो वह गर्भपात करा सकती है। ऐसी स्थिति में उसका गर्भपात वैध माना जाएगा। कोई व्यक्ति महिला की सहमति के बिना उसे गर्भपात के लिए बाध्य नहीं कर सकता! यदि वह ऐसा करता है तो महिला कानूनी दावा कर सकती है।
लिव इन रिलेशनशिप से जुड़े अधिकार- लिव इन रिलेशनशिप में महिला पार्टनर को वही दर्जा प्राप्त है, जो किसी विवाहिता को मिलता है। लिव इन रिलेशनशिप संबंधों के दौरान यदि पार्टनर अपनी जीवनसाथी को मानसिक या शारीरिक प्रताड़ना दे तो पीड़ित महिला घरेलू हिंसा कानून की सहायता ले सकती है। लिव इन रिलेशनशिप से पैदा हुई संतान वैध मानी जाएगी और उसे भी संपत्ति में हिस्सा पाने का अधिकार होगा। पहली पत्नी के जीवित रहते हुए यदि कोई पुरुष दूसरी महिला से लिव इन रिलेशनशिप रखता है तो दूसरी पत्नी भी गुजाराभत्ता पाने के लिए न्यायालय में आवेदन लगा सकती है।
बच्चों से सम्बंधित अधिकार- प्रसव से पूर्व गर्भस्थ शिशु का लिंग जांचने वाले डॉक्टर और गर्भपात कराने का दबाव बनानेवाले पति दोनों को ही अपराधी करार दिया जायेगा| लिंग की जाँच करने वाले डॉक्टर को 3 से 5 साल का कारावास और 10 से 15 हजार रुपए का जुर्माना हो सकता है। लिंग जांच का दबाव डालने वाले पति और रिश्तेदारों के लिए भी सजा का प्रावधान है।
- हिन्दू मैरेज एक्ट1955  के सेक्शन-26 के अनुसार, पत्नी अपने बच्चे की सुरक्षा, भरण-पोषण और शिक्षा के लिए भी निवेदन कर सकती है। 'हिन्दू एडॉप्शन एंड सेक्शन एक्ट' के तहत कोई भी वयस्क विवाहित या अविवाहित महिला बच्चे को गोद ले सकती है। यदि महिला विवाहित है तो पति की सहमति के बाद ही बच्चा गोद ले सकती है। दाखिले के लिए स्कूल के फॉर्म में पिता का नाम लिखना अब अनिवार्य नहीं है। बच्चे की माँ या पिता में से किसी भी एक अभिभावक का नाम लिखना ही पर्याप्त है।
जमीन जायदाद से जुड़े अधिकार- विवाहित या अविवाहित, महिलाओं को अपने पिता की सम्पत्ति में बराबर का हिस्सा पाने का हक है। इसके अलावा विधवा बहू अपने ससुर से गुजारा भत्ता व संपत्ति में हिस्सा पाने की भी हकदार है। हिन्दू मैरेज एक्ट 1955 के सेक्शन-27 के तहत पति और पत्नी दोनों की जितनी भी संपत्ति है, उसके बंटवारे की भी मांग पत्नी कर सकती है। इसके अलावा पत्नी के अपने ‘स्त्री-धन’ पर भी उसका पूरा अधिकार रहता है।
- 1954 के हिन्दू मैरेज एक्ट में महिलाएं संपत्ति में बंटवारे की मांग नहीं कर सकती थीं, लेकिन अब कोपार्सेनरी राइट के तहत उन्हें अपने दादाजी या अपने पुरखों द्वारा अर्जित संपत्ति में से भी अपना हिस्सा पाने का पूरा अधिकार है। यह कानून सभी राज्यों में लागू है।
- अन्य समुदायों की महिलाओं की तरह मुस्लिम महिला भी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता पाने की हक़दार है। मुस्लिम महिला अपने तलाकशुदा पति से तब तक गुजारा भत्ता पाने की हक़दार है जब तक कि वह दूसरी शादी नहीं कर लेती। (संदर्भ : शाह बानो प्रकरण)
- हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम १९५६ के तहत, विधवा अपने मृत पति की संपत्ति में अपने हिस्से की पूर्ण मालकिन होती है। पुनः विवाह कर लेने के बाद भी उसका यह अधिकार बना रहता है। यदि पत्नी-पति के साथ न रहे तो भी उसका दाम्पत्य अधिकार कायम रहता है। यदि पति-पत्नी साथ नहीं भी रहते हैं या विवाहोत्तर यौन संपर्क नहीं हुआ है, तो भी दाम्पत्य अधिकार के प्रत्यास्थापन (रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कॉन्जुगल राइट्स) की डिक्री पास की जा सकती है।
कामकाजी महिलाओं के अधिकार- इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट रूल-5, शेड्यूल-5 के तहत यौन संपर्क के प्रस्ताव को न मानने के कारण कर्मचारी को काम से निकालने व एनी लाभों से वंचित करने पर कार्रवाई का प्रावधान है। समान काम के लिए महिलाओं को पुरुषों के बराबर वेतन पाने का अधिकार है।
- धारा 66 के अनुसार, सूर्योदय से पहले (सुबह ६ बजे) और सूर्यास्त के बाद (शाम ७ बजे के बाद) काम करने के लिए महिलाओं को बाध्य नहीं किया जा सकता। भले ही उन्हें ओवरटाइम दिया जाए, लेकिन कोई महिला यदि शाम 7 बजे के बाद ऑफिस में न रुकना चाहे तो उसे रुकने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। ऑफिस में होने वाले उत्पीड़न के खिलाफ महिलायें शिकायत दर्ज करा सकती हैं|
- प्रसूति सुविधा अधिनियम 1961 के तहत, प्रसव के बाद महिलाओं को तीन माह की वैतनिक मेटर्निटी लीव दी जाती है। इसके बाद भी वे चाहें तो तीन माह तक अवैतनिक मेटर्निटी लीव ले सकती हैं।
पुलिस स्टेशन से जुड़े विशेष अधिकार- सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के बाद किसी भी तरह की पूछताछ के लिए किसी भी महिला को पुलिस स्टेशन में नहीं रोका जा सकता! पुलिस स्टेशन में किसी भी महिला से पूछताछ करने या उसकी तलाशी के दौरान महिला कॉन्सटेबल का होना जरुरी है। महिला अपराधी की डॉक्टरी जाँच महिला डॉक्टर करेगी या महिला डॉक्टर की उपस्थिति के दौरान कोई पुरुष डॉक्टर! किसी भी महिला गवाह को पूछताछ के लिए पुलिस स्टेशन आने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता! जरुरत पड़ने पर उससे पूछताछ के लिए पुलिस को ही उसके घर जाना होगा।
अधिकारों से जुड़े कुछ मुद्दे - मासूम बच्चियों के साथ बढ़ते बलात्कार के मामले को गंभीरता से लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिका पर महत्वपूर्ण निर्देश दिया है। अब बच्चियों से सेक्स करने वाले या उन्हें वेश्यावृत्ति में धकेलने वाले लोगों के खिलाफ बलात्कार के आरोप में मुकदमें दर्ज होंगे! क्योंकि, 'चाइल्ड प्रोस्टीट्यूशन' बलात्कार के बराबर अपराध है।
- कई बार बलात्कार की शिकार महिलायें पुलिस जाँच और मुकदमें के दौरान जलालत व अपमान से बचने के लिए चुप रह जाती हैं। सरकार ने सी. आर. पी. सी. में  दिल्ली निर्भया काण्ड के बाद कुछ संशोधन किये हे  जो इस प्रकार है : बलात्कार से सम्बंधित मुकदमों की सुनवाई महिला जज ही करेगी। ऐसे मामलों की सुनवाई दो महीनों में पूरी करने के प्रयास होंगे। बलात्कार पीडिता के बयान महिला पुलिस अधिकारी ही दर्ज करेगी। बयान पीडिता के घर में उसके परिजनों की मौजूदगी में लिखे जाएंगे! साथ ही बलात्कार पीड़िता को किसी भी असपताल में तुरंत  मुफ़्त इलाज दिया जाएगा । और यदि कोई डॉक्टर इलाज से इनकार करता है तो उसके खिलाफ कार्यवाही का भी प्रावधान है।
(लेखिका पत्रकार और कानून की जानकार है)---------------------------------------------------------

Monday 21 March 2016

महिलाओं के कोमल ह्रदय में पनपते अपराधिक षड्यंत्र!


- एकता शर्मा 

  हाल ही में दो ऐसी घटनाएँ घटी, जिसने समाज को ये सोचने को मजबूर कर दिया है कि अपराधिक मानसिकता सिर्फ पुरुषों के दिमाग में ही नहीं पनपती, महिलाएं भी उससे मुक्त नहीं हैं। हाईप्रोफाइल सोसायटी में रहने वाली इंद्राणी मुखर्जी ने अपनी ही बेटी को साजिश रचकर मार डाला! ये षड़यंत्र इतना सोच समझकर रचा गया कि तीन साल तक किसी को कानो कान खबर नहीं लगी! हत्या क्यों की गई, ये सच अभी सामने आना बाकी है! दूसरी घटना गुजरात के अमरेली की है, जहाँ 17 साल की एक लड़की ने अपने बड़े भाई की गला रेतकर हत्या कर दी! क्योंकि, उसका भाई बहन के प्रेम प्रसंग में बाधा बन रहा था। बताते हैं कि लड़की को भाई के मर्डर करने का आईडिया एक टीवी शो से मिला! उसने भाई की हत्या के बाद उसे छुपाने का भी पूरा प्रयास किया!

  यही दो घटनाएँ ऐसी नहीं हैं, जिनमें महिलाओं की अपराधिक मानसिकता का पता चलता है। ऐसा अकसर देखा गया है। अपराध की दुनिया में तमाम तरह की ऐसी घटनाएं घटने लगी हैं, जिनमें महिलाएं शामिल होती हैं। महिलाएं भी वैसी ही अपराधिक घटनाओं को अंजाम देने लगी हैं, जैसे कोई दूसरा अपराधी देता है। समाज में महिलाओं को लेकर सोच है कि वे गलत काम नहीं कर सकतीं! क्रूरता नहीं कर सकतीं और अपराधों में साझेदारी नहीं कर सकतीं! लेकिन, पुलिस का मानना है कि ‘महिलाएं अगर ठान लें, तो वे हर तरह के अपराध में शामिल हो सकती हैं। किन्तु, महिला अपराधियों से सच्चाई कुबूल करवा पाना पुरुष अपराधियों के मुकाबले ज्यादा कठिन होता है। वे मार्मिक बातों और आंसुओं से जांच की दिशा को भटकाने की कोशिश करती हैं। इसके अलावा महिलाओं के प्रति समाज में जो सोच है, उसका भी वे लाभ लेने की कोशिश करती हैं।’
   समाज में अब इस धारणा का कोई ठोस आधार नहीं रहा कि महिलाओं का ह्रदय कोमल होता है, इसलिए वे क्रूरता नहीं कर सकती! जिस तरह से समाज की सोच और नैतिक मूल्यों में गिरावट आई है, उसका महिलाओं के सोच पर भी असर पड़ा है। महिलाएं जब तरक्की की राह में आगे बढ़ रही हैं, तो समाज की बुराइयां भी उनमें आने लगी हैं! वे पहले की तरह संवेदनशील सोच से बाहर निकल रही हैं। वे वैसे ही अपराध भी कर रही हैं, जैसे कोई पुरुष करता है। दरअसल, अपराध करने वाले इंसान की सोच एक जैसी ही होती है फिर वो पुरुष हो या महिला! आज का समाज पुरुष प्रधान है। यहाँ महिलाओं द्वारा किए गए अपराध को अलग नजर से देखा जाता है। उसकी सोच की भी कुछ अलग ही आलोचना होती है। महिला अपराधी की आलोचना करते समय उसके घर, परिवार और बच्चों को भी शामिल कर लिया जाता है।
   महिला अपराधों को गंभीरता से समझने वाली एक वकील का निष्कर्ष है कि कई बार तो अपराध का ग्लैमर भी महिलाओं को लुभाता है! इसके अलावा अब महिलाओं की जरूरतें बढ़ गई हैं। चोरी, लूट और धोखाधड़ी जैसे अपराधों में तो ज्यादातर महिलाएं पुरुषों की सोहबत में ही आती हैं। महिलाओं की कोमल छवि का लाभ उठाने के लिए पुरुष अपराधी उन्हें आगे कर देते हैं, जिससे काम करना सरल हो जाए! शुरुआत में महिलाएं लालच में ऐसे काम करने लगती हैं! लेकिन, अपराध की दलदल में फंसने के बाद वे इससे दूर नहीं जा पाती! ऐसे कई मामले देखे गए हैं, जहाँ महिलाएं शातिर अपराधियों की तिकड़म का शिकार हो जाती हैं। उनको जबरन अपराध में फंसा दिया जाता है। लेकिन, महिलाओं में बढ़ती अपराधिक सोच हमारे समाज के लिए एक बड़ा खतरा भी है। महिलाओं के अपराध में शामिल होने का सबसे ज्यादा असर उसके बच्चों पर पड़ता है। वे घर, गली, मुहल्ले से लेकर स्कूल तक में अकेले पड़ जाते हैं।
  इंद्राणी मुखर्जी और अपने भाई  हत्यारी बहन की तरह अपराध करने से पहले हर महिला को लगता है कि वो अपराध करके बच जाएगी! लेकिन, पुलिस जांच की गंभीरता से अब ऐसा नहीं रहा! पुलिस जांच से लेकर मीडिया रिपोर्ट तक में महिला अपराधी होने पर मामला रोचक बढ़ जाता है। एक कारण ये भी है कि महिला अपराधी के शामिल होने से मीडिया का रुख भी अलग हो जाता है। घटना को ख़ास दर्जा मिल जाता है। कारण पुलिस पर भी दबाव पड़ता है और उसे पड़ताल जल्द करनी होती है।
  देश की कानून व्यवस्था ऐसी है, जिसमें न्याय देर से होता है। ऐसे में अगर महिला अपराध से मुक्त भी हो जाए तो भी उसके खोए हुए सम्मान को वापस नहीं लौटाया जा सकता है। मीडिया में भी उन खबरों को जगह कम ही दी जाती है, जिनमें महिला अपराध से मुक्त हो जाती हैं! ऐसे में समाज को वास्तविकता का पता ही नहीं चल पाता! इसलिए जरुरी है कि महिलाएं अपराध से खुद को अलग रखे! थोड़े से लालच में किसी के बहकावे और षडयंत्र में शामिल नहीं हो! महिलाओं के अपराध में शामिल होने से केवल उनका भविष्य ही खराब नहीं होता, उनके घर, परिवार और बच्चों का भविष्य भी प्रभावित होता है।
(लेखक वकील, पत्रकार और महिला अधिकारों की जानकार है।)
--------------------------------------------

'लैंगिक समानता' हमारा सबसे बड़ा लक्ष्य



ये हैं संयुक्त राष्ट्र के '17 ग्लोबल गोल्स' 

   गरीबी हटाना, भुखमरी दूर करना, अच्छा स्वास्थ्य और खुशहाली, एक समान शिक्षा, लैंगिक समानता, स्वच्छ पानी और सफाई, सामर्थ्य के अनुसार ऊर्जा, उपयुक्त कार्य और आर्थिक विकास, उद्योग-खोज-संरचना, असमानता दूर करना, स्थाई शहर और समाज, उत्तरदायी सेवन और उत्पादन, मौसम का अमल, जल में जीवन, पृथ्वी पर जीवन, शांति-न्याय और महत्वपूर्ण संस्थान, लक्ष्य  जुड़ाओ!
-----------------------------------------------------------

- एकता शर्मा  
   आने वाले सालों में दुनिया के सामने कौनसी चुनौतियाँ होंगी और उनका मुकाबला कैसे किया जाएगा! इस मकसद को लेकर संयुक्त राष्ट्र से जुड़े देशों ने अगले 15 सालों के लिए अपने कुछ लक्ष्य निर्धारित किए हैं। ये वो 17 चुनौतियाँ हैं, जिनसे पूरी दुनिया को जूझना है और एक ऐसे समाज की रचना करना है, जिसमें सभी सुखी हों और कोई अभाव न हो! संयुक्त राष्ट्र ने एक प्रस्ताव तैयार किया है जिसका नाम है '2030 एजेंडा फॉर सस्टेनेबल डेव्लपमेंट' जिसे संयुक्त राष्ट्र महासभा में स्वीकृति के लिए पटल पर रखा। इस दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत दुनियाभर के 100 देशों के वैश्विक नेता मौजूद रहे।

   दुनियाभर के उद्योगपति, दिग्गज हस्तियाँ, नामी कंपनियाँ और समाजसेवी संगठन भी संयुक्त राष्ट्र के '17 ग्लोबल गोल्स कैम्पेन' से जुड़ी हैं। इस 'ग्लोबल गोल्स कैम्पेन' की शुरुआत फिल्मकार रिचर्ड कर्टिस ने की थी! वे चाहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र इन 17 कार्यक्रमों को लोकप्रियता दिला सकें और इन्हें दुनियाभर में लागू करने की पहल कर सकें। संयुक्त राष्ट्र के सेक्रेटरी जनरल बेन की-मून ने भी अपने संदेश में कहा है कि हर देश के नागरिक को इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाना चाहिए! माना जा रहा है कि आने वाले 15 सालों में वैश्विक मुहिमों की रूपरेखा इसी से तय होना है। दुनियाभर के कई नामी सितारे सात दिन तक सात अरब धरतीवासियों को प्रेरणा देंगे कि 'अब समय आ गया है दुनिया बदली जाए।'
  'सस्टेनेबल डेव्लपमेंट' को समर्पित इस ‘ग्लोबल कैम्पेन’ का मकसद है दुनिया में व्याप्त घोर असमानताओं को मिटाने, गरीबी-दरिद्रता को खत्म करने तथा पर्यावरण बदलाव जैसे समस्याओं से लड़ने के लिए लगातार मापदंड तय करते रहना। ताकि, आज की जरूरतों को इस तरह पूरा कर सके कि आने वाली पीढ़ियों को अपनी जरूरतें पूरी करने के लाले न पड़े! संयुक्तराष्ट्र का मकसद है कि इस मुहिम से आम आदमी भी जुड़े और पूरी दुनिया को बेहतर भविष्य देने के लिए जागरूक बने। इस मुहिम से जिन हस्तियों ने खुद को जोड़ा गया है वे हैं अक्षय कुमार, रितिक, रहमान, हॉलीवुड एक्टर ऐशटन कुचर, जेनिफर लॉरेंस, शांतिदूत लैंग लैंग, यूसुफजई मलाला इत्यादि। इंडियन सुपर लीग्स के चेन्नई-इन, एफ़सी और एफ़सी-पुणे सिटी जैसे संगठन और ई-बे इंडिया, रिलायंस समूह, सीआईआई भी इससे जुड़े हुए हैं।
'लैंगिक समानता' सबसे बड़ा मुद्दा
  संयुक्त राष्ट्रसंघ के 17 कार्यक्रमों के इस ग्लोबल कैम्पेन में भारत के संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण हैं नंबर 5 का मिशन 'लैंगिक समानता।' विश्व आर्थिक मंच की एक रिपोर्ट के मुताबिक लैंगिक समानता सूचकांक में भारत का स्थान पिछले कुछ सालों में काफी नीचे गिर गया है! भारत गिरकर 113वें स्थान पर पहुंच गया! वर्ष 2006 के लैंगिक समानता सूचकांक में भारत 115 देशों में से 98वें स्थान पर था। इस सूचकांक में आइसलैंड पहले स्थान पर है, जिसके बाद नॉर्वे, फ़िनलैंड और स्वीडन है। सूचकांक में यमन सबसे नीचे है। जहां तक पड़ोसी देश पाकिस्तान और नेपाल की बात है, तो वो नीचे से तीसरे व दसवें स्थान पर हैं। विश्व आर्थिक मंच यानि 'वर्ल्ड इकॉनॉमिक फ़ोरम' का सूचकांक देशों की उस क्षमता को मापता है कि उसने पुरुषों और महिलाओं को बराबर संसाधन और अवसर देने के लिए कितना प्रयास किया।
   इस सूचकांक को चार श्रेणियों में बांटा गया है आर्थिक भागीदारी और अवसर, शिक्षा, स्वास्थ्य और राजनीतिक सशक्तिकरण इन चारों श्रेणियों में से केवल अंतिम श्रेणी में भारत की थोड़ी सकारात्मक तस्वीर उभरकर आई है, वो है राजनीतिक सशक्तिकरण। इस क्षेत्र के मामले में भारत को 20 सबसे अच्छे देशों में से 19वें स्थान पर रखा गया है। लेकिन, बाकी सभी श्रेणियों में भारत की तस्वीर निराशाजनक ही है। रिपोर्ट के मुताबिक स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव, आर्थिक भागीदारी में बढ़ता अंतर भारत के विकास के आड़े आ सकता है। ब्राज़ील, रूस, चीन और भारत यानी ब्रिक्स समूह के देशों में भी देखा जाए, तो भारत इन तीनों देशों के मुक़ाबले सूचकांक में सबसे नीचे है। 'लैंगिक समानता' का सीधा संबंध बढ़ती हुई आर्थिक प्रतिस्पर्धा से है! विश्व का ध्यान ज़्यादा से ज़्यादा नौकरियों के अवसर पैदा करने पर है, और ऐसे में लैंगिक समानता एक अहम मुद्दा है।' वैश्विक स्थिति की बात की जाए तो रिपोर्ट में कहा गया है कि 85 प्रतिशत देशों ने पिछले छह सालों में लिंग समानता अनुपात में सुधार किया है! लेकिन, बाकी 15 प्रतिशत देशों में स्थिति और ख़राब हुई है। अफ्रीका और उत्तरी अमरीका में ख़ासतौर पर पिछले छह सालों में स्थिति लगातार ख़राब हुई है।
   भारत ने संयुक्त राष्ट्र से कहा है कि लैंगिक समानता एवं महिला सशक्तिकरण के लक्ष्य हांसिल करने के लिए सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) उपकरणों का इस्तेमाल अहम साबित होगा! इससे डिजिटल उपकरणों के इस्तेमाल के क्षेत्र में अंतर पाटने में भी मदद मिलेगी! 21वीं सदी की मौजूदा और उभरती चुनौतियों से पार पाने में सभी महिलाओं, लडकियों, पुरुषों और लडकों की समान भागीदारी को प्रोत्साहित करना विकास की प्रक्रिया की कुंजी है। कमीशन ऑफ द स्टेटस ऑफ विमेन' के 59वें सत्र के मुताबिक भी 'लैंगिक समानता एवं महिला सशक्तिकरण के लक्ष्यों को हांसिल करने में आईसीटी उपकरणों का इस्तेमाल अहम भूमिका निभा सकता है।
   'लैंगिक समानता' के पैमाने पर भारत तो बांग्लादेश से भी पीछे है। हम रोज महिलाओं को बराबरी का हक देने की बात करते हैं! जबकि, सच्चाई यह है कि देश की 60 फीसदी लड़कियां सिर्फ इसलिए स्कूल जाना छोड़ देती हैं, क्योंकि वहां टॉयलेट नहीं होता! 'ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स' से जुड़ी एक रिपोर्ट के अनुसार छोटी-छोटी बच्च‍ियां सिर्फ इसलिए स्कूल जाना छोड़ देती हैं, या फिर उनके माता-पिता स्कूल भेजना बंद कर देते हैं, क्योंकि स्कूल में शौचालय नहीं है। कहीं शौचालय हैं, तो दरवाजा नहीं है। दरवाजा है, तो साफ़-सफाई नहीं है। ऐसी लड़कियों का आंकड़ा 60 फीसदी है। अब अगर एश‍िया प्रशांत (एपीएसी) की रिपोर्ट पर गौर करें तो लैंगिक समानता में भारत बांग्लादेश और श्रीलंका से पीछे है। 'मास्टरकार्ड' के एक सर्वे के अनुसार भारत 44.2 अंकों के साथ आख‍िरी पायदान पर रहा। वहीं बांग्लादेश 44.6 और श्रीलंका 46.2 अंकों से थोड़ा ऊपर।
  लैंगिक समानता के क्षेत्र में स्थायी विकास लक्ष्य हांसिल करना, राजनीतिक इच्छाशक्ति और संसाधनों का इस्तेमाल, लैंगिक परिप्रेक्ष्य वाले विकास एजेंडे के वास्तविक समावेशी, न्यायसंगत लक्ष्यों को पाने में अहम होगा। विकास के लिए कार्यक्रमों, कानूनों और नीतियों के निर्माण में लैंगिक परिप्रेक्ष्य को मुख्य रूप से ध्यान में रखना भारत सरकार की प्राथमिकता है। उन्होंने छोटी बचत को प्रोत्साहित करने के लिए शुरू की गई जमा योजना 'सुकन्या समृद्धि योजना' और महिला उद्यमियों की मदद के लिए स्थापित किए गए देश के पहले 'महिला बैंक' का उदाहरण दिया। घटते लैंगिक अनुपात की समस्या से निपटने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राष्ट्रव्यापी बहुक्षेत्रीय पहल 'बेटी बचाओ, बेटी पढाओ' आरंभ की गई है।
--------------------------------------------------------------

कितनी सुरक्षित महिलाओं के लिए बस, ट्रेन


- एकता शर्मा 

  इंदौर की सिटी बसों और मुंबई की लोकल ट्रेनों में जब महिलाओं के लिए डिब्बे और सीटें सुरक्षित किए गए तो सभी ने इस पहल को सराहा! जबकि, आज समाज के ज्यादा आधुनिक होने के बाद भी बड़े शहरों में सिर्फ महिलाओं के लिए सुरक्षित ट्रेनों, बसों और टैक्सियों की सेवा बढ़ रही है। समाज का ये अजीब शगल है कि एक तरफ हम पुरुष और महिलाओं के बीच भेदभाव घटाने की बात कर रहे हैं! दूसरी और महिलाओं  सुरक्षा की चिंता बढ़ती जा रही है। 'थॉम्पसन रॉयटर्स फाउंडेशन' के सर्वे के मुताबिक दुनिया के बड़े शहरों में ऐसे ट्रांसपोर्ट में महिलाएं खुद को ज्यादा सुरक्षित महसूस करती हैं!

  लिंगभेद पर काम करने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि यह एक तात्कालिक हल है जो आगे जाकर महिलाओं के लिए भारी पड़ सकता है। दुनिया के 15 देशों की राजधानियों में 6,300 महिलाओं पर मुद्दे पर एक सर्वे किया गया। इसमें अमेरिका का बड़ा शहर न्यूयॉर्क भी शामिल किया गया! यह अमेरिका का सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला शहर भी है। 70 फीसदी महिलाओं ने कहा कि वे महिलाओं के लिए चलाई जाने वाली बसों और ट्रेनों में ही खुद को सुरक्षित महसूस करती हैं!
  फिलीपींस की राजधानी मनीला में महिलाएं विशेष बसों और ट्रेनों के समर्थन में हैं। वहां 10 में से 9 महिलाएं अपने लिए खास वाहन सेवा चाहती हैं। इसके बाद नंबर है जकार्ता, फिर मेक्सिको सिटी का और फिर दिल्ली का! वहीं न्यूयॉर्क में बहुत कम महिलाएं (करीब 35 फीसदी) ऐसी हैं जो सिर्फ महिला ट्रेन या बस के समर्थन में हैं। इसके बाद मॉस्को, लंदन और पेरिस हैं। यानी सार्वजनिक यातायात इन देशों में महिलाओं के लिए तुलनात्मक रूप से ज्यादा सुरक्षित है।
 न्यूयॉर्क की बात करें तो 25 साल पहले की स्थिति बिलकुल अलग थी। लगातार बेहतर हुई सुरक्षा स्थिति के कारण आज वहां महिलाओं को डर नहीं के बराबर है। फिर भी 34 फीसदी ऐसी हैं जो कहती हैं कि सार्वजनिक यातायात के दौरान उनके साथ छेड़खानी की गई। न्यूयॉर्क में करीब 80 लाख लोग रोज बसों और ट्रेनों का इस्तेमाल करते हैं।
  यह सर्वे कराने का मकसद यह था कि दिल्ली से लेकर क्वालालंपुर और न्यूयॉर्क तक सिर्फ महिलाओं के लिए चलने वाली बसों, ट्रेनों और टैक्सी सेवाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। लिंगभेद और शहर नियोजन पर काम करने वाले विशेषज्ञों ने इस ट्रेंड पर चिंता जाहिर की है। लंदन में एव्रीडे सेक्सिज्म प्रोजेक्ट की संस्थापक लॉरा बेट्स का कहना है कि मुझे लगता है कि यह अधिकतर पुरुषों के लिए अपमानजनक तो है ही, लेकिन यह दिखाता है कि महिलाएं समस्या की जड़ तक नहीं जा रही हैं।
  दुनिया की सबसे बड़ी राजधानी टोक्यो पहला ऐसा शहर था जिसने साल 2000 में ट्रेन में सिर्फ महिलाओं के लिए विशेष डब्बा बनाया ताकि महिलाओं के साथ यौन हिंसा कम हो! इसके बाद मेक्सिको सिटी, जकार्ता और लंदन भी इस तरीके पर विस्तार कर रहे हैं। वर्ल्ड बैंक में वरिष्ठ यातायात विशेषज्ञ जूली बाबिनार्ड मानती हैं कि ये उपाय सिर्फ शॉर्ट टर्म इलाज है और महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार खत्म करने के लिए काफी नहीं! जूली बाबिनार्ड कहती हैं कि कई देशों में सिर्फ महिलाओं के लिए शुरू की जाने वाली सेवा को सुरक्षा हालात बेहतर बनाने का एक तरीका माना जा सकता है। लेकिन, यातायात और शहरों में महिलाओं पर होने वाली हिंसा का नहीं! दोनों को अलग अलग रखने पर इस समस्या का दीर्घकालीन हल नहीं मिलेगा। इस तरह के उपाय थोड़े समय का हल हैं ये मुश्किल को जड़ से खत्म नहीं करते।
---------------------------

महिलाओं के संघर्ष के चार चेहरे

- एकता शर्मा 

  महिलाओं के संघर्ष का कोई अंत नहीं है। ये कहानी शुरू तो होती है, पर ख़त्म नहीं होती! जब इस तरह की कोई कहानी अदालतों में पहुँचती है और महिलाओं को उससे रूबरू होना पड़ता है! तब लगता है कि पुरुष प्रधान समाज में अभी भी महिलाओं की बराबरी की बात करना बेमानी है! एक वकील के तौर पर मुझे ऐसी कई महिलाओं से सामना करने का मौका मिला, जिनका संघर्ष हमेशा नया और रोज का लगता है। ऐसी 4 महिलाओं के संघर्ष की दास्तान जो पति, परिवार, बच्चे और समाज से अपने हक़ के लिए अदालतों में लड़ रही हैं।  

दृश्य - एक 
  ये कहानी है एक 30 साल की विधवा महिला ललिता (बदला हुआ नाम) की, जिसे पति की मौत के बाद अपने पति के हिस्से की जमीन के लिए ससुराल से जूझना पड़ा! ये दास्तान शुरू होती है पति की दुर्घटना में मौत से! इसके बाद तो ललिता की जिंदगी ही बदल गई! ससुराल वालों ने आँखे फेर ली! ससुराल की साझा जमीन पर देवर ने कब्ज़ा कर लिया! जब उसने जमीन में पति का हिस्सा माँगा तो देवर ने टरका दिया कि परिवार की कोई जमीन नहीं है। इसलिए कि देवर ने पुश्तैनी जमीन पर अफरा-तफरी करके उसे अपनी पत्नी के नाम करवा लिया था! अब एक ही रास्ता बचा था कि अदालतों के चक्कर लगाए जाएँ! घरेलू महिला ललिता को पहली बार ससुराल के खिलाफ घर से बाहर निकलना पड़ा! यहीं से शुरू हुई जीवन के संघर्ष की दास्तान! वकीलों की फीस, कोर्ट फीस, आवेदन, फोटो कॉपियां, जमाने की नजरें, तारीखों का लम्बा इंतजार! हर दूसरे-तीसरे दिन कोट जाना! जिस दिन कोर्ट जाना हो, उस दिन की मजदूरी का नुकसान! गांव से करीब 2 कोस पैदल चलकर जाना, फिर वहाँ से बस से जाना! इन सारे खर्चों के लिए जूझना। कोर्ट तक पहुँचने बच्चों को अकेले छोड़कर आने का दर्द और जिम्मेदारी! फिर पूरा दिन उनके सुरक्षित होने की चिंता! सबसे ज्यादा पीड़ादायक बात तो ये थी कि ललिता को अपने ही लोगों से जूझना पड़ा था!
  अपने ही हक़ को अदालत में साबित करना आसान नहीं होता! खासकर उस महिला के लिए जिसके पति का परिवार उसके खिलाफ खड़ा हो! देवर ये साबित करने में लगा था कि ये जमीन पुश्तैनी नहीं, उसकी अपनी है! उधर, अदालत में उसका वकील भी ललिता को झूठा साबित करने में अड़ा रहा! ऐसे वक़्त में मैंने भी उसके (ललिता के) वकील के तौर पर नहीं, एक दोस्त की तरह उसका साथ देने का फैसला किया और कानूनी दांव पेंच से जमीन पर हक़ साबित करने का रास्ता निकाला! उस विवादस्पद जमीन पर बोई गई फसल पर उसे कब्ज़ा करने की हिम्मत दिलाई! उसे मानसिक तौर पर तैयार किया कि यदि हक़ चाहिए तो हर स्तर पर लड़ाई लड़ना पड़ेगी! तारीफ करना पड़ेगी ललिता की, कि हमेशा घूँघट में दुबकी रहने वाली ललिता में अपने हक़ को पाने का जज्बा जागा और उसने अदालत की लड़ाई के साथ हिम्मत करके मौके पर भी अपनी लड़ाई लड़ी! कटती फसल के वक़्त देवर के सामने डंडा लेकर खड़े होने का साहस किया! देवर को कानूनी दांव पेंचों में उलझाकर इतना मजबूर कर दिया कि उसे समझौते के लिए मजबूर होना पड़ा! यदि ऐसा नहीं होता तो ये मामला 4 साल के बदले कई और साल खिंचता रहता! कानून ने अपना काम किया वो तो अपनी जगह है, पर यदि ललिता खुद हक़ के लिए हिम्मत नहीं करती, तो शायद मैं भी कुछ नहीं कर पाती!    
दृश्य - 2 
  ये कहानी है उस महिला सावित्री (बदला हुआ नाम) की, जिसे उसका पति इसलिए छोड़ना चाहता है। इसलिए कि उसके जीवन में कोई दूसरी महिला आ गई! सावित्री पर चारित्रिक आरोप लगाकर उसे घर से निकाल दिया! मजबूर होकर वो पिता के घर रहने आ गई! वहाँ उसे भाई-भाभियों के ताने सुनने पड़ रहे हैं। आर्थिक समस्या से वो जूझ ही रही है। बच्चों की पढाई को लेकर भी उसे चिंता है। अदालत में उसे पति द्वारा दायर मुक़दमे का सामना करने के लिए वकीलों की फीस और अन्य खर्च से भी निपटना पड़ रहा है! दो बच्चों की इस माँ पर अनर्गल आरोप लगाकर पति ने उसके खिलाफ तलाक़ का मुकदमा दायर किया है। जिस महिला का अपना कोई दोष नहीं, कोई जुर्म नहीं, जिसने कोई गलती नहीं की! पर, वो सिर्फ इसलिए कटघरे में खड़ी होने को मजबूर हो गई कि पति का दिल किसी और पर आ गया! वो नहीं चाहती कि पति का साथ छूटे! यदि ऐसा होता है तो वो अपने बच्चे के साथ कहाँ जाएगी? अपनी मजबूरी की खातिर सावित्री सौतन को भी स्वीकारने को तैयार है! लेकिन, पति इसके लिए भी राजी नहीं!
दृश्य - 3 
  अब ये एक अन्य महिला राजकुमारी (बदला हुआ नाम) की दर्दभरी दास्तान है। इस महिला ने अपराधिक चरित्र वाले पति के खिलाफ तलाक का मामला अदालत में दर्ज किया है, पर पति उसे छोड़ने को राजी नहीं! राजकुमारी को सात साल पहले नहीं मालूम था कि उसने जिस मनोज से प्रेम विवाह करने का फैसला किया है वो एक अपराधिक सोच वाला व्यक्ति है! वो नशीली दवाइयों का आदी रहा! लूटपाट, चोरी, हत्या के उसपर कई मामले दर्ज हैं। शादी के बाद पति की मार, नशे में की जाने वाली क्रूरता! नशीले पति की मानसिक स्थिति से जूझना! लेकिन, जब राजकुमारी ने पति का सच जाना, तब तक बहुत देर हो चुकी थी! हत्या के एक मामले में मनोज को आजीवन कारावास की सजा हो गई! एक बच्चे की माँ राजकुमारी अब जीवन में बदलाव चाहती है! लेकिन, अब वो अपराधी पति उसकी मजबूरी का फ़ायदा उठा रहा है। वो राजकुमारी को तलाक नहीं दे रहा! अब इस महिला को अदालत में ये साबित करना है कि वो पति की क्रूरता से पीड़ित है, इसलिए उसे पति से मुक्त किया जाए! लेकिन, अदालत में साबित करना इसलिए मुश्किल है कि पति के परिवार वाले उसका साथ नहीं दे रहे! पास-पड़ोस के लोग मनोज की अपराधिक छवि के कारण भयभीत हैं, इसलिए खामोश हैं! उसने प्रेम विवाह किया था, इसलिए माता-पिता और परिवार के ताने भी उसे सुनना पड़ रहे हैं। आशय ये कि एक महिला अपराधी पति से छुटकारा इसलिए नहीं पा रही कि उसे साबित करना आसान नहीं है! आर्थिक समस्या, पारिवारिक समस्या, लोगों की कौंधती नजरें, अदालतों के चक्कर, बच्चे की पढाई में पति के नाम के कारण आती परेशानी! ये मामला अभी विचाराधीन है!
दृश्य - 4 
  ये उस माँ मैहर बाई (81 साल-बदला हुआ नाम) की दास्तान है, जिसे अपने बेटे से ही भरण-पोषण के लिए अदालत में जूझना पड रहा है। पति की मौत के बाद जिन लोगों की नजरें बदल जाती है, उनमें बेटा भी होगा, ये उसने सोचा नहीं था! पीहर में भी कोई बचा नहीं! रिश्तेदारों के यहाँ दो-चार दिन रहकर दिन गुजार रही है। रोटी-रोटी के लिए मजबूर इस माँ को जब बेटे ने सारी संपत्ति पर कब्ज़ा करने के बाद घर से निकाल दिया, तो अदालत का दरवाजा खटखटाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था! इस बूढी महिला के मामले का अभी फैसला नहीं हुआ है! लेकिन, उसे उम्मीद है कि एक दिन बेटा उसे माँ के रूप में घर में पनाह देगा! फिलहाल तो वो भरण-पोषण के लिए अदालत के चक्कर लगा रही है! उसके पास तो गांव से अदालत तक आने का बस का किराया भी नहीं होता! मैं उसकी वकील जरूर हूँ, पर उसके दर्द में उसकी साझेदार भी!
(लेखिका वकील तथा महिला अधिकारों की कानूनी जानकार है)
----------------------------------------------------

वर्जनाओं की छटपटाहट और 'एम-टीवी' का शो


- एकता शर्मा 

   महिलाओं के बारे में अक्सर कहा जाता है कि उन्हें समाज में बराबरी का दर्जा मिल रहा है! वे पुरुषों के एकाधिकार वाले क्षेत्रों में प्रवेश करने लगी हैं! पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर अपना वर्चस्व भी बनाने लगी हैं! स्वायत्तशासी निकायों और पंचायतों में महिलाओं की मौजूदगी बढ़ाने और उनमें नया आत्मविश्वास जगाने के लिए सीटें भी आरक्षित की गई! निःसंदेह सरकार के इस कदम से इस क्षेत्र में महिलाओं की संख्या में तो इजाफा हुआ है! पर, क्या उन्हें उन वर्जनाओं से मुक्ति मिल सकी है, जिन्हें भोगने के लिए वे अभिशप्त हैं? ये सच आसानी से कहीं भी देखा जा सकता है! महिला पार्षद हो, महापौर हो, पंच हो या महिला सरपंच या विधायक! सभी अपने पतियों के पीछे चलने और औरत होने की वर्जना भोगने के लिए अभिशप्त है! सिर्फ यही नहीं, ऐसी कई वर्जनाएं अभी समाज में गहराई तक व्याप्त है, जहाँ औरत को हमेशा औरत होने का अहसास कराया जाता है!     

  ये वर्जनाएं गाँव से शहरों तक ही नहीं मेट्रो शहरों तक पसरी है। फर्क यही है कि गाँव में वर्जनाएं कुछ अलग है, शहरों में अलग और मेट्रो शहरों में बिलकुल ही अलग! गाँव में यदि औरत के घूँघट में रहना मजबूरी है, तो शहरों की औरतों के लिए हर फैसले में पति की सहमति! जबकि, मेट्रो शहरों में आधुनिकता के बावजूद एक अलग ही तरह की वर्जना ढोना औरत की मज़बूरी है! औरतों की वर्जना अब बहस, मुबाहिसों तक ही सीमित नहीं है, ये बकायदा मनोरंजन का विषय भी बन रही हैं! टेलीविजन का सबसे आधुनिक सोच वाले चैनल 'एम-टीवी' ने तो बकायदा औरत की वर्जनाओं पर एक शो ही बना डाला! 7 मार्च से शुरू होने वाला ये शो है 'एमटीवी गर्ल्स ऑन टॉप!' चैनल का दावा है कि समाज में महिलाओं से जुड़ी वर्जनाओं को ये शो तोड़ने की कोशिश करेगा। इस शो में देश में महिलाओं से जुड़े मुद्दों और समस्याओं पर बात की जाएगी। 
  एम-टीवी के इस शो में नौकरी, प्यार और घरेलू मुद्दों से जूझती मुंबई में रहने वाली तीन लड़कियों की कहानी है। शो में दोस्ती, रिश्तों, करियर, आशाओं, सनक और कल्पनाओं के चश्मे से शहरी भारत में स्वतंत्र युवा महिलाओं से जुड़े विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण किया जाएगा। सलोनी चोपड़ा, बरखा सिंह और आयशा अदलखा इसमें तीन प्रमुख भूमिकाएं निभाएंगी। चैनल की कार्यकारी उपाध्यक्ष और यूथ एंड इंग्लिश एंटरटेनमेंट की बिजनेस हेड फरजाद पालिया के मुताबिक 'एमटीवी गर्ल्स ऑन टॉप' के जरिए हम मुंबई में अपने ढंग से अपनी जिंदगी जीने की कोशिश करतीं तीन युवतियों की जिंदगी को करीब से देखेंगे। प्यार, काम और जिंदगी के इर्द-गिर्द उनके संघर्ष पर आधारित इस शो में दर्शकों को भारतीय महिलाओं के बदलते रूप से भी रूबरू कराया जाएगा। पालिया ने कहा कि यह शो उन सभी युवा महिलाओं की जिंदगी की कहानी है, जो समाज की वर्जनाओं को तोड़कर अपनी जिंदगी जीना चाहती हैं।
  मुद्दा ये है कि आजादी के 6 दशक बाद भी देश की औरत का ये संघर्ष अभी ख़त्म नहीं हुआ है। बात सिर्फ पदों पर बैठी महिलाओं पर पति के वर्चस्व और प्रभाव का दबाव सहने की ही नहीं है! हर औरत किसी न किसी के प्रभाव के आभामंडल की गिरफ्त में है। वो चाहे न चाहे, उसे उस प्रभाव मुक्त होने का मौका ही नहीं दिया जाता! आखिर ये वर्जनाएं कब और कैसे टूटेगी, इस सवाल का जवाब न तो राजनेताओं के पास है न समाज सुधारकों के पास! सारी बहस के बाद सवाल  फिर वहीँ खड़ा हो जाता है कि इसकी शुरुआत कहाँ से हो! पुरुष का अहं तो कभी औरत को वर्जनाओं की बेड़ियों से मुक्त होने नहीं देगा, ये तय है! तो क्यों नहीं, औरत ही वर्जनाओं की छटपटाहट से स्वयं मुक्त हो! देखना ये है कि ये साहस भी कौन करता है और कब?
----------------------------------------------------

'मैगी' ने दिवाली पर बम फोड़ा! क्या होगा 'आहा' का?

- एकता शर्मा 

  दिवाली के होहल्ले के बीच सबसे ख़ास खबर ये है कि 'स्नैपडील' पर मैगी की बिक्री ने सभी को चौंका दिया! 'स्नैपडील' ने मैगी की ऑनलाइन बिक्री शुरू की थी! मंगलवार को जैसे ही बिक्री के आर्डर लिए जाने लगे पहले 5 मिनिट में ही मैगी के 60 हज़ार पैकेट बिक गए! पांच महीने पहले मैगी पर सरकार ने बैन लगा दिया था! इस खबर से सबसे बड़ा झटका बाबा रामदेव के पतंजलि संस्थान को लगा होगा, जिसने आटे की 'आहा नूडल्स' को मैगी के विकल्प के रूप में निकालने का जोखिम लिया था! एक आशंका ये भी है कि कहीं 'मैगी' को मार्केट से बाहर करने के पीछे कहीं ये बाबा रामदेव की ये कोई साजिश तो नहीं थी? जो भी हो, पर अब बाज़ार में 'मैगी' भी है और 'आहा नूडल्स' भी! कुछ महीनों में बात साफ़ हो जाएगी कि बाजार में कौन टिकेगा! 

  हाल ही में कड़ी जांच के बाद नेस्ले के इस ब्रांड को कुछ राज्यों ने बिक्री की अनुमति दी है। इस तरह इस नूडल्स ब्रांड की करीब पांच माह बाद वापसी हो रही है। 'स्नैपडील' ने मैगी को लेकर घोषणा की थी कि वह इस नूडल्स की बिक्री एक ख़ास फ्लैश सेल मॉडल के जरिए करेगी। फ्लैश सेल एक ऑनलाइन (ई-कॉमर्स) कारोबार मॉडल है जिसमें कोई वेबसाइट सीमित अवधि के लिए किसी एक उत्पाद की पेशकश करती है। संभावित ग्राहकों को इसके लिए पहले से पंजीकरण कराना होता है। मैगी वेल्कम किट्स के नए बैच की बिक्री अब 16 नवंबर को की जाएगी। 
     नेस्ले के सर्वाधिक लोकप्रिय ब्रांड 'मैगी' के बिकने पर उसमें सीसे की मात्रा तय सीमा से अधिक पाए जाने की कथित अफवाह के बाद बेन लगा दिया गया था। मैगी की वेल्कम किट (12 पैकेज मैगी, 2016 का मैगी कलेंडर, मैगी फ्रिंज मैग्नेट, मैगी पोस्टकार्ड और वेल्कम बैक का पत्र) के लिए रजिस्ट्रेशन 9 नवंबर को शुरू हुआ था। लेकिन, स्नैपडील पर इसकी बिक्री गुरुवार (12 नवंबर) से शुरू हुई। 
  मैगी की इस धमाकेदार बिक्री को लेकर नेस्ले ने कोई प्रोपोगंडा किया, स्नैपडील के सीनियर वीपी टोनी नवीन ने खुद कहा कि 'स्नैपडील' ने मैगी के वेल्कम किट के पहले 60 हज़ार के बैच की बिक्री महज 5 मिनिट में पूरी कर ली। इससे लगता है कि युवा वर्ग में सर्वाधिक लोकप्रिय ब्रांड्स में से एक मैगी का बेसब्री से इंतजार किया जा रहा था। देशभर से उपभोक्ताओं ने इसको लेकर काफी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया दिखाई। बंबई हाईकोर्ट ने अगस्त में मैगी से प्रतिबंध हटाते हुए सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त तीन प्रयोगशालाओं में इस ब्रैंड का नए सिरे से परीक्षण कराने का निर्देश दिया था। 
   'मैगी' पर देशभर में लगे बैन के बाद इसे करीब 2 दशक से चाहने वाले लोग काफी दुखी हुए थे! लेकिन, हर फटे में टांग अड़ाने वाले बाबा रामदेव ने इसका भी समाधान निकाल लेने का दावा किया और अपने 'पतंजलि' संस्थान से 'आटा नूडल्स' बनाने का दावा किया। बाबा रामदेव के पतंजली योग पीठ ने अपनी आटा नूडल्‍स बाजार में लॉन्‍च भी की! बाबा रामदेव 'मैगी' बैन होने के बाद अपनी नूडल्‍स लाने का ऐलान कर चु‍के हैं। अपनी आटा नूडल्‍स लॉन्‍च करने के साथ ही बाबा रामदेव ने इसे लोगों को बनाकर परोसा भी। पतंजली ने इस आटा नूडल्‍स को 'आहा नूडल्‍स' नाम दिया है। कुछ महीनों पहले बाबा रामदेव ने स्‍वदेशी मैगी लाने का दावा किया था जिसे खाने से कोई नुकसान नहीं होगा। लेकिन, जिस तरह से लोगों ने नेस्ले की 'मैगी' को हाथोँ-हाथ लिया है, उससे बाबा रामदेव की चिंता बढ़ना स्वाभाविक है! 
------------------------------------------------------------------------

सेलिब्रिटी बनकर भी नहीं भूले शोषण की वो दास्तान!


- एकता शर्मा 

  जानी मानी महिला पत्रकार बरखा दत्त ने अपनी नई किताब 'दिस अनक्वाइट लैंड' में एक चौंकाने वाला खुलासा किया है। उन्होंने अपनी किताब में यौन दुर्व्यवहार किए जाने का जिक्र किया है! उनकी इस किताब में उनके  साथ हुए 'यौन उत्पीड़न' की बात कही गई है। बरखा ने लिखा है कि उनके दूर के एक रिश्तेदार जो कि उनके परिवार के साथ रहने के लिए आए थे, उन्होंने उसका यौन उत्पीडन किया था। बरखा दत्त महिलाओं के अधिकार के बारे में मुखर है! उन्होंने यह भी लिखा है कि 1990 के दशक में उसके साथ बलात्कार करने की कोशिश की गई थी, जब वे यूनिवर्सिटी की छात्र थी! ये कोशिश एक साथी छात्र द्वारा की गई थी!

  इस तरह की प्रताड़ना को भोगने वाली बरखा दत्त अकेली महिला नहीं हैं! जाने माने संगीतकार पंडित रवि शंकर की बेटी और मशहूर सितार वादक अनुष्का शंकर ने महिलाओं के लिए हुए एक आयोजन में यह बात कही कि बचपन में उन्हें भी यौन उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा था। उन्होंने बताया कि बदसुलूकी करने वाला व्यक्ति उनके परिवार का करीबी था और इसीलिए वह लंबे वक्त तक किसी से इस बारे में कुछ कह नहीं सकीं! महिला अधिकारों की पैरोकार अभिनेत्री कल्कि कोचलिन भी बचपन के दुखद हिस्से को बयान कर चुकी हैं, जब उनके साथ यौन उत्पीड़न हुआ था! एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि वे अपनी कहानी सुनाकर मीडिया में सुर्खियां नहीं बटोरना चाहती! यह मेरे जीवन की सच्चाई है और मैंने इसे लंबे वक्त तक जिया है! कल्कि के पूर्व पति और मशहूर फिल्मकार अनुराग कश्यप ने भी इस बारे में बताया कि बचपन में ग्यारह साल तक वे यौन शोषण से गुजरते रहे। अनुराग का कहना है कि वह अब उस व्यक्ति को माफ कर चुके हैं। 
   अमेरिकी टेलीविजन की मशहूर हस्ती ओपरा विनफ्री को भावुक इंटरव्यू लेने के लिए जाना जाता है। लेकिन, डेविड लेटरमन के शो में जब वह पहुंची तो उनकी जिंदगी के बारे में जान कर लोगों की आंखें भर आईं! ओपरा का नौ साल की उम्र में एक रिश्तेदार ने बलात्कार किया जो 10 से 14 की उम्र तक उनका शोषण होता रहा! मशहूर हॉलीवुड स्टार मर्लिन मुनरो के माता-पिता के शादीशुदा न होने के कारण उनका बचपन अनाथालयों में बीता! जहां बार बार उनका शोषण हुआ। खुद को बचाने के लिए मर्लिन अनाथालय बदलती रहीं! बचपन में मन पर पड़े घाव हमेशा उनके साथ रहे। इसके अलावा 'बे-वॉच' और 'प्लेबॉय' जैसे प्रसिद्द अमेरिकी टीवी शो के लिए मशहूर पैमेला एंडरसन का बचपन भी दुखद रहा! अपने फाउंडेशन के लॉन्च पर उन्होंने बताया कि छह से दस साल की उम्र तक उनके बेबी सिटर ने उनके साथ यौन दुर्व्यवहार किया था। वे 12 साल की थीं, जब एक दोस्त के भाई ने उनके साथ बलात्कार किया था।   विख्यात हॉलिवुड अभिनेत्री एश्ले जुड के साथ बचपन में कई बार बलात्कार किया गया। एक अजनबी ने उन्हें एक अपार्टमेंट में बंद कर के कई बार अपने वहशीपने का शिकार बनाया था। 
   'बिग-बॉस' सीजन 7 से भारत में घर घर का नाम बनीं ब्रिटेन की सोफिया हयात का दस साल की उम्र में उनके एक रिश्तेदार ने शोषण किया था। सोफिया के आत्मविश्वास और बड़बोलेपन को देखकर कोई यह अंदाजा तक नहीं लगा सकता कि बचपन में इन्हें भी ऐसी ही दर्दनाक घटना से रूबरू होना पड़ा होगा! लंदन में पैदा हुई और वहीं पली-बढ़ी सोफिया का कहना है कि वे मात्र 10 साल की थीं, जब उनके एक रिश्तेदार ने उनके साथ ये हरकत की थी। 'बिग बॉस' में अपने सह-प्रतियोगी अरमान कोहली पर भी सोफिया ने सेक्सुअल असॉल्ट जैसा आरोप लगाया था! 
 बाल यौन शोषण को लेकर कांस्टीट्यूशन क्लब में आयोजित परिचर्चा में अभिनेत्री पूजा बेदी ने भी कहा था कि वे भी बचपन में यौन शोषण का शिकार हो चुकी हैं। उनके सौतेले पिता ने ही उनका यौन शोषण किया था। बेदी ने कहा कि यह जरूरी है कि बाल यौन शोषण के खिलाफ आवाज उठाई जाए और इसकी शुरुआत खुद करनी होगी। अगर हमारे साथ हादसा हुआ है तो हमें आगे आकर बताना होगा। इसके बारे में अपने बच्चों को भी जागरूक करना होगा कि वह हर छोटी-बड़ी बात साझा करें। 
----------------------------------------------------------------

दुनिया में कहीं नहीं है, बाल अपराधियों को रियायत

- एकता शर्मा 

   आज देशभर में गंभीर बहस छिड़ी है कि क्या किसी नाबालिग द्वारा किए गए जघन्य अपराध को भी क्या 'जुवेनियल एक्ट' के तहत लिया जाए? प्रसंग दिल्ली में हुए बर्बर 'निर्भया कांड' से उभरा है। इस कांड को अंजाम देने वाला एक अपराधी नाबालिग था, जिसे 3 साल बाल सुधार गृह में रखने के बाद आजाद कर दिया गया! ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ऐसे निर्दयी अपराधी को नाबालिग की श्रेणी में रखा जा सकता हैं? दिल्ली के इस 'निर्भया कांड' के बाद से ही 'जुवेनाइल जस्टिस एक्ट' में बदलाव किए जाने की मांग ने जोर पकड़ा और अब ये प्रयास कारगर भी हो गया! संसद ने कानून में बदलाव वाले इस विधेयक पर अपनी मुहर भी लगा दी है! देश की सर्वोच्च अदालत की टिप्पणी के बाद ही, केंद्र सरकार भी इस पर विचार करने के लिए मजबूर हुई थी, कि वास्तव में इस गंभीर मुद्दे पर जरुरी पहल करने की जरूरत है! चारों तरह उठी मांग के मद्देनजर ये बात सामने आई कि हत्या और दुष्कर्म जैसे संगीन अपराधों में यदि 16 साल से ज्यादा उम्र के किसी नाबालिगों का नाम आया है तो उसके खिलाफ बालिग की तरह मुकदमा चलाया जाए।

  कानून मंत्रालय ने या मसले को हरी झंडी दिखा दी है। इसके बाद ये मामला सरकार के पास गया! केंद्र सरकार ने 'जुवेनाइल' की परिभाषा को इसके बाद बदल दिया है। अब गंभीर अपराधों में लिप्त 16 साल से ज्यादा उम्र के किशोर भी 'बालिग' ही माने जाएंगे। कानून मंत्रालय इस एक्ट में संशोधन को हरी झंडी दिखा चुका है। इस एक्ट में परिवर्तन की जरूरत इसलिए थी, क्योंकि 'जुवेनाइल एक्ट' के तहत 18 साल से कम उम्र के दोषियों को अधिकतम तीन साल की सजा दी जाती है। सजा के बतौर उन्हें जेल के बजाए 'सुधारगृह' भेजा जाता है। इस तरह के नाबालिगों अपराधियों के खिलाफ प्रकरण भी 'जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड' में चलता है। 18 साल से कम के आरोपी को वास्तविक सजा नहीं दी जाती, बल्कि उस आचरण में सुधार किया जाता है। यही कारण है कि हत्या और दुष्कर्म जैसे मामलों में लिप्त निर्मम अपराधी भी बिना जेल जाए बरी हो गए। लोकसभा में किशोर न्याय संशोधन विधेयक 2014 पारित हो चुका गया है, जिसमें सजा देने की उम्र 18 से घटाकर 16 साल करने का प्रावधान है। इसे संसद के दोनों सदनों में पारित किया जा चूका है। 
   भारत में 'जुवेनाइल एक्ट' के तहत 18 साल से ज्यादा उम्र के अपराधियों को ही सजा  प्रावधान है! जबकि, अलग-अलग देशों में अपराधी के अपराध के हिसाब से उसे सजा दी जाती है। इसलिए कि हमारे यहाँ 18 साल से कम उम्र के अपराधी को नाबालिग ही माना जाता है। हत्या और दुष्कर्म में भी यही उम्र लागू होती है। इसके अलावा नाबालिग अपराधी के मामले की सुनवाई भी सिर्फ जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड में ही होती है। उसे सजा के नाम पर अधिकतम 3 साल बाल सुधार गृह में बिताने पड़ते हैं।
  अमेरिका में संगीन अपराध में अधिकांश राज्यों में उम्र सीमा 13 से 15 साल की है। संगीन अपराध करने पर केस बाल अदालत से आम अदालत में ट्रांसफर किया जाता है। इंडियाना, साउथ डकोटा, वरमॉन्ट में संगीन अपराध पर नाबालिग उम्र सीमा 10 साल तय की गई है। 18 साल से कम उम्र के संगीन अपराधियों को भी उम्र कैद का प्रावधान है। चीन में 14 से 18 साल के नाबालिग अपराधी को आम अपराधियों की तरह सजा दी जाती है। लेकिन, उन्हें सजा देने में थोड़ी रियायत जरूर बरती जाती है। ब्रिटेन में भी 18 साल से कम उम्र के अपराधियों के लिए अलग अदालतें है। हत्या, दुष्कर्म जैसे संगीन मामलों में मामले सामान्य अदालतों में भेज दिए जाते हैं। लेकिन, संगीन अपराधों में सजा में कोई रियायत का प्रावधान नहीं है। फ्रांस में भी नाबालिग अपराध की उम्र 16 साल है। वहां बाल अपराधियों के लिए अलग से अदालत है। 2002 में फ्रांस ने कानून में बदलाव कर सख्ती भी बरती है। 
   सऊदी अरब में बच्चों और किशोर अपराधियों को सजा देने में कोई रियायत नहीं बरती जाती। नाबालिगों को भी मौत की सजा तक का प्रावधान है। कुछ महीनों पहले एक बैंक लूट की घटना में 7 नाबालिगों को भी मौत की सजा दी गई! हत्या और बलात्कार जैसे संगीन अपराध में भी कोई रियायत नहीं बरती जाती। संयुक्त राष्ट्र का बाल कानून कहलाता है बीजिंग रूल्स। सजा जुर्म के हालात और जुर्म के मुताबिक होती है।
नाबालिगों द्वारा अपराध भी बढे 
  नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट पर भरोसा किया जाए तो किशोर अपराधियों के अपराध में लगातार बढ़ रहे हैं। 2003 में किशोर अपराध के 33320 मामले दर्ज हुए थे, जो 2014 में बढ़कर 42566 हो गए। इनमें 16 से 18 साल की आयु के 31364, बारह से सोलह साल की आयु के 10534 और बारह साल से कम आयु के 668 बच्चे गिरफ्तार हुए थे। 12 साल के करीब एक दर्जन बच्चों को हत्या जैसे जघन्य अपराधों में गिरफ्तार किया गया था। शर्मनाक तथ्य यह है कि बीते 10 सालों में किशोरों द्वारा बलात्कार के मामलों में 300 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। 2003 में किशोरों द्वारा बलात्कार के 535 मामले दर्ज हुए थे! जो 2014 में बढ़कर 2144 हो गए। 
(लेखिका पेशे से वकील तथा महिला एवं बाल अपराधों की जानकार है)
----------------------------------------

नहीं रही 'साधना कट' की जनक अभिनेत्री


- एकता शर्मा 

   साठ और सत्तर के दशक की जानी-मानी अभिनेत्री साधना शिवदासानी अब नहीं रही! उनकी उम्र 73 साल थी। मुँह के कैंसर के बाद से वे काफी दिनों से बीमार थीं। उनकी कैंसर सर्जरी भी हुई थी। साधना शिवदासानी ने बॉलीवुड की कई फिल्‍मों में काम किया। अपने करियर की शुरुआत 15 साल की उम्र में 1955 में आई राज कपूर की फिल्‍म 'श्री420' से की थी। इसके बाद उन्‍होंने आरजू, वो कौन थी, मेरे मेहबूब, असली-नकली, हम दोनों, मेरा साया, एक फूल दो माली, लव इन शिमला, वो कौन थी और 'वक्‍त' समेत करीब 35 फिल्मों में काम किया। करीना कपूर की मां और बीते ज़माने की अदाकारा बबिता साधना की चचेरी बहन हैं।


  2 सितंबर 1941 को कराची में जन्मी साधना ने मशहूर निर्देशक आर के नैयर से शादी की थी। बोलती सी आँखों वाली साधना को हिंदी फ़िल्मी दुनिया की पहली 'फैशन आईकन' माना जाता है। अपनी ख़ास अदा से अपने चाहने वालों को उन्होंने दीवाना बना दिया था। उनका हेयर स्टाइल भी उस ज़माने में खासा लोकप्रिय हुआ था, जो 'साधना कट' के नाम से मशहूर हुआ। उस दौर में फैशनेबल महिलाओं में ‘साधना कट’ बालों की जबरदस्त धूम रही! उनके हेयरस्टाइल के पीछे भी एक रोचक कहानी है। साधना सिंधी थिएटर में काफी बढ़ चढ़कर भाग लेती थी। 1958 में उनका चयन एक ऑडिशन के जरिए उस वक्त की मशहूर सिंधी अभिनेत्री शीला रमानी की छोटी बहन के लिए किया गया। इस सिंधी फिल्म का नाम ‘अबाना’ था जो सुपरहिट रही और इसके बाद ही हिंदी सिनेमा के दरवाज़े उनके लिए खुल गए। इस वक्त साधना की उम्र 16 साल भी नहीं थी जब निर्माता-निर्देशक शशधर मुखर्जी ने उन्हें ‘लव इन शिमला’ के लिए साइन किया और उनके लुक को थोड़ा बदलने के लिए साधना को ब्यूटी पार्लर ले जाया गया। निर्देशक आरके नारायण चाहते थे कि साधना का चौड़ा माथा थोड़ा सा ढंक जाए! इसलिए उन्होंने हॉलीवुड की मशहूर अभिनेत्री और ‘ब्रेकफास्ट एट टिफनी’ की नायिका ऑड्रे हेपबर्न का ज़िक्र करते हुए कहा कि उनके माथे पर जिस तरह फ्रिंज हैं, वैसी ही कुछ लटें इनके माथे पर भी ला दो! क्योंकि, साधना को 'ऑड्रे' के बारे जानकारी नहीं थी! किसी के पूछने पर उन्होंने कहा कि ये ‘साधना कट’ है। इस तरह पूरे देश में ‘साधना कट’ की दिवानगी शुरू हो गई।
    फिल्म 'लव इन शिमला' से ही साधना के हेयर स्टाइल ने खूब चर्चा बटोरी! इस फिल्म की शूटिंग के दौरान साधना और आरके नैयर की मोहब्बत परवान चढ़ी और दोनों ने शादी करने का फैसला किया। 7 मार्च 1966 को दोनों ने शादी कर ली! साधना के बारे  कि वे फिल्मों में काम के दौरान भी नियम-कायदों बहुत पक्की थी! फिल्मों की शूटिंग के वक्त अक्सर छुट्टियों का त्याग करना पड़ता है। लेकिन, साधना का टाइम टेबल बहुत पक्का था। उस वक्त में साधना के अलावा सिर्फ शशि कपूर ही थे जो संडे के दिन काम नहीं किया करते थे। 'मेरे महबूब' की शूटिंग के समय भी उन्होंने संडे को काम न करने का अपना नियम जारी रखा! लेकिन, निर्देशक एचएस रवैल रवैल चाहते थे कि संडे को भी शूटिंग हो! पर, साधना नहीं मानी! बाद में राजेंद्र कुमार ने उन्हें काम करने के लिए मनाया था। फिल्मों में काम करना छोड़ने के बाद वे कभी भी फ़िल्मी कार्यक्रमों में  आई! 
  फिल्मों में बड़ा नाम होने के बावजूद वे कोई फिल्म अवॉर्ड अपनी झोली में डालने में नाकाम रही। 'आईफा-2002' में उन्हें 'लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड' से जरूर नवाज़ गया था।
  'मेरा साया' में उन पर फिल्‍माया गाना 'झूमका गिरा रे ...' आज भी बेहद चर्चित है। ये गाने दुनिया के हर हिंदी, उर्दू और भारतीय भाषाओं में गुनगुनाने वालों की जुबान पर है। ये गाना साधना पर ही फिल्म गया था। इसके अलावा लग जा गले, आ जा आई बहार, दिल है बेकरार, अजी रुठ कर अब कहां जाइएगा, ऐ फूलों की रानी बहरों की रानी … जैसे सदाबहार गीत भी साधना पर ही फिल्माए गए थे! 
(लेखिका ने 'हिंदी फिल्मों के 100 साल' पर लेखन कार्य किया है)
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------