Sunday 25 February 2018

परदे पर छाया अंधेरा, गुम हो गई 'चांदनी'

श्रद्धांजलि : श्रीदेवी 


- एकता शर्मा 
  ये खबर चौंकाने वाली है, पर सही है। अपनी खूबसूरती, अदाओं और जानदार अभिनय से फिल्मों के दर्शकों को रिझाने वाली अभिनेत्री श्रीदेवी हमारे बीच नहीं रही। दुबई में दिल का दौरा पड़ने से बीती रात उनका निधन हो गया। वे 54 साल की थीं। अपने भतीजे मोहित मारवाह की शादी में शामिल होने संयुक्त अरब अमीरात गई थीं। श्रीदेवी के पति बॉनी कपूर और छोटी बेटी खुशी अंतिम समय में उनके साथ थे। बॉलीवुड के कई सितारों ने इस दुखद घटना पर ट्विट करके अपना दुख जताया है। फ़िल्मों को उनके योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री से नवाज़ा गया था। 
  तमिल फिल्मों में चार साल की उम्र में अपना कैरियर शुरू करने वाली श्रीदेवी का जन्म 13 अगस्त,1963 को तमिलनाडु के गांव मीनमपट्टी में हुआ था। उनके पिता वकील थे। उनकी एक बहन और दो सौतेले भाई हैं। 1976 तक श्रीदेवी ने कई दक्षिणी भारतीय फिल्म में बतौर बाल-कलाकार के रूप में काम किया। 1976 में उन्होंने तमिल फिल्म 'मुंदरू मुदिची' में बतौर अभिनेत्री काम किया। उन्हें मलयालम फिल्म 'मूवी पूमबत्ता'(1971) के लिए केरला स्टेट फिल्म अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था। उन्होंने इस दौरान कई तमिल-तेलुगू और मलायलम फिल्मों में काम किया। अपने बेहतरीन अभिनय के कारण उनकी गिनती बेहतरीन अभिनेत्रियों में की जाती है। 
  श्रीदेवी ने हिंदी में अपने करियर की शुरुआत साल 1979 में फिल्म 'सोलवां सावन' से की थी। लेकिन, उन्हें बॉलीवुड में पहचान फिल्म 'हिम्मतवाला' से मिली। इस फिल्म के बाद वह हिंदी सिनेमा की सुपरस्टार अभिनेत्रियों में शुमार हो गईं। जितेंद्र के साथ उनकी जोड़ी अच्छी जमी और दोनों ने मिलकर कई सुपरहिट फ़िल्में जैसे हिम्मतवाला, तोहफ़ा, जस्टिस चौधरी और मवाली दीं। उन्होंने अपने करियर के दौरान कई दमदार रोल किए। उन्होंने हेमा मालिनी अभिनीत फिल्म 'सीता और गीता' की रीमेक 'चालबाज' में डबल रोल निभाया। 1983 में फिल्म 'सदमा' में श्रीदेवी दक्षिण सिनेमा के अभिनेता कमल हासन संग नजर आईं। इस फिल्म में उनके अभिनय को देख समीक्षक भी हैरान थे। 
1996 में अपनी उम्र से लगभग 8 साल बड़े फिल्म निर्माता बोनी कपूर से शादी कर सबको चौंका दिया था। इनकी दो बेटियां हैं जाह्नवी और खुशी कपूर। बड़ी बेटी बॉलीवुड में आने को तैयार है। 1996 में निर्देशक बोनी कपूर से शादी के बाद श्रीदेवी ने फिल्मी दुनिया से अपनी दूरी बना ली थी। इस दौरान वह कई टीवी शो में नजर आईं। श्रीदेवी ने साल 2012 में गौरी शिंदे की फिल्म 'इंग्लिश विंग्लिश' से रूपहले पर्दे पर अपनी वापसी की। 'इंग्लिश विंग्लिश' में उन्होंने बेहतरीन अभिनय से आलोचकों और दर्शकों को चौंका दिया था। उन्हें 2013 में पद्मश्री से सम्मानित किया। उन्हें 'चालबाज' (1992) और 'लम्हे' (1990) के लिए बेस्ट एक्ट्रेस का फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला। श्रीदेवी की अंतिम फिल्म 'मॉम' थी, जो जुलाई 2017 में आई थी।  

श्रीदेवी की फ़िल्में 
  श्रीदेवी ने अपने लंबे करियर में लगभग 200 फिल्मों में काम किया इनमें 63 हिंदी, 62 तेलुगू, 58 तमिल और 21 मलयालम फिल्में शामिल हैं। 
   उन्होंने जैसे को तैसा, जूली, सोलहवां साल, हिम्मतवाला, जस्टिस चौधरी, जानी दोस्त, कलाकार, सदमा, अक्लमंद, इन्कलाब, जाग उठा इंसान, नया कदम, मकसद, तोहफा, बलिदान, मास्टर जी, सरफरोश,आखिरी रास्ता, भगवान दादा, धर्म अधिकारी, घर संसार, नगीना, कर्मा, सुहागन, सल्तनत, औलाद, हिम्मत और मेहनत, नजराना, जवाब हम देंगे, मिस्टर इंडिया, शेरनी, सोने पे सुहागा, चांदनी, गुरु, निगाहें, बंजारन, फरिश्ते, पत्थर के इंसान, लम्हे, खुदा गवाह, हीर रांझा, चंद्रमुखी, गुमराह, रूप की रानी चोरों का राजा, चांद का टुकड़ा, लाडला, आर्मी, मि. बेचारा, कौन सच्चा कौन झूठा, जुदाई, मिस्टर इंडिया, मॉम जैसी फिल्मों में काम किया। 
----------------------------------------------------------------

ये है सामाजिक फिल्मों का नया दौर!


- एकता शर्मा 

 हिन्दी फिल्मों में सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर फिल्म बनाने का दौर लौट रहा है। 1960 के दशक में विमल रॉय और ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्में ज्यादातर सामाजिक समस्याओं पर आधारित होती थीं। इन मुद्दों को सावधानी से परदे पर पेश किया जाता था। आज फिर ऐसी ही कहानियों पर फिल्म बनाने की कोशिश हो रही है। विमल रॉय, ऋषिकेश मुखर्जी, राज कपूर जैसे फिल्म निर्माता जातिवाद, विधवा, कुंवारी मांओं समेत कई अन्य समाजिक विषयों पर फिल्म बनाते रहे हैं। दर्शक इन फिल्मों की सराहना करते थे, लेकिन बीच में एक दौर ऐसा आया कि ऐसी फिल्में बनना ही बंद हो गई! लेकिन, अब वो दौर फिर लौटा है, पर नए परिवेश में! आज बनने वाली बायोपिक को भी इसी दौर का एक हिस्सा माना जा सकता है। क्योंकि, ऐसी फ़िल्में भी समाज से कुछ कहती हैं।  
  फिल्मों का इतिहास उठाकर देखें, तो सामाजिक फिल्मों का एक लम्बा दौर रहा है। आजादी के बाद इस दौर ने जोर पकड़ा। वैसे तो यदा-कदा समाज सुधारकों और विचारकों पर भी धार्मिक और ऐतिहासिक फिल्मों के दौर पर भी फ़िल्में बनती रही, पर उसका नायक पूर्व स्थापित समाज सुधारक और विचारक का ही रोल निभाता था। दो आँखें बारह हाथ, जागृति, अछूत कन्या, बंदिनी जैसी फिल्मों का नायक (या नायिका) साधारण व्यक्ति होता था। इन सभी फिल्मों ने जनमानस की सोच मे बदलाव का काम भी किया।
  1957 में आई वी शांताराम की फिल्म 'दो आँखें बारह हाथ' को भी सामाजिक बदलाव के प्रतीक के रूप में याद किया जाता है। इस फिल्म के माध्यम से उन्होंने कुख्यात अपराधियों को सुधारने का एक अभिनव तरीका दिखाया था। इसी धारा पर 1960 में राजकपूर ने 'जिस देश में गंगा बहती है' बनाई थी। कहा तो ये भी जाता है कि इसी फिल्म की विचारधारा से प्रेरित होकर बाद में विनोबा भावे, वीपी सिंह तथा अन्य समाजसेवियों एवं नेताओं ने डाकुओं के आत्मसमर्पण का विचार सामने रखा। ये भी कहा जाता है कि जब किरण बेदी तिहाड़ जेल की मुखिया थी, तब उन्होंने कई खूंखार कैदियों को सुधारने के लिए वी शांताराम के ही मानवतावादी मनोविज्ञान फार्मूले आजमाए थे। 
    कुछ फिल्मों ने भारतीय सामाजिक मूल्यों एवं संस्कृति को स्थापित करने में तथा कुछ ने समाज में अपने दौर की उपजी समस्याओं पर कई सवाल खड़े किए है। 'पूरब-पश्चिम' में भारतीय संस्कृति के महत्व एवं सामाजिक चित्रण को दिखाया गया तो हाल के सालों में आई ‘फायर‘ में समलैंगिकता के बहाने समकालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति पर सवाल उठाया गया! वहीं एक तरफ जहां फिल्म ‘वाटर‘ के जरिए विधवाओं की दर्द एवं जीवन गाथा को लोगों के बीच पहुंचाने की कोशिश हुई, तो ‘संसार‘ एवं ‘खानदान‘ जैसी फिल्मों के जरिए संयुक्त परिवार के टूटते बिखरते मूल्यों से लोगों का सामना हुआ। 
   एक तरफ महिला स्वतंत्रता की वकालत करने वाली क्रांतिकारी फिल्म ‘परमा‘ ने परिवार संस्था को गलत ठहराते हुए भारतीय नारी की एक नई छवि गढने की कोशिश की है। कंगना रनौत की 'क्वीन' ने इसके आगे बढ़कर बात की। बैंडिट क्वीन, सत्या ने व्यावसायिक फिल्मों के छिछालेदर और समांतर फिल्मों के कलावाद से दूर असलियत का एक झकझोर देने वाला चेहरा प्रस्तुत किया था। अभी ये दौर ख़त्म नहीं हुआ है। आगे और देखिये क्या-क्या होता है!
--------------------------------------------------------------------------

'पेडमैन' ने खोले मालवा, निमाड़ की प्रतिभाओं के लिए दरवाजे


- एकता शर्मा 

   देश में सस्ते सेनेटरी पैड बनाने का चमत्कार करने वाले अरुणाचलम मुरुगनाथम की जीवन पर आधारित फिल्म 'पेडमैन' परदे पर आ गई! औरतों की सुरक्षा जैसे सामाजिक मुद्दे पर बनी इस फिल्म में अक्षय कुमार ने अरुणाचलम मुरुगनाथम का किरदार निभाया है। अरुणाचलम ने विपरीत परिस्थितियों का सामना करके महिलाओं के लिए सस्ते सेनेटरी पैड बनाने का काम शुरू किया और अंततः वे अपने मकसद में सफल भी हुए। ये ऐसा अनोखा विषय है जिस पर आज तक हॉलीवुड में भी कोई फिल्म नहीं बनी! बॉलीवुड की इस फिल्म का मालवा, निमाड़ से ख़ास रिश्ता इसलिए है कि फिल्म की 80 फीसदी शूटिंग महेश्वर, कालाकुंड, धामनोद और इंदौर में हुई है। सिर्फ शूटिंग ही नहीं, फिल्म में इंदौर के कई कलाकारों ने काम भी किया। गिनती की जाए तो फिल्म में करीब 35 किरदार इंदौर के कलाकारों ने निभाए हैं। दरअसल, इस फिल्म ने मालवा कलाकारों के लिए मुंबई के दरवाजे खोल दिए हैं। निश्चित रूप से इस फिल्म का अनुभव उनकी प्रतिभा को निखारने और आगे काम दिलाने में मददगार होगा।    
  देखा गया है कि जिस इलाके में फिल्मों की शूटिंग होती है, वहां के स्थानीय कलाकारों को छोटे-छोटे रोल देकर खानापूर्ति कर ली जाती है। इससे निर्माता को स्थानीय सहयोग तो मिलता ही है, जूनियर कलाकारों को मुंबई से लाने और उनका मेहनताना देने से भी निजात मिल जाती है। लेकिन, 'पेडमैन' इस मामले में अपवाद रही कि फिल्म के कई अहम् किरदार इंदौर के ही कलाकारों ने निभाए हैं। कुछ मराठी रंगकर्मी तो फिल्म की कहानी के मुताबिक बेहद ख़ास रोल में हैं। अक्षय कुमार के दो प्रमुख बिजनेस पार्टनर के किरदार निभाने वाले कलाकार इंदौर के ही हैं। अक्षय की बहन भी सौम्या व्यास बनी है। इन कलाकारों ने जो किरदार निभाए हैं, वे कहानी के नजरिए से भी महत्वपूर्ण हैं। 
  करीब 30 साल से मराठी रंगमंच से जुड़े रंगकर्मी श्रीराम जोग ने अक्षय के बेहद करीबी व्यक्ति यानी बिजनेस पार्टनर का रोल किया है। बरसों से रंगमंच पर विभिन्न भूमिकाएं निभा रहे श्री जोग ने इससे पहले भी कुछ फिल्मों में काम किया है। एक अन्य कलाकार सारिका शर्मा ने भी फिल्म में प्रमुख किरदार निभाया है। कुछ स्थानीय कलाकारों का काम तो इतना बेहतरीन था कि निर्देशक आर बाल्की और अक्षय कुमार भी चौंक गए। डायलॉग याद करने, बिना टेक लिए शॉट ओके कर लेना जैसी घटनाएं कई बार हुई! एक कलाकार लकी टांक ने तो अपना रोल इतना अच्छा निभाया कि आर बाल्की ने भी उनकी पीठ थपथपाई। अभी तक ये सभी कलाकार स्टेज तक सीमित थे, ये पहला मौका है कि कई लोगों ने कैमरे का सामना किया और उन्हें अभिनय की बारीकियां सीखने का मौका मिला!  
  'पेडमैन' में अक्षय कुमार की पड़ोसन बनी हैं भवानी कौल तो अक्षय की दूसरी पड़ोसन है प्रतीक्षा नायर। इन सभी को  ख़ुशी है कि उन्हें बड़े बजट की फिल्म में काम करने मिला। इसके अलावा इन्हें ये भी पता चला कि इन बड़े फिल्म कलाकारों को लेकर भ्रम फैलाया जाता है कि वे बहुत घमंडी होते हैं। जब स्थानीय कलाकारों का अनुभव ये रहा कि अक्षय कुमार और राधिका आप्टे समेत सभी कलाकार बहुत सहज रहे! शूटिंग के दौरान भी इन कलाकारों को बहुत कुछ सीखने और अनुभव करने को मिला। अक्षय कुमार के व्यवहार से सभी खुश हैं। वे बहुत दोस्ताना है और शूटिंग के बीच जब समय मिला सभी ने खूब हंसी-मजाक की।
  शूटिंग शुरू होने से पहले एक हज़ार से ज्यादा कलाकारों ने करीब 35-36 रोल के लिए ऑडिशन दिए थे। निर्देशक आर बाल्की ने सहजता से सारे ऑडिशन लिए और कलाकारों का चुनाव किया। शूटिंग के दौरान एक घटना ऐसी भी हुई जब दो स्थानीय कलाकार सिर्फ इसलिए शूटिंग छोड़कर भाग गए, क्योंकि अक्षय कुमार ने उन्हें एक दृश्य में सैनिटरी नैपकीन पकड़ने को कहा था। उन्होंने इसे पाप समझा और भाग गए। 
  फिल्म में मनोज पेमगिरिकर एक मेडिकल स्टोर चलने वाले बने हैं। अक्षय के एक अन्य बिजनेस पार्टनर हैं संतोष रेगे! अक्षय कुमार के जीजा बने हैं करण भोगले, जबकि श्रीराम भोगले और उनकी पत्नी मंजुश्री भोगले ने इसी जीजा के माता-पिता का रोल निभाया है। गाँव के पंच हैं शरद शबलजी और हरीश वर्मा। किरण महाजन पड़ोसन है और प्रियंका दुबे बनी हैं समधन! प्रताड़ित महिला का किरदार सुकन्या ने निभाया और नम्रता तिवारी, सारिका अवस्थी और निशि ये तीनों गाँव की औरतें हैं। पंचायत के कर्मचारी शैलेश शर्मा को मिला है और शब्बीर मोदी का किरदार जो मलमल के कपडे के दुकानदार हैं। फिल्म में होलकर वंशज का भी एक रोल है जिसे मिलिंद शर्मा ने किया है। प्रतीक्षा नैयर, भवानी कौल दोनों पड़ोसन है। नर्मदे हर कहने वाला व्यक्ति है लोकेश निमगांवकर और आशीष गढ़वाल को मिला है चाय वाले का किरदार। 
------------------------------------------------------------------------------------

Saturday 3 February 2018

क्या गालियों से ही झलकता है फिल्मों में समाज?

- एकता शर्मा 

  समाज शास्त्रियों मानना है कि सिनेमा समाज को दिशा देता है। उसमें जो दिखता है, समाज उससे बहुत कुछ सीखता है। इसलिए फिल्मकारों को फिल्म बनाते समय बेहद सावधानी बरतना चाहिए। क्योंकि, सिनेमा बनाने वालों की अहम् जिम्मेदारी होती है। लेकिन, ये कहने वाले भी कम नहीं हैं कि जो समाज में होता आया है, जो हो रहा है, और जो होगा, सिनेमा वही दिखाता है। जैसे की गालियाँ! समाज में गुस्से की अभियक्ति गालियों से होती है और ये हमारे जीवन का हिस्सा है। लोग रोजमर्रा की जिंदगी में बहुत गालियां बोलते हैं, तो फिर सिनेमा में गालियों को गलत क्यों समझा जाता है?
   गालियां आज आम लोगों की बातचीत का सहज हिस्सा बन गई है। वास्तविक सिनेमा दिखाने के लिए यह जरूरी है कि फिल्मकार उसे बोलचाल के वास्तविक तरीके से पेश करें। लेकिन, फिल्मों का समाज पर सीधा प्रभाव पड़ता है। देखा गया है कि अच्छा प्रभाव पड़े न पड़े, बुरा प्रभाव जल्दी पड़ता है! भले सिनेमा में समाज की सच्चाई दिखाई जाती है, लेकिन देश के किसी कोने के, किसी गांव के, किसी परिवार के, किसी एक व्यक्ति की, निजी जिंदगी की कहानी में पेश सच्चाई, जब बड़े परदे पर पूरा    समाज देखता है, तो उससे नकारात्मकता ज्यादा बढ़ती है। ऐसे में सिनेमा देखने वाले बच्चे भी वैसा ही करेंगे और मानेंगे भी कि ऐसा करने में       क्या गलती है? 
   आज का सिनेमा नए जमाने की नई सोच का कैनवास है, जो समाज में नई भाषा से बॉक्स ऑफिस पर सफलता के झंडे गाड़ रहा है। दुनियाभर में समय के साथ बदलाव होता रहा है। लेकिन, पिछले कुछ सालों में हिंदी सिनेमा में बहुत कुछ बदला! हीरो-हीरोइन अब पेड़ के इर्द-गिर्द चक्कर लगाकर प्रेम का इजहार नहीं करते। इमोशनल सीन अब आउट डेटेड हो गए और आंसू बहाना पुरानी फिल्मों की नक़ल माना जाता है। दर्शकों को भी अब कुछ खुला-खुला सा देखने की आदत हो चली है। इस खुलेपन का सीधा आशय फिल्मों भाषा से है जो असंसदीय हो चली है। सालों से समाज की असली तस्वीर पेश करने के नाम पर बोलचाल की भाषा का खुलकर प्रयोग करने के नाम पर गालियों का उपयोग किया जाने लगा है। समाज जब से खुलेपन को ज्यादा ही स्वीकारने लगा, तब से बोल्ड विषयों पर फिल्मों का भी बनना भी शुरू हो गया है। वैसे, गालियां पहले भी फिल्मों में सुनाई देती रही हैं। ‘बेंडिट क्वीन’ में तो गोलियां और गालियां दोनों ही जमकर सुनाई दी थीं। 
  उससे पहले नायिकाएं इस तरह के संवादों को बोलने में परहेज करती थीं। मगर, ‘इश्किया’ में विद्या बालन ने जमकर गालियां दी थी, तो ‘नो वन किल्ड जेसिका’ में रानी मुखर्जी ने अपनी छवि में बदलाव करते हुए खूब गालियां दी थीं। इस फिल्म में रानी मुखर्जी एक टीवी पत्रकार के रोल में थी, जो खूब गालियां बकती है। फिल्म ‘देल्ही बेली’ ने तो सारी सीमाएं ही तोड़ दीं थीं। पूरी फिल्म गाली-गलौज से भरी हुई है। 'गोलमाल' में भी करीना कपूर ने गालियों से मिलते- जुलते शब्द बोले थे। ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की तो पृष्ठभूमि ही गालियों वाली थी। इस तरह की फिल्मों में असलियत को दिखाने का दावा करते हुए गालियों का दिल खोल कर प्रदर्शन किया जाना आसान है। पर, क्या असली समाज गालियों के बगैर नहीं दिखाया जा सकता?
---------------------------------------------------