Monday, 9 March 2020

हर दौर में रंगों से सराबोर रहा फिल्मों का परदा!

- एकता शर्मा

   होली और हिंदी फिल्मों का साथ बहुत पुराना है। क्योंकि, फिल्मों और त्यौहारों का आपस में जबरदस्‍त रिश्ता रहा है। कहानी में खुशी के पल दिखाना हो, बिछोह के बाद मिलन का दृश्य हो या किसी से बदला लेना हो! सभी के लिए होली सबसे अच्छा बहाना रहा है। होली से जुड़ा एक पहलू यह भी है कि कुछ फिल्मकारों ने इसे कहानी बढ़ाने के लिए उपयोग किया, तो कुछ ने टर्निंग प्वाइंट के लिए। कुछ ऐसे भी थे, जिन्होंने इसे सिर्फ मौज-मस्ती और गाने फिट करने के लिए फिल्म में डाला। कुछ सालों से फ़िल्मी कथानक में होली का प्रसंग कम जरूर हुआ, पर ख़त्म नहीं हुआ! अभी जैसी फ़िल्में बन रही है, उसमें त्यौहारों की गुंजाइश बहुत कम हो गई! आज के युवा दर्शक भी अब त्यौहारों के प्रति कम ही रूचि दिखाते हैं! यही वजह है कि फिल्मों के परदे से होली बिदा होती नजर आ रही है। हाल की फिल्मों में अग्निपथ, जॉली एलएलबी-2 और 'वार' में ही होली गीत दिखाई दिए, पर उनका फिल्म की कहानी से कोई जुड़ाव नहीं दिखा! 
   राजकुमार संतोषी ने ‘दामिनी’ में होली दृश्य फिल्म में टर्निंग प्वाइंट के लिए किया था। जबकि, ‘आखिर क्यों’ के गाने ‘सात रंग में खेल रही है दिल वालों की होली रे’ और ‘कामचोर’ के ‘मल दे गुलाल मोहे’ में निर्देशक भी इससे फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाया था। होली के दृश्य और गीत फिल्म की मस्ती को बढ़ाने के लिए फिल्माए जाते रहे हैं। ऐसी फिल्मों में ‘मदर इंडिया’ भी है, जिसका गाना ‘होली आई रे कन्हाई’ याद किया जाता है। ‘नवरंग’ का ‘जा रे हट नटखट’, ‘फागुन’ का ‘पिया संग होली खेलूँ रे’ और ‘लम्हे’ का ‘मोहे छेड़ो न नंद के लाला’ गाने ने भी होली का फिल्मों में प्रतिनिधित्व किया।
  होली जैसे रंग-बिरंगे त्यौहार में फ़िल्मी गीत मस्‍ती का तड़का लगा देते हैं। जब भी होली के गानों की बात छिड़ती है, जहन में ऐसे कई गीत आते हैं, जो यादों को रंगीन बना देते हैं। भागी रे भागी रे भागी बृजबाला ... कान्हा ने पकड़ा रंग डाला, रंग बरसे भीगे चुनरिया वाली और होली के दिन दिल मिल जाते हैं जैसे आइकॉनिक गीत भला कौन भूल सकता है! 'ये जवानी है दीवानी' का गाना 'बलम पिचकारी' और 'रामलीला' का गाना 'लहू मुंह लग गया' भी काफी लोकप्रिय रहा। जब से फ़िल्में बनना शुरू हुई, होली एक ऐसा त्यौहार रहा जिसे जमकर भुनाया गया। होली आयोजन का आधार रहे भक्त प्रहलाद पर भी फ़िल्में बनी हैं। 
    पहली बार 1942 में चित्रपू नारायण मूर्ति ने तेलुगु में ‘भक्त प्रहलाद’ बनाई थी। 1967 में इसी नाम से हिंदी फिल्म बनी। फिल्म इतिहास बताता है कि ‘होली’ और 'फागुन’ नाम से दो बार फिल्म बनी, जिसमें होली दिखाई गई थी। जहाँ तक परदे पर रंगीन होली की बात है, तो पहली टेक्नीकलर फ़िल्म 'आन' 50 के दशक में आई थी! इसमें दिलीप कुमार और निम्मी की होली दिखाई दी! 1958 की 'मदर इंडिया' में भी होली हुई और 'होली आई रे कन्हाई' गीत सुनाई दिया। वी शांताराम ने 'नवरंग' में होली का अनोखा रंग दिखाया था। 1959 की इस फ़िल्म में संध्या ने 'चल जा रे हट नटखट' पर नृत्य किया जो अविस्मरणीय था। 
   इसके बाद फ़िल्म कोहिनूर, गोदान और 'फूल और पत्थर' में भी होली गीत सुनाई दिए। राजेश खन्ना और आशा पारेख की फ़िल्म 'कटी पतंग' में राजेश खन्ना होली पर आशा पारेख को न छोड़ने की बात करते हुए 'आज न छोड़ेंगे बस हमजोली, खेलेंगे हम होली' गाते हैं। वहीदा रहमान और धर्मेन्द्र की फ़िल्म 'फ़ागुन' में भी 'फ़ागुन आयो रे' गीत था। अमिताभ बच्चन ने भी 'नमक हराम' में 'नदिया से दरिया' रेखा और राजेश खन्ना के साथ गाया था। 1975 में आई 'शोले' में डकैत होली के दिन ही गांव पर हमला करते हैं। फिल्म में 'होली के दिन दिल खिल जाते हैं' आज भी सुनाई देता है। सुनील दत्त 'ज़ख़्मी' में 'आई रे आई रे होली आई रे' गाते नज़र आए। थे 
  बासु चटर्जी ने 'दिल्लगी' में धर्मेन्द्र पर होली गीत फिल्माया था। इस गाने को होली का एंथम भी कहा जाता है। यश चोपड़ा की फिल्म 'सिलसिला' का अमिताभ, रेखा और संजीव कुमार पर फिल्माया 'रंग बरसे भीगे चुनर वाली' होली गीत आज पहले नंबर पर है। 'राजपूत' का गीत 'भागी रे भागी बृज बाला' पसंद किया जाता है। राकेश रोशन की फ़िल्म 'कामचोर' का गीत 'रंग दे गुलाल मोहे' होली पर रिश्तों का रंग बताता है। परदे पर होली का रंग बिखेरने वालों में अमिताभ बच्चन का नाम सबसे आगे है। रेखा के साथ ‘सिलसिला’ में, हेमा मालिनी के साथ ‘बागबां’ में परदे को रंगीन किया। अमिताभ ने ‘वक्त’ में अक्षय कुमार और प्रियंका चोपड़ा के साथ ‘डू मी ए फेवर, लेट्स प्ले होली’ गाते हुए भी खासे जँचे। धर्मेंद्र और हेमा मालिनी ने भी होली को फिल्मों में रंगीन बनाया। इस जोड़ी पर फिल्माया फिल्म ‘शोले’ का गीत ‘होली के दिन दिल खिल जाते हैं’ आज भी होली की मस्ती दिखाते हैं। इसके बाद इस जोड़ी ने फिल्म ‘राजपूत’ में भी 'कान्हा ने पकड़ा रंग डाला’ गाकर होली खेली।
   'मशाल' में सड़क छाप होली के सीन उल्लेखनीय थे। अनिल कपूर और रति अग्निहोत्री पर फ़िल्माए गीत को लोग याद रखते हैं। फ़िल्म 'आख़िर क्यों' के गाने 'सात रंग में खेले' में स्मिता पाटिल के साथ राकेश रोशन और टीना मुनीम भी नज़र आए थे। 1993 में आई फ़िल्म 'डर' का गाना 'अंग से अंग लगाना सजन हमें ऐसे रंग लगाना' में जूही चावला, सनी देओल की मस्ती थी। 'मोहब्बतें' का गाना शहरी होली के इर्द-गिर्द बुना गया था। 2013 'ये जवानी है दीवानी' का गाना 'बलम पिचकारी' और साल 2014 में आई फ़िल्म 'रामलीला' का गाना 'लहू मुंह लग गया' भी युवाओं में लोकप्रिय है।
   राजकुमार संतोषी ने ‘दामिनी’ में होली दृश्य फिल्म में टर्निंग प्वाइंट के लिए किया था। जबकि, ‘आखिर क्यों’ के गाने ‘सात रंग में खेल रही है दिल वालों की होली रे’ और ‘कामचोर’ के ‘मल दे गुलाल मोहे’ में निर्देशक भी इससे फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाया था। होली के दृश्य और गीत फिल्म की मस्ती को बढ़ाने के लिए फिल्माए जाते रहे हैं। ऐसी फिल्मों में ‘मदर इंडिया’ भी है, जिसका गाना ‘होली आई रे कन्हाई’ याद किया जाता है। ‘नवरंग’ का ‘जा रे हट नटखट’, ‘फागुन’ का ‘पिया संग होली खेलूँ रे’ और ‘लम्हे’ का ‘मोहे छेड़ो न नंद के लाला’ गाने ने भी होली का फिल्मों में प्रतिनिधित्व किया था। 
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Saturday, 7 March 2020

एक औरत के संघर्ष और दो औरतों के सहारा बनने की दास्तान!

महिला दिवस पर विशेष


- एकता शर्मा

  मैं रोज की तरह उस दिन कोर्ट में अपने काम में लगी थी! लोग लगातार आ रहे थे! किसी को अपनी अगली तारीख की जानकारी लेना थी, कोई गवाही देने आया था! तभी एक 18-20 साल का नौजवान लड़का आकर खड़ा हुआ। डेनिम की जैकेट पहले उस लड़के के चेहरे पर हल्की सी दाढ़ी थी। उसने आते ही झुककर मेरे पैर पड़े और बोला 'मैडम आपने मुझे पहचाना!' मैंने उसके चेहरे को ध्यान से देखा, पर कुछ याद नहीं आया। तभी वो बोला 'मैडम मैं गणेश हूँ। जब 5 साल का था तब माँ के साथ आपके पास आता था!' मैं कुछ याद करती, उससे पहले ही वो बोल पड़ा कि मैं जशोदाबाई का लड़का हूँ मैडम! मैंने उसकी तरफ देखा और याद करने की कोशिश करने लगी! उसकी आँखों की तरफ देखा जो भर आई थी! 'आपने हमारी बहुत मदद की है! अब मेरी नौकरी लग गई है, कल मैं ज्वाइन करने जाऊंगा! माँ ने बोला कि पहले आपका आशीर्वाद लेकर आऊं! हमारे लिए तो मैडम आप ही सबकुछ हो!'     
   एक बार में गणेश सबकुछ बोल गया। लेकिन, मैं कुछ बोल नहीं सकी, शब्द गुम से हो गए थे। जो लोग मेरे ऑफिस में मौजूद थे, वे भी यह सब देखते रहे! 14-15 साल पुरानी घटना आँखों के सामने घूम गई! जशोदा भी याद आई, जिसे मैं भूल गई थी। गणेश से मैंने उसकी माँ और छोटे भाई के बारे में पूछा! वो बोला 'सब ठीक है मैडम! माँ भी आने वाली है आपसे मिलने!' गणेश तो चला गया, पर मेरे जहन में 15 साल पुराना वो घटनाक्रम घूम गया! जशोदा, उसके दोनों बेटे और उसकी माँ का वो चेहरा याद आया, जब पहली बार ये सभी मेरे पास आए थे। 
     मैं वकील हूँ इसलिए मुझे रोज ही ऐसे लोगों से मिलना होता है, जो किसी न किसी परेशानी से घिरे होते हैं। ऐसी ही ये कहानी जशोदा बाई की है। उस दिन तेज गर्मी थी, अचानक दो महिलाएं ऑफिस में टेबल के सामने आकर खड़ी हुई और बोलीं 'मैडम क्या आप हमारी मदद करोगी?' काम करते हुए मैंने गर्दन उठाकर देखा तो एक अधेड़ उम्र की महिला के साथ एक 25-26 साल की महिला खड़ी थी। अधेड़ महिला ने मुझे साथ आई महिला को बेटी के रूप में मिलाते हुए कहा 'मैडम ये मेरी बेटी जशोदा है। बहुत परेशान है, आपकी मदद चाहिए।' मैली-कुचैली साड़ी में सिर पर पल्ला लिए ग्रामीण परिवेश की उस महिला के नाक नख़्स तीखे थे। जशोदा सुंदर थी, पर चेहरे पर अजीब सा सूनापन था।
    उसने अपनी जो परेशानी बताई वो कुछ यूँ थी। जशोदा पास के ही गाँव की रहने वाली थी। उसकी शादी 6 साल पहले हुई थी। पास ही के गाँव में उसका पति किसान था। जमीन और मकान सब कुछ था! दो बेटे जिनकी उम्र लगभग 5 और 3 साल थी। जशोदा का जीवन आराम से कट रहा था। लेकिन, वक़्त की मार ने जशोदा के खुशहाल जीवन को पलभर में अनथक संघर्ष में झोंक दिया! इसकी शुरुआत उसके पति की मौत से हुई थी! सड़क दुर्घटना में पति की मौत हो गई! इसके बाद तो जशोदा की सारी खुशियां मानो ख़त्म हो गई! यहीं से शुरू हुआ उसके संघर्ष का सफर। दो छोटे बच्चों के साथ वो अकेली रह गई। कैसे खेती होगी, कैसे घर चलेगा? ऐसे कई सवाल उसके सामने खड़े हो गए! पति की मौत के सदमे से जशोदा अभी उबरी भी नहीं थी, कि ससुराल वालों ने भी आँखें फेर ली। देवर और उसकी पत्नी ने जशोदा को घर से चले जाने का दबाव बनाया। ससुराल के बाकी लोगों ने भी उसे डायन करार दे दिया। पति की मौत को अभी एक महीना भी नहीं हुआ था कि उसे ससुराल वालों ने ताने दे देकर घर से निकाल दिया।
  माँ-बाप की लाडली और पति की प्यारी जशोदा जो अभी तक ससुराल में रानी बनकर रह रही थी, सड़क पर आ गई! जिसने दुनियादारी की कोई समस्या नहीं देखी थी, उसके सामने पहाड़ सी जिंदगी और दो बच्चों को पालने की चुनौती भी! जशोदा अपने माँ-बाप के पास गाँव आ गई! लेकिन, उसने अपने आपको संभालकर जीना शुरू किया। जीवन-यापन के लिए जशोदा खुद खेती करने को तैयार हुई, तो देवर ने अड़ंगा शुरू कर दिया। उसने पत्नी के नाम कब फर्जी रजिस्ट्री भी करवा ली, ये जशोदा को बाद में पता चला! पति के जीते जी बंटवारा नहीं हुआ था। जमीन सास के नाम पर जमीन थी, इसलिए देवर की ये साजिश  कामयाब हो गई! 
    क़ानूनी रूप से रजिस्ट्री की हुई ज़मीन को विक्रय ही माना जाता है। इसलिए क़ानूनी लड़ाई में जशोदा को राहत मिलने की उम्मीद कम ही थी। उसके अलावा अदालती लड़ाई में लगने वाला खर्च, वकीलों की फीस और रोज-रोज के कोर्ट के चक्कर! गाँव की कोई भी घरेलू महिला ये सोचकर ही हार मान लेती! लेकिन, जशोदा ने हिम्मत नहीं हारी। जब मैंने उसे बताया की केस लड़ने में खर्च और समय दोनों लगेगा तो मेरी बात सुनकर उसने बड़ी हिम्मत के साथ हामी भरी। उसकी हिम्मत देखकर मैंने भी उसकी मदद करने की ठान ली। मैंने बिना फीस के उसका केस लड़ने का फैसला किया! क्योंकि, जब एक महिला हिम्मत के साथ आगे बढ़ी है, तो उसे इतनी मदद तो दी ही जानी चाहिए। मेरे सामने संघर्ष से जूझती जशोदा पहली और आखिरी महिला नहीं थी! लेकिन, जब भी ऐसा कोई मामला सामने आता है, तो मैं उस महिला से फीस नहीं लेती। इसी के साथ शुरू हुआ जशोदा का संघर्ष। बच्चों की परवरिश के लिए उसने गाँव में ही मजदूरी करना शुरू कर दिया था।
   हालांकि, जशोदा के मामले में जीत के आसार बहुत कम ही थे। फिर भी उसके साथ मिलकर मैंने क़ानूनी जंग की शुरुआत की! तारीख पर तारीख चलना शुरू हुई। लेकिन, जशोदा की हिम्मत समय के बढ़ती चली गई। कभी वो अपने दोनों छोटे बच्चों को साथ लाती, कभी किसी के सहारे छोड़कर आती! मगर, कभी भी केस की तारीख नहीं चूकती! गर्मियों की तपती दोपहर में वो सुबह गाँव से निकलती, करीब 2 किलोमीटर पैदल रास्ता तय करके सड़क तक आती, वहाँ से बस में बैठकर कोर्ट आती! सारे रास्ते और बस की भीड़ में एक कम उम्र की सुंदर महिला होना भी उसकी परेशानी थी! लोगों से तो वो बच जाती! लेकिन, गंदी नजरों से बचना उसके लिए भी आसान नहीं था। ये सब कुछ सहते हुए भी वो आती रही।
    देवर के वकील ने भी अपनी तरफ से केस में रोडे अटकाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस सबमें करीब एक साल बीत गया। इस बीच क़ानूनी पैचीदगी के चलते जशोदा की तरफ से मैंने चार केस लगा दिए। हर केस की तारीख पर हाजिर होना, खर्चीला तो होता ही! लेकिन, उस दिन उसकी मजदूरी का भी नुकसान होता। इस तरह उसे दोहरी मार झेलनी पड़ती। लेकिन, उसकी हिम्मत देखते हुए मैंने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी। कानून के नजरिए से जशोदा का मामला कमजोर था। लेकिन, उसकी हिम्मत ने मुझे भी हिम्मत दिलाई और हम लड़ते गए। आखिर सालभर बाद जब उसकी जमीन पर फसल पकी, तब एक रास्ता निकाला। मैंने उसे हिम्मत दिलाई और और एक रास्ता भी सुझाया! जशोदा क़ानूनी लड़ाई के साथ खेत में खुद लाठी लेकर खड़ी हो गई! क्योंकि, खेत पर कब्ज़ा उसका था और जमीन की जो फर्जी रजिस्ट्री उसकी जानकारी के बिना हुई थी! जब वो खेत में लाठी लेकर खड़ी हुई, तब उसके सामने वो ही लोग सामने थे, जिनका पति के रहते वो सम्मान करके घूंघट निकाला करती थी। जिनके सामने जशोदा एक बहू बनकर खड़ी होती थी, अब वो उन्हीं के सामने दुर्गा का रूप लेकर खड़ी थी। उसके उस रूप को देखकर उसके ससुराल वाले भी डर गए! 
     आखिर देवर पीछे हट गया और जशोदा को पहली जीत जमीन की फसल के रूप में मिली। जशोदा को ये सलाह देने से पहले मैंने कानूनी बारीकियां भी जाँच ली थी। मेरे कहने पर संबंधित थाने के प्रभारी ने भी जशोदा की मदद की!    इस घटना के बाद जशोदा की हिम्मत दोगुनी हो गई! वो अब और ज्यादा हिम्मत से कोर्ट आती। बयान के वक़्त भी उसे अपनों के सामने ही जवाब देना थे। तब भी जशोदा ने उसी हिम्मत से उनका सामना किया। उसकी इतनी हिम्मत देखकर देवर कहीं न कहीं अंदर से डरने भी लगा था। उसने मुझसे संपर्क भी किया। मैंने समझौते की कार्यवाही पर जोर दिया! क्योंकि, वकील होने के नाते मुझे शुरू से ही अंदेशा था कि जशोदा की जीत के आसार कम हैं। इसलिए बीच का रास्ता निकालना जरुरी था। जशोदा की दिन पर दिन बढ़ती हिम्मत देखकर उसके देवर के हौंसले जवाब देने लगे थे। धीरे-धीरे गाँव के लोगों ने भी जशोदा का साथ देना शुरू कर दिया। इस सबके चलते देवर पर दबाव बढ़ने लगा। उसने खुद मुझसे संपर्क करके राजीनामे की बात की! मैंने भी उसे समझाया कि जशोदा की जमीन उसके नाम कर दो, तभी राजीनामा संभव है।   
     कई बार की बातचीत का नतीजा यह हुआ कि देवर ने जशोदा के हिस्से की जमीन की रजिस्ट्री उसके और उसके बच्चों के नाम करवा दी। रजिस्ट्री होने के बाद हमने भी वादे के अनुसार राजीनामा कर लिया और सारे केस उठा लिए। अब जशोदा की अपनी खेती थी। उसने दोनों बच्चों के साथ खेती करना शुरू कर दिया और बच्चों का पालन पोषण करने लगी। इस तरह अपनी हिम्मत से क़ानूनी रूप से कमजोर होते हुए भी जशोदा ने लगभग हारी हुई बाजी जीत ली! उसकी इस लड़ाई में एक खासियत यह भी रही कि उसका साथ देने वाली भी दो महिलाएं ही थी! एक उसकी माँ और दूसरी उसकी वकील यानी मैं! कहा जा सकता है कि तीन महिलाओं ने मिलकर एक लगभग हारी हुई बाजी जीतकर बाजीगर बन गई।  आज गणेश के अचानक सामने आने से ये पूरी घटना फिल्म की तरह आँखों के सामने से गुजर गई! जशोदा की जंग उन महिलाओं के लिए एक प्रेरणा तो है, जो मुसीबत में टूटकर बिखर जाती हैं। उसकी हिम्मत का ही नतीजा था कि उसे अपने हिस्से की जमीन मिली और बच्चों को भी उसने ठीक से पाल लिया। गणेश को देखकर मुझे भी अपने फैसले पर संतोष हुआ कि आखिर मेरी मेहनत से एक बिखरा परिवार फिर संवर गया। दरअसल, ये एक महिला के संघर्ष की ऐसी अनथक दास्तान है, जिसकी मिसाल दी जा सकती है। समाज में जशोदा अकेली महिला नहीं है, जिसके सामने ये संकट आया! पर, लगता है कि मेरी तरह महिला वकीलों को ऐसी महिलाओं की मदद के लिए आगे आना चाहिए! आखिर एक महिला ही दूसरी का सहारा नहीं बनेगी तो कौन बनेगा!
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Sunday, 23 February 2020

जूते पॉलिश करने वाले 'सनी' के सुरों ने छुआ आसमान


- एकता शर्मा
   टेलीविजन के सिंगिंग रियलिटी शो 'इंडियन आइडल' के 11वें सीजन का टाइटल पंजाब के भटिंडा के सनी हिंदुस्तानी ने जीत लिया। ख़ास गायन प्रतिभा को देखते हुए सनी की जीत पर कोई उंगली भी नहीं उठाई जा रही। अंतिम पाँच में आए प्रतियोगियों में सभी एक से एक अच्छे गायक थे, लेकिन सनी हिंदुस्तानी बेजोड़ हैं। अपने नाम 'सनी' के साथ 'हिंदुस्तानी' उपनाम भी उन्हें इसी शो में जज रहे अन्नू मलिक ने दिया है। 'सोनी एंटरटेनमेंट टेलीविजन' के इस फिनाले में जज नेहा कक्कड़, हिमेश रेशमिया, विशाल ददलानी और मेजबान आयुष्मान खुराना और उनकी नई फिल्म 'शुभ मंगल ज्यादा सावधान' की टीम रही।
    भटिंडा के सनी का जीवन बहुत संघर्ष और गरीबी में बीता। इस शो में आने से पहले वे रेलवे स्टेशन और सड़क पर जूते पॉलिश किया करते थे। लेकिन, इतनी मेहनत के बाद भी उनको खाने के लाले पड़ते थे। सनी के पिता नानक भी जूते पॉलिश करते थे। जम्मू में आई बाढ़ के दौरान उनकी मौत हो गई थी। वहां वे सेना के जवानों के जूते पॉलिश करने जाया करते थे। इसी दौरान एक बार वे बाढ़ में फंस गए थे। सनी के पिता को भी गाने का शौक था! वे शादी-ब्याह में गाया करते थे, जिससे उन्हें कभी खाना और पैसे मिल जाते थे। सनी की दादी भी गाकर भीख मांगा करती थीं। उनकी मां सोमा देवी भी गुब्बारे बेचकर गुजारे लायक पैसे कमाने की कोशिश करती थी। कई बार ये स्थिति आ जाती कि उन्हें लोगों से अनाज या खाना मांगकर गुजारा करना पड़ता। ऐसी स्थिति में सनी का इंडियन आइडल खिताब जीतना बहुत बड़ी उपलब्धि है।
    बतौर विजेता सनी को 25 लाख रुपए, टाटा अल्ट्रॉज़ कार और और टी-सीरीज की आने वाली फिल्म में गाने का अनुबंध मिला है। ये निश्चित रूप से उनके लिए किसी सपने के सच होने जैसी बात है। अपनी जीत से खुश सनी ने कहा कि मैंने पहले दौर से गुजरने के बारे में भी नहीं सोचा था, 'इंडियन आइडल' जीतना तो बहुत दूर की बात थी। मैंने एक लंबा रास्ता तय किया है और विश्वास नहीं कर सकता कि सफर अभी शुरू हुआ है। इतने बड़े मंच पर गाने का अवसर मिलने से लेकर इस शो को असल में जीतने तक, यह मेरे सभी सपनों, इच्छाओं और प्रार्थनाओं का एक साथ सच होने जैसा है। मुझे सलाह देने और मेरा मार्गदर्शन करने के लिए जजों का और मुझे संगीत उद्योग के दिग्गजों के सामने प्रदर्शन करने और इतने सारे सितारों से मिलने के लिए एक मंच देने का अवसर देने के लिए मैं आभारी हूं। मैं विश्वास नहीं कर सकता कि पूरे भारत ने मेरी आवाज को सुना और मुझे देश की आवाज बनाने के लिए पूरे दिल से वोट दिया।
   उन्होंने अंतिम मुकाबले में चार फाइनलिस्ट को पछाड़ते हुए ये खिताब जीता। जिनमें ओंकना मुखर्जी, अद्रिज घोष, रिधम कल्याण और रोहित राउत रहे। सनी ने दिल को छूने वाली आवाज का जलवा बिखेरा और 'भर दो झोली मेरी', 'हल्का हल्का सुरूर' जैसे गाने गाकर दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। उनकी आवाज का जादू ही ऐसा था कि वहां फिनाले पर पहुंचे स्पेशल मेहमान आयुष्मान खुराना और नीना गुप्ता भी उनकी तारीफ करने से खुद को रोक नहीं सके। इस शो में शुरुआत से ही सनी सबके बीच काफी चर्चा में रहे। जजों विशाल ददलानी, नेहा कक्कड़ और अनु मलिक के चहेते रहे और इसकी वजह थी उनकी मखमली आवाज। उनकी आवाज की तुलना और गायन शैली हमेशा ही विख्यात सूफी गायक नुसरत फतेह अली खान से की जाती रही है।  ऑडिशन के बाद से ही सनी बके चहेते बने रहे। सनी को नुसरत साहब की रूह तक कहा गया। बतौर मेहमान आए एक एपिसोड में कलाकार कुणाल खेमू उनकी आवाज से इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने उन्हें अपने गले से उतारकर लक्ष्मीजी का सोने का लॉकेट गिफ्ट दिया था। शो में पहुंचे अजय देवगन और काजोल भी सनी की आवाज सुनकर काफी प्रभावित हुए थे। उन्हें हिमेश रेशमिया की फिल्म में गाने का कॉन्ट्रैक्ट पहले ही मिल चुका है।
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Saturday, 22 February 2020

क्या 'बिग बॉस' के चाहने से सिद्धार्थ ने शो जीता!

टेलीविजन के परदे पर चार महीने तक 'बिग बॉस' का जलवा छाया रहा! कलर्स चैनल के इस शो में प्रतियोगी वही करते हैं, जो 'बिग बॉस' चाहते हैं! लेकिन, किसी ने कभी 'बिग बॉस' को देखा नहीं, सिर्फ आवाज सुनी है! लेकिन, इस बार ये शो कुछ ज्यादा ही चर्चित और विवादस्पद रहा! इसे जबरदस्त टीआरपी मिली और इस कारण इसे महीनाभर बढ़ाया भी गया। लेकिन, इस शो के विजेता सिद्धार्थ शुक्ला को लेकर दर्शक एकमत नहीं रहे! इस बात की चर्चा भी रही कि इस बार का 'बिग बॉस' फिक्स था! पूरे शो में अपनी नकारात्मक छवि बनाने वाले टेलीविजन कलाकार सिद्धार्थ शुक्ला की जीत दर्शकों के गले नहीं उतर रही है। ये बात भी सुनाई दी, कि सिद्धार्थ को शो जिताने में सलमान खान की भी भूमिका रही है।   
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 - एकता शर्मा
   टेलीविजन के सबसे ज्यादा चर्चित टीवी रियलिटी शो 'बिग बॉस' का 13वां सीजन टीवी एक्टर सिद्धार्थ शुक्ला ने जीत लिया। वे शो के सबसे चर्चित कंटेस्टेंट्स में से एक थे। 'बिग बॉस' के घर में रहते हुए सिद्धार्थ शुक्ला ने अपनी हरकतों से खुद को लाइम लाइट में बनाए रखा! ये इस खेल की रणनीति भी है कि आप कितनी देर अपने आपको कैमरे के सामने बनाए रखते हैं। उन्होंने अपनी इस रणनीति की वजह से खूब सुर्खियां बटोरी और शो का खिताब भी जीता। ये कहने वाले भी कम नहीं हैं कि शो फिक्स था और होस्ट सलमान खान के सपोर्ट के कारण सिद्धार्थ शुक्ला ने ये शो जीता, जबकि आसिम रियाज उनसे कहीं ज्यादा लोकप्रिय रहे। लेकिन, सिद्धार्थ ऐसी खबरों पर ध्यान देना नहीं चाहते! एक इंटरव्यू में सिद्धार्थ ने कहा कि ये बहुत दुख की बात है कि लोग इस तरह से सोचते हैं। मैंने काफी मुश्किल से ये टाइटल जीता है! उस पर कोई सवाल उठाता है, तो दुख होता है। जो लोग ऐसा सोचते हैं उनके लिए मैं सॉरी फील करता हूं।
    ये शो सोशल मीडिया पर भी खूब छाया। हाल ही में 'ट्विटर इंडिया' ने अपनी एक रिपोर्ट जारी की है। इसके मुताबिक 'बिग बॉस-13' डिजिटल प्लेटफॉर्म पर काफी हिट साबित हुआ। 'बिग बॉस' के पिछले सीजन यानी साल 2018 के शो को लेकर 4.1 करोड़ ट्वीट किए गए थे, जबकि इस साल 1 जनवरी 2020 से शो के खत्म होने यानी 15 फरवरी तक ही 10.5 करोड़ ट्वीट किए गए। इस दौरान दर्शकों ने सिद्धार्थ शुक्ला के लिए सबसे ज्यादा ट्वीट किए थे। सिद्धार्थ शुक्ला के अलावा दूसरे नंबर पर सबसे ज्यादा ट्वीट हासिल करने वाले आसिम रियाज रहे थे। कई दर्शकों ने सोशल मीडिया पर 'बिग बॉस-13' को फिक्स्ड बताया। वहीं कई टीवी के सितारों ने भी सिद्धार्थ शुक्ला के विजेता बनने पर शो की आलोचना की। चार महीने से ज्यादा समय तक चले शो में इस बार छह फाइनिलस्ट थे। सिद्धार्थ और आसिम के बाद तीसरे नंबर पर शहनाज गिल रहीं। रश्मि देसाई टीवी की बड़ी नाम हैं, लेकिन वे चौथे स्थान पर रही! इसके बाद आरती सिंह पांचवें नंबर पर थीं। वहीं पारस छाबड़ा छठे नंबर पर थे और पहले ही 10 लाख रुपए लेकर उन्होंने शो छोड़ दिया था।
सिद्धार्थ शुक्ला इलाहाबाद के रहने वाले हैं और पेशे से इंटीरियर डिजाइनर हैं। उन्होंने बतौर टेलीविजन अभिनेता और मॉडल अपना करियर शुरू किया था। उन्होंने 2008 में टीवी शो 'बाबुल का आंगन' से अपने अभिनय की शुरुआत की थी। बाद में उन्हें लव यू जिंदगी, बालिका वधु और दिल से दिल तक में देखा गया। उन्होंने रियलिटी शो झलक दिखला जा, फियर फैक्टर: खतरों के खिलाड़ी और बिग बॉस-13 में हिस्सा लिया। 2014 में सिद्धार्थ ने फिल्म 'हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया' में सहायक भूमिका भी की थी।
    'बिग बॉस' जीतने के बाद सिद्धार्थ ने कहा था कि जब मैंने इस शो के लिए हामी भरी, उस दिन से सिर्फ जीतने की ख्वाहिश थी। इतने हफ्ते घर में रहने के बाद जब ट्रॉफी हाथ में आई तो बहुत ख़ुशी हो रही है। मेरे जैसे जितने भी कंटेस्टेंट्स आए थे, वे सभी इस शो में जीतना ही चाहते थे। शुरुआत में मैं थोड़ा नर्वस था, लेकिन जैसे ही दिन बीतते गए, मेरा कॉन्फिडेन्स भी बढ़ता गया। मेरी मां बहुत खुश हुई हैं और उनकी ख़ुशी देखकर मेरी खुशी दोगुनी हो गई। घर में एक दिन भी ऐसा नहीं बीता, जब मैं सोचता कि मैं क्या सही कर रहा हूं और क्या गलत। कम्पटीशन खुद से ही किया करता था और खुश हूं कि अपने फैंस की बदौलत इस शो का विजेता बन पाया। मैं किसी को हराकर जीतने के बारे में नहीं सोचता था, बस खुद को जीतना देखना था और बस यही सोचकर पूरा 'बिग बॉस' का सफर तय किया। शो में मेरा एग्रेशन काफी चर्चा में रहा! हालांकि, मैं बेमतलब किसी भी बात पर रिएक्ट कर देता था। हर सिचुएशन अलग होती है और ये शो बिलकुल स्क्रिप्टेड नहीं था। हर किसी के साथ अच्छा व्यव्हार करना वो भी हर समय, ये बिल्कुल मुमकिन नहीं है।
     सिद्धार्थ शुक्ला का क्रेज 'बिग बॉस-13' के खत्म होने के बाद भी बना हुआ है। सिद्धार्थ अब शहनाज गिल के शो 'मुझसे शादी करोगे' में हुई है। यहां भी दोनों का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है। 'कलर्स' चैनल के इस नए शो 'मुझसे शादी करोगे' में सिद्धार्थ शुक्ला अपनी दोस्त शहनाज गिल का दूल्हा ढूंढने में उनकी मदद कर रहे हैं। शहनाज गिल और सिद्धार्थ शुक्ला की दोस्ती 'बिग बॉस 13' में खूब लोकप्रिय थी। सिद्धार्थ ने कहा कि शहनाज गिल मेरी बहुत अच्छी दोस्त है और उसके साथ की जर्नी हमेशा यादगार रहेगी। हम दोनों टच में ज़रूर रहेंगे। फ़िलहाल इसके बारे में ज्यादा नहीं बता पाऊंगा। शहनाज पूरे सफर में बहुत अच्छे से रही है और वो जैसी थी मैं भी उनके साथ वैसा ही था। मेरे लिए वो एक बच्चे जैसी है। उसके साथ बहुत सारे उतार-चढ़ाव देखें हैं, लेकिन उसके साथ जब भी बातें करता था मुझे बहुत कम्फर्टेबल फील होता था।
   सिद्धार्थ शुक्ला की जीत पर रश्मि देसाई ने नकारात्मक प्रतिक्रिया दी। रश्मि ने एक अंग्रेजी वेबसाइट से बातचीत के दौरान कहा कि बिग बॉस के घर मेें मैंने सिद्धार्थ के सफर को देखा, उसके आधार पर मैं ये कह सकती हूं कि उन्होंने अच्छा खेला। लेकिन, काबिलियत की बात करें तो मेरी नजर में आसिम रियाज ज्यादा विजेता के काबिल थे। वैसे तो मैं भी अपने आपको विजेता के तौर पर देख रही थी, लेकिन अंत में पिछड़ गई। मैं सिद्धार्थ की जीत पर सवाल खड़े नहीं कर रही, लेकिन आसिम की शो में ग्रोथ सबसे ज्याजा अच्छी रही है। सिद्धार्थ को सलमान का सपोर्ट करने की वजह अभी तक ये माना जा रहा था कि वे सलमान की आने वाली फिल्म 'राधे' का हिस्सा हैं। फिर कहा गया कि सिद्धार्थ को गौतम गुलाटी ने रिप्लेस कर दिया है। क्योंकि, 'राधे' की ज्यादातर शूटिंग पूरी हो चुकी है। इस कारण सिद्धार्थ शुक्ला का इस प्रोजेक्ट में हिस्सा बनना संभव नहीं है। सिद्धार्थ के पास कई प्रोजेक्ट हैं, जो उन्हें लम्बे समय तक बिजी रखेंगे।
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Monday, 17 February 2020

'जुस्तजू जिसकी थी, उसको तो न पाया हमने'

खय्याम

- एकता शर्मा 

   संगीत की दुनिया में मोहम्मद जहूर हाशमी उर्फ़ खय्याम किसी परिचय के मोहताज कभी नहीं रहे! 'कभी-कभी' और 'उमराव जान' जैसी फिल्मों में कालजयी संगीत देकर खय्याम ने अपनी अलग पहचान बनाई थी! आज भी इन फिल्मों के गीतों को पसंद किया जाता है। जबकि, इस संगीतकार को मनहूस कहने वाले भी कम नहीं थे। ऐसे लोगों का कहना था कि खय्याम के गीत तो पसंद किए जाते हैं, पर उनके संगीत वाली फ़िल्में जुबली नहीं मनाती! लेकिन, 'कभी-कभी' ने इस भ्रम को भी तोड़ दिया।  
    खय्याम ने संगीत की दुनिया में 17 साल की उम्र में अपना करियर लुधियाना से शुरू किया था। वे छुपकर फ़िल्में देखा करते थे और उनकी इच्छा कलाकार बनने की थी। इस वजह से उनके परिवार ने उन्हें घर से निकाल दिया था। लेकिन, बाद में उनकी रूचि संगीत में बढ़ी और उन्होंने इसी विधा को करियर बनाना चाहा। शुरूआती सफलता के बाद उन्हें पहला बड़ा ब्रेक 'उमराव जान' से मिला! इस फिल्म के गाने आज भी लोगों के दिलों में जगह बनाए हैं। उन्हें इस फिल्म के बेहतरीन संगीत के लिए नेशनल और फिल्मफेयर अवॉर्ड के साथ ही कई पुरस्कार मिले। 'उमराव जान' के बाद बाज़ार, कभी-कभी, नूरी, त्रिशूल और 'रजिया सुल्तान' जैसी फ़िल्मों के गीत भी उन्होंने रचे। उनके संगीतबद्ध किए गैर-फिल्मी गानों को भी काफी पसंद किया गया। उन्होंने मीना कुमारी की एलबम जिसमें उन्होंने कविताएं गाई थीं, उसके लिए भी संगीत दिया था। खय्याम को पहली फिल्म 'हीर रांझा' मिली थी। लेकिन, उन्हें पहचान मोहम्मद रफ़ी के गीत 'अकेले में वह घबराते तो होंगे' से मिली। बाद में 'शोला और शबनम' ने उन्हें बतौर संगीतकार स्थापित कर दिया।
   जब खय्याम को 'उमराव जान' में संगीत देने का मौका मिला तो उनके सामने कमाल अमरोही की 'पाकीज़ा' थी, जो अपने समय की जबर्दस्त कामयाब फिल्म थी। इसका संगीत गुलाम मोहम्मद ने दिया था। 'उमराव जान' और 'पाकीजा' की पृष्ठभूमि एक सी होने से वे असमंजस में थे कि वे अपनी कोशिश में कामयाब होंगे या नहीं! 'उमराव जान' के संगीत को खास बनाने के लिए उन्होंने इतिहास भी पढ़ा और उस समय के संगीत की जानकारी हांसिल की। अंततः मेहनत रंग लाई और 1982 में आई मुज़फ़्फ़र अली की 'उमराव जान' ने व्यावसायिक और संगीत की सफलता के झंडे गाड़ दिए। 'जुस्तजू जिसकी थी, उसको तो न पाया हमने' जैसा गीत आज भी गुनगुनाया जाता है। ख़य्याम ने अपनी कामयाबी का श्रेय फिल्म की नायिका रेखा को भी देते हुए कहा था कि उन्होंने मेरे संगीत में जान दाल दी! उनका अभिनय देखकर मुझे तो यही लगा था कि रेखा ही पिछले जन्म में उमराव जान थी। 
   फ़िल्मी दुनिया में एक भ्रम फैला था कि खय्याम के संगीत वाली फिल्मों के गाने तो हिट हुए, लेकिन फिल्मों ने कभी सिल्वर जुबली भी नहीं मनाई! 'कभी-कभी' से पहले यश चोपड़ा को भी लोगों ने यही बात याद दिलाई थी। सभी उन्हें मेरे साथ काम करने के लिए मना कर रहे थे। उन्होंने खय्याम से कहा भी था कि इंडस्ट्री में कई लोग कहते हैं कि खय्याम बहुत बदकिस्मत आदमी हैं। इसके बावजूद यश चोपड़ा ने 'कभी-कभी' का संगीत देने का चांस मिला और उस फिल्म ने गोल्डन जुबली मनाकर आलोचकों का मुंह बंद कर दिया था। खय्याम उन संगीतकारों में रहे जिन्होंने कभी ज्यादा काम करने का लोभ नहीं पाला! उन्होंने कम लेकिन बेहतरीन काम किया। उस दौर के कई बड़े फिल्मकारों ने इसीलिए उन्हें पसंद भी किया।  
  खय्याम पंजाबी थे, इसलिए उन्होंने अपने संगीत में पंजाबी लोकसंगीत का अच्छा इस्तेमाल किया। उस दौर में नौशाद के अलावा खय्याम ही ऐसे  संगीतकारों थे, जिन्हें शास्त्रीय रागों पर संगीत रचने में महारत हांसिल थी। खय्याम ने अपने छह दशक के करियर में 30-35 से ज्यादा फिल्में नहीं की।    मुकेश का गाये 'फिर सुबह होगी' के गीत 'वो सुबह कभी तो आएगी' ने उस ज़माने में कमाल कर दिया था। ये उस साल की सबसे बड़ी हिट फिल्मों में एक थी। इस फिल्म के बाद भी खय्याम और साहिर लुधियानवी की जोड़ी ने एक साथ फिल्मों के लिए काम किया। 80 के दशक में आई 'रजिया सुल्तान' में लता मंगेशकर का गाया 'ऐ दिले नादान' गाना लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचा था। इसी दशक में उन्होंने 'उमराव जान' का भी संगीत दिया, जो संगीत इतिहास की अहम फिल्मों में से एक है। 
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Friday, 7 February 2020

अनमोल मोहब्बत के इजहार का अरबों का कारोबार!



    दुनिया में प्यार की कोई कीमत नहीं होती! लेकिन, वेलेंटाइन-डे के इस त्यौहार ने साबित कर दिया कि प्यार अनमोल नहीं होता, इसका भी कोई मोल होता है। ये ऐसा प्यार का दिन होता है, जिसके लिए प्रेमी करोड़ों रुपए लुटा देते हैं। पूरे हफ्ते मनाए जाने वाले मोहब्बत के त्यौहार के लिए कोई पैसे के मोल को कई नहीं देखता। यही कारण है कि प्यार का ये त्यौहार कारोबार में बदल गया! प्यार के नाम पर बने इस वैलेंटाइंस-डे और वैलेंटाइन-वीक पर प्यार करने वाले कितना खर्च करते हैं, उसका भी कोई हिसाब नहीं लगाया जा सकता! इसके बावजूद कारोबारियों की नजर इस पर बनी रहती है। वैलेंटाइन-वीक को औद्योगिक मांग में छाई सुस्ती को दूर करने का उपाय भी माना जा सकता है। वेलेंटाइन डे पूरी दुनिया में पूरे जोश के साथ मनाया जाता है और भारत में भी इसका प्रसार तेजी से हो रहा है। इस दिन एक दूसरे को चाहने वाले मनपसंद तोहफे देकर अपनी भावनाओं का इजहार करते हैं।
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- एकता शर्मा

   कारोबार की नजर से देखा जाए तो प्यार जितना बढ़ेगा, प्रेमी जितने बढ़ेंगे ये कारोबार भी उतनी ही तेजी बढ़ेगा। लेकिन, ये कारोबार कितना होगा, इस बारे में कोई दावा नहीं कर सकता! क्योंकि, यदि उपहार कोई प्रोडक्ट हो, तो उसकी बिक्री का अनुमान लगाया जा सकता है! लेकिन, वैलेंटाइन-वीक में इतनी वैरायटी होती है कि उस कारोबार को आंकड़ों में नहीं समेटा जा सकता! बस अनुमान ही लगाया जा सकता है कि प्रेमियों ने अपने प्यार पर कितना खर्च किया! यही अनुमान बताता है कि ये आंकड़ा 22 से 25 अरब रुपए के आसपास है। ये अनुमान भी दो साल पहले व्यापारिक संगठन 'एसोचैम' ने अपने सर्वे से निकाला है। इस सर्वे के मुताबिक वेलेंटाइन-डे के मौके पर बड़े वेतन वाले अफसर, सरकारी नौकरी करने वाले, कॉरपोरेट सेक्टर और आईटी कंपनियों के अफसर 50 हजार रुपए तक गिफ्ट में खर्च करते हैं। वहीं कॉलेज के छात्र हज़ार रुपए से 10 हजार तक खर्च कर देते हैं।
    'एसोचैम' ने इस सर्वें के लिए बड़े शहरों के 800 कंपनी अधिकारी, 150 शिक्षा संस्थानों के 1000 से अधिक विद्यार्थियों से बात की थी। बाद में निष्कर्ष से यह आंकड़ें निकाले गए! 'एसोचैम' का मानना था कि इस कारोबार में 20% की दर से इजाफा हो रहा है। सर्वे में कहा गया था कि इस दौरान स्पॉ और ब्यूटी पार्लर के काम में भी लगातार तेजी आने की संभावना है। इसमें कहा गया है कि करीब 65% पुरुष अपनी प्रेमिका के लिए उपहार की खरीदते हैं, जबकि 35% महिलाएं भी इसी तरह की खरीददारी करती हैं। वैलेंटाइन-वीक पर उपहार के रूप में टेडी-बीयर, गुलाब, कपड़े, गहने, ग्रीटिंग कार्डस, चॉकलेट्स और इलेक्ट्रॉनिक्स गेजेट्स की जमकर बिक्री होती है। लेकिन, सबसे ज्यादा बिकता है गुलाब! प्यार के इस त्यौहार पर लाल गुलाब की खासी मांग होती है। प्रेमी महंगे दाम पर गुलाब खरीदकर अपनी प्रेमिकाओं को देकर अपने प्यार का इजहार करते है। अनुमान है कि फूलों का ही कारोबार 200 मिलियन का होता है।
   एसोचैम सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2014 में वैलेंटाइन-डे पर जहां 16,000 करोड़ रुपए का फुटकर कारोबार हुआ था, वहीं 2016 में यह 40% बढ़कर 22,000 करोड़ रुपए तक पहुंचा! वैलंटाइंस-डे पर इस साल ऑनलाइन खरीदारी का जोर ज्यादा रहने का अनुमान है। अनुमान है कि कुल बिक्री में ऑनलाइन का हिस्सा करीब 35% से ज्यादा होगा। ग्रीटिंग कार्ड्स और गिफ्ट कारोबार के लीडर कहे जाने वाले 'आर्चीज' के बिजनेस डेवपमेंट हेड राघव मूलचंदानी का कहना है कि कंपनी की कुल बिक्री में से 11% वैलेंटाइन-वीक से आती है। कंपनी के प्रीमियम कार्ड की बिक्री और मांग भी इसी दौरान देखी जाती है। आर्चीज ग्रीटिंग कार्ड, स्टेशनरी और गिफ्ट आइटम का कारोबार करती है। कंपनी के भारत में 230 ऑफिस हैं और भारत के बाहर कंपनी की 300 फ्रैंचाइजी हैं। कई विदेशी कंपनियों के साथ आर्चीज की साझेदारी है। 
     प्यार के प्रतीक गुलाब के फूल की कीमत वैलेंटाइन-डे पर 10 रुपए से बढ़कर 60 रुपए के रिकॉर्ड स्तर पर होने का अनुमान है। गुलाब को उपहार के तौर पर इसलिए वरीयता दी जाती है कि सस्ता होने के साथ प्यार के इजहार माध्यम भी माना जाता है। 'एसौचेम' के सर्वे के मुताबिक वैलेंटाइन-डे पर फूलों की मांग कई गुना बढ़ जाती है। इससे पूरे पुष्प उत्पादन उद्योग सालाना 30% की दर से बढ़ रहा है। फूलों की मांग तेजी से बढऩे के कारण इस साल ये उद्योग 10 हज़ार करोड़ रुपए तक पहुंचेगा। इस साल पुष्प उद्योग बढ़कर 10% होने की संभावना है।
  वैलेंटाइन-वीक पर मासूम से दिखने वाले रंग-बिरंगे टेडी बेयर, गुलाब के गुलदस्ते और बड़ी चॉकलेट बॉक्स में दो छोटी टॉफ़ी जैसी रोमांटिक चीज़ों की बिक्री ज्यादा होती है। ये भी एक आश्चर्य की बात है कि इस प्यार के त्यौहार का कोई परंपरागत गिफ्ट नहीं होता! प्रेमी-प्रेमिका आपस में भी एक दूसरे को उनकी पसंद की चीजें गिफ्ट करते हैं। ये भी एक कारण है कि वैलेंटाइन-वीक के दौरान होने वाले कारोबार को किसी दायरे में नहीं बांधा जा सकता! एक हैरान करने वाला एक ट्रेंड ये भी सामने आया था! वैलेंटाइन-डे से ठीक पहले लकड़ी वाली हॉकी स्टिक और क्रिकेट की विकेट्स के प्री-ऑर्डर में भी जमकर इज़ाफ़ा हुआ। मशहूर वैलेंटाइन विशेषज्ञ और जाने-माने मनोवैज्ञानिक कोकी कूलेरस भी इस हॉकी ट्रेंड को लेकर काफ़ी अचरज में थे। उन्होंने बताया था कि हॉकी इतनी क्यों बिक रही है? मेरे ख़याल से हॉकी को लेकर नौजवान लोगों में जागरूकता बढ़ रही है।
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Wednesday, 5 February 2020

लता की लंबी परछाईं में गुम हुई आवाज!


सुमन कल्याणपुर

  फ़िल्मी दुनिया में जब मंगेशकर बहनों का डंका बजता था, तब कई मधुर पार्श्व गायिकाओं को आगे बढ़ने का मौका नहीं मिला। ऐसी ही एक गायिका हैं, सुमन कल्याणपुर। उन्होंने अपने दौर के करीब सभी बड़े संगीतकारों के लिए गीत गाए। उनकी आवाज और गायकी का अंदाज काफी हद तक लता मंगेशकर से मिलता था, इसीलिए जब भी लता की किसी संगीतकारों या गायकों से अनबन हुई तो उसका लाभ सुमन कल्याणपुर को मिला। लेकिन, उनके जीवन में एक घटना ऐसी घटी जो उन्हें आज भी कचोटती है। महाराष्ट्र के नांदेड़ में आयोजित 'आषाढी महोत्सव' के दौरान सुमन कल्याणपुर ने उस बात का खुलासा किया था। उन्होंने बताया था कि सन 1946 में पंडित नेहरू के सामने मुझे 'ए मेरे वतन के लोगो' गीत गाने का मौका मिला था। ये जानकर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। लेकिन, जब कार्यक्रम के दौरान गाना गाने के लिए मंच के पास पहुंची तो मुझे रोका गया और कहा गया कि वे इस गाने की बजाय दूसरा गाना गाएं। कल्याणपुर ने बताया था कि ए मेरे वतन लोगों मुझसे छीन लिया गया था यह मेरे लिेए बड़ा सदमा था। उन्हें यह बात आज भी चूभती है।
  एक समय जब किसी मामले में मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर में अनबन हुई तो इसका लाभ सुमन कल्याणपुर को मिला। रफ़ी के साथ गाए उनके अधिकांश गीत कामयाब हुए। दिल एक मंदिर है, तुझे प्यार करते हैं करते रहेंगे, अगर तेरी जलवानुमाई न होती, मुझे ये फूल न दे, बाद मुद्दत के ये घड़ी आई, ऐ जाने तमन्ना जाने बहारां, तुमने पुकारा और हम चले आए, अजहूं न आए बालमा, ठहरिए होश में आ लूं तो चले जाईएगा, पर्वतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है, ना ना करते प्यार तुम्हीं से कर बैठे, रहें ना रहें हम महका करेंगे, इतना है तुमसे प्यार मुझे मेरे राजदार और 'दिले बेताब को सीने से लगाना होगा' जैसे गीत उसी दौर में बने थे।
  उनके घर में कला और संगीत की तरफ सभी का झुकाव था। लेकिन, इतनी इजाजत नहीं थी कि सार्वजनिक तौर पर गाया जाए। पहली बार उन्हें 1952 में मुझे 'ऑल इंडिया रेडियो' पर गाने का मौका मिला। ये सुमन कल्याणपुर का पहला सार्वजनिक कार्यक्रम था! इसके बाद 1953 में उन्हें मराठी फिल्म 'शुची चांदनी' में गाने का मौका मिला। उन्हीं दिनों शेख मुख्तार फिल्म 'मंगू' बना रहे थे जिसके संगीतकार मोहम्मद शफी थे। मराठी गीतों  प्रभावित होकर ही उन्हें 'मंगू' में तीन गीत रिकॉर्ड करवाए थे। किन्तु, न जाने क्या हुआ और 'मंगू' संगीतकार को बदल दिया गया। मोहम्मद शफी की जगह ओपी नैयर आ गए। उन्होंने सुमन कल्याणपुर के तीन में से दो गीत हटा दिए और सिर्फ एक लोरी 'कोई पुकारे धीरे से तुझे' ही रखी। 'मंगू' के फौरन बाद उन्हें इस्मत चुगताई और शाहिद लतीफ की फिल्म 'दरवाजा' में नौशाद के साथ पाँच गीत गाने का मौका मिला। 1954 में ही उन्हें ओपी नैयर के संगीत निर्देशन में बनी फिल्म 'आरपार' के हिट गीत 'मोहब्बत कर लो, जी कर कर लो, अजी किसने रोका है' में रफी और गीता का साथ देने का मौका मिला था। सुमन के मुताबिक इस गीत में उनकी गाई एकाध पंक्ति को छोड़ दिया जाए तो उनकी हैसियत महज कोरस गायिका की सी रह गई थी।
  आज भी उनका नाम उन सुरीली गायिकाओं में होता है, जिन्होंने लता मंगेशकर के एकाधिकार के दौर में अपनी पहचान बनाई। इसके बावजूद उन्हें वो जगह कभी नहीं मिली, जिसकी वो हकदार थीं। शास्त्रीय गायन की समझ, मधुर आवाज़ और लम्बी रेंज जैसी सभी खासियतों के होते हुए भी सुमन कल्याणपुर को कभी लता मंगेशकर की परछाईं से मुक्त नहीं होने दिया गया। अपने करीब तीन दशक के अपने करियर में उन्होंने कई भाषाओँ में तीन हजार से ज्यादा फिल्मी-गैर फिल्मी गीत-ग़ज़ल गाए। बचपन से सुमन कल्याणपुर की पेंटिंग और संगीत में सुमन की हमेशा से दिलचस्पी थी। अपने पारिवारिक मित्र और पुणे की प्रभात फिल्म्स के संगीतकार पंडित 'केशवराव भोले' से गायन उन्होंने संगीत सीखा। उन्होंने गायन को महज़ शौकिया तौर पर सीखना शुरू किया था लेकिन धीरे धीरे इस तरफ उनकी गंभीरता बढ़ने लगी तो वो विधिवत रूप से 'उस्ताद खान अब्दुल रहमान खान' और 'गुरूजी मास्टर नवरंग' से संगीत की शिक्षा लेने लगीं।
  सत्तर के दशक में नए संगीत निर्देशकों और गायिकाओं के आने के साथ ही सुमन कल्याणपुर की व्यस्तताएं कम हो गेन। 1981 में बनी फिल्म 'नसीब' का 'रंग जमा के जाएंगे' उनका आखिरी रिलीज गीत साबित हुआ। सुमन के मुताबिक, फिल्म 'नसीब' के बाद मुझे गायन के मौके अगर मिले भी तो वो गीत या तो रिलीज ही नहीं हो पाए और अगर हुए भी तो उनमें से मेरी आवाज नदारद थी। गोविंदा की फिल्म 'लव 86' में मैंने एक सोलो और मोहम्मद अजीज के साथ एक युगलगीत गाया था। लेकिन, जब वो फिल्म और उसके रेकॉर्ड रिलीज हुए तो मेरी जगह कविता कृष्णमूर्ति ले चुकी थीं। कुछ ऐसा ही केतन देसाई की फिल्म 'अल्लारक्खा' में भी हुआ था जिसके संगीतकार अनु मलिक थे। सुमन कल्याणपुर को रसरंग (नासिक) का 'फाल्के पुरस्कार' (1961), सुर सिंगार संसद का 'मियां तानसेन पुरस्कार' (1965 और 1970), 'महाराष्ट्र राय फिल्म पुरस्कार' (1965 और 1966), 'गुजरात राय फिल्म पुरस्कार' (1970 से 1973 तक लगातार) जैसे करीब एक दर्जन पुरस्कार मिल चुके हैं। अब उन्हें मध्यप्रदेश सरकार ने भी वर्ष 2017 के लिए राष्ट्रीय लता मंगेशकर सम्मान देने की घोषणा की, जो उन्हें 6 फ़रवरी 2020 को लता मंगेशकर की जन्मस्थली इंदौर में दिया गया।
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