Sunday 3 February 2019

परदे पर नारी की आजादी का बदलता दौर


 - एकता शर्मा 

  हिंदी फिल्मों में फेमिनिज्म एक महत्वपूर्ण विषय है। इस पर पहले भी कई फिल्में बन चुकी है, जो हिंदी सिनेमा में आज भी मील के पत्थर याद की तरह जाती है। स्मिता पाटिल और शबाना आजमी अभिनीत फिल्म 'अर्थ' में नारी स्वतंत्रता का जो चित्रण है, वो अद्भुत है। फिल्म के क्लाइमैक्स पर शादीशुदा कुलभूषण खरबंदा अपनी प्रेमिका स्मिता पाटिल को छोड़कर वापस अपनी पहली पत्नी शबाना आजमी के पास पहुंचकर माफी मांगता है। शबाना आजमी उसको माफी देने से मना करती हैं और कहती हैं कि अगर मैं किसी मर्द के साथ इतने दिन गुजारकर तुम्हारे पास वापस आती तो क्या मुझे माफ कर देते! यहीं फिल्म खत्म हो जाती है। दरअसल, ये फिल्म नारी स्वतंत्रता का उत्सव है। बगैर किसी शोर शराबे या किसी गाली गलौच के इस फिल्म में बहुत कुछ कह दिया गया था। उस फिल्म की नायिका जितनी बोल्ड और बिंदास थी, वैसी 'वीरे दी वेडिंग' में बात नहीं है।
   'मदर इंडिया' से लगाकर लज्जा, क्वीन और उससे आगे 'सुई धागा' तक फिल्म की कहानी हर दौर में बदली है। वास्तव में यही वे फ़िल्में हैं, जो नारी प्रधान फिल्मों की नींव बनती है। हाल के दिनों में महिला प्रधान फिल्मों के सफल होने की संख्या बढ़ी है। समकालीन समय में हम 'क्वीन' को इसका मोड़ मान सकते है और फिर ये राह 'सुई धागा' तक पहुंची! 2014 में रिलीज हुई इस फिल्म में कंगना रनौट ने अपने अभिनय के बल पर सफलता पाई थी। 'क्वीन' के निर्माण पर करीब 13 करोड़ रुपए खर्च हुए और फिल्म ने सौ करोड़ से ज्यादा का बिजनेस किया था। श्रीदेवी अभिनीत फिल्म 'मॉम' भी सफल रही थी। उसने भी अपनी लागत से कई गुणा ज्यादा का बिजनेस किया था। इसी अभिनेत्री की 'इंग्लिश-विंग्लिश' को भी इसी फेहरिस्त में रखा जा सकता है। 'तनु वेड्स मनू' और इसी श्रृंखला की दूसरी फिल्म भी नारी प्रधान फिल्मों की श्रेणी में आती है।   

  सत्तर और अस्सी के दशक के दौर के आसपास बनने वाली फिल्मों का नैतिक स्तर बिल्कुल शून्य था। उनका मकसद ही मुनाफा कमाना था। ऐसी फिल्मों में नायिकाओं को जिसका सीधा संबंध ऐसी भूमिकाओं से रहता था, जो या तो भोली भाली स्त्री होती थी या नायकों को अपने हाव-भाव से लुभानेवाली नायिका। बाद में 1990 से लेकर 2000 तक के दौर में भी पुरुष प्रधान फिल्मों का दौर चला! बल्कि दो-चार साल आगे तक भी! लेकिन, अब नए लेखकों का दौर आया तो उन्होंने हिंदी फिल्मों में नारी की परंपरागत छवि को ध्वस्त करते हुए उसका एक नया रूप गढ़ा है।
   इस नए रूप में कई बार बदलाव भी देखने को मिले। लेकिन, वो ज्यादातर यथार्थ के करीब होती हैं। अगर 2011 में आई फिल्म 'डर्टी पिक्चर' को देखा जाए जो दक्षिण भारतीय फिल्मों की नायिका सिल्क स्मिता की जिंदगी पर बनी थी। इसमें तमाम मसालों और सेक्सी दृश्यों की भरमार के बावजूद यथार्थ बहुत ही खुरदरे रूप में मौजूद था। नायिका प्रधान फिल्मों की सफलता इस और भी संकेत देती है कि अगर कहानी अच्छी हो, उस कहानी का फिल्मांकन बेहतर हो तो उसकी सफलता को कोई रोक नहीं सकता! यह भी लगता है कि हिंदी दर्शकों की रुचि बदल रही है। ऐसी फिल्मों को यथार्थवादी फिल्मों से ज्यादा करने किया जाने लगा है।
  2016 में रिलीज हुई 'पिंक' को लें तो वो फिल्म अपनी कहानी और उसके बेहतरीन चित्रण की वजह से दर्शकों को पसंद आई। 23 करोड़ की लागत से बनी फिल्म ने 100 करोड़ से ज्यादा बिजनेस किया। इस तरह की फिल्मों की सफलता से यह उम्मीद जागी है, कि अगर हिंदी फिल्मों में नारी पात्रों का चित्रण यथार्थपरक तरीके से किया जाए, तो वो समाज पर असर भी डालेंगी और कारोबार भी अच्छा करेगी। इस दौर का अगला पड़ाव है 'सुई धागा' जिसने नारी के सामर्थ्य पुरुष के बराबर खड़ा कर दिया। 
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