Monday, 11 January 2021

सिनेमाघरों का कोई विकल्प खड़ा होगा?

   कोरोना संक्रमणकाल ने मनोरंजन की दुनिया को खतरे के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया। नई फ़िल्में सिनेमा हॉल में रिलीज किए बिना ओटीटी पर रिलीज की जा रही है। अगर यही फ़िल्में सिनेमाघर में रिलीज होती, तो उससे सिनेमाहॉल वाले और उससे जुड़े कई लोग कमाते! क्योंकि, एक फिल्म की रिलीज पर कई लोग आश्रित होते हैं। सबके हिस्से में कुछ न कुछ आता है! ओटीटी पर फिल्मों की रिलीज से सबका फ़ायदा शून्य हो गया। अगर बड़ी-बड़ी फिल्में इसी तरह 'अमेजॉन' या 'नेटफ्लिक्स' पर रिलीज होंगी, तो सबकी कमाई खत्म हो जाएगी और सिनेमा रिलीज के पूरे सिस्टम को धक्का लगेगा! ऐसा नहीं लगता कि अनजाने में ओटीटी सिनेमाघरों का नया विकल्प बन गया!
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- एकता शर्मा
 
   फिल्म को रिलीज करने का एक पूरा सिस्टम होता है। इसमें फिल्म के प्रोड्यूसर के अलावा फिल्म के डिस्ट्रीब्यूटर, बड़े शहरों से लेकर छोटे कस्बों के फिल्म एक्ज़िबिटर या सिनेमा हॉल मालिक, फिल्म पब्लिसिस्ट, फिल्म पीआर और इन सबसे जुड़े तमाम लोग शामिल होते हैं। इसके अलावा सिनेमाघरों का पूरा स्टॉफ और कई ऐसे लोग होते हैं, जो अप्रत्यक्ष रूप से फिल्म से अपना हिस्सा निकालते हैं। लेकिन, लॉक डाउन की वजह से इन सब लोगों की कमाई का जरिया खत्म हो गया। इस पूरे सिस्टम को कोरोना से बड़ा धक्का लगा है। नई फिल्मों को ओटीटी पर रिलीज करने से भी फिल्मों का रिलीज सिस्टम बुरी तरह प्रभावित हुआ। लॉक डाउन खत्म होने के बाद भी सिनेमाघरों को नई फिल्म लगाने की इजाजत नहीं मिली। कुछ दिनों तक तो सिनेमाघरों को पुरानी फिल्में ही चलानी पड़ रही है। क्योंकि, नई फिल्म रिलीज होने से भीड़ बढ़ेगी और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना मुश्किल हो जाएगा। हालांकि, समस्या यह है कि सिनेमाघर में पुरानी फिल्में देखने कौन आएगा?’ नई फिल्मों के प्रोड्यूसर की भी मजबूरी है, उसने फिल्म के लिए पैसा उधार ले रखा है और साथ में और भी खर्च हैं। ऐसे में अगर उनको ओटीटी से इस तरह फ़ायदा मिल रहा है, तो वे बेचकर निकल रहे हैं! उन्हें सिर्फ फायदे से मतलब है, लेकिन उससे पूरा सिस्टम प्रभावित हो रहा है। 
    ऑनलॉइन स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म आने से पहले फिल्म पहले थियेटर में रिलीज होती थी, तो निर्माताओं को उससे उसे लाभ मिलता था। फिर जब उसके टीवी या डिजिटल राइट्स बिकते थे, तो उसका अलग से पैसा बनता था। अब फिल्म को सीधे किसी ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर रिलीज करने से आशंका है, कि इससे वह कमाई भी नहीं हो पाएगी, जो वास्तव में होना थी। सिनेमा से जुड़े कुछ लोगों का मानना है कि किसी भी प्लेटफॉर्म पर आप फिल्में देख लें, लेकिन सिनेमाघरों का कोई विकल्प नहीं है। सिर्फ हिंदी ही नहीं दक्षिण भारतीय फ़िल्में ज्योतिका की पोंमगल वंथल, अदिति राव हैदरी की फिल्म सूफियम सुजातयम और कीर्ति सुरेश की फिल्म पेंगुइन भी सीधे अमेज़ॉन प्राइम पर रिलीज हुई या हो रही है। 
  सिनेमाघरों में फिल्मों की रिलीज से सबसे ज्यादा राजस्व पैदा होता है, बनिस्बत किसी अन्य माध्यम के! लेकिन, ये समस्या जल्दी खत्म नहीं होने वाली नहीं है। किसी प्रोड्यूसर की अपनी मजबूरी होगी कि उसे ऐसा करना पड़ा! हो सकता है कि उसे लगता हो कि वह रुक नहीं सकता, फिल्म पूरी होने के बाद भी यदि रिलीज नहीं हो रही तो उसे नुकसान हो रहा है! बड़े डायरेक्टर, एक्टर या कोई बड़ा प्रोड्यूसर इस बारे में लगता नहीं कि जल्दी नहीं सोचेंगे। क्योंकि, ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर उतना राजस्व पैदा नहीं हो सकता, जितना सिनेमाघरों में फिल्म को रिलीज करने से होता है। सिनेमाघरों को न तो दर्शक छोड़ने वाले हैं, न एक्टर और न डायरेक्टर-प्रोड्यूसर। किंतु, अभी ऐसे हालात नहीं  कोई इस बारे में सोच-विचार भी करे।  
   लॉक डाउन में सबसे पहले ओटीटी पर रिलीज होने वाली बड़ी फिल्म थी अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना कि 'गुलाबो सिताबो' जिसे औसत  सफलता मिली। उसे कितने लोगों ने देखा! रैपर बादशाह के नए गाने ‘गेंदा फूल’ को यूट्यूब पर 10 करोड़ से ज्यादा लोगों ने देखा! इतने दर्शकों ने 'गुलाबो सिताबो' नहीं देखी। ऐसे में जब फिल्म को डिजिटली रिलीज किया जाएगा, तो सफलता हमेशा संदिग्ध रहेगी। बड़ा पर्दा वह है, जहां जादू होता है, जहां स्टार जन्म लेते हैं। ओटीटी या वेब पर सितारों का जन्म नहीं होता। किसी नई फिल्म को देखने के लिए जब 500 लोग किसी सिनेमा घर के बाहर लाइन में लगे होते हैं, तब जाकर एक स्टार का जन्म होता है। टुकड़ों में फिल्म देखकर सोशल मीडिया पर उसकी समीक्षा करने से मकसद पूरा नहीं होता! 
   लोगों का मानना है कि आने वाला समय बहुत अनिश्चितता भरा है। ऐसी स्थितियाँ कब तक रहेंगी, कुछ कहा नहीं जा सकता! सवाल यह है कि इन स्थितियों में कोई प्रोड्यूसर कितने समय तक अपनी फिल्म को रोककर रखेगा? संक्रमण की यही अनिश्चितता रही, तो क्या दर्शक उतनी सहजता से सिनेमाघरों का रुख कर पाएंगे, जितनी सहजता से इस महामारी के आने से पहले किया करते थे? इस सवाल का जवाब फ़िलहाल मिलना मुश्किल है। लेकिन, ओटीटी के प्रति दर्शकों ने सिनेमा की दुनिया को खतरे में जरूर डाल दिया। सिनेमा के बाद टीवी और अब मोबाइल के स्क्रीन में फ़िल्में कैद हो गई!   
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'तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन' के गायक ने बंधन तोड़ लिया!

 स्मृति शेष :  एसपी बाला सुब्रह्मण्यम

- एकता शर्मा

   इस साल के बीतने से पहले बॉलीवुड से एक और बुरी खबर आई! मखमली आवाज के धनी एसपी बाला सुब्रह्मण्यम उर्फ़ एसपी को कोरोना महामारी ने हमसे छीन लिया। उन्होंने लम्बे समय तक इस बीमारी से संघर्ष किया। उनकी स्थिति में सुधार भी हो रहा था, पर अचानक सबकुछ ख़त्म हो गया। एक समय ऐसा भी आया जब बाला सुब्रह्मण्यम ने वीडियो जारी करके अपने चाहने वालों को जल्द ठीक होने की जानकारी दी! पर, शायद नियति को ये मंजूर नहीं था। 74 साल के एसपी बालासुब्रह्मण्यम ने हिंदी फिल्मों में अपनी गायिकी से अलग पहचान बनाई थी। आज वे नहीं हैं, पर उनके गाने आज भी हम सबके जहन में हैं। दक्षिण भारत के गायक एसपी बाला सुब्रह्मण्यम ने 16 भारतीय भाषाओं में 40 हजार से ज्यादा गाने गाए। उन्हें पद्मश्री (2001) और पद्मभूषण (2011) जैसे राष्ट्रीय सम्मानों सहित कई फ़िल्मी अवॉर्ड्स भी मिले। 
    तमिल, तेलुगु और कन्नड़ के गायक बाला सुब्रह्मण्यम दक्षिण भारत में पैदा हुए, पर उनका कहना था कि गाना गाने का सही भाव और प्रेरणा उन्हें हिंदी गानों से मिली! वे मोहम्मद रफी के बड़े प्रशंसक थे। एक कार्यक्रम में उन्होंने सोनू निगम को बताया था कि मैं साइकल से कॉलेज जाया करता था, तब रफ़ी साहब का गाना मेरे साथ होता था 'दीवाना हुआ मौसम।' बाला सुब्रह्मण्यम की हस्ती और हुनर हिंदी फिल्मों के दायरे से कहीं बड़ा है। इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने चार अलग-अलग भाषाओं में छ: नेशनल अवॉर्ड जीते थे। शुरुआती दिनों में बाला सुब्रह्मण्यम एक म्यूज़िकल ग्रुप में थे, जिसमें इलिया राजा भी हुआ करते थे। तब बाला सुब्रह्मण्यम और इलिया राजा को कोई जानता था। बाला सुब्रह्मण्यम न सिर्फ गायक थे, बल्कि एक हरफन मौला कलाकार और डबिंग आर्टिस्ट भी थे। 
    हिंदी में उन्होंने पहली बार कमल हसन के लिए 1981 में 'एक दूजे के लिए' गाया था। इस फिल्म के गानों ने उन्हें बेस्ट मेल सिंगर का नेशनल अवॉर्ड मिला था। गीत था 'तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन अंजाना।' सलमान खान के लिए उन्होंने 1989 में 'मैंने प्यार किया' से गाना शुरू किया और उनकी आवाज बन गए। इस फिल्म के सभी गाने बाला सुब्रह्मण्यम ने ही गाए थे, जो सुपरहिट हुए! उसके बाद उन्होंने सलमान के करियर के शुरुआती दिनों के सभी गाने गाए।  'मैंने प्यार किया' के बाद 'साजन' या फिर 'हम आपके हैं कौन' फ़िल्मों में भी सलमान को एसपी बाला सुब्रह्मण्यम ने ही आवाज दी। फिर इस अनोखे गायक ने हिंदी फिल्मों कई बड़े कलाकारों के लिए अपनी आवाज दी। 
     नई पीढ़ी के फिल्मों के शौकीन उनके नाम से भले वाकिफ न हों, पर उनके गाने ही उनकी पहचान हैं। चेन्नई एक्प्रेस का टाइटल गाना एसपी बाला सुब्रह्मण्यम ने ही गाया था। हिंदी सिनेमा को कई सुपर हिट गाने देने वाले इस गायक की लिस्ट में सच है मेरे यार ये', ओ मारिया, दिल दीवाना, कबूतर जा जा, आजा शाम होने आई, मेरे रंग में रंगने वाली, दीदी तेरा देवर दीवाना, पहला पहला प्यार है के अलावा 'रोजा' और 'जानेमन' जैसी कई फिल्मों के गाने हैं, जो उनकी याद दिलाएंगे। बाला सुब्रह्मण्यम ने दक्षिण में कमल हासन, रजनीकांत, एमजीआर से लगाकर हिंदी में सलमान और शाहरुख खान तक के लिए गाया। गुरुवार को उनकी हालत अचानक बिगड़ने पर सलमान खान ने उनके जल्द स्वस्थ होने की दुआ की थी। उन्होंने ट्वीट किया था, बाला सुब्रमण्यम सर, आप जल्द ठीक हों इसके लिए दिल की गहराइयों से पूरी ताकत और दुआएं देता हूं। आपने जो भी गाना मेरे लिए गाया उसे खास बनाने के लिए धन्यवाद! आपका दिल दीवाना हीरो प्रेम, लव यू सर। पर, दुःख की बात ये कि यह दुआ भी काम नहीं आई!
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चली गई सितारों को इशारों पर नचाने वाली 'मास्टर जी!'

- एकता शर्मा

   एक दौर वो था, जब दर्शक फिल्म के हीरो, हीरोइन, विलेन और कॉमेडियन का नाम देखकर फिल्म देखते थे। उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं था कि फिल्म का एक्शन डाइरेक्टर या कोरियोग्राफर कौन है। दरअसल, इसकी जरुरत भी महसूस नहीं की गई! लेकिन, फिर एक दौर ऐसा आया कि दर्शकों की रूचि फिल्म से जुड़े उन लोगों में भी बढ़ने लगी, जो परदे पीछे रहकर फिल्म का हिस्सा बने रहते थे। ऐसे महारथियों में कोरियोग्राफर सरोज खान भी एक थीं। उन्होंने कई हीरोइनों को परदे पर थिरकना सिखाया। माधुरी दीक्षित, श्रीदेवी, ऐश्वर्या रॉय के सभी बेहतरीन डांसों की डायरेक्टर सरोज खान ही रही!  
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   कोरियोग्राफर सरोज खान नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। ये नाम जहन में आते ही एक डांसर का चेहरा सामने आ जाता है। ऐसी डांसर का जिसने कई हीरोइनों को अपने इशारों पर नचाया। जिस माधुरी दीक्षित को आज धक्-धक् गर्ल के रूप में जाना जाता है, वो सरोज खान की ही डांसिग खोज है। 'एक-दो-तीन' डांसिंग स्टेप्स भी इसी कोरियोग्राफर की देन था। ये भी कहा जा सकता है कि माधुरी को नंबर वन तक पहुंचाने में सरोज खान की बड़ी भूमिका रही। माधुरी की प्रतिभा को सरोज ने ही पहचाना और उसे तराशकर हीरा बना दिया। श्रीदेवी का 'चांदनी' वाला गाना 'मेरे हाथों में नौ-नौ चूड़ियाँ हैं' भी इसी कोरियोग्राफर की रचना है। ऐश्वर्या रॉय 'ताल' और 'देवदास' में सरोज खान के इशारों पर ही थिरकी! लेकिन, अब सरोज खान नहीं रही। उन्होंने दुनिया से विदाई ले ली। वे 71 साल की थीं। उनके साथ ही फिल्म डांसिग का एक युग ही समाप्त हो गया, जिसने परदे पर हीरोइनों को नए ज़माने के डांस से परिचित करवाया। सरोज खान को 20 जून को सांस की परेशानी के चलते अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उनका कोविड टेस्ट भी हुआ, जो निगेटिव आया। उनकी तबियत संभल रही थी और अस्पताल से छुट्टी मिलने वाली थी, लेकिन अचानक उनकी तबियत बिगड़ी और उन्हें बचाया नहीं जा सका।
 
      उन्होंने माधुरी दीक्षित और श्रीदेवी जैसी नामचीन हीरोईनों को डांसिंग स्टेप्स सिखाई। लेकिन, बाद में किसी बात पर उनके श्रीदेवी से संबंध मधुर नहीं रहे। इस वजह से कई अच्छी फ़िल्में निकल गई थी। लेकिन, 'तेजाब' के माधुरी के डांस ने उन्हें लोकप्रियता दिलाई और वे दर्शकों की नजरों में चढ़ गईं! इसके बाद 'सैलाब' और 'अंजाम' ने उनको जो पहचान दी, जिसने कई बड़े कोरियोग्राफर्स को पीछे छोड़ दिया। अपने करीब 40 साल के डांसिंग करियर में सरोज खान ने कई सितारों को नचाया। उन्होंने 2 हज़ार से ज्यादा फिल्मों में गानों की कोरियोग्राफी की। उन्हें तीन बार कोरियोग्राफी को लेकर नेशनल अवॉर्ड भी मिले। 'देवदास' फिल्म के गाने 'डोला-रे-डोला' जो माधुरी और ऐश्वर्या पर फिल्माया गया था, जिस पर उन्हें कोरियोग्राफी का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। इससे पहले 'तेजाब' के आइटम सांग 'एक-दो-तीन' और 'जब वी मेट' के गाने 'ये इश्क ...' के लिए भी उन्हें नेशनल अवॉर्ड मिला। सरोज खान की अंतिम फिल्म करण जौहर की 'कलंक' थी, जिसमें सरोज खान ने माधुरी के लिए 'तबाह हो गए' गाना कोरियोग्राफ किया था।
  सरोज खान का वास्तविक नाम निर्मला नागपाल था। उनके पिता किशनचंद सद्दू सिंह और माँ नोनी सिंह देश के बंटवारे के बाद पाकिस्तान से भारत आ गए थे। सरोज को बचपन से ही एक्टिंग और डांस का शौक था। तीन साल की उम्र में सरोज ने बाल कलाकार के रूप में फिल्मों में काम शुरू किया। पहली फिल्म 'नजराना' थी, जिसमें सरोज ने श्यामा नाम की बच्ची की भूमिका की थी। इसके बाद सरोज खान ने डांस की दुनिया में कदम रखा और बैकग्राउंड डांस करना शुरू किया। उन्होंने बी.सोहनलाल से कोरियोग्राफर की शिक्षा ली। 1974 में उन्हें पहली बार 'गीता मेरा नाम' में अकेले काम मिला था। लेकिन, बहुत मेहनत के बाद भी उनके काम को लम्बे समय तक पहचाना नहीं गया। मिस्टर इंडिया, नगीना, चांदनी, तेजाब, थानेदार, बेटा, सैलाब और 'जब वी मेट' उनकी वे फ़िल्में रही जिसने उन्हें पहचान दी। बाद में उन्होंने अपने करियर में कई नए कोरियोग्राफर को जन्म दिया और एक पीढ़ी शुरू की।
   उनका वास्तविक नाम निर्मला नागपाल है, जिसके सरोज खान बनने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। उन्होंने अपने डांस गुरु बी. सोहनलाल से 13 साल की उम्र में शादी की। बताते हैं कि सरोज उन दिनों स्कूल में पढ़ती थी! तभी एक दिन सोहनलाल ने उनके गले में काला धागा बांध दिया और दोनों की शादी हो गई। दोनों की उम्र में 30 साल का अंतर था। सरोज खान से शादी के वक्त सोहनलाल ने अपनी पहली शादी की बात छुपाई थी। 1963 में सरोज खान के बेटे राजू खान के जन्म के समय उन्हें सोहनलाल की पहली शादी के बारे में जानकारी मिली। किंतु, सोहनलाल ने सरोज के बच्चों को अपना नाम देने से मना कर दिया। इसके बाद दोनों के बीच दूरियाँ बढ़ती गई! सरोज की एक बेटी कुकु भी हैं। सरोज ने दोनों बच्चों की परवरिश अकेले ही की। एक बार सरोज खान ने बताया था कि इस्लाम धर्म मैंने अपनी मर्जी अपनाया था। मुझ पर कोई दबाव नहीं था। इसलिए कि मुझे इस्लाम धर्म से प्रेरणा मिली।
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'जो आवाज फिल्म संगीत की पहचान बनी!'

 लता मंगेशकर : 91 वां जन्मदिन 






  संगीत का एक महत्वपूर्ण अंग है 'ताल।' इस शब्द को उलट दिया जाए तो जो शब्द बनता है, संगीत की शुरूआत उसी शब्द से होती है। संगीत के सारे सुर उस शब्द पर आकर थम जाते हैं, यह शब्द है 'लता।' भारत रत्न लता मंगेशकर को दुनिया में किसी परिचय की जरूरत ही नहीं है। आखिर चांद, सितारों, जमीन, आसमान, नदियों और सागरों की तरह शास्वत वस्तुएं किसी परिचय की मोहताज नहीं होती। संगीत की स्वरलहरियों और सात सुरों के संसार में लता ऐसी ही शास्वत शख्यियत है, जिनके कंठ से सरस्वती के सुर निकलते हैं।




- एकता शर्मा

   हिंदी सिनेमा के ट्रेजेडी किंग और विख्यातनाम कलाकार दिलीप कुमार ने लगभग चार दशक पहले 1974 में लंदन स्थित रायल एलबर्ट हाल में अपनी दिलकश आवाज में कहा था 'जिस तरह कि फूल की खुशबू या महक का कोई रंग नहीं होता, वह महज खुशबू होती है। जिस तरह बहते पानी के झरने या ठंडी हवा का कोई मुकाम, घर, गांव, देश या वतन नहीं होता। जिस उभरते सूरज या मासूम बच्चे की मुस्कान का कोई मजहब या भेदभाव नहीं होता, उसी तरह से कुदरत का एक करिश्मा है लता मंगेशकर।' तो दर्शकों से खचाखच भरे हाल में कई मिनटों तक तालियों की गडगडाहट गूंजती रही! वास्तव में दिलीप कुमार ने लता मंगेशकर का जो परिचय दिया वह न केवल उनकी सुरीली आवाज बल्कि उनके सौम्य व्यक्तित्व का सच्चा इजहार है।
   1974 से 1991 तक दुनिया में सबसे ज्यादा गीत गाकर 'गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड' में अपना नाम शुमार कराने वाली लता मंगेशकर ने सभी भारतीय भाषाओं में अपने सुर बिखेरें हैं। यदि  भारतीय फिल्मी गायक-गायिकाओं में कोई नाम सबसे ज्यादा सम्मान से लिया जाता है, तो वह है सिर्फ और सिर्फ लता मंगेशकर। 28 सितम्बर 1929 को मध्य प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी इंदौर मे जन्मी लता को गायन कला विरासत में मिली। उनके पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर शास्त्रीय गायक तथा थिएटर कलाकार थे। यदि दीनानाथ मंगेशकर के नाटक 'भावबंधन' की नायिका का नाम लतिका न होता और उनके माता-पिता अपनी सबसे बड़ी बेटी को यह नाम नहीं देते, तो आज शायद हम उन्हें उनके बचपन के नाम हेमा हर्डिकर के नाम से जानते! लता का बचपन का नाम हेमा और सरनेम हर्डिकर था, जिसे बाद में उनके परिवार ने गोवा मे अपने गृह नगर मंगेशी के नाम पर मंगेशकर रखा और आज इसी नाम लता मंगेशकर को सारी दुनिया जानती है और स्वरसामज्ञी सा सम्मान देती है।
     1942 में जब लताजी मात्र 13 साल की थी, उनके पिताजी की हृदय रोग से मृत्यु हो गई। तब अभिनेत्री नंदा के पिता और नवयुग चित्रपट कंपनी के मालिक मास्टर विनायक ने बतौर अभिनेत्री और गायिका लता मंगेशकर का करियर आरंभ करने में मदद की। वसंत जोगलेकर की मराठी फिल्म 'किती हसाळ' में 1942 में पहली बार सदाशिव राव नर्वेकर की संगीत रचना में गाए गीत 'नाचु या गडे, खेलू सारी मानी हाउस भारी' गाकर अपना करियर आरंभ करने वाली लता ने कभी पीछे मुड कर नहीं देखा! सत्तर सालों से वे हिन्दी फिल्म जगत की शीर्षस्थ और सर्वाधिक सम्मानित गायिका के रूप में विराजमान है। उस्ताद अमानत अली खान से हिन्दुस्तानी संगीत सीखकर उन्होंने 1946 में पहला हिन्दी गीत 'पा लागू कर जोरी' गाया। 1945 में 'बड़ी मां' में अभिनय के साथ लता ने 'माता तेरे चरणों में' भजन गाया।
   1947 में विभाजन के बाद जब उनके गुरू अमानत अली खान पाकिस्तान चले गए तो उन्होंने अमानत खान देवास वाले से शास्त्रीय संगीत सीखा। इस दौरान बड़े गुलाम अली खान के शिष्य पंडित तुलसीदास शर्मा ने भी उन्हें प्रशिक्षित किया और संगीतकार गुलाम हैदर ने उन्हें 1948 में 'मजबूर' फिल्म का गीत 'दिल मेरा तोडा' गवाया और अपने उर्दू के उच्चारण को सुधारने के लिए मास्टर शफी से बकायदा उर्दू का ज्ञान लिया। 1949 में जब कमाल अमरोही की फिल्म 'महल' में उन्होंने मधुबाला पर फिल्माया गीत 'आएगा आने वाला गाया' तो सारा देश उनकी आवाज से मंत्रमुग्ध हो गया। उसके बाद से हर फिल्म में लता का गाया गाना जरूरी माना जाने लगा।
   पचास के दशक में अनिल विश्वास के साथ अपना गायन आरंभ कर लताजी ने शंकर-जयकिशन, नौशाद, एसडी.बर्मन, पंडित हुस्नलाल भगतराम, सी. रामचन्द्र, हेमंत कुमार, सलिल चौधरी, खैयाम, रवि, सज्जाद हुसैन, रोशन, कल्याणजी-आनंदजी, वसंत देसाई, सुधीर फडके, उषा खन्ना, हंसराज और मदनमोहन के साथ स्वरलहरियां बिखेरी। साठ और सत्तर के दशक में लता ने चित्रगुप्त, आरडी बर्मन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, सोनिक ओमी जैसे नए संगीतकारों के साथ काम किया। उसके बाद उन्होंने राजेश रोशन, अनुमलिक, आनंद मिलिन्द, भूपेन हजारिका, ह्रदयनाथ मंगेशकर, शिवहरी, राम-लक्ष्मण, नदीम श्रवण, जतिन-ललित, उत्तम सिंह, एआर रहमान और आदेश श्रीवास्तव जैसे नए संगीतकारों को अपनी आवाज देकर फिल्मी दुनिया में स्थापित किया। जहां तक गायकों का सवाल है लता ने हर काल के हर छोटे बड़े गायकों की आवाज से आवाज मिलाकर श्रोताओं के कानों में रस घोला है।
लता पर हर शख्स फिदा
   लता मंगेशकर की आवाज में यदि शहद सी मिठास है तो चंदन सी महक भी है। यदि उनमें चांदनी सी चमक है तो भक्ति संगीत की पवित्रता और बाल सुलभ सादगी और सरलता भी है। उनकी आवाज की एक खासियत यह भी है कि यदि आंखें मूंदकर लताजी के गीतों को सुना जाए तो सहज अंदाज लगाया जा सकता है कि पर्दे पर यह गीत किस पर फिल्माया जा रहा है। अपने उम्र के इस पडाव में जब वह माधुरी, काजोल या किसी नर्ह तारिका के लिए गाती हैं, तो ऐसा लगता नहीं कि यह आवाज किसी परिपक्व गायिका की है। बल्कि, ऐसा लगता है जैसे कोई सोलह बरस की अल्हड युवती गा रही है। उनकी आवाज की इसी खासियत की वजह से पिछले सत्तर बरसों से वह लगभग सभी नायिकाओं को अपने सुरो से अलंकृत कर चुकी है और उनकी इसी अदा पर हर शख्स उन पर फिदा है।
   वैसे तो हर गायक या गायिका का किसी खास संगीतकार से तालमेल ज्यादा बेहतर होता है। वे उसके लिए बेहतरीन गायन करते हैं। लेकिन, लता ने सभी संगीतकारों के साथ उम्दा और बेहद उम्दा ही गाया। यह बात जरुर है कि संगीतकार मदनमोहन और सी. रामचन्द्र के साथ उनकी खास पटती थी। मदनमोहन की फिल्म 'अनपढ़' के गीत 'आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे' सुनकर संगीतकार नौशाद ने मदनमोहन को फोन करके कहा कि आपके इस गीत पर मेरा सारा संगीत कुर्बान है! ऐसी ही एक रोचक बात यह भी सुनी जाती थी कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकारअली भुट्टो ने कहा था कि एक लता हमें दे दो और पूरा पाकिस्तान ले लो! हालांकि, इस बात में कोई सच्चाई होगी, मानना मुश्किल है। क्योंकि, यह वही लता है जिसने 27 जून 1963 को  नई दिल्ली में 'ऐ मेरे वतन के लोगों' गाकर पंडित नेहरू को रूला दिया था।
हर शैली में हीरे सी चमक
   लता मंगेशकर ने हर शैली के गीतों में अपनी सुरीली आवाज से प्राण फूंके हैं। सलील चौधरी के संगीत से सजी 'मधुमती' में जब वे 'आ जा रे परदेसी' गाती हैं, तो लगता है जन्मों से कोई विरहन अपने प्रेमी के इंतजार में तड़फकर उसे पुकार रही है। शंकर-जयकिशन की धुन पर जब वे 'चोरी-चोरी' में 'पंछी बनूं उडती फिरूं मस्त गगन में' गाती हैं तो सुनने वालों को ऐसा लगता है जैसे लताजी की आवाज को पर मिल गए हों! इसी फिल्म के गीत 'ये रात भीगी भीगी' और 'आ जा सनम मधुर चांदनी में हमतुम मिले तो' सुनकर ऐसा लगता है जैसे उन्होंने अपनी आवाज में सारे जहां की रूमानियत उडेंल दी है! इसके साथ ही जब 'मुगले आजम' में उन्होंने 'प्यार किया तो डरना क्या' गाया तो शहंशाह के सामने अनारकली की बगावत के सुर सभी को सुनाई देने लगे। इसी फिल्म में जब 'मोहे पनघट पर नंदलाल छेड गयो रे' गाया तो श्रोताओं के मन भक्ति मे डूब गए। इसी तरह 1962 में संगीतकार जयदेव की संगीत रचना 'अल्लाह तेरो नाम' और 'प्रभु तेरो नाम' गाकर अपनी आवाज के समर्पण का जादू दिखाया।
आज भी बह रही है सुर गंगा
   वैसे तो वे आजकल गाती नहीं हैं, लेकिन कुछ साल पहले उन्होंने अपने जन्मदिन पर खुद का म्यूजिक एलबम निकालकर भजन प्रस्तुत किए। संजय लीला भंसाली की फिल्म 'रामलीला' में गाकर लताजी ने अपनी संगीत यात्रा के 71 साल पूरे कर लिए हैं। लेकिन, आज भी उनकी आवाज में कुदरत का वही आशीर्वाद और मां सरस्वती की वही अनुकम्पा विद्यमान है ।  
सम्मान और पुरस्कार  
   'भारत रत्न' सा सम्मानित लता मंगेशकर को 1969 में पद्मभूषण, 1999 में पद्म विभूषण, 1989 में दादा साहब फालके पुरस्कार, 1997 में महाराष्ट्र भूषण अवॉर्ड, 1999 में एनटीआर नेशनल अवार्ड, 2009 में एएनआर नेशनल अवार्ड, तीन बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, चार बार फिल्मफेयर पुरस्कार तथा 1993 में फिल्मफेयर लाइफटाइम एचीवमेंट पुरस्कार मिले। नई प्रतिभाओं को आगे लाने के लिए उन्होंने फिल्मफेयर पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया था। 1984 में मध्य प्रदेश सरकार ने उनके नाम से लता मंगेशकर अवार्ड आरंभ किया। 1992 में महाराष्ट्र सरकार ने भी उनके नाम से लता मंगेशकर अवार्ड आरंभ किया।
गायिका का साथ संगीतकार भी  
   बहुत कम लोग जानते हैं कि लता मंगेशकर एक अच्छी गायिका ही नहीं एक अच्छी संगीतकार और फिल्म निर्मात्री भी हैं। उन्होंने 1955 में पहली बार मराठी फिल्म 'राम राम पाव्हणे' में संगीत दिया। इसके बाद आनंद घन के छद्म नाम से मराठा टिटुका मेलवावा, मोहित्याची मंजुला, ताम्बादी माटी और साधी माणसे में संगीत दिया। इसके साथ ही 1953 मे मराठी फिल्म वाडाल, 1953 में सी. रामचन्द्र के साथ मिलकर हिन्दी फिल्म जहांगीर,1955 में कंचन और 1990 में 'लेकिन' फिल्म का निर्माण किया। फोटोग्राफी की शौकीन लता की गायकी की महक इतनी फैली कि 1999 में उनके नाम से एक परफ्यूम 'लता यू डि' प्रस्तुत किया गया था।
संगीत से संसद तक
  1999 में राज्यसभा के लिए मनोनीत लता मंगेशकर ने  बतौर सांसद न तो कभी वेतन लिया और न कोई भत्ता! यहां तक कि उन्होंने दिल्ली में सांसदों को मिलने वाला आवास तक नहीं लिया। संसद से दूर रहकर भी उन्होंने देश सेवा में हमेशा हाथ बंटाया! 2001 में 'भारत रत्न' जैसे सर्वोच्च सम्मान से नवाजी गई लताजी ने इसी साल अपने पिता के नाम से पुणे में 'मास्टर दीनानाथ मंगेशकर हास्पिटल बनवाया। 2005 में भारतीय डायमंड एक्सपोर्ट कंपनी 'एडोरा' के लिए स्वरांजलि नाम से ज्वेलरी कलेक्शन प्रस्तुत किया। इस कलेक्शन के पांच आभूषणों की नीलामी से मिले 105,000 पौंड उन्होंने 2005 को कश्मीर मे आए भूकम्प पीड़ितों के लिए दान कर दिया।
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Monday, 3 August 2020

परदे पर भाई-बहन का स्नेह और यादगार गीत

- एकता शर्मा



    फिल्मों में त्यौहार मनाने की अलग ही परंपरा है। ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के ज़माने से आज तक ये परंपरा निभाई जा रही है। परदे पर सबसे ज्यादा मनाया जाने वाला त्यौहार रहा है होली और सबसे कम दिवाली। इस बीच कई फिल्मों में करवा चौथ भी दर्शाया गया। लेकिन, फिल्मों में धीरे-धीरे राखी का त्यौहार फ़िल्मी कहानियों से गायब होता जा रहा है। जिस भी फिल्म में भाई-बहन का स्नेह दिखाया गया, उसमें राखी से जुड़ा कोई गाना भी रहा! करीब दो से अढ़ाई दशकों में बॉलीवुड ने पाश्चात्य सभ्यता की आगोश में भारतीय परंपराओं, तीज त्योहारों, पर्वों को मानो पर्दे से ओझल कर दिया है।
    परदे पर पर राखी का जिक्र सबसे पहले 1949 में प्रकाश पिक्चर्स की फिल्म 'राखी' से हुआ। शांति कुमार की इस फिल्म में कामिनी कौशल, करन दीवान, उल्हास, गोप आदि की भूमिकाएं थीं। इसके बाद 1959 में एलवी प्रसाद की फिल्म 'छोटी बहन' आई, जिसमें भाई-बहन के स्नेह के रिश्ते को परदे पर बड़ी शिद्दत से दिखाया गया था। फिल्म में बलराज साहनी ने भाई और नंदा ने बहन की भूमिका निभायी थी। लता मंगेशकर का गाया गीत 'भईया मेरे राखी के बंधन को निभाना' आज भी सुना जाता है।
    ए भीमसिंह ने 1962 में भी इस विषय को भुनाया और 'राखी' नाम से फिल्म बनाई। अशोक कुमार और वहीदा रहमान ने भाई-बहन की भूमिका निभाई थी।1976 में 'रक्षा बंधन' नाम से निर्माता केजी भट्ट ने शांतिलाल सोनी के निर्देशन में एक धार्मिक फिल्म बनाई जिसमें सचिन, सारिका तथा सत्यजीत ने मुख्य किरदार अदा किए थे। 1968 में भाई-बहन में सुनील दत्त और नूतन मुख्य भूमिकाओं में थे। इनके अलावा 'राखी-राखी' (1969), 'राखी और हथकड़ी' (1972), 'राखी और राइफल' (1976) तथा 'राखी की सौगंध' (1979) जैसी फ़िल्में बनी। फिल्मों के राखी गीतों ने भी कामयाबी के नए कीर्तिमान स्थापित किए। आज भी रक्षाबंधन पर्व आसपास गीत गुनगुनाए जाते हैं।
    1971 में आई देवआनंद की फिल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' में देव आनंद और जीनत अमान ने भाई-बहन के किरदार निभाए थे। फिल्म का गीत 'फूलों का तारों का सबका कहना है,. एक हजारों में मेरी बहना है!' आज भी सुना जाता है। फिल्म ;रेशम की डोरी' में सुमन कल्याणपुर का गाया 'बहना ने भाई की कलाई से प्यार बांधा है' आज भी खूब बजता है। मनोज कुमार अभिनीत फिल्म 'बेईमान' का 'ये राखी बंधन है ऐसा' और राजेश खन्ना अभिनीत 'सच्चा झूठा' का 'मेरी प्यारी बहनिया बनेगी दुल्हनियां' के सुनाई देते ही आँखों के आगे वो दृश्य उभर आता है। 'चंबल की कसम' का चंदा रे मेरे भइया से कहना, 'प्यारी बहना' का राखी के दिन, 'हम साथ साथ हैं' का 'छोटे छोटे भाईयों की बड़ी बहना, 'तिरंगा' का इसे समझो न रेशम का तार, 'रिश्ता कागज का' फिल्म का 'ये राखी की लाज तेरा भइया निभाएगा' गीत भी काफी लोकप्रिय हुए।
   'अनपढ़' और 'काजल' में भाई-बहन के प्रेम पर दो खूबसूरत गीत थे। इनमें..'अनपढ़' का माला सिन्हा पर फिल्माया गीत 'रंग बिरंगी राखी लेकर आई बहना' और 'काजल' में मीना कुमारी पर फिल्माया गीत 'मेरे भइया मेरे चंदा मेरे अनमोल रतन' फिल्माया गया था। विमल राय की फिल्म 'बंदिनी' में भी एक बेहद मार्मिक गीत था। जिसमें बहन अपने पिता से भाई को सावन में भेजने का अनुरोध करती है। 'अब के बरस भेज भइया को बाबुल सावन में दीजो बुलाय रे' बहन की व्यथा को बताने वाले इस गीत को भी आशा भौंसले ने गाया था। मेरी बहना ओ मेरी बहना (ढोंगी), चंदा रे मेरे भैया से कहना,बहना याद करे (चंबल की कसम), ये रक्षाबंधन सबसे बड़ा त्योहार है (हम बच्चे हिंदुस्तान के), ये राखी-राखी प्यार मोहब्बत की लाई हूं मेरे भैया (अनोखा इंसान)। लेकिन, अब ये गीत ही बचे हैं, जो फिल्मों में राखी के त्यौहार की याद दिलाते हैं।
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'मेरा जलवा जिसने देखा वो मेरा हो गया'

स्मृति शेष : कुमकुम

-एकता शर्मा
  जो दर्शक पुरानी फिल्मों के शौकीन हैं, उनके लिए अभिनेत्री कुमकुम जाना पहचाना नाम है! लेकिन, नई पीढ़ी के दर्शक उनसे अनजान थे। गुजरे ज़माने की इस जानी मानी अभिनेत्री कुमकुम ने 86 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया। वे लम्बे समय से बीमार थीं। अपने दो दशक लम्बे फिल्म करियर में उन्होंने 115 फिल्मों में काम किया। उन्हें ब्लैक एंड व्हाइट दौर की डांसिंग स्टार कहा जाता था। उन पर पिक्चराइज़ गीत ओ मोरा नादान बालमा न जाने दिल की बात, कभी आर कभी पार लागा तीरे नजर और 'मेरा जलवा जिसने देखा वो मेरा हो गया' जब भी सुनाई देते हैं, आँखों के आगे कुमकुम का चेहरा आ जाता है। आज लिंकिंग रोड को मुंबई का सबसे पॉश इलाक़ा कहा जाता है, कभी यहाँ कुमकुम का उनके ही नाम पर बंगला था। पर, वक़्त बदला और इस बंगले की जगह ऊँची बिल्डिंग ने ले ली। 
    कुमकुम अपने ज़माने की जानी-मानी अभिनेत्री थीं। उन्होंने उस दौर के करीब सभी बड़े कलाकारों के साथ काम किया। गुरुदत्त, राजकपूर, देवानंद, दिलीप कुमार और किशोर कुमार के साथ वे कई फिल्मों में दिखाई दीं। 'कुमकुम' मूलतः बिहार की रहने वाली थीं और उनका वास्तविक नाम जेब्बुनिसा था। कहा जाता है कि उनके पिता हुसैनाबाद के नवाब थे।फिल्मों में आने के बाद उन्होंने नाम बदलकर 'कुमकुम' रखा था। एक समय ऐसा था, जब इस एक्ट्रेस की अदाकारी का जादू चलता था। यही कारण था कि इस फिल्म इंडस्ट्री में अपनी अलग पहचान बनी। उन्हें पहला ब्रेक तो गुरुदत्त ने दिया था, पर वे बरसों तक रामानंद सागर की फिल्मों की स्थाई कलाकार बनी रहीं। इंडस्ट्री में कहा जाता था कि दोनों के बीच काफी नजदीकी रिश्ता था।
    कुमकुम को गुरुदत्त ने 'आर-पार' में पहली बार ब्रेक दिया था। वे फिल्म के गीत 'कभी आर कभी पार लागा तीरे नजर' को पहले जगदीप पर फिल्माया चाहते थे। पर, जब जगदीप ने इंकार किया तो गुरुदत्त ने एक महिला अभिनेत्री को खोजा और यहीं से 'कुमकुम' का परदे पर आगमन हुआ। कुमकुम ने बाद में गुरुदत्त की फिल्म 'प्यासा' में भी काम किया। कुमकुम को 50 और 60 के दशक की प्रसिद्ध अभिनेत्रियों में थी। उन्होंने मिस्टर एक्स इन बॉम्बे, मदर इंडिया, सन ऑफ इंडिया, कोहिनूर, उजाला, नया दौर, श्रीमान फंटूश, प्यासा, आर-पार और एक सपेरा एक लुटेरा जैसी सफल फिल्मों में काम किया। 1963 में पहली भोजपुरी फिल्म 'गंगा मैया तोहे पियारी चढ़ाईबो में भी कुमकुम ने काम किया था।
   वे नावेद जाफरी और जावेद जाफरी के पिता जगदीप की भी करीबी दोस्त रही थी। कुमकुम के न रहने की पहली सूचना भी जगदीप के बेटे नावेद ने ट्वीट करके दी। उन्होंने लिखा ‘हमने एक और हीरा खो दिया। मैं उन्हें तब से जानता था जब मैं एक बच्चा था। वो एक परिवार थी। बेहद शानदार अदाकारा और बेहतरीन इंसान। कुमकुम आंटी आपकी आत्मा को शांति मिले।’ जॉनी वॉकर के बेटे नासिर ने भी उन्हें याद करते हुए ट्वीट करते हुए याद किया कि 'ये है बॉम्बे मेरी जान' गाने में वे मेरे पिता के साथ दिखाई दी थीं।
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शोले के 'सूरमा भोपाली' को कोई कैसे भूलेगा!

- एकता शर्मा

    इस साल फिल्म इंडस्ट्री से अच्छी ख़बरें नहीं मिल रही! एक तरफ कोरोना के कारण पूरी इंडस्ट्री बंद है, दूसरी तरफ दुखद ख़बरों का सिलसिला जारी है। बीते तीन महीने में पांच बड़ी फ़िल्मी हस्तियों ने दर्शकों को अलविदा कह दिया। अप्रैल महीने में इरफान खान और ऋषि कपूर, इसके बाद जून के महीने में सुशांतसिंह राजपूत ने आत्महत्या कर ली। इसी महीने पहले सरोज खान का निधन हो गया था और अब जाने-माने कॉमेडियन जगदीप हमसे विदा हो गए! जगदीप हिंदी फिल्मों के लोकप्रिय कॉमेडियन थे। बुधवार को मुंबई में उनका निधन हो गया। वे 81 साल के थे और लम्बे समय से बीमार चल रहे थे। जगदीप उनका फ़िल्मी नाम था। उनका वास्तविक नाम तो सैयद इश्तियाक जाफरी था और उनका जन्म मध्यप्रदेश के दतिया में हुआ था। फिल्म 'हम पंछी एक डाल के' में उनके काम को लोगों ने काफी सराहा था और देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी जगदीप के अभिनय की तारीफ की थी।  
   अपने फ़िल्मी करियर में जगदीप ने कितनी फिल्मों में काम किया, इसका आंकड़ा खुद जगदीप को भी शायद नहीं पता था। उन्होंने परदे पर कई तरह के किरदार निभाए। लेकिन, उन्हें असल पहचान कॉमेडी से ही मिली। उनका सबसे ज्यादा चर्चित किरदार फिल्म 'शोले' का सूरमा भोपाली वाला रहा! फ़िल्म में उनका काम तो 10 से 12 मिनट का ही था, लेकिन अपनी अदाकारी से उन्होंने इसे जीवंत किया था। फ़िल्मी दुनिया में ऐसे गिने चुने कलाकार ही हैं, जो अपने किरदार के रूप में जनता में पहचान बनाने में कामयाब हुए हैं। वो भी ऐसे कि असल जिंदगी में भी दर्शक उन्हें उसी किरदार के रूप में जानने लगते है। ऐसे ही उंगलियों पर गिने जाने वाले कलाकारों में सूरमा भोपाली यानी जगदीप भी थे। याद किया जाए 'तो 'शोले' के जिन दो कलाकारों को दर्शक आज भी उनके किरदारों के रूप में पहचानते हैं, उसमें एक थे गब्बर सिंह और दूसरे सूरमा भोपाली! जगदीप 2012 में फिल्म 'गली गली चोर है' में आखिरी बार दिखाई दिए थे। 
   जगदीप का जन्म 29 मार्च, 1939 को हुआ था। अपने 6 दशक के फिल्म करियर की शुरुआत उन्होंने 1951 में बीआर चोपड़ा की फिल्म 'अफसाना' में बाल कलाकार से की थी। 1953 में आई 'फुटपाथ' में पहली बार उन्हें 'जगदीप' नाम मिला। लेकिन, बतौर कॉमेडियन उन्होंने 'दो बीघा ज़मीन' में पहली बार काम किया। 1972 में आई फिल्म 'अपना देश' से उन्हें दर्शकों ने ठीक से पहचाना। फिर 'शोले' और 'अंदाज़ अपना-अपना' जगदीप की यादगार फ़िल्में रही। अब दिल्ली दूर नहीं, मुन्ना, आर-पार और 'हम पंछी एक डाल के' में भी वे नज़र आए। जगदीप ने क़रीब 400 फिल्मों में काम किया!
   उन्होंने रामसे ब्रदर्स की फिल्म 'पुराना मंदिर' में मच्छर के किरदार में दर्शकों का जबरदस्त मनोरंजन किया था! 'अंदाज अपना अपना' में सलमान खान के पिता बांकेलाल का किरदार आज भी दर्शक भूले नहीं हैं। फिरोज खान की फिल्म 'कुर्बानी' और अमिताभ बच्चन की 'शहंशाह' जैसी फिल्मों में भी वे  अदाकारी दिखा चुके हैं। उन्होंने एक फिल्म का निर्देशन भी किया, जिसका नाम ही 'सूरमा भोपाली' था। इस फिल्म का लीड किरदार भी उन्होंने खुद ही निभाया था। बेहतरीन डांसर और एक्टर जावेद जाफरी और टीवी प्रोड्यूसर नावेद जाफरी दोनों जगदीप के बेटे हैं।
बॉलीवुड दुखी   जगदीप ने निधन पर अजय देवगन ने ट्वीट कर उन्हें श्रद्धांजलि दी। उन्होंने लिखा 'जगदीप साहब के निधन के बारे में जानकर बहुत दुख हुआ। उन्हें स्क्रीन पर देखते हुए मैंने हमेशा एन्जॉय किया। वह ऑडियंस के लिए हमेशा खुशी लेकर आते थे। मेरी संवेदना जावेद और उनके परिवार के साथ है। जगदीप साहब की आत्मा के लिए प्रार्थना करें।' इसके अलावा डायरेक्टर हंसल मेहता ने भी जगदीप को श्रद्धांजलि दी है। उन्होंने लोगों से अपील है कि वे जगदीप की फिल्म मुस्कुराहट देखें। इसमें उनके परफॉर्मेंस का कोई सानी नहीं है। फिल्म डायरेक्टर मधुर भंडारकर ने ट्वीट किया कि 'हमारा सात दशकों तक मनोरंजन करने के बाद जगदीप साहब का निधन हो गया! काफी दुखद है! मेरी संवेदनाएं जावेद, नावेद और पूरे जाफरी परिवार के साथ है। अभिनेता अनुपम खेर ने भी उन्हें याद करते हुए श्रद्धंजलि अर्पित की। 
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