Sunday 28 April 2019

परदे पर संगीत का लोकरंग कभी कम नहीं हुआ!

-  एकता शर्मा

 फिल्म के कथानक और पृष्ठभूमि के अनुरूप गीतों की रचना की जाती है। जब से फ़िल्में बनना शुरू हुई, तब से अभी तक के दौर पर सरसरी नजर दौड़ाई जाए तो कई कालखंड ऐसे नजर आते हैं जब गीतकारों ने हिंदी, उर्दू और पंजाबी के अलावा कई और भाषाओं और बोलियों के शब्दों को भी अपने गीतों में जगह दी! 1981 में आई 'लावारिस' में अमिताभ बच्चन के कवि पिता हरिवंशराय बच्चन लिखे अवधी लोकगीत से प्रेरणा लेकर 'मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है' गीत रचा गया। ये गीत अपने दिलचस्प अंदाज के कारण बेहद लोकप्रिय भी हुआ। 
  यश चोपड़ा की फिल्म 'सिलसिला' के गीत आज भी याद किए जाते हैं। खासकर होली का वो लोकगीत 'रंग बरसे भीगे चुनर वाली' में पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोकगीतों का रंग हैं। मनोज कुमार की फिल्म 'क्रांति' के गीत 'चना ज़ोर गरम बाबू' पर भी लोकरंग का प्रभाव स्पष्ट दिखाई दिया था। राजश्री की फिल्म 'नदिया के पार' में पूर्वांचल के एक पारंपरिक ब्राह्मण परिवार का कथानक था तो वही प्रभाव गीतों में भी नजर आया। फिल्म के सभी गीत अवधी और भोजपुरी के लोकगीतों से प्रभावित थे। इस फिल्म के गीत कहीं न कहीं पूर्वाचल के लोकगीत साँस लेते सुनाई देते हैं।
  जेपी दत्ता तो 'गुलामी' में इससे भी आगे निकल गए। इस फिल्म के गीत ज़िहाल-ए-मिस्किन मुकन बरंजिश बेहाल ए हिजरा बेचारा दिल है' में फारसी के शब्दों को गुलज़ार ने खूबसूरत अंदाज़ में मिश्रित किया है। इस गीत में जिहाल का अर्थ है ध्यान देना, मिस्किन का अर्थ है गरीब, मुकन बरंजिश का अर्थ है से दुश्मनी न करना, बेहाल-ए-हिजरा का अर्थ है ताजा अलगाव। इसका हिन्दी में अर्थ है ये दिल जुदाई के गमों से अभी भी ताज़ा है, इसकी बेचारगी को निष्पक्षता से महसूस करो। गीत का पहला मुखड़ा हिन्दवी के पहले कवि अमीर खुसरो की मुकरी से लिया गया है। अमीर खुसरो ने फारसी में लिखा था- ज़िहाल-ए-मिस्किन मुकन तगाफुल दुराए नैना बताए बतियाँ किताब-ए-हिजरा नदारूमे जाँ, न लेहो काहे लगाए छतियाँ। आशय यह कि सुनने में जो अच्छा लगे, वही गीत अच्छा होता है, फिर वो किसी भी भाषा और बोली का क्यों न हो!
  'बहारों के सपने' फिल्म के गीतों आजा पिया तोहे प्यार दूँ, चुनरी सँभाल गोरी उड़ी चली जाए में ब्रज के लोकगीतों का प्रभाव महसूस किया जा सकता है। 'मिलन' के गीत सावन का महीना पवन करे सोर में भी गाँव के जीवन की निष्छलता दिखाई देती है। किशोर कुमार की 'पड़ोसन' के गीत इक चतुर नार तथा मेरे भोले बलम गीतों में लोकांचल को कौन महसूस नहीं करता! 'सरस्वती चंद्र' के मैं तो भूल चली बाबुल का देस और 'अनोखी रात' के गीत ओह रे ताल मिले नदी के जल में भी लोक जीवन की झलक है। राज कपूर की फिल्म 'मेरा नाम जोकर' के गाने अंग लग जा बलमा, ए भाई ज़रा देख के चलो, तीतर के दा आगे तीतर और 'सावन भादों' का कान में झुमका चाल में ठुमका में तो गाँव महकता है। 
  'हीर राँझा' फिल्म के गाने तेरे कूचे में तेरा दीवाना, डोली चढ़के, नाचे अंग वे गीतों में तो साफ़ पंजाब झलकता है। नितिन बोस की फिल्म 'गंगा जमना' के गीतों पर उत्तर प्रदेश और बिहार की बोलियों विशेषकर अवधी, भोजपुरी तथा ब्रज की छाप थी। नैना लड़ि जइहैं तो भइया, ना मानूँ ना मानूँ ना मानूँ रे, ढूँढो ढूँढो रे साजना, दो हंसों का जोड़ा, तोरा मन बड़ा पापी जैसे गीत से लोक जीवन से जुड़े थे। 
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