Sunday 28 April 2019

सारा देश राजनीति में मस्त, पर सिनेमा अभी अछूता!


- एकता शर्मा

   इन दिनों पूरे देश में राजनीति का बुखार चरम पर है! चुनाव का रंग लोगों के जीवन में पूरी तरह घुलमिल गया है! चारों तरफ बस राजनीति की बातें हो रही है। पर, भारतीयों के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण आयाम कहा जाने वाला सिनेमा हमेशा ही राजनीतिक फिल्मों से बचने की कोशिश करता रहा है। राजनेताओं के भाषण, उनके नखरे और मंसूबे ये सब भारतीय राजनीति को काफ़ी नाटकीय बनाते हैं। लेकिन, कमाल की बात ये कि इस नाटक को फिल्मों का विषय बनाने से फिल्म इंडस्ट्री हमेशा कतराती है! किसी फिल्मकार के पास इसका जवाब नहीं कि वे राजनीति पर फिल्म बनाने से बचते क्यों हैं? क्या इसलिए कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहे जाने के बाद भी, भारत में राजनीतिक सिनेमा विकसित नहीं हुआ। 
 शायद इसलिए कि हमारे यहाँ सेंसर बेहद संवेदनशील है। किसी ने एक राजनीतिक फ़िल्म बना भी ली, तो सेंसर उसके सामने कैंची लेकर खड़ा हो जाता है। क्योंकि, वे नहीं चाहते की किसी भी पार्टी या समुदाय के मकसद और उनके दृष्टिकोण को सिनेमा के परदे पर लाकर लोगों के विचारों को बदला जाए। मुद्दे का जवाब मुश्किल है, तो फिर क्या तरीक़ा है राजनीतिक फ़िल्में बनाने का? फिल्मकारों का मानना है कि ऐसी फ़िल्में बनाना तो आसान है, पर ऐसे सिनेमा बेचना मुश्किल है। कोई भी प्रोड्यूसर ऐसे विषय पर दांव लगाने से पहले सोचेगा! ऐसा सिर्फ़ हमारे यहाँ ही नहीं, पूरी दुनिया में है। ऐसे में एक रास्ता ये भी है कि अगर किसी को राजनीतिक फ़िल्में ही बनाना है, तो डाक्यूमेंट्री की तरह से बनाए! क्योंकि, पूर्ण फ़िल्म बनाने में जोखिम ज़्यादा है। 
  भारत में फ़िल्मकार का मतलब है, जो आपका मनोरंजन करें, नाच-गाने वाली फ़िल्में बनाए। लेकिन, फिल्मकार अपनी फ़िल्मों के ज़रिए कभी एक पार्टी या समाज की गतिविधियों पर टिप्पणी या राय नहीं दे सकता। कई सालों से फ़िल्मों का मतलब ही मनोरंजन करना है। फिर राजनीतिक फिल्मों को कैसे जगह मिले? कई भारतीय फ़िल्में राजनीतिक संवाद करने में सक्षम नहीं होते! हमारे यहाँ कुछ सीखने का ज़रिया है, तो वो सिनेमा ही है। 
   भारत में राजनीतिक फ़िल्म बनाने का मौका भी बहुत कम लोगों को मिलता है। एक फ़िल्म के साथ बहुत से लोग जुड़ते हैं और शायद उनमें से कुछ को इस शैली पर विश्वास नहीं है। राजनीतिक विषय पर लेख लिखना आसान है, नाटक करना आसान है पर फ़िल्म बनाना नहीं! ये थोड़ा मुश्किल है। भारत में लगभग 80 करोड़ वोटर हैं और राजनीतिक फ़िल्में सालों में एक-आध बनती है। जब तक सिनेमा पर से नाच-गाने वाली फ़िल्मों के दिन पूरे नहीं होते, तब तक निर्माताओं की राजनीति जैसे अहम मुद्दे पर फ़िल्म बनाने की इच्छा नहीं होगी। तब तक यह सवाल उठता रहेगा कि  राजनीतिक फ़िल्मों से भागता क्यों है बॉलीवुड?’
  सिनेमा देखने वालों का मकसद होता है कि वे अपनी परेशानियां भूलकर सपनों की दुनिया में चले जाएं। दर्शक कभी अपनी जिंदगी की उलझनों को परदे पर देखना नहीं देखना चाहते। यही कारण है कि राजनीतिक फ़िल्में कम ही बनती हैं! 'अपहरण' और 'राजनीति' जैसी फ़िल्में बनाने वाले प्रकाश झा ने जरूर राजनीति पर फ़िल्में बनाई, पर अपनी बात को दबाकर कही! दरअसल, प्रकाश झा की फ़िल्मों की लपट तो राजनीतिक होती है, पर कहानी इतनी साधारण होती है, कि उसे पकड़ा नहीं जा सकता! क्योंकि, मार्केट की मांग भी यही है।
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