Sunday 25 February 2018

ये है सामाजिक फिल्मों का नया दौर!


- एकता शर्मा 

 हिन्दी फिल्मों में सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर फिल्म बनाने का दौर लौट रहा है। 1960 के दशक में विमल रॉय और ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्में ज्यादातर सामाजिक समस्याओं पर आधारित होती थीं। इन मुद्दों को सावधानी से परदे पर पेश किया जाता था। आज फिर ऐसी ही कहानियों पर फिल्म बनाने की कोशिश हो रही है। विमल रॉय, ऋषिकेश मुखर्जी, राज कपूर जैसे फिल्म निर्माता जातिवाद, विधवा, कुंवारी मांओं समेत कई अन्य समाजिक विषयों पर फिल्म बनाते रहे हैं। दर्शक इन फिल्मों की सराहना करते थे, लेकिन बीच में एक दौर ऐसा आया कि ऐसी फिल्में बनना ही बंद हो गई! लेकिन, अब वो दौर फिर लौटा है, पर नए परिवेश में! आज बनने वाली बायोपिक को भी इसी दौर का एक हिस्सा माना जा सकता है। क्योंकि, ऐसी फ़िल्में भी समाज से कुछ कहती हैं।  
  फिल्मों का इतिहास उठाकर देखें, तो सामाजिक फिल्मों का एक लम्बा दौर रहा है। आजादी के बाद इस दौर ने जोर पकड़ा। वैसे तो यदा-कदा समाज सुधारकों और विचारकों पर भी धार्मिक और ऐतिहासिक फिल्मों के दौर पर भी फ़िल्में बनती रही, पर उसका नायक पूर्व स्थापित समाज सुधारक और विचारक का ही रोल निभाता था। दो आँखें बारह हाथ, जागृति, अछूत कन्या, बंदिनी जैसी फिल्मों का नायक (या नायिका) साधारण व्यक्ति होता था। इन सभी फिल्मों ने जनमानस की सोच मे बदलाव का काम भी किया।
  1957 में आई वी शांताराम की फिल्म 'दो आँखें बारह हाथ' को भी सामाजिक बदलाव के प्रतीक के रूप में याद किया जाता है। इस फिल्म के माध्यम से उन्होंने कुख्यात अपराधियों को सुधारने का एक अभिनव तरीका दिखाया था। इसी धारा पर 1960 में राजकपूर ने 'जिस देश में गंगा बहती है' बनाई थी। कहा तो ये भी जाता है कि इसी फिल्म की विचारधारा से प्रेरित होकर बाद में विनोबा भावे, वीपी सिंह तथा अन्य समाजसेवियों एवं नेताओं ने डाकुओं के आत्मसमर्पण का विचार सामने रखा। ये भी कहा जाता है कि जब किरण बेदी तिहाड़ जेल की मुखिया थी, तब उन्होंने कई खूंखार कैदियों को सुधारने के लिए वी शांताराम के ही मानवतावादी मनोविज्ञान फार्मूले आजमाए थे। 
    कुछ फिल्मों ने भारतीय सामाजिक मूल्यों एवं संस्कृति को स्थापित करने में तथा कुछ ने समाज में अपने दौर की उपजी समस्याओं पर कई सवाल खड़े किए है। 'पूरब-पश्चिम' में भारतीय संस्कृति के महत्व एवं सामाजिक चित्रण को दिखाया गया तो हाल के सालों में आई ‘फायर‘ में समलैंगिकता के बहाने समकालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति पर सवाल उठाया गया! वहीं एक तरफ जहां फिल्म ‘वाटर‘ के जरिए विधवाओं की दर्द एवं जीवन गाथा को लोगों के बीच पहुंचाने की कोशिश हुई, तो ‘संसार‘ एवं ‘खानदान‘ जैसी फिल्मों के जरिए संयुक्त परिवार के टूटते बिखरते मूल्यों से लोगों का सामना हुआ। 
   एक तरफ महिला स्वतंत्रता की वकालत करने वाली क्रांतिकारी फिल्म ‘परमा‘ ने परिवार संस्था को गलत ठहराते हुए भारतीय नारी की एक नई छवि गढने की कोशिश की है। कंगना रनौत की 'क्वीन' ने इसके आगे बढ़कर बात की। बैंडिट क्वीन, सत्या ने व्यावसायिक फिल्मों के छिछालेदर और समांतर फिल्मों के कलावाद से दूर असलियत का एक झकझोर देने वाला चेहरा प्रस्तुत किया था। अभी ये दौर ख़त्म नहीं हुआ है। आगे और देखिये क्या-क्या होता है!
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