Saturday 3 February 2018

क्या गालियों से ही झलकता है फिल्मों में समाज?

- एकता शर्मा 

  समाज शास्त्रियों मानना है कि सिनेमा समाज को दिशा देता है। उसमें जो दिखता है, समाज उससे बहुत कुछ सीखता है। इसलिए फिल्मकारों को फिल्म बनाते समय बेहद सावधानी बरतना चाहिए। क्योंकि, सिनेमा बनाने वालों की अहम् जिम्मेदारी होती है। लेकिन, ये कहने वाले भी कम नहीं हैं कि जो समाज में होता आया है, जो हो रहा है, और जो होगा, सिनेमा वही दिखाता है। जैसे की गालियाँ! समाज में गुस्से की अभियक्ति गालियों से होती है और ये हमारे जीवन का हिस्सा है। लोग रोजमर्रा की जिंदगी में बहुत गालियां बोलते हैं, तो फिर सिनेमा में गालियों को गलत क्यों समझा जाता है?
   गालियां आज आम लोगों की बातचीत का सहज हिस्सा बन गई है। वास्तविक सिनेमा दिखाने के लिए यह जरूरी है कि फिल्मकार उसे बोलचाल के वास्तविक तरीके से पेश करें। लेकिन, फिल्मों का समाज पर सीधा प्रभाव पड़ता है। देखा गया है कि अच्छा प्रभाव पड़े न पड़े, बुरा प्रभाव जल्दी पड़ता है! भले सिनेमा में समाज की सच्चाई दिखाई जाती है, लेकिन देश के किसी कोने के, किसी गांव के, किसी परिवार के, किसी एक व्यक्ति की, निजी जिंदगी की कहानी में पेश सच्चाई, जब बड़े परदे पर पूरा    समाज देखता है, तो उससे नकारात्मकता ज्यादा बढ़ती है। ऐसे में सिनेमा देखने वाले बच्चे भी वैसा ही करेंगे और मानेंगे भी कि ऐसा करने में       क्या गलती है? 
   आज का सिनेमा नए जमाने की नई सोच का कैनवास है, जो समाज में नई भाषा से बॉक्स ऑफिस पर सफलता के झंडे गाड़ रहा है। दुनियाभर में समय के साथ बदलाव होता रहा है। लेकिन, पिछले कुछ सालों में हिंदी सिनेमा में बहुत कुछ बदला! हीरो-हीरोइन अब पेड़ के इर्द-गिर्द चक्कर लगाकर प्रेम का इजहार नहीं करते। इमोशनल सीन अब आउट डेटेड हो गए और आंसू बहाना पुरानी फिल्मों की नक़ल माना जाता है। दर्शकों को भी अब कुछ खुला-खुला सा देखने की आदत हो चली है। इस खुलेपन का सीधा आशय फिल्मों भाषा से है जो असंसदीय हो चली है। सालों से समाज की असली तस्वीर पेश करने के नाम पर बोलचाल की भाषा का खुलकर प्रयोग करने के नाम पर गालियों का उपयोग किया जाने लगा है। समाज जब से खुलेपन को ज्यादा ही स्वीकारने लगा, तब से बोल्ड विषयों पर फिल्मों का भी बनना भी शुरू हो गया है। वैसे, गालियां पहले भी फिल्मों में सुनाई देती रही हैं। ‘बेंडिट क्वीन’ में तो गोलियां और गालियां दोनों ही जमकर सुनाई दी थीं। 
  उससे पहले नायिकाएं इस तरह के संवादों को बोलने में परहेज करती थीं। मगर, ‘इश्किया’ में विद्या बालन ने जमकर गालियां दी थी, तो ‘नो वन किल्ड जेसिका’ में रानी मुखर्जी ने अपनी छवि में बदलाव करते हुए खूब गालियां दी थीं। इस फिल्म में रानी मुखर्जी एक टीवी पत्रकार के रोल में थी, जो खूब गालियां बकती है। फिल्म ‘देल्ही बेली’ ने तो सारी सीमाएं ही तोड़ दीं थीं। पूरी फिल्म गाली-गलौज से भरी हुई है। 'गोलमाल' में भी करीना कपूर ने गालियों से मिलते- जुलते शब्द बोले थे। ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की तो पृष्ठभूमि ही गालियों वाली थी। इस तरह की फिल्मों में असलियत को दिखाने का दावा करते हुए गालियों का दिल खोल कर प्रदर्शन किया जाना आसान है। पर, क्या असली समाज गालियों के बगैर नहीं दिखाया जा सकता?
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