Monday 26 March 2018

अब क्यों नहीं बनती, गाँव पर फ़िल्में?

- एकता शर्मा 

 हिंदी फिल्मों में 'राजश्री' प्रोडक्शन को इसलिए याद किया जाता था कि बरसों तक उनकी फिल्मों में ग्रामीण जीवन सौंधी महक होती थी। गाँव की जिंदगी और वहाँ की लोकजीवन से सजी परंपराओं पर फ़िल्में बनाने के लिए पहचाने जाने वाला ये प्रोडक्शन हाउस भी अब बड़े परिवारों की कहानियों पर फ़िल्में बनाने लगा है! नदिया के पार, बालिका वधु और गीत गाता चल जैसी फ़िल्में बनाने वाली ये कंपनी भी गाँवों से शहर पहुँच गई! क्योंकि, सारा मामला व्यावसायिक है। ये किसी एक फिल्म प्रोडक्शन हाउस की बात  नहीं है। अधिकांश फिल्म बनाने वालों ने गाँव को भुला ही दिया। 
   1957 में आई 'मदर इंडिया' को वास्तविक ग्रामीण जीवन का आईना दिखाने वाली फिल्म कहा जाता है। निर्देशक महबूब खाँ की इस फिल्म को वास्तव में 'दो बीघा जमीन' का विस्तार कहा जाता है। साहूकार के शोषण से पिसते किसान परिवार की वेदना को जिस संवेदनशीलता से उन्होंने परदे पर चित्रित किया, उससे किसान की दमित आवाज़ जन-जन तक पहुँची। इस फिल्म में लोकधुनों पर आधारित गीत थे, जिन्हें आज भी लोग गुनगुनाते हैं। लेकिन, अब ऐसी फ़िल्में बनाने का साहस कौन करेगा?
   बीते कुछ सालों में ऐसी कोई फिल्म नहीं आई, जिसमें गाँव नजर आया हो? आमिर खान की फिल्म 'लगान' के बाद तो शायद ऐसी कोई फिल्म आई भी नहीं, जिसकी कहानी गाँव पर केंद्रित हो! 'पीपली लाइव' जरूर आई, पर उसमें किसानों के लिए बनी योजनाओं को बाबुओं और अफसरों द्वारा हड़पने का जिक्र ज्यादा था! 1980 में गोविन्द निहलानी ने गाँव पर केंद्रित फिल्म 'आक्रोश' आई थी। यह फिल्म एक लोमहर्षक सच्ची घटना पर बनी थी। कहानी लहनिया भीकू नाम के एक किसान की है, जो ज़मींदार के अत्याचारों से त्रस्त होता है। इसी दौर में डाकुओं पर भी फ़िल्में बनी उनमें भी गाँव था, अत्याचार था और डाकू बनने की एक संवेदनशील कहानी थी! 
  सर्वाधिक सफल फिल्म मानी जाने वाली रमेश सिप्पी की 'शोले' में रामगढ़ नाम के गाँव की ही कहानी थी! लेकिन, वास्तव में इस फिल्म से भी गाँव नदारद था। जो गाँव था वो डाकू गब्बर सिंह और बदले पर उतारू ठाकुर साहब के बीच कहीं गुम था। यहाँ तक कि फिल्म के गीतों में भी गाँव नहीं झलका! फिल्म में कोई लोकधुन सुनाई नहीं दी! गब्बर सिंह भी अपने अड्डे पर अरबी धुन वाला 'महबूबा ओ महबूबा' गाना सुनता है। इससे पहले जो फ़िल्में गाँव के जीवन पर बनी, उनमें एक अलग सी महक होती थी! गाँव हमारा-शहर तुम्हारा, दो बीघा जमीन, आक्रोश को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। 
    आज की कहानियों में तो काल्पनिक प्रेम और मौज मस्ती ही ज्यादा होती है। जबकि, सिनेमा का मकसद सिर्फ मनोरंजन नहीं है। सिनेमा समाज का आईना भी है। दर्शकों को सामाजिक समस्याओं और उनके निवारण की राह भी दिखाई जाना चाहिए। हमारे देश की 60 फीसदी आबादी गाँवों में रहती है। ऐसे में परदे पर गाँव का प्रतिनिधित्व घटता जा रहा है! शायद इसका एक कारण ये भी है कि हमारे गाँव भी अब बदलने लगे! वहाँ भी शहरी जीवन की चमक दिखाई देने लगी! जब हमारे गाँव ही नहीं रहेंगे, तो वहाँ की कहानियों पर फिल्म बनाने का साहस भला कौन करेगा? 
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