Monday 19 August 2019

खय्याम के साथ संगीत के स्वर्ण युग के अंतिम कड़ी टूटी!


- एकता शर्मा 

  संगीतकार ख़य्याम के साथ एक युग का अंत हो गया! हिंदी फिल्मों के जिस दौर को संगीत का गोल्डन युग कहा जाता है, उस दौर की वे अंतिम कड़ी थे। खय्याम के साथ ये कड़ी भी टूट गई! लेकिन, फिर भी हिंदी फिल्म संगीत को जिन संगीतकारों के नाम से जाना जाएगा, उनमें एक खय्याम भी होंगे! ख़य्याम ने दूसरों के मुकाबले बहुत कम संगीत दिया, पर जितना दिया है उसमें ज्यादातर फ़िल्में मील का पत्थर बनीं! किसी भी फिल्म या गीत के साथ कोई समझौता नहीं किया! कभी किसी की नक़ल नहीं की और न ट्रेंड के साथ बहे! 
  उनका नाम कुछ अटपटा सा था! इसके पीछे भी एक कारण रहा। एक बार एक इंटरव्यू में ज़िया सरहदी ने उनसे पूछा कि आपका पूरा नाम क्या है, इस पर खय्याम ने उन्हें बताया 'मोहम्मद ज़हूर ख़य्याम!' इस पर उन्होंने कहा कि अरे तुम 'ख़य्याम' नाम क्यों नहीं रखते! उस दिन से उनका नाम ख़य्याम हो गया! ये वही जिया सरहदी थे, जिनकी फिल्म 'फुटपाथ' (1952) में खय्याम ने संगीत दिया था। 1947 में जब उन्होंने अपना संगीत करियर शुरू किया था, तब उन्होंने करीब 5 साल 'शर्माजी' के नाम से संगीत दिया! वे रहमान के साथ जोड़ी बनाकर संगीत देते थे! आजादी के बाद संगीतकार रहमान पाकिस्तान चले गए तो उन्होंने मोहम्मद ज़हूर ख़य्याम नाम से संगीत दिया। 
   खय्याम को भी उस दौर के नौजवानों की तरह एक्टिंग का शौक था! वे केएल सहगल की तरह गायक और एक्टर बनना चाहते थे! इसी धुन में वे दिल्ली से अपने चाचा के पास मुंबई आ गए थे। घर में सभी नाराज़ हुए। परिवार वाले एक्टिंग के लिए तो तैयार नहीं हुए, पर ये मान गए कि वे मशहूर पं हुस्नलाल-भगतराम से संगीत की शिक्षा लेंगे! 1947 में खय्याम को पहली बार 'हीर रांझा' फिल्म में संगीत देने का मौका मिला। 1950 में मोहम्मद रफ़ी के फ़िल्म 'बीवी' के गाने 'अकेले में वो घबराते तो होंगे' से उनकी पहचान बनी! इसके बाद उन्होंने 'रोमियो जूलियट' जैसी फ़िल्मों में संगीत तो दिया ही था और गाना भी गाया! इसके बाद ख़य्याम का नाम चल पड़ा। 1953 में आई 'फ़ुटपाथ' से ये सिलसिला चल निकला। कभी-कभी, बाज़ार, उमराव जान, रज़िया सुल्तान जैसी फ़िल्मों में संगीत दिया।
   राजकपूर के साथ उन्होंने 'फिर सुबह होगी' फिल्म का संगीत दिया। इस फिल्म के मिलने की एक बड़ी वजह ये थी कि खय्याम ने उस उपन्यास 'क्राइम एंड पनिशमेंट' को पढ़ा थी, इसी पर वो फ़िल्म बनी थी। 1958 में 'फिर सुबह होगी' में मुकेश के साथ उनका गीत 'वो सुबह कभी तो आएगी' आज भी कानों में रस घोलता है। 1961 में 'शोला और शबनम' में रफ़ी के साथ 'जाने क्या ढूँढती रहती हैं ये आँखें मुझमें' गीत की रचना की तो 1966 की फ़िल्म 'आख़िरी ख़त' में लता के साथ 'बहारों मेरा जीवन भी सवारो' का संगीत बनाया! ये वो चंद गीत हैं, जो हिंदी फिल्म संगीत की विरासत हैं और ये खय्याम के नाम पर दर्ज है। 
   ख़य्याम ने 70 और 80 के दशक में कई बड़ी फिल्मों के लिए संगीत दिया। कभी-कभी, त्रिशूल, ख़ानदान, नूरी, थोड़ी सी बेवफ़ाई, दर्द, आहिस्ता आहिस्ता, दिल-ए-नादान, बाज़ार, रज़िया सुल्तान जैसी फ़िल्मों में एक से बढ़कर एक गाने दिए। ये उनके संगीत करियर का सुनहरा दौर था। ख़य्याम भले ही संगीत प्रेमियों से जुदा हो गए हों लेकिन बहुत सारे संगीत प्रेमियों के लिए वाक़ई उनसे बेहतर कहने वाला कोई नहीं होगा।1976 में 'कभी कभी' से खय्याम ने अपने करियर की नई पारी शुरू की थी। गायिका जगजीत कौर उनकी पत्नी थीं। कुछ साल पहले ख़्य्याम साहब और जगजीत कौर जी ने अपनी पूरी संपत्ति करीब दस करोड़ रुपए संघर्षरत कलाकारों के नाम दान कर दी थी। 
  आज बॉलीवुड की ज्यादातर फिल्मों में पंजाबी गाने होते हैं! इसकी शुरुआत का श्रेय भी ख़य्याम को जाता है! ‘कभी-कभी’ पंजाबी पृष्ठभूमि में बनी प्रेम त्रिकोण वाली फ़िल्म थी, जिसमें खय्याम ने संगीत दिया था। पंजाब की ढोलक की टाप, टप्पे, गिद्द्दा और भांगड़ा इस फिल्म के संगीत की खासियत थी। इस फ़िल्म का हर गाना हिट हुआ। इस फिल्म के गीत ‘कभी-कभी मेरे दिल में’ के लिए तो मुकेश को मरणोपरांत फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मिला था। ये वो फिल्म थी जिसने तीन दशक से संघर्ष कर रहे ख़य्याम को संगीतकारों के शिखर पर खड़ा कर दिया था। 1981 को उनके जीवन का श्रेष्ठ समय कहा जा सकता है, जब 'उमराव जान' रिलीज़ हुई थी। इस फिल्म के गानों ने उन्हें कालजयी बना दिया। शहरयार की ग़ज़लें, आशा भौंसले की आवाज और रेखा की एक्टिंग ने इस फिल्म के संगीत ने जादू किया था। खय्याम ने आशा भोंसले की आवाज़ को नया आयाम दिया। इसके बाद ‘बाज़ार’ में मीर तकी मीर की ग़ज़ल ‘दिखाई दिए यूं के बेख़ुद किया’ भी यादगार गीत रहा! 

खय्याम के संगीतबद्ध किए कुछ यादगार नगमे :
1. शाम-ए-ग़म की कसम (फ़िल्म- फ़ुटपाथ – 1953)
2. फिर ना कीजे मेरी गुस्ताख़ निगाही का गिला (फिर सुबह होगी – 1958)
3. जाने क्या ढूंढती रहती हैं ये आंखें मुझ में (फ़िल्म – शोला और शबनम 1961)
4. तुम अपना रंजो ग़म अपनी परेशानी (फ़िल्म – शगुन 1964)
5. बहारो, मेरा जीवन भी संवारो (फ़िल्म- आख़री ख़त 1966) 
6. कभी कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है (कभी कभी 1976)
7. हज़ार राहें, मुड़ के देखें (फ़िल्म – थोड़ी से बेवफ़ाई 1980)
8. दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए (फ़िल्म – उमराव जान 1981)
9. कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता (फ़िल्म – आहिस्ता आहिस्ता 1981)
10. दिखाई दिए क्यों (फ़िल्म – बाज़ार 1982) 
11. ऐ दिल-ए-नादां (फ़िल्म – रज़िया सुल्तान 1983)
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