Saturday 17 August 2019

सिर्फ याद करने की तारीख न रहे आजादी का ये दिन!

  देश का जनमानस उस तिथि या घटना को ही अक्षुण्ण बनाए रख पाता है, जिसमें आध्यात्मिकता का पुट हो! क्योंकि, एतिहासिकता में आध्यात्मिकता का भाव होना जरुरी है। अन्यथा, भारतीय जनमानस औपचारिकताओं में अपनी रुचि कम कर देता है। इसी भाव के कारण दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से राष्ट्रीय पर्वों पर आम जनमानस का उत्साह धार्मिक पर्वों के अवसर पर कम दिखाई देता है। हालांकि, आध्यात्मिकता के बिना एतिहासिक घटनाओं के प्रति जनमानस का अधूरापन दिखाना, जागरुक लोगों को बुरा लगता है। 
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- एकता शर्मा 

  क बार फिर 15 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस का दिन आ गया! एक ऐसा दिन जो हमारी और आपकी आजादी को याद दिलाता है। उस आजादी को जिसने हमें धर्म और कर्म के साथ हर वो आजादी दी जो किसी के भी सामाजिक जीवन के लिए जरुरी होती है। लेकिन, बढ़ते भ्रष्टाचार, अराजकता, बेरोजगारी और भुखमरी के कारण कई लोगों के लिए स्वतंत्रता दिवस का ये दिन भूली-बिसरी घटना हो गई है। आजादी को सात दशक बीत गए। आशय यह है कि हर परिवार की करीब चार पीढ़ियों ने इस आजाद देश में सांस ली होगी! पीढ़ी दर पीढ़ी एतिहासिक घटनाओं की स्मृतियां फीकी पड़ती जाती हैं। फिर एक समय ऐसा आता है जब उन्हें विस्मृत कर दिया जाता है। यदि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को हर वर्ष औपचारिक रूप से पूरे देश में नहीं मनाया जाए, तो शायद हम इन तारीखों को भी भूल चुके होते! औपचारिक रूप से मनाए जाने के बाद भी कुछ सालों बाद एक दिन यह स्थिति जरूर आएगी, जब इसे याद रखने वालों की संख्या भी कम हो जाएगी या फिर लोग इसे औपचारिकता मानकर इसमें अरुचि दिखाएंगे। 
   देखा गया है कि ऐतिहासिक स्मृतियों की आयु कम होने का कारण इनके भुला देने की आशंका ज्यादा रहती है। क्योंकि, दुनिया में लोगों की अन्य विषयों में लिप्तता इतनी रहती है कि उनमें सक्रियता का संचार नई एतिहासिक घटनाओं का सृजन करता है। लोगों की इसी सक्रियता के कारण जहां इतिहास दर इतिहास बनता है, वही उनको विस्मृत भी कर दिया जाता है। इतिहास गवाह है कि हर पीढ़ी उन्हीं घटनाओं से प्रभावित होती है, जो उसके सामने घटती हैं। पुरानी घटनाओं को नई पीढ़ी कम ही याद रखती है। इसके विपरीत जिन घटनाओं का अध्यात्मिक महत्व होता है, उन्हें सदियों तक जहन में संजोय रखा जाता है। हम अपने अध्यात्मिक स्वरूपों में भगवत् स्वरूप की अनुभूति करते हैं क्योंकि भगवान श्री विष्णु, श्री ब्रह्मा, श्री शिव, श्री राम, श्री कृष्ण तथा अन्य स्वरूपों की गाथाएं दृढ़ता से हमारे जनमानस में बसी हैं। कबीर, तुलसी, रहीम, और मीराबाई ने हमारे अंदर तक आंदोलित किया है। यही कारण है कि उनकी जगह ऐसी बनी कि वह हमारे इतिहास में भक्त स्वरूप हो गए। उनकी श्रेणी भगवान से कम नहीं बनी।
  हमारे देश के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अनेक महापुरुष हुए। उनके योगदान का इतिहास है, जिसे बरसों से पढ़ाया जा रहा है। हैरानी की बात है कि इनमें से अनेक भारतीय अध्यात्म से सराबोर होने के बावजूद भारतीय जनमानस में उनकी छवि भक्त या ज्ञानी के रूप में नहीं बन पाई। स्वतंत्रता संग्राम में उनकी सक्रिय छवि ने उनके अध्यात्मिक पक्ष को ढंक दिया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी अनेक लोग राजनीतिक संत कहते हैं, जबकि उन्होंने मानव जीवन को सहजता से जीने की कला सिखाई है। आज महात्मा गाँधी को भी इसलिए लोग भुला नहीं पाए, क्योंकि वे किसी न किसी रूप में हमारे चारों और मौजूद हैं। आध्यात्मिक दर्शन राष्ट्र या मातृभूमि को महत्व नहीं देता, ये बात नहीं है! श्रीकृष्ण ने तो महाभारत के युद्ध के समय अपने मित्र अर्जुन को राष्ट्रहित के लिए उसे धर्म के अनुसार निर्वाह करने का उपदेश दिया। दरअसल, क्षत्रिय कर्म का निर्वाह मनुष्य के हितों की रक्षा के लिए ही किया जाता है। यह जरूर है कि चाहे कोई भी धर्म हो या कर्म अध्यात्मिक ज्ञान होने पर ही पूर्णरूपेण उसका निर्वाह किया जा सकता है। 
    भारत और यूनान दुनिया के सबसे पुराने राष्ट्र माने जाते हैं। भारतीय इतिहास के अनुसार एक समय यहां के राजाओं के राज्य का विस्तार ईरान और तिब्बत तक था कि आज का भारत उनके सामने बहुत छोटा दिखाई देता है। ऐसे राजा ही चक्रवर्ती राजा कहलाए! यह इतिहास ही राष्ट्र के प्रति गौरव रखने का भाव अनेक लोगों में अन्य देशों के नागरिकों की राष्ट्र भक्ति दिखाने की प्रवृत्ति की अपेक्षा कम कर देता है। कई देशों के लोग इस देश के लोगों में कुछ ज्यादा ही राष्ट्र भक्ति होने की बात कहते हैं। इसलिए कि विदेशी शासकों ने यहाँ आक्रमण जरूर किया पर भारत की संस्कृति और सभ्यता अक्षुण्ण रही! आशय यह कि 15 अगस्त को देश ने केवल राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त की और कालांतर में वैसा ही महत्व माना भी गया!
  स्वतंत्रता के बाद देश के लोगों ने भारतीय अध्यात्मिकता को तिरस्कृत नहीं किया, उसके साथ पश्चिम से आए विचारों को भी अपनाया! उनको शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में जोड़ने की सदाशयता भी दिखाई। भारतियों ने विदेशी साहित्य को हिन्दी में अनुवाद करके विदेशी विद्वानों को कालजयी भी बनाया! इससे नुकसान ये हुआ कि धीमे-धीमे सांस्कृतिक विभ्रम की स्थिति बनी। अब तो यह स्थिति यह है कि कई नए विद्वान भारतीय आध्यात्मक के प्रति निरपेक्ष भाव रखना आधुनिकता समझते हैं! इसके बावजूद साढ़े छह दशकों में इतिहास की छवि भारत के अध्यात्मिक पक्ष को विलोपित नहीं कर सकी। इसका श्रेय उन महानुभावों को दिया जाना चाहिए, जिन्होंने निष्काम से जनमानस में अपने देश के पुराने ज्ञान की धारा को प्रवाहित रखने का प्रयास किया। यही कारण है कि 15 अगस्त और 26 जनवरी को मनाने तथा भीड़ को अपने साथ बनाए रखने के लिए तरह-तरह के प्रयास करने पड़ते हैं! जबकि, रामनवमी, जन्माष्टमी और महाशिवरात्रि को लोग स्वप्रेरणा से ही मनाते हैं। क्योंकि, इतिहास और आध्यात्मिक धाराएं अलग-अलग हो गई हैं, जो कि नहीं होना चाहिए!
 सबसे बड़ी बात यह है कि इस आजादी ने देश का औपचारिक रूप से बंटवारा कर दिया, जिसने देश के जनमानस को निराश किया है। कई लोगों को अपने घरबार छोड़कर शरणार्थी की तरह जीवन जीना पड़ा! शुरुआती दौर में विस्थापितों को लगा कि यह विभाजन क्षणिक है, पर कालांतर में जब उसके स्थाई होने की बात सामने आई तो उन पर से स्वतंत्रता का बुखार उतर गया! जो विस्थापित नहीं हुए उन्हें भी देश के इस बंटवारे का दुःख है। विभाजन के समय हुई हिंसा का इतिहास आज भी याद किया जाता है। यह सब भी विस्मृत हो जाता, अगर देश ने वैसा स्वरूप पाया होता जिसकी कल्पना आजादी के समय दिखाई गई थी!
  ऐसा न होने से निराशा होती है पर भारतीय अध्यात्मिक दर्शन इसे उबार लेता है। फिर जब हमारे अंदर यह भाव आता है कि भारत तो प्राचीन काल से है राजा बदलते रहे हैं! सीधे शब्दों में कहें तो देश का जनमानस उस तिथि या घटना को ही अक्षुण्ण बनाए रख पाता है, जिसमें आध्यात्मिकता का पुट हो! एतिहासिकता के साथ आध्यात्मिकता का भाव होना जरुरी है। अन्यथा, भारतीय जनमानस औपचारिकताओं में अपनी रुचि कम कर देता है। इसी भाव के कारण दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से राष्ट्रीय पर्वों पर आम जनमानस का उत्साह धार्मिक पर्वों के अवसर पर कम दिखाई देता है। हालांकि, आध्यात्मिकता के बिना एतिहासिक घटनाओं के प्रति जनमानस का अधूरापन दिखाना, जागरुक लोगों को बुरा लगता है। भविष्य में इस बात पर आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए कि 15 अगस्त और 26 जनवरी याद करने की तारीख भी न रह जाए!
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