Monday, 31 October 2016

परदे पर कम ही मनी दिवाली!

एकता शर्मा 

    हिंदी फिल्मों के कथानक में त्यौहारों को कुछ ख़ास ही महत्व दिया जाता है। फिल्मों में सबसे ज्यादा मनाई जाती है होली, जन्माष्टमी और ईद। हिंदूओं का सबसे बड़ा त्यौहार होते हुए भी कथानक में दिवाली का प्रसंग कम ही देखने को मिला! परदे पर दिवाली तभी दिखाई देती है, जब उसे फिल्म में कहीं पिरोया गया हो! दिवाली को लेकर कुछ फ़िल्में भी बनी, पर इनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक ही रही! 

  बदलती दुनिया में दिवाली मनाने का तरीका बदला और उसके साथ ही फिल्मों में भी यही बदलाव दिखाई दिया। दिवाली से जुड़े गीत और सीन अहम प्रसंग की तरह शामिल रहे। कई फिल्मों में महत्‍वपूर्ण दृश्‍य दिवाली की पृष्‍ठभूमि में भी फिल्‍माए गए। कई फिल्मों में गीतों माध्यम से दिवाली का उजियारा, खुशियां, भव्‍यता और सामूहिक परिवार की भावना स्‍पष्‍ट नज़र आई। ब्‍लैक एंड व्‍हाइट के दौर से लेकर आज की रंगीन फिल्‍मों तक में दिवाली केंद्रीय भाव की तरह कायम रही है, लेकिन ऐसा बहुत कम ही हुआ!  
   ज्ञात सिनेमा इतिहास के मुताबिक जयंत देसाई ने 1940 में 'दिवाली' नाम से पहली बार फिल्म बनाई थी! करीब पंद्रह साल बाद 1955 में बनी 'घर घर में दिवाली' बनी, जिसमें गजानन जागीरदार ने काम किया था। फिर एक लंबा अरसा गुजरा और 1965 में दीपक आशा की फिल्म 'दिवाली की रात' आई! आदित्य चोपड़ा ने 2000 में बनाई 'मोहब्बतें' के कथानक में दिवाली के जरिए फिल्म के पात्रों को एक जरूर किया, पर इसके आगे प्रसंग बदल गया था। 1998 में बनी कमल हासन की फिल्म 'चाची-420' में भी दिवाली का प्रसंग था, जब कमल हसन की बेटी पटाखे से घायल हो जाती है। विनोद मेहरा और मौशमी चटर्जी की 1972 में आई 'अनुराग' में भी दिवाली के कुछ दृश्य दिखाई दिए थे।
    अमिताभ बच्चन की सुपर हिट फिल्म 'जंजीर' जरूर ऐसी फिल्म है, जिसकी शुरुआत ही दिवाली से होती है। पटाखों के शोर में अजीत एक परिवार को ख़त्म कर देता है! लेकिन, एक बच्चा छुपकर सब देखता है और क्लाइमैक्स में वो अजीत से बदला ले लेता है। इसके अलावा कभी किसी फिल्म में दिवाली कभी कहानी से नहीं जोड़ी गई! जब से ओवरसीज में हिंदी सिनेमा के दर्शक बढे हैं, दिवाली जैसे त्यौहारों को फिल्मकारों ने सीमित कर दिया। कई फिल्मों में दिवाली को अहमियत भी दी गई, तो उन्हें गीतों तक ही! याद किया जाए तो वर्तमान दौर में शिर्डी के सांई बाबा, हम आपके हैं कौन, मुझे कुछ कहना है, मोहब्बतें, कभी खुशी कभी गम, आमदनी अठ्ठन्नी खर्चा रूपैया और चाची-420 ही ऐसी फिल्में रहीं! अमिताभ बच्चन ने अपनी फिल्म कंपनी एबीसीएल के तहत 2001 में 'हैप्पी दिवाली' बनाने की घोषणा की थी! इसमें अमिताभ के अलावा आमिर खान और रानी मुखर्जी भी थे! फिल्म की शूटिंग भी शुरू हुई, लेकिन बाद में किसी कारण से फिल्म लटक गई, तो फिर आगे ही नहीं बढ़ सकी!
  देखा गया है कि फिल्मकारों ने पिछले कुछ सालों से दिवाली के दृश्यों और गानों से किनारा ही कर लिया! एक तरह से कथानक से त्यौहार गायब ही हो गए।विषयवस्तु में भी बदलाव आता दिखाई देने लगा! दिवाली को पृष्ठभूमि  के कुछ गानों जरूर प्रसिद्धि मिली। गोविंदा की फिल्म 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया' का गाना 'आई है दिवाली ... सुनो जी घरवाली' दिवाली को ध्यान में रखकर बना था। 1961 में आई 'नज़राना' में भी लता मंगेशकर का गाया दिवाली गीत 'एक वो भी दिवाली थी,  दिवाली है' था। 1977 में आई मनोज कुमार की फिल्म 'शिर्डी के सांई बाबा' का दीवाली गीत 'दीपावली मनाये सुहानी' अब तक का सर्वाधिक लोकप्रिय दिवाली गीत माना जाता है। करण जौहर की 2001 में आई 'कभी खुशी कभी गम' का टाइटल गीत ही दीवाली पर केंद्रित था। ब्लैक एंड व्हाइट युग की फिल्म 'खजांची' के 'आई दीवाली आई, कैसी खुशहाली लाई' भी अनोखे अंदाज का दिवाली गीत था। 'पैग़ाम' में मोहम्‍मद रफ़ी का गाया और जॉनी वाकर पर फिल्माया दिवाली गीत वास्‍तव में यह कॉमेडी गाना था। इस सबके बावजूद दूसरे त्यौहारों मुकाबले सिनेमा के परदे पर दिवाली के पटाखे कम ही फूटते हैं।
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Tuesday, 25 October 2016

परदे से गायब किसान का दर्द!

- एकता शर्मा 

  हिंदी सिनेमा में भी किसान एक अहम विषय रहा है। इस पर कई फिल्में बनीं। रोटी, माँ, मदर इंडिया, दो बीघा जमीन, उपकार, खानदान और 'गंगा-जमुना' से लेकर 'लगान' तक सिनेमा में किसान की जिंदगी फिल्माई जाती रही हैं। लेकिन, जब से फिल्मों में कॉरपोरेट कल्चर का तड़का लगा है, 'पीपली लाइव' तक आते-आते किसान का दर्द भी फ़िल्मी मसाला बन गया! हिंदी सिनेमा में दशकों तक जमीन, किसान और मजदूर पर फिल्में बनती रहीं! लेकिन, आर्थिक उदारवाद के बाद हमारी जीवनशैली इतनी बदली कि गांव और किसान तो दूर, फिल्मों से दिवाली, होली जैसे त्यौहार भी गायब हो गए! 
     पचास और साठ के दशक में किसान और गांव की पृष्ठभूमि पर कई फ़िल्में बनी। ज्यादातर फिल्मों में साहूकार और उसके पाले हुए गुंडे पटकथा का स्थाई हिस्सा होते थे! कर्ज वसूलने के लिए ये किसान की फसलों में आग लगा देते थे। मजबूर किसान की बेटी को उठा ले जाते थे। लंबे समय तक यही पटकथा घुमा फिराकर फिल्माई जाती रही! महबूब खान द्वारा निर्देशित 'मदर इंडिया' तो एक औरत के किसानी संघर्ष और त्रासदी की महागाथा थी। इस फिल्म में गाँव की महाजनी सभ्यता की क्रूरता और अत्याचार से लड़ती औरत की मार्मिक कहानी कही गई थी। बाबूराव पेंटर की ‘साहूकारी पाश’ भी इसी तरह की ग्रामीण फिल्म थी! सत्यजित रे ने ‘पाथेर पांचाली’ बनाकर गांव और किसान के दर्द  दुनिया को दिखाया। ऋत्विक घटक की फिल्मों ने भी हाशिए पर बैठे किसानों के लिए कुछ ऐसा ही किया! बिमल राय ने भी ‘दो बीघा जमीन’ बनाई! महबूब खान से लेकर दिलीप कुमार, फिर नरगिस, राजकपूर, सुनील दत्त और मनोज कुमार, अमिताभ बच्चन ने भी गांव-किसान को महत्‍व दिया।   
   प्रेमचंद की कहानी 'हीरा-मोती' के माध्‍यम में भी किसान का दर्द बताने की पहल हुई थी। तब किसानों को साहूकारी पंजे में जकड़कर अपने ही खेतों पर बंधुआ बनाकर काम करवाना जमींदारी की पहचान बन चुकी थी। 'हीरा मोती' में फिल्मकार ने सामंती शोषण के इसी चक्र के खिलाफ आवाज उठाई थी। सआदत हसन मंटो की कहानी ‘किसान कन्या’ पर ख्वाजा अहमद अब्बास ने ‘धरती के लाल’ बनाई! बिमल राय की ‘दो बीघा जमीन’ भी सराही गई! 'गोदान' के बाद यदि किसानों की व्यथा कहीं अपने भयावह रूप में सामने आई, तो वह इस फिल्म में देखने को मिली थी। बलराज साहनी और निरूपा राय के बेहतरीन अभिनय ने इस फिल्म को और अधिक ऊँचाई दी थी। आज के दौर में आई अनुषा रिजवी की फिल्म 'पीपली लाइव' में विवश किसान की आत्महत्या को महिमा मंडित करने पर व्यंग्य था। मीडिया चैनलों, पत्रकारों तथा राजनेताओं की हास्यास्पद हरकतों पर ये तीखा व्यंग्य था। यह दिखाने की कोशिश की गई थी कि टीआरपी की होड़ में समाचार चैनल किस हद तक जा सकते हैं।  
  आशुतोष गोवारिकर की 'लगान' में विक्टोरिया युग के औपनिवेशिक भारत में जारी लगान प्रथा का कथानक था। इसके माध्यम से आशुतोष ने गुलाम भारत में लगान व्यवस्था से त्रस्त किसान की विवशता का चित्रण करने की कोशिश की थी। फिल्म के संवादों में अवधी, ब्रज तथा भोजपुरी का अद्भुत सम्मिश्रण था। 'मदर इंडिया' के बाद यह फिल्म ऑस्कर अवार्ड के लिए भारत से विदेशी फिल्म श्रेणी में भी नामित की गई थी।
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Sunday, 2 October 2016

'गरबा' और 'डांडिया' से ग्लैमर का तड़का

- एकता शर्मा 
  नवरात्रि में देवी प्रतिमा के सामने होने वाला गुजरात का परंपरागत लोक नृत्य 'गरबा' और 'डांडिया' कब फिल्मों के परदे पर पहुँच गया, पता ही नहीं चला! फिल्मों में इस चलन के बारे में कोई दावा तो नहीं किया जा सकता! पर, 70 के दशक तक की फिल्मों में ये कम ही दिखाई दिया! धार्मिक गीत तो ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों में भी होते थे, पर उसमें गरबा या डांडिया का तड़का बाद में लगा! 'सरस्वती चंद्र' का नूतन पर फिल्माया गीत 'मैं तो भूल चली बाबुल का देस' जरूर गरबे का रंग लिए था। दरअसल, परदे पर डांडिया या गरबा गीतों को भक्ति, मोहब्बत और ग्लैमर का प्रतीक माना जाता हैं। इस तरह के गीतों को फिल्माने में बड़े केनवस का इस्तेमाल होता है। सैकड़ों जूनियर डांसरों के बीच भारी-भरकम कपडे और गहने इसकी खासियत होते। लेकिन, ये न तो विशुद्ध डांडिया होता है, न गरबा! वास्तव में अधिकांश फिल्मों में इन दोनों नृत्य शैलियों का घुलामिला रूप होता है। 
   बॉलीवुड के हर बड़े एक्टर  एक्ट्रेस ने परदे पर डांडिया किया है! अमिताभ बच्चन और रेखा पर फिल्म 'सुहाग' में 'नाम रे सबसे बड़ा तेरा नाम' फिल्माया गया था। इसमें भक्ति के साथ फिल्म का अहम् मोड़ भी था! 'काई पो चे' का गीत 'परी हूँ मैं ...' भी गरबा पंडालों में सबसे ज्यादा बजने वाला गीत है। 'ब्राइड एंड प्रेज्यूडिस' में ऐश्वर्या रॉय 'डोला डोला ... ' पर थिरकी थी। 'मिर्च मसाला' फिल्म में भी गरबा शैली का एक डांस स्मिता पाटिल, दीप्ति नवल और सुप्रिया और रत्ना पाठक पर फिल्माया था। 'अवतार' में ‘चलो बुलावा आया है ...' का आज भी हर कोई दीवाना है। 'जय संतोषी माँ' के गीत 'मैं तो आरती उतारूं रे ... ' भक्‍तों की पहली पसंद है। ऐसे गीत दर्शकों की धार्मिक भावनाओं के लिए आइटम के तौर पर फिल्माए गए हैं। 
 आमिर खान ने भी 'लगान' में ग्रेसी सिंह के साथ गरबा शैली में 'राधा कैसे न जले ... ' पर गरबा किया था। यह गीत आमिर और ग्रेसी सिंह के बीच मनुहार का चित्रण था। आमिर खान तो 'लव लव लव' में जूही चावला के साथ 'डिस्को डांडिया ... ' पर थिरके थे। 'आप मुझे अच्छे लगाने लगे' में रितिक रोशन और अमीषा पटेल के साथ गरबा नृत्य पर थिरके थे। 'मैं प्रेम की दीवानी हूँ' में करीना कपूर स्टेज पर रितिक रोशन के लिए 'बनी बनी मैं तो बनी ... ' गीत पर गरबा करते हुए प्यार का इज़हार करती है। 'प्रतिकार' फिल्म के 'चिट्ठी मुझे लिखना ... ' गीत को डांडिया शैली में अनिल कपूर और माधुरी दीक्षित के साथ फिल्माया था।
  दक्षिण की कई फिल्मों में भी डांडिया और गरबा का मिला-जुला रूप दिखाई दिया! जबकि, उस इलाके में इस लोक नृत्य जानने वाले कम। 'कांधलर धिनम' (वैलेंटाइन डे) में गरबा और डांडिया था। इस फिल्म को हिंदी में 'दिल ही दिल में' नाम से डब करके रिलीज़ किया गया! इसमें 'चाँद उतर आया है ज़मीन पे गरबे की रात में' सोनाली बेंद्रे और कुणाल सिंह पर फिल्माया था। जबकि, संजय लीला भंसाली की फ़िल्में गुजराती पृष्टभूमि वाली होती हैं, इसलिए उनमें गरबा या डांडिया एक आइटम सॉंग जैसा होता है। 'हम दिल दे चुके सनम' के 'ढोली तारो ढोल बाजे' में सलमान खान और ऐश्वर्या राय के बीच का पनपते रोमांस को उभारा गया था! ' गोलियों की रासलीला : रामलीला' के 'नगाडा संग ढोल बाजे' में दीपिका पादुकोण के घेरदार लहंगे ने डांस को नया कलेवर दिया था। सलमान खान समेत बॉलीवुड के कई बड़े स्टार फिल्मों में डांडिया और गरबा तो कर चुके हैं।लेकिन, शाहरुख खान पर अभी तक गरबा या डांडिया शैली का कोई डांस नहीं फिल्माया गया! लेकिन, शायद आने वाली फिल्म 'रईस' में वे भी गरबा करते नज़र आएंगे। 
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Thursday, 29 September 2016

जो दर्शकों का गम भुला दे, वही फिल्म सफल!

- एकता शर्मा 

  दर्शकों की पैसा वसूल फिल्म कौनसी होती है? इस सवाल का सबसे सीधा जवाब है, वो फिल्में जो दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करे और उनके सारे गम 3 घंटे के लिए भुला दे! मतलब स्पष्ट है कि दर्शकों को कॉमेडी फ़िल्में ही सही और सार्थक मनोरंजन दे सकती है! यही कारण है कि जब भी कोई कॉमेडी फिल्म लगती है, दर्शक उसे हाथों हाथ लेते हैं। हॉउसफुल-3, ग्रेट ग्रैंड मस्ती और ए फ्लाइंग जट की सफलता इसी की निशानी है। देखा जाए तो हर तीन फिल्मों के बाद एक कॉमेडी फिल्म रिलीज होती ही है। हिंदी फिल्मों में एक दौर चलता है ट्रेंड का! जब कोई एक्शन फिल्म हिट होती है तो मारधाड़ वाली फिल्मों कि लाइन लग जाती है! प्रेम कहानी को दर्शक पसंद करते हैं तो यही दौर चल पड़ता है। लेकिन, कॉमेडी फ़िल्में ऐसी हैं, जिनका दौर कभी ख़त्म नहीं होता! बीच-बीच में जब भी कोई फिल्म हिट होती है, तो नई फिल्म का इंतजार शुरू हो जाता है। फिल्मों का इतिहास देखा जाए तो हर काल में कॉमेडी फ़िल्में ही सबसे ज्यादा पसंद की गई हैं। आज भी दर्शकों को ऐसी  फिल्मों का इंतजार होता है, जो उनके गम भुलाकर उन्हें तीन घंटे का स्वस्थ्य मनोरंजन दे सकें!  
     कॉमेडी कभी भी फिल्मों का मूल विषय नहीं रहा! ब्लैक एंड व्हाइट ज़माने से फिल्मों में कॉमेडियन एक ऐसा पात्र होता था, जो कहानी में सीन बदलनेभर लिए होता था। ये कभी फिल्म कि मूल कहानी से जुड़ा होता था, कभी अलग होता था! गोप, आगा और टुनटुन ऐसे ही कॉमेडियन थे! फिर आए, बदरुद्दीन उर्फ़ जॉनी वॉकर जिन्होंने अपनी कौम को नई पहचान दी और फिल्म में कॉमेडियन को अहम भूमिका में खड़ा कर दिया! लम्बे समय तक जॉनी वॉकर सिक्का चला! इसी दौर में किशोर कुमार ने भी 'चलती का नाम गाड़ी' और 'हाफ टिकट' जैसी फिल्मों से अपने जलवे दिखाए! लेकिन, फिर भी अच्छी कॉमेडी फ़िल्में आज भी उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं। कुछ फिल्मकारों ने जरूर अच्छी कॉमेडी फ़िल्में दी, जिन्हें आज भी दर्शक देखना पसंद करते हैं। सवाल उठता है कि अच्छी कॉमेडी फ़िल्म किसे कहा जाए? इसका एक ही जवाब है कि जिस फिल्म को हम अपनी ज़िन्दगी और उसकी उलझनों के जितना करीब पाते हैं, वही अच्छी कॉमेडी फिल्म होती है! एक दौर ऐसा भी आया जिसमें सेक्स को कॉमेडी फिल्मों का विषय बनाया जाने लगा! इंद्र कुमार ने 'ग्रैंड मस्ती' बनाकर इस विषय को छुआ! इस फिल्म बारे उनका दावा था कि ये हॉलीवुड की 'अमेरिकन पाई' और 'हैंगओवर' जैसी सेक्स कॉमेडी से आगे कि फिल्म है। लेकिन, अभी दर्शकों ने ऐसी फिल्मों के बारे में खुलकर राय नहीं दी है कि वे कॉमेडी में भी सेक्स कॉमेडी पसंद करेंगे या नहीं?
   याद कीजिए 1968 में आई 'पड़ोसन' को! ये ऐसी फिल्म थी, जिसे जितनी बार देखा जाए मन नहीं भरता! रोमांटिक कॉमेडी वाली ये फिल्म गंवार सुनील दत्त और मार्डन सायरा बानो के आसपास कॉमेडी के रंग बिखेरती है। 1972 में अमिताभ बच्चन की शुरूआती फिल्म 'बाम्बे टू गोआ' को भी फिल्में देखने वाले भूल नहीं पाते, जिसमें बस सफर में हास्य खोजा गया था! 1975 में बनी 'चुपके चुपके' भी ऐसी फिल्म थी, जिसमें अमिताभ बच्चन और धर्मेन्द्र ने कॉमेडी रिकॉर्ड बनाया था। इस फिल्म में नकली और बेढंगे हास्य के बजाए परिस्थितिजन्य से उपजा शिष्ट हास्य था। इस परम्परा को इसी साल आई 'छोटी सी बात' ने आगे बढ़ाया। दर्शकों को इस फिल्म में शिष्ट कॉमेडी नजर आई, जिसमें फूहड़ता और द्विअर्थी संवादों लिए कोई जगह नहीं थी! एक शर्मिला युवक अमोल पालेकर किस तरह अपनी सादगी से एक लड़की विद्या सिन्हा को प्रभावित करता है। इसी तरह का शिष्ट हास्य 1979 में आई फिल्म 'गोलमाल' में भी नजर आया! इसी को आधार बनाकर रोहित शेट्टी ने 'बोल बच्चन' बनाई, जिसने भी सराहा गया। कॉमेडी को नया रूप देने वाली 1981 में आई सईं परांजपे की फिल्म 'चश्मे बद्दूर' को भी भुलाया नहीं जा सकता। 2013 में इसी स्टोरी को नए कलाकारों के साथ डेविड धवन ने बनाया था। सई परांजपे की ही फिल्म 'कथा' ने अपने तरीके से खरगोश और कछुवे पुरानी कहानी को जिंदा किया था। 
  मनोरंजन का सही मतलब ये कॉमेडी फ़िल्में ही हैं, जिन्हें देखकर दर्शक अपना टाइम पास करता है। इंग्लिश फिल्म 'सेवन ब्राड फार सेवन ब्रदर्स' पर 1082 में बनी 'सत्ते पर सत्ता' फुल मनोरंजन का सबूत था। गुलजार की 'अंगूर' भी इसी के साथ आई, जिसमें संजीव कुमार और देवेन वर्मा की जोड़ी ने खूब गुदगुदाया था। इसी थीम पर ब्लैक एंड व्हाइट युग में किशोर कुमार 'दो दूनी चार' आ चुकी है। इस बात से इंकार नहीं कि समय और दर्शकों पसंद के मुताबिक कॉमेडी का रूप बदलता रहा, पर इनका मकसद हमेशा दर्शकों को गुदगुदाना ही होता है। 1983 में कुन्दन शाह ने 'जाने भी दो यारो' बनाई और दर्शकों को बांधे रखा! इसके एक सीन महाभारत का मंचन और क्लाइमेक्स में लाश की गड़बड़ को दर्शक आज भी नहीं भूले हैं। प्रकाश मेहरा ने 1986 में अनिल कपूर, अमृता सिंह को लेकर 'चमेली की शादी' में कॉमेडी का तालमेल बनाया था। अब ये जरुरी नहीं कि कॉमेडियन ही फिल्मों में  किरदार निभाएं! गोविंदा, संजय दत्त, आमिर खान, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र और सलमान जैसे बड़े कलाकारों ने भी कॉमेडी रोल करने मौका नहीं छोड़ा! कुली नंबर-1, मुन्नाभाई, अंदाज अपना अपना, हेराफेरी, गोलमाल और वेलकम सीरीज की फ़िल्में इसी का उदहारण है।  
  डेविड धवन और गोविंदा के नए दौर की कॉमेडी के लिए आज भी याद किया जाता है। द्विअर्थी संवाद के साथ डेविड और गोविंदा ने हास्य कि अलग ही दुनिया बनाई थी! 1995 में 'कुली नम्बर वन' में गोविन्दा के साथ शक्ति कपूर और कादर खान ने हंसी के फटाखे जमकर फोड़े थे। इसी साल 'दीवाना मस्ताना' में भी कादर खान, जानी लीवर और सतीश कौशिक ने दर्शकों को कुर्सी से खड़े होने पर मजबूर कर दिया था। प्रियदर्शन ने 2000 में आई 'हेराफेरी' से फिल्म की कॉमेडी धारा को पकड़ा जिसमें उन्होंने अक्षय और सुनील शेट्टी से कॉमेडी करवा ली! इस फिल्म में परेश रावल और ओमपुरी ने भी अपनी नई विधा का परिचय दिया। इसके बाद तो कॉमेडी फिल्मों की लाइन लग गई। 2001 में लव के लिए कुछ भी करेगा आई! लेकिन, 2003 में 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' से कॉमेडी पसंद करने वाले नए दर्शक सामने आए। 2005 में 'नो एण्ट्री' ने भी दर्शकों का खूब हंसाया! एक्शन फिल्मों के नामी डायरेक्टर रोहित शेट्टी का कॉमेडी बनाने में भी कोई जोड़ नहीं! उन्होंने 'गोलमाल' सीरीज से 2006, 2008 और 2010 में तीन फिल्में बनाई! तीनों फिल्में बॉक्स आफिस पर पैसा बटोरने में सफल रही। 
  2007 में आई 'धमाल' का नाम इस फिल्म की थीम बता देता है। इस साल 'भेजा फ्राय' ने भी कामेडी का एक नया रंग प्रस्तुत किया। लेकिन, 2009 में प्रदर्शित 'थ्री इडियटस' एक सोद्देश कॉमेडी फिल्म थी! इसी के साथ आई 'आल द बेस्ट' में संजय दत्त और अजय देवगन ने भी दर्शकों को खूब हंसाया। बात ये कि दर्शकों को पैसा वसूल मनोरंजन सिर्फ कॉमेडी फिल्मों से ही मिलता है। क्योंकि, फिल्म देखने का असल मकसद अपनी जिंदगी के दर्द को भूलना होता है,जो दर्शक सिर्फ कॉमेडी फिल्म में ही भूल पाता है। 
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जंगल के 'टाइगर' की तरह बॉलीवुड पर राज करता हीरो

 - एकता शर्मा 


  फ़िल्मी दुनिया में चढ़ते सूरज को अर्ध्य देने का चलन पुराना है। जब भी कोई नया सितारा जन्म देता है, उसकी आरती उतारना शुरू कर दी जाती है। आजकल पूरी इंडस्ट्री टाइगर श्रॉफ को हाथों हाथ ले रही है! उससे जुडी हर बात खबर बनने लगी! अपने ज़माने के सुपर हिट हीरो जैकी श्रॉफ के बेटे टाइगर की पहली फिल्म 'हीरोपंती' के हिट होने के बाद जब 'बागी' ने भी सफलता की पायदान चढ़ी, तो जैकी के घर के बाहर निर्माताओं की लाइन लग गई! अपने ख़ास तरह के डांस और एक्शन कारण नई पीढ़ी के दर्शकों ने टाइगर को हाथों हाथ लिया! 'बागी' में टाइगर ने जिस तरह की एक्शन के नज़ारे दिखाए उनमें एक नया जैकी देखा जाने लगा! 
  टाइगर एक बड़े अभिनेता के बेटे हैं, इसलिए उनका हीरो बनना तो तय था, पर उनसे कई दंतकथाएं भी जुडी हैं। कहा जाता है कि जब जैकी के घर बेटे का जन्म हुआ तो 'हीरो' के निर्देशक सुभाष घई उसे देखने पहुंचे थे! सुभाष घई ने पहली बार टाइगर को देखा और उसे एक सौ रुपए का नोट कहते हुए दिया कि यह साइनिंग अमाउंट है! तुम्हें मैं बतौर हीरो लांच करूंगा। लेकिन, जब टाइगर बड़े हुए और जब उन्होंने फिल्मों में अभिनय की रूचि दिखाई तो चर्चा चली कि सुभाष घई अपनी सुपरहिट फिल्म 'हीरो' का रिमेक टाइगर को लेकर ही बनाएंगे। लेकिन, ऐसा हुआ नहीं! टाइगर को साजिद नाडियाडवाला ने 'हीरोपंती' में लांच किया। 
  बॉलीवुड में जब टाइगर का पहली बार जिक्र हुआ तो लोगों को उनके नाम को लेकर आश्चर्य हुआ? सब बोले ये कैसा नाम? टाइगर ने इस बात का खुलासा एक इंटरव्यू में किया! उससे पूछा गया था कि क्या आपको कभी अपने नाम की वजह से शर्मिंदगी उठानी पड़ी? तो उन्होंने बड़े ही गर्व से कहा कि मेरे स्कूल में कोई दूसरा टाइगर नहीं था, इसलिए सबको मेरा नाम बहुत कूल लगता था! मैं चाहता हूं कि मैं अपने करियर को उसी ऊंचाई पर ले जाऊं, जहां बाकी टाइगर, जैसे गोल्फर टाइगर वुड्स और क्रिकेटर मंसूर अली खान पटौदी थे! मुझे ये नाम इसलिए मिला, क्योंकि बचपन में मैं लोगों को काटता और नोचता था! लेकिन, वास्तव में टाइगर का नाम हेमंत श्रॉफ है। टाइगर भले ही अपने जीवन में अपने नाम की वजह से शर्मिंदा न हुए हों, लेकिन अपने इस शानदार जवाब के लिए जो रिएक्शन्स सोशल मीडिया पर आए, उन्हें देखकर टाइगर जरूर शर्मिंदा हुए होंगे! लेकिन, टाइगर श्राॉफ को शर्मिंदा करना इतना भी आसान नहीं! क्योंकि, विलुप्त होने की कगार तक पहुंच चुके असल बाघों को बचाने के लिए रियल हीरो हैं! 
  टाइगर श्रॉफ ने अपनी पहली फिल्म से ही दर्शकों का और क्रिटिक्स का दिल जीत लिया। टाइगर को पहली फिल्म के लिए चार अवार्ड से नवाजा गया। जिनमें 'आइफा' का मेल डेब्यू अवॉर्ड भी शामिल है। उनकी सबसे ज्यादा रूचि बॉडी बनाने में है। टाइगर की रूचि इसी बात से नजर आती है कि फिल्म 'धूम-3' के दौरान टाइगर ने ही आमिर खान को उनकी बॉडी बनाने में मदद की थी। इस दौरान टाइगर और आमिर में काफी अच्छी बॉन्डिंग भी हो गई थीं। आमिर टाइगर की डेब्यू फिल्म को प्रोड्यूस भी करना चाहते थे, पर ऐसा नहीं हो सका! लेकिन, फिल्म का ट्रेलर आमिर खान ने ही लांच किया! टाइगर श्रॉफ एक्टिंग में आने से पहले मार्शल आर्ट्स और स्पोर्ट्स में रूचि रखते थे!
  टाइगर की नई फिल्म 'ए फ्लाइंग जट्ट' में सुपर हीरो का किरदार निभा रहे हैं। टाइगर का कहना है कि फिल्म इंडस्ट्री में कई सुपर हीरो हुए जैसे ‘कृष’ में ऋतिक रोशन, ‘रा-वन’ में शाहरुख खान और ‘शिवा के इंसाफ’ में उनके पिता जैकी श्रॉफ! इन सबको देखकर उन्हें लगता है कि उनकी जिम्मेदारी बढ़ गई है! क्योंकि, उनके पिता और ऋतिक के साथ अन्य लोग भी उनसे उम्मीद लगाए बैठे हैं, जिससे टाइगर काफी दबाव महसूस कर रहे हैं! ‘ए फ्लाइंग जट्ट’ में टाइगर में कॉमेडी और एक्शन के साथ सुपर हीरो का किरदार निभाया हैं। 
  'हीरोपंती' और 'बागी' के हिट होने के बाद टाइगर को बॉलीवुड के अलावा इंटरनेशनल फिल्मो के ऑफर मिलने लगे! हाल ही में टाइगर को जैकी चेन ने भी बुलावा भेजा है। लेकिन, टाइगर के पास अभी हॉलीवुड के प्रोजेक्ट्स के लिए भी समय नहीं है। टाइगर ने हाल ही में कोरियोग्राफर अहमद खान की वीडियो ‘चल वहां जाते हैं’ में कृति सेनन के साथ काम किया! इससे पहले वे आतिफ असलम के साथ ‘ज़िन्दगी आ रहा हूँ’ में भी काम कर चुके हैं। दोनों ही वीडियो बिज़नेस के लिहाज से कामयाब रहे। 
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बॉलीवुड में नहीं चलती हीरोइनों की दूसरी पारी

- एकता शर्मा 

  अभिनय एक ऐसा कारोबार है, जो तब तक मंदा नहीं पड़ता, जब तक दर्शकों का साथ मिलता रहता है! लेकिन, जैसे ही किसी हीरो या हेरोइन से दर्शकों का दिल उचाट हुआ, अभिनय का सारा कारोबार दरक जाता है। क्योंकि, बॉलीवुड अभी तक वो फार्मूला नहीं खोज पाया, जिसे अपनाकर फिल्म की सफलता का दावा किया जा सके! लेकिन, बॉलीवुड के जांबाज हीरो और हीरोइन भी उस मिट्टी के बने होते हैं, जो आसानी से हार नहीं मानते! उनकी एक पारी पूरी होती है, तो कुछ वक़्त बाद दूसरी पारी की तैयारी कर लेते हैं! ऐसे हीरो, हीरोइनें की लंबी लिस्ट है, जिन्होंने दूसरी पारी में किस्मत आजमाई! कुछ का सिक्का दूसरी बार में भी अच्छा चला! पर, ज्यादातर दूसरी पारी में कोई करिश्मा नहीं कर सके! अपनी दूसरी पारी में सर्वकालीन सफल अभिनेताओं में अमिताभ बच्चन अकेले हैं! अमिताभ पहली पारी में जितने सफल रहे, उससे कहीं ज्यादा सफलता उन्होंने दूसरी पारी में पाई! 
 याद करने पर भी कोई अभिनेत्री दूसरी पारी में बहुत ज्यादा सफलता नहीं पा सकी! फिर वो धक् धक् गर्ल माधुरी दीक्षित ही क्यों न हो! क्योंकि, हीरोइन की वापसी आसान नहीं होती! उम्र की ढलान का असर दर्शक भांप लेते हैं! वे बूढ़े हीरो को तो स्वीकार लेते हैं, पर बूढ़ी हीरोइन को परदे पर इश्क़ फरमाते देखना नहीं चाहते! बॉलीवुड में 35 प्लस की हीरोइन के लिए वैसे भी कोई पटकथा नहीं लिखी जाती! अधिकांश हीरोइनों की दूसरी पारी माँ या बहन  सीमित हो जाती हैं।  
  सौदागर, खामोशी, दिल से जैसी फिल्मों से पहचान बनाने वाली मनीषा कोइराला कैंसर से जंग लड़ने के बाद ‘डियर माया’ में दिखाई दी! पर, बात नहीं बनी! कपूर खानदान की करिश्मा की दूसरी पारी भी कमजोर साबित हुईं। छ: साल बाद करिश्मा ने विक्रम भट्ट की 'डेंजरस इश्क' जैसी फिल्म की! लेकिन, दर्शकों ने फिल्म को नकार दिया! सफलतम हीरोइन  वाली माधुरी दीक्षित की दूसरी पारी भी फीकी रही! 2007 में उन्होंने 'आजा नच ले' से वापसी की कोशिश की, लेकिन फिल्म नहीं चली! इसके बाद एक्शन फिल्म 'गुलाब गैंग' भी पानी नहीं माँगा! 'डेढ़ इश्किया' को दर्शक नहीं मिले! रेखा जैसी नामचीन एक्ट्रेस ने भी 'सुपर नानी' से वापसी की कोशिश की, लेकिन फिल्म ने पानी नहीं माँगा! 
  तब्बू भी काफी समय से इस इंतजार में थीं कि बॉलीवुड में उनकी दूसरी पारी शुरू हो! लेकिन, तब्बू का ये फैसला सही था कि उन्होंने हीरोइन के बजाय कैरेक्टर रोल को चुना! पहले 'हैदर' और उसके बाद तब्बू 'दृश्यम' में दिखाई दी और दोनों ही फिल्मों में उनके अभिनय को सराहा गया! श्रीदेवी को भी उस फेहरिस्त में रखा जा सकता है, जिनकी वापसी का दर्शकों ने स्वागत किया! 2012 में आई 'इंग्लिश विंग्लिश' सफल रही थी! फिल्म की पटकथा मजबूत थी और श्रीदेवी ने भी उस अधेड़ महिला का किरदार निभाया था, जो बेटियों  पर इंग्लिश सीखती है। इस फिल्म की सफलता के बाद भी श्रीदेवी ने दूसरी फिल्म की जल्दबाजी नहीं की! डिम्पल कपाड़िया दूसरी पारी को भी सफल कहा जा सकता है। रुदाली, लेकिन, बनारस जैसी फिल्मों से डिम्पल ने अपनी ग्लैमरस पहचान को पूरी तरह बदल डाला था! लेकिन, राजेश खन्ना की मौत के बाद से ही वे परदे से दूर हैं! डिंपल ने होमी अदजानिया की ही फिल्म 'कॉकटेल' की थी। फिल्म में डिंपल सैफ अली की माँ के रोल में थी! 'कॉकटेल' से पहले डिंपल ने होमी की एक फिल्म 'बीइंग सायरस' में भी काम किया था। 
  सलमान खान से साथ 'तेरे नाम' से अभिनय यात्रा शुरू करने वाली एक्ट्रेस भूमिका चावला कई सालों से बॉलीवुड से अलग रहीं! भूमिका ने 'तेरे नाम' में निर्झरा का किरदार निभाकर दर्शकों का जीता था! 2007 में उनकी आखिरी फिल्म 'गांधी माई फादर' रिलीज हुई थी। अब भूमिका 'एसएस धोनी' की बायोपिक फिल्म में धोनी की 'बहन' बनकर वापसी कर रही हैं। पीछे पलटकर देखा जाए तो पुराने दौर में हीरोइन का वापसी करना बेहद मुश्किल काम माना जाता था। वापसी होती थी तो मां के रोल में! वहीदा रहमान, नूतन, माला सिन्हा, शर्मीला टैगोर, सायरा बानू समेत कई हीरोइनों ने फिर परदे का रुख किया, पर हीरो या हीरोइन की माँ बनकर! हीरोईन बनने का साहस संभवतः सत्तर के दशक में अपने अभिनय से धूम मचाने वाली मुमताज ने किया था! 1990 में 'आंधियां' से वापसी की कोशिश की थी। लेकिन, इस फिल्म के पिटने के साथ ही उन हीरोइनों की वापसी के दरवाजे भी बंद हो गए, जो मुमताज की समकालीन थीं और वापसी की राह देख रही थीं।
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Sunday, 18 September 2016

अदालत की दहलीज पर औरत की अनंत पीड़ा

- एकता शर्मा 
  हमेशा ही अदालत, अस्पताल और पुलिस थाने से जहाँ तक हो सके बचकर रहने की सलाह दी जाती है। ये बात अपनी जगह इसलिए भी सही है! क्योंकि, ये तीन वो जगह होती है, जहाँ कोई भी अपनी मर्जी से नहीं जाता! मज़बूरी ही व्यक्ति को वहाँ ले जाती है। अस्पताल और पुलिस थाने की मज़बूरी अपनी जगह अलग है! लेकिन, अदालतों के चक्कर लगाना एक अलग तरह की मानसिक पीड़ा भोगने जैसा है। ये पीड़ा एक या दो बार की नहीं, कई बरसों की भी हो सकती है। लेकिन, जब यही पीड़ा किसी महिला को भोगना पड़े तो यंत्रणा कई गुना ज्यादा बढ़ जाती है। किसी घरेलू महिला का अदालत की सीढ़ियाँ चढ़ना बेहद पीड़ादायक क्षण होता है। खासकर उस महिला के लिए जिसने 'अपनी दुनिया' में अदालत का दरवाजा तक नहीं देखा हो! जब इस तरह की महिलाएं अदालत में आती हैं तो उन्हें मानसिक, आर्थिक और शारीरिक पीड़ा के अलावा एक और दर्द झेलना पड़ता है, जो होता है उनके लिए अदालत में बुनियादी सुविधाओं का अभाव!      


  एक वकील के तौर पर मैंने अपने 15 साल के करियर में कई ऐसी महिलाओं को इस तरह की असुविधाओं से जूझते देखा है! एक सच ये भी है कि जब भी कोई महिला अदालत की सीढ़ियाँ चढ़ने के लिए मजबूर होती है, सामने उसका पति होता है, ससुराल होता है या कोई निकट संबंधी! जबकि, आम घरेलू महिलाओं को न तो कानूनी दांव-पेंचों का पता होता है और न वे अदालतों की कार्यप्रणाली से वाकिफ होती हैं! अदालतों में अधिकांश मामले तलाक, दहेज़ प्रताड़ना, भरण-पोषण, संपत्ति में अधिकार, जमीन-जायदाद में बंटवारा, बच्चों की कस्टडी, विवाह पुनर्स्थापना और घरेलू हिंसा से जुड़े होते हैं। ये भी सच है कि किसी भी महिला के जीवन में जब ऐसी कोई विपत्ति आती है, ज्यादातर मामलों में पति उसके साथ नहीं होता! ऐसे में बच्चों को साथ लेकर अदालत तक आना, वकीलों से प्रकरण को लेकर जद्दोजहद करना, फीस का इंतजाम, अदालत में लगने वाले खर्चे का इंतजाम, भागदौड़, सारा दिन अदालत में बिताना, बच्चे साथ हो तो उनको बहलाए रखना, यदि बच्चों को घर में छोड़ा हो तो उनकी चिंता करना! यदि कामकाजी हो तो वहाँ से छुट्टी लेना! अंत में फिर एक नई तारीख के साथ वापस लौटना! ये वो संत्रास है जो अदालत में चल रहे मामलों से अलग होते हैं। 
  महिला चाहे घरेलू हो या कामकाजी उसकी कुछ निर्धारित जरूरतें हैं। यदि वो घर या दफ्तर में है, तो वहां उसे इन जरूरतों का अभाव नहीं खटकता, पर जब वो बाहर निकलती है तो यही छोटी-छोटी जरूरतें उसके लिए परेशानी बन जाती है। जहाँ तक अदालतों में महिलाओं की बुनियादी सुविधाओं का सवाल है तो यहाँ उसे इनका अभाव कुछ ज्यादा ही खटकता है। शायद इसलिए कि यहाँ उसकी मानसिक परेशानी चरम पर होती है! ऐसे में यही बुनियादी सुविधाओं का अभाव उसे तोड़कर रख देता है। मेरी एक महिला पक्षकार को उसके पति ने दूसरी बार भी बेटी होने के कारण चारित्रिक लांछन लगाकर छोड़ दिया है। वो हर तारीख पर दो छोटी बच्चियों को लेकर अदालत आती है! सबसे ज्यादा परेशानी उसे दुधमुहीं बच्ची को सँभालने में होती है! उसे कैसे दूध पिलाए, दोपहर में कहाँ सुलाए, खुद कहाँ बैठे, दूसरी बच्ची पर भी उसे नजर रखना है कि वो कहीं चली न जाए! ऐसी कई परेशानियां हैं, जिन्हें झेलते मैंने उस महिला को देखा है। ये किसी एक महिला के दुःख की कहानी नहीं है, इससे अधिकांश महिलाएं हमेशा ही जूझती रहती हैं। आज जब सरकार ट्रेनों में छोटे बच्चे वाली महिला यात्रियों को दूध, गर्म पानी और बेबी फ़ूड की सुविधा देने की पहल कर रही है! क्या अदालत की चौखट पर खड़ी ऐसी परेशान महिलाओं के कुछ नहीं किया जा सकता? यदि अदालत परिसर में छोटे बच्चो के लिए झूलाघर, महिलाओं के लिए बैठने के अलग इंतजाम, महिला शौचालय, महिला गार्ड हो तो इनकी उस परेशानी काफी हद तक जा सकता है, जिनके अभाव में ये टूट सी जाती हैं!   
  इस तरह की बुनियादी सुविधाओं की सबसे ज्यादा जरुरत कुटुंब न्यायालयों में होती हैं, जहाँ एक पक्ष हमेशा महिलाएं ही होती है! कई जगह तो कुटुंब न्यायालय दूसरी मंजिल पर भी देखे गए हैं! विचार करने वाली बात कि यदि कोई महिला पक्षकार गर्भवती या बूढी हो, तो वो कैसे ऊपर मंजिल तक तक जाएगी? यही कारण है कि इन न्यायालयों में महिलाओं के लिए बुनियादी सुविधाओं जरुरत बहुत ज्यादा है! उनके लिए न तो कवर्ड बरामदे या कमरे हैं न अलग से सुविधाघर! यदि सुविधाघर हैं भी तो वो पुरुषों के लिए बने हुए सुविधाघरों से सटे हुए हैं। छोटे बच्चे वाली महिलाओं, उनके बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए कोई सुविधाएँ नहीं होती! बैठने की ठीक व्यवस्थाएं न होने से गर्मी और बरसात में सबसे ज्यादा परेशानी महिलाओं को ही होती है। पुरुष पक्षकार तो किसी भी होटल या पान की दुकान में पनाह ले लेते हैं, पर महिलाएं तो ये सब कर नहीं पाती और न किसी से कह ही पाती हैं! जहाँ तक महिलाओं के लिए विधिक सहायता की बात है तो ये इंतजाम अदालतों में किए तो गए हैं, पर महिलाओं के लिए ये अलग से होना चाहिए! महिलाओं से जुडी विधिक सहायता के लिए महिला वकीलों को ही ये काम सौंपा जाए, ताकि वे उनकी समस्याओं को ठीक से समझ सकें! 
  सरकार ने अदालतों में बाहर से आने वाले गरीब और कमजोर वर्ग के पक्षकारों और उनके परिजनों के रुकने के लिए 'न्याय सेवा सदन' बनाए। 2006 में शुरू की गई ये योजना अभी सभी जगह लागू नहीं हुई! लेकिन, जहाँ भी इस तरह के इंतजाम किए गए हैं, उनमें रुकने की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि सामान्य पक्षकार तो इस सुविधा का लाभ ले ही नहीं सकता! इस स्थान पर भी महिलाएं नहीं रुक पाती, क्योंकि सुरक्षा के इंतजाम नाकाफी होते हैं! महिला गार्ड जैसी भी कोई व्यवस्था नहीं होती! 'न्याय सेवा सदन' अदालत परिसर में होते हैं, जो सामान्यतः शहर से बाहर बने होते हैं। कई स्थानों पर बने 'न्याय सेवा सदनों' में तो अभी तक कोई रुक भी नहीं सका! 
  महिला पक्षकार का दर्द पुरुष पक्षकारों मुकाबले बहुत ज्यादा होता है। एक महिला को सिर्फ अदालत कार्रवाई से ही नहीं जूझना पड़ता, बल्कि बुनियादी सुविधाओं की कमी को भी सहना पड़ता है। ऊपर से समाज की तरफ से उठती संदेह की नजरें भी उसे लज्जित करने से बाज नहीं आती! कानून सबके लिए बराबर होता है फिर चाहे वो पुरुष हो या महिला! लेकिन, किसी महिला के लिए अदालत की सीढ़ियाँ चढ़ना ही अपने आपमें अपमानजनक हालात होते हैं! ऐसे में यदि उसे बुनियादी सुविधाएँ भी मुहैया न हो तो उसकी मानसिक पीड़ा कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है। यदि इस तरह की परेशानी को महिला की नजरों से समझकर हल करने के प्रयास किए जाएँ, तो शायद किसी महिला के लिए अदालत आना दर्द का दुगुना होने से बच जाएगा!