Sunday 18 September 2016

अदालत की दहलीज पर औरत की अनंत पीड़ा

- एकता शर्मा 
  हमेशा ही अदालत, अस्पताल और पुलिस थाने से जहाँ तक हो सके बचकर रहने की सलाह दी जाती है। ये बात अपनी जगह इसलिए भी सही है! क्योंकि, ये तीन वो जगह होती है, जहाँ कोई भी अपनी मर्जी से नहीं जाता! मज़बूरी ही व्यक्ति को वहाँ ले जाती है। अस्पताल और पुलिस थाने की मज़बूरी अपनी जगह अलग है! लेकिन, अदालतों के चक्कर लगाना एक अलग तरह की मानसिक पीड़ा भोगने जैसा है। ये पीड़ा एक या दो बार की नहीं, कई बरसों की भी हो सकती है। लेकिन, जब यही पीड़ा किसी महिला को भोगना पड़े तो यंत्रणा कई गुना ज्यादा बढ़ जाती है। किसी घरेलू महिला का अदालत की सीढ़ियाँ चढ़ना बेहद पीड़ादायक क्षण होता है। खासकर उस महिला के लिए जिसने 'अपनी दुनिया' में अदालत का दरवाजा तक नहीं देखा हो! जब इस तरह की महिलाएं अदालत में आती हैं तो उन्हें मानसिक, आर्थिक और शारीरिक पीड़ा के अलावा एक और दर्द झेलना पड़ता है, जो होता है उनके लिए अदालत में बुनियादी सुविधाओं का अभाव!      


  एक वकील के तौर पर मैंने अपने 15 साल के करियर में कई ऐसी महिलाओं को इस तरह की असुविधाओं से जूझते देखा है! एक सच ये भी है कि जब भी कोई महिला अदालत की सीढ़ियाँ चढ़ने के लिए मजबूर होती है, सामने उसका पति होता है, ससुराल होता है या कोई निकट संबंधी! जबकि, आम घरेलू महिलाओं को न तो कानूनी दांव-पेंचों का पता होता है और न वे अदालतों की कार्यप्रणाली से वाकिफ होती हैं! अदालतों में अधिकांश मामले तलाक, दहेज़ प्रताड़ना, भरण-पोषण, संपत्ति में अधिकार, जमीन-जायदाद में बंटवारा, बच्चों की कस्टडी, विवाह पुनर्स्थापना और घरेलू हिंसा से जुड़े होते हैं। ये भी सच है कि किसी भी महिला के जीवन में जब ऐसी कोई विपत्ति आती है, ज्यादातर मामलों में पति उसके साथ नहीं होता! ऐसे में बच्चों को साथ लेकर अदालत तक आना, वकीलों से प्रकरण को लेकर जद्दोजहद करना, फीस का इंतजाम, अदालत में लगने वाले खर्चे का इंतजाम, भागदौड़, सारा दिन अदालत में बिताना, बच्चे साथ हो तो उनको बहलाए रखना, यदि बच्चों को घर में छोड़ा हो तो उनकी चिंता करना! यदि कामकाजी हो तो वहाँ से छुट्टी लेना! अंत में फिर एक नई तारीख के साथ वापस लौटना! ये वो संत्रास है जो अदालत में चल रहे मामलों से अलग होते हैं। 
  महिला चाहे घरेलू हो या कामकाजी उसकी कुछ निर्धारित जरूरतें हैं। यदि वो घर या दफ्तर में है, तो वहां उसे इन जरूरतों का अभाव नहीं खटकता, पर जब वो बाहर निकलती है तो यही छोटी-छोटी जरूरतें उसके लिए परेशानी बन जाती है। जहाँ तक अदालतों में महिलाओं की बुनियादी सुविधाओं का सवाल है तो यहाँ उसे इनका अभाव कुछ ज्यादा ही खटकता है। शायद इसलिए कि यहाँ उसकी मानसिक परेशानी चरम पर होती है! ऐसे में यही बुनियादी सुविधाओं का अभाव उसे तोड़कर रख देता है। मेरी एक महिला पक्षकार को उसके पति ने दूसरी बार भी बेटी होने के कारण चारित्रिक लांछन लगाकर छोड़ दिया है। वो हर तारीख पर दो छोटी बच्चियों को लेकर अदालत आती है! सबसे ज्यादा परेशानी उसे दुधमुहीं बच्ची को सँभालने में होती है! उसे कैसे दूध पिलाए, दोपहर में कहाँ सुलाए, खुद कहाँ बैठे, दूसरी बच्ची पर भी उसे नजर रखना है कि वो कहीं चली न जाए! ऐसी कई परेशानियां हैं, जिन्हें झेलते मैंने उस महिला को देखा है। ये किसी एक महिला के दुःख की कहानी नहीं है, इससे अधिकांश महिलाएं हमेशा ही जूझती रहती हैं। आज जब सरकार ट्रेनों में छोटे बच्चे वाली महिला यात्रियों को दूध, गर्म पानी और बेबी फ़ूड की सुविधा देने की पहल कर रही है! क्या अदालत की चौखट पर खड़ी ऐसी परेशान महिलाओं के कुछ नहीं किया जा सकता? यदि अदालत परिसर में छोटे बच्चो के लिए झूलाघर, महिलाओं के लिए बैठने के अलग इंतजाम, महिला शौचालय, महिला गार्ड हो तो इनकी उस परेशानी काफी हद तक जा सकता है, जिनके अभाव में ये टूट सी जाती हैं!   
  इस तरह की बुनियादी सुविधाओं की सबसे ज्यादा जरुरत कुटुंब न्यायालयों में होती हैं, जहाँ एक पक्ष हमेशा महिलाएं ही होती है! कई जगह तो कुटुंब न्यायालय दूसरी मंजिल पर भी देखे गए हैं! विचार करने वाली बात कि यदि कोई महिला पक्षकार गर्भवती या बूढी हो, तो वो कैसे ऊपर मंजिल तक तक जाएगी? यही कारण है कि इन न्यायालयों में महिलाओं के लिए बुनियादी सुविधाओं जरुरत बहुत ज्यादा है! उनके लिए न तो कवर्ड बरामदे या कमरे हैं न अलग से सुविधाघर! यदि सुविधाघर हैं भी तो वो पुरुषों के लिए बने हुए सुविधाघरों से सटे हुए हैं। छोटे बच्चे वाली महिलाओं, उनके बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए कोई सुविधाएँ नहीं होती! बैठने की ठीक व्यवस्थाएं न होने से गर्मी और बरसात में सबसे ज्यादा परेशानी महिलाओं को ही होती है। पुरुष पक्षकार तो किसी भी होटल या पान की दुकान में पनाह ले लेते हैं, पर महिलाएं तो ये सब कर नहीं पाती और न किसी से कह ही पाती हैं! जहाँ तक महिलाओं के लिए विधिक सहायता की बात है तो ये इंतजाम अदालतों में किए तो गए हैं, पर महिलाओं के लिए ये अलग से होना चाहिए! महिलाओं से जुडी विधिक सहायता के लिए महिला वकीलों को ही ये काम सौंपा जाए, ताकि वे उनकी समस्याओं को ठीक से समझ सकें! 
  सरकार ने अदालतों में बाहर से आने वाले गरीब और कमजोर वर्ग के पक्षकारों और उनके परिजनों के रुकने के लिए 'न्याय सेवा सदन' बनाए। 2006 में शुरू की गई ये योजना अभी सभी जगह लागू नहीं हुई! लेकिन, जहाँ भी इस तरह के इंतजाम किए गए हैं, उनमें रुकने की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि सामान्य पक्षकार तो इस सुविधा का लाभ ले ही नहीं सकता! इस स्थान पर भी महिलाएं नहीं रुक पाती, क्योंकि सुरक्षा के इंतजाम नाकाफी होते हैं! महिला गार्ड जैसी भी कोई व्यवस्था नहीं होती! 'न्याय सेवा सदन' अदालत परिसर में होते हैं, जो सामान्यतः शहर से बाहर बने होते हैं। कई स्थानों पर बने 'न्याय सेवा सदनों' में तो अभी तक कोई रुक भी नहीं सका! 
  महिला पक्षकार का दर्द पुरुष पक्षकारों मुकाबले बहुत ज्यादा होता है। एक महिला को सिर्फ अदालत कार्रवाई से ही नहीं जूझना पड़ता, बल्कि बुनियादी सुविधाओं की कमी को भी सहना पड़ता है। ऊपर से समाज की तरफ से उठती संदेह की नजरें भी उसे लज्जित करने से बाज नहीं आती! कानून सबके लिए बराबर होता है फिर चाहे वो पुरुष हो या महिला! लेकिन, किसी महिला के लिए अदालत की सीढ़ियाँ चढ़ना ही अपने आपमें अपमानजनक हालात होते हैं! ऐसे में यदि उसे बुनियादी सुविधाएँ भी मुहैया न हो तो उसकी मानसिक पीड़ा कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है। यदि इस तरह की परेशानी को महिला की नजरों से समझकर हल करने के प्रयास किए जाएँ, तो शायद किसी महिला के लिए अदालत आना दर्द का दुगुना होने से बच जाएगा! 

No comments:

Post a Comment