Thursday 29 September 2016

जो दर्शकों का गम भुला दे, वही फिल्म सफल!

- एकता शर्मा 

  दर्शकों की पैसा वसूल फिल्म कौनसी होती है? इस सवाल का सबसे सीधा जवाब है, वो फिल्में जो दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करे और उनके सारे गम 3 घंटे के लिए भुला दे! मतलब स्पष्ट है कि दर्शकों को कॉमेडी फ़िल्में ही सही और सार्थक मनोरंजन दे सकती है! यही कारण है कि जब भी कोई कॉमेडी फिल्म लगती है, दर्शक उसे हाथों हाथ लेते हैं। हॉउसफुल-3, ग्रेट ग्रैंड मस्ती और ए फ्लाइंग जट की सफलता इसी की निशानी है। देखा जाए तो हर तीन फिल्मों के बाद एक कॉमेडी फिल्म रिलीज होती ही है। हिंदी फिल्मों में एक दौर चलता है ट्रेंड का! जब कोई एक्शन फिल्म हिट होती है तो मारधाड़ वाली फिल्मों कि लाइन लग जाती है! प्रेम कहानी को दर्शक पसंद करते हैं तो यही दौर चल पड़ता है। लेकिन, कॉमेडी फ़िल्में ऐसी हैं, जिनका दौर कभी ख़त्म नहीं होता! बीच-बीच में जब भी कोई फिल्म हिट होती है, तो नई फिल्म का इंतजार शुरू हो जाता है। फिल्मों का इतिहास देखा जाए तो हर काल में कॉमेडी फ़िल्में ही सबसे ज्यादा पसंद की गई हैं। आज भी दर्शकों को ऐसी  फिल्मों का इंतजार होता है, जो उनके गम भुलाकर उन्हें तीन घंटे का स्वस्थ्य मनोरंजन दे सकें!  
     कॉमेडी कभी भी फिल्मों का मूल विषय नहीं रहा! ब्लैक एंड व्हाइट ज़माने से फिल्मों में कॉमेडियन एक ऐसा पात्र होता था, जो कहानी में सीन बदलनेभर लिए होता था। ये कभी फिल्म कि मूल कहानी से जुड़ा होता था, कभी अलग होता था! गोप, आगा और टुनटुन ऐसे ही कॉमेडियन थे! फिर आए, बदरुद्दीन उर्फ़ जॉनी वॉकर जिन्होंने अपनी कौम को नई पहचान दी और फिल्म में कॉमेडियन को अहम भूमिका में खड़ा कर दिया! लम्बे समय तक जॉनी वॉकर सिक्का चला! इसी दौर में किशोर कुमार ने भी 'चलती का नाम गाड़ी' और 'हाफ टिकट' जैसी फिल्मों से अपने जलवे दिखाए! लेकिन, फिर भी अच्छी कॉमेडी फ़िल्में आज भी उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं। कुछ फिल्मकारों ने जरूर अच्छी कॉमेडी फ़िल्में दी, जिन्हें आज भी दर्शक देखना पसंद करते हैं। सवाल उठता है कि अच्छी कॉमेडी फ़िल्म किसे कहा जाए? इसका एक ही जवाब है कि जिस फिल्म को हम अपनी ज़िन्दगी और उसकी उलझनों के जितना करीब पाते हैं, वही अच्छी कॉमेडी फिल्म होती है! एक दौर ऐसा भी आया जिसमें सेक्स को कॉमेडी फिल्मों का विषय बनाया जाने लगा! इंद्र कुमार ने 'ग्रैंड मस्ती' बनाकर इस विषय को छुआ! इस फिल्म बारे उनका दावा था कि ये हॉलीवुड की 'अमेरिकन पाई' और 'हैंगओवर' जैसी सेक्स कॉमेडी से आगे कि फिल्म है। लेकिन, अभी दर्शकों ने ऐसी फिल्मों के बारे में खुलकर राय नहीं दी है कि वे कॉमेडी में भी सेक्स कॉमेडी पसंद करेंगे या नहीं?
   याद कीजिए 1968 में आई 'पड़ोसन' को! ये ऐसी फिल्म थी, जिसे जितनी बार देखा जाए मन नहीं भरता! रोमांटिक कॉमेडी वाली ये फिल्म गंवार सुनील दत्त और मार्डन सायरा बानो के आसपास कॉमेडी के रंग बिखेरती है। 1972 में अमिताभ बच्चन की शुरूआती फिल्म 'बाम्बे टू गोआ' को भी फिल्में देखने वाले भूल नहीं पाते, जिसमें बस सफर में हास्य खोजा गया था! 1975 में बनी 'चुपके चुपके' भी ऐसी फिल्म थी, जिसमें अमिताभ बच्चन और धर्मेन्द्र ने कॉमेडी रिकॉर्ड बनाया था। इस फिल्म में नकली और बेढंगे हास्य के बजाए परिस्थितिजन्य से उपजा शिष्ट हास्य था। इस परम्परा को इसी साल आई 'छोटी सी बात' ने आगे बढ़ाया। दर्शकों को इस फिल्म में शिष्ट कॉमेडी नजर आई, जिसमें फूहड़ता और द्विअर्थी संवादों लिए कोई जगह नहीं थी! एक शर्मिला युवक अमोल पालेकर किस तरह अपनी सादगी से एक लड़की विद्या सिन्हा को प्रभावित करता है। इसी तरह का शिष्ट हास्य 1979 में आई फिल्म 'गोलमाल' में भी नजर आया! इसी को आधार बनाकर रोहित शेट्टी ने 'बोल बच्चन' बनाई, जिसने भी सराहा गया। कॉमेडी को नया रूप देने वाली 1981 में आई सईं परांजपे की फिल्म 'चश्मे बद्दूर' को भी भुलाया नहीं जा सकता। 2013 में इसी स्टोरी को नए कलाकारों के साथ डेविड धवन ने बनाया था। सई परांजपे की ही फिल्म 'कथा' ने अपने तरीके से खरगोश और कछुवे पुरानी कहानी को जिंदा किया था। 
  मनोरंजन का सही मतलब ये कॉमेडी फ़िल्में ही हैं, जिन्हें देखकर दर्शक अपना टाइम पास करता है। इंग्लिश फिल्म 'सेवन ब्राड फार सेवन ब्रदर्स' पर 1082 में बनी 'सत्ते पर सत्ता' फुल मनोरंजन का सबूत था। गुलजार की 'अंगूर' भी इसी के साथ आई, जिसमें संजीव कुमार और देवेन वर्मा की जोड़ी ने खूब गुदगुदाया था। इसी थीम पर ब्लैक एंड व्हाइट युग में किशोर कुमार 'दो दूनी चार' आ चुकी है। इस बात से इंकार नहीं कि समय और दर्शकों पसंद के मुताबिक कॉमेडी का रूप बदलता रहा, पर इनका मकसद हमेशा दर्शकों को गुदगुदाना ही होता है। 1983 में कुन्दन शाह ने 'जाने भी दो यारो' बनाई और दर्शकों को बांधे रखा! इसके एक सीन महाभारत का मंचन और क्लाइमेक्स में लाश की गड़बड़ को दर्शक आज भी नहीं भूले हैं। प्रकाश मेहरा ने 1986 में अनिल कपूर, अमृता सिंह को लेकर 'चमेली की शादी' में कॉमेडी का तालमेल बनाया था। अब ये जरुरी नहीं कि कॉमेडियन ही फिल्मों में  किरदार निभाएं! गोविंदा, संजय दत्त, आमिर खान, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र और सलमान जैसे बड़े कलाकारों ने भी कॉमेडी रोल करने मौका नहीं छोड़ा! कुली नंबर-1, मुन्नाभाई, अंदाज अपना अपना, हेराफेरी, गोलमाल और वेलकम सीरीज की फ़िल्में इसी का उदहारण है।  
  डेविड धवन और गोविंदा के नए दौर की कॉमेडी के लिए आज भी याद किया जाता है। द्विअर्थी संवाद के साथ डेविड और गोविंदा ने हास्य कि अलग ही दुनिया बनाई थी! 1995 में 'कुली नम्बर वन' में गोविन्दा के साथ शक्ति कपूर और कादर खान ने हंसी के फटाखे जमकर फोड़े थे। इसी साल 'दीवाना मस्ताना' में भी कादर खान, जानी लीवर और सतीश कौशिक ने दर्शकों को कुर्सी से खड़े होने पर मजबूर कर दिया था। प्रियदर्शन ने 2000 में आई 'हेराफेरी' से फिल्म की कॉमेडी धारा को पकड़ा जिसमें उन्होंने अक्षय और सुनील शेट्टी से कॉमेडी करवा ली! इस फिल्म में परेश रावल और ओमपुरी ने भी अपनी नई विधा का परिचय दिया। इसके बाद तो कॉमेडी फिल्मों की लाइन लग गई। 2001 में लव के लिए कुछ भी करेगा आई! लेकिन, 2003 में 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' से कॉमेडी पसंद करने वाले नए दर्शक सामने आए। 2005 में 'नो एण्ट्री' ने भी दर्शकों का खूब हंसाया! एक्शन फिल्मों के नामी डायरेक्टर रोहित शेट्टी का कॉमेडी बनाने में भी कोई जोड़ नहीं! उन्होंने 'गोलमाल' सीरीज से 2006, 2008 और 2010 में तीन फिल्में बनाई! तीनों फिल्में बॉक्स आफिस पर पैसा बटोरने में सफल रही। 
  2007 में आई 'धमाल' का नाम इस फिल्म की थीम बता देता है। इस साल 'भेजा फ्राय' ने भी कामेडी का एक नया रंग प्रस्तुत किया। लेकिन, 2009 में प्रदर्शित 'थ्री इडियटस' एक सोद्देश कॉमेडी फिल्म थी! इसी के साथ आई 'आल द बेस्ट' में संजय दत्त और अजय देवगन ने भी दर्शकों को खूब हंसाया। बात ये कि दर्शकों को पैसा वसूल मनोरंजन सिर्फ कॉमेडी फिल्मों से ही मिलता है। क्योंकि, फिल्म देखने का असल मकसद अपनी जिंदगी के दर्द को भूलना होता है,जो दर्शक सिर्फ कॉमेडी फिल्म में ही भूल पाता है। 
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