Tuesday 22 March 2016

बदलती फिल्मों से बदलता समाज?

   

ये हमेशा से ही एक यक्ष प्रश्न रहा है कि फिल्में समाज से प्रभावित होती हैं या समाज को देखकर फिल्मों के कथानक लिखे जाते हैं! इस सवाल का जवाब कभी खोज जा सकेगा, ऐसा लगता नहीं! क्योंकि, कहीं न कहीं समाज और फिल्म दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। इस मुद्दे को लेकर समाज की नई और पुरानी पीढ़ियों में वैचारिक मतभेद भी देखे गए हैं! इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि फैशन के मामले में समाज को फिल्में ही प्रभावित करती रही हैं! लेकिन, क्या सामाजिक सोच और युवाओं में आते बदलाव में भी फ़िल्मी कथानकों का कोई योगदान है? सवालों के जवाब खोजने की कोशिश करता ये आलेख :
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- एकता शर्मा 
   फिल्में अपने शुरुआती काल से ही समाज को प्रभावित करती आई हैं। हमेशा से ही ये बात बहस का विषय रही है, क़ि फ़िल्में समाज का आईंना है या समाज फिल्मों से प्रभावित होता है। फिल्मों के इतिहास में झांका जाए तो हम देखेंगे कि कहीं न कहीं फ़िल्में ही समाज को प्रभावित करती आई हैं। थोड़ा कुरेदकर देखा जाए तो ये मानना भी पड़ेगा! क्योंकि, फिल्मों की कहानियां भले ही काल्पनिक रूप से लिखी जाती हों, पर उनका आईडिया समाज से ही उभरता है। कई ऐसी बातें जो समाज में हो पाना संभव नहीं होती, सिर्फ फिल्म को हिट करने के मकसद से लिख दी जाती है! बाद में समाज उसे अपना अंग समझकर सहज स्वीकार कर लेता है।

 बीते पांच दशकों में समाज में अप्रत्याशित बदलाव आया, जिसने एक तरह से समाज की विचारधारा को ही बदल डाला। यही बदलाव फिल्मों में दिखाई दिया। फिल्मों का सीधा असर शुरू से ही समाज पर पड़ता रहा है। खासकर फिल्मों में होने वाले हर अनुक्रम को सबसे ज्यादा अनुसरण करने वाला युवा वर्ग होता है।फिल्मों का मनोवैज्ञानिक असर भी होता है! यूँ कहना ज्यादा बेहतर होगा कि फ़िल्में हर व्यक्ति के अंदर के सपने को यथार्थ रूप में दिखाने का काम करती हैं। सामान्य शब्दों में कहा जाए तो फिल्मों को 'सपनो का सौदागर' कहा जा सकता है। 
    हर युवा फिल्म के हीरो में अपने आपको अनुभव करता है। यही प्रतिक्रिया हर लड़की में भी नजर आती है! यही कारण है कि फिल्म देखने वाला युवा फिल्म में हो रहे घटनाक्रम को अपनी असल जिंदगी में अनुसारित करने लगता है! यही अनुसरण समाज में असर के रूप में सामने आता है। अब अगर समाज में आए बदलाव कि बात करें, तो हम पाएंगे की कहीं न कहीं इसमें फिल्मों का सबसे ज्यादा योगदान दिखता है। शुरुआत के दौर की फिल्मों को देखा जाए तो उसमें नैतिकता और आदर्शवाद की सीख ज्यादा नजर आती थी! इन फिल्मों में नायक कभी कोई गलत काम या अपराध करता नजर नहीं आता था! यदि कुछ गलत होता भी था तो उसके लिए वो उसके लिए खलनायक होता था, जिसका फिल्म के अंतिम संघर्ष में अंत होना लगभग तय होता था! सीधे शब्दों में कहें तो ये संघर्ष सत्य और असत्य या सही-गलत के बीच होता था। जिसमें जीत हमेशा ही सत्य यानी नायक की ही होती थी! इसका सीधा संदेश होता था 'सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं।' 
   फिल्म की अनुमानित लंबाई 3 घंटे की मानी जाए तो लगभग ढाई घंटे उसमें खलनायक छाया रहता और हीरो परेशान होता रहता! किन्तु अंततः जीत नायक यानी 'सच' की ही होती! यदि फिल्म में यदि मज़बूरी में नायक से कोई गलत काम हो भी जाता या कानून की गिरफ्त में आ जाता या मार दिया जाता, तो कथानक में इस तरह बदलाव किया जाता कि नायक का नायकत्व जीवित रहे! अगर इससे भी ज्यादा कुछ दिखाना हो तो नायक के डबल रोल हो जाते थे! जिसमें एक अधर्मी होता था, जिसकी अंत में मौत हो जाती थी और सच्चा नायक जीत जाता और तोहफे उसे नायिका मिल जाती! 
   इस तरह का कथानक 60 से 80 के दशक की किसी भी फिल्म में आसानी से मिल जाएगा! फिर चाहे वो 'मदर इंडिया' का बिरजू (सुनील दत्त) हो, जिसे गलत काम करने पर खुद उसकी माँ ही मार देती है! 'गंगा-जमुना' का दिलीप कुमार भी डाकू होने के कारण मारा जाता है। इसके बाद के दशकों में अमिताभ बच्चन का युग रहा! इस नायक की सर्वकालीन सुपरहिट फिल्म 'डॉन' की बात करें, तो अपराधी अमिताभ के मारे जाने के बाद एक सज्जन आदमी चतुराई से अपनी जान खतरे में डालकर पुलिस और कानून की मदद करके समाज को कई अपराधियों से मुक्ति दिलाता है! इसके अलावा ऐसी फिल्मों में 'सत्ते पे सत्ता', देशप्रेमी, महान, कालिया और त्रिशूल का जिक्र  सकता है। अन्य हीरो में सच्चा झूठा, ज्वेल थीफ, जुगनू, कालीचरण जैसी अनगिनत फ़िल्में हैं, जिनके अंत में सच्चाई, नैतिकता और आदर्श की जीत होती है और झूठ की पराजय! 
  पिछले दो दशकों से फिल्मों में आए बदलाव ने कहीं न कहीं समाज में अपराध, भ्रष्टाचार और अनैतिकता को बढ़ावा देने का काम ही किया है। पिछले दशकों में आई फिल्मों को देखें तो ये स्वीकार करना पडेगा कि इन फिल्मों ने युवा वर्ग को भ्रमित ही किया है। समाज को भटकाव का संदेश ही दिया है! अश्लीलता और अपराध को बढ़ावा देने में भी इन फिल्मों का योगदान है। आज जो फ़िल्में बन रही हैं, उनका फोकस सिर्फ युवा वर्ग है! इन फिल्मों में लेखक, निर्माता और निर्देशक कुछ नया करने और फिल्म को किसी यह भी तरह हिट करने के फॉर्मूले के तहत समाज को गलत संदेश देने से भी नहीं चूक रहे! इसमें अपने आपको आगे बढ़ाने की होड़ में बड़े से बड़ा हीरो भी इसमें लगा हुआ है। 60 से 80 के दशक वाले नायक शायद इस तरह की कहानियो को इंकार कर देते! क्योंकि, उन्हें लगता था कि वे सिर्फ फिल्मों के ही नहीं समाज के भी नायक हैं! किन्तु आज के भटकाव वाले समाज में अंधा पैसा कमाने में आज की फिल्मों के नायक भी पीछे नहीं है।
 इस कड़ी में सबसे पहला नाम अक्षय कुमार का लिया जाए, तो उनकी फिल्म 'स्पेशल छब्बीस' को याद करना होगा! इस फिल्म में हीरो और उसका ग्रुप नकली सीबीआई टीम बनकर कई लोगो के यहाँ छापेमारी करते हैं। अंत में असली सीबीआई को भी चकमा देकर भाग जाते हैं। यदि इस फिल्म को देखे तो देश  की सीबीआई पर ही उंगली उठती नजर आती हैं। एक साधारण आदमी सीबीआई को कैसे बेवकूफ बना सकता है? फिल्म को जब एक युवा ने देखी होगी, तो सामान्य तौर पर उसके दिल में भी ऐसी चालबाजी करने का विचार एक बार तो आया ही होगा! उसे लगा होगा कि इस तरीके से अपराध करके आसानी से बचा जा सकता
है और पैसा भी कमाया जा सकता है!
  अगली कड़ी में शाहरुख़ खान की 'डॉन' हो या सलमान की 'दबंग।' इसमें भी हीरो को गलत काम करते हुए और सफल होते दिखाया गया है! 'दबंग' में तो खुले आम एक पुलिस अफसर रिश्वत लेता है और सफल होकर जीत हांसिल करता है। इसी क्रम में एक और महत्वपूर्ण फिल्म है 'द वेडनेसडे' जिसका में किरदार नसीरुद्दीन शाह ने निभाया है। लेकिन, अंत में एक साधारण आदमी कानून व्यवस्था को तमाचा मारकर आसानी से बचकर निकल जाता है। अपराध के साथ यदि आवारागर्दी, गुंडागर्दी औए नशे की लत को भी कई फिल्मों ने बढ़ावा दिया है! जिनमें हीरोपंती, गुंडे, इशकजादे, फुकरे आदि हैं! ऐसी अनगिनत फ़िल्में हैं, जो युवाओं को नैतिकता के रास्ते से भटकने की प्रेरणा देती है।
  अभी हर जगह एक ही विषय पर चर्चा जोरों पर है कि हमारी संस्कृति कहीं गुम हो रही है? किंतु यदि इसकी जड़ों में जाया जाए तो कारणों के पीछे कहीं न कहीं फ़िल्में ही वरीयता क्रम में पहली या दूसरी पायदान पर नजर आएगी। जरुरी है कि फिल्म मेकर और नायक नायिका अपनी जिम्मेदारी समझें और उसके बाद ही काम करें! 
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