Monday, 5 March 2018

श्रीदेवी से पहले और भी कई मौतों पर परदा पड़ा!

- एकता शर्मा
 
श्रीदेवी की मौत पर 5 दिन जमकर मीडिया ट्रायल चला! इस मौत एंगल को मीडिया अपने-अपने तरीके समझा और दर्शकों को समझाया। लेकिन, फिर  श्रीदेवी की मौत हमेशा ही एक अबूझ पहेली बनकर रहेगी। संयुक्त अरब अमीरात सरकार ने भले ही श्रीदेवी की मौत को हादसा मानकर फाइल बंद कर दी हो, पर इस खूबसूरत और बेहतरीन सवालों की मौत पर सवालों की फाइल कभी बंद होगी। वे बॉथटब कैसे डूबी, उस वक़्त श्रीदेवी की दिमागी हालत क्या थी, क्या उन्होंने शराब पी राखी थी? ये और ऐसे सैकड़ों सवाल श्रीदेवी के चाहने वालों के दिमाग में कौंधते रहेंगे!
    फिल्म इंडस्ट्री में इस तरह का ये पहला हादसा नहीं हैं। पहले भी कई एक्ट्रेस की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हुई है, जिन पर से आजतक परदा नहीं उठा। शायद कभी उठेगा भी नहीं! क्योंकि, हाई-प्रोफाइल सोसायटी सिर्फ रहन-सहन में ही हाई-प्रोफाइल होती, उनकी ख़बरें भी सेंसर्ड होकर बाहर आती है।
श्रीदेवी से पहले बॉलीवुड में किस-किस एक्ट्रेस की मौत पहेली बनकर रह गई, इस पर एक नजर :     
     
- सिल्क स्मिता : साऊथ की फ़िल्म इंडस्ट्री की कलाकार सिल्क स्मिता ने 1996 में आत्महत्या कर ली थी! उन्होंने कई पारिवारिक दिक्कतों को झेलते हुए फिल्मों में अपनी जगह बनाई! लेकिन, जब परेशानियों ने वहां भी पीछा नहीं छोड़ा तो इस अभिनेत्री ने आत्महत्या कर ली! इस एक्ट्रेस के जीवन पर एक फिल्म भी बनी, जो बेहद सफल रही थी!

- परवीन बॉबी : अमिताभ बच्चन के साथ कई फिल्मों में जोड़ी बनाने वाली इस अभिनेत्री ने सफलता का शिखर छुआ था! लेकिन, वहां से उतरना उसे गवारा नहीं हुआ! बाद में संदिग्ध हालातों में उनकी मृत्यु गई। उनके बारे में लम्बे समय तक कई तरह की अफवाहें चलती रही। लेकिन, ये भी सच है कि जीवन के अंतिम दिनों में वे मानसिक रूप से अस्थिर हो गई थी! उनकी लाश उनके अपार्टमेंट से दो-तीन दिन बाद निकाली गई।
- दिव्या भारती  : मशहूर अभिनेत्री दिव्या भारती की मात्र 19 साल की उम्र में मृत्यु हो गई थी! हालांकि, आत्महत्या, हत्या या महज हादसे को लेकर कोई तस्वीर साफ़ नहीं हुई! मरने से एक साल पूर्व उन्होंने साजिद नाडियावाला से शादी की थी। मुंबई के वर्सोवा इलाके के तुलसी अपार्टमेंट के पांचवे फ्लोर से गिर जाने के कारण दिव्या की मृत्यु हुई थी। दिव्या भारती ने अपने अभिनय की शुरुआत तेलुगु फिल्म 'बोब्बिली राजा' से सन् 1990 में की। उनका हिंदी फिल्मों में सफलता 'विश्वात्मा' से मिली। इसी फिल्म के 'सात समुन्दर पार गाने' से उन्हें एक अलग पहचान मिली। सन् 1992 तक भारती स्वयं को बॉलीवुड में स्थापित कर लिया था। फिल्म 'दीवाना' में दिव्या भारती को फिल्म फेयर के सर्वश्रेष्ठ नवोदित अभिनेत्री के पुरस्कार से नवाजा गया।1992-1993 के मध्य तक भारती ने मात्र 19 वर्ष की आयु में 14 हिंदी और 7 साउथ की फिल्में की। अपने कम समय के करियर के दौरान मुख्यधारा के सिनेमा के अलावा भारती ने एक शक्तिशाली अभिनय की उत्पत्ति की। 

- जिया ख़ान : नि:शब्द, गजनी और हाउसफुल में काम कर चुकी जिया ख़ान ने 2013 को अपने घर पर पंखे से लटककर आत्महत्या कर ली। 25 साल की ये अदाकारा मरने के पीछे कई सवाल छोड़ कर गई है जिसके जवाब आज भी नहीं मिले हैं। उन्होंने प्रेम में असफल होने पर मौत को गले लगाया या काम न मिलने से वे डिप्रेशन में थी! ये बात स्पष्ट नहीं हो सकी!
- विवेका बाबाजी : मॉडल विवेका बाबाजी ने 2010 को 37 साल की उम्र में आत्महत्या कर ली। वे 'कामसूत्र' के विज्ञापन में काम करने के बाद चर्चा में आई थी! इसके अलावा 1993 में उन्होंने मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता में भी भाग लिया था और मिस मॉरीशस भी रह चुकी हैं। माना जाता है कि निजी ज़िंदगी में चल रहे उतार-चढ़ाव के कारण विवेका ने अपनी जान दी थी!

नफीसा जोसफ़ :  नफीसा एमटीवी चैनल में वीडियो जॉकी भी थीं। वे मॉडल होने के साथ 1997 में मिस इंडिया यूनिवर्स की विजेता भी रही थी। जोसफ़ ने 2004 को अपने फ्लैट पर फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली थी। जोसफ़ के माता-पिता का कहना है कि शादी टूटने के बाद उसने ऐसा कदम उठाया! जबकि, ये भी कहा जाता था कि वे बेकार थी और काम मिलने के कोई आसार भी नजर नहीं आ रहे थे।
- वर्षा भोंसले :  गायिका आशा भौंसले की बेटी वर्षा अपने वैवाहिक संबंधों को लेकर निराश थी! वर्षा ने 2012 में खुद को गोली मार ली थी। वर्षा भोजपुरी और हिंदी में प्लेबैक गायिका भी थीं। वर्षा 2008 में भी ख़ुदकुशी करने की कोशिश कर चुकी थीं। 
  इसके अलावा 'कोहिनूर' और 'हिप हिप हुर्रे' समेत कुछ धारावाहिकों में छोटे-मोटे रोल करने वाली कुलजीत रंधावा ने 2006 में आत्महत्या कर ली और सुसाइड नोट में इसका कारण मानसिक दबाव बताया। अभिनेत्री शिखा जोशी अपने घर में मृत पाई गई थी। उन्होंने फ़िल्म 'बीए पास' में छोटा सा रोल किया था। हालांकि, उनकी मौत से रहस्य का पर्दा नहीं उठा है। बंगाली फिल्मों की अभिनेत्री दिशा गांगुली ने अपने ही घर में आत्महत्या कर ली थी। उनके आवास का दरवाजा तोड़कर उनके झूलते हुए शव को बरामद किया  गया था।
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Sunday, 25 February 2018

परदे पर छाया अंधेरा, गुम हो गई 'चांदनी'

श्रद्धांजलि : श्रीदेवी 


- एकता शर्मा 
  ये खबर चौंकाने वाली है, पर सही है। अपनी खूबसूरती, अदाओं और जानदार अभिनय से फिल्मों के दर्शकों को रिझाने वाली अभिनेत्री श्रीदेवी हमारे बीच नहीं रही। दुबई में दिल का दौरा पड़ने से बीती रात उनका निधन हो गया। वे 54 साल की थीं। अपने भतीजे मोहित मारवाह की शादी में शामिल होने संयुक्त अरब अमीरात गई थीं। श्रीदेवी के पति बॉनी कपूर और छोटी बेटी खुशी अंतिम समय में उनके साथ थे। बॉलीवुड के कई सितारों ने इस दुखद घटना पर ट्विट करके अपना दुख जताया है। फ़िल्मों को उनके योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री से नवाज़ा गया था। 
  तमिल फिल्मों में चार साल की उम्र में अपना कैरियर शुरू करने वाली श्रीदेवी का जन्म 13 अगस्त,1963 को तमिलनाडु के गांव मीनमपट्टी में हुआ था। उनके पिता वकील थे। उनकी एक बहन और दो सौतेले भाई हैं। 1976 तक श्रीदेवी ने कई दक्षिणी भारतीय फिल्म में बतौर बाल-कलाकार के रूप में काम किया। 1976 में उन्होंने तमिल फिल्म 'मुंदरू मुदिची' में बतौर अभिनेत्री काम किया। उन्हें मलयालम फिल्म 'मूवी पूमबत्ता'(1971) के लिए केरला स्टेट फिल्म अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था। उन्होंने इस दौरान कई तमिल-तेलुगू और मलायलम फिल्मों में काम किया। अपने बेहतरीन अभिनय के कारण उनकी गिनती बेहतरीन अभिनेत्रियों में की जाती है। 
  श्रीदेवी ने हिंदी में अपने करियर की शुरुआत साल 1979 में फिल्म 'सोलवां सावन' से की थी। लेकिन, उन्हें बॉलीवुड में पहचान फिल्म 'हिम्मतवाला' से मिली। इस फिल्म के बाद वह हिंदी सिनेमा की सुपरस्टार अभिनेत्रियों में शुमार हो गईं। जितेंद्र के साथ उनकी जोड़ी अच्छी जमी और दोनों ने मिलकर कई सुपरहिट फ़िल्में जैसे हिम्मतवाला, तोहफ़ा, जस्टिस चौधरी और मवाली दीं। उन्होंने अपने करियर के दौरान कई दमदार रोल किए। उन्होंने हेमा मालिनी अभिनीत फिल्म 'सीता और गीता' की रीमेक 'चालबाज' में डबल रोल निभाया। 1983 में फिल्म 'सदमा' में श्रीदेवी दक्षिण सिनेमा के अभिनेता कमल हासन संग नजर आईं। इस फिल्म में उनके अभिनय को देख समीक्षक भी हैरान थे। 
1996 में अपनी उम्र से लगभग 8 साल बड़े फिल्म निर्माता बोनी कपूर से शादी कर सबको चौंका दिया था। इनकी दो बेटियां हैं जाह्नवी और खुशी कपूर। बड़ी बेटी बॉलीवुड में आने को तैयार है। 1996 में निर्देशक बोनी कपूर से शादी के बाद श्रीदेवी ने फिल्मी दुनिया से अपनी दूरी बना ली थी। इस दौरान वह कई टीवी शो में नजर आईं। श्रीदेवी ने साल 2012 में गौरी शिंदे की फिल्म 'इंग्लिश विंग्लिश' से रूपहले पर्दे पर अपनी वापसी की। 'इंग्लिश विंग्लिश' में उन्होंने बेहतरीन अभिनय से आलोचकों और दर्शकों को चौंका दिया था। उन्हें 2013 में पद्मश्री से सम्मानित किया। उन्हें 'चालबाज' (1992) और 'लम्हे' (1990) के लिए बेस्ट एक्ट्रेस का फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला। श्रीदेवी की अंतिम फिल्म 'मॉम' थी, जो जुलाई 2017 में आई थी।  

श्रीदेवी की फ़िल्में 
  श्रीदेवी ने अपने लंबे करियर में लगभग 200 फिल्मों में काम किया इनमें 63 हिंदी, 62 तेलुगू, 58 तमिल और 21 मलयालम फिल्में शामिल हैं। 
   उन्होंने जैसे को तैसा, जूली, सोलहवां साल, हिम्मतवाला, जस्टिस चौधरी, जानी दोस्त, कलाकार, सदमा, अक्लमंद, इन्कलाब, जाग उठा इंसान, नया कदम, मकसद, तोहफा, बलिदान, मास्टर जी, सरफरोश,आखिरी रास्ता, भगवान दादा, धर्म अधिकारी, घर संसार, नगीना, कर्मा, सुहागन, सल्तनत, औलाद, हिम्मत और मेहनत, नजराना, जवाब हम देंगे, मिस्टर इंडिया, शेरनी, सोने पे सुहागा, चांदनी, गुरु, निगाहें, बंजारन, फरिश्ते, पत्थर के इंसान, लम्हे, खुदा गवाह, हीर रांझा, चंद्रमुखी, गुमराह, रूप की रानी चोरों का राजा, चांद का टुकड़ा, लाडला, आर्मी, मि. बेचारा, कौन सच्चा कौन झूठा, जुदाई, मिस्टर इंडिया, मॉम जैसी फिल्मों में काम किया। 
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ये है सामाजिक फिल्मों का नया दौर!


- एकता शर्मा 

 हिन्दी फिल्मों में सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर फिल्म बनाने का दौर लौट रहा है। 1960 के दशक में विमल रॉय और ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्में ज्यादातर सामाजिक समस्याओं पर आधारित होती थीं। इन मुद्दों को सावधानी से परदे पर पेश किया जाता था। आज फिर ऐसी ही कहानियों पर फिल्म बनाने की कोशिश हो रही है। विमल रॉय, ऋषिकेश मुखर्जी, राज कपूर जैसे फिल्म निर्माता जातिवाद, विधवा, कुंवारी मांओं समेत कई अन्य समाजिक विषयों पर फिल्म बनाते रहे हैं। दर्शक इन फिल्मों की सराहना करते थे, लेकिन बीच में एक दौर ऐसा आया कि ऐसी फिल्में बनना ही बंद हो गई! लेकिन, अब वो दौर फिर लौटा है, पर नए परिवेश में! आज बनने वाली बायोपिक को भी इसी दौर का एक हिस्सा माना जा सकता है। क्योंकि, ऐसी फ़िल्में भी समाज से कुछ कहती हैं।  
  फिल्मों का इतिहास उठाकर देखें, तो सामाजिक फिल्मों का एक लम्बा दौर रहा है। आजादी के बाद इस दौर ने जोर पकड़ा। वैसे तो यदा-कदा समाज सुधारकों और विचारकों पर भी धार्मिक और ऐतिहासिक फिल्मों के दौर पर भी फ़िल्में बनती रही, पर उसका नायक पूर्व स्थापित समाज सुधारक और विचारक का ही रोल निभाता था। दो आँखें बारह हाथ, जागृति, अछूत कन्या, बंदिनी जैसी फिल्मों का नायक (या नायिका) साधारण व्यक्ति होता था। इन सभी फिल्मों ने जनमानस की सोच मे बदलाव का काम भी किया।
  1957 में आई वी शांताराम की फिल्म 'दो आँखें बारह हाथ' को भी सामाजिक बदलाव के प्रतीक के रूप में याद किया जाता है। इस फिल्म के माध्यम से उन्होंने कुख्यात अपराधियों को सुधारने का एक अभिनव तरीका दिखाया था। इसी धारा पर 1960 में राजकपूर ने 'जिस देश में गंगा बहती है' बनाई थी। कहा तो ये भी जाता है कि इसी फिल्म की विचारधारा से प्रेरित होकर बाद में विनोबा भावे, वीपी सिंह तथा अन्य समाजसेवियों एवं नेताओं ने डाकुओं के आत्मसमर्पण का विचार सामने रखा। ये भी कहा जाता है कि जब किरण बेदी तिहाड़ जेल की मुखिया थी, तब उन्होंने कई खूंखार कैदियों को सुधारने के लिए वी शांताराम के ही मानवतावादी मनोविज्ञान फार्मूले आजमाए थे। 
    कुछ फिल्मों ने भारतीय सामाजिक मूल्यों एवं संस्कृति को स्थापित करने में तथा कुछ ने समाज में अपने दौर की उपजी समस्याओं पर कई सवाल खड़े किए है। 'पूरब-पश्चिम' में भारतीय संस्कृति के महत्व एवं सामाजिक चित्रण को दिखाया गया तो हाल के सालों में आई ‘फायर‘ में समलैंगिकता के बहाने समकालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति पर सवाल उठाया गया! वहीं एक तरफ जहां फिल्म ‘वाटर‘ के जरिए विधवाओं की दर्द एवं जीवन गाथा को लोगों के बीच पहुंचाने की कोशिश हुई, तो ‘संसार‘ एवं ‘खानदान‘ जैसी फिल्मों के जरिए संयुक्त परिवार के टूटते बिखरते मूल्यों से लोगों का सामना हुआ। 
   एक तरफ महिला स्वतंत्रता की वकालत करने वाली क्रांतिकारी फिल्म ‘परमा‘ ने परिवार संस्था को गलत ठहराते हुए भारतीय नारी की एक नई छवि गढने की कोशिश की है। कंगना रनौत की 'क्वीन' ने इसके आगे बढ़कर बात की। बैंडिट क्वीन, सत्या ने व्यावसायिक फिल्मों के छिछालेदर और समांतर फिल्मों के कलावाद से दूर असलियत का एक झकझोर देने वाला चेहरा प्रस्तुत किया था। अभी ये दौर ख़त्म नहीं हुआ है। आगे और देखिये क्या-क्या होता है!
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'पेडमैन' ने खोले मालवा, निमाड़ की प्रतिभाओं के लिए दरवाजे


- एकता शर्मा 

   देश में सस्ते सेनेटरी पैड बनाने का चमत्कार करने वाले अरुणाचलम मुरुगनाथम की जीवन पर आधारित फिल्म 'पेडमैन' परदे पर आ गई! औरतों की सुरक्षा जैसे सामाजिक मुद्दे पर बनी इस फिल्म में अक्षय कुमार ने अरुणाचलम मुरुगनाथम का किरदार निभाया है। अरुणाचलम ने विपरीत परिस्थितियों का सामना करके महिलाओं के लिए सस्ते सेनेटरी पैड बनाने का काम शुरू किया और अंततः वे अपने मकसद में सफल भी हुए। ये ऐसा अनोखा विषय है जिस पर आज तक हॉलीवुड में भी कोई फिल्म नहीं बनी! बॉलीवुड की इस फिल्म का मालवा, निमाड़ से ख़ास रिश्ता इसलिए है कि फिल्म की 80 फीसदी शूटिंग महेश्वर, कालाकुंड, धामनोद और इंदौर में हुई है। सिर्फ शूटिंग ही नहीं, फिल्म में इंदौर के कई कलाकारों ने काम भी किया। गिनती की जाए तो फिल्म में करीब 35 किरदार इंदौर के कलाकारों ने निभाए हैं। दरअसल, इस फिल्म ने मालवा कलाकारों के लिए मुंबई के दरवाजे खोल दिए हैं। निश्चित रूप से इस फिल्म का अनुभव उनकी प्रतिभा को निखारने और आगे काम दिलाने में मददगार होगा।    
  देखा गया है कि जिस इलाके में फिल्मों की शूटिंग होती है, वहां के स्थानीय कलाकारों को छोटे-छोटे रोल देकर खानापूर्ति कर ली जाती है। इससे निर्माता को स्थानीय सहयोग तो मिलता ही है, जूनियर कलाकारों को मुंबई से लाने और उनका मेहनताना देने से भी निजात मिल जाती है। लेकिन, 'पेडमैन' इस मामले में अपवाद रही कि फिल्म के कई अहम् किरदार इंदौर के ही कलाकारों ने निभाए हैं। कुछ मराठी रंगकर्मी तो फिल्म की कहानी के मुताबिक बेहद ख़ास रोल में हैं। अक्षय कुमार के दो प्रमुख बिजनेस पार्टनर के किरदार निभाने वाले कलाकार इंदौर के ही हैं। अक्षय की बहन भी सौम्या व्यास बनी है। इन कलाकारों ने जो किरदार निभाए हैं, वे कहानी के नजरिए से भी महत्वपूर्ण हैं। 
  करीब 30 साल से मराठी रंगमंच से जुड़े रंगकर्मी श्रीराम जोग ने अक्षय के बेहद करीबी व्यक्ति यानी बिजनेस पार्टनर का रोल किया है। बरसों से रंगमंच पर विभिन्न भूमिकाएं निभा रहे श्री जोग ने इससे पहले भी कुछ फिल्मों में काम किया है। एक अन्य कलाकार सारिका शर्मा ने भी फिल्म में प्रमुख किरदार निभाया है। कुछ स्थानीय कलाकारों का काम तो इतना बेहतरीन था कि निर्देशक आर बाल्की और अक्षय कुमार भी चौंक गए। डायलॉग याद करने, बिना टेक लिए शॉट ओके कर लेना जैसी घटनाएं कई बार हुई! एक कलाकार लकी टांक ने तो अपना रोल इतना अच्छा निभाया कि आर बाल्की ने भी उनकी पीठ थपथपाई। अभी तक ये सभी कलाकार स्टेज तक सीमित थे, ये पहला मौका है कि कई लोगों ने कैमरे का सामना किया और उन्हें अभिनय की बारीकियां सीखने का मौका मिला!  
  'पेडमैन' में अक्षय कुमार की पड़ोसन बनी हैं भवानी कौल तो अक्षय की दूसरी पड़ोसन है प्रतीक्षा नायर। इन सभी को  ख़ुशी है कि उन्हें बड़े बजट की फिल्म में काम करने मिला। इसके अलावा इन्हें ये भी पता चला कि इन बड़े फिल्म कलाकारों को लेकर भ्रम फैलाया जाता है कि वे बहुत घमंडी होते हैं। जब स्थानीय कलाकारों का अनुभव ये रहा कि अक्षय कुमार और राधिका आप्टे समेत सभी कलाकार बहुत सहज रहे! शूटिंग के दौरान भी इन कलाकारों को बहुत कुछ सीखने और अनुभव करने को मिला। अक्षय कुमार के व्यवहार से सभी खुश हैं। वे बहुत दोस्ताना है और शूटिंग के बीच जब समय मिला सभी ने खूब हंसी-मजाक की।
  शूटिंग शुरू होने से पहले एक हज़ार से ज्यादा कलाकारों ने करीब 35-36 रोल के लिए ऑडिशन दिए थे। निर्देशक आर बाल्की ने सहजता से सारे ऑडिशन लिए और कलाकारों का चुनाव किया। शूटिंग के दौरान एक घटना ऐसी भी हुई जब दो स्थानीय कलाकार सिर्फ इसलिए शूटिंग छोड़कर भाग गए, क्योंकि अक्षय कुमार ने उन्हें एक दृश्य में सैनिटरी नैपकीन पकड़ने को कहा था। उन्होंने इसे पाप समझा और भाग गए। 
  फिल्म में मनोज पेमगिरिकर एक मेडिकल स्टोर चलने वाले बने हैं। अक्षय के एक अन्य बिजनेस पार्टनर हैं संतोष रेगे! अक्षय कुमार के जीजा बने हैं करण भोगले, जबकि श्रीराम भोगले और उनकी पत्नी मंजुश्री भोगले ने इसी जीजा के माता-पिता का रोल निभाया है। गाँव के पंच हैं शरद शबलजी और हरीश वर्मा। किरण महाजन पड़ोसन है और प्रियंका दुबे बनी हैं समधन! प्रताड़ित महिला का किरदार सुकन्या ने निभाया और नम्रता तिवारी, सारिका अवस्थी और निशि ये तीनों गाँव की औरतें हैं। पंचायत के कर्मचारी शैलेश शर्मा को मिला है और शब्बीर मोदी का किरदार जो मलमल के कपडे के दुकानदार हैं। फिल्म में होलकर वंशज का भी एक रोल है जिसे मिलिंद शर्मा ने किया है। प्रतीक्षा नैयर, भवानी कौल दोनों पड़ोसन है। नर्मदे हर कहने वाला व्यक्ति है लोकेश निमगांवकर और आशीष गढ़वाल को मिला है चाय वाले का किरदार। 
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Saturday, 3 February 2018

क्या गालियों से ही झलकता है फिल्मों में समाज?

- एकता शर्मा 

  समाज शास्त्रियों मानना है कि सिनेमा समाज को दिशा देता है। उसमें जो दिखता है, समाज उससे बहुत कुछ सीखता है। इसलिए फिल्मकारों को फिल्म बनाते समय बेहद सावधानी बरतना चाहिए। क्योंकि, सिनेमा बनाने वालों की अहम् जिम्मेदारी होती है। लेकिन, ये कहने वाले भी कम नहीं हैं कि जो समाज में होता आया है, जो हो रहा है, और जो होगा, सिनेमा वही दिखाता है। जैसे की गालियाँ! समाज में गुस्से की अभियक्ति गालियों से होती है और ये हमारे जीवन का हिस्सा है। लोग रोजमर्रा की जिंदगी में बहुत गालियां बोलते हैं, तो फिर सिनेमा में गालियों को गलत क्यों समझा जाता है?
   गालियां आज आम लोगों की बातचीत का सहज हिस्सा बन गई है। वास्तविक सिनेमा दिखाने के लिए यह जरूरी है कि फिल्मकार उसे बोलचाल के वास्तविक तरीके से पेश करें। लेकिन, फिल्मों का समाज पर सीधा प्रभाव पड़ता है। देखा गया है कि अच्छा प्रभाव पड़े न पड़े, बुरा प्रभाव जल्दी पड़ता है! भले सिनेमा में समाज की सच्चाई दिखाई जाती है, लेकिन देश के किसी कोने के, किसी गांव के, किसी परिवार के, किसी एक व्यक्ति की, निजी जिंदगी की कहानी में पेश सच्चाई, जब बड़े परदे पर पूरा    समाज देखता है, तो उससे नकारात्मकता ज्यादा बढ़ती है। ऐसे में सिनेमा देखने वाले बच्चे भी वैसा ही करेंगे और मानेंगे भी कि ऐसा करने में       क्या गलती है? 
   आज का सिनेमा नए जमाने की नई सोच का कैनवास है, जो समाज में नई भाषा से बॉक्स ऑफिस पर सफलता के झंडे गाड़ रहा है। दुनियाभर में समय के साथ बदलाव होता रहा है। लेकिन, पिछले कुछ सालों में हिंदी सिनेमा में बहुत कुछ बदला! हीरो-हीरोइन अब पेड़ के इर्द-गिर्द चक्कर लगाकर प्रेम का इजहार नहीं करते। इमोशनल सीन अब आउट डेटेड हो गए और आंसू बहाना पुरानी फिल्मों की नक़ल माना जाता है। दर्शकों को भी अब कुछ खुला-खुला सा देखने की आदत हो चली है। इस खुलेपन का सीधा आशय फिल्मों भाषा से है जो असंसदीय हो चली है। सालों से समाज की असली तस्वीर पेश करने के नाम पर बोलचाल की भाषा का खुलकर प्रयोग करने के नाम पर गालियों का उपयोग किया जाने लगा है। समाज जब से खुलेपन को ज्यादा ही स्वीकारने लगा, तब से बोल्ड विषयों पर फिल्मों का भी बनना भी शुरू हो गया है। वैसे, गालियां पहले भी फिल्मों में सुनाई देती रही हैं। ‘बेंडिट क्वीन’ में तो गोलियां और गालियां दोनों ही जमकर सुनाई दी थीं। 
  उससे पहले नायिकाएं इस तरह के संवादों को बोलने में परहेज करती थीं। मगर, ‘इश्किया’ में विद्या बालन ने जमकर गालियां दी थी, तो ‘नो वन किल्ड जेसिका’ में रानी मुखर्जी ने अपनी छवि में बदलाव करते हुए खूब गालियां दी थीं। इस फिल्म में रानी मुखर्जी एक टीवी पत्रकार के रोल में थी, जो खूब गालियां बकती है। फिल्म ‘देल्ही बेली’ ने तो सारी सीमाएं ही तोड़ दीं थीं। पूरी फिल्म गाली-गलौज से भरी हुई है। 'गोलमाल' में भी करीना कपूर ने गालियों से मिलते- जुलते शब्द बोले थे। ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की तो पृष्ठभूमि ही गालियों वाली थी। इस तरह की फिल्मों में असलियत को दिखाने का दावा करते हुए गालियों का दिल खोल कर प्रदर्शन किया जाना आसान है। पर, क्या असली समाज गालियों के बगैर नहीं दिखाया जा सकता?
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Sunday, 28 January 2018

करणी विवाद ने 'पद्मावत' को बचा लिया!

- एकता शर्मा

संजय लीला भंसाली ने 'पद्मावत' बनाकर जो मुसीबत मोल ली है, उसने उन्हें कई सबक दे दिए। अब शायद वे खुद कोई और फिल्मकार इतिहास के साथ खिलवाड़ करने का साहस नहीं कर सकेगा! अब विवाद का विषय ये नहीं रह गया कि भंसाली सही हैं या राजपूतों का विरोध! क्योंकि, फिल्म भी रिलीज हो गई और राजपूतों ने विरोध भी दर्ज करवा दिया! लेकिन, रिलीज के बाद फिल्म को लेकर जो प्रतिक्रियाएं सामने आई, वो भंसाली की फिल्म निर्माण क्षमता पर ही सवाल उठाती हैं। क्योंकि, फिल्म भले ही रानी पद्मावती को ध्यान में रखकर बनाई हो, पर तीन घंटे की ये पूरी फिल्म क्रूर शासक अलाउद्दीन खिलजी के आसपास ही घूमती है। फिल्म में सबसे ज्यादा फुटेज भी खिलची के चरित्र को ही मिले हैं। रानी पद्मावती और चित्तौड़ के राजा रतनसिंह का प्रसंग तो फिल्म का एक हिस्सा बनकर रह गया! यदि इस फिल्म का विरोध न होता तो शायद ये फिल्म संजय लीला भंसाली की अब तक की सबसे बड़ी फ्लॉप साबित होती!

  फिल्म की कहानी बेहद कमजोर है और रफ्तार के मामले में भी फिल्म काफी सुस्त है। घटनाएं बहुत धीरे-धीरे आगे बढ़ती है। फिल्म के क्लाइमेक्स को ज्यादा लंबा खींच दिया गया। फिल्म को भव्य बनाने के मोह में भंसाली दर्शकों को पूरी तरह बाँधने में भी सफल नहीं हुए! फिल्म में महारानी पद्मावती की शान में खूब कसीदे गढ़े गए हैं। यदि करणी सेना के जवान फिल्म देखकर विरोध करने का सोचते तो शायद वे कुछ कर नहीं पाते! क्योंकि, ऐसी स्थिति में विरोध करने वाले भी साथ नहीं आते! फिल्म में विरोध करने जैसा कुछ है भी नहीं!
  इस फिल्म के विरोध में राजपूत क्यों सड़क पर आ गए, समझ नहीं आता! जबकि, वास्तव में फिल्म के खिलाफ मुसलमानों और ब्राह्मणों को आवाज उठाना थी! कारण कि फिल्म में ब्राह्मण कुलगुरु को विश्वासघाती, धोखेबाज और मतलबी दर्शाया गया। जबकि, अलाउद्दीन खिलजी को अय्याश, मक्कार और क्रूर दिखाया गया! राजपूतों की शान में तो कहीं गुस्ताखी नहीं हुई! खिलजी को इतना अय्याश बताया गया कि निकाह के लिए उसकी राह देखी जाती है, और वो किसी और के साथ अय्याशी करता रहता है। राजपूतों को इस बात पर विरोध है कि रानी पद्मावती और खिलची के बीच 'स्वप्न दृश्यों' में नजदीकी दिखाई गई! जबकि, फिल्म में दोनों का कहीं आमना-सामना तक नहीं होता! आईने में धुंधलेपन के बीच खिलची को पद्मावती की एक झलक मात्र दिखाई देती है। इसके अलावा पद्मावती तो कभी खिलची के ख्वाबों में भी नहीं आती!
  जयपुर के आमेर किले में फिल्म की शुरूआती शूटिंग पर हुए हमले के बाद भंसाली में जो भय समाया था, वो फिल्म के निर्माण पर भी साफ़ झलकता है। शायद इसीलिए फिल्म में राजपूती आन-बान-शान को कुछ ज्यादा ही बढ़ा चढ़ाकर दिखाने की कोशिश की गई। गर्दन कटने के बाद भी राजपूतों को युद्ध में लड़ते दिखाया गया हैं। राजपूती शान का बखान करने में गोरा सिंह और बादल के किरदारों को आगे किया गया। युद्ध में राजा रतनसिंह लहूलुहान हो जाते हैं। उनकी पीठ में कई तीर लग जाते हैं, लेकिन उनकी मौत तब होती है, जब वे सीना तानकर आसमान की तरफ देख रहे होते हैं। यानी यहाँ भी राजपूती शान का ध्यान रखा गया! जहाँ तक फिल्म में राजपूतों की बात है तो उन्हें खिलची से युद्ध जीतने की रणनीति बनाने की योजना बनाने के बजाए लफ्फाजी करते ज्यादा दर्शाया गया है। फिल्म में रानी पद्मावती को सुशील, युद्ध कला और युद्ध नीति की माहिर दर्शाया गया है। देखा जाए तो फिल्म का नाम रानी पद्मावती के नाम पर है! लेकिन, संजय लीला भंसाली नाम के साथ भी पूरी तरह न्याय नहीं कर सके। फिल्म का अंत संजय लीला भंसाली की ही फिल्म 'बाजीराव मस्तानी' की याद जरूर दिलाता है। 'पद्मावत' में जौहर के लिए जाते वक़्त रानी पद्मावती (दीपिका पादुकोण) के चेहरे पर जो तेज और अंदाज दिखाई दिया, वही 'बाजीराव मस्तानी' में बेड़ियों में जकड़ी मस्तानी के चेहरे पर भी दिखाया गया है! 
  फिल्म में खिलजी के किरदार में रणबीर सिंह सब पर भारी हैं। अय्याश, मक्कार, और क्रूरता वाली इस भूमिका में रणबीर सिंह ने जोरदार काम किया है। कहा जाए तो पूरी फिल्म पर खिलजी ही है। राजा रतनसिंह के किरदार में शाहिद कपूर ने जान डालने की पूरी कोशिश की, फिर भी वे रणबीर सिंह के अलाउद्दीन खिलची के किरदार को पीछे नहीं छोड़ पाए। फिल्म को भव्य बनाने की कोशिश में भंसाली न तो प्रेम को सही तरीके से फिल्मा पाए और न खिलची और राजा रतन सिंह की दुश्मनी ही परवान चढ़ सकी। फिल्म पर डर भी हावी था। यही कारण था कि क्लाइमेक्स लम्बा होने के बावजूद अधूरा ही रह गया! ढेर सारी कमजोरियों के बाद भी 'पद्मावत' बॉक्स ऑफिस पर तो कमाल दिखाएगी ही! क्योंकि, फिल्म के विरोध ने उसे इतना ज्यादा प्रचारित कर दिया कि दर्शक तो चुम्बक की तरह खींचे चले आएंगे। 
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Monday, 22 January 2018

सत्ता के गलियारे में 'तीन तलाक़' और दुनिया का नजरिया!

  लोकसभा से पारित होने के बाद मुस्लिम पर्सनल लॉ का तीन तलाक से जुड़ा विधेयक अब राज्यसभा की दहलीज पर है। वहाँ इसका हश्र क्या होता है, ये कहा नहीं जा सकता! सरकार ने इस विधेयक में तीन तलाक देने को अपराध बना दिया गया है। इसका उल्लंघन करने पर तीन साल की कैद के साथ जुर्माने का भी प्रावधान है। पीड़ित महिला अदालत से अपने भरण-पोषण का दावा भी कर सकती है। पिछले साल अगस्त में यह ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक पर रोक लगा दी थी! सरकार का कहना है कि कानून के बगैर सुप्रीम कोर्ट का फैसला लागू करना मुश्किल है, इसलिए सरकार यह विधेयक लाई है। 

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- एकता शर्मा 
   भारत में रहने वाले सुन्नी मुसलमानों के बीच तीन-तलाक़ की बहस दसियों साल पुरानी है। इस्लाम में तलाक के तीन तरीके चलन में हैं। एक है तलाक-ए-अहसन! इसमें यदि यह जोड़ा चाहे तो भविष्य में शादी कर सकता है। इसलिए इस तलाक को अहसन (सर्वश्रेष्ठ) कहा जाता है। दूसरे प्रकार की तलाक को तलाक-ए-हसन कहा जाता है। इसकी प्रक्रिया की तलाक-ए-अहसन की तरह है लेकिन इसमें शौहर अपनी बीवी को तीन अलग-अलग बार तलाक कहता है। इस प्रक्रिया में तीसरी बार तलाक कहने के तुरंत बाद वह अंतिम मान लिया जाता है। इस्लाम के मुताबिक जो जोड़ा तीन बार के तलाक के बाद अलग हुआ है, उसे फिर शादी नहीं करनी चाहिए! लेकिन, हलाला की व्यवस्था इसका तोड़ निकालती है। तीसरी प्रकार की प्रक्रिया को 'तलाक-उल-बिदत' कहा जाता है। यहीं आकर तलाक की उस प्रक्रिया की बुराइयां साफ-साफ दिखने लगती हैं जिसमें शौहर एक बार में तीन तलाक कहकर बीवी को तलाक दे देता है। 'तलाक उल बिदत' के तहत शौहर तलाक के पहले ‘तीन बार’ शब्द लगा देता है या ‘मैं तुम्हें तलाक देता हूं’ को तीन बार दोहरा देता है। इसके बाद शादी टूट जाती है. इस तलाक को वापस नहीं लिया जा सकता! तलाकशुदा जोड़ा 'हलाला' के बाद ही फिर शादी कर सकता है। इसमें आमतौर पर यह होता है कि तीसरे व्यक्ति के साथ एक आपसी समझ बनाई जाती है जो संबंधित महिला से शादी कर उसे तुरंत तलाक दे देता है। इसके बाद वह महिला अपने पहले शौहर से शादी कर सकती है। 
  डॉ ताहिर महमूद और डॉ सैफ महमूद इस्लामिक कानूनों से जुड़ी अपनी किताब में लिखते हैं कि तलाक के लिए लगातार तीन तूहर (जब मासिक चक्र न चल रहा हो) का कम के कम समय निर्धारित होता है। लेकिन, हर मामले में यह निश्चित नहीं है। इन लेखकों ने अपनी बात के पक्ष में देवबंदी विद्वान अशरफ अली थानवी (1863-1943) की राय का हवाला दिया है। इसके अनुसार ‘कोई व्यक्ति एक बार तलाक कह देता है। उसके बाद वह बीवी से सुलह कर लेता है और दोनों फिर साथ रहने लगते हैं। कुछ सालों के बाद किसी तरह के उकसावे में आकर वह दूसरी बार फिर से तलाक कह देता है। इसके बाद वह उकसावे को भूल जाता है और फिर से बीवी के साथ रहने लगता है। लेकिन उसके दो तलाक पूरे हो चुके हैं, इसके बाद वह जब भी तलाक कहता है तो वह अंतिम तलाक होता है। उसके बाद निकाह तुरंत खत्म हो जाता है।
  इस मामले पर दुनिया में जिस तेजी से बदलाव आ रहा है, मुस्लिम धर्मावलम्बियों सहित एक तबके का नजरिया उसके खिलाफ है। मुद्दे की बात ये है कि करीब 22 मुस्लिम देश, जिनमें पाकिस्तान और बांग्लादेश भी शामिल हैं, अपने यहां तीन-तलाक की प्रथा खत्म कर चुके हैं। तुर्की और साइप्रस भी इसमें शामिल हैं, जिन्होंने धर्मनिरपेक्ष पारिवारिक कानूनों को अपना लिया। ट्यूनीशिया, अल्जीरिया और मलेशिया के सारावाक प्रांत में कानून के बाहर किसी तलाक को मान्यता नहीं है। ईरान में शिया कानूनों के तहत तीन तलाक की कोई मान्यता नहीं है। यह अन्यायपूर्ण प्रथा इस समय भारत और दुनियाभर के सिर्फ सुन्नी मुसलमानों में बची है। 
कहाँ से आया 'तीन-तलाक़'
   मिस्र पहला देश था जिसने 1929 में इस विचार को कानूनी मान्यता दी। वहां कानून-25 के जरिए घोषणा की गई कि तलाक को तीन बार कहने पर भी उसे एक ही माना जाएगा और इसे वापस लिया जा सकता है। 1935 में सूडान ने भी कुछ और प्रावधानों के साथ यह कानून अपना लिया। आज ज्यादातर मुस्लिम देश ईराक से लेकर संयुक्त अरब अमीरात, जॉर्डन, कतर और इंडोनेशिया तक ने तीन तलाक के मुद्दे पर विचार कर रहे हैं। 
  ट्यूनीशिया में 1956 में बने कानून के मुताबिक वहां अदालत के बाहर तलाक को मान्यता नहीं है। ट्यूनीशिया में बकायदा पहले तलाक की वजहों की पड़ताल होती है। यदि जोड़े के बीच सुलह की कोई गुंजाइश न दिखे तभी तलाक को मान्यता मिलती है। अल्जीरिया में भी करीब यही कानून है। वहीं तुर्की ने मुस्तफा कमाल अतातुर्क के नेतृत्व में 1926 में स्विस सिविल कोड अपना लिया था।  इसके लागू होने का मतलब था कि शादी और तलाक से जुड़े इस्लामी कानून अपने आप ही हाशिये पर चले गए! हालांकि, 1990 के दशक में इसमें कुछ संशोधन जरूर हुए, लेकिन जबर्दस्ती की धार्मिक छाप से यह तब भी बचे रहे. बाद में साइप्रस ने भी तुर्की में लागू कानून प्रणाली अपना ली!
   जहां तक भारत की बात है तो यहां तीन-तलाक की जड़ें आम जनमानस में काफी गहरी हैं। अनजाने में या पितृसत्तात्मक समाज के प्रभाव से यहां 'तीन तलाक' की यह प्रक्रिया सबसे प्रभावी बन गई। यहां तक कि कई मुसलमान यह भी मान लेते हैं कि इस्लाम में तलाक का यही एकमात्र तरीका है। इसलिए गुस्से के क्षणों में कई लोग 'तीन तलाक' कहकर अपनी बीवी तो तलाक दे देते हैं और फिर इस फैसले पछताते हैं। क्योंकि, यह तलाक वापस नहीं लिया जा सकता और तलाकशुदा लोगों को फिर से आपस में शादी करनी है तो उन्हें 'हलाला' की व्यवस्था से गुजरना पड़ता है। 
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मैं औरत हूँ, औरत! 
हव्वा की बेटी 
आसमान से भेजी गई नूर की वो पाको मुक्कदस बूँद 
जो बरसों से इस सरजमीं को सींचती चली आई है  'मैं औरत हूँ।'
मैंने ही प्यार के रंग-बिरंगे फूल खिलाकर इस दुनियाँ को जन्नत बनाया।
मैंने ही अपनी कोख से मर्द को जनम दिया, माँ बनकर उसको पाँव पर चलना सिखाया, 
बहन बनकर उसके बालापन को चुलबुली कहानियाँ दीं!
महबूबा बनकर उसकी ज़िंदगी को रेशमी नगमों में ढाला तो शरीके हयात बनकर 
अपनी जवानी के अनमोल मोती लुटाकर, उसके रात और दिन सजाए !  
मैंने ही वक्त पड़ने पर कंधे से कंधा और क़दम से क़दम मिलाकर 
कंटीली राहों में दोस्त बनकर उसका साथ दिया। 
ये सब करते हुये अपना वजूद खोकर मैं 'औरत' नूर की वो बूँद उसमें पूरी की पूरी समा गई ! 
आज सदियाँ बीत जाने पर हर लम्हा मुझे यही सताया रहता है कि न जाने कब 
अपनी ऊँचाई से मैं गिरा दी जाऊं!
कब किसी कोठे में ढकेल दी जाऊं! 
कब जुएं में दांव पर लगा दी जाऊँ और अपनी पाकीजगी का सबूत देने के लिये 
मुझे शोलों में झुलसना पड़े! 
कब जनमते ही मार डाली जाऊँ, कब हवस के मीना बाज़ार में नीलाम कर दी जाऊँ! 
कब निकाह कर अपनाई जाऊँ,कब तलाक़ देकर ठुकराई जाऊँ!
कब मेरी इज्ज़त, मेरी अस्मत का रखवाला मर्द मुझे ही बेआबरू कर डाले! क्योंकि 'मैं एक औरत हूँ।'
(फ़िल्म 'निकाह' में पैंटिंग के साथ कानों में पड़ने वाली पंक्तियाँ)
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