Monday 25 September 2017

सरकार की 'कैशलेस-पॉलिसी' में क्रिकेट एसोसिएशन ही साथ नहीं!

- एकता शर्मा 

   इंदौर में भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच क्रिकेट मैच होने वाला है। इसके टिकट भी काफी महंगे हैं। लोगों ने घंटों लाइन में लगकर इस मैच के टिकट खरीदे। लेकिन, ख़ास बात ये कि सभी टिकट नकद में बेचे गए। क्रिकेट एसोसिएशन ने बकायदा अख़बारों में विज्ञापन देकर स्पष्ट किया कि टिकट के लिए डेबिट या क्रेडिट कार्ड स्वीकार्य नहीं होंगे! टिकट बेचने के लिए निर्धारित की गई वेबसाइट भी क्रेश हो गई, या कर दी गई! मुद्दा ये है कि एक तरफ तो प्रधानमंत्री देश में कैशलेस इकोनॉमी पर जोर दे रहे हैं, दूसरी तरह क्रिकेट एसोसिएशन ही सरकार की मंशा को पलीता लगा रही है। ये वो अहम् सवाल है जो दर्शाता है कि बड़े-बड़े खेल संगठन ही सरकार का साथ नहीं दे रहे, तो जनता से कैसे उम्मीद की जा रही है?      
   नोटबंदी के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कैशलेस इकोनॉमी को आगे बढ़ाने का झंडा बुलंद करने की कोशिश की थी। कैशलेस से उनका आशय था कि लोग अपने बटुवे में कम पैसे रखें और सारा लेन-देन इलेक्ट्रॉनिक माध्यम या अपने डेबिट कार्ड करें। सपना अच्छा है और सपने देखने में कोई बुराई भी नहीं है! लेकिन, क्या भारतीय परिवेश में कैशलेस इकोनॉमी इतनी जल्दी संभव है? इससे भी बड़ा सवाल ये है कि क्या सरकार के सारे घटक और व्यवस्थाएं इसके लिए तैयार हैं? इन दोनों सवालों का एक ही जवाब सामने आता है 'नहीं!' जिस देश में खेलों के टिकट कैश में बेचने की मुनादी पिटती हो! पेट्रोल पम्पों पर डेबिट कार्ड से पेमेंट करने वालों को इंकार कर दिया जाता हो! अधिकांश दुकानों पर कार्ड स्वेपिंग मशीनें नहीं हों, वहाँ कैशलेस ट्रान्जेशन कैसे संभव है? 
  इसी से जुड़ा मुद्दा ये भी है कि जब बैंकों ने एटीएम से ट्रांजेशन की लिमिट तय कर दी हो, तो लोग क्या करेंगे? उनके पास यही रास्ता है कि जहाँ तक संभव हो, कैश निकालकर जेब में भर लिया जाए और सारा काम उसी से चलाया जाए! अभी भारतीय अर्थव्यवस्था में मात्र 2 फीसदी डिजिटल भुगतान होता है, जिसे आगे बढ़ाने में काफी समय लग जाएगा। देश में इंटरनेट के संजाल को और व्यापक स्तर पर फैलाने की जरूरत है। दूर-दराज के क्षेत्र अभी भी इंटरनेट की अद्भुत बाजीगरी से वाकिफ नहीं है। 4जी के ज़माने में भी अन्य देशों की तुलना में इंटरनेट की गति बहुत धीमी है। आज भी दस लाख की आबादी पर 850 कार्ड स्वेपिंग मशीनें ही हों, तो ऐसे सपने देखे ही क्यों जाएँ? 
  कैशलेस इकोनॉमी में पड़ा पेंच है कि आम जनता इसकी प्रक्रिया को समझे और सरकार इस व्यवस्था के लिए वो सारे उपाय करे जो जरुरी हों! उसके बाद जनता को जागृत किया जाए कि वो अपने बटुवे का वजन हल्का करे। क्योंकि, जो देश सदियों से सारा कामकाज कैश से चलाता रहा हो, वहाँ रातों-रात व्यवस्था और लोगों का मानस बदल देना आसान नहीं है। रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के एक रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ 55 फीसदी लोगों के पास ही डेबिट कार्ड है। ऐसे में सारे लोग कैशलेस ट्रान्जेशन कैसे कर पाएंगे? जिन लोगों के पास डेबिट कार्ड हैं, उनमें से सिर्फ 7-8 फीसदी लोग है जो नेट-बैंकिंग का इस्तेमाल करते हैं। बाकी लोग तो अपने डेबिट कार्ड का उपयोग सिर्फ एटीएम से पैसे निकालने के लिए करते है। सरकार ने गरीबी रेखा से नीचे (यानी 500 रुपए प्रति महीने आय वाले) गुजर-बसर करने वालों के बैंक खाते तो खुलवा दिए, पर बैंकों ने उन्हें डेबिट कार्ड नहीं दिए! क्योंकि, वे न्यूनतम बैलेंस की शर्त पूरी नहीं करते!  
  देश के कुछ ग्रामीण इलाके तो ऐसे हैं, जहाँ दूर दूर तक बैंको का ही पता नहीं! इनके लिए सरकार पास क्या इंतजाम हैं? जब तक देश की सौ फीसदी आबादी के बैंक खाते नहीं हो जाते और वे नेट-बैंकिंग नहीं सीख जाते, इस तरह के सपने देखना भी अपने आपको धोखे में रखने जैसा है! साथ ही ग्रामीण इलाके के लोगों को कैशलेस व्यवस्था के लिए मानसिक रूप से शिक्षित भी करना होगा। ऐसा नहीं किया गया तो हमारे यहाँ ऐसे 'साइबर-लुटेरों' की कमी नहीं है, जो लोगों की नासमझी और अज्ञानता का फ़ायदा उठाकर उनकी सारी जमापूंजी उड़ा सकते हैं। आज जब हमारे यहाँ टेलीफोन पर लोगों को भरमाकर उनके बैंक अकाउंट नम्बर पूछकर सरेआम धोखाधड़ी होने लगी है तो एटीएम का पासवर्ड पता करके तो कुछ भी हो सकता है।    
  भारत में 2014 में कैश और जीडीपी का अनुपात 12.42% था, जबकि चीन में ये 9.47% और ब्राजील में 4% था। हमारे देश में नकदी का बहुत ज्यादा महत्व है और अभी भी हमारे देश में अधिकांश लेन-देन नकदी में ही होता है। भारत जैसे देश को कैशलेश इकोनॉमी में तब्दील करने में अभी ढेरों बाधाएं हैं, जैसे इंटरनेट का ख़राब नेटवर्क, वित्तीय तथा डिजिटल साक्षरता की कमी और साईबर सुरक्षा की अपर्याप्त सुविधा। यहाँ छोटे-छोटे विक्रेता हैं, जिनके पास इलेक्ट्रानिक पेमेंट लेने की व्यवस्था करने के लिए पर्याप्त धन नहीं होता! अधिकांश ग्राहकों के पास स्मार्टफोन न होने के कारण वो इंटरनेट बैंकिंग, मोबाईल बैंकिंग और डिजिटल वैलेट्स का उपयोग करने में सक्षम नहीं होते। अधिकतर लोग अभी कैशलेस लेन-देन को भी ठीक से नहीं समझते! 
 अधिकांश आनलाईन ग्राहकों को ये पता ही नहीं होता है कि यदि उनके साथ कुछ धोखाधड़ी हो जाए तो वो कहाँ शिकायत करें! सरकार को पहले इन समस्याओं का समाधान खोजना चाहिए। डिजिटल व्यापार करने वाली कंपनियों के लिए स्पष्ट नियम-कानून, ग्राहकों के धन की सुरक्षा के पर्याप्त उपाय और तीव्र शिकायत निवारण प्रणाली के बिना डिजिटल इंडिया का सपना पूरा नहीं हो सकता है| इसके अतिरिक्त डेबिट/क्रेडिट कार्ड से पेमेंट करने पर ट्रांजैक्शन चार्ज न लगाना और कैशलेस ट्रांजैक्शन पर कर में छूट देने जैसे उपायों द्वारा डिजिटल पेमेंट को लोकप्रिय बनाया जा सकता है। 
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