Monday 25 September 2017

स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा की जिम्मेदारी हम भी निभाएं

- एकता शर्मा 

 बच्चों की सबसे बड़ी कमजोरी उनका भोलापन है। उनका यही भोलापन उन्हें बच्चा बनाए रखता है। लेकिन, उनका यही भोलापन ही डर, अवसाद और अकेलेपन को खुलकर कह नहीं पाता। दूसरी तरफ हम बच्चों की बातों को खास अहमियत नहीं देते। बच्चों के भोलेपन के शिकारी ऐसी ही स्थिति का फायदा उठाकर अपनी कुंठाओं की पूर्ति करते हैं। अकसर देखा गया है कि बच्चों के उत्पीड़न में वहीं लोग शामिल होते हैं, जिन पर उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी होती है। लेकिन, यहाँ परिजनों की भी जिम्मेदारी है कि वे स्कूल में अपने बच्चों की सुरक्षा के इंतजामों पर खुद नजर रखें। सिर्फ पेरेंट्स मीटिंग में जाकर अपनी औपचारिक पूरी न करें। 
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     केन्द्रीय महिला व बाल विकास मंत्रालय द्वारा बच्चों की सुरक्षा की स्थिति को लेकर देशभर में किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक हर दो बच्चों में से एक को स्कूल में यौन शोषण का शिकार बनाया जा रहा है। पिछले सालों में राष्ट्रीय बाल अधिकार पैनल को स्कूलों में बच्चों के साथ यौन शोषण और उत्पीड़न की सैकड़ों शिकायतें मिली है।    यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक 65 फीसदी बच्चे स्कूलों में यौन शोषण के शिकार होते हैं। इनमें 12 वर्ष से कम उम्र के लगभग 41 से 17 फीसदी, 13 से 14 साल के 25.73 फीसदी और 15 से 18 साल के 33.10 फीसदी बच्चे शामिल हैं। यह सच्चाई हमारी शिक्षा व्यवस्था की बुनियाद को हिला देने वाली है।
  इस बात से इंकार नहीं कि पिछले कुछ सालों से स्कूलों में बच्चों के शोषण और उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ी हैं। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के मुताबिक स्कूलों में बच्चों के साथ होने वाली शारीरिक प्रताड़ना, यौन शोषण, दुर्व्यवहार, हत्या जैसे मामलों में तीन गुना बढ़ोतरी हुई। आज बच्चों के लिए हिंसामुक्त और भयमुक्त माहौल में शिक्षा देने का सवाल बहुत बड़ा सवाल बन गया हैं। देखा गया है कि स्कूलों में बाल उत्पीड़न के दर्ज हुए मामलों में अधिकांश मामले हिंदी भाषी राज्यों के हैं। 
  सामान्य तौर से हमारे आसपास बच्चों के साथ होने वाले दुराचारों को गंभीरता से नहीं लिए जाने की मानसिकता है। इस तरह हम बच्चों पर होने वाले अत्याचारों पर चुप रहकर उसे जाने-अनजाने में प्रोत्साहित कर रहे हैं। जबकि, बच्चों को दिए जाने वाली तमाम शारारिक और मानसिक प्रताड़नाओं को तो उनके मूलभूत अधिकारों के हनन के रुप में देख जाने की जरूरत है, जिन्हें कायदे से किन्हीं भी परिस्थितियों में बर्दाश्त नहीं किए जाने चाहिए। लेकिन, सरकार ने स्कूलों में सुरक्षित बचपन से जुड़े कई तरह के सवालों के साथ उनसे जुड़ी मार्गदर्शिका तैयार किए जाने की मांग को लगातार अनदेखा किया है। स्कूलों में उत्पीड़न के मामले में पीड़ित बच्चों को किसी उम्र विशेष में नहीं आंका जा सकता! लेकिन, अधिकांश मामलों में यौन उत्पीड़न से पीड़ित बच्चों में 8 से 12 साल तक आयु-समूह के बच्चों की संख्या सर्वाधिक रही है। 
 बच्चों के सुरक्षित बचपन के लिए सरकार ने जहाँ बजट में मामूली बढ़ोत्तरी की है, वहीं इसके लिए देश में पर्याप्त कानून, नीतियां और योजनाएं हैं। इनके बावजूद महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा किए गए सर्वेक्षण में 65 प्रतिशत बच्चे महज शारारिक प्रताड़नाएं भुगत रहे हैं। जाहिर है कि समस्या का निपटारा केवल बजट में बढ़ोतरी या सख्ती और सहूलियतों के प्रावधानों से मुमकिन नहीं हैं। बल्कि, इसके लिए मौजूदा शिक्षण पद्धतियों को नैतिकता और सामाजिकता के अनुकूल बनाने की भी जरूरत है। इसी के साथ बच्चों के सीखने की प्रवृतियों में सुरक्षा के प्रति सचेत रहने की प्रवृति को भी शामिल किया जाना भी जरुरी है। 
  विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक शारारिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक, दुर्व्यवहार, लैंगिक असामानता इत्यादि बाल उत्पीड़न के अंतर्गत आते हैं। फिर भी बच्चों के उत्पीड़न के कई प्रकार अस्पष्ट हैं और उन्हें परिभाषित करने की संभावनाएं अभी बनी हुई हैं। दूसरी तरफ राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो बच्चों के उत्पीड़न से जुड़े केवल वहीं मामले देखता है, जो पुलिस-स्टेशनों तक पहुंचते हैं। जबकि, प्रकाश में आए मामलों के मुकाबले अंधेरों में रहने वाले मामलों की संख्या हमेशा से ही कई गुना तक अधिक होती है। 
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(लेखिका पेशे से वकील और बाल और महिला संरक्षण अभियानों से सम्बद्ध हैं)
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