Sunday 21 June 2020

समाज की सच्चाई की पोल खोलने में 'पाताल लोक' बेजोड़!

- एकता शर्मा
 ब फिल्मों की तरह वेब सीरीज के कथानकों पर भी उंगली उठने लगी है। जबकि, विवाद खड़ा करने वाले जानते हैं कि वेब सीरीज पर आपत्ति उठाने से कुछ होगा नहीं! क्योंकि, इन पर कोई सेंसर लागू नहीं होता! यही कारण है कि वेब सीरीज में खुलकर गालियां बकी जाती है और ऐसे सीन भी होते  हैं,जो सामान्यतः फिल्मों में नहीं दिख सकते! पहले नेटफ्लिक्स की 'सेक्रेट गेम्स' जैसी लोकप्रिय सीरीज में खामियाँ खोजी गईं, अब यही अमेजन-प्राइम की 'पाताल लोक' के साथ हुआ। लेकिन, 'पाताल लोक' की कहानी दिलचस्प है, जो पुलिस, राजनीति और पत्रकारिता जैसे पेशों की सच्चाई की पोल खोलती है!     
     वेब सीरीज 'पाताल लोक' जितनी लोकप्रिय हुई, उसके साथ उतने ही विवाद भी जुड़े। इस वेब सीरीज ने कई सीरीज को पीछे छोड़ दिया है। लेकिन, विवादों के मामले में भी ये सबसे आगे रही। इस सीरीज पर मानहानि, जातिगत और धार्मिक भावनाओं को भड़काने के भी आरोप लगे! सबके टारगेट पर रही फिल्म अभिनेत्री और निर्माता अनुष्का शर्मा। 'पाताल लोक' उनकी ही निर्माण कंपनी 'क्लीन स्लेट' ने बनाया है। लेकिन, प्रतिबंध लगाने जैसी मांगें नई नहीं है। कई फ़िल्में ऐसे विवादों का शिकार हो चुकी हैं। लेकिन, ये विवाद खड़ा होने से पहले 'पाताल लोक' अपना काम कर चुकी है। इसे हाल के वर्षों की श्रेष्ठ वेब सीरीज माना जाने लगा है। समीक्षकों ने इसे नेटफ्लिक्स की बहुचर्चित 'सेक्रड गेम्स' सीरीज से भी बेहतर माना। इसकी तुलना विश्वविख्यात 'मनी हाइस्ट' वेब सीरीज से की जाने लगी है। अनुराग कश्यप ने 'पाताल लोक' को के बारे में कहा कि ये देश में निर्मित अब तक की श्रेष्ठ क्राइम थ्रिलर है। भारत की सही शिनाख़्त कर पाने की वजह से ही ऐसा हुआ है।
   जातिगत या धार्मिक आधार पर विरोध करने वालों या इसे हिंदू बनाम मुस्लिम का मुद्दा बनाने की कोशिश करने वालों की आवाज कितनी देर टिकी रह पाती है, ये अभी देखना है! क्योंकि, समकालीन समय के अनुभव बताते हैं कि बात 'सेक्रड गेम्स' की हो या 'पाताल लोक' की, सोशल मीडिया दौर में विवाद इतना आसानी से पीछा नहीं छोड़ते! अनुष्का शर्मा का बतौर निर्माता पहली बार ऐसी स्थितियों से सामना हुआ है। उनके लिए ये एक बड़ा इम्तिहान है। जहां वे स्वर्ग, धरती और पाताल तीनों लोकों में निर्भीक और आत्मविश्वास से भरी नजर आती हैं।
    'पाताल लोक' हाल के दिनों में जबर्दस्त हिट होने वाली वेब सीरीज़ है। इस सीरीज को मिल रहे व्यूज से अंदाजा लग रहा है कि इसे बड़े पैमाने पर देखा जा रहा है। माउथ पब्लिसिटी ने इसे खासी लोकप्रियता दी। इसे युवा दर्शकों ने बहुत ज्यादा पसंद किया। लेकिन, कुछ नेताओं, सामाजिक संगठनों और धार्मिक संगठनों ने इस वेब सीरीज को बंद करने या उसमे बदलाव करने की मांग और शिकायतें की। किसी फिल्म को लेकर यदि ऐसी मांग या शिकायत होती, तो कुछ होने के आसार। लेकिन, ओटीटी प्लेटफॉर्म पर ऐसी बातों को तवज्जो नहीं दी जाती। हिंदी दर्शकों के बेल्ट में ये वेब सीरीज इसलिए भी पसंद की जा रही है, कि इसमें भाषा, जाति और धर्म को लेकर जमकर धज्जियाँ उधेड़ी गई। नौकरशाही, पुलिस, मीडिया, राजनीति और इन सबसे बंधे एक बड़े पॉलिटिकल और सोशल सिस्टम को भी उघाड़ा गया है। अंधेरों-उजालों, नाइंसाफियों और यातनाओं और आत्मसंघर्षों की छानबीन करती ये सीरीज अपने कलाकारों के अभिनय और अनुष्का शर्मा की हिम्मत के लिए भी याद की जा रही है। ये वेब सीरीज पुलिस सिस्टम अंदर की विसंगतियों और विद्रूपताओं को उजागर करते हुए सामाजिक संकटों की शिनाख्त करती है। इसमें दलित चेतना के उभार से जुड़ी चुनौतियों की तलाश भी की गई है।
     वेब सीरीज पर आरोप लगाया गया कि हिंदुओं, सिखों और गोरखाओं की भावनाओ का अपमान किया गया और इस तरह सांप्रदायिक, जातीय और नस्ली सद्भाव को बिगाड़ने की कोशिश की गई! उत्तरप्रदेश के एक विधायक का आरोप है कि जिस फोटो को कथित रूप से दर्शाकर सीरीज में इस्तेमाल किया गया, वो उनके जैसा दिखता है। इससे उनकी मानहानि हुई है और जिस गुर्जर जाति से वे आते हैं, उसका भी अपमान हुआ! हिंदू धर्म के कथित अपमान पर भी उन्होंने अनुष्का शर्मा के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई है। दिल्ली के एक सिख संगठन के पदाधिकारी ने सिख पात्र को खराब ढंग से चित्रित करने का आरोप लगाया है। गोरखा समुदाय के एक वकील ने भी अनुष्का शर्मा के खिलाफ रिपोर्ट करते हुए सीरीज पर आरोप लगाया कि नेपाली शब्द के साथ गाली का इस्तेमाल कर समुदाय का अपमान हुआ है। सिक्किम के सांसद इंद्राहुंग सुब्बा ने भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय से शिकायत की है।
    इसकी कहानी कई ऐसे सवाल छोड़ती है, जो दर्शक को सोचने पर विवश करते हैं। समाज में सौतेले व्यवहार का मुकाबला नागरिक धैर्य से करते रहने की कठिन परीक्षा से गुजरता किरदार हर दर्शक के सामने कुछ सवाल छोड़ जाता है। नौ कड़ियों में किरदारों का समावेश इस तरह है, कि वो वो 'पाताल लोक' की दुर्दशा के कथानक को अपनी अपनी निराशाओं, पराजयों और लालसाओं की ठोस जमीन मुहैया करा देते हैं। हालांकि सीरीज अपने पहले सीजन के अंत तक पहुंचते-पहुंचते कुछ जानी पहचानी कमजोरियों का शिकार भी होती है। अपने उन चार पात्रों को सहसा भुला देती है, जिनसे ये कहानी शुरू होती है। 
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शांत हो गया बड़े परदे का अभिनेता 'सुशांत'


- एकता शर्मा

  सुशांतसिंह राजपूत ने आत्महत्या कर ली, ये खबर विश्वसनीय तो नहीं है, पर सच यही है। बॉलीवुड पर कोरोना काल की आई त्रासदियों की ये एक और कड़ी है। बताते हैं कि वे पिछले 6 महीने से अवसाद में थे। उनकी पूर्व मैनेजर दिशा सलील ने भी चार दिन पहले बिल्डिंग से कूदकर आत्महत्या कर ली थी।क्या सुशांत और दिशा की आत्महत्या में कोई संबंध है, ये कयास भी लगाए जा रहे हैं। जाने-माने विलेन शक्ति कपूर की इस बात में दम है कि बॉलीवुड को नजर लग गई! एक-एक करके चर्चित लोग जा रहे हैं। 
  सुशांत के अंतिम इंस्टा मैसेज में भी बहुत कुछ ऐसा है, जो सोचने को मजबूर करता है। 'आंसू की बूंदों से धुंधला अतीत हवा में घुलता जा रहा है। अंतहीन सपने मुस्कान ला रहे हैं। ... और क्षणभंगुर जीवन दोनों के बीच से गुजर रहा है # मां!
  स्टार पुत्रों की भीड़ के बीच सुशांत अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाब हुए थे। वे उन चंद भारतीय टीवी और फ़िल्म अभिनेताओं में हैं जिन्होंने टेलीविजन से अपना करियर शुरू करके फिल्मों में भी मुकाम बनाया। सबसे पहले उन्होनें 'किस देश में है मेरा दिल' धारावाहिक में काम किया था। पर, उनको पहचान मिली एकता कपूर के धारावाहिक 'पवित्र रिश्ता' से। इसके बाद उन्हें फिल्मों के प्रस्ताव मिलना शुरु हुए। फ़िल्म 'काय पो छे' में उनके अभिनय की तारीफ़ हुई। इसके बाद वे 'शुद्ध देसी रोमांस' में वाणी कपूर और परिणीति चोपड़ा के साथ दिखे। फ़िल्म सफल रही और सुशांत का फ़िल्मी करियर परवान चढ़ गया। 
   अपनी पहली ही फिल्म से बॉलीवुड में अपनी जगह बनाने वाले सुशांतसिंह राजपूत  का भी जीवन आसान नहीं रहा है। मां बाप की इच्छा के बिना उन्होंने फिल्मों को अपना करियर चुना और इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाई। फिल्म ‘काय पे चे’ में निभाए गए अपने किरदार की प्रेरणा उन्हें अपनी बहन मीतू सिंह से मिली थी। एक समय ऐसा भी था, जब कोई बड़ी अभिनेत्री उनके साथ काम तक नहीं करना चाहती थीं! क्योंकि, वे एक साधारण परिवार से थे और उनका कोई फिल्मी बैकग्राउंड नहीं था। फिल्म ‘शुद्ध देसी रोमांस’ इसका उदाहरण है। काफी समय बाद फिल्म के लिए परिणीति चोपड़ा को साइन किया गया था। वे अपनी लव लाइफ को लेकर भी अखबारों और टीवी की सुर्खियों में रहे हैं। 
    सुशांत फिल्म इंडस्ट्री में एक ऐसे अभिनेता हैं, जिन्होंने अपनी काबिलियत के दम पर सफलता हांसिल की। सबसे यंग टैलेंट के रूप में उनको बॉलीवुड इंडस्ट्री में देखा जाता था। वे एक ऐसे अभिनेता थे, जो कभी भी मेहनत करने से पीछे नहीं हटे। उनके अंदर अभिनय के अलावा डांस की भी काबिलियत मौजूद थी। उनका करियर उतार-चढ़ाव से होकर गुजरा! वे ऐसे अभिनेता थे, जिनका बॉलीवुड इंडस्ट्री से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं था। जब वे कॉलेज की पढ़ाई कर रहे थे, उनकी दिलचस्पी डांस में बढ़ने लगी थी। फिर उन्होंने डांस सीखने का निर्णय लिया, पर उनका परिवार इससे सहमत नहीं था। परिवार की सहमति न मानकर उन्होंने हार न मानते हुए श्यामक डाबर के डांस ग्रुप को ज्वाइन कर लिया था। श्यामक उनकी मेहनत और डांस के प्रति जुनून देखकर बहुत ही प्रभावित हुए और उन्होंने 2006 के कामनवेल्थ गेम में उन्हें डांस का अवसर दिया था। इसके बाद वे मुंबई आ गए, यहां उन्होंने डांस ग्रुप के साथ भी परफॉर्मेंस किया। इस डांस ग्रुप को प्रसिद्ध कोरियोग्राफर ऐश्ले लोबो ने प्रशिक्षित किया था। सुशांत ने अपनी जिंदगी में बहुत उतार-चढ़ाव देखे! उनके अंदर शुरू से ही अदाकारी का जुनून था। इसी जुनून ने उन्हें कुछ अलग करने की प्रेरणा दी! उन्होंने थिएटर में भी काम किया और बड़ा कारण यही है, कि कठिन परिश्रम ने ही उन्हें स्टार बनाकर लोगों के सामने प्रस्तुत किया। सुशांतसिंह ने अपनई कला को और ज्यादा चमकाने के लिए मशहूर एक्शन डायरेक्टर अल्लन अमीन से मार्शल आर्ट की भी ट्रेनिंग ली थी। 
   उन्होंने 'जरा नच के दिखा-2' और 'झलक दिखला जा-4' जैसे बड़े डांसिंग शो भी किए। झलक दिखला जा-4 में इनकी परफारमेंस को मद्देनजर रखते हुए इनको मोस्ट कंसिस्टेंट परफारमेंस का टाइटल भी प्रदान किया गया था। सुशांत ने कई बड़ी फिल्में की, जो दर्शकों द्वारा पसंद भी की गई! 2016 में भारतीय क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी के ऊपर आई उनकी जीवनी फिल्म में सुशांत राजपूत को धोनी का किरदार करने को मिला था। इस फिल्म ने भारतीय पर्दे पर बड़ी सफलता हांसिल की। 

सुशांत राजपूत के टीवी शो .
- 2008 और 2010 में 'किस देश में है मेरा दिल'
- 2010 में 'जरा नच के दिखा' डांस शो
- 2010 और 2011 में 'झलक दिखला जा-4'
- 2009 और 2011 एवं 2014 में 'पवित्र रिश्ता'
- 2015 में 'सीआईडी'
- 2016 में 'कुमकुम भाग्य'

सुशांत राजपूत की चर्चित फिल्में - काय पो चे
- शुद्ध देसी रोमांस
- पीके
- एम एस धोनी : द अनटोल्ड स्टोरी
- राब्ता
- छिछोरे
- अमरनाथ
आने वाली फिल्में ?- दिल बेचारा
- पानी
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मिडिल क्लॉस फैमेली की 'छोटी सी बात' अब कौन सुनाएगा!

यादें : बासु चटर्जी

- एकता शर्मा

  हिंदी और बंगाली फिल्मों के जाने-माने डायरेक्टर बासु चटर्जी ने जिंदगी को अलविदा कह दिया। लॉक डाउन में ये बॉलीवुड के लिए एक और बड़ी क्षति है। उनके निधन का कारण उम्र संबंधी बीमारियां बताया जा रहा है। उन्होंने सुबह के समय नींद में ही शांति से अंतिम सांस ली। वे उम्र संबंधी परेशानियों के कारण कुछ समय से अस्वस्थ चल रहे थे। 70 और 80 के दशक में उनकी फिल्मों को बेहद पसंद किया गया। उन्होंने रजनीगंधा, चित्तचोर, छोटी सी बात, खट्टा-मीठा, एक रुका हुआ फैसला और चमेली की शादी जैसी रोमांटिक कॉमेडी वाली फ़िल्में बनाई, जिन्हें हर वर्ग के दर्शक रिझाया।
  उनकी अधिकांश फिल्मों के हीरो अमोल पालेकर और हीरोइन विद्या सिन्हा या जरीना वहाब हुआ करती थी। अपनी पहली फिल्म 'सारा आकाश' अलग तरह फिल्म की गंभीर मूड  थी, पर बाद उन्होंने ट्रेंड बदला और जीवन के छोटे-छोटे किस्सों को कहानियों  पिरोकर फ़िल्में बनाईं! अनिल कपूर को लेकर उन्होंने 'चमेली की शादी' डायरेक्ट की थी, जिसे आज भी याद किया जाता है। उनकी फिल्मों का आधार मिडिल क्लास फैमेंली की रोजमर्रा के जीवन में होने वाली कॉमेडी हुआ करती थी। 
   उन्होंने अपने करियर की शुरुआत एक पत्रिका में कार्टूनिस्ट और इलस्ट्रेटर के रूप में की थी। वे 18 साल तक इसी काम में लगे रहे। इसके बाद उन्होंने फिल्म निर्माता के रूप में अपना करियर बनाया और 1966 में राज कपूर और वहीदा रहमान स्टारर फिल्म 'तेरी कसम' में असिस्टेंट बनकर काम किया। इस फिल्म ने भी अपने दौर में राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीता था। उन्होंने 10 से ज्यादा सफल फिल्मों का निर्देशन किया। चटर्जी को 1969 में अपनी पहली फिल्म 'सारा आकाश' के साथ सफलता मिली। इस फिल्म के लिए उन्होंने स्क्रीन प्ले के लिए भी पुरस्कार जीता था।
  बासु चटर्जी का जन्म अजमेर में हुआ था. फिल्मों में बासु चटर्जी के योगदान के लिए 7 बार फिल्म फेयर अवॉर्ड और दुर्गा के लिए 1992 में नेशनल फिल्म अवॉर्ड भी मिला था. 2007 में उन्हें आईफा ने लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड से नवाजा था. 1969 से लेकर 2011 तक बासु दा फिल्मों के निर्देशन में सक्रिय रहे। बासु चटर्जी के परिवार में उनकी दो बेटियां- सोनाली भट्टाचार्य और रूपाली गुहा है। रूपाली ने फिल्में डायरेक्ट की है। वह टीवी सीरियल की भी प्रोड्यूसर हैं।
    बॉलीवुड में बासु चटर्जी को प्यार से 'बासु दा' कहकर बुलाया जाता था। मिडिल क्लास फैमेंली की गुदगुदाती और हल्के से छू जाने वाली रोमांटिक कॉमेडी फिल्मों ने बासु चटर्जी को फिल्म  इंडस्ट्री में अलग पहचान दिलाई। बासु चटर्जी ने कुछ बंगाली फिल्मों के अलावा टीवी के लिए भी सीरियल बनाएं! इनमें 90 के दशक का 'ब्योमकेश बख्शी' सर्वाधिक लोकप्रिय रहा! ये एक जासूसी सीरियल था, जिसमें रजत कपूर मुख्य भूमिका में थे। बाद में उन्होंने दर्पण और कक्काजी कहिन जैसे सीरियल भी डायरेक्ट किए। उनकी आखिरी फिल्म बंगाली की 'साल त्रिशंकु' थी, जो साल 2011 में रिलीज हुई!
  बासु चटर्जी के निधन पर फिल्म निर्माता और भारतीय फिल्म और टीवी निर्देशकों के एसोसिएशन के अध्यक्ष अशोक पंडित ने ट्विटर पर लिखा, ' मैं अशोक पंडित दिग्गज फिल्म निर्माता बासु चटर्जी जी के निधन की सूचना देते हुए काफी दुखी हूं। यह इंडस्ट्री के लिए एक बड़ी क्षति है। बॉलीवुड के मशहूर निर्माता और निर्देशक मधुर भंडारकर ने ट्वीट करते हुए कहा, 'निर्माता श्रीबासु चटर्जी के निधन का सुनकर बहुत दुःख हुआ। उन्हें हमेश लाइट हार्टेड कॉमेडी और सिंपलिसिस्ट फिल्म्स के लिए याद किया जाएगा।
उनकी फ़िल्में   प्रतीक्षा, गुदगुदी, त्रियाचरित्र, कमला की मौत, ज़ेवर, भीम भवानी, किरायेदार, चमेली की शादी, शीशा, लाखों की बात, पसन्द अपनी अपनी, हमारी बहू अलका, शौकीन, अपने-पराये, मन पसंद, जीना यहाँ, मंज़िल, दो लड़के दो कड़के, रत्नदीप, बातों बातों में, प्रेम विवाह, तुम्हारे लिए, खट्टा मीठा, दिल्लगी, सफेद झूठ, प्रियतमा, स्वामी, चितचोर, छोटी सी बात, रजनीगंधा, उस पार, पिया का घर
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खामोश हो गया संगीत का एक मधुर सुर!


यादें : वाजिद खान

- एकता शर्मा

  हिंदी फिल्म संगीतकारों की दुनिया जोड़ियों से चलती है। जब भी ये जोड़ी टूटती है, सारे सुर बिखर जाते हैं। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के साथ भी यही हुआ था, अब साजिद-वाजिद के वाजिद का इंतकाल हो गया। उन्हें कोरोना ने अपना शिकार बना लिया। देखा जाए तो साल 2020 बॉलीवुड के लिए कई मायनों में मनहूस साबित हो रहा है। लॉक डाउन की वजह से इंडस्ट्री का काम ठप पड़ा  है, वहीं दूसरी तरफ कई दिग्गज सितारे दुनिया से बिदा हो रहे हैं। अब फिल्म इंडस्ट्री के नामी संगीतकार वाजिद खान चले गए। वाजिद के निधन की वजह किडनी और हृदय की समस्या भी बताई जा रही है। लेकिन, किडनी के इलाज के दौरान उनका टेस्ट किया गया तो रिपोर्ट कोरोना पॉजेटिव आई थी। ये संगीतकारों की उभरती हुई जोड़ी थी, जिसने अपने शुरूआती समय में ही बहुत अच्छी धुनें रची थी।  
  इस जोड़ी ने 1998 में पहली बार सलमान खान की फिल्म 'प्यार किया तो डरना क्या' में संगीत दिया था। इसके बाद सोनू निगम के अलबम 'दीवाना' के लिए संगीत दिया, इस अलबम के दीवाना तेरा, अब मुझसे रात दिन और 'इस कदर प्यार है' गीत बेहद पसंद किए गए थे। उन्होंने सलमान फैमली की ही फिल्म 'हैलो ब्रदर' में भी संगीत दिया और चुपके से कोई, हैलो ब्रदर और हटा सावन की घाटा जैसे गीत रचे! साजिद-वाजिद की जोड़ी को सलमान खान ने अपनी फिल्मों में हमेशा मौके दिए। इन्होंने सलमान खान की फिल्म दबंग, वांटेड, वीर, नो प्रॉब्लम, गॉड तुस्सी ग्रेट हो, पार्टनर, एक था टाइगर, दबंग-2, दबंग-3' के अलावा सन ऑफ सरदार, राउड़ी राठौर और 'हाउसफुल-2' जैसी कई सफल फिल्मों के लिए संगीत दिया था। वाजिद ने तो कई फिल्मों में गाने भी गाए थे।    
   अभी महीनेभर पुरानी बात है, जब वाजिद खान ने इरफ़ान खान के निधन पर एक ट्वीट किया था। उसमें उन्होंने इरफान खान को श्रद्धांजलि देते हुए लिखा था 'इस आंख मिचौली के खेल में हमेशा एक ढूंढता ही रहता है, और वो नहीं पास आता जो छुप जाता है, इरफान मेरे भाई! अल्लाह आपको इस सफर इमाम की ताजगी आपकी रूह को सुकून मिले। आमीन। वहां की जिंदगी अल्लाह आसान करे।' किसे पता था कि ये संजीदा ट्वीट एक दिन वाजिद के लिए किसी को लिखना पड़ेगा। 
  साजिद-वाजिद की जोड़ी बेहद मधुर थी। दोनों ने कई ऐसे गीत रचे, जो हमेशा लोग गुनगुनाएंगे। लेकिन, सच्चाई ये कि ये जोड़ी अब नहीं बची. साजिद अब अकेले रह गए। वाजिद ने दुनिया को अलविदा कह दिया। इतनी कम उम्र (42 साल) में उनके चले जाने से बॉलीवुड शोक में है। ऋषि कपूर, इरफ़ान खान और दो दिन पहले गीतकार योगेश के बाद अब वाजिद का जाना एक त्रासदी से कम नहीं है। कारण कि इससे पहले उनके बीमार होने की कोई खबर नहीं आई! अचानक आई निधन की खबर ने सबको चौंका दिया। उनकी तबियत 31 मई की दोपहर अचानक खराब हो गई थी। किडनी की समस्या के बाद उन्हें हॉस्पिटल में भर्ती किया गया। वे किडनी के इलाज के लिए पहले भी कई बार इलाज करा चुके थे। रविवार दोपहर वाजिद की हालत ज्यादा खराब हुई। उनकी कोरोना रिपोर्ट भी पॉजेटिव आई थी। 
बॉलीवुड दुखी  वाजिद के निधन पर कई बॉलीवुड हस्तियों ने उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित किए हैं। अमिताभ बच्चन तो उनके निधन की खबर सुनकर शॉक में आ गए। उन्होंने ट्वीट किया 'वाजिद खान के निधन की खबर सुनकर शॉक्ड हूं। एक उज्ज्वल मुस्कुराती प्रतिभा हमें छोड़कर चले गया।'
  संगीतकार सलीम मर्चेंट ने ट्वीट किया, 'साजिद-वाजिद की जोड़ी के मेरे भाई वाजिद के निधन की खबर से परेशान हूं। अल्लाह उनके परिवार को ताकत दे। वाजिद भाई आप बहुत जल्दी चले गए। यह हमारी बिरादरी के लिए एक बड़ा नुकसान है. मैं हैरान और टूट गया हूं।
 प्रियंका चोपड़ा ने वाजिद खान के निधन पर बहुत शोक जताया। प्रियंका चोपड़ा ने ट्वीट किया 'दुखद समाचार! एक बात जो मुझे हमेशा याद रहेगी वो है वाजिद भाई की हंसी! वे हमेशा मुस्कुराते रहते थे, बहुत जल्द चले गए। उनके परिवार और शोक व्यक्त करने वाले लोगों के प्रति मेरी संवेदना। आपकी आत्मा को शांति मिले मेरे दोस्त!
   गायिका मालिनी अवस्थी ने ट्वीट किया 'ये चौंकाने वाली खबर है! अविश्वसनीय! वाजिद खान चले गए ... क्या हो रहा है! दिवंगत आत्मा के लिए प्रार्थना करती हूं। गायिका हर्षदीप कौर ने ट्वीट किय 'वाजिद खानजी के परिवार के प्रति मेरी गहरी संवेदना! अभी भी यह विश्वास नहीं हो रहा है कि वह अब इस दुनिया में नहीं रहे! हमेशा उन्हें मुस्कुराते हुए और अपने आस-पास खुशी बिखेरते देखा है। संगीत उद्योग को भारी नुकसान हुआ है।' 
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जिंदगी कैसी है पहेली हाय ... कभी तो हँसाए, कभी रुलाए!


यादें: योगेश


- एकता शर्मा 

    शुद्ध हिंदी में कालजयी गीत रचने वाले योगेश गौड़ ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उनका निधन पर हिंदी फिल्मों के गीत रचनाकारों की दुनिया में एक बड़ी क्षति है। योगेश का जन्म नजाकत के शहर लखनऊ में हुआ था। यही कारण है कि उनके गीतों में भी वही नजाकत थी! लेकिन, उर्दू बोलचाल शहर में जन्म लेकर भी उनके गीतों में उर्दू का पुट नहीं था। उन्हें इसलिए भी याद किया जाएगा कि उन्होंने अपने गीतों रचना में हिंदी का ध्यान रखा! जब फिल्मी दुनिया में उर्दू के गीतकारों का बोलबाला था, उन्होंने हिंदी को प्रधानता दी! कभी ध्यान से सुनिए, उनके गीतों में कहीं उर्दू के शब्द नहीं है। जबकि, अधिकांश गीतकार उर्दू के साथ फ़ारसी तक के शब्दों का प्रयोग करने से नहीं हिचकते!
  उन्होंने अपने करियर की शुरुआत 1962 में आई फिल्म 'सखी रॉबिन' की थी। इस फिल्म के लिए उन्होंने 6 गाने लिखे थे। लेकिन, उन्हें पहचान मिली 1971 में आई ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'आनंद' में लिखे गीतों से। 'कहीं दूर जब दिन ढल जाए' और 'जिंदगी कैसी है पहेली हाय' उन्हीं के लिखे गीत हैं जिसने लोकप्रियता का परचम लहराया। आज भी इन गानों को सुना जाता है। उनकी आखिरी रिलीज फिल्म थी 'बेवफा सनम' थी।
    योगेश गौर ने एक रात, मिली, छोटी सी बात, आनंद, आजा मेरी जान, मंजिलें और भी हैं, बातों-बातों में, रजनीगंधा, मंजिल, आनंद महल, प्रियतमा, मजाक, दिल्लगी, अपने पराए, किराएदार, हनीमून, चोर और चांद, बेवफा सनम, जीना यहां, लाखों की बात जैसी फिल्मों के गीत लिखे। उनके बारे में कहा जाता है कि 16 साल की उम्र में लखनऊ से मुंबई आए थे। मुंबई में उनके चचेरे भाई एक पटकथा लेखक थे। फिल्म मिली का ‘आए तुम याद मुझे’ छोटी सी बात का ‘न जाने क्यों होता है ये जिंदगी के साथ’, रजनीगंधा का ‘कई बार यूं भी देखा है’ के अलावा ‘रिमझिम गिरे सावन सुलग-सुलग जाए मन’, ‘न बोले तुम न मैंने कुछ कहा’, ‘बड़ी सूनी-सूनी है’, ‘जिंदगी ये जिंदगी’ जैसे कई 70 के दशक की फिल्मों हिट गीत योगेश ने ही लिखे!
   एक ख़ास बात जो योगेश के गीतों में नजर आती है, वो है हिंदी शब्दों  उपयोग। जबकि, हिंदी फ़िल्मी गीतों की दुनिया उर्दू से भरी पड़ी है, पर योगेश के गीतों में उर्दू कहीं सुनाई नहीं देती। विचारों की सादगी की और बहुत ही सीधे और साधारण विचारों को अत्यंत सुन्दर शब्दों में बांधने की योगेश में अद्भुत कला थी। 'कहीं दूर जब दिन ढल जाए' गीत के भाव बहुत साधारण हैं। लगभग पूरे गीत में (एक अंतरे को छोड़कर) गायक, नायक इतना व्यक्त कर रहा है की वह किसी को बेहद याद कर रहा है। परन्तु इस सरल से भाव की सुंदर अभिव्यक्तियाँ हैं 'मेरे ख़यालों के आँगन में कोई सपनों के दीप जलाए!'
   योगेश का समय तब बदला जब वे सबिता बैनर्जी के जरिए संगीतकार सलिल चौधरी से मिले। 1968-69 में उनके लिखे एक-दो गीत सलिल चौधरी ने रचे तो थे, पर वे फ़िल्में पूरी नहीं हुईं। 1970 में सलिल चौधरी ने उन्हें ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'आनंद' में गीत लिखने का मौका दिया। इसके बाद उनके  जीवन की सफलता का दौर शुरू हुआ। इसके बाद सलिल के संगीत निर्देशन में उनका लगातार गीत लिखने का सिलसिला शुरू हुआ।  इस जोड़ी ने 'आनंद' के बाद अन्नदाता, अनोखा दान, मेरे भैया, रजनीगंधा, छोटी सी बात, आनंद महल, मीनू, जीना यहाँ, नानी माँ, रूम नंबर 203, अग्नि परीक्षा फिल्मों में गीत रचे। 1988 में रिलीज हुई फिल्म 'आखिरी बदला इस जोड़ी की अंतिम फिल्म थी। गीतकार के रूप योगेश का संगीतकार सलिल चौधरी के साथ जोड़ी बनना दोनों के लिए स्वर्णिमकाल रहा।
    उनके करियर में ऋषिकेश मुख़र्जी और बासु चटर्जी का योगेश की सफ़लता में ख़ासा योगदान रहा। ऋषिकेश मुखर्जी के साथ इन्होंनें आनंद, मिली, रंग-बिरंगी आदि जैसी फिल्मों के लिए गीत लिखे! जबकि बासु चटर्जी के साथ रजनीगंधा, छोटी सी बात, बातों बातों में, प्रियतमा, दिल्लगी, शौक़ीन, मंज़िल आदि फिल्मों में भी अपनी लेखन क्षमता का परिचय दिया। योगेश के अधिकांश अच्छे गीत इन्हीं दो निर्देशकों की फिल्मों के रहे। योगेश ने लगभग 100 फ़िल्मों करीब 350 गीत लिखे। फ़िल्मी और ग़ैर-फ़िल्मी गीतों के अलावा उन्होंने कई टीवी धारावाहिकों के शीर्षक गीतों व विज्ञापन फिल्मों की तुकान्तक कविताएं भी रची। 
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लॉक डाउन के बाद जिंदगी सोच से ज्यादा बदलेगी!

  लॉक डाउन के बाद जीवन में बहुत कुछ बदलेगा। लोगों के व्‍यवहार के साथ सोचने के तरीके भी बदल जाएंगे! मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि ऐसी स्थिति में लोग एकाकी हो जाएं तो आश्चर्य नहीं! उनके रहन-सहन और खानपान का तरीका भी बदल जाएगा। बाजारों में सन्नाटा होगा, आने-जाने, खाने-पीने, घूमने-फिरने, सामाजिक मेलजोल, सोचने के तरीकों, कारोबार के माध्‍यमों, घरों की व्यवस्था, सुरक्षा और कामकाज के तरीकों में बदलाव आएगा। जान बचाने की कोशिश लोगों को अज्ञात भय से हमेशा भयभीत रखेगी। ये कब तक होगा, कहा नहीं जा सकता! लेकिन, लॉक डाउन के बाद जब लोग घर से निकलेंगे, उनका सामना एक नई दुनिया से होगा, जिसमें वो सब बदला हुआ होगा, जिसके हम अभी तक अभ्यस्त थे।  
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- एकता शर्मा

     स समय लोग किसी भी चीज को छूने, लोगों के नजदीक जाने को खतरनाक मान रहे हैं। उन्‍हें भय है कि ये उनके लिए जानलेवा संक्रमण का कारण बन सकता है! सरकार भी 'सोशल डिस्‍टेंसिंग' को न सिर्फ प्रोत्‍साहित कर रही, बल्कि इसे अपराध बताकर डरा भी रही है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि व्यक्ति में डर से उपजी बातें हमारे हमेशा के लिए दिल में घर कर जाती हैं! जब लोग लॉक डाउन के बाद सामान्य जिंदगी जीने की कोशिश करेंगे, तो यही डर उन्हें रोकेगा। किसी भी चीज को छूने से परहेज करना, हाथ मिलाने से कतराना, बार-बार हाथ धोने की आदत और सोशल लाइफ से कटकर रहना लोगों में एक तरह के 'डिसआर्डर' की तरह पनप सकता है। लोग अकेले रहने में ज्यादा बेहतर और सुरक्षित महसूस करने लगेंगे। हर किसी को शंका भरी नजरो से देखेंगे और एक-दूसरे के घर मिलने जाने से कतराएंगे। ऐसी स्थिति में ऑनलाइन कम्युनिकेशन बढ़ जाएगा। क्योंकि, लोग मेलजोल से बचने की कोशिश करेंगे। ऐसे में आपसी रिश्‍तों में दूरियां बढ़ेंगी। लेकिन, एक-दूसरे का हालचाल जानने के बहाने संभव है, लोग फोन पर ज्यादा बातचीत करने लगें! 
     दुनियाभर में इन दिनों महामारी का आतंक है। ऐसी बीमारी जिसका किसी को कोई अता-पता नहीं! बीमारी अज्ञात है, इसलिए उसका सटीक इलाज भी नहीं हो पा रहा। चिकित्सा विज्ञान की सारी रिसर्च हाशिये पर चली गई! ये छूत की बीमारी है, जो किसी संक्रमित व्यक्ति के नजदीक जाने या उसे छूने से भी लग सकती है, इसलिए लोगों के दिल में अज्ञात भय व्याप्त है। लॉक डाउन के कारण लोग परिवार के साथ घरों में कैद हैं। घर के बाहर भी निकलते हैं, तो अहतियात बरतते हुए! चेहरे पर मास्क और हाथ में ग्लब्स लगे होते हैं। सबसे बड़ी बात ये कि जिनके साथ घंटों गुजरते थे, वे लोग बेगाने हो चले! चारों तरफ संदेह के बादल छाए हैं।
     अब लोगों को सबसे ज्‍यादा चिंता इस बात की है कि आखि‍र लॉकडाउन के बाद क्या होगा! ज‍िंदगी क‍िस तरह और कहाँ-कहाँ बदलेगी! जब लोग घर से बाहर निकलेंगे तो अपने चारों तरफ क्या नया दिखाई देगा! क्या कभी वे दिन लौटेंगे, जब लोग कॉफी हॉउस या चाय के ठीयों पर घंटों गुजार दिया करते थे! पान की दुकानों पर हंसी-ठट्ठा हुआ करता था! बात-बात में गले मिलना और मिलते ही हाथ मिलाना सामाजिक संस्कार थे! अब उनका क्या होगा? लोगों में जबरदस्त अविश्वास की भावना पनपेगी! हो सकता है वो सारे संस्कार तिरोहित हो जाएं, जो हमारी पहचान थे! क्योंकि, लॉक डाउन के बाद लोग अपनी जान की खातिर दूरी बनाकर रहने को मजबूर होंगे। ये भी संभव है कि सरकार हमेशा के लि‍ए ही 'सोशल ड‍िस्‍टेंस‍िंग' को कोई न‍ियम ही बना दे। यह सब आसान तो नहीं है, पर जीवन से बड़ा दुनिया में कुछ नहीं होता, तो लोग मन से न सही, मज़बूरी में ही दूरियां बनाकर तो रहेंगे!
   भारत जैसे देश में जहाँ जनसँख्या के कारण मेलजोल का रिवाज कुछ ज्यादा ही है, बहुत ज्यादा बदलाव आएगा। परिवार से बाहर लोग न तो ज्यादा संपर्क रखना चाहेंगे और ये उम्मीद करेंगे कि कोई उनके घर आए! वे भी किसी के घर नहीं जाएंगे! इसलिए कि वायरस से होने वाली ये ऐसी बीमारी है, जो व्यक्ति को छुपकर और बचकर रहने के लिए मजबूर करेगी। अभी तक हालात ये थे कि जब भी कोई परिचित बीमार होता था, तो सदाशयता के नाते उसकी सेहत पूछने वालों का अस्पताल और घर में तांता लग जाता था! अब शायद ऐसा नजारा दिखाई न दे! औपचारिकता के नाते लोग फोन पर हालचाल पूछकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेंगे! तात्पर्य यह कि इस महामारी का सबसे ज्यादा असर सामाजिकता और निजी व्यवहार पर पड़ेगा! लोगों में इस बीमारी की वजह से जो अविश्वास पनपा है, वो लम्बे समय तक बना रहेगा!
    शादी और पार्टियों की भीड़ कुछ सालों तक शायद ही नजर आए! क्योंकि, हर किसी के दिल में ये खतरे के बड़े ठिकाने होंगे! ये भी हो सकता है कि सरकार ही ऐसे आयोजनों को प्रतिबंधित कर दे या सीमित कर दे! ऐसे में भव्य शादियां सिर्फ यादें बनकर रह जाएगी। लोग भीड़ का हिस्सा बनने से तो बचेंगे ही, पार्टियों में खाना भी पसंद न करें। ऐसी स्थिति में शादी के आयोजन महज औपचारिकता के लिए होंगे! जहाँ पार्टी होगी, हो सकता है वहाँ मेहमानों की जाँच की जाए! जिस होटल में आयोजन होगा, वहां उसे ही आने की अनुमति मिले, जो अपने आपको स्वस्थ साबित करेगा! बात सिर्फ शादियों के आयोजन और पार्टियों तक ही सीमित नहीं है! ऐसे सभी आयोजनों का भी चेहरा बदल जाएगा, जहाँ अभी तक भीड़ ही व्यक्ति के संबंधों की पहचान हुआ करती थी।    धार्मिक उत्सव भी सिमट जाएं तो आश्चर्य नहीं! धार्मिक स्थलों में भी लोग दूरियां बनाकर रहेंगे या हो सकता है दूर से ही भगवान के दर्शन कर लौट जाएं! हज़ारों, लाखों की भीड़ वाले कुंभ और सिंहस्थ जैसे आयोजनों का बदला स्वरुप कैसा होगा, इसकी कल्पना भी सिहरन पैदा करती है! सभी धर्मों की  मान्यताओं पर जिंदा रहने की जंग हावी हो गई है। इसलिए इस वायरस का खतरा हर धर्म को मानने वालों के पूजा-पाठ के तरीकों को बदल देगा। समय की भी मांग मानवता की बेहतरी के लिए फिलहाल इन तौर-तरीकों को बदला भी जाए। लेकिन, यदि ये बदलाव ज्‍यादा समय तक बरकरार रखा गया तो इसके स्‍थायी व्‍यवहार में तब्‍दील होने का भी खतरा है।
    जब इतना कुछ बदलेगा तो बाजारों की रौनक का भी गायब होना तय है। शॉपिंग मॉल की दुकानें और शोरूम भीड़ देखने को तरस जाएंगे। लोग शायद घूमने या तफरीह के मूड से बाजार जाना ही छोड़ दें! ऐसे में ऑनलाइन शॉपिंग का बाजार ऊंचाई छूने लग सकता है! हालांकि, बाजार के कारोबारी जानकार ऐसी आशंकाओं को खारिज करते हैं। उनका मानना है कि मॉल्स यदि अपने ग्राहकों को पूरी तरह सुरक्षित माहौल देंगे, तो लोग आना नहीं छोड़ेंगे! लेकिन, मॉल को अपने संक्रमणमुक्‍त होने की गारंटी देना होगी। यही स्थिति होटल और रेस्टॉरेंट के सामने भी आएगी। क्योंकि, इस महामारी का होटलों और रेस्टॉरेंट पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ेगा। बाहर खाने की आदत पर तो समझो अंकुश जैसा ही लग सकता है! क्योंकि, इस बीमारी का सबसे बड़ा कारण ही लोगों के संपर्क में ज्यादा आना होता है। ऐसे में होटल और रेस्टॉरेंट इस बीमारी के जनक साबित हो सकते हैं!
  ऑनलाइन फ़ूड डिलीवरी का जो बूम आया था, वो भी थमना लगभग तय है! क्योंकि, ये खाना कई हाथों से गुजरकर घर तक पहुँचता है। लोग जब घर से निकलना ही कम करेंगे तो उनकी फ़िल्में देखने की आदत भी छूट जाएगी! इसलिए कि 'सोशल डिस्टेंसिंग' का यहाँ कोई मायना नहीं रहता! सिनेमा और नाटकघरों की पास-पास में सटी सीटों को संक्रमण का कारण समझा जाएगा! दर्शक उन सीटों से भी परहेज करना चाहेंगे, जहाँ उनसे पहले कोई अंजान व्यक्ति बैठकर गया है!   
    जीवन में एक और बड़ा बदलाव यात्राओं के लेकर आने की संभावना है! बात चाहे बस यात्रा की हो, रेल यात्रा की व हवाई यात्रा की! संक्रमण के भय से लोग इससे बचेंगे। कम से कम सालभर तो लोग तभी यात्रा करेंगे, जब बहुत ज्यादा जरुरी होगा! हालात देखकर लगता है कि हर यात्री को तभी अनुमति होगी, जब वो निर्धारित मापदंडों पर खरा उतरे! यानी कोई बीमार व्यक्ति यात्रा ही न कर सके! हर बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन और एयरपोर्ट पर जाने और आने वाले यात्रियों की स्क्रीनिंग होने लगे! साथ बैठे यात्री के प्रति संदेह की भावना इतनी प्रबल हो सकती है कि पहले की तरह लोग पास वाले से बात ही न करें! एक खतरा ये भी है कि लोग लोकसेवा वाहनों का इस्तेमाल करने से बचेंगे! सिटी बसें, लोकल ट्रेनें और मेट्रो पर भी इसके असर से नहीं बचेंगी। ऑफिस, स्कूल और कॉलेज में क्या बदलाव होगा, इसकी तो कल्पना करना ही शायद मुश्किल हो!
  देश की बहुत बड़ी कुछ सालों में गांव या कस्‍बों से बड़े शहरों में छोटे-छोटे काम धंधे के लालच में पहुँच गई थी। लेकिन, कोरोना ने इन्हें घर लौटने के लिए मजबूर कर दिया। ऐसे में लाखों लोग अपने गांवों और कस्बों में लौट गए। इनकी वापसी की पीड़ा अंतहीन है। आशंका है कि अब ये लोग शायद कुछ सालों तक शहरों की तरफ रुख न करें! काफी लोग तो लौटकर ही न जाएं और अपने गांव, कस्‍बों या छोटे शहरों में ही वैकल्पिक धंधों की तलाश कर लें। तात्पर्य ये कि हर व्यक्ति का जीवन कई जगह से बदलेगा।
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