महिला दिवस पर विशेष
मैं रोज की तरह उस दिन कोर्ट में अपने काम में लगी थी! लोग लगातार आ रहे थे! किसी को अपनी अगली तारीख की जानकारी लेना थी, कोई गवाही देने आया था! तभी एक 18-20 साल का नौजवान लड़का आकर खड़ा हुआ। डेनिम की जैकेट पहले उस लड़के के चेहरे पर हल्की सी दाढ़ी थी। उसने आते ही झुककर मेरे पैर पड़े और बोला 'मैडम आपने मुझे पहचाना!' मैंने उसके चेहरे को ध्यान से देखा, पर कुछ याद नहीं आया। तभी वो बोला 'मैडम मैं गणेश हूँ। जब 5 साल का था तब माँ के साथ आपके पास आता था!' मैं कुछ याद करती, उससे पहले ही वो बोल पड़ा कि मैं जशोदाबाई का लड़का हूँ मैडम! मैंने उसकी तरफ देखा और याद करने की कोशिश करने लगी! उसकी आँखों की तरफ देखा जो भर आई थी! 'आपने हमारी बहुत मदद की है! अब मेरी नौकरी लग गई है, कल मैं ज्वाइन करने जाऊंगा! माँ ने बोला कि पहले आपका आशीर्वाद लेकर आऊं! हमारे लिए तो मैडम आप ही सबकुछ हो!'
एक बार में गणेश सबकुछ बोल गया। लेकिन, मैं कुछ बोल नहीं सकी, शब्द गुम से हो गए थे। जो लोग मेरे ऑफिस में मौजूद थे, वे भी यह सब देखते रहे! 14-15 साल पुरानी घटना आँखों के सामने घूम गई! जशोदा भी याद आई, जिसे मैं भूल गई थी। गणेश से मैंने उसकी माँ और छोटे भाई के बारे में पूछा! वो बोला 'सब ठीक है मैडम! माँ भी आने वाली है आपसे मिलने!' गणेश तो चला गया, पर मेरे जहन में 15 साल पुराना वो घटनाक्रम घूम गया! जशोदा, उसके दोनों बेटे और उसकी माँ का वो चेहरा याद आया, जब पहली बार ये सभी मेरे पास आए थे।
मैं वकील हूँ इसलिए मुझे रोज ही ऐसे लोगों से मिलना होता है, जो किसी न किसी परेशानी से घिरे होते हैं। ऐसी ही ये कहानी जशोदा बाई की है। उस दिन तेज गर्मी थी, अचानक दो महिलाएं ऑफिस में टेबल के सामने आकर खड़ी हुई और बोलीं 'मैडम क्या आप हमारी मदद करोगी?' काम करते हुए मैंने गर्दन उठाकर देखा तो एक अधेड़ उम्र की महिला के साथ एक 25-26 साल की महिला खड़ी थी। अधेड़ महिला ने मुझे साथ आई महिला को बेटी के रूप में मिलाते हुए कहा 'मैडम ये मेरी बेटी जशोदा है। बहुत परेशान है, आपकी मदद चाहिए।' मैली-कुचैली साड़ी में सिर पर पल्ला लिए ग्रामीण परिवेश की उस महिला के नाक नख़्स तीखे थे। जशोदा सुंदर थी, पर चेहरे पर अजीब सा सूनापन था।
उसने अपनी जो परेशानी बताई वो कुछ यूँ थी। जशोदा पास के ही गाँव की रहने वाली थी। उसकी शादी 6 साल पहले हुई थी। पास ही के गाँव में उसका पति किसान था। जमीन और मकान सब कुछ था! दो बेटे जिनकी उम्र लगभग 5 और 3 साल थी। जशोदा का जीवन आराम से कट रहा था। लेकिन, वक़्त की मार ने जशोदा के खुशहाल जीवन को पलभर में अनथक संघर्ष में झोंक दिया! इसकी शुरुआत उसके पति की मौत से हुई थी! सड़क दुर्घटना में पति की मौत हो गई! इसके बाद तो जशोदा की सारी खुशियां मानो ख़त्म हो गई! यहीं से शुरू हुआ उसके संघर्ष का सफर। दो छोटे बच्चों के साथ वो अकेली रह गई। कैसे खेती होगी, कैसे घर चलेगा? ऐसे कई सवाल उसके सामने खड़े हो गए! पति की मौत के सदमे से जशोदा अभी उबरी भी नहीं थी, कि ससुराल वालों ने भी आँखें फेर ली। देवर और उसकी पत्नी ने जशोदा को घर से चले जाने का दबाव बनाया। ससुराल के बाकी लोगों ने भी उसे डायन करार दे दिया। पति की मौत को अभी एक महीना भी नहीं हुआ था कि उसे ससुराल वालों ने ताने दे देकर घर से निकाल दिया।
माँ-बाप की लाडली और पति की प्यारी जशोदा जो अभी तक ससुराल में रानी बनकर रह रही थी, सड़क पर आ गई! जिसने दुनियादारी की कोई समस्या नहीं देखी थी, उसके सामने पहाड़ सी जिंदगी और दो बच्चों को पालने की चुनौती भी! जशोदा अपने माँ-बाप के पास गाँव आ गई! लेकिन, उसने अपने आपको संभालकर जीना शुरू किया। जीवन-यापन के लिए जशोदा खुद खेती करने को तैयार हुई, तो देवर ने अड़ंगा शुरू कर दिया। उसने पत्नी के नाम कब फर्जी रजिस्ट्री भी करवा ली, ये जशोदा को बाद में पता चला! पति के जीते जी बंटवारा नहीं हुआ था। जमीन सास के नाम पर जमीन थी, इसलिए देवर की ये साजिश कामयाब हो गई!
क़ानूनी रूप से रजिस्ट्री की हुई ज़मीन को विक्रय ही माना जाता है। इसलिए क़ानूनी लड़ाई में जशोदा को राहत मिलने की उम्मीद कम ही थी। उसके अलावा अदालती लड़ाई में लगने वाला खर्च, वकीलों की फीस और रोज-रोज के कोर्ट के चक्कर! गाँव की कोई भी घरेलू महिला ये सोचकर ही हार मान लेती! लेकिन, जशोदा ने हिम्मत नहीं हारी। जब मैंने उसे बताया की केस लड़ने में खर्च और समय दोनों लगेगा तो मेरी बात सुनकर उसने बड़ी हिम्मत के साथ हामी भरी। उसकी हिम्मत देखकर मैंने भी उसकी मदद करने की ठान ली। मैंने बिना फीस के उसका केस लड़ने का फैसला किया! क्योंकि, जब एक महिला हिम्मत के साथ आगे बढ़ी है, तो उसे इतनी मदद तो दी ही जानी चाहिए। मेरे सामने संघर्ष से जूझती जशोदा पहली और आखिरी महिला नहीं थी! लेकिन, जब भी ऐसा कोई मामला सामने आता है, तो मैं उस महिला से फीस नहीं लेती। इसी के साथ शुरू हुआ जशोदा का संघर्ष। बच्चों की परवरिश के लिए उसने गाँव में ही मजदूरी करना शुरू कर दिया था।
हालांकि, जशोदा के मामले में जीत के आसार बहुत कम ही थे। फिर भी उसके साथ मिलकर मैंने क़ानूनी जंग की शुरुआत की! तारीख पर तारीख चलना शुरू हुई। लेकिन, जशोदा की हिम्मत समय के बढ़ती चली गई। कभी वो अपने दोनों छोटे बच्चों को साथ लाती, कभी किसी के सहारे छोड़कर आती! मगर, कभी भी केस की तारीख नहीं चूकती! गर्मियों की तपती दोपहर में वो सुबह गाँव से निकलती, करीब 2 किलोमीटर पैदल रास्ता तय करके सड़क तक आती, वहाँ से बस में बैठकर कोर्ट आती! सारे रास्ते और बस की भीड़ में एक कम उम्र की सुंदर महिला होना भी उसकी परेशानी थी! लोगों से तो वो बच जाती! लेकिन, गंदी नजरों से बचना उसके लिए भी आसान नहीं था। ये सब कुछ सहते हुए भी वो आती रही।
देवर के वकील ने भी अपनी तरफ से केस में रोडे अटकाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस सबमें करीब एक साल बीत गया। इस बीच क़ानूनी पैचीदगी के चलते जशोदा की तरफ से मैंने चार केस लगा दिए। हर केस की तारीख पर हाजिर होना, खर्चीला तो होता ही! लेकिन, उस दिन उसकी मजदूरी का भी नुकसान होता। इस तरह उसे दोहरी मार झेलनी पड़ती। लेकिन, उसकी हिम्मत देखते हुए मैंने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी। कानून के नजरिए से जशोदा का मामला कमजोर था। लेकिन, उसकी हिम्मत ने मुझे भी हिम्मत दिलाई और हम लड़ते गए। आखिर सालभर बाद जब उसकी जमीन पर फसल पकी, तब एक रास्ता निकाला। मैंने उसे हिम्मत दिलाई और और एक रास्ता भी सुझाया! जशोदा क़ानूनी लड़ाई के साथ खेत में खुद लाठी लेकर खड़ी हो गई! क्योंकि, खेत पर कब्ज़ा उसका था और जमीन की जो फर्जी रजिस्ट्री उसकी जानकारी के बिना हुई थी! जब वो खेत में लाठी लेकर खड़ी हुई, तब उसके सामने वो ही लोग सामने थे, जिनका पति के रहते वो सम्मान करके घूंघट निकाला करती थी। जिनके सामने जशोदा एक बहू बनकर खड़ी होती थी, अब वो उन्हीं के सामने दुर्गा का रूप लेकर खड़ी थी। उसके उस रूप को देखकर उसके ससुराल वाले भी डर गए!
आखिर देवर पीछे हट गया और जशोदा को पहली जीत जमीन की फसल के रूप में मिली। जशोदा को ये सलाह देने से पहले मैंने कानूनी बारीकियां भी जाँच ली थी। मेरे कहने पर संबंधित थाने के प्रभारी ने भी जशोदा की मदद की! इस घटना के बाद जशोदा की हिम्मत दोगुनी हो गई! वो अब और ज्यादा हिम्मत से कोर्ट आती। बयान के वक़्त भी उसे अपनों के सामने ही जवाब देना थे। तब भी जशोदा ने उसी हिम्मत से उनका सामना किया। उसकी इतनी हिम्मत देखकर देवर कहीं न कहीं अंदर से डरने भी लगा था। उसने मुझसे संपर्क भी किया। मैंने समझौते की कार्यवाही पर जोर दिया! क्योंकि, वकील होने के नाते मुझे शुरू से ही अंदेशा था कि जशोदा की जीत के आसार कम हैं। इसलिए बीच का रास्ता निकालना जरुरी था। जशोदा की दिन पर दिन बढ़ती हिम्मत देखकर उसके देवर के हौंसले जवाब देने लगे थे। धीरे-धीरे गाँव के लोगों ने भी जशोदा का साथ देना शुरू कर दिया। इस सबके चलते देवर पर दबाव बढ़ने लगा। उसने खुद मुझसे संपर्क करके राजीनामे की बात की! मैंने भी उसे समझाया कि जशोदा की जमीन उसके नाम कर दो, तभी राजीनामा संभव है।
कई बार की बातचीत का नतीजा यह हुआ कि देवर ने जशोदा के हिस्से की जमीन की रजिस्ट्री उसके और उसके बच्चों के नाम करवा दी। रजिस्ट्री होने के बाद हमने भी वादे के अनुसार राजीनामा कर लिया और सारे केस उठा लिए। अब जशोदा की अपनी खेती थी। उसने दोनों बच्चों के साथ खेती करना शुरू कर दिया और बच्चों का पालन पोषण करने लगी। इस तरह अपनी हिम्मत से क़ानूनी रूप से कमजोर होते हुए भी जशोदा ने लगभग हारी हुई बाजी जीत ली! उसकी इस लड़ाई में एक खासियत यह भी रही कि उसका साथ देने वाली भी दो महिलाएं ही थी! एक उसकी माँ और दूसरी उसकी वकील यानी मैं! कहा जा सकता है कि तीन महिलाओं ने मिलकर एक लगभग हारी हुई बाजी जीतकर बाजीगर बन गई। आज गणेश के अचानक सामने आने से ये पूरी घटना फिल्म की तरह आँखों के सामने से गुजर गई! जशोदा की जंग उन महिलाओं के लिए एक प्रेरणा तो है, जो मुसीबत में टूटकर बिखर जाती हैं। उसकी हिम्मत का ही नतीजा था कि उसे अपने हिस्से की जमीन मिली और बच्चों को भी उसने ठीक से पाल लिया। गणेश को देखकर मुझे भी अपने फैसले पर संतोष हुआ कि आखिर मेरी मेहनत से एक बिखरा परिवार फिर संवर गया। दरअसल, ये एक महिला के संघर्ष की ऐसी अनथक दास्तान है, जिसकी मिसाल दी जा सकती है। समाज में जशोदा अकेली महिला नहीं है, जिसके सामने ये संकट आया! पर, लगता है कि मेरी तरह महिला वकीलों को ऐसी महिलाओं की मदद के लिए आगे आना चाहिए! आखिर एक महिला ही दूसरी का सहारा नहीं बनेगी तो कौन बनेगा!
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