Tuesday 17 December 2019

मीडिया का एकतरफा संवाद का दौर अब ख़त्म!

पारम्परिक मीडिया 
बनाम नया मीडिया

  बदलाव प्रकृति का नियम है और इससे कभी कोई अछूता नहीं रहा! व्यक्ति के स्वभाव, आसपास के परिवेश के साथ-साथ सूचना पाने का स्रोत भी बदला है। पहले जहां अखबार और रेडियो ही सूचनाओं के स्रोत थे, वहीं इसमें समय के साथ टेलीविजन भी जुड़ा। जब यह नया माध्यम मीडिया से जुड़ा तो कई लोगों का कहना था कि समाचार और सूचना का यह माध्‍यम बेहद सशक्‍त है! ये अखबार एवं रेडियो को काफी पीछे छोड़ देगा! लेकिन, ऐसा नहीं हुआ। नए अखबारों के आने के साथ पुराने अखबारों के भी नए संस्‍करण निकले! इस कड़ी में वेब पत्रकारिता जुड़ गई, जो सबसे नए कलेवर का मीडिया है। इसका सबसे सशक्त पक्ष है कि यह सबके एंड्राइड मोबाइल में उपलब्ध है। इस मीडिया ने अख़बारों का एकतरफा संवाद का बंधन भी ख़त्म कर दिया। अब पाठक ख़बरों पर अपनी प्रतिक्रिया दे सकता है, जो अभी तक संभव नहीं था। 
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- एकता शर्मा

   नए ज़माने की पत्रकारिता और पारंपरिक पत्रकारिता की शैली में जमीन-आसमान का अंतर है। पुरानी शैली की पत्रकारिता में एक तरफा संवाद होता था। उसमे भी विलम्ब होता था। किसी रपट के लिखे जाने और उसके पाठक तक पहुँचने में अमूमन 12 घंटे का समय लगता था। फिर, रपट को पढ़कर, सुनकर या देखकर पाठक के मन में कई सारे सवाल खड़े होना स्वाभाविक है। वह अपनी जिज्ञासाओं का जवाब जानने को व्याकुल रहता था। सवाल पूछने को लेकर भी वो आतुर होता था! मगर, उसके पास कोई जरिया नहीं होता था। उसके सवाल अनुत्तरित रह जाते थे। आज वह जमाना नहीं है। अब संवाद दो-तरफ़ा होता है। पाठक कोई रचना या कोई रपट या कोई अदना सा विचार जब वेब पर पढ़ते हैं, तो तत्काल अपनी टिप्पणी के माध्यम से सवाल दाग सकते हैं। पसंद न आए तो लिखी सामग्री की बखिया उधेड़ सकते हैं! लिखने वाला पाठकों के सवालों के जवाब भी दे सकता है। विचारों को प्रकट करने का इससे बेहतरीन माध्यम शायद कोई दूसरा नहीं हो सकता।
    ये भी सही है कि पारंपरिक पत्रकारिता में लचीलापन नहीं था। यदि पत्र-पत्रिका माध्यम है, तो उसमें चलचित्र व दृश्य श्रव्य माध्यम का अभाव होता है। रेडियो में सिर्फ श्रव्य माध्यम होता है व क्षणिक होता है तो टीवी में दृश्य-श्रव्य माध्यम होता है। लेकिन, इसमें पठन सामग्री नहीं होती। यह भी क्षणभंगुर होता है। किसी खबर का कोई अंश उसके चलते रहने तक ही जिंदा रहता है, उसके बाद वह दफ़न हो जाता है! देखा जाए तो वेब की दुनिया में हिंदी पत्रकारिता अपने शैशव काल से गुजर रही है। इसके बावजूद बहुत कम समय में सायबर जगत में समाचारों व विचारों में हिंदी का प्रयोग तेजी से बढ़ता दिखाई दिया! वास्तव में ये अंग्रेजी की बेडि़यां तोड़ने का फरमान जैसा प्रतीत होता है। इसके बावजूद हिंदी का व्‍यापक इस्‍तेमाल सूझबूझ व सहजता के साथ करना होगा, ताकि हमारी मातृभाषा केवल मात्र भाषा बनकर न रह जाए। अभी तक हमारे पास सूचना के तीन माध्यम थे प्रिंट मीडिया, रेड़ियो और टेलीविजन! परन्तु अब कलम विहीन पत्रकारिता के रुप में साइबर जर्नलिजम     का सूत्रपात हुआ। जिस समाचार के लिए कुछ समय पहले तक घंटों इंतजार करना पड़ता था, वह अब पल    भर में हमारे दृश्य पटल पर होता है। इसे विस्तार से पढ़ा भी जा सकता है और संग्रहित भी किया जा सकता    है।  महत्वपूर्ण राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय समाचार पत्रों के इंटरनेट संस्करणों ने एक नई ई-जर्नलिज्म की    शुरूआत की है।
 
    अखबार में जहां हम समाचार पढ़ते हैं, वहीं इलेक्‍ट्रॉनिक और रेडियो माध्‍यम में उन्‍हें सुनते हैं। जबकि, वेब में समाचारों को देखा जाता है। पढ़ने, सुनने और देखने की अलग-अलग विशेषताओं की वजह से यहां काम में आने वाले शब्‍दों का चयन भी इसी के अनुरुप करना पड़ता है। तीनों माध्‍यमों के शब्‍दों को एक-दूसरे में काम में लेने से इसका वास्‍तविक आनंद कम हो जाता है। इस समय वेब में जो कुछ लिखा जा रहा है, उसमें लेखक जो लिख रहे हैं या फिर जो समाचार आ रहे हैं वे जस के तस जा रहे हैं। वेब पत्रकारिता के लिए जरुरी देखने वाले शब्‍दों को गढ़ने का कार्य अभी शुरू नहीं हुआ है। एक अहम बात देखें तो वेब पत्रकारिता में आने वाले पूर्णकालिक पत्रकारों की संख्‍या प्रिंट और इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम की तुलना में काफी कम है। प्रिंट और इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम में काम कर रहे पत्रकारों का ही वेब पत्रकारिता में अधिक योगदान है। इन्‍हीं माध्‍यमों के पत्रकार समय-समय पर स्‍टोरी और लेख से वेब पत्रकारिता को आगे बढ़ाने में योगदान दे रहे हैं।
  सूचना प्रौद्योगिकी और आधुनिक संचार क्रांति के इस युग में यदि हम यह स्वीकार लें कि देश की एक सम्पर्क भाषा जरुरी है, तो वह केवल हिन्दी ही हो सकती है। इसलिए कि हिन्दी ही वह भाषा है जो हर उस चुनौती का सामना करने में समर्थ है, जो उसके सामने खड़ी होगी। इंटरनेट ही ऐसा मंच है, जहां से हम अपनी मातृभाषा को अंतर्राष्ट्रीय पटल पर चमका सकते हैं। फिलहाल हिंदी के करीब 2500 दैनिक तथा 10000 के आसपास साप्ताहिक समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे हैं! परन्तु, इनमें से दो दर्जन के भी इंटरनेट संस्करण नहीं है। विडम्बना है कि इनमें से अधिकतर समाचार पत्रों की वेबसाइटों पर अखबारों की खबर ही ज्यों की त्यों परोसी जाती है। इन वेबसाइटों में समाचारों को अपडेट करने वाले वेब पोर्टलों की संख्या न के बराबर है। सीधा कारण यह है कि इन वेबसाइटों को विज्ञापन के रूप मे मिलने वाली कमाई बहुत कम है। बाज़ारवाद व प्रतिस्‍पर्धा की दौड़ में धन के बिना इंटरनेट पोर्टल को समय के साथ चलाना काफी कठिन है। समाचार पोर्टलों पर समाचार पढ़ने के साथ-साथ कुछ अंतर्राष्ट्रीय समाचार संगठनों ने हिन्दी मे समाचार सुनाने की सुविधा भी प्रदान की है।
   एक सूचना को विश्व के कोने कोने मे पहुंचाने के लिए एक संदेश एक भाषा से दूसरी, दूसरी से तीसरी और तीसरी से चौथी भाषा की गोद में कूदता हुआ विश्व के सभी उन्नत भाषाओं की गोदे मे खेलने लगा है। इंटरनेट पत्रकारिता ने करीब दस साल पहले हमारे देश में दस्तक दी थी। कुछ समय पहले तक जहां हमें अपनी समाचार पढ़ने संबंधी जरूरतों की पूर्ति के लिए समाचार पत्र, समाचार सुनने के लिए रेडियो तथा समाचार देखने के लिए टेलीविजन पर निर्भर रहना पडता था। वहीं, अब समाचार पढ़ने, सुनने व देखने का एक स्थान इंटरनेट समाचार पोर्टल के रूप में विकसित हो चुका है। वेब पत्रकारिता पर काफी लम्बे समय तक अंग्रेजी भाषा का कब्ज़ा रहा है। लेकिन, पांच-छह सालों से हिन्दी का प्रयोग समाचार पोर्टल के रूप में बढ़ने लगा है। ताजा समाचारों से लैस वेबसाइटों ने समाचारों की रुपरेखा को नया आयाम प्रदान किया है।
  आज मीडिया का सबसे तेजी से विकसित होने वाला माध्यम वेब पत्रकारिता बन गया है। इसमें वेब पत्र, जर्नल, ब्लॉग और पत्रिकाओं का जाल सा बिछ गया है। छोटे-बड़े हर शहर और यहाँ तक कि गाँव में भी वेब पत्रकारिता पहुँच गई! मीडिया के पूरे बाजार की नजर भी आज हिंदी की वेब पत्रकारिता पर है। ख़ास बात ये कि यूरोप के लोग सही खबरों के लिए न्यूज़ चैनलों और अख़बारों से कहीं ज्यादा वेबसाइट्स पर भरोसा करते है। क्योंकि, आप न सिर्फ दूसरो की विचारधारा से परिचित होते हैं, बल्कि उस पर अपनी प्रतिक्रिया भी दे सकते हैं। ये सही भी है कि ख़बरों के वेब पोर्टल्स हमेशा अपडेट होते हैं, इसलिए उन पर ताजा और सही ख़बरें पढ़ने को मिलती है।
  पत्रकारिता की अब कोई भौगोलिक सीमा नहीं बची। यह दुनिया के हर कोने में आसानी से उपलब्ध हो जाती है। यही इसकी सबसे बड़ी ताकत है। इसमें हर पल कुछ नया जुड़ रहा है। अनेक पत्रिकाएं हैं, जो एक स्तरीय सामग्री संयोजित कर पाठकों तक ला रहीं है। हिंदी में सामग्री की संख्या और स्तर का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है। यह माध्यम हिन्दी साहित्य में भी नई शक्ति का भी संचार कर रहा है। क्योंकि, आज भागमभाग की दुनिया में किसी के पास इतना समय नहीं है, कि वह अपनी पसंद की पत्रिकाएं ढूंढे और खरीदें। वास्तव में तेजी से बदलती दुनिया, बदलते शहरीकरण और जड़ों से उखड़ते लोगों ने ही इंटरनेट को लोकप्रिय किया है। कभी किताबें, अखबार और पत्रिकाएं दोस्त हुआ करते थे। आज आपका सबसे अच्छा दोस्त इंटरनेट है! क्योंकि, यह दोतरफा संवाद का माध्यम जो है। प्रसारित सामग्री पर तत्काल प्रतिक्रिया ने इसे सबसे ज्यादा लोकप्रिय बनाया। पढ़ने वाले के लिए इंटरनेट पर सब कुछ मुहैया है। देश में साहित्यिक पत्रिकाओं का संचालन बहुत कठिन और श्रम साध्य काम है। ऐसे में वेब पर पत्रिका का प्रकाशन तकनीकी दक्षता और सीमित संसाधनों में भी किया जा सकता है। ख़ास बात ये कि वेब पत्रिका का भविष्य उसकी गुणवत्ता वाली पठनीय सामग्री पर अधिक निर्भर है न कि उसकी विपणन रणनीति पर। जबकि, अखबार और पत्रिकाएं अपनी सरकुलेशन पॉलिसी और प्रबंधन के दम पर ही जीवित रहने के लिए मजबूर हैं।
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Sunday 15 December 2019

पिता ने बेटी का यौन शोषण किया, माँ अंजान बन गई!

- एकता शर्मा

   ये कहानी दो ऐसी बच्चियों की है, जिनका शोषण उनके घर में ही उनके पिता ने किया। बड़ी बेटी तो पिता की हवस का शिकार बन गई, पर छोटी पर भी उसकी नीयत ख़राब होने लगी थी! यदि बाल कल्याण समिति मध्यस्त बनकर बच्चियों को नहीं बचाती, तो हो सकता है कोई बड़ी घटना घट जाती! ख़ास बात ये कि हादसा होने के बाद भी किसी को पता नहीं चलता और बच्चियाँ शोषित होती रहती!  धार के भोज अस्पताल परिसर में दो बहनें 12 साल की शांति और 8 साल की शोभा निराश्रित स्थिति में कचरा बीन रही थी। इन दोनों बहनों देखकर लोगों को अहसास हुआ कि बात कुछ संदिग्ध है। उनसे बात की गई, तो वे ठीक से जवाब नहीं दे सकीं।
   इस बीच किसी ने बाल कल्याण समिति के एक सदस्य को इस बात की सूचना दी। जानकारी मिलने पर बाल कल्याण समिति के सदस्य आए और दोनों बहनों को अपने साथ ले गए। उनसे उनके परिवार और माता-पिता के बारे में पूरी जानकारी ली। समिति के सदस्यों ने विचार-विमर्श करके दोनों बहनों को घर भेजने की कोशिश की। लेकिन, जब उन्हें घर भेजने की बात आई, तो बड़ी बच्ची शांति रोने लगी! उसने घर जाने से साफ़ इंकार किया और अजीब से डर से सहम गई! बाल कल्याण समिति के सदस्यों के लिए यह स्थिति अप्रत्याशित थी! क्योंकि, ऐसे बच्चे घर जाने से कभी इंकार नहीं करते! लेकिन, बड़ी बच्ची को देखकर लगा कि वो किसी भी परिस्थिति में घर नहीं जाएगी!  
  उसकी इस हालत को देखकर बाल कल्याण समिति ने उसे काउंसलर के पास भेजा। काउंसलर ने सारे हालात को समझा और बच्ची को समझाया! उससे उसकी घबराहट का कारण पूछा और सच्चाई जानना चाहा! बड़ी मुश्किल से बताया कि उनका पिता उनसे सड़क पर कचरा और पन्नी बिनवाने का काम करवाता है। मना करने पर मारपीट करता है और मां से भी शराब पीकर मारपीट कर करता है। इस कारण माँ कुछ दिनों से सबको छोड़कर मायके चली गई। शांति ने बताया कि जब मां नहीं होती, तो उनका पिता उसके साथ जबरदस्ती करता है। उसने उसके साथ कई बार दुष्कर्म किया है। पिता की इस हरकत से उसे असहनीय पीड़ा होती है, इस कारण वह घर जाना नहीं चाहती! उसने बताया पिता उसके साथ लगभग 3 महीनों से यही कृत्य कर रहा है।
   काउंसलर बाल कल्याण समिति को जानकारी दी कि दोनों बच्चियाँ बहुत डरी और सहमी हुई थी। बड़ी बच्ची की उम्र रिकॉर्ड पर 12 साल है, किंतु प्रत्यक्ष बात करने पर उसकी उम्र 10 वर्ष के करीब लगती है। वह इतनी सहमी हुई थी, कि सामान्य तौर पर किसी पर विश्वास नहीं कर पा रही थी। मुझे भी यह बात बताने में भी उसने 3 दिन का समय लिया। बहुत मुश्किल से शांति ने काउंसलर पर विश्वास किया और सारी बातें बताई। इसके बाद काउंसलर ने मामला किशोर न्याय बोर्ड के पीठासीन अधिकारी को बताया। उनके द्वारा शिकायत करने पर शांति के पिता के विरुद्ध मामला दर्ज हुआ। न्यायालय में शांति के बयान हो चुके हैं। 
  इस केस की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि न्यायालय में शांति की माँ के बयान होने पर जब उसे बताया कि उसके पति ने अबोध बेटी से दुष्कर्म किया है, तो उसने भी पति के पक्ष में बयान देते हुए मामले की जानकारी नहीं होना बताया। इसके बाद न्यायालय ने सुरक्षा की दृष्टि से दोनों बच्चियों को इंदौर के बाल आश्रय गृह में रखने का आदेश दिया है। फिलहाल शांति और शोभा दोनों इंदौर के छावनी स्थित बाल आश्रय गृह में रह रही हैं और खुश हैं। छोटी बच्ची अभी किसी भी स्थिति को समझने में सक्षम नहीं है, किंतु बड़ी वाली शांति अपनी उम्र से पहले ही बहुत बड़ी हो गई! लेकिन, सामान्य स्थिति में आने में अभी उसे समय लगेगा। बाल आश्रय गृह के संचालकों का कहना है कि शांति पढ़ाई में बहुत तेज है और बहुत जल्द ही अपनी सामान्य जिंदगी जीने लगेगी!
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कुपोषित आदिवासी बच्चों के लिए सरकार की अधूरी तैयारी!

- एकता शर्मा

   मध्यप्रदेश के तीन प्रमुख आदिवासी क्षेत्रों धार, झाबुआ और आलीराजपुर आलीराजपुर में बाल कुपोषण ऐसा कलंक बन गया है, जिसे मिटाने के लिए जितना सरकारी प्रयास हो रहा है वह उतना ही बढ़ रहा है। प्रदेश सरकार ने महिला एवं बाल विकास विभाग को 2209 करोड़ 49 लाख रुपए का बजट मुहैया जाता है। लेकिन, इन पिछड़े जिलों में जिस तेजी से कुपोषण फैल रहा है, उससे सरकार के सारे प्रयास बेमानी साबित हो रहे हैं। सरकार के तमाम प्रयासों के बाद भी आदिवासियों, दलितों और समाज के अन्य वंचित समुदाय में नवजात शिशुओं से लेकर पांच वर्ष तक की आयु के 60% बच्चे कुपोषण की समस्या से ग्रस्त होने के कारण कमज़ोर और बीमार हैं। इनमें से कई बच्चों की असमय मौत हो जाती है।  
   सरकारी रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल जिले में कुपोषण की स्थिति सबसे ज्यादा चिंताजनक है। इनमें झाबुआ, आलीराजपुर, और धार जिलों में अतिकुपोषित बच्चों की संख्या 7% से 15% तक रही। इन ताजे परिणामों से भी साबित होता है, कि मध्यप्रदेश में बच्चों में कुपोषण की स्थिति काफी खतरनाक स्थिति में हैं। इस मामले को लेकर प्रदेश सरकार और प्रशासनिक अमला कितना गंभीर है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रदेश में 'समेकित बाल विकास सेवाओं' के लिए पूरे राज्य में जहाँ 1 लाख 46 हजार आंगनबाड़ी केंद्रों की जरूरत है, वहां राज्य में केवल 70 हजार आंगनबाड़ी केंद्र ही संचालित हो रहे हैं। जो कि राज्य के 76% बच्चों को ही अपनी सेवाएं दे पा रही हैं, जबकि एक चौथाई बच्चे अभी भी बाल कल्याण सेवाओं से पूरी तरह से वंचित हैं। प्रदेश की केवल 13 हजार आदिवासी बस्तियों में 'समेकित बाल विकास सेवा' का लाभ पहुंच रहा है, लेकिन करीब 4200 आदिवासी बस्तियां इस सेवा से आज भी वंचित हैं।
   आदिवासी इलाकों में वहां के रहवासियों के लिए चलाई जा रही अधिकांश योजनाएं अपेक्षा के अनुरूप परिणाम नहीं दे पा रही! जबकि, शासकीय दस्तावेज में आदिवासी समुदाय के पोषण के नाम पर जो बडी धनराशि खर्च करना बताया जा रहा है! लेकिन, इसकी हकीकत आदिवासी बहुल गाँवो में देखी जा सकती है। आदिवासी समुदाय में बच्चों के पोषण की स्थिति जितनी सोचनीय है, वो भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है। इसके अलावा दलित और वंचित समाज में भी हालत चिंताजनक ही कही जाएगी। जगंल में रहने वाले आदिवासी और शहरों में बसे दलित और वंचित लोग अपने बच्चों का ठीक से पेट भी नहीं भर पा रहे, तो वो उन्हें पोषण आहार कैसे देंगे, ये सोचा जा सकता है। ये लोग जीवन यापन के लिए जिस तरह की विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष कर रहे हैं, उनमे सबसे ज्यादा ख़राब स्थिति खाद्यान्न को लेकर है! केंद्र सरकार ने 'खाद्यान्न सुरक्षा कानून' लागू किया है, पर उसका भी समुचित लाभ समाज के इस वर्ग को नहीं मिल पा रहा। खाद्यान्न वितरण प्रणाली की दोषपूर्ण व्यवस्था आदिवासी, दलित और वंचित समाज के बच्चों के कुपोषण और खाद्यान्न सुरक्षा में सबसे बड़ी खामी मानी जाएगी।  
   सरकार आदिवासी समाज को जंगल से बेदखल करने में ज्यादा रूचि ले रही है, उतनी उनकी या उनके बच्चों की खाद्यान्न व्यवस्था में नहीं लेती, इसका क्या कारण है? इसी का नतीजा है कि मध्यप्रदेश में जहाँ भी आदिवासी बहुलता से बसे हैं, वहां उनके बच्चे भूख, कुपोषण और बीमारियों से लडते हुए अपनी जिदंगी खत्म कर रहे हैं। सरकारी उपेक्षा ने आदिवासी समुदाय के जीवन को और अधिक विकट बना दिया है। भूख और कुपोषण के कारण मध्यप्रदेश में पिछले कुछ सालों में छह वर्ष से कम उम्र के 55% बच्चों की मौत हुई! 'रीजनल मेडिकल रिसर्च सेंटर फार ट्राईबल' के एक अध्ययन के अनुसार आदिवासियों के 93.5 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। 58 प्रतिशत से अधिक महिलाएं एनीमिया (रक्तअल्पता) सहित विभिन्न बीमारियों की शिकार हैं, इस कारण उनके नवजात बच्चे कुपोषित जन्म लेते हैं। यही कुपोषण आदिवासियों के नवजात बच्चों की सर्वाधिक मौत का बडा कारण बनता है। जब माँ को ही पर्याप्त पोषण आहार नहीं मिलेगा तो बच्चे का पोषण कैसे होगा? यही वजह है कि नवजात बच्चे कुपोषित होते हैं और समय पर उपचार न मिलने के कारण उनकी मृत्यु हो जाती है।
 मध्यप्रदेश में शिशु मृत्यु दर 76 प्रति हजार है। जबकि, आदिवासियों में शिशु मृत्युदर 84% से ज्यादा है। आदिवासियों के कल्याण का दावा करने वाले सरकार के जिम्मेदार अधिकारियों का ध्यान उनके लिए आवंटित बजट को अलग-अलग योजनाओं के नाम पर खर्च करने में रहता है! यह देखने में ध्यान नहीं रहता कि इन योजनाओं से आदिवासी समुदाय को कितना लाभ हुआ अथवा हो रहा है! एक-दो आदिवासियों को मिला लाभ सफलता की कहानी बनाकर प्रचारित कर दिया जाता है। जबकि, आदिवासी समुदाय के बाकी लोग मुश्किलों के बीच जीने की राह ढूढतें रहते है। आदिवासी विकास के नाम पर भारी धनराशि हर साल अनियमितताओं की भेंट चढ जाती है। उसका परिणाम यह है कि मध्यप्रदेश में आदिवासी समुदाय में कुपोषण ओैर मातृ एवं शिशु मृत्यु दर बढ रही है।
   इस समुदाय के सामने जीवित रहने का संकट उत्पन्न हो गया है। पर्याप्त पौष्टिक भोजन का अभाव में जीतोड मेहनत करने वाला आदिवासी समुदाय अपने परिवार के लिए भरपेट भोजन तक का इंतजाम नहीं कर पाता। महिलाएं बीमार होकर बीमार बच्चों को जन्म दे रही है। समय पर ठीक उपचार नहीं मिलने से माँ और बच्चे बेमौत मर रहे है। ऐसे हालात सरकार द्वारा चलाए जा रहे पोषण पुनर्वास केन्द्रों और आगंनवाडी केन्दों की कार्यप्रणाली पर सवाल खडे करती है। कुपोषण को दूर करने के लिए सरकार की ओर से जो पोषण आहार उपलब्ध कराया जाता है, वह सभी बच्चों को नियमित नहीं मिल पा रहा है। महिला बाल विकास अधिकारी द्वारा पोषण आहार बेचे जाने के मामले भी सामने आए। हैं जब पोषण आहार बाँटने वाले अधिकारी ही बेचने का कारोबार करने लगे तो आदिवासी और दलित, वंचित बच्चों में कुपोषण ओर उनकी मौत का सिलसिला कैसे रूकेगा? यही कारण है कि मध्यप्रदेश में करीब 4 हजार करोड रूपए खर्च किए जाने के बाद भी कुपोषण को सभी जिलों से पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सका! मध्यप्रदेश सरकार अपने सालाना बजट में 'आदिवासी उपयोजना' के तहत 33% राशि का प्रावधान करती है। आंगनवाड़ियां, जननी सुरक्षा योजनाएं तथा स्कूलों में मध्यान्ह भोजन जैसी योजनाएं चलाई जा रही है। इसके बावजूद कुपोषण की समस्या से निजात नहीं मिल सका है।      
  आदिवासी जंगल में निवास करने वाला समाज है। इसका इतिहास बहुत पुराना है। यह प्राचीनकाल से ही जंगलों में निवास करते हुए प्रकृति से मिलने वाले खाद्य पदार्थ जैसे तेंदू, महुआ, गोंद, भाजी, बेर, सहजन आदि खाकर अपना जीवनयापन करता रहा है। इन खाद्य पदार्थो से आदिवासी समुदाय को पर्याप्त पोषक आहार मिल जाते थे! इसलिए पहले उनके सामने कुपोषण का सकंट नहीं था और न उनको खाद्य सुरक्षा के लिए सरकार या समाज पर आश्रित रहना होता था। आदिवासी समुदाय ने प्रकृति,जगंल से अपनी खाद्य संबंधी आवश्कताओं की पूर्ति की! लेकिन, जब से इन्हें जंगल से बेदखल करने का सिलसिला शुरू हुआ, तब से ही इस समुदाय के सामने जीवन बचाने का संकट खड़ा हो गया है। प्राकृतिक माहौल में रहने के अभ्यस्त आदिवासी जनजाति के लोग जंगल से दूर होने के कारण परम्परागत खाद्यान्न से भी वंचित हो गए। इसका नुकसान उन्हें कुपोषण के रूप में भुगतना पड रहा है। इस समुदाय के अधिकांश लोग अशिक्षित होने के कारण लगातार पोषण और उपेक्षा के शिकार हो रहे है। बेरोजगारी, पोषण, भूख, कुपोषण इस समुदाय की पहचान बन गया। अपने अस्तित्व को बचाने के लिए आदिवासी आज भी सरकार से उम्मीद लगाए बैठा है। ऐसे में हाशिए पर खडे और उपेक्षा झेल रहे आदिवासी समुदाय को सरकार के सही प्रयासों की जरूरत है।
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परदे पर राम का चरित्र हर युग में खरा सोना!

- एकता शर्मा   

 राम नाम की इन दिनों कुछ ज्यादा ही गूंज है। राम जन्मभूमि पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इन दिनों भगवान राम चर्चा में हैं। सारा मामला किसी हाईवोल्टेज फिल्मी ड्रामें से कम नहीं लग रहा! ऐसा इसलिए भी होना प्रतीत होता है कि समाज, सरकार और साधु संतों के बीच राम नाम का कुछ ख़ास ही महत्व है। हिन्दी फिल्मों के लिए भी राम हमेशा से महत्वपूर्ण कैरेक्टर रहे हैं। क्योंकि, चाहे हिन्दी फिल्मों के शैशव काल की बात हो या मध्यकाल की राम नाम को फिल्मकारों ने जमकर भुनाया! हिंदुस्तानी समाज में राम ऐसा चरित्र है जिन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम की तरह पूजा जाता है! यही कारण है कि हिंदी फिल्मों के सौ साल से ज्यादा लम्बे इतिहास में रामचंद्र जी पर कई फ़िल्में बनी और वे सफल भी हुईं!    
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     हिन्दी फिल्मों की शुरूआत ही राम के पितृपुरूष राजा हरिश्चन्द्र पर आधारित फिल्म 'राजा हरिशचंद्र' से ही हुई थी। उसके बाद लगभग हर दशक में सिनेमा के परदे पर राम अवतरित होते रहे! दर्शक कभी जूते उतारकर तो कभी राम की जयजयकार करते हुए फिल्मी राम के दर्शन कर अपने आपको धन्य मानते रहे। शुरूआती दिनों में 'अयोध्या चा राजा' ने बाॅक्स आफिस पर सिक्के बरसाकर इस परम्परा के बीज बो दिए थे कि सिनेमा में और कोई चले या न चले, राम का नाम हमेशा निर्माताओं की झोली भरता रहेगा। आज के दर्शक भले आश्चर्य करें कि 1943 में प्रेम अदीब और शोभना समर्थ अभिनीत फिल्म 'राम राज्य' के प्रदर्शन के बाद दर्शक सालों तक प्रेम अदीब को राम और शोभना समर्थ को सीता मानकर ही उन्हें प्रणाम करते और उनकी आरती उतारते रहे। विजय भट्ट के निर्देशन में बनी इस फिल्म ने बाॅक्स ऑफिस पर उस समय 60 लाख रूपए की कमाई कर नया कीर्तिमान रचा था। यह पहली हिन्दी फिल्म थी, जिसका प्रीमियर अमेरिका में हुआ था। यह पहली और आखिरी फिल्म है, जिसे महात्मा गांधी ने भी देखा। हो सकता है इसे देखने के बाद ही महात्मा गांधी के दिमाग में राम राज्य की अवधारणा बलवती हुई हो!
   उसके बाद 1961 में बाबूभाई मिस्त्री के निर्देशन में बनी 'सम्पूर्ण रामायण' ने फिर एक बार सिनेमाघरों को जय जय सियाराम की गूंज से सरोबार किया था। ट्रिक फोटोग्राफी के लिए मशहूर बाबूभाई मिस्त्री ने रावण और हनुमान को उडते दिखाकर फिर लंका दहन और राम रावण युद्ध के रोमांचक दृश्य फिल्माकर दर्शको का भरपूर मनोरंजन किया। इस फिल्म के गीत भी बहुत पसंद किए गए और महिपाल और अनीता गुहा राम-सीता की भूमिका में पहचाने गए। रावण की भूमिका निभाकर बीएम व्यास पक्के खलनायक बन गए थे। हिन्दी फिल्मकारों के लिए राम एक हुण्डी जैसे साबित हुए।   यही कारण है कि अब तक जितनी भी पौराणिक फिल्में बनी, उनमें राम पर आधारित फिल्में सबसे ज्यादा बनी और चली भी! ऐसी ही फिल्मों में लंका दहन (1917), राम पादुका पट्टाभिषेकम (1932), सीता कल्याणम (1934), सती अहिल्या (1937), सीता राम जनम (1944), रामायणी (1945), रामबाण (1948), रामजन्म (1951), रामायण (1954), सम्पूर्ण रामायण (1958,1961,1971), सीता राम कल्याणम (1961), लवकुश (1963 और 1997), हनुमान विजय (1974), बजरंग बली (1976), रावण (1984 और 2010), रामायणा : द लिजेंड ऑफ़ प्रिंस रामा (1992), हनुमान (2005), रिटर्न आफ हनुमान (2007), दशावतार (2008) और हनुमान चालीसा (2013) प्रमुख है।
  वैसे कुछ ऐसी फिल्में भी है, जिनका भगवान राम से दूर दूर का नाता नहीं, लेकिन उनके शीर्षक में भी राम का इस्तेमाल कर दर्शकों को आकर्षित करने का प्रयास किया गया। इनमें राम-लखन, राम तेरी गंगा मैली, रामावतार, राम और श्याम, रामलीला, राम जाने और 'हे राम' प्रमुख है। फिल्मों की तरह गानों में भी राम का जगह जगह प्रयोग किया गया है। मसलन राम करे ऐसा हो जाए, ओ राम जी, रोम रोम में बसने वाले राम, रामचन्द्र कह गए सिया से, जय रघुनंदन जय सिया राम। ऐसा नहीं कि केवल हिन्दी फिल्मों पर ही रामचन्द्रजी का आशीष बरसा! बरसात, और आरजू जैसी रोमांटिक फिल्मों के लेखक और निर्देशक रामानंद सागर ने भी जब टीवी पर कदम रखकर रामाश्रय लिया तो उनके धारावाहिक रामायण ने अरूण गोविल, दीपिका चिखलिया और दारासिंह को दर्शकों के दिलोें मे राम-सीता और हनुमान के रूप में बसा दिया। आज जब वीएफएक्स सहित कम्पयूटर ग्राफिक्स जैसी तकनीक उपलब्ध हैं, तो एक बार फिर भव्य पैमाने पर सिनेमाई पर्दे पर राम के अवतरण की संभावना प्रबल हो गई है।
  राम पर फ़िल्में सिर्फ ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने तक ही सीमित नहीं थीं! आज भी ये चरित्र उसी तरह लोकप्रिय है। 'दंगल' और फिर 'छिछोरे' से चर्चित हुए डायरेक्टर नितेश तिवारी का अगला प्रोजेक्ट 'रामायण' भी चर्चा में है। फिल्म की कास्टिंग को लेकर जबरदस्त चर्चा है। ऋतिक रोशन को राम और दीपिका पादुकोण को सीता के रोल में कास्ट करने की प्लानिंग है। वहीं प्रभास को रावण का रोल निभाने के लिए अप्रोच किया गया! नीतेश तिवारी ने कहा भी था कि 'छिछोरे' के बाद मैं 'रामायण' बनाने जा रहा हूं। ये एक ट्राइलॉजी होगी। हम इस प्रोजेक्ट को बनाने के लिए हर संभव कोशिश कर रहे हैं। जब नितेश से दीपिका और ऋतिक रोशन को कास्ट करने के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि हम अभी कॉन्सेप्ट लेवल पर हैं। हमने अभी कास्टिंग के बारे में सोचा तक नहीं है। मगर प्रोड्क्शन से जुड़े सूत्र ने बताया कि रामायण में पहली बार ऋतिक-दीपिका स्क्रीन शेयर करेंगे। इसके अलावा एक पॉपुलर सुपरस्टार रावण का रोल प्ले करेगा। मेकर्स ने रामायण के लिए 600 करोड़ का बजट रखा है। ये किसी भी इंडियन फिल्म के लिए साइन किया जाने वाला बड़ा बजट है।
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फ़िल्मी परदे पर ज्यादा नहीं मनती दीपावली!

- एकता शर्मा 

   फिल्मों के कथानक में त्यौहारों को कुछ ख़ास महत्व दिया जाता है। त्यौहारों में भी सबसे ज्यादा मनाई जाती है होली, जन्माष्टमी, ईद और कुछ हद तक क्रिसमस। लेकिन, बड़ा त्यौहार होते हुए भी फ़िल्मी कथानकों में दीपावली का प्रसंग कम ही देखने को मिला! परदे पर दीपावलीतभी दिखाई देती है, जब उसे फिल्म की कहानी में कहीं पिरोया गया हो! दीपावलीको लेकर कुछ फ़िल्में भी बनी, पर इनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक ही रही! बदलती दुनिया में दीपावली मनाने का तरीका बदला और उसके साथ ही फिल्मों में भी बदलाव दिखाई दिया। दीपावली से जुड़े गीत और दृश्य अहम प्रसंग की तरह शामिल रहे। कई फिल्मों में महत्‍वपूर्ण दृश्‍य भी इस त्यौहार की पृष्‍ठभूमि में भी फिल्‍माए गए। फिल्मों में गीतों माध्यम से दीपावली का उजियारा, खुशियां, भव्‍यता और सामूहिक परिवार की भावना स्‍पष्‍ट नज़र आई। ब्‍लैक एंड व्‍हाइट के दौर से लेकर आज की रंगीन फिल्‍मों तक में दीपावलीकेंद्रीय भाव की तरह कायम रही हो, ऐसा बहुत कम हुआ! 
   सिनेमा इतिहास के मुताबिक जयंत देसाई ने 1940 में ‘दिवाली’ नाम से पहली बार फिल्म बनाई थी! करीब पंद्रह साल बाद 1955 में बनी ‘घर घर में दिवाली’ बनी, जिसमें गजानन जागीरदार ने काम किया था। फिर एक लंबा अरसा गुजरा और 1965 में दीपक आशा की फिल्म ‘दिवाली की रात’ आई! आदित्य चोपड़ा ने 2000 में बनाई ‘मोहब्बतें’ के कथानक में दीपावली के जरिए फिल्म के पात्रों को एक जरूर किया, पर इसके आगे प्रसंग बदल गया था। 1998 में बनी कमल हासन की फिल्म ‘चाची-420’ में भी दीपावलीका प्रसंग था, जब कमल हसन की बेटी पटाखे से घायल हो जाती है। विनोद मेहरा और मौसमी चटर्जी की 1972 में आई ‘अनुराग’ में भी दिवाली के कुछ दृश्य दिखाई दिए थे। फिल्म के एक दृश्य में दीपावली की ही रात होती है जब पूरा घर खुशियों से झूम रहा होता है। तभी परिवार के मुखिया को खबर मिलती है कि उसके पोते को असाध्य बीमारी है। पूरा घर अचानक मायूस हो जाता है और उनकी सारी खुशियां दुख में बदल जाती हैं।
  हम आपके है कौन, एक रिश्ता : द बांड ऑफ लव और 'ख्वाहिश' आदि में भी दीपावली के दृश्य तो दिखाए गए हैं, लेकिन वे कहीं से भी कहानी का हिस्सा नही लगते! महेश मांजरेकर की संजय दत्त अभिनीत फिल्म 'वास्तव' में जरूर दीपावली के दृश्य को कहानी का हिस्सा बनाया गया था। चेतन आंनद की 1965 में प्रदर्शित फिल्म 'हकीकत' में भी दिवाली का उल्लेख है। भारत और चीन के बीच 1962 में हुए युद्ध पर आधारित इस फिल्म के एक दृश्य में दीपावली के दिन फिल्म के अभिनेता जयंत देश के जवानों को एक संदेश भेजते हैं, जो बहुत मार्मिक होता है। अमिताभ बच्चन को एंग्री यंगमैन बनाने वाली फिल्म ‘जंजीर’ जरूर ऐसी फिल्म है, जिसकी शुरुआत ही दिवाली से होती है। पटाखों के शोर में खलनायक अजीत एक परिवार को ख़त्म कर देता है! लेकिन, एक बच्चा छुपकर सब देखता है और क्लाइमैक्स में वो अजीत से बदला ले लेता है। 
  जब से ओवरसीज में हिंदी सिनेमा के दर्शक बढे हैं, दिवाली जैसे त्यौहारों को फिल्मकारों ने सीमित कर दिया। कई फिल्मों में दिवाली को अहमियत भी दी गई, तो उन्हें गीतों तक ही! याद किया जाए तो वर्तमान दौर में शिर्डी के सांई बाबा, हम आपके हैं कौन, मुझे कुछ कहना है, मोहब्बतें, कभी खुशी कभी गम, आमदनी अठ्ठन्नी खर्चा रूपैया और चाची-420 ही ऐसी फिल्में रहीं जिनमें दीपावली दिखाई दी ! अमिताभ बच्चन ने अपनी फिल्म कंपनी 'एबीसीएल' के तहत 2001 में ‘हैप्पी दिवाली’ बनाने की घोषणा की थी! इसमें अमिताभ के अलावा आमिर खान और रानी मुखर्जी भी थे! फिल्म की शूटिंग भी शुरू हुई, लेकिन बाद में किसी कारण से फिल्म लटक गई, तो आगे नहीं बढ़ सकी! 
   फिल्मकारों ने पिछले कुछ सालों से दिवाली के दृश्यों और गानों से किनारा ही कर लिया! एक तरह से कथानक से त्यौहार गायब ही हो गए। विषयवस्तु में भी बदलाव आता दिखाई देने लगा! दीपावली की पृष्ठभूमि के कुछ गानों को जरूर प्रसिद्धि मिली। गोविंदा की फिल्म ‘आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया’ का गाना ‘आई है दिवाली … सुनो जी घरवाली’ दिवाली को ध्यान में रखकर बना था। 1961 में आई ‘नज़राना’ में भी लता मंगेशकर का गाया दिवाली गीत ‘एक वो भी दिवाली थी, दिवाली है’ था। 1977 में आई मनोज कुमार की फिल्म ‘शिर्डी के सांई बाबा’ का दीवाली गीत ‘दीपावली मनाए सुहानी’ अब तक का सर्वाधिक लोकप्रिय दिवाली गीत माना जाता है। करण जौहर की 2001 में आई ‘कभी खुशी कभी गम’ का टाइटल गीत भी दीपावली पर केंद्रित था। ब्लैक एंड व्हाइट युग की फिल्म ‘खजांची’ के ‘आई दीवाली आई, कैसी खुशहाली लाई’ भी अनोखे अंदाज का दिवाली गीत था। ‘पैग़ाम’ में मोहम्‍मद रफ़ी का गाया और जॉनी वाकर पर फिल्माया दिवाली गीत वास्‍तव में यह कॉमेडी गाना था। इस सबके बावजूद दूसरे त्यौहारों मुकाबले सिनेमा के परदे पर दिवाली के पटाखे कम ही फूटते हैं।
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अपराध के आंकड़े बताते हैं, मध्यप्रदेश में बच्चे सबसे ज्यादा असुरक्षित!

- एकता शर्मा 

   समाज में सबसे घृणित कृत्य है बच्चों के साथ यौन शोषण! हमारे लिए सबसे शर्मनाक बात ये है कि पूरे देश में बाल यौन शोषण के मामले में मध्यप्रदेश का नंबर दूसरा है। हमसे आगे सिर्फ उत्तरप्रदेश है। लेकिन, वहाँ की आबादी मध्यप्रदेश से करीब तीन गुना ज्यादा है। 2011 की जनगणना के मुताबिक मध्यप्रदेश की आबादी 7.33 है, जबकि उत्तरप्रदेश की आबादी करीब 20 करोड़ है। ऐसे में कल्पना की जा सकती है कि बाल यौन अपराध की मध्यप्रदेश में स्थिति क्या होगी! इस नजरिए से सबसे ज्यादा बाल यौन शोषण के मामलों में मध्यप्रदेश को देश में नंबर-वन माना जाना चाहिए। हाल ही में जारी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2017 की रिपोर्ट में भी मध्यप्रदेश में 2016 में नाबालिग मासूमों से ज्यादती के 3082 मामले रिकॉर्ड में आए थे। 
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   बाल यौन शोषण की लगातार बढ़ती घटनाओं ने समाज का सिर शर्म से झुका दिया। कायदे-कानून कड़े किए जाने के बावजूद ऐसी घटनाएं कम होने का नाम नहीं ले रही। एक उल्लेखनीय पहलू यह भी है कि अधिकांश मामलों में अपराधी कोई अपरिचित नहीं, बल्कि क़रीबी ही निकला! इतना करीबी कि सहज विश्वास करना मुश्किल है। ऐसी ही एक घटना की गंभीरता को समझिए! धार के भोज अस्पताल परिसर में पिछले दिनों दो बहनें कचरा बीन रही थी। इन दोनों बहनों को इस हालत में देखकर किसी व्यक्ति ने बाल कल्याण समिति को सूचित किया। समिति ने दोनों बच्चियों को बुलवाकर माता-पिता के बारे में जानकारी ली। उन्हें घर भेजने की कोशिश की गई, तो बड़ी बच्ची रोने लगी! उसने घर जाने से साफ़ इंकार किया और अजीब से डर से सहम सी गई! उसकी इस हालत को देखकर बाल कल्याण समिति के सदस्यों को शक हुआ! उन्होंने दोनों को काउंसलर के पास भेजा और उसकी घबराहट का कारण जानना चाहा! बड़ी मुश्किल से बच्ची ने बताया कि पिता उसके साथ जबरदस्ती करता है। माता, पिता में झगडे के बाद माँ घर छोड़कर अपने पीहर चली गई! उसने बताया कि पिता ने उसके साथ कई बार बलात्कार किया। पिता की इस हरकत से उसे असहनीय पीड़ा होती है, इस कारण वह घर जाना नहीं चाहती! इसके बाद न्यायालय ने सुरक्षा की दृष्टि से दोनों बच्चियों को सुरक्षा की दृष्टि से बाल आश्रय गृह में रखने का आदेश दिया। ये महज एक घटना नहीं, ये इस बात का प्रमाण है कि बच्चे अपने घर में ही सुरक्षित नहीं हैं। ऐसे में वे अपनी पीड़ा किससे कहें?
  ये महज एक घटना नहीं, समाज की दुर्दशा का एक नमूना मात्र है। बच्चियां यदि अपने घर, परिवार और परिजनों के बीच ही सुरक्षित नहीं होगी तो कहाँ होगी? बाल यौन शोषण को लेकर देशभर में जितनी भी घटनाएं होती हैं, उनमें 70% मामलों में अपराध करने वाला कोई रिश्तेदार या परिचित ही होता है! यही कारण है कि मामले दब जाते हैं या अपराधी अदालत से छूट जाते हैं! आश्चर्य है कि दुनिया के आधुनिकीकरण के बावजूद ऐसी घटनाएं कम होने के बजाए बढ़ रही हैं। इसका सुबूत है, देशभर में होने वाली सभी आपराधिक घटनाओं पर 'नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो' (एनसीआरबी) हर साल आने वाली रिपोर्ट! 2016 में जारी 'एनसीआरबी' की रिपोर्ट पर नजर डालें, तो देशभर में बच्चों के साथ होने वाले अपराधों में तेजी से बढ़ौतरी हुई है। 2014 में जहाँ बच्चों के साथ अपराध की 89,423 घटनाएं दर्ज हुईं, 2015 में इनकी संख्या 94,172 हुई और 2016 में 1,06,958 घटनाएं दर्ज की गईं! इन 3 सालों में ही बच्चों के साथ अपराध की दर 24% तक पहुंच गई! 2014-15 में 5.3% की तुलना में 2015-16 में 13.6% अपराध हुए! 2016 में बच्चों के साथ हुए 1,06,958 घटनाएं हुई। इनमें 36,022 मामले पॉक्सो एक्ट के थे। देखा जाए तो बाल यौन शोषण के मामले में 34.4% की वृद्धि दर्ज की गई! 2017 की रिपोर्ट में मध्यप्रदेश में नाबालिग मासूमों से ज्यादती के 3082 मामले प्रकाश में आए हैं। मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा
  पॉक्सो एक्ट और आईपीसी के सेक्शन 376 के तहत बाल यौन शोषण (चाइल्ड रेप) के मामलों में भी मध्यप्रदेश अव्वल है। बच्चों के साथ सबसे ज्यादा दुष्कर्म के मामले दर्ज हुए। मध्यप्रदेश (2,467) के बाद महाराष्ट्र (2,292) और उत्तर प्रदेश (2,115) का नाम है! इन्हीं 3 राज्यों में पॉक्सो एक्ट और आईपीसी के सेक्शन 376 के तहत 2 हजार से ज्यादा केस दर्ज हुए।  यौन शोषण के 692 मामले झूठे
  एक मुद्दे की बात ये भी है कि बाल यौन शोषण की घटनाओं को पुलिस अपनी जाँच में गंभीरता से तवज्जो नहीं देती। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2016 में जारी रिपोर्ट कहती है कि पॉक्सो के तहत 2015 में बाल यौन शोषण के 36,022 मामले दर्ज हुए, जबकि उसके पिछले साल 12,038 मामलों की जांच शुरू होनी थी। इसी तरह से 48,060 मामले पॉक्सो के तहत दर्ज हैं। 12,226 मामले बच्चों के साथ यौन शोषण के दर्ज हुए। जबकि, शोषण के 19,765 नए मामले पॉक्सो सेक्शन 4 और 6/आईपीसी की धारा 376 के तहत सामने आए। बाल यौन शोषण के तहत दर्ज 48,060 मामलों के अलावा 868 मामलों में यौन शोषण के आरोप सही तो पाए गए, लेकिन ठोस सबूत न होने के कारण आरोपी बरी हो गए! जबकि 692 यौन शोषण के मामले झूठे साबित हुए। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भी बाल यौन उत्पीड़न की बढ़ती घटनाओं पर लगाम कसने के लिए बाल यौन अपराध संरक्षण (पॉक्सो) कानून को कड़ा किया है। इन संशोधनों में बच्चों के साथ गंभीर यौन उत्पीड़न करने वालों को मौत की सजा और नाबालिगों के साथ दूसरे अपराधों के लिए कड़ी सजा का प्रावधान है। 
  पॉक्सो कानून की 3 धाराओं (4, 5 और 6) में बदलाव कर बाल यौन शोषण के मामलों में सजा को और कड़ा करने के लिए मौत की सजा का प्रावधान  लाया गया है। अब बाल यौन शोषण के मामले को सुप्रीम कोर्ट ने गंभीरता से लिया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि कोर्ट सरकार की मदद से कुछ ऐसे और कड़े कदम उठाए जाएंगे कि खुद को सभ्य समाज का हिस्सा कहने वाले मानव समाज ऐसे वीभत्स कुकृत्य करने से बचेगा और बच्चों का बचपन सुरक्षित रहेगा। लेकिन, दोषियों को समय पर कड़ी सजा देने के बाद ही अपराधियों के सुरक्षित बच निकलने के रास्ते बंद होंगे। लेकिन, सरकारी आंकड़ेबाजी से ऐसी घटनाएं तो रूक नहीं सकती! पिता, बड़ा भाई. चाचा या फिर कोई नजदीकी रिश्तेदार कब किसी मासूम बच्ची को कुचल दे, कहा नहीं जा सकता! ऐसी घटनाएं सरकारी प्रयासों से थम सकेंगी, इस बात का भी दावा नहीं किया जा सकता! समाज को खुद बदलना होगा या ऐसे अपराधियों को इतनी कड़ी सजा दी जाना चाहिए कि देखने और सुनने वालों की रूह काँप जाए! 
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