Monday 11 January 2021

सत्य पॉल के बहाने साड़ी का जिक्र!

- एकता शर्मा


'सारी मध्य नारी है कि नारी मध्य सारी है, सारी ही कि नारी है कि नारी ही की सारी है!'

    पौराणिक ग्रंथ 'महाभारत' के अनुसार साड़ी की महिमा को लेकर ये शब्द दुःशासन ने उस समय कहे थे, जब वे युधिष्ठिर से जुए में द्रौपदी को जीतने के बाद उसे भरी सभा में निर्वस्त्र करने का प्रयास कर रहे थे। पर, द्रौपदी के शरीर पर लिपटी साड़ी ख़त्म ही नहीं हो रही थी। बताते हैं कि द्रौपदी ने कृष्ण से अपनी लाज बचाने की विनती की थी। तब कृष्ण ने द्रौपदी की साड़ी को अंतहीन कर दिया था और द्रौपदी निर्वस्त्र नहीं हो सकी थी। इससे लगता है कि साड़ी सिर्फ महिलाओं का पहनावा ही नहीं, उनका आत्म कवच भी है।
    साड़ी (कुछ जगह इसे सारी कहा जाता है) भारतीय महिलाओं का मुख्य परिधान है। इसे दुनिया के सबसे लम्बे और पुराने परिधानों में गिना जाता है। यह बिना सिला हुआ 5-6 मीटर का कपड़े का टुकड़ा होता है, जो अन्य वस्त्रों के ऊपर लपेटकर पहना जाता है। 'महाभारत' के अलावा साड़ी का उल्लेख 'वासस्' और 'अधिवासस्' के रूप में वेदों में भी मिलता है। यजुर्वेद में 'साड़ी' शब्द का सबसे पहले उल्लेख मिला था। दूसरी तरफ ऋग्वेद की संहिता के मुताबिक यज्ञ और अन्य धार्मिक प्रयोजनों में महिलाओं द्वारा साड़ी पहनने का विधान है। अन्य परिधानों की तरह साड़ी को पहनना आसान नहीं होता! 6 मीटर के लम्बे कपड़े को सलीके से इस तरह पहना जाता है कि वो फैशन का हिस्सा बन जाता है। महाराष्ट्र में तो इससे भी लम्बी नौ गज की साड़ी पहनने का रिवाज है।
   सदियों तक साड़ी के आकार, प्रकार और उसे पहनने के तरीके में कोई अंतर नहीं आया! लेकिन, भारतीय साड़ी को नई पहचान देने का श्रेय प्रसिद्ध फैशन डिजाइनर सत्य पॉल को जाता है। उन्होंने साड़ी को लेकर नए प्रयोग किए और नया रूप भी दिया। उन्होंने इस 6 मीटर के लम्बे कपड़े की मूल पहचान को बरक़रार रखते हुए, इसे नए नियॉन रंग और ज्यामितीय डिजाइन दी। सत्य पॉल ने 60 के दशक में फैशन की दुनिया में कदम रखा और बाद में साड़ी को लेकर नए प्रयोग करना शुरू किए। उन्होंने योरप और अमेरिका में हेंडलूम उत्पादों को भी आगे बढ़ाया और दुनिया को भारतीय परिधानों की खूबियों से अवगत कराया। 1980 में उन्होंने देश में पहली बार साड़ी बुटीक 'लाअफेयर' शुरू किया, जिसमें परंपरागत साड़ियों को नई डिजाइन में उतारा। इसके बाद 1986 में उन्होंने संजय कपूर के साथ फैशन ब्रांड 'सत्य पॉल' शुरू किया। जिसके साथ उनका बेटा पुनीत नंदा भी जुड़ा।  
     सत्य पॉल ने कफ़लिंक, टोट्स और पर्स को भी पुरुष परिधान से जोड़ा और उन्हें ब्रांड की पहचान दी। उन्होंने 80 के दशक में भारतीय फैशन को अलग रूप में बदल दिया। उन्होंने हाथ से बने वस्त्रों को प्रिंट के साथ मिश्रित किया, जो किसी ने सोचा नहीं था। साड़ियों को दिए उनके बोल्ड कलर और उनका ज्यामितीय प्रिंटों का उपयोग अद्भुत था। बाद में डिजाइन के साथ शुद्ध कॉटन वस्त्रों पर वनस्पति रंगों के उनके उपयोग ने फैशन बाजार पर गहरी छाप छोड़ी। 
   दिवंगत सत्य पॉल की आयु 79 साल थी। 2 दिसंबर को उन्हें मस्तिष्क का आघात हुआ था। वे स्वस्थ भी हो रहे थे, पर लगता था उन्हें मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था। मृत्यु से दो दिन पहले उन्होंने सद्गुरु के 'ईशा योग सेंटर' जाना चाहा और अपनी अंतिम इच्छा बताई कि उनके शरीर में इलाज के लिए जो चीजें चुभाई गई हैं उन्हें हटा दिया जाए, वे उड़ना चाहते हैं। वे सद्गुरु जग्गी वासुदेव के इस योग सेंटर में वे 2015 से रह रहे थे। इच्छा के मुताबिक उन्हें वहीं ले जाया गया और उन्होंने अपनी देह त्याग दी! 'ईशा फाउंडेशन' के संस्थापक सद्गुरु ने भी सत्य पॉल के निधन पर शोक जताया और कहा कि सत्य पॉल, बेहद जोशीले और अथक भागीदारी के साथ जीवन जीने का एक शानदार उदाहरण थे। उनके द्वारा भारतीय फैशन उद्योग में लाया गया उत्कृष्ट नजरिया है। 
   देश में साड़ी पहनने के कई तरीके हैं, जो भौगोलिक परिस्थिति और परंपरा और रुचि के अनुसार बदलते रहते हैं। अलग-अलग शैली की साड़ियों में कांजीवरम साड़ी, बनारसी साड़ी, पटोला साड़ी और हकोबा मुख्य हैं। मध्य प्रदेश की चंदेरी, महेश्वरी, मधुबनी छपाई, असम की मूंगा रशम, उड़ीसा की बोमकई, राजस्थान की बंधेज, गुजरात की गठोडा, पटौला, बिहार की टसर, काथा, छत्तीसगढ़ी कोसा रशम, दिल्ली की रेशमी साड़ियां, झारखंडी कोसा रेशम, महाराष्ट्र की पैठणी, थानी, तमिलनाडु की कांजीवरम, बनारसी साड़ियां, उत्तर प्रदेश की तांची, जामदानी, जामवर एवं पश्चिम बंगाल की बालूछरी एवं कांथा टंगैल विख्यात साड़ियाँ हैं।
   जहन में साड़ी का जिक्र आते ही भारतीय महिला का व्यक्तित्व नजरों के सामने आ जाता है। ये भारतीय महिला का मुख्य परिधान है। लेकिन, अब साड़ी को विदेशों में भी पसंद किया जाने लगा है। विदेशी महिलाओं ने भी इस भारतीय परिधान को फैशन के रूप स्वीकारा है। पुरातन समय से चली आ रही साड़ी पहनने के रिवाज में इतने सालों बाद भी बहुत ज्यादा अंतर नहीं आया। फैशन डिजाइनर सत्य पॉल ने इसमें कुछ बदलाव जरूर किया, पर वह भी इसके मूल स्वरूप को बरकरार रखते हुए। क्योंकि, इस परिधान की विशेषता ही इसे पहनने का ढंग है। आज साड़ी कई रंगों और डिजायनों में उपलब्ध है। वक्त के साथ इसमें बदलाव भी हुए, पर बहुत कम! 
   दूसरी शताब्दी में पुरुषों और स्त्रियों के ऊपरी भाग को अनावृत दर्शाया गया है। इसमें 12वीं शताब्दी तक कोई खास बदलाव नहीं आया! लेकिन, उसके बाद धर्म और पारिवारिक संस्कारों को साड़ी से जोड़कर देखा जाने लगा। धर्म के साथ साड़ी का विशेष जुड़ाव रहा है, यही कारण है कि कई धार्मिक प्रयोजनों में इसे धारण किया जाता है। धर्म और रंग का भी साड़ी पर गहरा प्रभाव देखा जा सकता है। पहले सामाजिक रीति-रिवाज के तहत विवाह के बाद महिलाएं रंगीन और डिजायनदार साड़ी पहनती थीं! लेकिन, विधवाओं को रंगीन साड़ी पहनने की इजाजत समाज नहीं देता था, इसलिए वे सफेद रंग की साड़ी पहनती थी! लेकिन, वक़्त के साथ ये परंपरा भी बदलती गई! भारतीय नारी के परिधानों की बात साड़ी के बिना कभी पूरी नहीं होती! लेकिन, जब भी साड़ी का जिक्र होगा, सत्य पॉल को जरूर याद किया जाएगा!
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इस साल का क्या भूलें, क्या याद रखें!

 संकट का दौर : 2020


  'जो होता है, अच्छे के लिए होता है!' ये बहुत पुरानी कहावत होने के साथ सकारात्मक सोच भी है! लेकिन, कोरोना संक्रमण ने देश और दुनिया में जो हालात बनाए, उसे तो किसी भी नजरिए से अच्छा नहीं कहा जा सकता! इस संकट ने सबको लम्बे समय से परेशान कर रखा है और अभी भी उससे मुक्ति नहीं मिली! न सिर्फ शारीरिक तौर पर, बल्कि मानसिक रूप से भी इस वायरस ने लोगों के जीवन को बहुत ज्यादा प्रभावित किया। समाज के हर वर्ग ने इस दर्द को भोगा है, पर इस पीड़ा की कोख से कुछ ऐसा भी जन्मा है, जिसने ऐसी नई राह दिखाई! वर्क फ्रॉम होम, ऑनलाइन क्लासेस, मनी ट्रान्जेशन, ऑनलाइन बैंकिंग और दूरी बनाकर कतार में खड़े होने जैसे कई विकल्प सामने आए! इसके अलावा दौर में मानवीयता के भी कई किस्से सुनाई दिए। सड़क नापते गरीबों को खाना, पानी और चप्पल बाँटने के साथ घर तक भेजने तक की व्यवस्था करने वाले सेवाभावी सामने आए। यदि संकट नहीं होता तो लोगों में सेवा का जज्बा भी शायद सामने नहीं आता!   
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- एकता शर्मा 

   ब पिछले साल 31 दिसंबर को लोग 2020 के स्वागत की तैयारी की योजना बना रहे थे, तब किसी ने सोचा नहीं था कि ये साल इतनी मनहूसियत से भरा होगा! एक अदृश्य वायरस ने दुनिया की गति और सोच दोनों को बदल दिया! ये ऐसी घटना ऐसी थी, जो किसी के सोच से भी परे थी! हॉलीवुड की फिल्मों की काल्पनिक कहानी की तरह इस वायरस के कारण मानव सभ्यता पर संकट आ गया! सर्दी, खाँसी और निमोनिया जैसे लक्षणों वाली बीमारी ने लोगों की जान लेने में कोई कोताही नहीं बरती! वायरस के असर से लाखों लोगों ने 'अपनों' को खोया और करोड़ों लोगों ने 'सपनों' को खोया! अभी भी ये सिलसिला जारी है! बीत रहे इस साल को इसकी मनहूसियत के लिए कभी कोई भुला नहीं सकेगा। 
     किसी ने कभी सोचा नहीं होगा कि 2020 साल ऐसा बीतेगा। एक अदृश्य संकट ने जैसे दुनिया बांधकर रख दिया। दुनियाभर में लाखों लोगों की मौत हो गई। ऐसी ही दुखद यादों के साथ बीत रहा ये साल कभी भुलाया नहीं जा सकेगा! ये अनुभव हर किसी की जिंदगी को दर्द दे गया। नए साल के शुरू होने के साथ लोग कुछ वादे करते हैं। अपने आपसे भी और अपनों से भी! कई सपने जो देखे जाते हैं, उन्हें पूरा करने के रास्ते खोजे जाते हैं। लेकिन, बीते साल ने सपनों को आकार तो नहीं दिया, कुचला ज्यादा! दुनियाभर के लोगों ने जैसा सोचा होगा, वैसा तो शायद कहीं कुछ नहीं हुआ! फिर भी इस साल ने ऐसे सबक जरूर सिखाए जो बरसों नहीं, सदियों तक ये दुनिया याद रखेगी! दुनिया ने अभी तक ऐसे संकटों को सिर्फ हॉलीवुड की फिल्मों में ही देखा गया था! लेकिन, फिल्म के अंत में हीरो आकर ऐसी मुसीबत का हल खोज ही लेता था! पर, अभी वायरस का सटीक इलाज किसी के पास नहीं है! शरीर के नकली अंगों से असली जैसा काम लेने वाले चिकित्सा विज्ञानियों ने भी इसके सामने हथियार डाल दिए!    
    दुनियाभर के लोगों ने 2020 में बहुत ख़राब समय देखा। इतना ख़राब, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। अज्ञात खतरा सबके आसपास मंडराता रहा! लोगों का अपनों से विश्वास टूट गया। वायरस ने शारीरिक दूरी के साथ संबंधों में भी दूरियां बना दी। जब साल के शुरूआती महीनों में पूरी दुनिया में हाहाकार मचा था और लोगों पर मौत का खतरा मंडरा रहा था, तब अपने गाँवों से मजदूरी करने आए लाखों मजदूर पैदल ही अपने घरों के लिए निकल पड़े! उन्हें ये तो पता था कि जो खतरा शहरों में है, गाँव उससे मुक्त नहीं है, पर वे निकल पड़े! देश की बड़ी आबादी सड़कों पर आ गई! बिना कुछ सोचे, समझे! लेकिन, इस वक़्त मानवीयता भी अपने घरों से निकली और इन पैदल चल रहे लोगों की हरसंभव मदद की! इस दौर में देश ने इंसानियत भी देखी और मानवीयता भी! जो लोग खाने और पीने की चिंता छोड़कर सड़कों पर आ गए थे, उनकी चिंता लोगों ने की! उन्हें पानी दिया, खाना दिया और ऐसे भी लोग थे, जिन्होंने उनको घर तक पहुँचाने इंतजाम किया! सोनू सूद जैसा चेहरा ऐसी ही मुसीबत में लोगों के लिए देवदूत बनकर सामने आया! आज यदि उसके मंदिर बन रहे हैं, उसे पूजा जा रहा है तो उसी संकटकाल में उसकी मदद का प्रतिफल है। ये वो नई दुनिया है, जो कहीं दुबकी पड़ी थी, पर ऐसे वक़्त में उबरकर सामने आई!
       एक रिपोर्ट के मुताबिक वायरस संक्रमण के विश्वव्यापी खतरे के बीच दुनिया के 165 देशों के स्कूल और शिक्षा संस्थानों को बंद करना पड़ा! इस कारण करीब डेढ़ अरब से ज्यादा बच्चों की पढ़ाई पर असर पड़ा। स्कूल बंद थे तो 6 करोड़ से ज्यादा शिक्षक भी अपने पढ़ाने के काम से विलग रहे! दुनिया में इस तरह की ये पहली घटना है, जब पूरी दुनिया की शिक्षा संकट से प्रभावित हुई! विश्वयुद्ध के दौर में भी शायद पूरी दुनिया पर ये प्रभाव नहीं पड़ा था! स्कूलों ने इससे निजात पाने के लिए ऑनलाइन पढाई का रास्ता खोज लिया। आश्चर्य की बात यह रही कि छात्रों ने भी इसे आत्मसात करने में देर नहीं की! ये रास्ता  स्कूल की पढाई की तरह कारगर तो नहीं रहा, पर इस संकटकाल में ये उचित ही माना जाएगा। इस सच्चाई को भी नकारा नहीं जा सकता कि मुसीबत के दौर में जो समाधान ढूंढ़े गए, सामान्य स्थिति में उनके बारे में सोचना भी संभव नहीं था! यदि ऐसा कोई प्रयोग किया भी जाता, तो उसे स्वीकार्य नहीं किया जाता। निश्चित रूप से शिक्षण पद्धति के मामले में ये एक नवाचार है, जिसका असर भविष्य में देखने को मिलेगा!  
   क्या कभी किसी ने ऐसा सोचा था कि बिना दफ्तर जाए घर में बैठकर दफ्तर का कामकाज सुचारू ढंग से चलाया जा सकता है! लेकिन, संक्रमणकाल में यह सब भी किया गया। जानकारियों के मुताबिक 'वर्क फ्रॉम होम' की परिकल्पना के साकार होने से कम्प्लीट ऑफिस का आसान विकल्प भी मिल गया। आजकल जब सारा काम कागज़ों के बिना ऑनलाइन ही होता है, तो कर्मचारियों को दफ्तर बुलाने की बाध्यता भी इस विकल्प ने ख़त्म कर दी। जो काम कर्मचारी दफ्तर में करते थे, वो घर से होने लगा और नियोक्ता उससे संतुष्ट भी हैं! क्योंकि, अब कर्मचारी उसके लिए 12 से 18 घंटे उपलब्ध होने लगे! उधर, कर्मचारी इसलिए संतुष्ट है कि उसे दफ्तर के तय समय, अनुशासन से मुक्ति मिल गई! 'वर्क फ्रॉम होम' ने नियोक्ता को दफ्तर के खर्च से भी बचा लिया! तय है कि संक्रमणकाल के बाद भी ज्यादातर दफ्तरों में ये वर्क कल्चर बना रहे, तो आश्चर्य नहीं!       
   इस साल न जाने कितने लोग ऐसे भी थे, जिन्होंने वायरस संकट आने पर अपनी योजनाओं और सपनों का साथ छोड़ा दिया। किसी ने संसाधन की कमी से तो किसी ने आर्थिक कारणों से अपने सपनों को तिलांजलि दे दी। अब ये सपने कब पूरे होंगे, उन्हें भी नहीं पता जिसने सपने संजोए थे। लेकिन, 2020 के संक्रमणकाल ने इसके अलावा बहुत कुछ सिखा दिया। किसी ने किताबें पढ़ने की अपनी पुरानी आदत को फिर जिंदा किया तो किसी ने संगीत, नृत्य और लिखने की आदत को फिर शुरू किया। मुसीबत में सिनेमाघर बंद हुए, टीवी सीरियलों की शूटिंग थम गई तो मनोरंजन के विकल्प के रूप में ओटीटी प्लेटफॉर्म सामने आया। लोगों ने बड़े परदे की जगह मोबाइल और टीवी के परदे पर फ़िल्में और वेबसिरीज देखकर मनोरंजन करके अपना वक़्त गुजारा! इस नजरिए से कहा जा सकता है कि लोगों ने अपने आपसे साक्षात्कार किया। 
   वायरस संकट ने मानव सभ्यता को जीने का नया रास्ता भी दिखाया। आधुनिकता की आँधी और सबसे आगे रहने की होड़ में हम ये भूल गए थे कि प्रकृति के भी अपने नियम कायदे हैं। पर्यावरण को लेकर लोगों में नई चेतना जागृत हुई! शुद्ध हवा, पानी और स्वच्छ प्रदूषण की जरुरत को महसूस किया गया! ये अहसास भी हुआ कि जीने के लिए सिर्फ पैसा ही जरुरी नहीं है, उससे भी जरुरी है हमारे आसपास का परिवेश और हमारे अपने! लोगों ने कतार की जरुरत को भी समझा और स्पर्श के खतरे को भी! दूरियों को जरुरी समझा जाने लगा और इसी से जन्मा ऑनलाइन मनी ट्रांजेक्शन! जिस ऑनलाइन बैंकिंग और ऐसी प्रणालियों को अनुपयुक्त और खतरे वाली समझा जाता था, वे सुरक्षा की गारंटी बन गई! जब व्याख्यानों का सिलसिला शुरू हुआ तो वो भी भौतिक उपस्थिति के बजाए वर्चुअल हो गया। बड़े-बड़े कार्यक्रम वर्चुअल मंचों पर सफलता से आयोजित होने लगे और लोगों ने इसे ज्यादा बेहतर और सुरक्षित समझा! ये जीवन और व्यवस्था में हुए वे बदलाव हैं, जो हमेशा याद किए जाएंगे, अच्छे संदर्भों में भी और बुरे संदर्भों में भी। साल 2020 ने यदि मानव सभ्यता को दर्द दिया है तो कई मर्जों की दवा भी दी है। लेकिन, फिर भी कोरोना से जल्दी निजात पाना जरुरी है।   
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बॉलीवुड के आसमान से कई सितारे टूटकर गुम हुए!

2020 का कहर


- एकता शर्मा

   वर्ष 2020 जैसी सौ साल से ज्यादा पुरानी फिल्म इंडस्ट्री पर शायद ही कभी आई हो! फिल्म इंडस्ट्री में कई दिग्गज सितारे इस साल टूटे। अभिनेता सुशांतसिंह राजपूत की मौत के बाद शुरू हुआ सिलसिला लम्बा चला। कोरोना काल के कारण ये साल कई बड़ी फिल्मों के लटकने के लिए भी सालों तक याद किया जाएगा। लेकिन, इससे भी ज्यादा इस साल को याद किया जाएगा, बॉलीवुड के कई दिग्गजों की असमय मौत के लिए। कुछ का जाना सामान्य था तो कुछ को कोरोना ने लील लिया। कुछ ऐसी भी मौतें हुई जिनका रहस्य हमेशा बरकरार रहेगा। 2020 में करीब 12-13 दिग्गजों को बॉलीवुड ने खो दिया।अधिकांश मौतें जून और जुलाई महीने में हुईं। 
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- निम्मी (25 मार्च)
  अपने दौर की मशहूर अदाकारा और 87 वर्षीय निम्मी का इस साल 25 मार्च की शाम निधन हो गया। वे लंबे समय से बीमार चल रही थीं। निम्मी को लेकर कहा जाता है कि उन्हें शो मैन राजकपूर लेकर आए थे। निम्मी ने मशहूर अभिनेत्री नरगिस के साथ भी काम किया था। 
इरफान खान  (29 अप्रैल)
  वे ऐसे अभिनेता थे जो अपने किरदार में इस कदर डूब जाते थे कि रील लाइफ में भी रियल लाइफ का एहसास दिलाते थे। इरफान खान 53 साल की उम्र में न्यूरो-एंडोक्राइन ट्यूमर की वजह से बॉलीवुड समेत इस जहां को अलविदा कहकर चले गए। 29 अप्रैल की सुबह उन्होंने अंतिम सांस ली। 2018 में उन्हें इस बीमारी का पता चला, इसके बाद से उनका इलाज जारी था। वे लंदन में भी इलाज करवाकर लौटे थे। लेकिन, वे बच नहीं सके। सेहत में सुधार आने के बाद उन्होंने 'अंग्रेजी मीडियम' की शूटिंग की, जो इस साल मार्च में रिलीज हुई थी। मार्च में ही इरफान की सेहत फिर बिगड़ने लगी थी। लेकिन, लॉकडाउन की वजह से इरफान आगे के इलाज के लिए विदेश नहीं जा पाए और उनकी मौत हो गई। मौत से कुछ दिन पहले इरफान को कोलन इंफेक्शन की वजह से अस्पताल में भर्ती कराया गया था, उनकी मौत से कुछ दिनों पहले ही उनकी मां की मौत हो गई थी, जिसका सदमा उन्हें लगा और वे अस्पताल से वापस नहीं लौट पाए। इरफान ने अपने करियर में करीब 50 से ज़्यादा फिल्मों में काम किया। फिल्मों में लीड हीरो के साथ-साथ उन्होंने कई फिल्मों में निगेटिव किरदार भी निभाए। पान सिंह तोमर, मदारी, मकबूल, हिंदी मीडियम, अंग्रेजी मीडियम, लाइफ ऑफ पाई, द लंच बॉक्स, बिल्लू बारबर, स्लमडॉग मिलेनियर, लाइफ इन मेट्रो, दिल्ली-6 इनकी कुछ ऐसी फिल्में रहीं, जिनमें इनका काम जमकर सराहा गया।
ऋषि कपूर (30 अप्रैल)
   बॉलीवुड के सबसे चॉकलेटी हीरों में शुमार और शो मैन राजकपूर की विरासत को सफलता के चरम तक पहुंचाने वाले अभिनेता ऋषि कपूर भी 30 अप्रैल को 67 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गए। वे ल्यूकेमिया से जूझ रहे थे। अमेरिका में उनका मैरो ट्रीटमेंट चल रहा था। पिछले साल वे न्यूयॉर्क से 11 महीने तक इलाज करवाकर भारत लौटे थे। अप्रैल में उनकी तबियत खराब हुई, जिसके चलते उनकी मौत हो गई। ऋषि कपूर ने 1973 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘बॉबी’ से अपने करियर की शुरुआत की थी। अपने करियर में कई सुपरहिट फिल्म देने वाले ऋषि ने करियर में 92 से भी ज़्यादा फिल्में की। अमर अकबर एंथनी, प्रेम रोग, कर्ज, दीवाना, कभी कभी, खेल खेल में, तवायफ, मुल्क, चांदनी, नसीब, ये वादा रहा, लैला मजनूं, सरगम, अग्निपथ उनकी कुछ ऐसी फिल्में रहीं, जिन्होंने बड़े पर्दे पर उनकी प्रति दीवानगी को कभी कम नहीं होने दिया।
मोहित बघेल (22 मई)
   एक्टर मोहित बघेल 27 साल की उम्र में ही इस दुनिया को छोड़कर चले गए। सलमान खान की फिल्म 'रेडी' में वे पहली बार नजर आए थे, आखिरी बार उन्हें सिद्धार्थ मल्होत्रा और परिणीति चोपड़ा की फिल्म 'जबरिया जोड़ी' में देखा गया। लेकिन, कैंसर से जूझ रहे मोहित को तबियत खराब होने पर अस्पताल में भर्ती करवाया गया, जहां उनकी मौत हो गई। मोहित ने कॉमेडी शो ‘छोटे मियां’ से अपने करियर की शुरुआत की थी। टीवी पर कई शो करने के साथ ही उन्होंने फिल्मों में भी काम किया। 'रेडी' में उन्होंने अमर चौधरी का किरदार निभाया, जो काफी लोकप्रिय हुआ था। इस किरदार से उन्हें काफी लोकप्रियता मिली। फिल्म ‘उमा’ में भी मोहित नज़र आए थे। इस फिल्म में उन्होंने जिमी शेरगिल, संजय मिश्रा, ओम पुरी के साथ काम किया था।
वाजिद खान (1 जून)
  बॉलीवुड में अपने गानों को लेकर हंगामा मचाने वाली मशहूर म्यूजिक कंपोजर साजिद-वाजिद में से एक वाजिद खान ने 1 जून को साथ छोड़ दिया। 47 साल की उम्र में बॉलीवुड की यह मशहूर जोड़ी टूट गई। वे लंबे समय से अपनी किडनी की परेशानी से जूझ रहे थे। कोरोना काल के चलते लगे लॉकडाउन के दौरान एक बार फिर से उनकी तबियत खराब हुई , जिसके चलते उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाया गया, लेकिन हालत बिगड़ने पर उन्हें वेंटिलेटर सपोर्ट पर रखा गया था। लेकिन, 1 जून को उनका निधन हो गया। साजिद-वाजिद की हिट जोड़ी ने 1998 में सलमान खान की फिल्म ‘प्यार किया तो डरना क्या’ के लिए पहली बार संगीत दिया था| इस जोड़ी ने तेरे नाम, पार्टनर, दबंग, राउडी राठौर जैसी हिट फिल्मों में संगीत दिए| उन्होंने कई सिंगिंग रियलिटी शो भी जज किए हैं|
बासु चटर्जी (4 जून)
   बॉलीवुड के उस दौर में जब सुपर स्टार अमिताभ बच्चन एंग्री यंग मैन बनने की और बढ़ रहे थे। ऐसे दौर में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को कुछ बेहतरीन कॉमेडी फिल्म देने वाले बासु चटर्जी ने भी अलविदा कह दिया। बासु चटर्जी को छोटी सी बात, रजनीगंधा, बातों बातों में, एक रुका हुआ फैसला और चमेली की शादी जैसी फिल्मों के निर्देशन के लिए हमेशा याद किया जाएगा। फिल्मों में बासु चटर्जी के योगदान के लिए 7 बार फिल्म फेयर अवॉर्ड और 'दुर्गा' के लिए 1992 में नेशनल फिल्म अवॉर्ड भी मिला था। 2007 में उन्हें आईफा ने लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड से नवाजा था। उन्होंने वर्ष 1969 से लेकर 2011 तक फिल्मों के निर्देशन में कई ऐतिहासिक काम किए।
सुशांत सिंह राजपूत (14 जून)
    बॉलीवुड के बहुत प्रतिभाशाली अभिनेताओं में शुमार सुशांतसिंह राजपूत गत 14 जून को अपने घर में मृत पाए गए। उनकी मौत को लेकर संदेह आज भी बरकरार है। मुंबई पुलिस ने उनके द्वारा आत्महत्या किए जाने की बात कहीं। इस मामले ने सीबीआई के ड्रग्स गैंग की पोल खोलकर रख दी है। सुशांत की मौत के बाद जारी जांच में ड्रग्स का एंगल सामने आने के बाद बॉलीवुड के कई सितारें एनसीबी के रडार पर आ चुके हैं। मामले की सीबीआई जांच जारी है।
 सरोज खान (3 जुलाई)
  बॉलीवुड की स्टार अभिनेत्रियों को अपने इशारों पर नचाकर उन्हें फर्श से अर्श तक का सफर तय करने में अहम किरदार निभाने वाली बॉलीवुड में डांसिंग क्वीन के नाम से मशहूर कोरियोग्राफर सरोज खान का 3 जुलाई को निधन हो गया। वह 71 वर्ष की थीं। उनका निधन दिल का दौरा पड़ने के कारण हुआ। कोरोना काल में उन्हें कुछ दिनों से सांस लेने की दिक्कत हो रही थी, जिसके बाद उन्हें बांद्रा के हॉस्पिटल में भर्ती थीं। 40 साल के करियर में सरोज खान ने करीब दो हजार गाने कोरियोग्राफ किए। सरोज खान को 3 बार नेशनल अवॉर्ड ने भी सम्मानित किया गया। सरोज खान ने नच बलिए', उस्तादों के उस्ताद, नच ले वे विद सरोज खान, बूगी-वूगी और 'झलक दिखला जा' जैसे कई रियलिटी शो में बतौर जज बनकर नई प्रतिभाओं को सामने लाने में अपनी योगदान दिया। बॉलीवुड में सरोज खान को मास्टरजी के नाम से भी बुलाया जाता था। 3 साल की उम्र में  'नज़राना’ फिल्म से उन्होंने बाल कलाकार के रूप में अपना करियर की शुरुआत की| उन्होंने माधुरी दीक्षित और श्रीदेवी सहित बॉलीवुड के कई कलाकारों को डांस सिखाया| बहुत कम लोग जानते होंगे कि सरोज खान का असली नाम नाम निर्मला नागपाल था| 13 साल की उम्र में ही उनकी शादी बी सोहनलाल से हो गयी थी , लेकिन सरोज खान ने शादी से पहले अपना धर्म बदल कर इस्लाम कबूला था। 1974 में गीता मेरा नाम से अपना कोरियोग्राफी करियर शुरू किया, लेकिन उन्हें सफलता 1986 में श्री देवी के गाने हवा हवाई से मिली।
हरीश शाह (7 जुलाई)
   इंडस्ट्री का एक और जाना पहचाना चेहरा प्रोड्यूसर डायरेक्टर हरीश शाह भी 7 जुलाई को इस दुनिया को छोड़कर चले गए। वह कैंसर से जूझ रहे थे। इसी बीमारी से जूझते हुए लोगों की कहानी दुनिया के सामने लाने उन्होंने शॉर्ट फिल्म 'व्हाई मी' बनाई थी, जिसे प्रेसिडेंट अवॉर्ड मिला था।
जगदीप (8 जुलाई)
  बॉलीवुड के सूरमा भोपाली यानी जगदीप ने भी गत 8 जुलाई को हमारा साथ छोड़ दिया। 81 साल के जगदीप लंबे समय से बीमारियों से परेशान चल रहे थे। जगदीप रमेश सिप्पी की फिल्म 'शोले' (1975) के किरदार सूरमा भोपाली के नाम से पॉपुलर थे। एक्टर जगदीप का 8 जुलाई 2020 को निधन हो गया। ये बॉलीवुड के लेजेंडरी अभिनेताओं में से एक थे। उनका असली नाम सैयद इश्तियाक अहमद जाफरी था। जगदीप ने ज़्यादातर फिल्मों में कॉमेडियन का रोल निभाया। एक्टिंग की शुरुआत इन्होंने बीआर चोपड़ा की फिल्म अफसाना से की। ये फिल्म 1949 में शूट की गई और 1951 में इसे रिलीज़ किया गया। इसके बाद इन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और एक के बाद एक फिल्मों में काम किया। फिल्म हरियाली और रास्ता, बिन्दिया, सोलवाँ साल, रेलवे प्लेटफ़ॉर्म, जानवर और इंसान,एक नारी एक ब्रह्मचारी आदि इनकी हिट फिल्मों में से एक हैं। 
परवेज खान (27 जुलाई)
   बॉलीवुड के एक और बड़े एक्शन डायरेक्टर परवेज खान का भी गत 27 जुलाई को हार्ट अटैक के चलते निधन हो गया। वह 55 साल के थे। परवेज ने अंधाधुंध, बदलापुर, बुलेट राजा जैसी फिल्मों में अपना योगदान दिया था।
कुमकुम (28 जुलाई)
    गुजरे जमाने की मशहूर एक्ट्रेस कुमकुम का भी गत 28 जुलाई को 86 साल की उम्र में निधन हो गया । वह काफी समय से बीमार चल रही थीं। कुमकुम ने सौ से ज्यादा फिल्मों में काम किया। उन्होंने 50 से 60 के दशक के दौरान सबसे ज्यादा फिल्में कीं। इस दौरान गुरुदत्त, किशोर कुमार, दिलीप कुमार, देवानंद समेत कई बड़े सितारों के साथ काम किया। उनकी बड़ी फिल्मों में मदर इंडिया, आर-पार, सीआईडी रही है।
एसपी बाला सुब्रमण्यम (25 सितंबर)
  बॉलीवुड और टॉलीवुड (साउथ की फिल्म इंडस्ट्री) के सुपरहिट गायकों में रहे 74 वर्षीय बाला सुब्रमण्यम का 25 सितंबर को निधन को गया। वह कोरोना से जंग लड़ रहे थे। वह  5 अगस्त को कोरोना पॉजेटिव पाए गए जिसके बाद उन्हें चेन्नई के निजी अस्पताल में भर्ती करवाया गया था। 13 सितंबर को नेगेटिव आई थी, लेकिन पिछले दिनों इलाज के बाद वह बहुत कमजोर हो गए थे। करीब 50 साल तक संगीत की दुनिया में अपनी सेवा देने वाले एसपी को 2011 में पद्म भूषण अवॉर्ड से नवाजा जा चुका था। वे न सिर्फ हिंदी, अंग्रेजी बल्कि 16 भाषाओं में गाना गाने वाले गायक थे। 60 के दशक में अपने सिंगिंग करियर की शुरुआत करने वाले बाला सुब्रमण्यम ने करीब 40 हजार गानों को अपनी आवाज दी। यह अपना आप में एक रिकॉर्ड है। इसे गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में भी दर्ज किया जा चुका है। उन्हें ये गाने करीब 16 भाषाओं में गाए।
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ट्रैजडी किंग संग ब्यूटी क्वीन

    इन दिनों हिन्दी सिनेमा के ट्रेजेडी किंग दिलीप कुमार की जिंदगी किसी ट्रेजेडी से कम नहीं हैं। जीवन के 98 वसंत देख चुके यह मैथेडोलाॅजिकल अभिनेता अपनी वह याददाश्त भूल चुके हैं! लेकिन, उन्हें चाहने वाले दर्शक उन्हें कभी नहीं भूल सकते! उनकी इम्यूनिटी कमजोर हो चुकी है। कोरोनाकाल में अपने दो छोटे भाईयों की मौत से अनभिज्ञ यदि दिलीप कुमार आज तमाम नैसर्गिक आपदाओं और उम्र के तकाजे के बावजूद वजूद में हैं, तो इसके लिए उनसे 22 साल छोटी और ब्यूटी क्वीन के खिताब से नवाजी जा चुकी उनकी पत्नी सायरा बानो बहुत हद तक जिम्मेदार हैं। यह बात भी कितनी अजीब है, कि लगभग 20 साल से आर्क लैम्प और लाइम लाइट से दूर दिलीप कुमार को लेकर आज भी कभी-कभार ही चर्चा होती है। लेकिन, दिलीप कुमार की धड़कन को जिंदा रखने वाली उनके जीवन की वेंटिलेटर सायरा बानो का कहीं जिक्र नहीं होता! 
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- एकता शर्मा

   दिलीप कुमार और सायरा बानो का मेल शुरू से ही अजीब रहा। सिनेमा के पर्दे पर दोनों की छबियां दो ध्रुवों की तरह एक-दूसरे से विपरीत रही। दिलीप कुमार जहां गंभीर अभिनय और दुःखद चरित्र के लिए दर्शकों के लिए ट्रैजडी किंग बने तो पाश्चात्य रंग में रंगी सायरा बानो का फिल्मों में प्रवेश ही टू-पीस पहने इस्टमेन कलर फिल्म 'जंगली' से हुआ। एक के अभिनय में जहां दुःखों का दरिया बह रहा था, तो दूसरे की भूमिका दर्शकों को सुख का अहसास दिलाती रही! 1966 में जब दोनों का निकाह हुआ, तो दोनों की आयु में 22 साल का अंतर था, जो कि एक पीढी के अंतर से कम नहीं होता!
    शादी से पहले दिलीप कुमार मधुबाला से असफल प्यार की कहानी लिख चुके थे, तो सायरा भी शादी शुदा राजेन्द्र कुमार के प्रेम में दीवानी थी। सायरा की इसी प्रेम कहानी के अगले चेप्टर में दिलीप कुमार से उनकी शादी की दास्तान लिखी गई। ऐसा सुना गया है, कि नसीम बानो ने सायरा को राजेन्द्र कुमार के प्रेमजाल से मुक्त कराने की जिम्मेदारी दिलीप कुमार को सौंपी थी। फिल्म 'पड़ोसन' के सेट पर जब दिलीप कुमार ने सायरा को समझाया कि शादी शुदा के साथ उनका प्रेम प्रसंग उचित नहीं है, तो सायरा ने उनसे ही सवाल कर लिया कि तो क्या आप मुझसे शादी करेंगे। सायरा को शायद उम्मीद नहीं होगी कि कभी उन्हें गोद में खिलाने वाल दिलीप कुमार 'हाॅ' कह देंगे।
  दिलीप कुमार की 'हाॅं' और 1966 में अपनी उम्र से आधी सायरा बानो से शादी के बाद से दिलीप कुमार के निजी और फिल्मी जीवन से ट्रैजडी किंग का ठप्पा हटकर ब्यूटी क्वीन सायरा बानो की जिंदगी में दाखिल हो गया। वैवाहिक जीवन में खुशियां तो मिली, लेकिन पहली और अंतिम बार गर्भवती होने के बाद हुए गर्भपात ने उन्हें सदा के लिए मातृत्व सुख से वंचित कर दिया। शादी के 15 साल बाद एक समय ऐसा भी आया जब दिलीप कुमार ने 1981 में हैदराबाद की आसमां नामक विवाहिता से शादी कर सायरा को ब्यूटी क्वीन से ट्रेजेडी क्वीन बना दिया था। 1983 में आसमां से संबंध विच्छेद करने के बाद दिलीप कुमार फिर सायरा बानो के पास लौट आए! लेकिन, इसके बाद भी सायरा बानों के जीवन का दर्द कम नहीं हुआ।
   दिलीप कुमार ने भले ही सायरा के साथ बेवफाई की हो, लेकिन शादी के बाद सायरा सदा दिलीप कुमार के प्रति समर्पित रही। उन्होंने अपने जमे जमाए फिल्म करियर को छोड़कर केवल दिलीप कुमार के साथ फ़िल्में करने का फैसला किया, जो कुछ हिट और कुछ फ्लॉप फिल्मों के बाद खत्म हो गया। इस दरमियान दिलीप कुमार चरित्र अभिनेता बनकर उभरे और सफल भी हुए। क्रांति, विधाता, शक्ति और विधाता जैसी मुकम्मल फिल्में देने के बाद दिलीप कुमार जब एक बार बीमार हुए, तो फिल्मों से उनका नाता टूट सा गया! इसके बाद शुरू हुआ सायरा बानो के समर्पण का सिलसिला जो अनवरत रूप से जारी है।
   सायरा बानो जिनका जीवन विदेशों और पाश्चात्य शैली में बीता, उनसे भी यही अपेक्षा की गई थी कि वे भी सितारा पत्नियों की तरह क्लबों और पार्टियों में पैसे उड़ाते दिखेंगी। लेकिन, सायरा बानो ने अनपेक्षित रूप से अपने पूरे जीवन को बदल दिया। वे साये की तरह दिलीप कुमार के साथ दिखाई देने लगी। जब तक दिलीप कुमार सक्रिय रहते हुए फिल्मी दुनिया से जुडे रहे, सायरा हर समारोह और आयोजनों में उनके साथ रहीं। जब दिलीप कुमार ने बिस्तर पकड़ा तो सायरा एक परिचारिका बनकर उनकी सेवा कर रही है। उनके जीवन में किसी तरह का आर्थिक अभाव नहीं रहा और चाहे तो वह दिलीप कुमार की देखरेख के लिए नर्सो की फौज तैनात कर सकती थी। लेकिन, सायरा ने जिस तरह से बीमार दिलीप कुमार को हाथों से खिलाने से लेकर साफ सफाई का जिम्मा जिस तरह से अपने हाथों में लिया, वह आज की पीढ़ी की युवतियों के लिए अनुकरणीय है।
   अब जब दिलीप कुमार जीवन की सांझ में, बीता जीवन भूल गए हैं सायरा बानो उनकी देखभाल ही नहीं उनकी सोशल साइट का संचालन कर उनकी सेहत की जानकारी भी देती है। वे मकान को हडपने की कोशिशों की जंग भी लड़ रही है और उन्हें हर दुख दर्द से महफूज रखकर उनकी एक एक सांस को बढाने के लिए प्रयत्नशील है। हाल ही में उन्होंने एक ट्विट करके प्रशंसकों को उनकी अत्यंत नाजुक सेहत की जानकारी देकर उनकी सेहत की दुआ की अपील की है। हर प्रशंसक यह चाहता है कि उनकी यह दुआ कबूल हो और अपनी भूली बिसरी यादों के साथ ही सही उनके और उनसे बढकर सायरा के  दिलीप कुमार उनके बीच इसी तरह बने रहें।
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घरों पहुंची फिल्मों से बहुत कुछ बदला!

   कई फिल्में अभी भी थिएटर खुलने का इंतजार कर रहीं हैं। पर, सोशल डिस्टेंसिंग की बढ़ती अहमियत के बीच अगर थिएटर न खुलने या फुल कैपेसिटी पर फिल्में न दिखा पाने के कारण फिल्मों को नुकसान दिखता है, तो कई फिल्मकार ओटीटी की तरफ जल्द ही बढ़ सकते हैं। देश में फिल्मों का कारोबार नए युग की तरफ जा रहा है, फ़िलहाल ये कहना जल्दबाजी होगी! पर, देश में परिवार और दोस्तों के साथ जाकर फिल्म देखना सालों की आदत है। ये मान लेना कि ओटीटी का बढ़ता चलन थिएटर के बिज़नेस को कम कर देगा, अभी दावे से ये नहीं कहा जा सकता! 
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- एकता शर्मा

   ह सच है कि लॉक डाउन ने मनोरंजन में जिस बदलाव की रफ्तार तेज कर दी, उसकी तैयारी पिछले कुछ सालों से चल रही थी! फिल्म प्रोड्यूसर और सिनेमाघरों के बीच की खींचतान भी नई बात नहीं है। सिनेमाघर फिल्म व्यवसाय का एक बड़ा हिस्सा है। थिएटर मालिक कभी कम पैसे में फिल्म के राइट्स खरीदने या फिल्म चलाने के लिए कंटेंट में बदलाव या फिर एक्शन, डांस या सेक्स सीन बढ़ाने की भी डिमांड करते रहे हैं। ऐसी स्थिति में ओटीटी प्लेटफार्म का उदय नई बात जरूर है, पर अनोखी नहीं! बड़ी कमर्शियल फिल्मों के बराबर पैसे और अहमियत न मिलने के कारण छोटे बजट की फिल्में और आर्ट सिनेमा थिएटर के अलावा दूसरे विकल्प तलाशता ही रहा है। ओटीटी के जरिए उन्हें अपने लिए बेहतर प्लेटफॉर्म मिला है। कुछ साल पहले तक फिल्में कई हफ्तों तक थिएटर में लगी रहती थी। आज बड़ी से बड़ी फिल्में भी 2-4 हफ्ते का वक्त निकाल पाती हैं। उसमें भी बिज़नेस का सबसे बड़ा हिस्सा पहले वीकेंड में ही मिल जाता है! लेकिन, इस वक्त ठप पड़े बिज़नेस और भविष्य को लेकर बढ़ती अनिश्चितता बड़ी फिल्मों को भी थिएटर से दूर खींच रही हैं! 
    कई फिल्में अभी भी थिएटर खुलने का इंतजार कर रहीं हैं। पर, सोशल डिस्टेंसिंग की बढ़ती अहमियत के बीच अगर थिएटर न खुलने या फुल कैपेसिटी पर फिल्में न दिखा पाने के कारण फिल्मों को नुकसान दिखता है, तो ओटीटी का दायरा जल्द ही बढ़ सकता हैं। हालांकि, थिएटर में जाकर फिल्म देखना लोगों की वीकेंड आउटिंग का हिस्सा है और ओटीटी उसमें ज्यादा बदलाव ला पाएंगे, ऐसा मुमकिन नहीं! कोरोना वायरस ने लोगों को बाहर निकलकर करने वाली हर चीज से पहले दो बार सोचने पर मजबूर तो कर दिया है! लेकिन, सभी को जल्द स्थिति नॉर्मल होने की उम्मीद है। ओटीटी प्लेटफार्म के बढ़ते चलन से लोगों की फिल्म देखने की आदतों पर कितना फर्क पड़ेगा, इस पर पिछले कुछ सालों से लगातार बात हो रही है। ये कहना गलत नहीं कि भारत में आज भी ज्यादातर फिल्में बड़े पर्दे को ध्यान में रखकर ही बनाई जाती है। लेकिन, घर में आराम के साथ किसी भी वक्त फास्ट फॉर्वर्ड और रीवाइंड कर मूवी देखने का अनुभव धीरे-धीरे ओटीटी के लिए नया मार्केट बना रहा है, जो शायद लोगों को थिएटर तक जाने से भी रोके!
   अब तक इस इंडस्ट्री के चलते रहने का कारण रहा है भारत में लगातार बढ़ता फिल्म व्यवसाय! इसमें हर प्लेटफॉर्म के लिए कंटेंट की कोई कमी नहीं रही। भारत में 20 से अधिक भाषाओं में हर साल एक हज़ार से ज्यादा फिल्में बनती हैं और 3.3 अरब टिकटों की बिक्री के साथ भारत में थिएटरों की संख्या भी सबसे अधिक है। अब तक सिनेमाघरों के पास ओटीटी के मुकाबले जो सबसे बड़ी बढ़त हांसिल थी, वो थी नई फिल्मों की रिलीज। जहां नेटफ्लिक्स और अमेजन प्राइम जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म दुनियाभर से नया और पुराना कंटेंट दर्शकों के लिए लाते रहे हैं, वहीं बॉलीवुड की सभी बड़ी फिल्में सिनेमाघरों में पहले रिलीज होती रही है।
   फिल्मों का कारोबार एक नए युग में जा रहा है! पर, देश में परिवार और दोस्तों के साथ जाकर फिल्म देखना सालों की आदत है। ये मान लेना कि ओटीटी का बढ़ता चलन थिएटर के बिज़नेस को कम ही करेगा, ऐसी बात शायद जल्दबाजी हो सकती है। मल्टीप्लेक्स आने के कई सालों बाद भी मुंबई और चेन्नई जैसे शहरों में अभी भी कुछ आईकॉनिक सिंगल स्क्रीन थिएटर हैं, जो चाहे पॉपुलर न रहे हों, लेकिन अपनी एक जगह बनाए हैं। मुंबई का मराठा मंदिर वो सिनेमा है जिसने 90 के दशक की शाहरुख खान की फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' को लगातार 20 साल तक दिखाया। ये अपने आपमें एक एतिहासिक उदाहरण है, जो ये साबित करता है कि भारत में फिल्मों का कारोबार इतना बड़ा है कि उसमें सबके लिए जगह है। मल्टीप्लेक्स के सिंगल स्क्रीन की तरह आउटडेटेड होने में भी अभी कई साल का वक्त है। फिल्मों की ओटीटी पर रिलीज शायद जल्द ही कॉमन हो जाए और थिएटरों और ऑनलाइन के बीच बिज़नेस बंट जाए! पर, कहा जा सकता है कि सालाना हजारों फिल्में बनाने वाली भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में हर प्लेटफॉर्म के लिए कंटेंट बनाने की क्षमता है। ओटीटी प्लेटफार्मों की ग्रोथ से फिल्मों को बेहतर मौके मिल जाते हैं।
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सिनेमाघरों का कोई विकल्प खड़ा होगा?

   कोरोना संक्रमणकाल ने मनोरंजन की दुनिया को खतरे के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया। नई फ़िल्में सिनेमा हॉल में रिलीज किए बिना ओटीटी पर रिलीज की जा रही है। अगर यही फ़िल्में सिनेमाघर में रिलीज होती, तो उससे सिनेमाहॉल वाले और उससे जुड़े कई लोग कमाते! क्योंकि, एक फिल्म की रिलीज पर कई लोग आश्रित होते हैं। सबके हिस्से में कुछ न कुछ आता है! ओटीटी पर फिल्मों की रिलीज से सबका फ़ायदा शून्य हो गया। अगर बड़ी-बड़ी फिल्में इसी तरह 'अमेजॉन' या 'नेटफ्लिक्स' पर रिलीज होंगी, तो सबकी कमाई खत्म हो जाएगी और सिनेमा रिलीज के पूरे सिस्टम को धक्का लगेगा! ऐसा नहीं लगता कि अनजाने में ओटीटी सिनेमाघरों का नया विकल्प बन गया!
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- एकता शर्मा
 
   फिल्म को रिलीज करने का एक पूरा सिस्टम होता है। इसमें फिल्म के प्रोड्यूसर के अलावा फिल्म के डिस्ट्रीब्यूटर, बड़े शहरों से लेकर छोटे कस्बों के फिल्म एक्ज़िबिटर या सिनेमा हॉल मालिक, फिल्म पब्लिसिस्ट, फिल्म पीआर और इन सबसे जुड़े तमाम लोग शामिल होते हैं। इसके अलावा सिनेमाघरों का पूरा स्टॉफ और कई ऐसे लोग होते हैं, जो अप्रत्यक्ष रूप से फिल्म से अपना हिस्सा निकालते हैं। लेकिन, लॉक डाउन की वजह से इन सब लोगों की कमाई का जरिया खत्म हो गया। इस पूरे सिस्टम को कोरोना से बड़ा धक्का लगा है। नई फिल्मों को ओटीटी पर रिलीज करने से भी फिल्मों का रिलीज सिस्टम बुरी तरह प्रभावित हुआ। लॉक डाउन खत्म होने के बाद भी सिनेमाघरों को नई फिल्म लगाने की इजाजत नहीं मिली। कुछ दिनों तक तो सिनेमाघरों को पुरानी फिल्में ही चलानी पड़ रही है। क्योंकि, नई फिल्म रिलीज होने से भीड़ बढ़ेगी और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना मुश्किल हो जाएगा। हालांकि, समस्या यह है कि सिनेमाघर में पुरानी फिल्में देखने कौन आएगा?’ नई फिल्मों के प्रोड्यूसर की भी मजबूरी है, उसने फिल्म के लिए पैसा उधार ले रखा है और साथ में और भी खर्च हैं। ऐसे में अगर उनको ओटीटी से इस तरह फ़ायदा मिल रहा है, तो वे बेचकर निकल रहे हैं! उन्हें सिर्फ फायदे से मतलब है, लेकिन उससे पूरा सिस्टम प्रभावित हो रहा है। 
    ऑनलॉइन स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म आने से पहले फिल्म पहले थियेटर में रिलीज होती थी, तो निर्माताओं को उससे उसे लाभ मिलता था। फिर जब उसके टीवी या डिजिटल राइट्स बिकते थे, तो उसका अलग से पैसा बनता था। अब फिल्म को सीधे किसी ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर रिलीज करने से आशंका है, कि इससे वह कमाई भी नहीं हो पाएगी, जो वास्तव में होना थी। सिनेमा से जुड़े कुछ लोगों का मानना है कि किसी भी प्लेटफॉर्म पर आप फिल्में देख लें, लेकिन सिनेमाघरों का कोई विकल्प नहीं है। सिर्फ हिंदी ही नहीं दक्षिण भारतीय फ़िल्में ज्योतिका की पोंमगल वंथल, अदिति राव हैदरी की फिल्म सूफियम सुजातयम और कीर्ति सुरेश की फिल्म पेंगुइन भी सीधे अमेज़ॉन प्राइम पर रिलीज हुई या हो रही है। 
  सिनेमाघरों में फिल्मों की रिलीज से सबसे ज्यादा राजस्व पैदा होता है, बनिस्बत किसी अन्य माध्यम के! लेकिन, ये समस्या जल्दी खत्म नहीं होने वाली नहीं है। किसी प्रोड्यूसर की अपनी मजबूरी होगी कि उसे ऐसा करना पड़ा! हो सकता है कि उसे लगता हो कि वह रुक नहीं सकता, फिल्म पूरी होने के बाद भी यदि रिलीज नहीं हो रही तो उसे नुकसान हो रहा है! बड़े डायरेक्टर, एक्टर या कोई बड़ा प्रोड्यूसर इस बारे में लगता नहीं कि जल्दी नहीं सोचेंगे। क्योंकि, ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर उतना राजस्व पैदा नहीं हो सकता, जितना सिनेमाघरों में फिल्म को रिलीज करने से होता है। सिनेमाघरों को न तो दर्शक छोड़ने वाले हैं, न एक्टर और न डायरेक्टर-प्रोड्यूसर। किंतु, अभी ऐसे हालात नहीं  कोई इस बारे में सोच-विचार भी करे।  
   लॉक डाउन में सबसे पहले ओटीटी पर रिलीज होने वाली बड़ी फिल्म थी अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना कि 'गुलाबो सिताबो' जिसे औसत  सफलता मिली। उसे कितने लोगों ने देखा! रैपर बादशाह के नए गाने ‘गेंदा फूल’ को यूट्यूब पर 10 करोड़ से ज्यादा लोगों ने देखा! इतने दर्शकों ने 'गुलाबो सिताबो' नहीं देखी। ऐसे में जब फिल्म को डिजिटली रिलीज किया जाएगा, तो सफलता हमेशा संदिग्ध रहेगी। बड़ा पर्दा वह है, जहां जादू होता है, जहां स्टार जन्म लेते हैं। ओटीटी या वेब पर सितारों का जन्म नहीं होता। किसी नई फिल्म को देखने के लिए जब 500 लोग किसी सिनेमा घर के बाहर लाइन में लगे होते हैं, तब जाकर एक स्टार का जन्म होता है। टुकड़ों में फिल्म देखकर सोशल मीडिया पर उसकी समीक्षा करने से मकसद पूरा नहीं होता! 
   लोगों का मानना है कि आने वाला समय बहुत अनिश्चितता भरा है। ऐसी स्थितियाँ कब तक रहेंगी, कुछ कहा नहीं जा सकता! सवाल यह है कि इन स्थितियों में कोई प्रोड्यूसर कितने समय तक अपनी फिल्म को रोककर रखेगा? संक्रमण की यही अनिश्चितता रही, तो क्या दर्शक उतनी सहजता से सिनेमाघरों का रुख कर पाएंगे, जितनी सहजता से इस महामारी के आने से पहले किया करते थे? इस सवाल का जवाब फ़िलहाल मिलना मुश्किल है। लेकिन, ओटीटी के प्रति दर्शकों ने सिनेमा की दुनिया को खतरे में जरूर डाल दिया। सिनेमा के बाद टीवी और अब मोबाइल के स्क्रीन में फ़िल्में कैद हो गई!   
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'तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन' के गायक ने बंधन तोड़ लिया!

 स्मृति शेष :  एसपी बाला सुब्रह्मण्यम

- एकता शर्मा

   इस साल के बीतने से पहले बॉलीवुड से एक और बुरी खबर आई! मखमली आवाज के धनी एसपी बाला सुब्रह्मण्यम उर्फ़ एसपी को कोरोना महामारी ने हमसे छीन लिया। उन्होंने लम्बे समय तक इस बीमारी से संघर्ष किया। उनकी स्थिति में सुधार भी हो रहा था, पर अचानक सबकुछ ख़त्म हो गया। एक समय ऐसा भी आया जब बाला सुब्रह्मण्यम ने वीडियो जारी करके अपने चाहने वालों को जल्द ठीक होने की जानकारी दी! पर, शायद नियति को ये मंजूर नहीं था। 74 साल के एसपी बालासुब्रह्मण्यम ने हिंदी फिल्मों में अपनी गायिकी से अलग पहचान बनाई थी। आज वे नहीं हैं, पर उनके गाने आज भी हम सबके जहन में हैं। दक्षिण भारत के गायक एसपी बाला सुब्रह्मण्यम ने 16 भारतीय भाषाओं में 40 हजार से ज्यादा गाने गाए। उन्हें पद्मश्री (2001) और पद्मभूषण (2011) जैसे राष्ट्रीय सम्मानों सहित कई फ़िल्मी अवॉर्ड्स भी मिले। 
    तमिल, तेलुगु और कन्नड़ के गायक बाला सुब्रह्मण्यम दक्षिण भारत में पैदा हुए, पर उनका कहना था कि गाना गाने का सही भाव और प्रेरणा उन्हें हिंदी गानों से मिली! वे मोहम्मद रफी के बड़े प्रशंसक थे। एक कार्यक्रम में उन्होंने सोनू निगम को बताया था कि मैं साइकल से कॉलेज जाया करता था, तब रफ़ी साहब का गाना मेरे साथ होता था 'दीवाना हुआ मौसम।' बाला सुब्रह्मण्यम की हस्ती और हुनर हिंदी फिल्मों के दायरे से कहीं बड़ा है। इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने चार अलग-अलग भाषाओं में छ: नेशनल अवॉर्ड जीते थे। शुरुआती दिनों में बाला सुब्रह्मण्यम एक म्यूज़िकल ग्रुप में थे, जिसमें इलिया राजा भी हुआ करते थे। तब बाला सुब्रह्मण्यम और इलिया राजा को कोई जानता था। बाला सुब्रह्मण्यम न सिर्फ गायक थे, बल्कि एक हरफन मौला कलाकार और डबिंग आर्टिस्ट भी थे। 
    हिंदी में उन्होंने पहली बार कमल हसन के लिए 1981 में 'एक दूजे के लिए' गाया था। इस फिल्म के गानों ने उन्हें बेस्ट मेल सिंगर का नेशनल अवॉर्ड मिला था। गीत था 'तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन अंजाना।' सलमान खान के लिए उन्होंने 1989 में 'मैंने प्यार किया' से गाना शुरू किया और उनकी आवाज बन गए। इस फिल्म के सभी गाने बाला सुब्रह्मण्यम ने ही गाए थे, जो सुपरहिट हुए! उसके बाद उन्होंने सलमान के करियर के शुरुआती दिनों के सभी गाने गाए।  'मैंने प्यार किया' के बाद 'साजन' या फिर 'हम आपके हैं कौन' फ़िल्मों में भी सलमान को एसपी बाला सुब्रह्मण्यम ने ही आवाज दी। फिर इस अनोखे गायक ने हिंदी फिल्मों कई बड़े कलाकारों के लिए अपनी आवाज दी। 
     नई पीढ़ी के फिल्मों के शौकीन उनके नाम से भले वाकिफ न हों, पर उनके गाने ही उनकी पहचान हैं। चेन्नई एक्प्रेस का टाइटल गाना एसपी बाला सुब्रह्मण्यम ने ही गाया था। हिंदी सिनेमा को कई सुपर हिट गाने देने वाले इस गायक की लिस्ट में सच है मेरे यार ये', ओ मारिया, दिल दीवाना, कबूतर जा जा, आजा शाम होने आई, मेरे रंग में रंगने वाली, दीदी तेरा देवर दीवाना, पहला पहला प्यार है के अलावा 'रोजा' और 'जानेमन' जैसी कई फिल्मों के गाने हैं, जो उनकी याद दिलाएंगे। बाला सुब्रह्मण्यम ने दक्षिण में कमल हासन, रजनीकांत, एमजीआर से लगाकर हिंदी में सलमान और शाहरुख खान तक के लिए गाया। गुरुवार को उनकी हालत अचानक बिगड़ने पर सलमान खान ने उनके जल्द स्वस्थ होने की दुआ की थी। उन्होंने ट्वीट किया था, बाला सुब्रमण्यम सर, आप जल्द ठीक हों इसके लिए दिल की गहराइयों से पूरी ताकत और दुआएं देता हूं। आपने जो भी गाना मेरे लिए गाया उसे खास बनाने के लिए धन्यवाद! आपका दिल दीवाना हीरो प्रेम, लव यू सर। पर, दुःख की बात ये कि यह दुआ भी काम नहीं आई!
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चली गई सितारों को इशारों पर नचाने वाली 'मास्टर जी!'

- एकता शर्मा

   एक दौर वो था, जब दर्शक फिल्म के हीरो, हीरोइन, विलेन और कॉमेडियन का नाम देखकर फिल्म देखते थे। उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं था कि फिल्म का एक्शन डाइरेक्टर या कोरियोग्राफर कौन है। दरअसल, इसकी जरुरत भी महसूस नहीं की गई! लेकिन, फिर एक दौर ऐसा आया कि दर्शकों की रूचि फिल्म से जुड़े उन लोगों में भी बढ़ने लगी, जो परदे पीछे रहकर फिल्म का हिस्सा बने रहते थे। ऐसे महारथियों में कोरियोग्राफर सरोज खान भी एक थीं। उन्होंने कई हीरोइनों को परदे पर थिरकना सिखाया। माधुरी दीक्षित, श्रीदेवी, ऐश्वर्या रॉय के सभी बेहतरीन डांसों की डायरेक्टर सरोज खान ही रही!  
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   कोरियोग्राफर सरोज खान नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। ये नाम जहन में आते ही एक डांसर का चेहरा सामने आ जाता है। ऐसी डांसर का जिसने कई हीरोइनों को अपने इशारों पर नचाया। जिस माधुरी दीक्षित को आज धक्-धक् गर्ल के रूप में जाना जाता है, वो सरोज खान की ही डांसिग खोज है। 'एक-दो-तीन' डांसिंग स्टेप्स भी इसी कोरियोग्राफर की देन था। ये भी कहा जा सकता है कि माधुरी को नंबर वन तक पहुंचाने में सरोज खान की बड़ी भूमिका रही। माधुरी की प्रतिभा को सरोज ने ही पहचाना और उसे तराशकर हीरा बना दिया। श्रीदेवी का 'चांदनी' वाला गाना 'मेरे हाथों में नौ-नौ चूड़ियाँ हैं' भी इसी कोरियोग्राफर की रचना है। ऐश्वर्या रॉय 'ताल' और 'देवदास' में सरोज खान के इशारों पर ही थिरकी! लेकिन, अब सरोज खान नहीं रही। उन्होंने दुनिया से विदाई ले ली। वे 71 साल की थीं। उनके साथ ही फिल्म डांसिग का एक युग ही समाप्त हो गया, जिसने परदे पर हीरोइनों को नए ज़माने के डांस से परिचित करवाया। सरोज खान को 20 जून को सांस की परेशानी के चलते अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उनका कोविड टेस्ट भी हुआ, जो निगेटिव आया। उनकी तबियत संभल रही थी और अस्पताल से छुट्टी मिलने वाली थी, लेकिन अचानक उनकी तबियत बिगड़ी और उन्हें बचाया नहीं जा सका।
 
      उन्होंने माधुरी दीक्षित और श्रीदेवी जैसी नामचीन हीरोईनों को डांसिंग स्टेप्स सिखाई। लेकिन, बाद में किसी बात पर उनके श्रीदेवी से संबंध मधुर नहीं रहे। इस वजह से कई अच्छी फ़िल्में निकल गई थी। लेकिन, 'तेजाब' के माधुरी के डांस ने उन्हें लोकप्रियता दिलाई और वे दर्शकों की नजरों में चढ़ गईं! इसके बाद 'सैलाब' और 'अंजाम' ने उनको जो पहचान दी, जिसने कई बड़े कोरियोग्राफर्स को पीछे छोड़ दिया। अपने करीब 40 साल के डांसिंग करियर में सरोज खान ने कई सितारों को नचाया। उन्होंने 2 हज़ार से ज्यादा फिल्मों में गानों की कोरियोग्राफी की। उन्हें तीन बार कोरियोग्राफी को लेकर नेशनल अवॉर्ड भी मिले। 'देवदास' फिल्म के गाने 'डोला-रे-डोला' जो माधुरी और ऐश्वर्या पर फिल्माया गया था, जिस पर उन्हें कोरियोग्राफी का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। इससे पहले 'तेजाब' के आइटम सांग 'एक-दो-तीन' और 'जब वी मेट' के गाने 'ये इश्क ...' के लिए भी उन्हें नेशनल अवॉर्ड मिला। सरोज खान की अंतिम फिल्म करण जौहर की 'कलंक' थी, जिसमें सरोज खान ने माधुरी के लिए 'तबाह हो गए' गाना कोरियोग्राफ किया था।
  सरोज खान का वास्तविक नाम निर्मला नागपाल था। उनके पिता किशनचंद सद्दू सिंह और माँ नोनी सिंह देश के बंटवारे के बाद पाकिस्तान से भारत आ गए थे। सरोज को बचपन से ही एक्टिंग और डांस का शौक था। तीन साल की उम्र में सरोज ने बाल कलाकार के रूप में फिल्मों में काम शुरू किया। पहली फिल्म 'नजराना' थी, जिसमें सरोज ने श्यामा नाम की बच्ची की भूमिका की थी। इसके बाद सरोज खान ने डांस की दुनिया में कदम रखा और बैकग्राउंड डांस करना शुरू किया। उन्होंने बी.सोहनलाल से कोरियोग्राफर की शिक्षा ली। 1974 में उन्हें पहली बार 'गीता मेरा नाम' में अकेले काम मिला था। लेकिन, बहुत मेहनत के बाद भी उनके काम को लम्बे समय तक पहचाना नहीं गया। मिस्टर इंडिया, नगीना, चांदनी, तेजाब, थानेदार, बेटा, सैलाब और 'जब वी मेट' उनकी वे फ़िल्में रही जिसने उन्हें पहचान दी। बाद में उन्होंने अपने करियर में कई नए कोरियोग्राफर को जन्म दिया और एक पीढ़ी शुरू की।
   उनका वास्तविक नाम निर्मला नागपाल है, जिसके सरोज खान बनने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। उन्होंने अपने डांस गुरु बी. सोहनलाल से 13 साल की उम्र में शादी की। बताते हैं कि सरोज उन दिनों स्कूल में पढ़ती थी! तभी एक दिन सोहनलाल ने उनके गले में काला धागा बांध दिया और दोनों की शादी हो गई। दोनों की उम्र में 30 साल का अंतर था। सरोज खान से शादी के वक्त सोहनलाल ने अपनी पहली शादी की बात छुपाई थी। 1963 में सरोज खान के बेटे राजू खान के जन्म के समय उन्हें सोहनलाल की पहली शादी के बारे में जानकारी मिली। किंतु, सोहनलाल ने सरोज के बच्चों को अपना नाम देने से मना कर दिया। इसके बाद दोनों के बीच दूरियाँ बढ़ती गई! सरोज की एक बेटी कुकु भी हैं। सरोज ने दोनों बच्चों की परवरिश अकेले ही की। एक बार सरोज खान ने बताया था कि इस्लाम धर्म मैंने अपनी मर्जी अपनाया था। मुझ पर कोई दबाव नहीं था। इसलिए कि मुझे इस्लाम धर्म से प्रेरणा मिली।
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'जो आवाज फिल्म संगीत की पहचान बनी!'

 लता मंगेशकर : 91 वां जन्मदिन 






  संगीत का एक महत्वपूर्ण अंग है 'ताल।' इस शब्द को उलट दिया जाए तो जो शब्द बनता है, संगीत की शुरूआत उसी शब्द से होती है। संगीत के सारे सुर उस शब्द पर आकर थम जाते हैं, यह शब्द है 'लता।' भारत रत्न लता मंगेशकर को दुनिया में किसी परिचय की जरूरत ही नहीं है। आखिर चांद, सितारों, जमीन, आसमान, नदियों और सागरों की तरह शास्वत वस्तुएं किसी परिचय की मोहताज नहीं होती। संगीत की स्वरलहरियों और सात सुरों के संसार में लता ऐसी ही शास्वत शख्यियत है, जिनके कंठ से सरस्वती के सुर निकलते हैं।




- एकता शर्मा

   हिंदी सिनेमा के ट्रेजेडी किंग और विख्यातनाम कलाकार दिलीप कुमार ने लगभग चार दशक पहले 1974 में लंदन स्थित रायल एलबर्ट हाल में अपनी दिलकश आवाज में कहा था 'जिस तरह कि फूल की खुशबू या महक का कोई रंग नहीं होता, वह महज खुशबू होती है। जिस तरह बहते पानी के झरने या ठंडी हवा का कोई मुकाम, घर, गांव, देश या वतन नहीं होता। जिस उभरते सूरज या मासूम बच्चे की मुस्कान का कोई मजहब या भेदभाव नहीं होता, उसी तरह से कुदरत का एक करिश्मा है लता मंगेशकर।' तो दर्शकों से खचाखच भरे हाल में कई मिनटों तक तालियों की गडगडाहट गूंजती रही! वास्तव में दिलीप कुमार ने लता मंगेशकर का जो परिचय दिया वह न केवल उनकी सुरीली आवाज बल्कि उनके सौम्य व्यक्तित्व का सच्चा इजहार है।
   1974 से 1991 तक दुनिया में सबसे ज्यादा गीत गाकर 'गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड' में अपना नाम शुमार कराने वाली लता मंगेशकर ने सभी भारतीय भाषाओं में अपने सुर बिखेरें हैं। यदि  भारतीय फिल्मी गायक-गायिकाओं में कोई नाम सबसे ज्यादा सम्मान से लिया जाता है, तो वह है सिर्फ और सिर्फ लता मंगेशकर। 28 सितम्बर 1929 को मध्य प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी इंदौर मे जन्मी लता को गायन कला विरासत में मिली। उनके पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर शास्त्रीय गायक तथा थिएटर कलाकार थे। यदि दीनानाथ मंगेशकर के नाटक 'भावबंधन' की नायिका का नाम लतिका न होता और उनके माता-पिता अपनी सबसे बड़ी बेटी को यह नाम नहीं देते, तो आज शायद हम उन्हें उनके बचपन के नाम हेमा हर्डिकर के नाम से जानते! लता का बचपन का नाम हेमा और सरनेम हर्डिकर था, जिसे बाद में उनके परिवार ने गोवा मे अपने गृह नगर मंगेशी के नाम पर मंगेशकर रखा और आज इसी नाम लता मंगेशकर को सारी दुनिया जानती है और स्वरसामज्ञी सा सम्मान देती है।
     1942 में जब लताजी मात्र 13 साल की थी, उनके पिताजी की हृदय रोग से मृत्यु हो गई। तब अभिनेत्री नंदा के पिता और नवयुग चित्रपट कंपनी के मालिक मास्टर विनायक ने बतौर अभिनेत्री और गायिका लता मंगेशकर का करियर आरंभ करने में मदद की। वसंत जोगलेकर की मराठी फिल्म 'किती हसाळ' में 1942 में पहली बार सदाशिव राव नर्वेकर की संगीत रचना में गाए गीत 'नाचु या गडे, खेलू सारी मानी हाउस भारी' गाकर अपना करियर आरंभ करने वाली लता ने कभी पीछे मुड कर नहीं देखा! सत्तर सालों से वे हिन्दी फिल्म जगत की शीर्षस्थ और सर्वाधिक सम्मानित गायिका के रूप में विराजमान है। उस्ताद अमानत अली खान से हिन्दुस्तानी संगीत सीखकर उन्होंने 1946 में पहला हिन्दी गीत 'पा लागू कर जोरी' गाया। 1945 में 'बड़ी मां' में अभिनय के साथ लता ने 'माता तेरे चरणों में' भजन गाया।
   1947 में विभाजन के बाद जब उनके गुरू अमानत अली खान पाकिस्तान चले गए तो उन्होंने अमानत खान देवास वाले से शास्त्रीय संगीत सीखा। इस दौरान बड़े गुलाम अली खान के शिष्य पंडित तुलसीदास शर्मा ने भी उन्हें प्रशिक्षित किया और संगीतकार गुलाम हैदर ने उन्हें 1948 में 'मजबूर' फिल्म का गीत 'दिल मेरा तोडा' गवाया और अपने उर्दू के उच्चारण को सुधारने के लिए मास्टर शफी से बकायदा उर्दू का ज्ञान लिया। 1949 में जब कमाल अमरोही की फिल्म 'महल' में उन्होंने मधुबाला पर फिल्माया गीत 'आएगा आने वाला गाया' तो सारा देश उनकी आवाज से मंत्रमुग्ध हो गया। उसके बाद से हर फिल्म में लता का गाया गाना जरूरी माना जाने लगा।
   पचास के दशक में अनिल विश्वास के साथ अपना गायन आरंभ कर लताजी ने शंकर-जयकिशन, नौशाद, एसडी.बर्मन, पंडित हुस्नलाल भगतराम, सी. रामचन्द्र, हेमंत कुमार, सलिल चौधरी, खैयाम, रवि, सज्जाद हुसैन, रोशन, कल्याणजी-आनंदजी, वसंत देसाई, सुधीर फडके, उषा खन्ना, हंसराज और मदनमोहन के साथ स्वरलहरियां बिखेरी। साठ और सत्तर के दशक में लता ने चित्रगुप्त, आरडी बर्मन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, सोनिक ओमी जैसे नए संगीतकारों के साथ काम किया। उसके बाद उन्होंने राजेश रोशन, अनुमलिक, आनंद मिलिन्द, भूपेन हजारिका, ह्रदयनाथ मंगेशकर, शिवहरी, राम-लक्ष्मण, नदीम श्रवण, जतिन-ललित, उत्तम सिंह, एआर रहमान और आदेश श्रीवास्तव जैसे नए संगीतकारों को अपनी आवाज देकर फिल्मी दुनिया में स्थापित किया। जहां तक गायकों का सवाल है लता ने हर काल के हर छोटे बड़े गायकों की आवाज से आवाज मिलाकर श्रोताओं के कानों में रस घोला है।
लता पर हर शख्स फिदा
   लता मंगेशकर की आवाज में यदि शहद सी मिठास है तो चंदन सी महक भी है। यदि उनमें चांदनी सी चमक है तो भक्ति संगीत की पवित्रता और बाल सुलभ सादगी और सरलता भी है। उनकी आवाज की एक खासियत यह भी है कि यदि आंखें मूंदकर लताजी के गीतों को सुना जाए तो सहज अंदाज लगाया जा सकता है कि पर्दे पर यह गीत किस पर फिल्माया जा रहा है। अपने उम्र के इस पडाव में जब वह माधुरी, काजोल या किसी नर्ह तारिका के लिए गाती हैं, तो ऐसा लगता नहीं कि यह आवाज किसी परिपक्व गायिका की है। बल्कि, ऐसा लगता है जैसे कोई सोलह बरस की अल्हड युवती गा रही है। उनकी आवाज की इसी खासियत की वजह से पिछले सत्तर बरसों से वह लगभग सभी नायिकाओं को अपने सुरो से अलंकृत कर चुकी है और उनकी इसी अदा पर हर शख्स उन पर फिदा है।
   वैसे तो हर गायक या गायिका का किसी खास संगीतकार से तालमेल ज्यादा बेहतर होता है। वे उसके लिए बेहतरीन गायन करते हैं। लेकिन, लता ने सभी संगीतकारों के साथ उम्दा और बेहद उम्दा ही गाया। यह बात जरुर है कि संगीतकार मदनमोहन और सी. रामचन्द्र के साथ उनकी खास पटती थी। मदनमोहन की फिल्म 'अनपढ़' के गीत 'आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे' सुनकर संगीतकार नौशाद ने मदनमोहन को फोन करके कहा कि आपके इस गीत पर मेरा सारा संगीत कुर्बान है! ऐसी ही एक रोचक बात यह भी सुनी जाती थी कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकारअली भुट्टो ने कहा था कि एक लता हमें दे दो और पूरा पाकिस्तान ले लो! हालांकि, इस बात में कोई सच्चाई होगी, मानना मुश्किल है। क्योंकि, यह वही लता है जिसने 27 जून 1963 को  नई दिल्ली में 'ऐ मेरे वतन के लोगों' गाकर पंडित नेहरू को रूला दिया था।
हर शैली में हीरे सी चमक
   लता मंगेशकर ने हर शैली के गीतों में अपनी सुरीली आवाज से प्राण फूंके हैं। सलील चौधरी के संगीत से सजी 'मधुमती' में जब वे 'आ जा रे परदेसी' गाती हैं, तो लगता है जन्मों से कोई विरहन अपने प्रेमी के इंतजार में तड़फकर उसे पुकार रही है। शंकर-जयकिशन की धुन पर जब वे 'चोरी-चोरी' में 'पंछी बनूं उडती फिरूं मस्त गगन में' गाती हैं तो सुनने वालों को ऐसा लगता है जैसे लताजी की आवाज को पर मिल गए हों! इसी फिल्म के गीत 'ये रात भीगी भीगी' और 'आ जा सनम मधुर चांदनी में हमतुम मिले तो' सुनकर ऐसा लगता है जैसे उन्होंने अपनी आवाज में सारे जहां की रूमानियत उडेंल दी है! इसके साथ ही जब 'मुगले आजम' में उन्होंने 'प्यार किया तो डरना क्या' गाया तो शहंशाह के सामने अनारकली की बगावत के सुर सभी को सुनाई देने लगे। इसी फिल्म में जब 'मोहे पनघट पर नंदलाल छेड गयो रे' गाया तो श्रोताओं के मन भक्ति मे डूब गए। इसी तरह 1962 में संगीतकार जयदेव की संगीत रचना 'अल्लाह तेरो नाम' और 'प्रभु तेरो नाम' गाकर अपनी आवाज के समर्पण का जादू दिखाया।
आज भी बह रही है सुर गंगा
   वैसे तो वे आजकल गाती नहीं हैं, लेकिन कुछ साल पहले उन्होंने अपने जन्मदिन पर खुद का म्यूजिक एलबम निकालकर भजन प्रस्तुत किए। संजय लीला भंसाली की फिल्म 'रामलीला' में गाकर लताजी ने अपनी संगीत यात्रा के 71 साल पूरे कर लिए हैं। लेकिन, आज भी उनकी आवाज में कुदरत का वही आशीर्वाद और मां सरस्वती की वही अनुकम्पा विद्यमान है ।  
सम्मान और पुरस्कार  
   'भारत रत्न' सा सम्मानित लता मंगेशकर को 1969 में पद्मभूषण, 1999 में पद्म विभूषण, 1989 में दादा साहब फालके पुरस्कार, 1997 में महाराष्ट्र भूषण अवॉर्ड, 1999 में एनटीआर नेशनल अवार्ड, 2009 में एएनआर नेशनल अवार्ड, तीन बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, चार बार फिल्मफेयर पुरस्कार तथा 1993 में फिल्मफेयर लाइफटाइम एचीवमेंट पुरस्कार मिले। नई प्रतिभाओं को आगे लाने के लिए उन्होंने फिल्मफेयर पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया था। 1984 में मध्य प्रदेश सरकार ने उनके नाम से लता मंगेशकर अवार्ड आरंभ किया। 1992 में महाराष्ट्र सरकार ने भी उनके नाम से लता मंगेशकर अवार्ड आरंभ किया।
गायिका का साथ संगीतकार भी  
   बहुत कम लोग जानते हैं कि लता मंगेशकर एक अच्छी गायिका ही नहीं एक अच्छी संगीतकार और फिल्म निर्मात्री भी हैं। उन्होंने 1955 में पहली बार मराठी फिल्म 'राम राम पाव्हणे' में संगीत दिया। इसके बाद आनंद घन के छद्म नाम से मराठा टिटुका मेलवावा, मोहित्याची मंजुला, ताम्बादी माटी और साधी माणसे में संगीत दिया। इसके साथ ही 1953 मे मराठी फिल्म वाडाल, 1953 में सी. रामचन्द्र के साथ मिलकर हिन्दी फिल्म जहांगीर,1955 में कंचन और 1990 में 'लेकिन' फिल्म का निर्माण किया। फोटोग्राफी की शौकीन लता की गायकी की महक इतनी फैली कि 1999 में उनके नाम से एक परफ्यूम 'लता यू डि' प्रस्तुत किया गया था।
संगीत से संसद तक
  1999 में राज्यसभा के लिए मनोनीत लता मंगेशकर ने  बतौर सांसद न तो कभी वेतन लिया और न कोई भत्ता! यहां तक कि उन्होंने दिल्ली में सांसदों को मिलने वाला आवास तक नहीं लिया। संसद से दूर रहकर भी उन्होंने देश सेवा में हमेशा हाथ बंटाया! 2001 में 'भारत रत्न' जैसे सर्वोच्च सम्मान से नवाजी गई लताजी ने इसी साल अपने पिता के नाम से पुणे में 'मास्टर दीनानाथ मंगेशकर हास्पिटल बनवाया। 2005 में भारतीय डायमंड एक्सपोर्ट कंपनी 'एडोरा' के लिए स्वरांजलि नाम से ज्वेलरी कलेक्शन प्रस्तुत किया। इस कलेक्शन के पांच आभूषणों की नीलामी से मिले 105,000 पौंड उन्होंने 2005 को कश्मीर मे आए भूकम्प पीड़ितों के लिए दान कर दिया।
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