Monday 3 August 2020

परदे पर भाई-बहन का स्नेह और यादगार गीत

- एकता शर्मा



    फिल्मों में त्यौहार मनाने की अलग ही परंपरा है। ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के ज़माने से आज तक ये परंपरा निभाई जा रही है। परदे पर सबसे ज्यादा मनाया जाने वाला त्यौहार रहा है होली और सबसे कम दिवाली। इस बीच कई फिल्मों में करवा चौथ भी दर्शाया गया। लेकिन, फिल्मों में धीरे-धीरे राखी का त्यौहार फ़िल्मी कहानियों से गायब होता जा रहा है। जिस भी फिल्म में भाई-बहन का स्नेह दिखाया गया, उसमें राखी से जुड़ा कोई गाना भी रहा! करीब दो से अढ़ाई दशकों में बॉलीवुड ने पाश्चात्य सभ्यता की आगोश में भारतीय परंपराओं, तीज त्योहारों, पर्वों को मानो पर्दे से ओझल कर दिया है।
    परदे पर पर राखी का जिक्र सबसे पहले 1949 में प्रकाश पिक्चर्स की फिल्म 'राखी' से हुआ। शांति कुमार की इस फिल्म में कामिनी कौशल, करन दीवान, उल्हास, गोप आदि की भूमिकाएं थीं। इसके बाद 1959 में एलवी प्रसाद की फिल्म 'छोटी बहन' आई, जिसमें भाई-बहन के स्नेह के रिश्ते को परदे पर बड़ी शिद्दत से दिखाया गया था। फिल्म में बलराज साहनी ने भाई और नंदा ने बहन की भूमिका निभायी थी। लता मंगेशकर का गाया गीत 'भईया मेरे राखी के बंधन को निभाना' आज भी सुना जाता है।
    ए भीमसिंह ने 1962 में भी इस विषय को भुनाया और 'राखी' नाम से फिल्म बनाई। अशोक कुमार और वहीदा रहमान ने भाई-बहन की भूमिका निभाई थी।1976 में 'रक्षा बंधन' नाम से निर्माता केजी भट्ट ने शांतिलाल सोनी के निर्देशन में एक धार्मिक फिल्म बनाई जिसमें सचिन, सारिका तथा सत्यजीत ने मुख्य किरदार अदा किए थे। 1968 में भाई-बहन में सुनील दत्त और नूतन मुख्य भूमिकाओं में थे। इनके अलावा 'राखी-राखी' (1969), 'राखी और हथकड़ी' (1972), 'राखी और राइफल' (1976) तथा 'राखी की सौगंध' (1979) जैसी फ़िल्में बनी। फिल्मों के राखी गीतों ने भी कामयाबी के नए कीर्तिमान स्थापित किए। आज भी रक्षाबंधन पर्व आसपास गीत गुनगुनाए जाते हैं।
    1971 में आई देवआनंद की फिल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' में देव आनंद और जीनत अमान ने भाई-बहन के किरदार निभाए थे। फिल्म का गीत 'फूलों का तारों का सबका कहना है,. एक हजारों में मेरी बहना है!' आज भी सुना जाता है। फिल्म ;रेशम की डोरी' में सुमन कल्याणपुर का गाया 'बहना ने भाई की कलाई से प्यार बांधा है' आज भी खूब बजता है। मनोज कुमार अभिनीत फिल्म 'बेईमान' का 'ये राखी बंधन है ऐसा' और राजेश खन्ना अभिनीत 'सच्चा झूठा' का 'मेरी प्यारी बहनिया बनेगी दुल्हनियां' के सुनाई देते ही आँखों के आगे वो दृश्य उभर आता है। 'चंबल की कसम' का चंदा रे मेरे भइया से कहना, 'प्यारी बहना' का राखी के दिन, 'हम साथ साथ हैं' का 'छोटे छोटे भाईयों की बड़ी बहना, 'तिरंगा' का इसे समझो न रेशम का तार, 'रिश्ता कागज का' फिल्म का 'ये राखी की लाज तेरा भइया निभाएगा' गीत भी काफी लोकप्रिय हुए।
   'अनपढ़' और 'काजल' में भाई-बहन के प्रेम पर दो खूबसूरत गीत थे। इनमें..'अनपढ़' का माला सिन्हा पर फिल्माया गीत 'रंग बिरंगी राखी लेकर आई बहना' और 'काजल' में मीना कुमारी पर फिल्माया गीत 'मेरे भइया मेरे चंदा मेरे अनमोल रतन' फिल्माया गया था। विमल राय की फिल्म 'बंदिनी' में भी एक बेहद मार्मिक गीत था। जिसमें बहन अपने पिता से भाई को सावन में भेजने का अनुरोध करती है। 'अब के बरस भेज भइया को बाबुल सावन में दीजो बुलाय रे' बहन की व्यथा को बताने वाले इस गीत को भी आशा भौंसले ने गाया था। मेरी बहना ओ मेरी बहना (ढोंगी), चंदा रे मेरे भैया से कहना,बहना याद करे (चंबल की कसम), ये रक्षाबंधन सबसे बड़ा त्योहार है (हम बच्चे हिंदुस्तान के), ये राखी-राखी प्यार मोहब्बत की लाई हूं मेरे भैया (अनोखा इंसान)। लेकिन, अब ये गीत ही बचे हैं, जो फिल्मों में राखी के त्यौहार की याद दिलाते हैं।
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'मेरा जलवा जिसने देखा वो मेरा हो गया'

स्मृति शेष : कुमकुम

-एकता शर्मा
  जो दर्शक पुरानी फिल्मों के शौकीन हैं, उनके लिए अभिनेत्री कुमकुम जाना पहचाना नाम है! लेकिन, नई पीढ़ी के दर्शक उनसे अनजान थे। गुजरे ज़माने की इस जानी मानी अभिनेत्री कुमकुम ने 86 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया। वे लम्बे समय से बीमार थीं। अपने दो दशक लम्बे फिल्म करियर में उन्होंने 115 फिल्मों में काम किया। उन्हें ब्लैक एंड व्हाइट दौर की डांसिंग स्टार कहा जाता था। उन पर पिक्चराइज़ गीत ओ मोरा नादान बालमा न जाने दिल की बात, कभी आर कभी पार लागा तीरे नजर और 'मेरा जलवा जिसने देखा वो मेरा हो गया' जब भी सुनाई देते हैं, आँखों के आगे कुमकुम का चेहरा आ जाता है। आज लिंकिंग रोड को मुंबई का सबसे पॉश इलाक़ा कहा जाता है, कभी यहाँ कुमकुम का उनके ही नाम पर बंगला था। पर, वक़्त बदला और इस बंगले की जगह ऊँची बिल्डिंग ने ले ली। 
    कुमकुम अपने ज़माने की जानी-मानी अभिनेत्री थीं। उन्होंने उस दौर के करीब सभी बड़े कलाकारों के साथ काम किया। गुरुदत्त, राजकपूर, देवानंद, दिलीप कुमार और किशोर कुमार के साथ वे कई फिल्मों में दिखाई दीं। 'कुमकुम' मूलतः बिहार की रहने वाली थीं और उनका वास्तविक नाम जेब्बुनिसा था। कहा जाता है कि उनके पिता हुसैनाबाद के नवाब थे।फिल्मों में आने के बाद उन्होंने नाम बदलकर 'कुमकुम' रखा था। एक समय ऐसा था, जब इस एक्ट्रेस की अदाकारी का जादू चलता था। यही कारण था कि इस फिल्म इंडस्ट्री में अपनी अलग पहचान बनी। उन्हें पहला ब्रेक तो गुरुदत्त ने दिया था, पर वे बरसों तक रामानंद सागर की फिल्मों की स्थाई कलाकार बनी रहीं। इंडस्ट्री में कहा जाता था कि दोनों के बीच काफी नजदीकी रिश्ता था।
    कुमकुम को गुरुदत्त ने 'आर-पार' में पहली बार ब्रेक दिया था। वे फिल्म के गीत 'कभी आर कभी पार लागा तीरे नजर' को पहले जगदीप पर फिल्माया चाहते थे। पर, जब जगदीप ने इंकार किया तो गुरुदत्त ने एक महिला अभिनेत्री को खोजा और यहीं से 'कुमकुम' का परदे पर आगमन हुआ। कुमकुम ने बाद में गुरुदत्त की फिल्म 'प्यासा' में भी काम किया। कुमकुम को 50 और 60 के दशक की प्रसिद्ध अभिनेत्रियों में थी। उन्होंने मिस्टर एक्स इन बॉम्बे, मदर इंडिया, सन ऑफ इंडिया, कोहिनूर, उजाला, नया दौर, श्रीमान फंटूश, प्यासा, आर-पार और एक सपेरा एक लुटेरा जैसी सफल फिल्मों में काम किया। 1963 में पहली भोजपुरी फिल्म 'गंगा मैया तोहे पियारी चढ़ाईबो में भी कुमकुम ने काम किया था।
   वे नावेद जाफरी और जावेद जाफरी के पिता जगदीप की भी करीबी दोस्त रही थी। कुमकुम के न रहने की पहली सूचना भी जगदीप के बेटे नावेद ने ट्वीट करके दी। उन्होंने लिखा ‘हमने एक और हीरा खो दिया। मैं उन्हें तब से जानता था जब मैं एक बच्चा था। वो एक परिवार थी। बेहद शानदार अदाकारा और बेहतरीन इंसान। कुमकुम आंटी आपकी आत्मा को शांति मिले।’ जॉनी वॉकर के बेटे नासिर ने भी उन्हें याद करते हुए ट्वीट करते हुए याद किया कि 'ये है बॉम्बे मेरी जान' गाने में वे मेरे पिता के साथ दिखाई दी थीं।
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शोले के 'सूरमा भोपाली' को कोई कैसे भूलेगा!

- एकता शर्मा

    इस साल फिल्म इंडस्ट्री से अच्छी ख़बरें नहीं मिल रही! एक तरफ कोरोना के कारण पूरी इंडस्ट्री बंद है, दूसरी तरफ दुखद ख़बरों का सिलसिला जारी है। बीते तीन महीने में पांच बड़ी फ़िल्मी हस्तियों ने दर्शकों को अलविदा कह दिया। अप्रैल महीने में इरफान खान और ऋषि कपूर, इसके बाद जून के महीने में सुशांतसिंह राजपूत ने आत्महत्या कर ली। इसी महीने पहले सरोज खान का निधन हो गया था और अब जाने-माने कॉमेडियन जगदीप हमसे विदा हो गए! जगदीप हिंदी फिल्मों के लोकप्रिय कॉमेडियन थे। बुधवार को मुंबई में उनका निधन हो गया। वे 81 साल के थे और लम्बे समय से बीमार चल रहे थे। जगदीप उनका फ़िल्मी नाम था। उनका वास्तविक नाम तो सैयद इश्तियाक जाफरी था और उनका जन्म मध्यप्रदेश के दतिया में हुआ था। फिल्म 'हम पंछी एक डाल के' में उनके काम को लोगों ने काफी सराहा था और देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी जगदीप के अभिनय की तारीफ की थी।  
   अपने फ़िल्मी करियर में जगदीप ने कितनी फिल्मों में काम किया, इसका आंकड़ा खुद जगदीप को भी शायद नहीं पता था। उन्होंने परदे पर कई तरह के किरदार निभाए। लेकिन, उन्हें असल पहचान कॉमेडी से ही मिली। उनका सबसे ज्यादा चर्चित किरदार फिल्म 'शोले' का सूरमा भोपाली वाला रहा! फ़िल्म में उनका काम तो 10 से 12 मिनट का ही था, लेकिन अपनी अदाकारी से उन्होंने इसे जीवंत किया था। फ़िल्मी दुनिया में ऐसे गिने चुने कलाकार ही हैं, जो अपने किरदार के रूप में जनता में पहचान बनाने में कामयाब हुए हैं। वो भी ऐसे कि असल जिंदगी में भी दर्शक उन्हें उसी किरदार के रूप में जानने लगते है। ऐसे ही उंगलियों पर गिने जाने वाले कलाकारों में सूरमा भोपाली यानी जगदीप भी थे। याद किया जाए 'तो 'शोले' के जिन दो कलाकारों को दर्शक आज भी उनके किरदारों के रूप में पहचानते हैं, उसमें एक थे गब्बर सिंह और दूसरे सूरमा भोपाली! जगदीप 2012 में फिल्म 'गली गली चोर है' में आखिरी बार दिखाई दिए थे। 
   जगदीप का जन्म 29 मार्च, 1939 को हुआ था। अपने 6 दशक के फिल्म करियर की शुरुआत उन्होंने 1951 में बीआर चोपड़ा की फिल्म 'अफसाना' में बाल कलाकार से की थी। 1953 में आई 'फुटपाथ' में पहली बार उन्हें 'जगदीप' नाम मिला। लेकिन, बतौर कॉमेडियन उन्होंने 'दो बीघा ज़मीन' में पहली बार काम किया। 1972 में आई फिल्म 'अपना देश' से उन्हें दर्शकों ने ठीक से पहचाना। फिर 'शोले' और 'अंदाज़ अपना-अपना' जगदीप की यादगार फ़िल्में रही। अब दिल्ली दूर नहीं, मुन्ना, आर-पार और 'हम पंछी एक डाल के' में भी वे नज़र आए। जगदीप ने क़रीब 400 फिल्मों में काम किया!
   उन्होंने रामसे ब्रदर्स की फिल्म 'पुराना मंदिर' में मच्छर के किरदार में दर्शकों का जबरदस्त मनोरंजन किया था! 'अंदाज अपना अपना' में सलमान खान के पिता बांकेलाल का किरदार आज भी दर्शक भूले नहीं हैं। फिरोज खान की फिल्म 'कुर्बानी' और अमिताभ बच्चन की 'शहंशाह' जैसी फिल्मों में भी वे  अदाकारी दिखा चुके हैं। उन्होंने एक फिल्म का निर्देशन भी किया, जिसका नाम ही 'सूरमा भोपाली' था। इस फिल्म का लीड किरदार भी उन्होंने खुद ही निभाया था। बेहतरीन डांसर और एक्टर जावेद जाफरी और टीवी प्रोड्यूसर नावेद जाफरी दोनों जगदीप के बेटे हैं।
बॉलीवुड दुखी   जगदीप ने निधन पर अजय देवगन ने ट्वीट कर उन्हें श्रद्धांजलि दी। उन्होंने लिखा 'जगदीप साहब के निधन के बारे में जानकर बहुत दुख हुआ। उन्हें स्क्रीन पर देखते हुए मैंने हमेशा एन्जॉय किया। वह ऑडियंस के लिए हमेशा खुशी लेकर आते थे। मेरी संवेदना जावेद और उनके परिवार के साथ है। जगदीप साहब की आत्मा के लिए प्रार्थना करें।' इसके अलावा डायरेक्टर हंसल मेहता ने भी जगदीप को श्रद्धांजलि दी है। उन्होंने लोगों से अपील है कि वे जगदीप की फिल्म मुस्कुराहट देखें। इसमें उनके परफॉर्मेंस का कोई सानी नहीं है। फिल्म डायरेक्टर मधुर भंडारकर ने ट्वीट किया कि 'हमारा सात दशकों तक मनोरंजन करने के बाद जगदीप साहब का निधन हो गया! काफी दुखद है! मेरी संवेदनाएं जावेद, नावेद और पूरे जाफरी परिवार के साथ है। अभिनेता अनुपम खेर ने भी उन्हें याद करते हुए श्रद्धंजलि अर्पित की। 
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सितारों को नचाने वाली सरोज की आखिरी स्टेप!

स्मृति शेष : सरोज खान

- एकता शर्मा
     रोज खान नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। ये नाम जहन में आते ही एक डांसर का चेहरा सामने आ जाता है। ऐसी डांसर का जिसने कई हीरोइनों को अपने इशारों पर नचाया। जिस माधुरी दीक्षित को आज धक् ... धक् गर्ल के रूप में जाना जाता है, वो सरोज खान की ही डांसिग खोज है। 'एक-दो-तीन' डांसिंग स्टेप्स भी इसी कोरियोग्राफर की देन था। ये भी कहा जा सकता है कि माधुरी को नंबर वन तक पहुंचाने में सरोज खान की बड़ी भूमिका रही। माधुरी की प्रतिभा को सरोज ने ही पहचाना और उसे तराशकर हीरा बना दिया। श्रीदेवी का 'चांदनी' वाला गाना 'मेरे हाथों में नौ-नौ चूड़ियाँ हैं' भी इसी कोरियोग्राफर की रचना है। वो सरोज खान अब नहीं रही, बीते रात डेढ़ बजे दिल के दौरे ने उन्हें दुनिया से विदा कर दिया। वे 71 साल की थीं। उनके साथ ही फिल्म डांसिग का एक युग ही समाप्त हो गया, जिसने परदे पर हीरोइनों को नए ज़माने के डांस से परिचित करवाया। सरोज खान को 20 जून को सांस की परेशानी के चलते अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उनका कोविड टेस्ट भी हुआ, जो निगेटिव आया। धीरे-धीरे उनकी तबियत संभल रही थी और अस्पताल से छुट्टी मिलने वाली थी, लेकिन अचानक रात में उनकी तबियत बिगड़ी और उन्हें बचाया नहीं जा सका। 

   उन्होंने माधुरी दीक्षित और श्रीदेवी जैसी नामचीन हीरोईनों को डांसिंग स्टेप्स सिखाई। लेकिन, बाद में किसी बात पर उनके श्रीदेवी से संबंध मधुर नहीं रहे। इस वजह से कई अच्छी फ़िल्में निकल गई थी। लेकिन, 'तेजाब' के माधुरी के डांस ने उन्हें लोकप्रियता दिलाई और वे दर्शकों की नजरों में चढ़ गईं! इसके बाद 'सैलाब' और 'अंजाम' ने उनको जो पहचान दी, जिसने कई बड़े कोरियोग्राफर्स को पीछे छोड़ दिया। अपने करीब 40 साल के डांसिंग करियर में सरोज खान ने कई सितारों को नचाया। उन्होंने 2 हज़ार से ज्यादा फिल्मों में गानों की कोरियोग्राफी की। उन्हें तीन बार कोरियोग्राफी को लेकर नेशनल अवॉर्ड भी मिले। 'देवदास' फिल्म के गाने 'डोला-रे-डोला' जो माधुरी और ऐश्वर्या पर फिल्माया गया था, जिस पर उन्हें कोरियोग्राफी का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। इससे पहले 'तेजाब' के आइटम सांग 'एक-दो-तीन' और 'जब वी मेट' के गाने 'ये इश्क ...' के लिए भी उन्हें नेशनल अवॉर्ड मिला। सरोज खान की अंतिम फिल्म करण जौहर की 'कलंक' थी, जिसमें सरोज खान ने माधुरी के लिए 'तबाह हो गए' गाना कोरियोग्राफ किया था। 
   सरोज खान का वास्तविक नाम निर्मला नागपाल था। उनके पिता किशनचंद सद्दू सिंह और माँ नोनी सिंह देश के बंटवारे के बाद पाकिस्तान से भारत आ गए थे। सरोज को बचपन से ही एक्टिंग और डांस का शौक था। तीन साल की उम्र में सरोज ने बाल कलाकार के रूप में फिल्मों में काम शुरू किया। पहली फिल्म 'नजराना' थी, जिसमें सरोज ने श्यामा नाम की बच्ची की भूमिका की थी। इसके बाद सरोज खान ने डांस की दुनिया में कदम रखा और बैकग्राउंड डांस करना शुरू किया। उन्होंने बी.सोहनलाल से कोरियोग्राफर की शिक्षा ली। 1974 में उन्हें पहली बार 'गीता मेरा नाम' में अकेले काम मिला था। लेकिन, बहुत मेहनत के बाद भी उनके काम को लम्बे समय तक पहचाना नहीं गया। मिस्टर इंडिया, नगीना, चांदनी, तेजाब, थानेदार, बेटा, सैलाब और 'जब वी मेट' उनकी वे फ़िल्में रही जिसने उन्हें पहचान दी। बाद में उन्होंने अपने करियर में कई नए कोरियोग्राफर को जन्म दिया और एक पीढ़ी शुरू की।
   उनका वास्तविक नाम निर्मला नागपाल है, जिसके सरोज खान बनने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। उन्होंने अपने डांस गुरु बी. सोहनलाल से 13 साल की उम्र में शादी की। बताते हैं कि सरोज उन दिनों स्कूल में पढ़ती थी! तभी एक दिन सोहनलाल ने उनके गले में काला धागा बांध दिया और दोनों की शादी हो गई। दोनों की उम्र में 30 साल का अंतर था। सरोज खान से शादी के वक्त सोहनलाल ने अपनी पहली शादी की बात छुपाई थी। 1963 में सरोज खान के बेटे राजू खान के जन्म के समय उन्हें सोहनलाल की पहली शादी के बारे में जानकारी मिली। किंतु, सोहनलाल ने सरोज के बच्चों को अपना नाम देने से मना कर दिया। इसके बाद दोनों के बीच दूरियाँ बढ़ती गई! सरोज की एक बेटी कुकु भी हैं। सरोज ने दोनों बच्चों की परवरिश अकेले ही की। एक बार सरोज खान ने बताया था कि इस्लाम धर्म मैंने अपनी मर्जी अपनाया था। मुझ पर कोई दबाव नहीं था। इसलिए कि मुझे इस्लाम धर्म से प्रेरणा मिली। 
सितारे दुखी  
   फिल्म इंडस्ट्री के कोरियोग्राफर और कलाकार सरोज खान को याद करके दुखी हैं। मनीषा कोइराला उनके निधन से सदमे में हैं। उन्होंने ट्वीट किया 'सुबह उठते ही ये दुखद समाचार मिला। मैं बचपन से ही क्लासिकल डांस सीखी हूं। सरोज खान ने ही मुझे डांस सिखाया था जब मैंने फिल्मी करियर शुरू किया था। वो एक सख्त कोरियोग्राफर थीं और महान भीं! एक्टर अक्षय कुमार भी सरोज खान के निधन से दुखी हैं। उन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी संवेदना व्यक्त की है। वो लिखते हैं, मुझे दुखद समाचार मिला कि लेजेंड्री कोरियोग्राफर सरोज खान हमारे बीच नहीं रही! उन्होंने डांस को इतना आसान बना दिया था कि मानो हर कोई डांस कर सकता है। इंडस्ट्री के लिए ये बड़ा नुकसान है। उनकी आत्मा को शांति मिले। 
   अनुपम खेर ने भी सरोज खान की याद में इमोशनल नोट लिखा। उन्होंने उनकी जमकर तारीफ की और लिखा 'डांस की मल्लिका सरोज खानजी अलविदा! आपने कलाकारों को ही नहीं बल्कि पूरे हिन्दुस्तान को बहुत ख़ूबसूरती से सिखाया कि इंसान शरीर से नहीं, दिल और आत्मा से नाचता है! आपके जाने से नृत्य की एक लय डगमगा जाएगी! मैं पर्सनली न सिर्फ़ आपको बल्कि आपकी मीठी डांट को भी बहुत मिस करूँगा। निमृत कौर ने भी सरोज खान को याद किया। वो अपनी जिंदगी में उनका बड़ा योगदान मानती हैं। उन्होंने ट्वीट किया 'सरोजजी ने मुझे कोरियोग्राफर शब्द से रूबरू करवाया था। उन्होंने बेहतरीन काम से हर उस सितारे को भी अमर कर दिया और हर उस गाने को भी जिसमें उन्होंने काम किया। उनके परिवार को भगवान शक्ति दे। उनके जैसा अब कोई नहीं होगा।
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Sunday 21 June 2020

समाज की सच्चाई की पोल खोलने में 'पाताल लोक' बेजोड़!

- एकता शर्मा
 ब फिल्मों की तरह वेब सीरीज के कथानकों पर भी उंगली उठने लगी है। जबकि, विवाद खड़ा करने वाले जानते हैं कि वेब सीरीज पर आपत्ति उठाने से कुछ होगा नहीं! क्योंकि, इन पर कोई सेंसर लागू नहीं होता! यही कारण है कि वेब सीरीज में खुलकर गालियां बकी जाती है और ऐसे सीन भी होते  हैं,जो सामान्यतः फिल्मों में नहीं दिख सकते! पहले नेटफ्लिक्स की 'सेक्रेट गेम्स' जैसी लोकप्रिय सीरीज में खामियाँ खोजी गईं, अब यही अमेजन-प्राइम की 'पाताल लोक' के साथ हुआ। लेकिन, 'पाताल लोक' की कहानी दिलचस्प है, जो पुलिस, राजनीति और पत्रकारिता जैसे पेशों की सच्चाई की पोल खोलती है!     
     वेब सीरीज 'पाताल लोक' जितनी लोकप्रिय हुई, उसके साथ उतने ही विवाद भी जुड़े। इस वेब सीरीज ने कई सीरीज को पीछे छोड़ दिया है। लेकिन, विवादों के मामले में भी ये सबसे आगे रही। इस सीरीज पर मानहानि, जातिगत और धार्मिक भावनाओं को भड़काने के भी आरोप लगे! सबके टारगेट पर रही फिल्म अभिनेत्री और निर्माता अनुष्का शर्मा। 'पाताल लोक' उनकी ही निर्माण कंपनी 'क्लीन स्लेट' ने बनाया है। लेकिन, प्रतिबंध लगाने जैसी मांगें नई नहीं है। कई फ़िल्में ऐसे विवादों का शिकार हो चुकी हैं। लेकिन, ये विवाद खड़ा होने से पहले 'पाताल लोक' अपना काम कर चुकी है। इसे हाल के वर्षों की श्रेष्ठ वेब सीरीज माना जाने लगा है। समीक्षकों ने इसे नेटफ्लिक्स की बहुचर्चित 'सेक्रड गेम्स' सीरीज से भी बेहतर माना। इसकी तुलना विश्वविख्यात 'मनी हाइस्ट' वेब सीरीज से की जाने लगी है। अनुराग कश्यप ने 'पाताल लोक' को के बारे में कहा कि ये देश में निर्मित अब तक की श्रेष्ठ क्राइम थ्रिलर है। भारत की सही शिनाख़्त कर पाने की वजह से ही ऐसा हुआ है।
   जातिगत या धार्मिक आधार पर विरोध करने वालों या इसे हिंदू बनाम मुस्लिम का मुद्दा बनाने की कोशिश करने वालों की आवाज कितनी देर टिकी रह पाती है, ये अभी देखना है! क्योंकि, समकालीन समय के अनुभव बताते हैं कि बात 'सेक्रड गेम्स' की हो या 'पाताल लोक' की, सोशल मीडिया दौर में विवाद इतना आसानी से पीछा नहीं छोड़ते! अनुष्का शर्मा का बतौर निर्माता पहली बार ऐसी स्थितियों से सामना हुआ है। उनके लिए ये एक बड़ा इम्तिहान है। जहां वे स्वर्ग, धरती और पाताल तीनों लोकों में निर्भीक और आत्मविश्वास से भरी नजर आती हैं।
    'पाताल लोक' हाल के दिनों में जबर्दस्त हिट होने वाली वेब सीरीज़ है। इस सीरीज को मिल रहे व्यूज से अंदाजा लग रहा है कि इसे बड़े पैमाने पर देखा जा रहा है। माउथ पब्लिसिटी ने इसे खासी लोकप्रियता दी। इसे युवा दर्शकों ने बहुत ज्यादा पसंद किया। लेकिन, कुछ नेताओं, सामाजिक संगठनों और धार्मिक संगठनों ने इस वेब सीरीज को बंद करने या उसमे बदलाव करने की मांग और शिकायतें की। किसी फिल्म को लेकर यदि ऐसी मांग या शिकायत होती, तो कुछ होने के आसार। लेकिन, ओटीटी प्लेटफॉर्म पर ऐसी बातों को तवज्जो नहीं दी जाती। हिंदी दर्शकों के बेल्ट में ये वेब सीरीज इसलिए भी पसंद की जा रही है, कि इसमें भाषा, जाति और धर्म को लेकर जमकर धज्जियाँ उधेड़ी गई। नौकरशाही, पुलिस, मीडिया, राजनीति और इन सबसे बंधे एक बड़े पॉलिटिकल और सोशल सिस्टम को भी उघाड़ा गया है। अंधेरों-उजालों, नाइंसाफियों और यातनाओं और आत्मसंघर्षों की छानबीन करती ये सीरीज अपने कलाकारों के अभिनय और अनुष्का शर्मा की हिम्मत के लिए भी याद की जा रही है। ये वेब सीरीज पुलिस सिस्टम अंदर की विसंगतियों और विद्रूपताओं को उजागर करते हुए सामाजिक संकटों की शिनाख्त करती है। इसमें दलित चेतना के उभार से जुड़ी चुनौतियों की तलाश भी की गई है।
     वेब सीरीज पर आरोप लगाया गया कि हिंदुओं, सिखों और गोरखाओं की भावनाओ का अपमान किया गया और इस तरह सांप्रदायिक, जातीय और नस्ली सद्भाव को बिगाड़ने की कोशिश की गई! उत्तरप्रदेश के एक विधायक का आरोप है कि जिस फोटो को कथित रूप से दर्शाकर सीरीज में इस्तेमाल किया गया, वो उनके जैसा दिखता है। इससे उनकी मानहानि हुई है और जिस गुर्जर जाति से वे आते हैं, उसका भी अपमान हुआ! हिंदू धर्म के कथित अपमान पर भी उन्होंने अनुष्का शर्मा के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई है। दिल्ली के एक सिख संगठन के पदाधिकारी ने सिख पात्र को खराब ढंग से चित्रित करने का आरोप लगाया है। गोरखा समुदाय के एक वकील ने भी अनुष्का शर्मा के खिलाफ रिपोर्ट करते हुए सीरीज पर आरोप लगाया कि नेपाली शब्द के साथ गाली का इस्तेमाल कर समुदाय का अपमान हुआ है। सिक्किम के सांसद इंद्राहुंग सुब्बा ने भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय से शिकायत की है।
    इसकी कहानी कई ऐसे सवाल छोड़ती है, जो दर्शक को सोचने पर विवश करते हैं। समाज में सौतेले व्यवहार का मुकाबला नागरिक धैर्य से करते रहने की कठिन परीक्षा से गुजरता किरदार हर दर्शक के सामने कुछ सवाल छोड़ जाता है। नौ कड़ियों में किरदारों का समावेश इस तरह है, कि वो वो 'पाताल लोक' की दुर्दशा के कथानक को अपनी अपनी निराशाओं, पराजयों और लालसाओं की ठोस जमीन मुहैया करा देते हैं। हालांकि सीरीज अपने पहले सीजन के अंत तक पहुंचते-पहुंचते कुछ जानी पहचानी कमजोरियों का शिकार भी होती है। अपने उन चार पात्रों को सहसा भुला देती है, जिनसे ये कहानी शुरू होती है। 
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शांत हो गया बड़े परदे का अभिनेता 'सुशांत'


- एकता शर्मा

  सुशांतसिंह राजपूत ने आत्महत्या कर ली, ये खबर विश्वसनीय तो नहीं है, पर सच यही है। बॉलीवुड पर कोरोना काल की आई त्रासदियों की ये एक और कड़ी है। बताते हैं कि वे पिछले 6 महीने से अवसाद में थे। उनकी पूर्व मैनेजर दिशा सलील ने भी चार दिन पहले बिल्डिंग से कूदकर आत्महत्या कर ली थी।क्या सुशांत और दिशा की आत्महत्या में कोई संबंध है, ये कयास भी लगाए जा रहे हैं। जाने-माने विलेन शक्ति कपूर की इस बात में दम है कि बॉलीवुड को नजर लग गई! एक-एक करके चर्चित लोग जा रहे हैं। 
  सुशांत के अंतिम इंस्टा मैसेज में भी बहुत कुछ ऐसा है, जो सोचने को मजबूर करता है। 'आंसू की बूंदों से धुंधला अतीत हवा में घुलता जा रहा है। अंतहीन सपने मुस्कान ला रहे हैं। ... और क्षणभंगुर जीवन दोनों के बीच से गुजर रहा है # मां!
  स्टार पुत्रों की भीड़ के बीच सुशांत अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाब हुए थे। वे उन चंद भारतीय टीवी और फ़िल्म अभिनेताओं में हैं जिन्होंने टेलीविजन से अपना करियर शुरू करके फिल्मों में भी मुकाम बनाया। सबसे पहले उन्होनें 'किस देश में है मेरा दिल' धारावाहिक में काम किया था। पर, उनको पहचान मिली एकता कपूर के धारावाहिक 'पवित्र रिश्ता' से। इसके बाद उन्हें फिल्मों के प्रस्ताव मिलना शुरु हुए। फ़िल्म 'काय पो छे' में उनके अभिनय की तारीफ़ हुई। इसके बाद वे 'शुद्ध देसी रोमांस' में वाणी कपूर और परिणीति चोपड़ा के साथ दिखे। फ़िल्म सफल रही और सुशांत का फ़िल्मी करियर परवान चढ़ गया। 
   अपनी पहली ही फिल्म से बॉलीवुड में अपनी जगह बनाने वाले सुशांतसिंह राजपूत  का भी जीवन आसान नहीं रहा है। मां बाप की इच्छा के बिना उन्होंने फिल्मों को अपना करियर चुना और इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाई। फिल्म ‘काय पे चे’ में निभाए गए अपने किरदार की प्रेरणा उन्हें अपनी बहन मीतू सिंह से मिली थी। एक समय ऐसा भी था, जब कोई बड़ी अभिनेत्री उनके साथ काम तक नहीं करना चाहती थीं! क्योंकि, वे एक साधारण परिवार से थे और उनका कोई फिल्मी बैकग्राउंड नहीं था। फिल्म ‘शुद्ध देसी रोमांस’ इसका उदाहरण है। काफी समय बाद फिल्म के लिए परिणीति चोपड़ा को साइन किया गया था। वे अपनी लव लाइफ को लेकर भी अखबारों और टीवी की सुर्खियों में रहे हैं। 
    सुशांत फिल्म इंडस्ट्री में एक ऐसे अभिनेता हैं, जिन्होंने अपनी काबिलियत के दम पर सफलता हांसिल की। सबसे यंग टैलेंट के रूप में उनको बॉलीवुड इंडस्ट्री में देखा जाता था। वे एक ऐसे अभिनेता थे, जो कभी भी मेहनत करने से पीछे नहीं हटे। उनके अंदर अभिनय के अलावा डांस की भी काबिलियत मौजूद थी। उनका करियर उतार-चढ़ाव से होकर गुजरा! वे ऐसे अभिनेता थे, जिनका बॉलीवुड इंडस्ट्री से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं था। जब वे कॉलेज की पढ़ाई कर रहे थे, उनकी दिलचस्पी डांस में बढ़ने लगी थी। फिर उन्होंने डांस सीखने का निर्णय लिया, पर उनका परिवार इससे सहमत नहीं था। परिवार की सहमति न मानकर उन्होंने हार न मानते हुए श्यामक डाबर के डांस ग्रुप को ज्वाइन कर लिया था। श्यामक उनकी मेहनत और डांस के प्रति जुनून देखकर बहुत ही प्रभावित हुए और उन्होंने 2006 के कामनवेल्थ गेम में उन्हें डांस का अवसर दिया था। इसके बाद वे मुंबई आ गए, यहां उन्होंने डांस ग्रुप के साथ भी परफॉर्मेंस किया। इस डांस ग्रुप को प्रसिद्ध कोरियोग्राफर ऐश्ले लोबो ने प्रशिक्षित किया था। सुशांत ने अपनी जिंदगी में बहुत उतार-चढ़ाव देखे! उनके अंदर शुरू से ही अदाकारी का जुनून था। इसी जुनून ने उन्हें कुछ अलग करने की प्रेरणा दी! उन्होंने थिएटर में भी काम किया और बड़ा कारण यही है, कि कठिन परिश्रम ने ही उन्हें स्टार बनाकर लोगों के सामने प्रस्तुत किया। सुशांतसिंह ने अपनई कला को और ज्यादा चमकाने के लिए मशहूर एक्शन डायरेक्टर अल्लन अमीन से मार्शल आर्ट की भी ट्रेनिंग ली थी। 
   उन्होंने 'जरा नच के दिखा-2' और 'झलक दिखला जा-4' जैसे बड़े डांसिंग शो भी किए। झलक दिखला जा-4 में इनकी परफारमेंस को मद्देनजर रखते हुए इनको मोस्ट कंसिस्टेंट परफारमेंस का टाइटल भी प्रदान किया गया था। सुशांत ने कई बड़ी फिल्में की, जो दर्शकों द्वारा पसंद भी की गई! 2016 में भारतीय क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी के ऊपर आई उनकी जीवनी फिल्म में सुशांत राजपूत को धोनी का किरदार करने को मिला था। इस फिल्म ने भारतीय पर्दे पर बड़ी सफलता हांसिल की। 

सुशांत राजपूत के टीवी शो .
- 2008 और 2010 में 'किस देश में है मेरा दिल'
- 2010 में 'जरा नच के दिखा' डांस शो
- 2010 और 2011 में 'झलक दिखला जा-4'
- 2009 और 2011 एवं 2014 में 'पवित्र रिश्ता'
- 2015 में 'सीआईडी'
- 2016 में 'कुमकुम भाग्य'

सुशांत राजपूत की चर्चित फिल्में - काय पो चे
- शुद्ध देसी रोमांस
- पीके
- एम एस धोनी : द अनटोल्ड स्टोरी
- राब्ता
- छिछोरे
- अमरनाथ
आने वाली फिल्में ?- दिल बेचारा
- पानी
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मिडिल क्लॉस फैमेली की 'छोटी सी बात' अब कौन सुनाएगा!

यादें : बासु चटर्जी

- एकता शर्मा

  हिंदी और बंगाली फिल्मों के जाने-माने डायरेक्टर बासु चटर्जी ने जिंदगी को अलविदा कह दिया। लॉक डाउन में ये बॉलीवुड के लिए एक और बड़ी क्षति है। उनके निधन का कारण उम्र संबंधी बीमारियां बताया जा रहा है। उन्होंने सुबह के समय नींद में ही शांति से अंतिम सांस ली। वे उम्र संबंधी परेशानियों के कारण कुछ समय से अस्वस्थ चल रहे थे। 70 और 80 के दशक में उनकी फिल्मों को बेहद पसंद किया गया। उन्होंने रजनीगंधा, चित्तचोर, छोटी सी बात, खट्टा-मीठा, एक रुका हुआ फैसला और चमेली की शादी जैसी रोमांटिक कॉमेडी वाली फ़िल्में बनाई, जिन्हें हर वर्ग के दर्शक रिझाया।
  उनकी अधिकांश फिल्मों के हीरो अमोल पालेकर और हीरोइन विद्या सिन्हा या जरीना वहाब हुआ करती थी। अपनी पहली फिल्म 'सारा आकाश' अलग तरह फिल्म की गंभीर मूड  थी, पर बाद उन्होंने ट्रेंड बदला और जीवन के छोटे-छोटे किस्सों को कहानियों  पिरोकर फ़िल्में बनाईं! अनिल कपूर को लेकर उन्होंने 'चमेली की शादी' डायरेक्ट की थी, जिसे आज भी याद किया जाता है। उनकी फिल्मों का आधार मिडिल क्लास फैमेंली की रोजमर्रा के जीवन में होने वाली कॉमेडी हुआ करती थी। 
   उन्होंने अपने करियर की शुरुआत एक पत्रिका में कार्टूनिस्ट और इलस्ट्रेटर के रूप में की थी। वे 18 साल तक इसी काम में लगे रहे। इसके बाद उन्होंने फिल्म निर्माता के रूप में अपना करियर बनाया और 1966 में राज कपूर और वहीदा रहमान स्टारर फिल्म 'तेरी कसम' में असिस्टेंट बनकर काम किया। इस फिल्म ने भी अपने दौर में राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीता था। उन्होंने 10 से ज्यादा सफल फिल्मों का निर्देशन किया। चटर्जी को 1969 में अपनी पहली फिल्म 'सारा आकाश' के साथ सफलता मिली। इस फिल्म के लिए उन्होंने स्क्रीन प्ले के लिए भी पुरस्कार जीता था।
  बासु चटर्जी का जन्म अजमेर में हुआ था. फिल्मों में बासु चटर्जी के योगदान के लिए 7 बार फिल्म फेयर अवॉर्ड और दुर्गा के लिए 1992 में नेशनल फिल्म अवॉर्ड भी मिला था. 2007 में उन्हें आईफा ने लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड से नवाजा था. 1969 से लेकर 2011 तक बासु दा फिल्मों के निर्देशन में सक्रिय रहे। बासु चटर्जी के परिवार में उनकी दो बेटियां- सोनाली भट्टाचार्य और रूपाली गुहा है। रूपाली ने फिल्में डायरेक्ट की है। वह टीवी सीरियल की भी प्रोड्यूसर हैं।
    बॉलीवुड में बासु चटर्जी को प्यार से 'बासु दा' कहकर बुलाया जाता था। मिडिल क्लास फैमेंली की गुदगुदाती और हल्के से छू जाने वाली रोमांटिक कॉमेडी फिल्मों ने बासु चटर्जी को फिल्म  इंडस्ट्री में अलग पहचान दिलाई। बासु चटर्जी ने कुछ बंगाली फिल्मों के अलावा टीवी के लिए भी सीरियल बनाएं! इनमें 90 के दशक का 'ब्योमकेश बख्शी' सर्वाधिक लोकप्रिय रहा! ये एक जासूसी सीरियल था, जिसमें रजत कपूर मुख्य भूमिका में थे। बाद में उन्होंने दर्पण और कक्काजी कहिन जैसे सीरियल भी डायरेक्ट किए। उनकी आखिरी फिल्म बंगाली की 'साल त्रिशंकु' थी, जो साल 2011 में रिलीज हुई!
  बासु चटर्जी के निधन पर फिल्म निर्माता और भारतीय फिल्म और टीवी निर्देशकों के एसोसिएशन के अध्यक्ष अशोक पंडित ने ट्विटर पर लिखा, ' मैं अशोक पंडित दिग्गज फिल्म निर्माता बासु चटर्जी जी के निधन की सूचना देते हुए काफी दुखी हूं। यह इंडस्ट्री के लिए एक बड़ी क्षति है। बॉलीवुड के मशहूर निर्माता और निर्देशक मधुर भंडारकर ने ट्वीट करते हुए कहा, 'निर्माता श्रीबासु चटर्जी के निधन का सुनकर बहुत दुःख हुआ। उन्हें हमेश लाइट हार्टेड कॉमेडी और सिंपलिसिस्ट फिल्म्स के लिए याद किया जाएगा।
उनकी फ़िल्में   प्रतीक्षा, गुदगुदी, त्रियाचरित्र, कमला की मौत, ज़ेवर, भीम भवानी, किरायेदार, चमेली की शादी, शीशा, लाखों की बात, पसन्द अपनी अपनी, हमारी बहू अलका, शौकीन, अपने-पराये, मन पसंद, जीना यहाँ, मंज़िल, दो लड़के दो कड़के, रत्नदीप, बातों बातों में, प्रेम विवाह, तुम्हारे लिए, खट्टा मीठा, दिल्लगी, सफेद झूठ, प्रियतमा, स्वामी, चितचोर, छोटी सी बात, रजनीगंधा, उस पार, पिया का घर
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खामोश हो गया संगीत का एक मधुर सुर!


यादें : वाजिद खान

- एकता शर्मा

  हिंदी फिल्म संगीतकारों की दुनिया जोड़ियों से चलती है। जब भी ये जोड़ी टूटती है, सारे सुर बिखर जाते हैं। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के साथ भी यही हुआ था, अब साजिद-वाजिद के वाजिद का इंतकाल हो गया। उन्हें कोरोना ने अपना शिकार बना लिया। देखा जाए तो साल 2020 बॉलीवुड के लिए कई मायनों में मनहूस साबित हो रहा है। लॉक डाउन की वजह से इंडस्ट्री का काम ठप पड़ा  है, वहीं दूसरी तरफ कई दिग्गज सितारे दुनिया से बिदा हो रहे हैं। अब फिल्म इंडस्ट्री के नामी संगीतकार वाजिद खान चले गए। वाजिद के निधन की वजह किडनी और हृदय की समस्या भी बताई जा रही है। लेकिन, किडनी के इलाज के दौरान उनका टेस्ट किया गया तो रिपोर्ट कोरोना पॉजेटिव आई थी। ये संगीतकारों की उभरती हुई जोड़ी थी, जिसने अपने शुरूआती समय में ही बहुत अच्छी धुनें रची थी।  
  इस जोड़ी ने 1998 में पहली बार सलमान खान की फिल्म 'प्यार किया तो डरना क्या' में संगीत दिया था। इसके बाद सोनू निगम के अलबम 'दीवाना' के लिए संगीत दिया, इस अलबम के दीवाना तेरा, अब मुझसे रात दिन और 'इस कदर प्यार है' गीत बेहद पसंद किए गए थे। उन्होंने सलमान फैमली की ही फिल्म 'हैलो ब्रदर' में भी संगीत दिया और चुपके से कोई, हैलो ब्रदर और हटा सावन की घाटा जैसे गीत रचे! साजिद-वाजिद की जोड़ी को सलमान खान ने अपनी फिल्मों में हमेशा मौके दिए। इन्होंने सलमान खान की फिल्म दबंग, वांटेड, वीर, नो प्रॉब्लम, गॉड तुस्सी ग्रेट हो, पार्टनर, एक था टाइगर, दबंग-2, दबंग-3' के अलावा सन ऑफ सरदार, राउड़ी राठौर और 'हाउसफुल-2' जैसी कई सफल फिल्मों के लिए संगीत दिया था। वाजिद ने तो कई फिल्मों में गाने भी गाए थे।    
   अभी महीनेभर पुरानी बात है, जब वाजिद खान ने इरफ़ान खान के निधन पर एक ट्वीट किया था। उसमें उन्होंने इरफान खान को श्रद्धांजलि देते हुए लिखा था 'इस आंख मिचौली के खेल में हमेशा एक ढूंढता ही रहता है, और वो नहीं पास आता जो छुप जाता है, इरफान मेरे भाई! अल्लाह आपको इस सफर इमाम की ताजगी आपकी रूह को सुकून मिले। आमीन। वहां की जिंदगी अल्लाह आसान करे।' किसे पता था कि ये संजीदा ट्वीट एक दिन वाजिद के लिए किसी को लिखना पड़ेगा। 
  साजिद-वाजिद की जोड़ी बेहद मधुर थी। दोनों ने कई ऐसे गीत रचे, जो हमेशा लोग गुनगुनाएंगे। लेकिन, सच्चाई ये कि ये जोड़ी अब नहीं बची. साजिद अब अकेले रह गए। वाजिद ने दुनिया को अलविदा कह दिया। इतनी कम उम्र (42 साल) में उनके चले जाने से बॉलीवुड शोक में है। ऋषि कपूर, इरफ़ान खान और दो दिन पहले गीतकार योगेश के बाद अब वाजिद का जाना एक त्रासदी से कम नहीं है। कारण कि इससे पहले उनके बीमार होने की कोई खबर नहीं आई! अचानक आई निधन की खबर ने सबको चौंका दिया। उनकी तबियत 31 मई की दोपहर अचानक खराब हो गई थी। किडनी की समस्या के बाद उन्हें हॉस्पिटल में भर्ती किया गया। वे किडनी के इलाज के लिए पहले भी कई बार इलाज करा चुके थे। रविवार दोपहर वाजिद की हालत ज्यादा खराब हुई। उनकी कोरोना रिपोर्ट भी पॉजेटिव आई थी। 
बॉलीवुड दुखी  वाजिद के निधन पर कई बॉलीवुड हस्तियों ने उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित किए हैं। अमिताभ बच्चन तो उनके निधन की खबर सुनकर शॉक में आ गए। उन्होंने ट्वीट किया 'वाजिद खान के निधन की खबर सुनकर शॉक्ड हूं। एक उज्ज्वल मुस्कुराती प्रतिभा हमें छोड़कर चले गया।'
  संगीतकार सलीम मर्चेंट ने ट्वीट किया, 'साजिद-वाजिद की जोड़ी के मेरे भाई वाजिद के निधन की खबर से परेशान हूं। अल्लाह उनके परिवार को ताकत दे। वाजिद भाई आप बहुत जल्दी चले गए। यह हमारी बिरादरी के लिए एक बड़ा नुकसान है. मैं हैरान और टूट गया हूं।
 प्रियंका चोपड़ा ने वाजिद खान के निधन पर बहुत शोक जताया। प्रियंका चोपड़ा ने ट्वीट किया 'दुखद समाचार! एक बात जो मुझे हमेशा याद रहेगी वो है वाजिद भाई की हंसी! वे हमेशा मुस्कुराते रहते थे, बहुत जल्द चले गए। उनके परिवार और शोक व्यक्त करने वाले लोगों के प्रति मेरी संवेदना। आपकी आत्मा को शांति मिले मेरे दोस्त!
   गायिका मालिनी अवस्थी ने ट्वीट किया 'ये चौंकाने वाली खबर है! अविश्वसनीय! वाजिद खान चले गए ... क्या हो रहा है! दिवंगत आत्मा के लिए प्रार्थना करती हूं। गायिका हर्षदीप कौर ने ट्वीट किय 'वाजिद खानजी के परिवार के प्रति मेरी गहरी संवेदना! अभी भी यह विश्वास नहीं हो रहा है कि वह अब इस दुनिया में नहीं रहे! हमेशा उन्हें मुस्कुराते हुए और अपने आस-पास खुशी बिखेरते देखा है। संगीत उद्योग को भारी नुकसान हुआ है।' 
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जिंदगी कैसी है पहेली हाय ... कभी तो हँसाए, कभी रुलाए!


यादें: योगेश


- एकता शर्मा 

    शुद्ध हिंदी में कालजयी गीत रचने वाले योगेश गौड़ ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उनका निधन पर हिंदी फिल्मों के गीत रचनाकारों की दुनिया में एक बड़ी क्षति है। योगेश का जन्म नजाकत के शहर लखनऊ में हुआ था। यही कारण है कि उनके गीतों में भी वही नजाकत थी! लेकिन, उर्दू बोलचाल शहर में जन्म लेकर भी उनके गीतों में उर्दू का पुट नहीं था। उन्हें इसलिए भी याद किया जाएगा कि उन्होंने अपने गीतों रचना में हिंदी का ध्यान रखा! जब फिल्मी दुनिया में उर्दू के गीतकारों का बोलबाला था, उन्होंने हिंदी को प्रधानता दी! कभी ध्यान से सुनिए, उनके गीतों में कहीं उर्दू के शब्द नहीं है। जबकि, अधिकांश गीतकार उर्दू के साथ फ़ारसी तक के शब्दों का प्रयोग करने से नहीं हिचकते!
  उन्होंने अपने करियर की शुरुआत 1962 में आई फिल्म 'सखी रॉबिन' की थी। इस फिल्म के लिए उन्होंने 6 गाने लिखे थे। लेकिन, उन्हें पहचान मिली 1971 में आई ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'आनंद' में लिखे गीतों से। 'कहीं दूर जब दिन ढल जाए' और 'जिंदगी कैसी है पहेली हाय' उन्हीं के लिखे गीत हैं जिसने लोकप्रियता का परचम लहराया। आज भी इन गानों को सुना जाता है। उनकी आखिरी रिलीज फिल्म थी 'बेवफा सनम' थी।
    योगेश गौर ने एक रात, मिली, छोटी सी बात, आनंद, आजा मेरी जान, मंजिलें और भी हैं, बातों-बातों में, रजनीगंधा, मंजिल, आनंद महल, प्रियतमा, मजाक, दिल्लगी, अपने पराए, किराएदार, हनीमून, चोर और चांद, बेवफा सनम, जीना यहां, लाखों की बात जैसी फिल्मों के गीत लिखे। उनके बारे में कहा जाता है कि 16 साल की उम्र में लखनऊ से मुंबई आए थे। मुंबई में उनके चचेरे भाई एक पटकथा लेखक थे। फिल्म मिली का ‘आए तुम याद मुझे’ छोटी सी बात का ‘न जाने क्यों होता है ये जिंदगी के साथ’, रजनीगंधा का ‘कई बार यूं भी देखा है’ के अलावा ‘रिमझिम गिरे सावन सुलग-सुलग जाए मन’, ‘न बोले तुम न मैंने कुछ कहा’, ‘बड़ी सूनी-सूनी है’, ‘जिंदगी ये जिंदगी’ जैसे कई 70 के दशक की फिल्मों हिट गीत योगेश ने ही लिखे!
   एक ख़ास बात जो योगेश के गीतों में नजर आती है, वो है हिंदी शब्दों  उपयोग। जबकि, हिंदी फ़िल्मी गीतों की दुनिया उर्दू से भरी पड़ी है, पर योगेश के गीतों में उर्दू कहीं सुनाई नहीं देती। विचारों की सादगी की और बहुत ही सीधे और साधारण विचारों को अत्यंत सुन्दर शब्दों में बांधने की योगेश में अद्भुत कला थी। 'कहीं दूर जब दिन ढल जाए' गीत के भाव बहुत साधारण हैं। लगभग पूरे गीत में (एक अंतरे को छोड़कर) गायक, नायक इतना व्यक्त कर रहा है की वह किसी को बेहद याद कर रहा है। परन्तु इस सरल से भाव की सुंदर अभिव्यक्तियाँ हैं 'मेरे ख़यालों के आँगन में कोई सपनों के दीप जलाए!'
   योगेश का समय तब बदला जब वे सबिता बैनर्जी के जरिए संगीतकार सलिल चौधरी से मिले। 1968-69 में उनके लिखे एक-दो गीत सलिल चौधरी ने रचे तो थे, पर वे फ़िल्में पूरी नहीं हुईं। 1970 में सलिल चौधरी ने उन्हें ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'आनंद' में गीत लिखने का मौका दिया। इसके बाद उनके  जीवन की सफलता का दौर शुरू हुआ। इसके बाद सलिल के संगीत निर्देशन में उनका लगातार गीत लिखने का सिलसिला शुरू हुआ।  इस जोड़ी ने 'आनंद' के बाद अन्नदाता, अनोखा दान, मेरे भैया, रजनीगंधा, छोटी सी बात, आनंद महल, मीनू, जीना यहाँ, नानी माँ, रूम नंबर 203, अग्नि परीक्षा फिल्मों में गीत रचे। 1988 में रिलीज हुई फिल्म 'आखिरी बदला इस जोड़ी की अंतिम फिल्म थी। गीतकार के रूप योगेश का संगीतकार सलिल चौधरी के साथ जोड़ी बनना दोनों के लिए स्वर्णिमकाल रहा।
    उनके करियर में ऋषिकेश मुख़र्जी और बासु चटर्जी का योगेश की सफ़लता में ख़ासा योगदान रहा। ऋषिकेश मुखर्जी के साथ इन्होंनें आनंद, मिली, रंग-बिरंगी आदि जैसी फिल्मों के लिए गीत लिखे! जबकि बासु चटर्जी के साथ रजनीगंधा, छोटी सी बात, बातों बातों में, प्रियतमा, दिल्लगी, शौक़ीन, मंज़िल आदि फिल्मों में भी अपनी लेखन क्षमता का परिचय दिया। योगेश के अधिकांश अच्छे गीत इन्हीं दो निर्देशकों की फिल्मों के रहे। योगेश ने लगभग 100 फ़िल्मों करीब 350 गीत लिखे। फ़िल्मी और ग़ैर-फ़िल्मी गीतों के अलावा उन्होंने कई टीवी धारावाहिकों के शीर्षक गीतों व विज्ञापन फिल्मों की तुकान्तक कविताएं भी रची। 
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लॉक डाउन के बाद जिंदगी सोच से ज्यादा बदलेगी!

  लॉक डाउन के बाद जीवन में बहुत कुछ बदलेगा। लोगों के व्‍यवहार के साथ सोचने के तरीके भी बदल जाएंगे! मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि ऐसी स्थिति में लोग एकाकी हो जाएं तो आश्चर्य नहीं! उनके रहन-सहन और खानपान का तरीका भी बदल जाएगा। बाजारों में सन्नाटा होगा, आने-जाने, खाने-पीने, घूमने-फिरने, सामाजिक मेलजोल, सोचने के तरीकों, कारोबार के माध्‍यमों, घरों की व्यवस्था, सुरक्षा और कामकाज के तरीकों में बदलाव आएगा। जान बचाने की कोशिश लोगों को अज्ञात भय से हमेशा भयभीत रखेगी। ये कब तक होगा, कहा नहीं जा सकता! लेकिन, लॉक डाउन के बाद जब लोग घर से निकलेंगे, उनका सामना एक नई दुनिया से होगा, जिसमें वो सब बदला हुआ होगा, जिसके हम अभी तक अभ्यस्त थे।  
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- एकता शर्मा

     स समय लोग किसी भी चीज को छूने, लोगों के नजदीक जाने को खतरनाक मान रहे हैं। उन्‍हें भय है कि ये उनके लिए जानलेवा संक्रमण का कारण बन सकता है! सरकार भी 'सोशल डिस्‍टेंसिंग' को न सिर्फ प्रोत्‍साहित कर रही, बल्कि इसे अपराध बताकर डरा भी रही है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि व्यक्ति में डर से उपजी बातें हमारे हमेशा के लिए दिल में घर कर जाती हैं! जब लोग लॉक डाउन के बाद सामान्य जिंदगी जीने की कोशिश करेंगे, तो यही डर उन्हें रोकेगा। किसी भी चीज को छूने से परहेज करना, हाथ मिलाने से कतराना, बार-बार हाथ धोने की आदत और सोशल लाइफ से कटकर रहना लोगों में एक तरह के 'डिसआर्डर' की तरह पनप सकता है। लोग अकेले रहने में ज्यादा बेहतर और सुरक्षित महसूस करने लगेंगे। हर किसी को शंका भरी नजरो से देखेंगे और एक-दूसरे के घर मिलने जाने से कतराएंगे। ऐसी स्थिति में ऑनलाइन कम्युनिकेशन बढ़ जाएगा। क्योंकि, लोग मेलजोल से बचने की कोशिश करेंगे। ऐसे में आपसी रिश्‍तों में दूरियां बढ़ेंगी। लेकिन, एक-दूसरे का हालचाल जानने के बहाने संभव है, लोग फोन पर ज्यादा बातचीत करने लगें! 
     दुनियाभर में इन दिनों महामारी का आतंक है। ऐसी बीमारी जिसका किसी को कोई अता-पता नहीं! बीमारी अज्ञात है, इसलिए उसका सटीक इलाज भी नहीं हो पा रहा। चिकित्सा विज्ञान की सारी रिसर्च हाशिये पर चली गई! ये छूत की बीमारी है, जो किसी संक्रमित व्यक्ति के नजदीक जाने या उसे छूने से भी लग सकती है, इसलिए लोगों के दिल में अज्ञात भय व्याप्त है। लॉक डाउन के कारण लोग परिवार के साथ घरों में कैद हैं। घर के बाहर भी निकलते हैं, तो अहतियात बरतते हुए! चेहरे पर मास्क और हाथ में ग्लब्स लगे होते हैं। सबसे बड़ी बात ये कि जिनके साथ घंटों गुजरते थे, वे लोग बेगाने हो चले! चारों तरफ संदेह के बादल छाए हैं।
     अब लोगों को सबसे ज्‍यादा चिंता इस बात की है कि आखि‍र लॉकडाउन के बाद क्या होगा! ज‍िंदगी क‍िस तरह और कहाँ-कहाँ बदलेगी! जब लोग घर से बाहर निकलेंगे तो अपने चारों तरफ क्या नया दिखाई देगा! क्या कभी वे दिन लौटेंगे, जब लोग कॉफी हॉउस या चाय के ठीयों पर घंटों गुजार दिया करते थे! पान की दुकानों पर हंसी-ठट्ठा हुआ करता था! बात-बात में गले मिलना और मिलते ही हाथ मिलाना सामाजिक संस्कार थे! अब उनका क्या होगा? लोगों में जबरदस्त अविश्वास की भावना पनपेगी! हो सकता है वो सारे संस्कार तिरोहित हो जाएं, जो हमारी पहचान थे! क्योंकि, लॉक डाउन के बाद लोग अपनी जान की खातिर दूरी बनाकर रहने को मजबूर होंगे। ये भी संभव है कि सरकार हमेशा के लि‍ए ही 'सोशल ड‍िस्‍टेंस‍िंग' को कोई न‍ियम ही बना दे। यह सब आसान तो नहीं है, पर जीवन से बड़ा दुनिया में कुछ नहीं होता, तो लोग मन से न सही, मज़बूरी में ही दूरियां बनाकर तो रहेंगे!
   भारत जैसे देश में जहाँ जनसँख्या के कारण मेलजोल का रिवाज कुछ ज्यादा ही है, बहुत ज्यादा बदलाव आएगा। परिवार से बाहर लोग न तो ज्यादा संपर्क रखना चाहेंगे और ये उम्मीद करेंगे कि कोई उनके घर आए! वे भी किसी के घर नहीं जाएंगे! इसलिए कि वायरस से होने वाली ये ऐसी बीमारी है, जो व्यक्ति को छुपकर और बचकर रहने के लिए मजबूर करेगी। अभी तक हालात ये थे कि जब भी कोई परिचित बीमार होता था, तो सदाशयता के नाते उसकी सेहत पूछने वालों का अस्पताल और घर में तांता लग जाता था! अब शायद ऐसा नजारा दिखाई न दे! औपचारिकता के नाते लोग फोन पर हालचाल पूछकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेंगे! तात्पर्य यह कि इस महामारी का सबसे ज्यादा असर सामाजिकता और निजी व्यवहार पर पड़ेगा! लोगों में इस बीमारी की वजह से जो अविश्वास पनपा है, वो लम्बे समय तक बना रहेगा!
    शादी और पार्टियों की भीड़ कुछ सालों तक शायद ही नजर आए! क्योंकि, हर किसी के दिल में ये खतरे के बड़े ठिकाने होंगे! ये भी हो सकता है कि सरकार ही ऐसे आयोजनों को प्रतिबंधित कर दे या सीमित कर दे! ऐसे में भव्य शादियां सिर्फ यादें बनकर रह जाएगी। लोग भीड़ का हिस्सा बनने से तो बचेंगे ही, पार्टियों में खाना भी पसंद न करें। ऐसी स्थिति में शादी के आयोजन महज औपचारिकता के लिए होंगे! जहाँ पार्टी होगी, हो सकता है वहाँ मेहमानों की जाँच की जाए! जिस होटल में आयोजन होगा, वहां उसे ही आने की अनुमति मिले, जो अपने आपको स्वस्थ साबित करेगा! बात सिर्फ शादियों के आयोजन और पार्टियों तक ही सीमित नहीं है! ऐसे सभी आयोजनों का भी चेहरा बदल जाएगा, जहाँ अभी तक भीड़ ही व्यक्ति के संबंधों की पहचान हुआ करती थी।    धार्मिक उत्सव भी सिमट जाएं तो आश्चर्य नहीं! धार्मिक स्थलों में भी लोग दूरियां बनाकर रहेंगे या हो सकता है दूर से ही भगवान के दर्शन कर लौट जाएं! हज़ारों, लाखों की भीड़ वाले कुंभ और सिंहस्थ जैसे आयोजनों का बदला स्वरुप कैसा होगा, इसकी कल्पना भी सिहरन पैदा करती है! सभी धर्मों की  मान्यताओं पर जिंदा रहने की जंग हावी हो गई है। इसलिए इस वायरस का खतरा हर धर्म को मानने वालों के पूजा-पाठ के तरीकों को बदल देगा। समय की भी मांग मानवता की बेहतरी के लिए फिलहाल इन तौर-तरीकों को बदला भी जाए। लेकिन, यदि ये बदलाव ज्‍यादा समय तक बरकरार रखा गया तो इसके स्‍थायी व्‍यवहार में तब्‍दील होने का भी खतरा है।
    जब इतना कुछ बदलेगा तो बाजारों की रौनक का भी गायब होना तय है। शॉपिंग मॉल की दुकानें और शोरूम भीड़ देखने को तरस जाएंगे। लोग शायद घूमने या तफरीह के मूड से बाजार जाना ही छोड़ दें! ऐसे में ऑनलाइन शॉपिंग का बाजार ऊंचाई छूने लग सकता है! हालांकि, बाजार के कारोबारी जानकार ऐसी आशंकाओं को खारिज करते हैं। उनका मानना है कि मॉल्स यदि अपने ग्राहकों को पूरी तरह सुरक्षित माहौल देंगे, तो लोग आना नहीं छोड़ेंगे! लेकिन, मॉल को अपने संक्रमणमुक्‍त होने की गारंटी देना होगी। यही स्थिति होटल और रेस्टॉरेंट के सामने भी आएगी। क्योंकि, इस महामारी का होटलों और रेस्टॉरेंट पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ेगा। बाहर खाने की आदत पर तो समझो अंकुश जैसा ही लग सकता है! क्योंकि, इस बीमारी का सबसे बड़ा कारण ही लोगों के संपर्क में ज्यादा आना होता है। ऐसे में होटल और रेस्टॉरेंट इस बीमारी के जनक साबित हो सकते हैं!
  ऑनलाइन फ़ूड डिलीवरी का जो बूम आया था, वो भी थमना लगभग तय है! क्योंकि, ये खाना कई हाथों से गुजरकर घर तक पहुँचता है। लोग जब घर से निकलना ही कम करेंगे तो उनकी फ़िल्में देखने की आदत भी छूट जाएगी! इसलिए कि 'सोशल डिस्टेंसिंग' का यहाँ कोई मायना नहीं रहता! सिनेमा और नाटकघरों की पास-पास में सटी सीटों को संक्रमण का कारण समझा जाएगा! दर्शक उन सीटों से भी परहेज करना चाहेंगे, जहाँ उनसे पहले कोई अंजान व्यक्ति बैठकर गया है!   
    जीवन में एक और बड़ा बदलाव यात्राओं के लेकर आने की संभावना है! बात चाहे बस यात्रा की हो, रेल यात्रा की व हवाई यात्रा की! संक्रमण के भय से लोग इससे बचेंगे। कम से कम सालभर तो लोग तभी यात्रा करेंगे, जब बहुत ज्यादा जरुरी होगा! हालात देखकर लगता है कि हर यात्री को तभी अनुमति होगी, जब वो निर्धारित मापदंडों पर खरा उतरे! यानी कोई बीमार व्यक्ति यात्रा ही न कर सके! हर बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन और एयरपोर्ट पर जाने और आने वाले यात्रियों की स्क्रीनिंग होने लगे! साथ बैठे यात्री के प्रति संदेह की भावना इतनी प्रबल हो सकती है कि पहले की तरह लोग पास वाले से बात ही न करें! एक खतरा ये भी है कि लोग लोकसेवा वाहनों का इस्तेमाल करने से बचेंगे! सिटी बसें, लोकल ट्रेनें और मेट्रो पर भी इसके असर से नहीं बचेंगी। ऑफिस, स्कूल और कॉलेज में क्या बदलाव होगा, इसकी तो कल्पना करना ही शायद मुश्किल हो!
  देश की बहुत बड़ी कुछ सालों में गांव या कस्‍बों से बड़े शहरों में छोटे-छोटे काम धंधे के लालच में पहुँच गई थी। लेकिन, कोरोना ने इन्हें घर लौटने के लिए मजबूर कर दिया। ऐसे में लाखों लोग अपने गांवों और कस्बों में लौट गए। इनकी वापसी की पीड़ा अंतहीन है। आशंका है कि अब ये लोग शायद कुछ सालों तक शहरों की तरफ रुख न करें! काफी लोग तो लौटकर ही न जाएं और अपने गांव, कस्‍बों या छोटे शहरों में ही वैकल्पिक धंधों की तलाश कर लें। तात्पर्य ये कि हर व्यक्ति का जीवन कई जगह से बदलेगा।
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Friday 1 May 2020

'ऋषि कपूर चले गए ... मैं टूट गया हूँ!'


- एकता शर्मा

   ऋषि कपूर को 2008 में जब 'फिल्म फेयर' का लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड मिला, तो वे खुश नहीं थे। अपनी नाखुशी उन्होंने शर्मिला टैगोर के सामने व्यक्त करते हुए कहा था कि मुझे अभी ये अवॉर्ड क्यों दिया गया, क्या मैं मरने वाला हूँ? ये किस्सा खुद शर्मिला ने दुखी होकर सुनाया! ऋषि के उस समय जो सवाल किया था उसका जवाब सामने मिल गया! वो अवॉर्ड यहीं रखा रह गया और वे अनंत की यात्रा पर निकल गए! इरफ़ान खान की तरह उन्हें भी कैंसर ने हरा दिया। 
  ऋषि के चले जाने की पहली सूचना अमिताभ बच्चन ने ट्वीट करके की। उन्होंने अपने ट्वीट में जो लिखा, उसमें उनका दर्द रिसता नजर आता है। सुबह 9.32 को किए ट्वीट में अमिताभ ने लिखा, 'वो चले गए ... ऋषि कपूर ... वो चले गए ... उनका निधन हो गया। मैं टूट गया हूं।' इसलिए कि अमिताभ और ऋषि कपूर ने कई फिल्मों में साथ काम किया था! शायद '102 नॉट आउट' में निभाए बाप-बेटे के किरदार को याद करके उन्होंने 'मैं टूट गया हूँ' जैसी भाषा इस्तेमाल की। दोनों ने 'अमर-अकबर-एंथोनी' से '102 नॉट आउट' तक करीब 8 फिल्मों में साथ काम किया। ऋषि सोशल मीडिया पर  बहुत ज्यादा ऐक्टिव थे, लेकिन 2 अप्रैल से उन्होंने कुछ भी पोस्ट नहीं किया था। वे कई बार सोशल मीडिया पर अपनी मुखर और तल्ख़ टिप्पणियों के लिए भी चर्चा में रहे। 
    ऋषि कपूर पिछले दो साल से कैंसर से जूझ रहे थे। अमेरिका के कैंसर अस्पताल में 11 महीने 11 दिन गुजारने के बाद पिछले साल सितम्बर में जब ऋषि लौटे, तो उन्होंने बताया था कि उनका इलाज अभी पूरा नहीं हुआ, ये आगे भी जारी रहेगा और पूरी तरह से ठीक होने में वक्त लगेगा। इस साल तबियत ख़राब होने से फ़रवरी में उन्हें दो बार अस्पताल में भर्ती कराया गया था। बाद में वे मुंबई में वायरल फीवर की वजह से भर्ती हुए थे। दो दिन पहले उन्हें सांस लेने में परेशानी की वजह से फिर अस्पताल में भर्ती कराया गया था। लेकिन, इस बार वे स्वस्थ नहीं हो सके। 
  ऋषि कपूर उर्फ़ 'चिंटू' का जन्म 4 सितंबर 1952 को हुआ था। वे अभिनेता-फिल्म निर्देशक राज कपूर और अभिनेता पृथ्वीराज कपूर के पोते के दूसरे पुत्र थे। उन्होंने कैंपियन स्कूल, मुंबई और मेयो कॉलेज, अजमेर में अपने भाइयों के साथ अपनी स्कूली शिक्षा की! अपने चार दशक के करियर में उन्होंने  अभिनय के अलावा निर्माता और निर्देशन में भी हाथ आजमाया! उनके अभिनय की शुरुआत 'मेरा नाम जोकर' में बाल कलाकार के रूप में हुई थी। इस फिल्म में उन्होंने अपने पिता राजकपूर के बचपन का किरदार निभाया था।
  1973 में बतौर एक्टर डिंपल कपाड़िया के साथ उनकी फिल्म 'बॉबी' आई थी, जिसने रोमांटिक फिल्मों का एक नया ट्रेंड बनाया! इस फिल्म की सफलता ने फ़िल्मी दुनिया को ऐसा रोमांटिक चेहरा दिया जो लगातार दो दशक तक परदे पर छाया रहा! 1974 में 'बॉबी' के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए फ़िल्म फ़ेयर अवॉर्ड और साथ ही 2008 में फ़िल्म फेयर लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार सहित कई अवॉर्ड्स से सम्मानित किया गया। उन्होंने पहली फिल्म 'बॉबी' से ही लोकप्रियता की ऊंचाई छूना शुरू की थी। 1973 से 2000 तक उन्होंने सबसे ज्यादा रोमांटिक भूमिकाएं की। वे युवा दर्शकों के बीच बेहद लोकप्रिय थे। ऋषि कपूर को अपने समय का फैशन आइकॉन भी माना जाता था। उन्होंने स्वेटर का ऐसा ट्रेंड चलाया था कि उन्हें कई बार स्वेटर कपूर भी कहा गया।
   उनके करियर में एक ऐसा दौर भी आया जब वे रोमांटिक फिल्मों के लिए टाइप्ड माने जाने लगे थे। उनके पास न तो बहुत ज्यादा वैसी फिल्में थीं और न फ़िल्में चल रही थीं। उसी समय उन्हें मनमोहन देसाई ने उन्हें 'अमर अकबर एंथोनी' में कव्वाल अकबर इलाहाबादी  किरदार दिया जिसने उनके बारे में सारी राय बदल दी। ये फिल्म उनकी करियर का सबसे बड़ा टर्निंग प्वाइंट साबित हुई थी। बताते हैं कि मनमोहन देसाई खुद भी ऋषि कपूर को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं थे! लेकिन, उन्हें उम्मीद थी कि वो ऋषि को वे एक अलग किरदार में दिखाने में सफल होंगे और उन्होंने ऐसा किया भी! जब फिल्म रिलीज हुई, तो अकबर इलाहाबादी छा गया!
  अपनी निजी जिंदगी में भी ऋषि बहुत रोमांटिक रहे हैं। उनका नाम अपनी पहली को-स्टार डिंपल कपाड़िया से भी जुड़ा था। लेकिन, उन्होंने शादी नीतू सिंह से 5 साल के लम्बे अफेयर के बाद की थी। उनके जीवन का एक दिलचस्प किस्सा ये भी अपने चालीस साल के फ़िल्मी करियर में  उन्होंने पहली बार फिल्म 'अग्निपथ' के लिए ऑडिशन दिया था। फ़िल्मी करियर में पहली बार वे इस फिल्म में निगेटिव रोल में दिखाई दिए, जिसे उनके फैंस ने बेहद पसंद किया। 1977 में आई फिल्म 'हम किसी से कम नहीं', 1982 में आई 'प्रेम रोग', 1986 में आई 'नगीना' और 1993 में रिलीज हुई फिल्म 'दामिनी' को भी दर्शकों ने पसंद किया। लेकिन, 1979 में आई 'सरगम' में उनकी डफली बजाने की अदा अनोखी रही! उन्होंने कई फिल्मों में डफली बजाई और 'स्टूडेंट ऑफ़ द ईयर' तक उनके हाथ से डफली नहीं छूटी! इन फिल्मों को कई अवॉर्ड्स भी मिले। 
  चार दशक के करियर में ऋषि ने तीन तरह के अलग-अलग किरदार निभाए! 1973 से 1995 तक की फिल्मों में वे रोमांटिक हीरो रहे! लेकिन, इसके बाद उनके किरदारों का चेहरा बदल गया। फ़ना, हम-तुम और नमस्ते लंदन जैसी फिल्मों में इस पीढ़ी के दर्शकों ने उन्हें परिपक्व चरित्र में देखा! लेकिन, 2010 के बाद उनकी फिल्मों में वे उम्रदराज नजर आए! इनमें मुल्क, कपूर एंड संस और '102 नॉट आउट' जैसी फ़िल्में रहीं। कहा जाता है कि फिल्म एक्टर कभी नहीं मरता, वो सेलुलॉइड पर हमेशा जिंदा रहता है! ऐसे ही ऋषि भी अपनी फिल्मों के किरदारों में हमेशा जीवित रहेंगे!  
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इरफ़ान जिसकी आँखे भी अभिनय करती रही!

- एकता शर्मा 
   
   ये खबर विश्वास करने वाली नहीं है, पर करना पड़ेगी। बड़े परदे के बेहतरीन अभिनेता इरफ़ान खान अब नहीं रहे। उन्होंने कैंसर को हरा दिया था, पर मौत ने उन्हें तब भी छोड़ा! वे दो दिन मुंबई के कोकिलाबेन  हॉस्पिटल में भर्ती रहे और आज जिंदगी से हार गए। उन्हें इस दौर का बेहतरीन अभिनेता माना जाता था! वे सर से पैर तक अभिनेता थे! उन्ही आवाज से लगाकर आँखें तक अभिनय करती थी! हाल ही में दर्शकों ने उन्हें 'इंग्लिश मीडियम' में देखा था, जो 'हिंदी मीडियम' की अगली कड़ी थी! उन्हें 'पानसिंह तोमर' के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है। लेकिन, अब सारी बीती बातें हो गई! उनकी धर्मनिरपेक्ष छवि भी एक अलग ही रंग लिए थी! कुछ साल पहले उन्होने अपने नाम के साथ जुड़ा 'खान' ही निकाल दिया था! इसलिए कि इससे उनके किसी धर्म विशेष का होने का पता चलता था! 
      इरफान खान ने हिंदी के साथ अंग्रेजी फ़िल्मों व टेलीविजन में भी काम किया। उन्होंने द वारियर, मकबूल, हांसिल, द नेमसेक, रोग और हिंदी मीडियम जैसी फिल्मों में अभिनय किया। 2004 में उन्हें 'हांसिल' के लिए फ़िल्म फ़ेयर अवॉर्ड में श्रेष्ठ खलनायक पुरस्कार भी मिला था। उन्होंने बॉलीवुड की 30 से ज्यादा फिल्मों में काम किया। वे हॉलीवुड में भी जाना-पहचाना नाम थे। उन्होंने ए माइटी हार्ट, स्लमडॉग मिलियनेयर, इनफर्नो और द अमेजिंग स्पाइडर मैन जैसी फिल्मों में काम किया था। 2011 में उन्हें 'पद्मश्री' से भी सम्मानित किया गया।
   इरफ़ान के अभिनय की खासियत थी कि वे किरदार में पूरी तरह डूब जाते थे। 2012 में उन्हें 'पानसिंह तोमर' में अभिनय के लिए श्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाजा गया था। दर्शकों का मानना है कि वे पूरा अभिनय अपनी आंखों से करते थे। इसके अलावा वे लीक से हटकर फिल्‍में करने के लिए भी मशहूर हुए। अभिनय के क्षेत्र में ऑलराउंडर माने जाने वाले इरफान खान ने हमेशा ही अपने अभिनय से हर वर्ग के दर्शकों को प्रभावित किया! उनका अपना एक अलग अंदाज था और वे ऐसे एक्टर थे जो अपने अभिनय से किसी भी किरदार में जान डाल देते थे। हॉलीवुड अभिनेता टॉम हैंक्स का कहना था कि इरफान की तो आंखें भी एक्टिंग करती हैं। 
  इरफ़ान जब एमए की पढ़ाई कर रहे थे, तब उन्हें नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के लिए स्कॉलरशिप मिली। अभिनय में ट्रेंड होने के बाद इरफ़ान ने मुंबई का रूख किया और टीवी धारावाहिकों में व्यस्त हो गए। चाणक्य, चंद्रकांता, स्टार बेस्ट सेलर्स जैसे कई धारावाहिकों में इरफ़ान ने काम किया और यहीं से फिल्म निर्माता-निर्देशकों का उनकी तरफ ध्यान गया। मीरा नायर की फिल्म 'सलाम बांबे' में उन्हें छोटी सी भूमिका निभाने का मौका मिला था। 'सलाम बांबे' के बाद उन्होंने कई ऑफबीट फ़िल्में की। एक डॉक्टर की मौत, कमला की मौत और 'प्रथा' जैसी समांतर फिल्मों में अभिनय के बाद इरफ़ान ने मुख्यधारा की फिल्मों की और रूख किया। 
    इरफ़ान ख़ान कभी नायक की भूमिका के दायरे में कैद नहीं रहे। वे लाइफ इन ए मेट्रो, आजा नचले, क्रेजी-4 और सनडे जैसी फिल्मों में महत्वपूर्ण चरित्र भूमिकाएं निभाई तो मकबूल,रोग और बिल्लू में भी काम किया। गंभीर अभिनेता की छवि वाले इरफ़ान की एक्टिंग का जादू सिर्फ बॉलीवुड में ही नहीं, पूरी दुनिया के लोगों पर छाया रहा! लेकिन, उन्होंने अपने अभिनय जीवन की शुरुआत जूनियर कलाकार की तरह की थी। पहली बार उन्हें 'हांसिल' से पहचाना गया था। उनकी हॉलीवुड फिल्म ‘इनफर्नो’ को भी दर्शकों ने सराहा था। ‘इनफर्नो’ भारत और अमेरिका में एक साथ रिलीज हुई थी। इरफान का कहना था कि यह उनके लिए पुरस्कार जैसा है। उनका सपना था कि वे ध्यानचंद जैसे विख्यात हॉकी खिलाड़ी की जीवनी पर फिल्म करें, लेकिन उनका ये सपना अधूरा रह गया। उनका कहना था कि ध्यानचंद जैसे खिलाड़ी की जीवनी पर फिल्म में काम करना उनके लिए गर्व की बात होगी। 
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कोरोना काल में छोटी फिल्मों से मिलते बड़े संदेश!



- एकता शर्मा 

   ज पूरी दुनिया में जानलेवा कोरोना वायरस ने कहर बरपा रखा है। ज्यादातर देशों में लॉकडाउन की स्थिति है। इस जानलेवा वायरस के चलते सभी देशों के नागरिकों में डर का माहौल है। भारत में भी तेजी से कोरोना वायरस का संक्रमण फैल रहा है। इस बीच कोरोना लॉकडाउन के चलते सिनेमा हॉल बंद हैं। फिल्मों की रिलीज़ रुक गई! शूटिंग भी रुक गई है। सारे सितारे घरों में बंद हैं। लेकिन, क्रिएटिव लोगों के लिए पाबंदी भी क्रिएटिविटी का सोर्स बन रही है। संकट की इस घड़ी में भी बॉलीवुड अपनी जिम्मेदारी निभाने में पीछे नहीं हट रहा! वे जरूरतमंदों की मदद के लिए तो सामने आए ही हैं, मनोरंजन करने और एक मकसद का संदेश देने में भी पीछे नहीं हट रहे!
    पिछले दिनों साढ़े 4 मिनट की एक फिल्म 'सब-टीवी' के यूट्यूब चैनल‘ पर रिलीज हुई! इसमें बॉलीवुड के कई सितारों ने एक्टिंग की है। ये हैं रजनीकांत, अमिताभ बच्चन, ममूटी, मोहनलाल, आलिया भट्ट, सोनाली कुलकर्णी, प्रियंका चोपड़ा, चिरंजीवी, शिवा राजकुमार, प्रसन्नजीत चटर्जी, दिलजीत दोसांझ और रणबीर कपूर। इसके कॉन्सेप्ट और डायरेक्शन का क्रेडिट जाता है प्रसून पांडे को, जो एडवरटाइजिंग फिल्म के फील्ड में बड़े नाम हैं।   खास बात यह है कि फिल्म बनकर तैयार हो गई, लेकिन एक भी एक्टर अपने घर से बाहर नहीं निकला। सबने अपने घरों में बैठकर ही शूटिंग की। देश के अलग-अलग कोने में! कोई पंजाब में, कोई बंगाल में, कोई महाराष्ट्र तो कोई तमिलनाडु में! हालांकि, फिल्म देखते हुए आपको लगेगा कि सभी लोग एक ही घर में हैं। यही तो सिनेमा का जादू है और इसी को फिल्म कॉन्टिन्यूइटी कहते हैं! इस शॉर्ट फिल्म का नाम है ‘फैमिली!’ फिल्म एक लाइट कॉमेडी है घर के एक बुजुर्ग यानी अमिताभ बच्चन को अपना काला चश्मा नहीं मिल रहा, इसलिए घर के सभी लोग वह चश्मा ढूंढने लगते हैं!
    यह फिल्म सोनी नेटवर्क के सभी चैनल पर दिखाई गई थी। इससे मनोरंजन तो होगा ही! लेकिन, उसके अलावा एक और मकसद अमिताभ बच्चन ने बताया! इस शार्ट फिल्म के अंत में. उन्होंने कहा 'हमारे देश का फिल्म उद्योग एक है. हम सब एक परिवार हैं. लेकिन हमारे पीछे एक और बहुत बड़ा परिवार है, जो हमारे लिए काम करता है। वो हैं हमारे वर्कर्स और डेली वेज अर्नर्स, जो इस लॉकडाउन की वजह से संकट में हैं। हम सबने मिलकर स्पॉन्सर्स और टीवी चैनल के सहयोग से धनराशि इकट्ठी की है। इस संकट की घड़ी में, ये जो धनराशि है, वो हम देशभर के फिल्म उद्योग के वर्कर्स और डेली वेज अर्नर्स को राहत के तौर पर देंगे! इसलिए डरिए मत, घबराइए मत, यह भी गुज़र जाएगा, टल जाएगा ये संकट का समां! धन्यवाद. नमस्कार!' 
   कोरोना संक्रमण के चलते पैदा हुए डर के माहौल को हल्का करने के लिए बॉलीवुड अभिनेता अक्षय कुमार और निर्माता-निर्देशक-प्रोड्यूसर जैकी भगनानी ने मिलकर एक गाना बनाया है। इसमें बॉलीवुड के मौजूदा दौर के ज्यादातर सेलिब्रेटीज नजर आ रहे हैं। अक्षय की पहल पर बनाया गया इस वीडियो सॉन्ग सुनकर आंखों में आंसू और मन में जोश पैदा होता है।
    देशभक्ति से लबरेज इस वीडियो में बॉलीवुड के कई सितारे एक साथ पर्दे पर नजर आए हैं। इन्होंने मिलकर एक गाने के जरिए आम लोगों को उम्मीद देने की कोशिश की है। इनमें बॉलीवुड के खिलाड़ी अक्षय कुमार, विकी कौशल, तापसी पन्नू, टाइगर श्रॉफ, भूमि पेडनेकर, कृति सेनन, कार्तिक आर्यन, कियारा आडवाणी, आयुष्मान खुराना, जैकी भगनानी, शिखर धवन, सिद्धार्थ मल्होत्रा, रकुल प्रीत सिंह, राजकुमार राव, आरजे मलिष्का और अनन्या पांडे दिखाई दे रहे हैं और इस विशेष एंथम सॉन्ग के जरिए लोगों में हिम्मत बढ़ाते नजर आ रहे हैं।
  लोगों में जोश पैदा करने वाले गाने की शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस वीडियो मैसेज से होती है जिसमें वो कोरोना से लड़ाई जीतने की बात कर रहे हैं। इसके बाद गाने में पूरे भारत को समाहित करने की कोशिश की गई थी। इस गाने में पुलिस, डॉक्टर्स व आम लोगों के विजुअल भी दिखाई देते हैं। आखिर में यह गाना देशभक्ति से लबरेज और भावुक करने वाला हो जाता है। इस गाने को 'उम्मीद का गाना' कहा जा रहा है। इसका म्यूजिक विशाल मिश्रा ने दिया है और अपनी जादुई आवाज से सजाया भी है। जबकि, इसके बोल कौशल किशोर ने लिखे हैं। उम्मीद की जा रही है कि यह गाना घर बैठे लोगों के दिलों को जरूर छुएगा और ज्यादा से ज्यादा लोग इसे पसंद करेंगे।
   अपने इस गाने को लेकर अक्षय कुमार का कहना है कि इस समय हमारे सिर पर मुश्किलों के काले बादल छाए हुए हैं। लोगों की जिंदगी जैसे एक ही जगह पर थम सी गई है। ऐसे में हमारा यह गाना लोगों को इस बात का एहसास कराएगा कि सब कुछ जल्द ही सामान्य हो जाएगा। इस गाने से होने वाली कमाई कोरोना से लड़ने वाले केंद्र और राज्य सरकार के समर्थन में इस्तेमाल होगी। यह गाना 1.3 करोड़ भारतीयों को हमारा ट्रिब्यूट है।उन्होंने आगे कहा कि हम सभी को कोविड-19 के खिलाफ एकजुट होकर डटे रहना होगा और तब मुस्कुराएगा इंडिया। वहीं गाने को लेकर जैकी भगनानी का कहना है कि यह गाना संकट की इस घड़ी में भारतीयों के चेहरों पर मुस्कान लाएगा। जैकी ने कहा कि मैंने और अक्षय ने महसूस किया कि यह गाना इस मुश्किल समय में एक उम्मीद कायम करेगा। यहीं से हमें इस गाने को बनाने का विचार आया।
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बरसों बाद भी 'दूरदर्शन' के ये सीरियल आज भी बेजोड़!

- एकता शर्मा 

   अपने शुरूआती काल से अभी तक टेलीविजन में बहुत कुछ बदलाव आया है। तकनीकी विस्तार के अलावा सीरियलों के कथानक भी बदले और दर्शकों का सोच भी! इन सालों में निजी चैनलों ने मनोरंजन की ऐसी नईदुनिया रच दी, जिसके सामने 'दूरदर्शन' के पुराने सीरियलों को लेकर दर्शकों में कोई रूचि नहीं रही! लेकिन, कोरोना के कारण हुए लॉक डाउन ने इस भ्रम खंडित कर दिया। 'दूरदर्शन' ने पुराने सीरियलों का पुनर्प्रसारण करके देश के करोड़ों दर्शकों को फिर जोड़ लिया। रामायण, महाभारत, शक्तिमान, चाणक्य और श्रीमान-श्रीमती जैसे सीरियल देखने के लिए दर्शक टूट पड़े! ऐसे ही कुछ चुनिंदा सीरियलों पर एक नजर!
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   जंगल, जंगल बात चली है पता चला है ऐसे ... चड्ढी पहन के फूल खिला है फूल खिला है! ये वो लाइन हैं जिन्हें गुलजार ने 'जंगल बुक' सीरियल के लिए लिखी थी! ये लाइनें और ये सीरियल आज भी उस दौर के दर्शकों के दिलों में बसा है! बच्चों से लेकर बड़ों तक को बेसब्री से इंतज़ार रहता था। यही क्यों 80 और 90 के दशक में दूरदर्शन पर प्रसारित ऐसे कई सीरियल हैं, जो बहुत ज्यादा पसंद किए गए। 'रामायण, महाभारत, हम लोग और 'बुनियाद' तो लोकप्रियता में मील का पत्थर थे ही, इनके अलावा भी ऐसे कई सीरियल हैं, जो निर्माण के मामले में भले ही आज से हल्के दिखाई देते हों, पर अपने कथानक कारण दर्शकों की पहली पसंद थे।    
   'जंगल जंगल पता चला है, चड्ढी पहन के फूल खिला है' गुलज़ार लिखी ये लाइन्स हर किसी को याद होंगी। इस गाने को संगीतबद्ध किया था विशाल भारद्वाज ने। इस सीरियल पत्र मोगली हर घर का चहेता था। रात में 9 बजे दूरदर्शन पर ये एनिमेटेड इंग्लिश सीरीज़ आती थी जिसे हिंदी में रूपांतरित किया गया था। कहा जाता था कि कई गाँवों में तब बिजली नहीं होती थी, तो लोग बैटरी से टीवी को जोड़कर ये शो देखते थे। इस सीरीज के 52 एपिसोड बने थे। ये दरअसल एक जापानी शो था, जिसे हिंदी में डब किया गया था। जापान में 1989 में दिखाए गए इस शो को भारत में 1993 में प्रसारित किया गया था। इसकी कहानी को रुडयार्ड किप्लिंग ने लिखा था। 2016 में इसी कहानी पर एक फिल्म भी बनी थी।
  आरके नारायण की कहानियों पर आधारित 'मालगुड़ी डेज़' भी बच्चों का ही सीरियल था, जिसकी शुरुआत 1987 में हुई थी। इसे भी लोगों ने काफी पसंद किया था। इस सीरियल में स्वामी एंड फ्रेंड्स तथा वेंडर ऑफ स्वीट्स जैसी लघु कथाएं व उपन्यास शामिल थे। इसे हिन्दी और अंग्रेज़ी में बनाया गया था। 'दूरदर्शन' पर मालगुडी डेज़ के 39 एपिसोड प्रसारित हुए थे और इसे 'मालगुडी डेज़ रिटर्न' नाम से पुनर्प्रसारित भी किया गया था।  
    भारतीय टेलीविजन इतिहास में 'हम लोग' पहला सीरियल था, जो 7 जुलाई 1984 को दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ। दर्शकों को यह शो इतना पसंद आया था कि इसके चरित्र विख्यात हो गए! इस सीरियल की कहानी लोगों की रोज़मर्रा की बातचीत का हिस्सा बन गई थी। इस सीरियल ने देश के माध्यम वर्ग की ज़िंदगी को बहुत नजदीक से दर्शाया था। इसकी लोकप्रियता का पैमाना कुछ वैसा ही था, जैसा बाद में 'रामायण' और 'महाभारत' का रहा!
  'रामायण' को भारतीय टेलीविजन के सबसे सफल सीरियलों में से एक माना जाता है। रामानंद सागर के इस सीरियल का असर ऐसा था दर्शकों की धार्मिक भावनाएं उभरकर सामने आ गईं! जबकि, रामानंद सागर पर इसके असर का चरम ये था, कि उन्होंने उसके बाद फ़िल्में बनाना ही छोड़ दिया था। दूरदर्शन पर ये सीरियल जब पहली बार प्रसारित किया गया गाँव व शहरों में कर्फ्यू जैसा माहौल हो जाता था। जिनके घरों में टीवी नहीं था, वे दूसरों के घर जाकर 'रामायण' देखते थे।
  बीआर चोपड़ा ने भी 'महाभारत' बनाकर छोटे परदे पर कुछ ऐसा ही जादू किया था। ये सीरियल 2 अक्टूबर 1988 को पहली बार प्रसारित हुआ था। इस सीरियल की शुरुआत सबसे खास हिस्सा होता था जब हरीश भिमानी की आवाज गूंजती थी 'मैं समय हूं!' ब्रिटेन में इस धारावाहिक का प्रसारण बीबीसी ने किया था, जिसकी इसकी दर्शक संख्या 50 लाख के आंकड़े को भी पार कर गई थी।
   दूरदर्शन पर 1994 में प्रसारित होने वाले 'अलीफ लैला' के दो सीज़न में 260 एपिसोड प्रसारित हुए! जादू, जिन्न, बोलते पत्थर, एक मिनट में गायब हो जाना, राजा व राजकुमारी की कहानी को मिलाकर बने इस सीरियल को लोग आज भी याद करते हैं। '1001 नाइट्स' पर आधारित इस धारावाहिक में मिस्र, यूनान, फ़ारस, ईरान और अरब देशों की बहुत सी रोमांचक कहानियां थीं जिनके हीरो 'सिन्दबाद', 'अलीबाबा और चालीस चोर', 'अलादीन' हुआ करते थे।
  रामानंद सागर ने 'रामायण' से पहले 'विक्रम और बेताल' बनाया था। इस धारावाहिक के सिर्फ 26 एपिसोड ही प्रसारित हुए थे। ये 1985 में दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ था। ये महाकवि सोमदेव की लिखी 'बेताल पच्चीसी' पर आधारित था। राजा विक्रम के किरदार अरुण गोविल ने निभाया था, उनके कंधे पर बेताल टंगा रहता था जो कहानी सुनाता और कहता था कि मुझसे सवाल मत करना वरना मैं भाग जाऊंगा।
  भारत के बच्चों को अपना पहला सुपर हीरो 'शक्तिमान' 27 सितम्बर 1997 को मिला था। इससे पहले के सारे सुपर हीरो सिर्फ कॉमिक्स बुक्स तक ही सीमित थे! लेकिन 'शक्तिमान' का अपना अलग ही क्रेज़ था। 400 एपिसोड वाला दूरदर्शन का ये शो करीब 10 साल तक चला! इस शो से शुरू हुए दो जुमले 'सॉरी शक्तिमान' और 'गंगाधर ही शक्तिमान' है आज भी प्रचलित हैं।
 'दूरदर्शन' पर 'चंद्रकांता' का प्रसारण 4 मार्च 1994 को शुरू हुआ था। देवकीनंदन खत्री के फंतासी उपन्यास पर बने इस सीरियल को लोगों ने पसंद किया। इस सीरियल के किरदार क्रूर सिंह को लोगों ने काफी सराहा। क्रूर सिंह के अलावा जादुई अय्यार, पंडित जगन्नाथ, ऐसे चरित्र थे जो आज भी लोगों को याद हैं। सीरियल देखने के लिए बड़ी बेसब्री से रविवार की सुबह का इंतज़ार किया जाता था।
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Thursday 26 March 2020

निम्मी जिसे सबसे पहले राज कपूर परदे पर लाए!

स्मृति शेष : निम्मी 


- एकता शर्मा 
   पने जीवनकाल में राज कपूर ने कई खूबसूरत चेहरों को परदे पर आने का मौका दिया! लेकिन, जिस पहले खूबसूरत नए चेहरे को उन्होंने अपनी फिल्म के लिए चुना, वो निम्मी उर्फ़ नवाब बानो थीं। निम्मी ने 16 साल तक फिल्मों में काम किया। वे ब्लैक एंड व्हाइट के दौर में दर्शकों में काफी लोकप्रिय रहीं। बुधवार को इस गुजरे ज़माने की एक्ट्रेस का निधन हो गया! वे 88 साल की थीं। निम्मी कुछ समय से बीमार चल रही थीं। उनके निधन के साथ ही बॉलीवुड के एक युग का अंत हो गया! साल 1949 से लेकर 1965 तक वे फिल्मों में सक्रिय रहीं। उन्हें अपने दौर की बेहतरीन एक्ट्रेस के तौर पर शुमार किया जाता था। निम्मी ने अपने फिल्मी करियर में कई सुपरहिट फिल्म दी। उनकी बेहतरीन फिल्मों में सजा, आन, उड़न खटोला, भाई भाई, कुंदन, मेरे महबूब, पूजा के फूल, आकाशदीप, लव एंड गॉड शामिल हैं। उन्हें हॉलीवुड से भी चार फिल्मों के ऑफर आए थे, लेकिन उन्होंने इन्हें ठुकरा दिया था। वजह ये थी कि वे हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में ही करियर बनाना चाहती थी। 
   उनके राजकपूर के सामने आने और उन्हें अपनी फिल्म की अभिनेत्री चुने जाने का किस्सा भी बेहद दिलचस्प है। एबटाबाद में पैदा हुई निम्मी जब 9 साल की थीं, तब उनकी मां का निधन हो गया था। उनकी मां वहीदन अच्छी गायिका और फिल्म अभिनेत्री थीं। उन्होंने उस समय निर्देशक महबूब खान के साथ कुछ फिल्में भी की थीं। निम्मी के पिता सेना कॉन्ट्रेक्टर के तौर पर काम करते थे। वे अपनी दादी के साथ पली और बढ़ीं। विभाजन के बाद ये परिवार भारत आ गया था। निम्मी ने अपनी मां का रिफरेंस देकर निर्माता-निर्देशक महबूब खान से मुलाकात की! वे उन दिनों 'अंदाज' बनाने की तैयारी कर रहे थे। 
  उन्होंने निम्मी को सेंट्रल स्टूडियो में बुलाया था। वे वहाँ शूटिंग देखने पहुंची और नरगिस की माताजी के पास बैठ गईं। राज कपूर का निम्मी को देखने किस्मत बदल दी। वहाँ 'अंदाज' की शूटिंग हो रही थी। इसी सेट पर निम्मी की मुलाकात राज कपूर से हुई, जो उन दिनों 'बरसात' के लिए नया चेहरा तलाश रहे थे। एक्ट्रेस के लिए नरगिस को साइन कर चुके थे। निम्मी की खूबसूरती से राज कपूर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उसे फिल्म में सेकंड लीड के रूप में काम करने का प्रस्ताव उनके सामने रखा! इसे निम्मी ने स्वीकार कर लिया। 1949 में प्रदर्शित 'बरसात' की सफलता के बाद निम्मी की इंडस्ट्री में पहचान बन गईं। 
  उनका नाम नवाब बानो से निम्मी रखे जाने के पीछे भी राज कपूर ही थे। निम्मी ने जब अपनी फिल्म का पहला शॉट दिया और उसमें वह पास हो गई, तो राज कपूर ने सेट पर मिठाई बंटवाई। निम्मी को समझ नहीं आया। जब उन्होंने असिस्टेंट से पूछा तो बताया गया कि आप इस स्क्रीन टेस्ट में पास हो गई हैं।उसके बाद ही राज कपूर आए और उन्होंने नवाब बानो को 'निम्मी' नाम दिया। 'बरसात' के पहले आई राज कपूर की फिल्म 'आग' में हीरोइन का नाम निम्मी ही था। 
  निम्मी की मौसी भी फिल्मों में ज्योति के नाम से काम किया करती थीं। उनकी शादी मशहूर संगीतकार, गायक व अभिनेता जीएम दुर्रानी से हुई थी। निम्मी की शादी मशहूर लेखक एस अली रजा से हुई और ये शादी करवाने में मशहूर अभिनेता मुकरी का बड़ा हाथ रहा। निम्मी के लेखक पति का 2007 में निधन हो गया था। उनकी कोई संतान नहीं थी और वे अपनी भांजी परवीन के साथ रहती थीं। 50 और 60 के दशक की बॉलीवुड अभिनेत्र‍ियों की बात करें, तो निम्मी का नाम सबसे ऊपर आता है। उनकी खूबसूरती का जादू सिर चढ़कर बोलता था। उन्होंने करीब एक दर्जन फिल्मों में काम किया था। 
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