Tuesday 25 October 2016

परदे से गायब किसान का दर्द!

- एकता शर्मा 

  हिंदी सिनेमा में भी किसान एक अहम विषय रहा है। इस पर कई फिल्में बनीं। रोटी, माँ, मदर इंडिया, दो बीघा जमीन, उपकार, खानदान और 'गंगा-जमुना' से लेकर 'लगान' तक सिनेमा में किसान की जिंदगी फिल्माई जाती रही हैं। लेकिन, जब से फिल्मों में कॉरपोरेट कल्चर का तड़का लगा है, 'पीपली लाइव' तक आते-आते किसान का दर्द भी फ़िल्मी मसाला बन गया! हिंदी सिनेमा में दशकों तक जमीन, किसान और मजदूर पर फिल्में बनती रहीं! लेकिन, आर्थिक उदारवाद के बाद हमारी जीवनशैली इतनी बदली कि गांव और किसान तो दूर, फिल्मों से दिवाली, होली जैसे त्यौहार भी गायब हो गए! 
     पचास और साठ के दशक में किसान और गांव की पृष्ठभूमि पर कई फ़िल्में बनी। ज्यादातर फिल्मों में साहूकार और उसके पाले हुए गुंडे पटकथा का स्थाई हिस्सा होते थे! कर्ज वसूलने के लिए ये किसान की फसलों में आग लगा देते थे। मजबूर किसान की बेटी को उठा ले जाते थे। लंबे समय तक यही पटकथा घुमा फिराकर फिल्माई जाती रही! महबूब खान द्वारा निर्देशित 'मदर इंडिया' तो एक औरत के किसानी संघर्ष और त्रासदी की महागाथा थी। इस फिल्म में गाँव की महाजनी सभ्यता की क्रूरता और अत्याचार से लड़ती औरत की मार्मिक कहानी कही गई थी। बाबूराव पेंटर की ‘साहूकारी पाश’ भी इसी तरह की ग्रामीण फिल्म थी! सत्यजित रे ने ‘पाथेर पांचाली’ बनाकर गांव और किसान के दर्द  दुनिया को दिखाया। ऋत्विक घटक की फिल्मों ने भी हाशिए पर बैठे किसानों के लिए कुछ ऐसा ही किया! बिमल राय ने भी ‘दो बीघा जमीन’ बनाई! महबूब खान से लेकर दिलीप कुमार, फिर नरगिस, राजकपूर, सुनील दत्त और मनोज कुमार, अमिताभ बच्चन ने भी गांव-किसान को महत्‍व दिया।   
   प्रेमचंद की कहानी 'हीरा-मोती' के माध्‍यम में भी किसान का दर्द बताने की पहल हुई थी। तब किसानों को साहूकारी पंजे में जकड़कर अपने ही खेतों पर बंधुआ बनाकर काम करवाना जमींदारी की पहचान बन चुकी थी। 'हीरा मोती' में फिल्मकार ने सामंती शोषण के इसी चक्र के खिलाफ आवाज उठाई थी। सआदत हसन मंटो की कहानी ‘किसान कन्या’ पर ख्वाजा अहमद अब्बास ने ‘धरती के लाल’ बनाई! बिमल राय की ‘दो बीघा जमीन’ भी सराही गई! 'गोदान' के बाद यदि किसानों की व्यथा कहीं अपने भयावह रूप में सामने आई, तो वह इस फिल्म में देखने को मिली थी। बलराज साहनी और निरूपा राय के बेहतरीन अभिनय ने इस फिल्म को और अधिक ऊँचाई दी थी। आज के दौर में आई अनुषा रिजवी की फिल्म 'पीपली लाइव' में विवश किसान की आत्महत्या को महिमा मंडित करने पर व्यंग्य था। मीडिया चैनलों, पत्रकारों तथा राजनेताओं की हास्यास्पद हरकतों पर ये तीखा व्यंग्य था। यह दिखाने की कोशिश की गई थी कि टीआरपी की होड़ में समाचार चैनल किस हद तक जा सकते हैं।  
  आशुतोष गोवारिकर की 'लगान' में विक्टोरिया युग के औपनिवेशिक भारत में जारी लगान प्रथा का कथानक था। इसके माध्यम से आशुतोष ने गुलाम भारत में लगान व्यवस्था से त्रस्त किसान की विवशता का चित्रण करने की कोशिश की थी। फिल्म के संवादों में अवधी, ब्रज तथा भोजपुरी का अद्भुत सम्मिश्रण था। 'मदर इंडिया' के बाद यह फिल्म ऑस्कर अवार्ड के लिए भारत से विदेशी फिल्म श्रेणी में भी नामित की गई थी।
-----------------------------------------------------------

No comments:

Post a Comment