Wednesday 13 February 2019

अब फिर जुटने लगे सिनेमाघरों में दर्शक


- एकता शर्मा 

   एक वो वक़्त था, जब सिनेमा घरों में महीनों तक फ़िल्में चलती थीं! 6 महीने चली तो वो 'सिल्वर जुबली' और सालभर चले तो 'गोल्डन जुबली' मनती थी। लोग भी एक ही फिल्म को कई-कई बार देखा करते थे! फर्स्ट डे, फर्स्ट शो देखने का एक अलग ही जुनून होता था। सिनेमा घरों की टिकट खिड़कियों पर मारा-मारी तक होती थी! लोग देर रात से ही टिकट की लाइन में लग जाया करते थे। अब ये सब गुजरे दिन की बात हो गई! सिंगल परदे वाले थियेटर की जगह मल्टीप्लेक्स ने ली! लेकिन, फिल्म देखने वाले आज भी वही हैं।   
  बीच में एक वक़्त भी आया जब फिल्म के दर्शक घट गए। सिनेमाघर खाली हो गए और सारे दर्शक विडीयो कैसेट के सामने सिमट गए। ये दौर लम्बे समय तक चला! सीधे शब्दों में कहा जाए तो ये सिनेमा के बुरे दिन थे। लेकिन, अब वो दौर बीत गया। अब वो हालात नहीं रहे! अब न तो फिल्मकारों को फिल्म बनाने के लिए बड़ा कर्ज लेना पड़ता है और न अपनी संपत्ति बेचना पड़ती है। अब फ़िल्में भी आसानी से दो से तीन सौ करोड़ का बिजनेस कर लेती हैं। याद किया जाए तो सिनेमा के शुरुआती दशक में 91 फिल्में बनी थी। आज सौ साल बाद सिनेमा उद्योग का चेहरा बदल चुका है। अब यहाँ हर साल एक हजार से ज्यादा फिल्में बनती है। 
   हमारे यहाँ फिल्म बनाना हमेशा से ही जुनून रहा है। दादासाहेब फाल्के ने जब 1913 में भारत में पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाई थी, तो उन्हें पत्नी के गहने तक बेचने पड़े थे। राज कपूर ने 'मेरा नाम जोकर' बनाई थी, तब उनका सबकुछ कर्ज में डूब गया था। लेकिन, अब ऐसे किस्से सुनाई नहीं देते, क्योंकि फ़िल्में ऐसा बिजनेस नहीं रह गया कि फिल्मकार की सारी पूंजी डूब जाए! भारतीय फिल्म उद्योग तेजी से आगे बढ़ रहा है। 2020 तक इस उद्योग के 23,800 करोड़ रुपए तक पहुंचने की संभावना है। पिछले दो साल में इसकी कंपाउंड एनुएल ग्रोथ रेट (सीएजीआर) 10% से ज्यादा रही है।  
    अब वे हालत नहीं है कि फ्लॉप फिल्म के निर्माता को कर्ज अदा करने के लिए अपना बंगला और गाड़ी तक गंवाना पड़ती हो! सच ये है कि अब कोई फिल्म फ्लॉप नहीं होती। कमाई से कमाई के कई तरीके खोज लिए गए हैं। फ्लॉप फिल्में भी आसानी से अपनी लागत निकालने में कामयाब हो जाती हैं। फ़िल्मी सितारों के नाम पर टिकी सिनेमा की दुनिया के अर्थशास्त्र को कॉरपोरेट कंपनियों ने अपनी पूंजी के सहारे मुनाफा कमाने के फॉर्मूले से जोड़ लिया है। बड़ी फ़िल्म के ढाई-तीन हजार प्रिंट रिलीज किए जाते हैं, जो प्रचार के दम पर तीन दिन में ही लागत के साथ मुनाफा निकाल लेती हैं। यशराज फिल्म की 'ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान' और शाहरुख़ खान की 'जीरो' इसका सबसे ताजा उदाहरण है! बड़े बजट की  फ़िल्में बुरी तरह फ्लॉप हुई। 
   फिल्म का अर्थशास्त्र पूरी तरह मुनाफे के सिद्धांत पर चलने लगा है। अब तो एनआरआई ने इस उद्योग में पैसा लगाना शुरू कर दिया। 2001 में जब सरकार ने फिल्मों को उद्योग का दर्जा दिया, इसके बाद से फिल्म उद्योग का पूरी तरह कॉरपोरेटीकरण हो गया! फिल्मों के निर्माण से इसके डिस्ट्रीब्यूशन तक के तरीके में इतना बदलाव आया कि हिट और फ्लॉप फिल्म की परिभाषा ही बदल गई। फिल्म के रिलीज से पहले ही सेटेलाइट राइट्स, अब्रॉड, म्यूजिक, वीडियो के लिए अलग-अलग राइट्स बेचे जाते हैं। इससे प्रोडक्शन हाऊस को जबरदस्त आय होती है और एक तरह से रिलीज से पहले ही फिल्म की लागत निकल आती है। देखा जाए तो यूटीवी मोशन पिक्चर्स, इरॉस, रिलायंस इंटरनेटमेंट, एडलैब्स, वायकॉम-18, बालाजी टेलीफिल्म्स और यशराज फिल्म्स जैसे प्रोडक्शन हाउसों ने सिनेमा कारोबार का पूरा खेल बदल दिया है। इनका फिल्मों में पैसा लगाने का तरीका भी अलग है। अब ये फिल्म नहीं ‘पोर्टफोलियो मैनजमेंट’ करते हैं। 
   मल्टीप्लेक्स ने भी फिल्म देखने के तरीके बदल दिए। यही कारण है कि कम बजट की फ़िल्में भी दर्शकों तक पहुंच रही है और अच्छा खासा बिजनेस कर रही है। सिर्फ कुछ अलग सी कहानी के दम पर ही निर्माता लागत से तीन से चार गुना कमाई करने लगे हैं। ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ 30 करोड़ में बनी, इसने 108.95 करोड़ का कारोबार किया। आलिया भट्ट तथा विक्की कौशल की फिल्म 'राजी' भी 30 करोड़ के बजट में बनी थी। इसने भी 123.84 करोड़  की। राजकुमार राव तथा श्रद्धा कपूर की हॉरर कॉमेडी 'स्त्री' की तो समीक्षकों ने भी तारीफ़ की। 24 करोड़ में बनी इस फिल्म ने 129 .90 करोड़ रुपए कमाए। ये तो चंद आंकड़े हैं, जो फिल्मों के बदले अर्थशास्त्र का उदाहरण हैं। ये पूरा परिवेश ही धीरे-धीरे बदल रहा है। इसीलिए समझा आने लगा है कि किसी के अच्छे दिन आए हों या नहीं, पर सिनेमा के तो अच्छे दिन आ ही गए! अब दर्शकों को हर शुक्रवार फिल्मों का इंतजार  लगा है। 
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