Saturday 25 January 2020

परदे पर देशभक्ति का तड़का लगाती फिल्में!

- एकता शर्मा
   फिल्म के परदे पर बिकने वाले हर विषय को भुनाया जाता है। उनमें एक देशभक्ति भी है। लेकिन, ये ऐसा विषय है जिसके विविध आयाम होते हैं! आजादी के परवानों की जिंदगी और उनके संघर्ष पर फिल्म बनाना देशभक्ति है, तो युद्ध आधारित ऐसी फ़िल्में जिनमें भारत ने जीत का झंडा लहराया हो, उसके प्रसंगों पर फिल्म निर्माण भी देशभक्ति ही है। अब तो ऐसे खेलों पर भी फ़िल्में बनाई गई, जिनमें भारत के खिलाड़ी जीते, उन फिल्मों को भी इसी श्रेणी में रखा गया। आजादी के संघर्ष पर कई फिल्में बनी, जिन्हें पसंद भी किया गया! ऐसी फिल्मों ने हमारे अंदर देशभक्ति का जज्बा भी जमकर जगाया! कहते हैं देशभक्ति का नशा जिसके सर चढ़ जाए सारी दुनिया उसके कदमों में होती है। देशभक्ति पर बनी ये फ़िल्में इस नशे को और बढ़ा देती हैं। 
   देशभक्ति के विषयों पर बनी ये फ़िल्में जब परदे पर आई तो दर्शकों के रोंगटे खड़े हो गए! कहा जाता है कि 1962 में आई फिल्म ‘हकीक़त’ में जब दर्शकों ने परदे पर भारतीय सैनिकों को युद्ध करते देखा तो वे खड़े होकर सैल्यूट करने लगे थे। देखा गया है कि जब भी सिनेमाघरों में देशभक्ति वाली कोई फिल्म लगती है, तो दर्शकों में अजीब सा ज़ज्बा लहरें मारने लगता है। 1952 में बनी ऐसी ही एक फिल्म थी 'आनंदमठ' जिसमें राष्ट्रगीत 'वंदे मातरम' को पहली बार दर्शाया गया था। यह फिल्म बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास 'आनंदमठ' पर ही आधारित थी। फिल्म में भारत भूषण, गीता बाली, पृथ्वीराज कपूर, प्रदीप कुमार थे। फिल्म में देश के शूरवीरों के बलिदान को दिखाया गया है। फिल्म में 18वीं शताब्दी में अंग्रेजी हुकूमत से लड़े गए क्रांतिकारियों की कहानी थी। 
  1965 में बनी 'शहीद' में मनोज कुमार थे। फिल्म की कहानी 1916 से शुरू होती है, जब भगतसिंह के चाचा अजितसिंह को ब्रिटिश शासन के खिलाफ बगावत करने के जुर्म में पुलिस गिरफ्तार करके ले जाती है। बड़े होकर भगतसिंह भी अपने चाचा के नक्शे कदमों पर चलने लगते हैं और साइमन कमीशन के खिलाफ हो रहे आंदोलन में शामिल हो जाते हैं। मनोज कुमार ने भगतसिंह के किरदार को परदे पर उतारा था। इस फिल्म की कहानी भगत के साथी बटुकेशवर दत्त ने लिखी थी। यह संयोग ही था कि जिस वर्ष में फिल्म रिलीज होने वाली थी, उसी वर्ष बटुकेशवर की मौत हो गई। 1962 में आई 'हकीकत' ऐसे सैनिकों की टुकड़ी के बारें में थी, जो लद्दाख में भारत और पाकिस्तान के बीच छिड़ी जंग का हिस्सा है।
   1997 में रिलीज हुई जेपी दत्ता की फिल्म 'बॉर्डर' भारत और पाकिस्तान के बीच लोंगोवाल में हुई जंग पर आधारित थी। इस फिल्म की खासियत ये थी कि इसमें जंग को सच्चाई के साथ दिखाया गया था। इसके अलावा फिल्म में जवानों की निजी जिंदगी की भी कहानियां थी। कोई जवान सरहद पर अपने परिवार को किस हालत में छोड़कर पर आता है! किसी का परिवार उसका इंतजार करता रहता है, कभी छुट्टी मिलने के बावजूद जवान घर नहीं जा पाते! 'बॉर्डर' को देशभक्ति पर बनी एक बेहतरीन फिल्म माना जाता है। बैन किंग्सले की 1982 में आई 'गांधी' देशभक्ति वाली फिल्म तो नहीं थी, पर इस फिल्म ने महात्मा गांधी के जीवन की सच्चाई को दर्शकों के सामने जरूर लाया था। इसमें गांधीजी से जुड़े हर पहलू को पर्दे पर दर्शाने की कोशिश की गई थी। फिल्म ने 8 ऑस्कर अवॉर्ड्स जीते थे।
   फरहान अख्तर की 2004 में आई फिल्म 'लक्ष्य' 1999 के कारगिल युद्ध के संघर्ष की ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित काल्पनिक कहानी थी। रितिक लेफ्टिनेंट करण शेरगिल की भूमिका में थे। वे अपनी टीम का नेतृत्व करके आतंकवादियों पर विजय पाते हैं। 'मंगल पांडे : द राइजिंग' क्रांतिकारी मंगल पांडे की जिंदगी पर बनी फिल्म थी, जिन्होंने 1857 में ब्रिटिश अफसरों का विद्रोह किया था। माना जाता है कि मंगल पांडे ने ही सबसे पहले अंग्रेजो के खिलाफ आजादी की जंग का आगाज किया था। 1967 में आई फिल्म मनोज कुमार की फिल्म ‘उपकार’ भी देशभक्ति से ओतप्रोत फिल्म थी। इस फिल्म को बनाने का मकसद ‘जय जवान, जय किसान’ के नारे को बुलंद करना था। फिल्म की कहानी राधा (कामिनी कौशल) और उसके दो बेटों भारत (मनोज कुमार) और पूरन (प्रेम चोपड़ा) के बीच जमीन के बंटवारे पर आधारित थी। ये तो वे चंद फ़िल्में हैं, जो उँगलियों पर गिनी गईं! बीते सौ से ज्यादा सालों में हिंदी फिल्मों के परदे पर ऐसी कई फ़िल्में बनी, जिन्होंने लोगों की देशभक्ति को झकझोर दिया था। अभी भी इन फिल्मों का दौर ख़त्म नहीं हुआ, वक़्त के साथ इनकी कहानियाँ बदली हैं, पर इनकी भावनाओं में कोई फर्क नहीं आया!  
  1953 में आई फिल्म 'झांसी की रानी' भी आजादी खिलाफ जंग लड़ने वालों पर बनने वाली फिल्मों में से एक थी। दशकों बाद एक बार फिर कंगना रनौट ने इसी विषय पर 'मणिकर्णिका' बनाकर रानी लक्ष्मीबाई का इतिहास जीवंत किया है। 1993 में वल्लभभाई पटेल पर फिल्म 'सरदार' बनाई गई और 2004 में आई 'नेताजी सुभाषचन्द्र बोस : द फॉरगॉटन हीरो' इसके बाद 2005 में आई 'मंगल पांडे : द राइजिंग' भी उन जांबाजों पर बनी फ़िल्में थीं, जिन्होंने आजादी की अलख जगाई थी। पिछले कुछ समय से देशभक्ति को खेल के साथ जोड़कर दिखाने का नया दौर शुरू हुआ है। जंग के मैदान में नहीं, तो खेल के मैदान में दुश्मनों को धूल चटाते देखना भारतीय दर्शकों को भी खूब भाता है तभी तो इस श्रेणी की फिल्में ब्लॉकबस्टर साबित होती हैं। इनमे चक दे इंडिया (2007), भाग मिल्खा भाग, मैरीकॉम (2014) और दंगल (2016) प्रमुख हैं।
   वास्तव में देशभक्ति वाली फिल्मों को एक तड़के की तरह इस्तेमाल किया गया है! लेकिन, ऐसी फिल्मों ने लोगों  जगाने का भी काम किया है। आजादी से पहले 1943 में आई फिल्म 'किस्मत' का गाना 'दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है' उस वक़्त अंग्रेज सरकार के विरोध का प्रतीक बन गया था। आजादी से पहले भारतीय फिल्मकारों की फिल्मों को ब्रिटिश सेंसर बोर्ड की मंजूरी लेना पड़ती थी। ब्रिटिश अफसरों के कमजोर भाषा ज्ञान के कारण इस फिल्म के गाने को मंजूरी मिल गई। महात्मा गांधी के 'भारत छोड़ो आंदोलन' के कुछ महीनों बाद आई ये फिल्म इस गाने की वजह से अमर हो गई।
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