Monday 11 January 2021

सत्य पॉल के बहाने साड़ी का जिक्र!

- एकता शर्मा


'सारी मध्य नारी है कि नारी मध्य सारी है, सारी ही कि नारी है कि नारी ही की सारी है!'

    पौराणिक ग्रंथ 'महाभारत' के अनुसार साड़ी की महिमा को लेकर ये शब्द दुःशासन ने उस समय कहे थे, जब वे युधिष्ठिर से जुए में द्रौपदी को जीतने के बाद उसे भरी सभा में निर्वस्त्र करने का प्रयास कर रहे थे। पर, द्रौपदी के शरीर पर लिपटी साड़ी ख़त्म ही नहीं हो रही थी। बताते हैं कि द्रौपदी ने कृष्ण से अपनी लाज बचाने की विनती की थी। तब कृष्ण ने द्रौपदी की साड़ी को अंतहीन कर दिया था और द्रौपदी निर्वस्त्र नहीं हो सकी थी। इससे लगता है कि साड़ी सिर्फ महिलाओं का पहनावा ही नहीं, उनका आत्म कवच भी है।
    साड़ी (कुछ जगह इसे सारी कहा जाता है) भारतीय महिलाओं का मुख्य परिधान है। इसे दुनिया के सबसे लम्बे और पुराने परिधानों में गिना जाता है। यह बिना सिला हुआ 5-6 मीटर का कपड़े का टुकड़ा होता है, जो अन्य वस्त्रों के ऊपर लपेटकर पहना जाता है। 'महाभारत' के अलावा साड़ी का उल्लेख 'वासस्' और 'अधिवासस्' के रूप में वेदों में भी मिलता है। यजुर्वेद में 'साड़ी' शब्द का सबसे पहले उल्लेख मिला था। दूसरी तरफ ऋग्वेद की संहिता के मुताबिक यज्ञ और अन्य धार्मिक प्रयोजनों में महिलाओं द्वारा साड़ी पहनने का विधान है। अन्य परिधानों की तरह साड़ी को पहनना आसान नहीं होता! 6 मीटर के लम्बे कपड़े को सलीके से इस तरह पहना जाता है कि वो फैशन का हिस्सा बन जाता है। महाराष्ट्र में तो इससे भी लम्बी नौ गज की साड़ी पहनने का रिवाज है।
   सदियों तक साड़ी के आकार, प्रकार और उसे पहनने के तरीके में कोई अंतर नहीं आया! लेकिन, भारतीय साड़ी को नई पहचान देने का श्रेय प्रसिद्ध फैशन डिजाइनर सत्य पॉल को जाता है। उन्होंने साड़ी को लेकर नए प्रयोग किए और नया रूप भी दिया। उन्होंने इस 6 मीटर के लम्बे कपड़े की मूल पहचान को बरक़रार रखते हुए, इसे नए नियॉन रंग और ज्यामितीय डिजाइन दी। सत्य पॉल ने 60 के दशक में फैशन की दुनिया में कदम रखा और बाद में साड़ी को लेकर नए प्रयोग करना शुरू किए। उन्होंने योरप और अमेरिका में हेंडलूम उत्पादों को भी आगे बढ़ाया और दुनिया को भारतीय परिधानों की खूबियों से अवगत कराया। 1980 में उन्होंने देश में पहली बार साड़ी बुटीक 'लाअफेयर' शुरू किया, जिसमें परंपरागत साड़ियों को नई डिजाइन में उतारा। इसके बाद 1986 में उन्होंने संजय कपूर के साथ फैशन ब्रांड 'सत्य पॉल' शुरू किया। जिसके साथ उनका बेटा पुनीत नंदा भी जुड़ा।  
     सत्य पॉल ने कफ़लिंक, टोट्स और पर्स को भी पुरुष परिधान से जोड़ा और उन्हें ब्रांड की पहचान दी। उन्होंने 80 के दशक में भारतीय फैशन को अलग रूप में बदल दिया। उन्होंने हाथ से बने वस्त्रों को प्रिंट के साथ मिश्रित किया, जो किसी ने सोचा नहीं था। साड़ियों को दिए उनके बोल्ड कलर और उनका ज्यामितीय प्रिंटों का उपयोग अद्भुत था। बाद में डिजाइन के साथ शुद्ध कॉटन वस्त्रों पर वनस्पति रंगों के उनके उपयोग ने फैशन बाजार पर गहरी छाप छोड़ी। 
   दिवंगत सत्य पॉल की आयु 79 साल थी। 2 दिसंबर को उन्हें मस्तिष्क का आघात हुआ था। वे स्वस्थ भी हो रहे थे, पर लगता था उन्हें मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था। मृत्यु से दो दिन पहले उन्होंने सद्गुरु के 'ईशा योग सेंटर' जाना चाहा और अपनी अंतिम इच्छा बताई कि उनके शरीर में इलाज के लिए जो चीजें चुभाई गई हैं उन्हें हटा दिया जाए, वे उड़ना चाहते हैं। वे सद्गुरु जग्गी वासुदेव के इस योग सेंटर में वे 2015 से रह रहे थे। इच्छा के मुताबिक उन्हें वहीं ले जाया गया और उन्होंने अपनी देह त्याग दी! 'ईशा फाउंडेशन' के संस्थापक सद्गुरु ने भी सत्य पॉल के निधन पर शोक जताया और कहा कि सत्य पॉल, बेहद जोशीले और अथक भागीदारी के साथ जीवन जीने का एक शानदार उदाहरण थे। उनके द्वारा भारतीय फैशन उद्योग में लाया गया उत्कृष्ट नजरिया है। 
   देश में साड़ी पहनने के कई तरीके हैं, जो भौगोलिक परिस्थिति और परंपरा और रुचि के अनुसार बदलते रहते हैं। अलग-अलग शैली की साड़ियों में कांजीवरम साड़ी, बनारसी साड़ी, पटोला साड़ी और हकोबा मुख्य हैं। मध्य प्रदेश की चंदेरी, महेश्वरी, मधुबनी छपाई, असम की मूंगा रशम, उड़ीसा की बोमकई, राजस्थान की बंधेज, गुजरात की गठोडा, पटौला, बिहार की टसर, काथा, छत्तीसगढ़ी कोसा रशम, दिल्ली की रेशमी साड़ियां, झारखंडी कोसा रेशम, महाराष्ट्र की पैठणी, थानी, तमिलनाडु की कांजीवरम, बनारसी साड़ियां, उत्तर प्रदेश की तांची, जामदानी, जामवर एवं पश्चिम बंगाल की बालूछरी एवं कांथा टंगैल विख्यात साड़ियाँ हैं।
   जहन में साड़ी का जिक्र आते ही भारतीय महिला का व्यक्तित्व नजरों के सामने आ जाता है। ये भारतीय महिला का मुख्य परिधान है। लेकिन, अब साड़ी को विदेशों में भी पसंद किया जाने लगा है। विदेशी महिलाओं ने भी इस भारतीय परिधान को फैशन के रूप स्वीकारा है। पुरातन समय से चली आ रही साड़ी पहनने के रिवाज में इतने सालों बाद भी बहुत ज्यादा अंतर नहीं आया। फैशन डिजाइनर सत्य पॉल ने इसमें कुछ बदलाव जरूर किया, पर वह भी इसके मूल स्वरूप को बरकरार रखते हुए। क्योंकि, इस परिधान की विशेषता ही इसे पहनने का ढंग है। आज साड़ी कई रंगों और डिजायनों में उपलब्ध है। वक्त के साथ इसमें बदलाव भी हुए, पर बहुत कम! 
   दूसरी शताब्दी में पुरुषों और स्त्रियों के ऊपरी भाग को अनावृत दर्शाया गया है। इसमें 12वीं शताब्दी तक कोई खास बदलाव नहीं आया! लेकिन, उसके बाद धर्म और पारिवारिक संस्कारों को साड़ी से जोड़कर देखा जाने लगा। धर्म के साथ साड़ी का विशेष जुड़ाव रहा है, यही कारण है कि कई धार्मिक प्रयोजनों में इसे धारण किया जाता है। धर्म और रंग का भी साड़ी पर गहरा प्रभाव देखा जा सकता है। पहले सामाजिक रीति-रिवाज के तहत विवाह के बाद महिलाएं रंगीन और डिजायनदार साड़ी पहनती थीं! लेकिन, विधवाओं को रंगीन साड़ी पहनने की इजाजत समाज नहीं देता था, इसलिए वे सफेद रंग की साड़ी पहनती थी! लेकिन, वक़्त के साथ ये परंपरा भी बदलती गई! भारतीय नारी के परिधानों की बात साड़ी के बिना कभी पूरी नहीं होती! लेकिन, जब भी साड़ी का जिक्र होगा, सत्य पॉल को जरूर याद किया जाएगा!
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