Sunday 20 August 2017

'टॉयलेट' ही नहीं हर समस्या पर हाजिर रही फ़िल्में

- एकता शर्मा 

   'टॉयलेट : एक प्रेम कथा' ने बॉक्स ऑफिस पर उम्मीद से ज्यादा सफलता पाई है। अक्षय कुमार की ये लगातार पांचवीं फिल्म भी 100 करोड़ क्लब में शामिल हो गई! जबकि, फिल्म का बजट 22 करोड़ रु. के आसपास ही है। इस लिहाज से फिल्म अपनी लागत तो निकाल ही चुकी है। फिल्म में खुले में शौच की समस्या को उठाया गया है। इस तरह ये फिल्म भी उन फिल्मों की फेहरिस्त में शामिल हो गई जो किसी समस्या को आधार बनाकर बनाई गई हैं। देखा गया है कि, अकसर फिल्मकारों को कटघरे में खड़ा करने कोशिश होती है कि उन्होंने समाज के लिए क्या किया? लेकिन, ये भुला दिया जाता है कि आजादी के पहले से आज तक फ़िल्मकार हमेशा अपने दायित्व को लेकर सजग हैं! आजादी से पहले जब लोगों में जागरूकता फैलाने जैसा काम जुर्म था, तब भी उन्होंने धार्मिक, पौराणिक और सामाजिक कहानियों के जरिए अपना कर्तव्य निभाया! 

  आजादी से पहले मूक सिनेमा वाले दौर में भी सामाजिक समस्याओं पर कई फिल्में बनाई गईं! छुआछूत की समस्या, विधवा विवाह, बेमेल विवाह, बाल विवाह, वेश्यावृत्ति जैसे जीवंत मुद्दों पर फिल्में बनी थीं। गाँव, किसान, मजदूर और बेरोजगारों के जीवन की समस्याओं को भी फिल्मों का विषय बनाया गया। इन सभी फिल्मों के कथानकों में एक संदेश भी था! कई ऐसे फिल्मकार भी सामने आए जिन्होंने सामाजिक समस्याओं पर फिल्म बनाना ही अपना लक्ष्य बनाया। आजादी के समय भी जो फिल्मकार सक्रिय थे, उन्होंने अपने तरीके से उस समय सच्चाई और समस्या को अपनी फिल्मों का विषय बनाया! फिल्मकारों को देश के निर्माताओं ने कोई क्रांतिकारी एजेंडा नहीं सौंपा था! लेकिन, फिल्मकारों को महसूस हो रहा था कि समतावादी भारत के बनने में भी कई मुश्किलें हैं जिनको दूर करना जरूरी है। औरतों की आजादी, सामाजिक समानता, गरीबी, दलित उत्पीडऩ जैसे समस्याओं के अलावा जमाखोरी, मुनाफाखोरी और लालच के लिए लिप्त रहने वालों से भी समाज को सचेत किया जा सकता है। धार्मिक और सांप्रदायिक वैमनस्य भी इसी तरह की समस्याएं थी, जिनपर फिल्मों का निर्माण हुआ! 
 एचआईवी-एड्स पर अभी तक केवल दो ही ऐसी फिल्में बनी हैं ओनीर की ;माई ब्रदर निखिल' और रेवथी की 'फ़िर मिलेंगे।' इन फिल्मों के ज़िक्र से इस विषय से सम्बंधित तमाम सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलू आँखों के तैर जाते हैं। हमारी फिल्मों में रोग का अक्सर फिल्म की पृष्ठभूमि में प्रयोग किया जाता है। 'आनंद' से लेकर 'कल हो न हो' तक कैंसर के रोगियों के पात्रों वाली कई फिल्में बनी हैं। इसी तरह 'आह' से ले कर 'आलाप' तक क्षय रोग पर फिल्में बनी हैं। इन सभी में रोग पात्रों की व्यथा और कहानी में ट्रेजेडी डालने के लिए प्रयोग किया गया है। रोग के विषय, उसके सामाजिक प्रभाव या लोगों को उसके बारे में जागरुक करने के इरादे से कम ही फिल्में बनी हैं। अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी अभिनीत फिल्म 'मिली' में जया को क्या बीमारी थी, इसका तो जिक्र भी नहीं किया गया। आशय यह कि मसला चाहे शौच का हो या रोग का या फिर कोई सामाजिक! फिल्मकारों ने हमेशा नए विषय खोजे हैं और उनसे मनोरंजन करने की कोशिश की! लेकिन, घरों में शौचालय बनाने के लिए जागरूकता लाना भी कोई फ़िल्मी विषय हो सकता है, ये सचमुच आश्चर्य है। पर, इस कमाल का पूरा श्रेय अक्षय कुमार की अदाकारी को ही दिया जाएगा।  
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