Tuesday 1 August 2017

चाँद तन्हा है, आसमां तन्हा

यादें :  : मीना कुमारी 

 -  एकता शर्मा 
   हिंदी सिनेमा की यादगार हीरोइनों का जब भी जिक्र होता है, मीना कुमारी के बिना बात पूरी नहीं होती। उन्हें आज भी सिनेमा की 'ट्रैजेडी क्वीन' कहा जाता है। यानी फिल्मों की ऐसी नायिका जिसके अभिनय में त्रासदी झलकती थी। ये उनका अभिनय ही नहीं था, जीवन की वो सच्चाई भी थी जो मीना कुमारी के अभिनय में झलकती थी। उनका तन्हापन और जीवन की उदासी का दर्द ही उनके अभिनय का सच बना रहा। दर्शक जिसे अभिनय समझते थे, वो मीना कुमारी की पीड़ा थी, जो अभिनय जरिए बाहर आती थी।
  ये भी सच है कि मीना कुमारी यदि फिल्मों में अभिनय नहीं करती तो शायरा होती। गुलजार से एक बार मीना कुमारी ने कहा भी था कि मैं जो एक्टिग करती हूं उसमें एक कमी है। जो कला मेरे अभिनय में नजर आती है, वो मेरी नहीं है। ये मुझसे नहीं जन्मा है। मेरा किरदार कहीं और जन्मा, उसे जीवंत किसी और ने किया है। जो मेरे अंदर जन्मा है वो मेरी शायरी है। मीना कुमारी ने अपनी वसीयत में भी अपनी कविताएं छपवाने का जिम्मा गुलजार को दिया था। जिसे गुलजार ने 'नाज' उपनाम से छपवाया था।
  जहाँ तक ट्रैजेडी की बात है तो मीना कुमारी पूरा जीवन अभिनेत्री के रूप में, पत्नी के रूप में, प्रेमिका के रूप में और धोखा खाती स्त्री के रूप में भटकती रही। अली बक्श की तीसरी बेटी महजबीं ही परदे पर मीना कुमारी के रूप में पहचानी गई। परिवार इतनी आर्थिक तंगी में था कि महजबीं ठीक से पढ़ भी नहीं पाई और चार साल की उम्र में उसे विजय भट्ट के सामने फिल्म 'लेदरलेस' में काम करने के लिए खड़ा कर दिया गया। करीब बीस फिल्मों में महजबीं ने बाल कलाकार के रूप में काम किया। इस कारण महज़बीं को अपने पिता और यहाँ तक कि हर पुरुष से नफरत सी हो गई थी। पिता के रूप में पुरुषों का जो चेहरा उसके जेहन में दर्ज हो गया था, वो बाद में भी मीना कुमारी की जिंदगी का हिस्सा बना रहा! मीना कुमारी की अधिकांश शुरूआती फिल्में ज्यादातर पौराणिक कथाओं वाली थी। पर, उन्हें पहचान नहीं मिली। अपनी इसी पहचान को मीना कुमारी ने लम्बे अरसे तक तलाशा!
  1952 में मीना कुमारी को विजय भट्ट की फिल्म ‘बैजू बावरा’ में मौका मिला। इसकी सफलता के बाद उन्हें अभिनेत्री के रूप में पहचाना गया। इसके बाद 'परिणीता' से मीना कुमारी का युग शुरु हुआ। इस फिल्म में उनकी भूमिका ने महिलाओं को खासा प्रभावित किया था। लेकिन, यही वो फिल्म थी जिसकी वजह से मीना कुमारी की पहचान ट्रैजेडी वाली भूमिकाएँ करने वाली अभिनेत्री की होकर रह गई। फिर भी उनके अभिनय की खास शैली, आँखों और आवाज से झलकता दर्द दर्शकों पर जादू करता रहा। गुरूदत्त की फिल्म 'साहिब बीबी और गुलाम' ने भी मीना को पहचान दिलाई। इस फिल्म के जरिए उन्होंने बहुत खूबसूरती से अपनी जिंदगी को परदे पर जीवंत किया था।
   कमाल अमरोही की ‘पाकीजा’ लगभग चौदह साल में बनी। क्योंकि, मीना और कमाल अलग-अलग थे। फिर भी उन्होंने फिल्म की शूटिंग जारी रखी। क्योंकि, ‘पाकीजा’ जैसी फ़िल्में बार-बार नहीं बनती। 1972 में जब ‘पाकीजा’ परदे पर उतरी तो दर्शक मीना कुमारी का अभिनय को देखकर मंत्रमुग्ध हो गए। इस फिल्म को आज भी मीना कुमारी के अभिनय के लिए याद किया जाता है।
  मीना कुमारी की त्रासदी का एक पक्ष उनकी निजी जिंदगी भी रहा। उनका पहला प्यार धर्मेंद्र को माना जाता है। लेकिन, धर्मेंद्र ने कभी उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। 1952 में मीना कुमारी ने फिल्म निर्देशक कमाल अमरोही के साथ शादी कर ली। लेकिन, 1964 में उन वैवाहिक जीवन में दरार आ गई। मीना अपने कामकाज में कमाल की बेवजह दखल बर्दाश्त नहीं कर सकीं। इसके बाद से दोनों ने अपने अलग रास्ते चुन लिए। इसी दर्द ने मीना को शराब से दोस्ती करवा दी। इसी शराब ने उन्हें हमसे छीन लिया था।

मीना कुमारी की तन्हाइयों का दर्द उनकी एक नज्म से भी झलकता है ...

चाँद तन्हा है आसमां तन्हा,
दिल मिला है कहां कहां तन्हा!

बुझ गई आस छुप गया तारा,
थरथराता रहा धुआँ तन्हा!

ज़िन्दगी क्या इसी को कहते हैं,
जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा!

हमसफ़र कोई गर मिले भी कहीं,
दोनो चलते रहे तन्हा तन्हा!  
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